० विदेशों में भारत को दिलाया सम्मानजनक स्थान बालक नरेन्द्र से विवेकानंद तक की यात्रा करने वाले स्वामी विवेकानंद का नाम सच्चे देश प्रेमी और म...
० विदेशों में भारत को दिलाया सम्मानजनक स्थान
बालक नरेन्द्र से विवेकानंद तक की यात्रा करने वाले स्वामी विवेकानंद का नाम सच्चे देश प्रेमी और मातृ भूमि के प्रति सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले एकमात्र संत एवं दार्शनिक के रूप में अखिल विश्व में सदैव अविस्मरणीय रहेगा। यह भारत वर्ष का सौभाग्य कहा जाना चाहिए कि ऐसे बिरले और महान विचारक ने भारत मां की कोख से जन्म लिया। आज पूरे विश्व में ऐसी शख्सियत नहीं, जिसकी तुलना स्वामी विवेकानंद जी से की जा सके। वे मानते थे कि देश के युवा ही देश की तस्वीर बदल सकते है। उन्होंने सदैव युवाओं का आह्वान करते हुए मातृभूमि की सेवा का संकल्प दोहराया। विदेशी सत्ता की दास्ता से दुखी और शोषण का शिकार हो रही अपने देश की जनता का दर्द स्वामी जी ने सबसे पहले समझा। यही कारण था कि उन्होंने अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष के लिए देशवासियों को प्रोत्साहित किया। स्वामी जी की वाणी में सरस्वती का वाश था। अपनी ओजस्वी वाणी के दम पर ही उन्होंने जनमानस के अंदर स्वतंत्रता का शंखनाद किया। बिना किसी स्वार्थ के मातृभूमि के प्रति सच्ची सेवाभक्ति के चलते ही स्वामी जी युवाओं के प्रेरणास्त्रोत बन गये।
19वीं शताब्दी में विदेशी शासन की क्रूर हरकतों से दुखी स्वामी विवेकानंद ने संघर्ष के लिए युवाओं को प्रोत्साहित करना शुरू किया। वे स्वामी विवेकानंद थे जिन्होंने अपनी प्रभावी और ओजस्वी वाणी से जनमानस के हृदय को जीतकर उनके मन में स्वतंत्रता का शंखनाद किया। अपनी जन्मभूमि और मातृभूमि के प्रति तन, मन से समर्पित स्वामी जी का मन देश भक्ति में आकंठ डूबा हुआ था। अपनी जन्मभूमि को आपाद मस्तक जंजीरों से जकड़ा देख स्वामी जी का हृदय व्याकुल हो उठता था। रोम-रोम में समाये राष्ट्र प्रेम के चलते ही उन्होंने मद्रास के अपने शिष्यों का आह्वान करते हुए कहा था ‘भारत माता हजारों युवकों की बली चाहती है, याद रखो मनुष्य चाहिए, पशु नहीं।’ अपने इस आह्वान भरे मंत्र में स्वामी जी ने जहां राष्ट्र प्रेम का जागरण किया, वहीं दूसरी ओर युवाओं को मनुष्य बनने की प्रेरणा भी प्रदान की। स्वामी जी इन शब्दों के माध्यम से यह समझाना चाहते थे कि देश को संपन्न बनाने के लिए पैसों से ज्यादा हौसले की, ईमानदारी की और प्रोत्साहन की जरूरत होती है। स्वामी विवेकानंद जी के विचारों में चिंतन और सेवा का जो मिश्रण था, वह आज भी अमृत वचन के लिए रूप में देशवासियों को जागृत करता देखा सकता है। अपने बोध गम में चिंतन के द्वारा ही स्वामी जी ने विदेशों में भारत को सम्मानित स्थान दिलाया। उनके मन की श्ुाद्धि और राष्ट्र प्रेम की झलक उस समय प्रत्यक्ष रूप से सामने आयी, जब सन 1896 में वे अपने विदेश भ्रमण से देश लौटे। जैसे ही जहाज भारत वर्ष की सरजमीं में पहुंचा, स्वामी जी ने लगभग दौड़ की मुद्रा में भारत भूमि को षाष्टांग प्रमाण किया। साथ ही समुद्र किनारे की रेत पर इस प्रकार की लोटने लगे मानो कोई बिछड़ा हुआ पुत्र अपनी मां से मिलकर उसकी गोद और आंचल में स्नेह दुलार पाना चाहता हो।
स्वामी जी ने अपने शब्दों में युवा को कुछ अलग तरह से शब्दांकित किया था। उन्होंने कहा था कि युवा का अर्थ है, स्वयं में दृढ विश्वास रखना, अपने आशावादी निश्चय तथा संकल्प का अभ्यास करना तथा स्व संस्कृति के इस सुंदर कार्य में अच्छे इरादों की इच्छा रखना। उन्होंने कहा था कि तुम्हारे ऐसे ही विचार न केवल तुम्हें बल्कि तुमसे जुड़े सभी लोगों को संतुष्टि एवं पूर्णता देंगे। युवाओं को जागृत करते हुए वे कहा करते थे कि अपने जीवन को आकार देना तुम्हारे हाथों में है। सद्गुण का अभ्यास करो, सद्गुणों के प्रति दृढ़ रहो, सद्गुणों में खुद को स्थापित करो, सद्गणों की प्रभावशाली आभा बनो और अच्छाई का अनुसरण करो। युवावस्था में हमें इन प्रक्रियाओं को संपन्न करने के लिए ही मिली है। स्वामी विवेकानंद जी को विश्वास था कि हमारा देश उठेगा, ऊपर उठेगा और इसी युवा वर्ग के बीच से ऊंचा स्थान प्राप्त करेगा। स्वामी जी को कायरता से कट्टर नफरत थी। वे कहा करते थे कायरता त्यागो, निद्रा त्यागो और स्वाधीनता को अपनी शक्ति द्वारा प्राप्त करो। वे कहा करते थे कि हमें भारतीय होने पर गर्व होना चाहिए। उन्होंने युवाओं को संदेश दिया कि हे! भाग्यशाली युवा, अपने महान कर्तव्य को पहचानो! इस अद्भुत सौभाग्य को महसूस करो, इस रोमांच को स्वीकार करो। मैं तुम्हारे महान बनने की कामना करता हूं। युवा होने का अर्थ महज नाम कमाना या पद प्राप्त करना या आधुनिक दिखने के लिए फैशनेबल तरीकों की नकल करना अथवा अप-टू-डेट होना नहीं है। सच्चाई सफलता का सार यह है कि तुम स्वयं को कैसा बनाते हो।
स्वामी विवेकानंद जी के अवतरण दिवस को युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने अपने चिर यौवनकाल में ही भारत के गौरव को पूरे विश्व में सम्मान दिलाते हुए गौरवान्वित कर दिखाया। स्वामी विवेकानंद जी ने गुलामी के दिनों में हीनता से ग्रस्त भारत देश को अनुभव कराया कि इस देश की संस्कृति अब भी अपनी श्रेष्ठता में अद्वितीय है। स्वामी जी ने देशवासियों के अंतर्मन में जीवन प्राण फूंका, उन्होंने कहा कि ‘हे! अमृत के अधिकारीगण! तुम ईश्वर की संतान हो, अमर आनंद के भागीदार हो, पवित्र और पूर्ण आत्मा हो, तुम इस मृत्युलोक के देवता हो। उठो! आओ! ऐ सिंहों! इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दो कि तुम भेड़ हो।’ तुम जरा मरणरहित नित्यानंद आत्मा हो। स्वामी जी की विद्वता और उनके विवेक के आगे नतमस्तक होकर एक बार अमेरिकी प्रोफेसर राईट ने कहा था ‘हमारे अमेरिका में जितने भी विद्वान है, उन सबके ज्ञान को यदि एकत्र भी कर लिया जाये, तो भी स्वामी विवेकानंद के ज्ञान के बराबर नहीं हो सकेगा।’
स्वामी विवेकानंद भारत वर्ष के महान सपूत, देशभक्त, समाज सुधारक और तेजस्वी सन्यासी थे। स्वामी विवेकानंद जी की शिक्षा और उनके आदर्शों को अपने जीवन में अपनाने का प्रयास करते हुए उन्हें शत-शत नमन करना हमारी सांस्कृतिक गरिमा की पहचान है। आज उनकी जयंती के अवसर पर हम स्मरण कर वंदन करें, यही उनके प्रति हमारी आदरांजलि होगी।
डा. सूर्यकांत मिश्रा
न्यू खंडेलवाल कालोनी
प्रिंसेस प्लेटिनम, हाऊस नंबर-5
वार्ड क्रमांक-19, राजनांदगांव (छ.ग.)
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’कुछ पल प्रकृति संग : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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