शिखर तक संघर्ष (अंतिम भाग 10) // प्रकाश चन्द्र पारख

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प्रकाश चन्द्र पारख की पुस्तक - Crusader or Conspirator? by P C Parakh का हिन्दी अनुवाद अनुवादक - दिनेश माली भाग 1   //  भाग 2 // भाग 3 // ...

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प्रकाश चन्द्र पारख की पुस्तक - Crusader or Conspirator? by P C Parakh का हिन्दी अनुवाद


अनुवादक - दिनेश माली

भाग 1  //  भाग 2 // भाग 3 // भाग 4 // भाग 5 // भाग 6 // भाग 7 // भाग 8 // भाग 9 //


22॰ उपसंहार

मुझे ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा है कि कब मैंने इस किताब को लिखने के बारे में सोचा था। मगर यह बहुत पहले की बात है। मैंने सेवानिवृत्त होने के बाद अपने सेवा-काल के दौरान घटित विभिन्न घटनाओं के बारे में सोचना और लिखना शुरू किया था। मगर मुझे पता नहीं था कि किसे केन्द्रित करूँ और किसे न करूँ। फिर वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में किए जा रहे द्वितीय एडमिनिस्ट्रेटिव  रिफार्म कमीशन ने मुझे  पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव और सिविल-सर्विस के मध्य संबंध” के बारे में एक पेपर तैयार करने का अनुरोध किया था। यह पेपर एडमिनिस्ट्रेटिव  रिफार्म कमीशन के विचार-विमर्श में कभी भी प्रयुक्त नहीं हुआ। मगर इस पेपर ने मुझे एम॰एल॰ए॰ ,एम॰पी॰ और मंत्रियों के साथ हुए मेरे अनुभवों को लिखने के लिए प्रेरित किया। जब मैं लिख रहा था , उसी दौरान कोलगेट पर सी॰ए॰जी॰ की रिपोर्ट आई। सी॰ए॰जी॰ पर संवैधानिक सीमाओं को पार करने तथा ‘पॉलिसी पैरालायसीस’ एवं आर्थिक मंदी पैदा करने जैसे अनुचित आरोप लगे। मुझे उनके बचाव में एक अध्याय लिखने की प्रेरणा मिली। फिर उसके बाद सी॰बी॰आई॰ ने कुमार मंगलम बिरला के खिलाफ एफ़॰आई॰आर॰ दर्ज की और मेरे ऊपर कोल ब्लॉक आवंटन में भ्रष्टाचार और षड्यंत्र जैसे आरोप लगाए। इसलिए सार्वजनिक क्षेत्र (पब्लिक डोमेन) में सारे सही तथ्यों तथा सी॰बी॰आई॰ के झूठ को सामने लाना मेरे लिए जरूरी था।

इस प्रकार एक और अध्याय जुड़ गया कोलगेट तथा सी॰बी॰आई॰ के बारे में। कुछ लोगों ने मेरे सेवा-काल के दौरान घटित घटनाओं का उल्लेख करते हुए  नकारात्मक टिप्पणियाँ की थी। इस तरह के कार्यों में ये सब अवश्यंभावी है। मगर इस किताब का उद्देश्य किसी को नीचा दिखाना या आलोचना करना नहीं है, बल्कि प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा निर्धारित कर्तव्यों का निर्वहन करते समय जो समस्याएँ और कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं,उन्हें सही जगह पर रखना हैं। मेरा मतलब किसी के प्रति विद्वेष या नफरत फैलाना नहीं है। आदमियों के काम करने या उनके व्यवहार में अपनी मजबूरियां होती है। व्यक्तिगत तौर पर मेरे संबंध बहुत लोगों से मधुर रहे, भले ही, काम के दौरान मेरा उनसे मतभेद क्यों न हुआ हों। श्री  राव और श्री सोरेन दोनों शिष्ट-जन थे। श्री राव सामान्यतया बैठकें अपने घर पर बुलाते थे। वह स्वागत-सत्कार में हमेशा आगे रहते थे तथा भरपूर मनोरंजन करते थे।अक्सर वह हमें प्रसाद तथा अपने घर में बने आंध्रप्रदेश के आचार व चटनी भेजते थे। मेरी सेवानिवृत्ति पर उन्होंने मेरे लिए ‘फेयरवेल-लंच’ का भी आयोजन किया, जिसमें उन्होंने दिल्ली में रह रहे सभी आंध्रप्रदेश  कैडर के अधिकारियों को आमंत्रित किया था और इस फेयरवेल आयोजन में मुझे व मेरी पत्नी को उपहार भी प्रदान किया था। यहाँ तक कि सांसद श्री चन्द्रशेखर दूबे (जिसके साथ मेरा झगड़ा चलता था) ने  धनबाद में विकलांगों को कृत्रिम अंग वितरित करने के लिए मेरे द्वारा आयोजित एक शिविर में अपने लोकल एरिया डेवलपमेंट फंड से 5 लाख रुपए का योगदान दिया। उद्घाटन समारोह में वह मेरे साथ मंचासीन थे। अगर यह किताब पॉलिटिकल या अन्य दबावों से मुकाबला करने तथा बिना किसी पक्षपात या डर से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में सिविल सर्विस के अधिकारियों की नई पीढ़ी को प्रोत्साहित कर सकती है तो इस पुस्तक लिखने का उद्देश्य सार्थक व सफल हों जाएगा ।

1. साक्षात्कार

हमारे देश में निष्पक्ष,ईमानदार और सही को सही कहने का साहस रखने वाली सिविल सर्विस की सख्त जरूरत है::श्री प्रकाश चन्द्र पारख,पूर्व सचिव,कोयला-मंत्रालय,भारत सरकार

आज से लगभग दो वर्ष पूर्व जिस दिन से मैंने कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव श्री प्रकाश चन्द्र पारख साहब की पुस्तक “Crusader or Conspirator?” पढ़ी थी,उसी दिन से मेरा मन उनसे मिलने के लिए आतुर हो उठा था। यह वह समय था जब देश के प्रमुख अखबारों में उनके नाम की चर्चा एवं टेलीविज़न के विभिन्न चैनलों पर उन्हें अपने पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ इंटरव्यू देते हुए मैंने पहली बार देखा था। तभी से मेरे मन में इस बात का अहसास हो गया था कि दैदीप्यमान,उज्ज्वल,तेजस्वी चेहरे वाले वाले पारख साहब के मन में सही अर्थों में,न केवल देश-प्रेम का अमिट जज्बा है वरन् सत्य,न्याय और ईमानदारी से कार्य करने वाली वह एक अनोखी ओजस्वी प्रतिमूर्ति हैं। जो इंसान अकेले अपनी आत्मा की आवाज और अपने विवेक के बल पर ममता बनर्जी,शिबू सोरेन,दसारी नारायण राव,चन्द्र शेखर दुबे जैसे खुर्रट कूटनीतिज्ञ राजनेताओं से अपनी सत्य बातों को मनवाने के लिए खुले मन से चुनौती दे सकते हैं,उस इंसान का आत्म-बल,दृढ़-संकल्प और सत्य-निष्ठा कितनी मजबूत होगी,यह मेरे लिए कल्पनातीत है,क्योंकि किसी के साथ वैचारिक मतभेद होना एक दूसरी बात हैं।मगर जिस अधिकारी को गुंडागर्द कलयुगी राजनेताओं की अपनी स्वार्थ-लिप्सा की पूर्ति के दुरुपयोग करने से रोकने हेतु संघर्ष करना पड़े तो वह अधिकारी अदम्य साहसी ही हो सकता है और अगर ऐसे महान पुरुष के घर भारत-सरकार की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई का छापा पड़ता हो तो यह देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा।

पारख साहब ने अपनी इस पुस्तक में अपने जीवन के दृष्टान्तों के माध्यम से निष्पक्षता, ईमानदारी एवं सही को सही कहने का साहस रखने की अपूर्व क्षमता जैसे मानवीय गुणों एवं आधुनिक प्रबंधन कौशल के मूल-तत्वों को देश की नई पीढ़ी के समक्ष रखकर एक अत्यंत ही सराहनीय कार्य किया हैं,जिसकी ज्योति सदियों तक इस महान पुरुष के आत्म-प्रत्यय को अमरत्व प्रदान कर झिलमिलाती रहेगी।

सही कहूँ तो,ऐसे दिग्गज पुरुष का इंटरव्यू लेने का मेरा सामर्थ्य नहीं था। मगर उनकी पुस्तक से मेरी रग-रग में संचरित नई उर्जा और जोश ने मुझे पारख साहब से मिलने के लिए विवश कर दिया। उनके व्यक्तित्त्व की चार प्रमुख विशेषताओं में निरासक्तता,निस्पृहता,निरहंकारिता और निष्पक्षता ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया। उनके घर के सामने नाम-पट्ट पर केवल लिखा हुआ था-“PARAKHS”। उनकी जगह और कोई होता तो यह अवश्य लिखता,आईएएस(रिटायर्ड़) अथवा पूर्व सचिव,भारत सरकार,मगर पारख साहब के सामने इन पदवियों का कोई मोल नहीं हैं। वे अत्यंत ही उदारवान, विनीत एवं नम्र स्वभाव के धनी हैं और उनकी जीवन साथी श्रीमती उषा पारख इन सारे गुणों में उनसे कम नहीं हैं।वह तो उनकी प्रेरणा,संकल्प-शक्ति एवं ओजस्वी विचारों की अनवरत स्रोत रही है। इसे संयोग कहूँ या और कुछ! मेरे साक्षात्कार लेने का सपना भी तब साकार हुआ,जब मैं अपनी गाल ब्लेडर की पथरी के ऑपरेशन हेतु सिकन्दराबाद की यशोदा हॉस्पिटल गया था।ऑपरेशन होने में एक दिन बाकी था और वह दिन मेरे हाथ में था,मैंने फोन पर पारख साहब से इंटरव्यू के लिए एपोइंटमेंट ले लिया। जब मैं पारख साहब से मिला तो मैंने देखा कि एक दुबली-पतली-नाटी गोरी काया पर धारीदार शर्ट एवं पैंट वाले सुंदर परिधान में सुसज्जित बड़े नंबर वाले चश्मों के पीछे से झाँकते नेत्रों में अद्भुत दिव्य चमक,होठों पर मधुर मुस्कान और घने सफ़ेद केशों से आच्छादित चेहरे पर अनोखी कान्ति का तेजो-मण्डल प्रकाशमान था। पारख साहब ने जिस सहृदयता से अपने घर में बुलाकर मेरा आदर-सत्कार किया था,मुझे ऐसा लगा कि मैं उनके घर का एक चिर-परिचित सदस्य हूँ।दुबली-पतली,मृदुभाषिनी और आत्मयिता से ओत-प्रोत उषा भाभीजी की हार्दिक खातिरदारी ने भी मुझे अति प्रभावित किया,जिसे मैं आजीवन अपनी सुखद स्मृतियों में सँजोकर रखूँगा।

साक्षात्कार अत्यंत ही सुलझे हुए ढंग से दीर्घ चार घंटे की अवधि तक चला। प्रारम्भ में इधर- उधर की औपचारिक बातें करने के बाद मैंने अपनी संरचनात्मक तरीके से तैयार की गई प्रश्नावली के माध्यम से उनके धारा-प्रवाह जवाबों के मुख्य बिन्दुओं को डायरी में लिखते चला गया ताकि इंटरव्यू की समग्रता बनी रहे।

तत्पश्चात मेरी हार्दिक इच्छा हुई कि जिस टेबल पर बैठकर पारख साहब ने सन् 2014 में कोलगेट जैसे इस सदी के महाघोटाले की सत्यता को देश की जनता के समक्ष रखकर चहुंओर हलचल मचाकर रख देने वाली अपनी पुस्तक “Crusader or Conspirator ?” का रचना-कर्म किया था,उसे देखने और उसका फोटो लेने की।मैंने उस टेबल को मन-ही-मन सारस्वत नमन करते हुए एक स्नैप लिया,जिसके आगे उनकी प्रमुख स्मृतियों का आधार फोटो-एलबम की तस्वीरें कार्ड-बोर्ड पर लगी हुई थी तथा साथ ही साथ,उनके ड्राइंग रूम में सजी हुई मुग़ल पेंटिंग की तस्वीरें,राजस्थानी आर्टिफेक्ट,सोफ़े की लकड़ी पर की गई सुंदर नक्काशी के फोटो भी खींचना नहीं भूला।कलात्मक गृह-सज्जा भले ही फ्लैट को अत्यंत ही सुंदर बना दे रही थी,मगर पारख साहब जैसे वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी की जीवन-पर्यंत ईमानदारी,सत्य-निष्ठा और ओजस्विता की चमक सिकंदराबाद की ‘जागृति रेजीडेंसी’ के समूचे अपार्टमेंट को ऐतिहासिक रूप प्रदान कर रही थी।आज नहीं तो कल,चीन के महान समाजवादी क्रांतिकारी लेखक लू-शून के शंघाई स्थित फ्लैट की तरह यह फ्लैट भी इतिहास के स्वर्ण-पन्नों पर अंकित हो जाएगा।

बातों-बातों में हंसते हुए उन्होंने बताया कि पुत्री के जन्म से हमारी मनोकामना पूर्ण हुई और हमने परिवार आगे ना बढ़ाने का निश्चय कर लिया,ताकि इस खर्चीले वातावरण में उसकी परवरिश सही हो सके।अख़बारों और टेलीविज़न के माध्यम से न केवल कोल-इंडिया के अधिकारियों,कामगारों वरन् जनता के दिलों में अपना विशिष्ट स्थान दर्ज करने वाले श्री प्रकाश चंद पारख के जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर करना ही मेरे इस साक्षात्कार का मुख्य उद्देश्य था। आशा करता हूँ हिंदी जगत में इस साक्षात्कार का भरपूर सम्मान होगा,इसके माध्यम से वर्तमान और भावी पीढ़ी देश के नव-निर्माण में अपना सार्थक योगदान देने के लिए स्व-प्रेरित होगी।

प्रश्न.1:- आप अपने बचपन,परिवार और प्रारम्भिक शिक्षा के बारे में कुछ प्रकाश डालें?

उत्तर:- दिनांक 20.12.45 को मेरा जन्म राजस्थान के जोधपुर शहर के नवचौकिया मोहल्ले में हुआ था। मेरे पिताजी का नाम श्री के. सी. पारख तथा माताजी का नाम श्रीमती चाँद कुवंर था। मेरे पिताजी स्वतन्त्रता के पूर्व जोधपुर सरकार की नौकरी में थे।वे मुझे बहुत प्यार करते थे और मुझे यह अच्छी तरह याद है कि प्रकृति-प्रेमी होने के कारण वह हर महीने एक बार हमें अपने साथ जोधपुर की पुरानी कैपिटल ‘मण्डोर’ के नैसर्गिक छटाओं से घिरे उद्यान में पिकनिक के लिए ले जाते थे।धार्मिक तौर पर यह अक्सर पूर्णिमा का दिन हुआ करता था।मेरे पिताजी जितने बाहर से सख्त और अनुशासन-प्रिय थे, भीतर से उतने ही सुकोमल एवं सवेदनशील। पहली संतान होने का मैंने भरपूर आनंद उठाया। उनका सबसे बड़ा लक्ष्य हम सब बच्चों की शिक्षा रहा।हमारी हर कामयाबी में उन्हें हमसे अधिक गर्व और खुशी की अनुभूति हुई।अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि मैं कहूं कि निष्पक्षता और स्पष्टवादिता जैसे गुण मुझे अपनी माताजी से विरासत में मिले हैं। गलत को गलत और सही को सही कहने में उन्हें कभी भी हिचकिचाहट नहीं हुई।उस जमाने में भी हमारे घर में कभी भाई-बहनों में भेदभाव नहीं हुआ।माता-पिता की ऐसी परवरिश के कारण सत्य-निष्ठा,न्यायप्रियता और अनुशासन के आदर्श संस्कारों का बीजारोपण बचपन से ही हो गया था।हमारे परिवार में 2 भाई और 2 बहने हैं।मेरा छोटा भाई श्री एस॰सी॰पारख हैदराबाद में ही डॉक्टर है।एक बहन स्नेहलता नाहटा,जो बडौदा में रहती थी,उनका दुर्भाग्यवश देहान्त हो गया।दूसरी बहन श्रीमती कुसुम सुराना दिल्ली में डॉक्टर हैं।

मेरी प्रारम्भिक शिक्षा जोधपुर में हुई। उसके पश्चात मेरे पिताजी का वहाँ से स्थानान्तरण जयपुर हो गया। अत: पांचवी कक्षा से स्नातक तक की पढाई जयपुर में सम्पन्न हुई। पांचवी कक्षा से ही मन में अव्वल आने की लगन पैदा हो गई थी,जो आजीवन मेरे साथ जुड़ी रही।

प्रश्न॰2:- आप तत्कालीन रूडकी विश्वविद्यालय (वर्तमान आईआईटी-रूडकी) से एम॰टेक (एप्लाइड ज्योलोजी) में गोल्ड मेडलिस्ट हैं। फिर आपने ज्योलोजी वाले महत्वपूर्ण सेक्टर को छोड़कर आईएएस की नौकरी करना क्या इसलिए आवश्यक समझा कि इस नौकरी को हमारे देश में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित एवं सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है या कोई और वजह थी? कृपया खुले मन से इस विषय पर प्रकाश डालें।

उत्तर:- मेरे एक अंकल ओएनजीसी में ज्योलीजिस्ट थे। उनसे प्रभावित होकर बीएससी में मैंने ज्योलोजी विषय चुना।स्नातक तक मेरे विषय फिजिक्स,मैथेमेटिक्स एवं ज्योलोजी थे। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने रूडकी विश्वविद्यालय से ज्योलोजी में एम॰टेक॰किया। यह बहुत पुराना विश्वविद्यालय होने के साथ-साथ एशिया का पहला आभियांत्रिकी कॉलेज था,जिसे थॉमसन कॉलेज ऑफ सिविल इंजीनियरिंग के नाम से जाना जाता था।इस कॉलेज में शुरू-शुरू में आर्मी के लिए इंजिनियर्स को तैयार किया जाता था।यहाँ जीवन की गुणवत्ता (Quality of Life) ही सर्वोत्‍कृष्‍ट थी। सन् 1963 में यहाँ 2000 विद्यार्थी अध्ययन करते थे। एक विशाल हॉल में एक साथ 1000 विद्यार्थी बैठकर खाना खाते थे।

(…… यह कहते हुए पारख साहब अपने अतीत में इस तरह खो जाते हैं मानो कॉलेज की पुरानी स्मृतियाँ एक-एककर ताजा हो रही हो और उनके एक-एक शब्द अंतरात्मा की अथाह गहराई से प्रतिध्वनित होकर गूंज रहे हो ....)

दाग-रहित एकदम सफेद साफ-सुथरे टेबल क्लॉथ, तवे पर फूली हुर्इ गर्म चपातियाँ आज भी याद आती हैं। पहली बार जब मैंने चप्पल पहनकर मैस में खाना खाने के लिए प्रवेश किया तो मुझे बटलर ने यह कहते हुए रोक दिया,‘‘सर,चप्प्ल्स आर नॉट एलाउड”।यह था वहाँ का कठोर अनुशासन! सितम्बर से मार्च महीने तक लम्बे सूट पहनना जरूरी हुआ करता था।फुल-शर्ट और टार्इ पहनना तो अनिवार्य था।उस समय तक ब्रिटिश परिपाटी ही चल रही थी। रुड़की विश्वविद्यालय के ज्योलोजी विभाग में एक साल में दस विद्यार्थियों का दाखिला होता था।इस तरह तीन साल के कोर्स में तीस विद्यार्थी स्नातकोत्तर होते थे। संकाय की संख्या भी दस थी। अत: तीन विद्यार्थियों पर एक संकाय की उपलब्धि क्या कम होती थी? रुड़की का अनुभव मेरे लिए अत्यन्त ही मृदु एवम् हृदयस्पर्शी रहा हैं। अध्यापकगण हमारे साथ वार्षिक ज्योलोजिकल कैंप में जाते थे। सीमित संख्या में विद्यार्थी होने के कारण सारा माहौल एक परिवार की तरह था।क्या अध्यापक,क्या विद्यार्थी, सभी एक परिवार के ताने-बाने से बुन जाते थे।

जिस वर्ष मेरी एम॰टेक की पढ़ाई पूरी हुई, उस वर्ष संघ लोक सेवा आयोग द्वारा ज्योलोजिस्ट की कोई परीक्षा नहीं हुर्इ। मैंने अपना नाम पीएचडी के लिए रजिस्‍ट्र करवा दिया। रजिस्ट्रेशन किए हुए दो-तीन महीने नहीं बीते थे कि नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ने एक्जिक्यूटिव की नियुक्तियों के लिए एक विज्ञापन दिया। मेरे गाइड डॉ॰के॰के॰ सिंह ने सलाह दी कि यदि तुम अध्यापन के क्षेत्र में नहीं आना चाहते हो पीएचडी करने में समय बर्बाद करने से कोई फायदा नहीं है। एनएमडीसी में एप्लाई कर दो। उनकी सलाह के अनुसारमैंने नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन में एप्लाई कर दिया। तीन पदों के लिए करीब सौ प्रविष्टियाँ आई थी।जो सलेक्ट हुए,अपनी अपनी यूनिवर्सिटी के टॉपर थे।श्री एच॰एस॰मदान,आईआईटी खडगपुर से,श्री पी॰एस॰एन॰ मूर्ति आन्ध्रा-यूनिवर्सिटी विशाखापट्टनम से और मैं रूडकी विश्वविद्यालय से।

मदान के पिताजी भारत सरकार में डिप्टी सैक्रेटरी थे।उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनका बेटा आईएएस अधिकारी बनें,मगर मुझे उस समय तक आईएएस की बिल्कुल भी जानकारी नहीं थी।मदान ने मुझे आईएएस की परीक्षा देने हेतु प्रेरित किया।

मेरा तीन सालों से मैथेमेटिक्स और फिजिक्स से संपर्क टूट चुका था। मैंने आईएएस देने का निश्चय किया। मैंने आईएएस की परीक्षा के लिए इंडियन हिस्ट्री,ज्योग्राफी (ज्योलोजी से थोड़ा-बहुत मिलता-जुलता विषय) और ज्योलोजी का चयन किया था और मेरे मित्र मदान ने मैथेमेटिक्स,रसियन लेंगवेज़ और ज्योलोजी का। उस समय आईएएस की परीक्षा के लिए पाँच पेपर उत्तीर्ण करने पड़ते थे। तीन पेपर स्नातक स्तर के और दो पेपर स्नातकोत्तर स्तर के चयन करने होते थे। उन दो पेपरों में से एक पेपर मुगल इतिहास चुना और दूसरा ज्योलोजी। यह थी मेरी आईएएस की परीक्षा की रणनीति।

हमारे खेतड़ी प्रोजेक्ट के चीफ ज्योलोजिस्ट डॉ. सिक्का नहीं चाहते थे कि कोर्इ भी तकनीकी विशेषज्ञ यानि टेक्नोक्रेट आईएएस बने और उसकी तकनीकी क्षमता व्यर्थ जाए। वे अक्सर हमसे कहा करते थे,“व्हाइ डू यू वांट टू बिकम बाबू ?”

आईएएस की परीक्षा में मेहनत के साथ-साथ विषयों का सही चयन और किस्मत भी जरूरी है। मैं आईएएस की लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया,जबकि मेथेमेटिक्स में बहुत कम नंबर आने के कारण मदान सफल नहीं हो सका।

अब रही इंटरव्यू की बात। आईएएस का इंटरव्यू एक घंटा चलता है। इंटरव्यू के पैनल में अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञ बैठा करते हैं, परीक्षार्थी के आत्म-विश्वास की परख करने के लिए। इस पैनल के चेयरमैन श्री सरकार ने मुझे सबसे पहला सवाल पूछा,‘‘आप एनएमडीसी जैसे पीएसयू में क्लास वन पोस्ट पर काम कर रहे हैं तो उसे छोड़कर आईएएस में क्यों आना चाहते हैं?”

मैंने उत्तर दिया,“यद्यपि पीएसयू में काम करना चुनौतीपूर्ण एवं संतोषजनक है, मगर आईएएस की नौकरी ज्यादा चुनौतीपूर्ण, ज्यादा अवसर प्रदान करने वाली और समाज में ज्यादा प्रतिष्ठाजनक है।“

करीब बीस मिनट चेयरमैन के इसी तरह के प्रश्नों का जवाब देते हुए आरामदायक अवस्था में बीत गए। बोर्ड के बाकी सभी सदस्यों के प्रश्नों के उत्तर भी मैंने पूरे आत्मविश्वास के साथ दिए। पैनल के एक सदस्य रिटायर्ड़ इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस थे। उन्होंने सवाल पूछा,“कुछ समय पूर्व दिल्ली पुलिस पर एक आयोग का गठन हुआ हैं। कृपया उस आयोग की सिफारिशों के बारे में बताएं?”

मैंने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया,‘‘सॉरी सर, आई डू नॉट नो”

पहले ही प्रयास में मेरा आईएएस में चयन हो गया।

प्रश्‍न॰3:- क्या कभी आपको सिविल सर्विस ज्वॉइन करने में जन सेवा का अच्छा अवसर या मंच मिलने की अनुभूति हुई थी?

उत्तर:- जी, हाँ। सिविल सर्विस में केन्द्र एवं राज्य सरकार के साथ कार्य करने का अवसर मिला है। जिसमें अलग-अलग क्षेत्रों के कर्इ लोग आपके संपर्क में आते हैं। सिविल सर्विस के एक अधिकारी को गरीब मजदूरों से लेकर धनाढ्य उद्योगपतियों तथा गाँव के एक सरपंच से लेकर प्रधानमंत्री के साथ कार्य निष्पादन करने का मौका मिलता हैं। इस प्रकार सिविल सर्विस के माध्यम से सामान्य जन की सेवा अच्छी तरह से की जा सकती हैं।

प्रश्न॰ 4 :- मैंने आपकी किताब “Crusader or conspirator?” ध्यानपूर्वक पढ़ी। इस पुस्तक के परिशिष्टों में बहुत सारे पत्र संलग्न किए गए हैं, जिससे यह पता चलता हैं कि आपका पूरा कैरियर करनुल जिले के कलेक्टर एवं डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट बनने के शुरूआती दिनों से ही संघर्षों से भरा हुआ था। क्या यह सत्य है? इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?

उत्तर - यह बात बिल्कुल सत्य हैं कि मेरा संपूर्ण कैरियर संघर्षमय रहा। हमारी शासन प्रणाली में राजनेताओं पर उनके समर्थकों की तरफ से तरह-तरह के दबाव आते हैं। हमारे राजनेता सही और गलत में फर्क नहीं करते हैं और सरकारी अधिकारियों पर गलत काम करने के लिए दबाव डालते हैं। मैं जब अपनी डिस्ट्रिक्ट ट्रेनिंग के दौरान जिला परिषद का काम देख रहा था,उस समय जिला परिषद के चेयरमैन श्री बापी नीडू हुआ करते थे। वे डिस्ट्रिक्ट के प्रभावशाली नेता थे। वह मेरे पास हर सप्ताह सरकारी अध्यापकों के स्थानान्तरण की पर्ची भेजा करते थे,जबकि सरकारी नियम था कि एक अध्यापक का,जब तक कोर्इ वैध कारण न हो, कम से कम तीन साल तक ना किया जाए।

श्री बापीनीडू ने वे सारी फाइलें,जिन पर मैंने अध्यापकों के स्थानान्तरण के खिलाफ सरकारी नियम के मुताबिक अपनी नोटिंग लिखी थी,अपने पास तब तक रखी,जब तक कि मेरा वहाँ का कार्यकाल पूरा नहीं हो गया। जब मैं अपने अंतिम कार्य दिवस पर उनसे विदाई लेने गया तो उन्होंने कहा,“पारख साहब, आपके लिए फाइलों पर यह टिप्पणी करना आसान है कि स्थानांतरण सरकारी नियम के विपरीत है, पर हमारे जैसे राजनैतिक नेताओं के लिए अपने वोटरों को सरकारी नियमों का उद्धरण देते हुए ‘नहीं’ कहना एक दुष्कर कार्य है। अगर हम उन्हें कृतज्ञ नहीं करेंगे तो वे हमें अपना वोट क्यों देंगे?”

मैंने उनसे कहा,“सर, आप जनता के एक चयनित नेता है।मगर आपके लिए वोटरों को आभारी बनाने की तुलना में बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देना ज्यादा जरूरी है।जिले में पढ़ार्इ सही ढंग से चल रही है या नहीं, उसका उत्तरदायित्व क्या आपके ऊपर नहीं हैं?अगर अध्यापक हर दो-तीन महीनों में ट्रांसफर होते रहे तो वे बच्चों को कैसे पढ़ा पाएंगे?”

उन्होंने कहा,“आपकी बात भी सही है किन्तु राजनेताओं के लिए अपने समर्थकों को ना कहना इतना आसान नहीं हैं।”

कहने का मतलब, राजनेताओं के लिए सबसे बड़ी भ्रामिक स्थिति यह होती है कि वह किसी को मना नहीं कर सकते हैं। प्रजातन्त्र ‘चेक एंड बैलेंस’ के सिद्धान्त पर काम करती है।हमारे संविधान में स्थायी सिविल सर्विस का प्रावधान भी इस ‘चेक एंड बेलेन्स’ का एक हिस्सा है ताकि राजनेता अपनी मनमानी न कर पाएँ और कानून के अनुसार अपने निर्णय लें। सिविल सर्विस के अधिकारी अगर र्इमानदारी और निष्पक्षतापूर्वक सही सलाह देने का साहस रखते हो तो राजनेता निर्भय होकर गलत निर्णय नहीं ले सकते हैं। इसी तरह अगर राजनेता अपने समर्थकों की असंगत अपेक्षाओं को पूरी करने से इन्कार कर दें और स्वयं जागरूक होकर गलत कार्यों की तरफ प्रवृत्त नहीं हो तो हमारे देश का लोकतांत्रिक ढांचा क्या अच्छे ढंग से नहीं चल सकता है?सरदार पटेल का दृष्टिकोण था,उनके अनुसार सिविल सेवा के अधिकारीगण को अनुशासित,योग्य,समर्पित और र्इमानदार होने के साथ-साथ राजनीतिक पार्टियों के अनुचित प्रभाव से मुक्त रहना चाहिए और उनमें राजनैतिक दबाव के बावजूद स्वतंत्र निर्णय लेने और सलाह देने का साहस होना चाहिए। किसी भी सिविल सेवा के अधिकारी का अगर कोर्इ व्यक्तिगत एजेण्डा न हो तो उसे अपनी दक्ष सेवाएं देने में किसी भी प्रकार का खतरा नहीं होता हैं। आज के सूचना के अधिकार वाले समय में राजनैतिक नेताओं के लिए भी किसी अच्छी सलाह को खारिज कर देना इतना सहज नहीं होगा।

अधिकारियों के असमय स्थानातरण हमारे लिए एक बड़ी समस्या है। श्री विमल जालान ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि हर साल उत्तर प्रदेश में एलाइट आईएएस और आईपीएस अधिकारियों का स्थानान्तरण किसी एक सरकार में अगर औसत दर 7 प्रतिदिन थी दूसरी सरकार में यह दर 16 प्रतिदिन हो गई। अगर सिविल सर्विस के अधिकारी अपने ट्रांसफर से डरेंगे तो वे देश की सेवा नहीं कर सकते हैं। अगर सैनिक अपने घर-परिवार को छोड़कर अनेक जानलेवा खतरों से जूझते हुए देश की सेवा करते है, आईएएस अधिकारियों को स्थानातरण से घबराने की क्या जरूरत है।

प्रश्न॰ 5 :- आपकी पुस्तक “Crusader or conspirator?” पढ़ने के बाद यह पता चलता है कि प्रशासन पर राजनेताओं का दबदबा सत्तरहवें-अस्सीवें दशक में भी था। इससे यह प्रतीत होता है कि स्वतंत्र भारत में आज तक ब्यूरोक्रेसी के लिए निडरतापूर्वक पक्षपातरहित होकर कार्य करने का दौर कभी भी नहीं रहा। कृपया इन पर अपनी विस्तृत टिप्पणी प्रदान करें?

उत्तर :- यद्यपि ब्यूरोक्रेसी का पतन देश की आजादी के साथ ही शुरू हो गया था मगर आपादकाल के समय(1975)यह पतन और ज्यादा तेज हो गया और साझा सरकारों के बनते-बनते अपनी चरम-सीमा तक पहुँच गया। मेरे आईएएस ज्वॉइन करने के समय अर्थात् सन् 1969 में अधिकतर अधिकारियों की र्इमानदारी में कोई संशय नहीं था। मगर अब जनता का विश्वास पूरी तरह से टूट गया हैं। जनता में ऐसी धारणा घर कर गई है कि वर्तमान समय में सिविल-सेवा में बहुत कम र्इमानदार अधिकारी बचे हैं,बाकी अधिकांश बेर्इमान अधिकारी हैं।

प्रश्न॰6:- क्या आप भारत सरकार में कोयला सचिव बनना अपने कैरियर का अभिशाप मानते हैं? अगर हाँ तो क्यों?

उत्तर - नहीं। कोयला सचिव बनना मेरे लिए कोर्इ अभिशाप नहीं था।मैं अपने कोयला सचिव के कार्यकाल से पूरी तरह संतुष्ट हूँ। मेरा यह मानना है कि मैंने भारत के कोल सेक्टर में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया हैं। उदाहरण के तौर पर -

1- जब मैने कोयला मंत्रालय ज्वॉइन किया था तब भारत के सभी विद्युत सयंत्र कोयले की गंभीर कमी से जूझ रहे थे। सात दिन से ज्यादा किसी के पास कोयले का स्टॉक नहीं था और जब मैने मंत्रालय छोड़ा तो प्रत्येक प्लांट में कम से कम पंद्रह दिनों का स्टॉक मौजूद था।

2- मेरे ज्वॉइन करने के समय कोल इंडिया की तीन अनुषंगी कंपनियाँ बीसीसीएल ,ईसीएल और सीसीएल घाटे के दौर से गुजर रही थी। मेरे मंत्रालय छोड़ते समय ये तीनों कंपनियां ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट में आ गई थी।

3- सन् 2005-2006 में मैंने कोल इंडिया में ई-आक्शन लागू करवाया।यह प्रक्रिया अब स्थायी रूप से काम कर रही है। इसी के कारण घाटे में चल रही कंपनियाँ मुनाफे में आई और कोल माफिया का प्रभाव कम हुआ।

3- मेरे समय में सभी अनुषंगी कंपनियों के सीएमडी और डायरेक्टरों की नियुक्ति मेरिट एवं दक्षता के आधार बिना किसी राजनैतिक दबाव के की गई। साधारणतया कोर्इ भी कोयला सचिव मंत्री द्वारा ठुकराए हुए प्रस्ताव को एसीसी(एपोइंटमेंट कमेटी ऑफ कैबिनेट) में नहीं भेजता है।मगर मैंने कोयला मंत्री के विरोध के बावजूद भी कोल इंडिया के चेयरमैन शशिकुमार के केस में प्रस्ताव एसीसी को भेजा और एसीसी ने उसे स्वीकार भी किया।

4- मुझे अपनी कार्यावधि में प्रत्येक सीएमडी तथा डायरेक्टर का पूरा-पूरा सहयोग मिला। मैंने उनसे कह दिया था कि वे कोई अवैध मांग, भले ही वह कोयला मंत्री से ही क्यों न आए, मानने के लिए बाध्य नहीं है। ऐसे विषयों में वे मुझे सीधे पत्र लिख सकते हैं।मेरे समय में प्रबंध निर्देशकों पर किसी तरह का राजनैतिक दबाव नहीं था।इस प्रकार से कोयला सचिव बनना मेरे लिए अभिशाप नहीं वरन देश की सेवा का एक बहुत बड़ा अवसर था।

प्रश्न॰ 7:- तालचेर कोयलाचंल के सांसद धर्मेन्द्र प्रधान द्वारा संसदीय सलाहकार समिति की एक बैठक में आपके खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग करने के कारण आपने अपनी गरिमा और आत्मनिष्ठा बचाने की खातिर प्रधानमंत्री को चिट्टी लिखकर अपना त्याग-पत्र दे दिया। इसके कलह के पीछे क्या कारण हो सकते है?

उत्तर :- धर्मेन्द्र प्रधान शायद मुझसे दो कारणों से खफा थे -

1) ई-आक्शन लागू करने के कारण तालचर कोयलांचल में काफी हद तक कोयला माफियाओं पर नकेल कस दी गर्इ थी।यह उनके क्रोध की एक वजह हो सकती है।

2) मेरे समय में कोल इंडिया में कुल मिलाकर 6 लाख श्रमिक थे। जिसमें से करीब 2.5 लाख श्रमिक जरूरत से ज्यादा थे। धर्मेन्द्र प्रधान चाहते थे कि जमींहरा अर्थात भू-विस्थापित लोगों को कोल इंडिया में रोजगार मिले।कोल इंडिया में सामान्य मजदूर का वेतन भी सामान्य वेतन से बहुत अधिक होता है।जमीन के हर छोटे टुकड़े के अधिग्रहण पर रोजगार प्रदान करना संभव नहीं है, इस प्रकार के अनुत्पादक रोजगार देकर कोल इंडिया जैसी वाणिज्यिक संस्थान को चलाना अव्यवहार्य है।

इस संदर्भ में मैंने ओड़िशा के मुख्य मंत्री और मुख्य सचिव के समक्ष वैकल्पिक प्रस्ताव रखें ताकि भू-विस्थापितों को सुनिश्चित आय भी मिल सके और सीआईएल को अनुत्पादक एवं आधिक्य श्रम-शक्ति से बचाया जा सके। किन्तु सीआईएल में रोजगार दिलवाना राजनेताओं के लिए एक बहुत बड़ा कारोबार है।

शायद इन्हीं कारणों से श्री प्रधान ने मेरे खिलाफ असंयत एवं अभद्र भाषा का प्रयोग किया। जिस वजह से मैं अपनी गरिमा एवं आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए कैबिनेट सचिव को अपनी स्वैच्छिक सेवा-निवृति के लिए एक पत्र लिखने के लिए विवश हुआ।

प्रश्न॰ 8:- कोलकाता की ममता बनर्जी,धनबाद के सासंद चन्द्रशेखर दूबे,झारखंड के शिबु सोरेन आदि नेता लोग अपनी राजनैतिक गतिविधियो को चलाने के लिए प्रशासन तंत्र का दुरूपयोग करते है और जब उनका राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध नहीं हो पाता तो दादागिरी के रास्तों का अख़्तियार करते है। क्या विदेशों में भी ऐसा कुछ होता है?

उत्तर - नहीं,विदेशों में प्रजातन्त्र की जड़े मजबूत हो चुकी है,वहाँ ऐसा नहीं होता है। वहाँ की ट्रेडिशन और कल्चर कुछ इस प्रकार की हैं कि ऐसी घटनाएं वहाँ नहीं घटती हैं। अगर ब्रिटेन का उदाहरण लें तो वहाँ पर लिखित संविधान भी नहीं हैं। वहाँ किसी भी मंत्री की इस प्रकार की गतिविधियां अगर जनता के ध्यान में आ जाती है तो उन्हें तुरंत त्याग-पत्र देना होता है। जबकि हमारे देश में ऐसा नहीं हैं। किसी भी घोटाले के पर्दाफाश होने पर हमारे नेता उसे राजनैतिक प्रतिरोध की संज्ञा देकर अपना पल्ला झाड देते हैं।

प्रश्न॰ 9 :- मैं जानता हूँ कि कोल-सेक्टर में अनेक सुधारात्मक गतिविधियों को बढ़ावा देने का श्रेय आपको जाता हैं। जिसमें ई-नीलामी के माध्यम से कोयला बिक्री की पारदर्शी एवम् नवीन विधि भी शामिल है। मगर आपको आपके हिस्से का श्रेय नहीं मिल सका। क्या आप इसके लिए कभी असंतुष्ट या अवसाद-ग्रस्त हुए हैं?

उत्तर - मनुष्य को निस्पृह-भाव से अपना काम करते रहना चाहिए। श्रेय की कभी कामना नहीं करनी चाहिए। मेरे समय में सारे अध्यक्ष-प्रबंध-निदेशक, अधिकारीगण पूरी तरह से खुश थे। इस संदर्भ में मुझे किसी भी प्रकार का दु:ख या अवसाद नहीं है।जैसा कि मैंने पहले कहा कि मैं अपने कोयला मंत्रालय के कार्यकाल से पूरी तरह संतुष्ट हूँ।

प्रश्न॰ 10 :- किसी भी स्थापित प्रणाली एवं संस्थान के खिलाफ संघर्ष करने के लिए आपके अन्दर साहस, आत्म-विश्वास और ताकत कहाँ से आती है?

उत्तर - मेरी इस शक्ति,आत्म-विश्वास और साहस के पीछे तीन लोगों का हाथ हैं। पहला, मेरे माता-पिता,जो मेरे प्रेरणा-स्रोत थे ।दूसरा,मेरी पत्नी उषा,जो पहले से ही सिविल सर्विस की सीमा-रेखा से परिचित थी और उसकी बाध्य-बाधकता को अच्छी तरह जानती थी। मेरे साले साहब 1965 बैच के आईएएस अधिकारी हैं। वे भी पूरी तरह से सत्य-निष्ठा का पालन करने वाले शख्स थे। मुझे इस बात का फक्र है कि मुझे ऐसी पत्नी मिली,जिन्होंने आजीवन कभी भी मुझे मेरे मनचाहे र्इमानदारी के पथ से डिगने नहीं दिया। इस वजह से सही मायने में,मैं अपने जीवन की सम्पूर्ण गुणवत्ता को पूरी तरह जी पाया हूँ। तीसरा, मेरी बेटी सुष्मिता। उसने कभी भी अपनी आवश्यकताओं से ज्यादा पूर्ति की मांग नहीं की।पत्नी और बच्चे की अवांछित मांगें अधिकांश समय र्इमानदार आदमी को भी डगमगा देती हैं,ऐसा हम सबने अक्सर देखा है।

( पारख साहब के उपरोक्त कथन से मुझे बुर्ला विश्वविद्यालय, सम्बलपुर के प्रबंधन-संकाय के भूतपूर्व विभागाध्यक्ष व मैनेजमेंट गुरु श्री ए॰के॰महापात्र की एक कहानी याद आ जाती है ।कहानी इस प्रकार है:-

“...... एक बार अखिल विश्व-स्तरीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सी॰ई॰ओ॰ के ‘फ्रस्टेशन-लेवल’ की जांच करने के लिए बैठक का आयोजन किया गया,जिसमें दुनिया भर के बड़े-बड़े लोगों ने भाग लिया। इस प्रयोग में पता चला कि भारतीय सी॰ई॰ओ॰ का ‘फ्रस्टेशन लेवल’’सबसे ज्यादा था। उसका कारण जानने के लिए एक टीम ने फिर से ‘व्यवहार तथा सोच’ संबंधित और कुछ प्रयोग किए। जिसमें यह पाया गया कि उनकी धर्मपत्नी बात–बात में उनके ऊपर कटाक्ष करती थी, यह कहते हुए, “आपने क्या कमाया है ? मेरे भाई को देखो।आपके एक गाड़ी है तो उसके पास चार गाड़ी है। आपके पास एक बंगला है तो उसके पास पाँच बंगले हैं। आप साल में एक बार विदेश की यात्रा करते हो तो वह हर महीने विदेश की यात्रा करता है। अब समझ में आया आपमें और उसमें फर्क ?”

ऐसे कटाक्ष सुन-सुनकर बहुराष्ट्रीय कंपनी के अट्ठाईस वर्षीय युवा सी॰ई॰ओ॰ इतना कुछ कमाने के बाद भी असंतुष्ट व भीतर ही भीतर एक खालीपन अनुभव करने लगा।पैसा,पद व प्रतिष्ठा की अमिट चाह उनके ‘फ्रस्टेशन-लेवल’ को बढ़ाते जा रही थी।

इसी बात को अपने उत्सर्ग में पारख साहब ने लिखा की सिविल सर्विस में मोडरेट वेतन मिलने के बाद भी मेरी सारी घटनाओं की साक्षी रही मेरी धर्मपत्नी ने ऐसा कभी मौका नहीं दिया,जो मेरे निर्धारित मापदंडों को उल्लंघन करने पर बाध्य करते।

पारख साहब अत्यंत ही भाग्यशाली है कि उन्हें अपने स्वभाव, गुण व आचरण के अनुरूप जीवन–संगिनी मिली। मैं बहिन सुष्मिता को भी धन्यवाद देना चाहूँगा कि अपने पिता के पथ में कभी भी किसी तरह का अवरोध खड़ा नहीं किया,बल्कि उनका हौसला बढ़ाते हुए उन्हें अपने पथ से विचलित नहीं होने दिया।

प्रश्न10(बी):- क्या कभी आपको अपने बैचमेट या ब्यूरोक्रेटिक सर्किल में से किसी ने न्याय,सत्य,ईमानदारी और पारदर्शिता के लिए संघर्ष करता हुआ देखकर अपनी तरफ से शुभ कामनाएँ प्रेषित की?

उत्तर:- सीबीआई के केस के समय मुझे सभी परिचित-अपरिचित,सर्विस कलिग्स, परिवार एवं मित्रों से भरपूर सहयोग मिला।टीवी,अखबारों एवं पत्रिकाओं में सालभर यह ज्वलंत चर्चा का विषय बना रहा।यहां तक कि हर राजनीतिक पार्टी ने सीबीआई की सर्च को गलत ठहराया। मैं अचंभित था,जब मेरे दसवीं कक्षा के मित्रों ने कहाँ-कहां से नंबर पता कर फोन पर अपना साथ दर्शाया।पाँच दशक से कुछ ज्यादा ही हो गया था,हमें मिले हुए। बीच में कोई भी संपर्क नहीं रहा।नाम याद थे मुझे,पर अब चेहरे पहचानना मुश्किल था।उन सब ने मुझसे संपर्क किया और जयपुर में मिलने का प्रोग्राम भी बना लिया।यह मेरे मन को छूने वाली घटना थी।

प्रश्न॰ 11 :- जिस समय आपके घर में सीबीआई की रेड हुर्इ,उस समय आपकी और भाभीजी की मनोदशा कैसी थी?

उत्तर – ( मुझे लगा मेरे इस प्रश्न से प्रशांत महासागर में किसी प्रक्षेपण से उथल-पुथल पैदा हो गई है,परंतु शांत स्वभाव पारख साहब महासागर की तीव्र लहरों के बीच चट्टान की तरह तटस्थ,अडिग और अविचल थे।उन्हें नीरव देखकर भाभीजी ने इस प्रश्न का उत्तर दिया। उनके शब्दों में मार्मिक कंपन था)

17 अक्टूबर 2014 की वह सुबह.... जब हम मॉर्निंग वॉक के लिए निकल ही रहे थे कि घंटी बजी और दरवाजे पर सीबीआई की करीब दस-बारह लोगों की टीम घर की सर्च के लिए खड़ी थी।यह एक अप्रत्याशित घटना थी,हमारी कल्पना से परे। मैं अपने आप को संयत नहीं रख पा रही थी,दिल-दिमाग को विश्वास नहीं हो पा रहा था कि ऐसा कुछ हो सकता है,मैं सन्न थी,क्षुब्ध थी। पारख साहब ने अंदर आकर मुझे शांत रहने के लिए कहा, और कहा सांच को आंच कहां? फिर बाहर जाकर सीबीआई अधिकारियों को अपना काम करने को कहा।

पूरे घर की तलाशी चल रही थी। टीवी में भी हमारे घर में सीबीआई के द्वारा छापा पड़ने की स्क्रॉल जारी कर दी गई थी। साथ ही, फोन की घंटियों का बजना जारी हो गया था।

पारख साहब के चेहरे पर किसी भी प्रकार की तनाव की रेखाएं नहीं थी। बिना किसी खीज या क्रोध के सौम्य,संयमित भाषा में उन्होंने सीबीआई के लोगों से पूछा कि आप लोग ढूंढ क्या रहे हैं तब उन्होंने बताया कि वे श्री कुमार मंगलम बिरला व हिंडाल्को से जुड़े हुए दस्तावेज खोज रहे हैं। पारख साहब के चेहरे पर हल्की-सी व्यंगात्मक मुस्कान आ गई और कहने लगे,“मुझे सेवानिवृत्त हुए सात साल से ज्यादा हो गए हैं। अगर हमारे बीच कुछ लेन-देन हुआ भी होगा तो उसका सबूत मैं क्यों संभाल कर रखूंगा?”

पारख साहब काफी समय से अपने संस्मरण लिख रहे थे। उन्होंने खुद वे सारे पेपर सीबीआई वालों को दे दिए और कहा,“इनकी फोटोकॉपी करवाकर मुझे दे दीजिए।” इसमें उनको आपत्ति नहीं थी। पारख साहब की किताब को लेकर हम दोनों के बीच काफी समय से बहस चल रही थी। मेरा मानना था,पद पर रहकर आप को जो करना था,आपने पूरी ईमानदारी और जिम्मेदारी से किया,उसे पूरी तरह निभाया। अब उन घटनाओं को उजागर करके उन सब लोगों से क्यों दुश्मनी मोल लेंगे। कितने अच्छे लोग भी षड्यंत्र का शिकार हो जाते हैं। सीबीआई की टीम के जाने के बाद हम रोज की तरह आराम करने चले गए। मैं नज़र रख रही थी कि उनके मन में क्या चल रहा है,क्योंकि पारख साहब स्वभाव से अपने आपको व्यक्त नहीं करते हैं।

पारख साहब का दृढ़ निश्चय था। यह देश के प्रति उनका दायित्व बनाता है कि इन घटनाओं से जनता को अवगत कराया जाए, ताकि जनमत की शक्ति से परिवर्तन का दौर चलें। मैंने पूछा,“इस घटना से आप कितने चिंतित है?” तो मेरी कल्पना से परे वे मुस्कुराने लगे। मैं अचंभित थी। कहने लगे,“जो किताब आप प्रकाशित नहीं होने देना चाह रही थी,वह किताब अपने आप अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच गई।”

जिंदगी में पारख साहब के साथ मैंने भी कई उतार चढ़ाव देखे और ऐसी विषम स्थिति में भी शांत रहकर इतना आशावादी बने रहना मेरे लिए आश्चर्यचकित करने वाला था।सीधी लड़ाई लड़ने से तो कभी डरे नहीं,पर अगर यह किसी षड्यंत्र या चाल का हिस्सा है तो शायद वह हमारे बस की बात नहीं। दिनेशजी, मैं तो आज तक भी सीबीआई सर्च का सच और उद्देश्य जान नहीं पाई।

हमें खुशी थी कि विषम परिस्थितियों में भी बड़ी सहजता से जीवन मूल्यों को निभाते हुए बड़ी सादगी और पूर्ण संतुष्टि के साथ इन्होंने अपना प्रोफेशनल कार्यकाल पूरा किया।अब पूरी तरह समाज सेवा में जुड़ गए हैं।

सेवानिवृत्ति के 7 साल बाद की इस घटना में बड़े ही असमंजस में डाल दिया। आखिर यह सब हुआ क्यों? यह कोई षड्यंत्र तो नहीं?मनी पावर,मसल पावर और न्यायपालिका के गिरते हुए स्तरों को देखकर मन में संशय होना स्वाभाविक है,क्या पारख साहब को न्याय मिल सकेगा? यह सोचकर मेरा चिंतित होना स्वभाविक ही था।

जहां तक मुझे जान पड़ता है यह देश की पहली ऐसी घटना थी,जिसमें देश की पूरी ब्यूरोक्रेसी को एकजुट खड़े देखा गया।टीवी चर्चाओं,अखबारों एवं पत्रिकाओं में करीब एक साल तक यह ज्वलंत चर्चा का विषय बना रहा।यह कैसी अभूतपूर्व घटना थी जिसमें हमेशा एक दूसरे की बात का विरोध करने वाले सारे राजनीतिक दल एक दूसरे से सहमत थे।सबने सीबीआई को गलत ठहराया,उसकी भर्त्सना की।

प्रश्न॰12 :- आपने अपने सिविल सर्विस की सारी जिंदगी ईमानदारी,सत्य-निष्ठा और कर्तव्य-परायणता के साथ बिताई, फिर ऐसी क्या वजह हुई कि सीबीआई को आपके ऊपर शक करना पड़ा?

उत्तर:- सन 1993 में कैप्टिव कोल ब्लॉकों के आवंटन हेतु स्क्रीनिंग कमेटी का गठन किया गया था,जो आवेदक कंपनी आर्थिक एवं तकनीकी का आकलन करके कोल ब्लॉक के आवंटन की सिफ़ारिश करती थी।शुरुआती सालों में बहुत कम आवेदक थे, इसलिए स्पर्धा भी कम थी। मगर सन 2003 में स्टील उद्योग में आए उछाल के कारण कोल-ब्लॉकों की मांग में अचानक बढ़ोतरी हुई और प्रत्येक कोल ब्लॉक के लिए आवेदकों की संख्या में वृद्धि होने लगी। इसलिए मैंने खुली निविदा के माध्यम से आवंटन करने का प्रस्ताव रखा। किन्तु प्रधानमंत्री की स्वीकृति के बावजूद राजनैतिक विरोध के कारण इसे अमल में नहीं लाया जा सका।

स्क्रीनिंग कमेटी ने तलाबीरा ब्लॉक-II को नेवेली लिग्नाइट कॉर्पोरेशन को आवंटित करने की सिफ़ारिश की। मगर जब कुमार मंगल बिरला ने अपने उपक्रम हिंडालको के लिए तलाबीरा ब्लॉक हेतु प्रधानमंत्री और मुझे पुनर्विचार हेतु अपना प्रेजेंटेशन दिया तो मैंने देखा कि उनके तर्कों में कुछ दम था, इसलिए प्रस्ताव पर मैंने कोयला-सचिव की हैसियत से उस ब्लॉक को जाइंट वेंचर हेतु दोनों नेवेली लिग्नाइट और हिंडालको को देने के लिए तत्कालीन कोयला-मंत्री (उस समय प्रधानमंत्री थे) से अपनी सिफ़ारिश की ,जिसे प्रधान-मंत्री ने स्वीकार कर दिया।सीबीआई को यह बात समझ में नहीं आई कि नेवेली लिग्नाइट को दिए जाने वाले ब्लॉक को स्क्रीनिंग कमेटी की सिफ़ारिशों को न मानते हुए एक भागीदार हिंडालको को कैसे बना दिया गया? इसका पूरा वर्णन मैंने अपनी पुस्तक के अध्याय “सुप्रीम कोर्ट,सीबीआई एवं कोलगेट” में किया है।बाद में सीबीआई ने अपनी क्लोज़र रिपोर्ट में मेरी सिफ़ारिश को उचित ठहराया।मुझे दुख इस बात का है कि बिना पूरा होमवर्क किए सीबीआई ने एफ़आईआर रजिस्टर की। केस की पूरी तरह से जांच करने से पहले ही उसका प्रचार-प्रसार करके सीबीआई सिविल सर्विस के वरिष्ठ अधिकारियों के आजीवन ईमानदारी की कमाई पर प्रश्न चिन्ह लगा देती हैं।

प्रश्न॰ 13 :- आपकी इस पुस्तक के प्रकाशित होने के उपरांत राजनेताओं के आचरण तथा शासन-प्रणाली में किसी भी प्रकार कोई परिवर्तन आया?

उत्तर - मुझे नहीं लगता कि कोर्इ किताब ऐसा आमूल परिवर्तन ला सकती हैं। जब तक हमारे देश की निर्वाचन पद्धति में कोई सुधार नहीं आ जाता, तब तक राजनीति में किसी भी प्रकार के परिवर्तन की उम्मीद करना बेकार हैं। मैं मोदी जी द्वारा वर्तमान राजनीति में जो सुधारात्मक कार्यक्रम किए जा रहे हैं, उनकी खुले कंठ से सराहना करता हूँ।उदाहरण के तौर पर विमुद्रीकरण की बात को ही ले लें।लघु अवधि के नुकसानों को अगर छोड़ दिया जाए तो दीर्घ अवधि में इसके फायदे अवश्य होंगे ।

प्रश्न॰ 14 :- “कॉमर्शियल टैक्सेज़” वाले अध्याय में आपने किमती नामक एक व्यापारी का उदाहरण देते हुए यह लिखा है कि आज के जमाने में कोर्इ भी व्यवसाय र्इमानदारी से नहीं किया जा सकता है, तब आपके दृष्टिकोण से र्इमानदारी लाने के लिए क्या-किया किया जाना चाहिए?

उत्तर - मुझे इस बात का दु:ख है कि जो लोग हमसे दस गुणा ज्यादा कमाते है, आधा भी इन्कम टैक्स नहीं भरते हैं। यह अन्तर क्यों? अगर वे लोग अपना पूरा-पूरा टैक्स भरे तो सरकार के राजस्व में अच्छी-खासी वृद्धि हो जाएगी। इस कार्य के लिए निर्वाचन-प्रक्रिया में ठोस संशोधन की आवश्यकता है।

मेरे दृष्टिकोण में “टेक्नॉलॉजी ब्रिंग्स ट्रांसपेरेंसी” कथन एकदम सही है।उदाहरण के तौर पर ई-टेंडरिंग,ई-आक्शन,ऑटो रिफ़ंड,ऑनलाइन पेमेंट आदि ऐसी व्यवस्थाएं हैं। अधिक से अधिक टेक्नोलोजी के उपयोग से भ्रष्टाचार स्वत: कम हो जाएगा।

प्रश्न॰ 15:- - आपनी पुस्तक के अध्याय ‘‘गोदावरी फर्टिलाइजर केमिकल लिमिटेड” में एक महाप्रबंधक (वित्त) का उदाहरण देते हुए यह बताया है कि किसी ऑर्गेनाइजेशन का मुखिया अगर भष्टाचारी है तो वो बहुत थोड़े समय में सारे ऑर्गेनाइजेशन को भ्रष्टाचार का सेसपूल बना देता है। इस पर अपने विचार प्रकट करें।

उत्तर - किसी भी ऑर्गेनाइजेशन का मुखिया अगर भ्रष्टाचारी है तो वह अपने प्रभाव का प्रयोग कर अपने अधीनस्थ अधिकारियों एवं मुख्य प्रबंधन को प्रभावित कर आराम से कुछ ही समय में भ्रष्टाचार का सेसपूल बना देता हैं। यह भ्रष्टाचार एक सिडींकेट के रूप में काम करता है और कमाए गए पैसों का आनुपातिक तौर पर सिंडीकेट के सभी लोगों में बंदर-बांट होती है।

प्रश्न॰ 16 :- समूचे देश को हिलाकर रख देने वाली आपकी पुस्तक “Crusader or Conspirator?” में उच्चतम स्तर के कर्इ सरकारी गोपनीय एवं गुप्त-पत्र संलग्न हैं। ऐसी पुस्तक लिखने के आपके संकल्प के पीछे के क्या कारण हो सकते हैं?

उत्तर - मेरी सेवा-निवृत्ति के पश्चात अपने संस्मरणों पर आधारित एक पुस्तक लिखने की सोच रहा था, लेकिन पुस्तक का क्या विषय रहेगा,क्या शीर्षक रहेगा?, इस बारे में अभी सोचा नहीं था। कुछ तो पुराने कागज मैंने पहले से ही इकट्ठे कर रखे थे और कुछ मैंने आरटीआई के माध्यम से मँगवा लिए थे।मेरे घर में हुई सीबीआई की रेड ने मेरा काम आसान कर दिया। मुझे अपने पुस्तक की थीम ‘करप्शन’ तथा शीर्षक ‘क्रूसेडर ऑर कोन्स्पिरेटर?’ मिल गया। मैंने मेरे पास समस्त जमा सामग्री को एक पुस्तक का रूप दे दिया।उसे प्रमाणिक बनाने के लिए मैंने मेरे पास सारे संचित दस्तावेजों को संलग्न कर दिया।

प्रश्न॰ 17 :- श्री पी॰सी॰पारख अपने कैरियर का मूल्यांकन किस तरह करते हैं तथा सर्विस का सबसे अच्छा फेज किसे मानते हैं और क्यों?

उत्तर - मेरा पूरा कैरियर अधिकांश संतोषजनक रहा। मगर जिन तीन क्षेत्रों में मेरा योगदान अत्यन्त ही सार्थक रहा, वे निम्न हैं:-

1) वाणिज्यिक कर विभाग में मैंने डिप्टी कमिश्नर एवं ज्वॉइंट कमिश्नर (इंफोर्समेंट विंग) के रूप में कार्य किया था और मैंने देखा कि जिन लोगों को मैंने चयनित कर इंफोर्समेंट विंग में लाया था, उन्होंने इंफोर्समेंट विंग में आने के बाद अत्यन्त ही र्इमानदारी तथा निष्ठापूर्वक कार्य किया। मैं उसे अपनी उपलब्धि मानता हूँ।

2) उद्योग विभाग में काम की सफलता का एक बड़ा कारण मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू का पूरा समर्थन था।इससे पूरे प्रदेश में निवेश का अच्छा वातावरण बना।पहली बार उद्योग विभाग की चाबी नियंत्रक से सहायक में तब्दील हो गई। मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में रिव्यू मीटिंगें हर महीने होती थी। जिससे राज्य के निवेश पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। यूके,यूएसए और साउथ ईस्ट एशिया में रोड-शो भी निकाले गए।हैदराबाद भी बैंगलुरू की तरह देश-विदेशों से निवेशकों को खींचने लगा। यहाँ तक कि बिल गेट़स और बिल क्लिंटन भी हैदराबाद की तरफ आकर्षित हुए।

3) कोल मिनिस्ट्री में सैक्रेटरी के तौर पर मैंने काम करते हुए रिफॉर्म लाने का प्रयास किया।ई-आक्शन लागू करने के साथ-साथ सीएमडी/डायरेक्टर के चयन की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने तथा हानि में डूबी अनुषंगी कंपनियों को प्रॉफ़िट में लाने की भरसक मेहनत की।

प्रश्न॰18 :- इंडियन ब्यूरोक्रेसी के नकारात्मक पहलू पर हमेशा से आलोचना होती आ रही है। क्या आप इससे सहमत है?

उत्तर - ब्यूरोक्रेसी में अच्छे और बुरे दोनों पहलू होते हैं। राजनैतिक नेतृत्व पर अधिकांश चीजें निर्भर करती हैं। सामान्यतौर पर गुजरात, आंध्र-प्रदेश और तमिलनाडु जैसे राज्यों में सिविल सर्विसेज देना बेहतर हैं,जबकि उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार आदि प्रदेशों में राजनीतिक हस्तक्षेप बहुत अधिक है। फिलहाल नीतिश कुमार के शासन-काल में बिहार के प्रशासन में काफी सुधार आया हैं।

प्रश्न॰ 19 :- ब्यूरोक्रेसी में किस प्रकार के संशोधनों की सलाह आप देना चाहेंगे?

उत्तर - किसी भी अच्छी सिविल सर्विस के तीन मूलभूत सिद्धान्त होते हैं:-

1- राजनैतिक रूप में निष्पक्षता

2- र्इमानदारी

3- जो सही हैं उसे सही कहने का साहस होना चाहिए।

अगर यह तीनों सिद्धान्त किसी भी सिविल सर्विस में लागू हो जाए तो वह एक अच्छी सिविल सर्विस कही जा सकती हैं।

प्रश्न॰20 :- आपकी पुस्तक “Crusader or Conspirator?” के प्रति लोगों का कैसा रेस्पोंस रहा? क्या आप इससे संतुष्ट है?

उत्तर - यह किताब जागरूक पाठकों द्वारा अत्यन्त ही प्रंशसित हुर्इ तथा सन् 2014 की बेस्ट सेलर किताबों में से एक थी।इन्टरनेट अमेज़न के एक सर्वेक्षण ने उस साल की संजय बारू की ‘एक्सीडेन्टल प्राइम मिनिस्टर’, मनोज मित्रा की “फिक्शन ऑफ फैक्ट फ़ाइंडिंग: मोदी एंड गोधरा”, एंडी मारिओ की “नरेन्द्र मोदी : पोलिटिकल बायोग्राफी” और सोमा बनर्जी की “द डिस्सरप्टर : अरविंद केजरीवाल” जैसी बेस्ट सेलर पुस्तकों में इसे शामिल किया था।

मैं अपनी इस किताब को लेकर काफी संतुष्ट हूँ। कई अधिकारियों और सामन्य नागरिकों ने मुझे बधाई संदेश भेजे। इससे लगता हैं इस पुस्तक ने हर क्षेत्र के पाठकों को आकर्षित किया, खासकर युवावर्ग के प्रशासनिक एवं अधिशाषी अधिकारियों को।मेरे प्रकाशक मानस पब्लिकेशन्स,नई दिल्ली के हिसाब से इस पुस्तक की करीब सोलह हजार प्रतियाँ बिक चुकी है।

प्रश्न॰21 :- मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास ‘नमक का दरोगा’ ने आपको ऐसी किताब लिखने के लिए प्रेरित किया?

उत्तर:- मुंशी प्रेमचंद के बहू-चर्चित उपन्यास ‘नमक का दरोगा’ ने मुझे अपना जीवन उपन्यास के मुख्य पात्र की तरह जीने के लिए प्रेरित किया। सीबीआई रेड की वजह से जनता के समक्ष सारे तथ्य रखने के लिए मैंने यह किताब लिखी।

प्रश्न॰22 :- क्या आपकी कोर्इ और पुस्तक लिखने की योजना हैं? अगर हैं तो इस पर विस्तार से प्रकाश डालें।

उत्तर - हाँ। दूसरी किताब की पाण्डुलिपि लगभग तैयार हैं। यह किताब पहली किताब से पूरी तरह अलग हैं। जिसमें देश की कोयला नीति, सीबीआई की जाँच और सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णयों को मैंने आधार बनाया है। यह 250 पृष्ठों की पुस्तक होगी।जिसका प्रकाशन मैं स्वयं करने की सोच रहा हूँ,क्योंकि दूसरे प्रकाशन-गृह कोर्ट की अवमानना के डर से इसे प्रकाशित करने के लिए तैयार नहीं हैं।

प्रश्न॰ 23 :- अनेक विषम परिस्थितियों के बावजूद आप भारत सरकार के सचिव-पद से सेवा-निवृत्त हुए है। क्या यह आपकी सफलता नहीं है?

उत्तर - मेरा संपूर्ण कैरियर मेरे दृष्टिकोण में सफलता से भरा हुआ था।

प्रश्न॰ 24 :- आपके दुर्दिनों के समय आपके परिवार ने आपको किस प्रकार संबल प्रदान किया?

उत्तर - मुझे मेरे परिवार से अनारक्षित समर्थन और सहयोग मिला।

प्रश्न॰25 :- कृपया आपके जीवन की कोर्इ ऐसी घटना बताएं जो आज तक आपके मानस पटल पर तरोताजा है?

उत्तर - मैंने अपनी किताब के प्रथम अध्याय में आंध्र-प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री के श्री ब्रह्मानंद रेड्डी का जिक्र किया है। जिन्हें हम उनके ऑफिसियल निवास-स्थान ‘आनंद निलयम’ विला पर सौजन्यतावश मिलने गए थे। उन्होंने जो बात कहीं थी आज भी मेरे मन-मस्तिष्क में तरोताजा हैं। उन्होंने कहा था,‘‘आज से आप, लोग राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार या ओड़िशा के नहीं हैं।आप सभी आंध्र-प्रदेश के हों। हमारे राज्य के विकास और इसके लोगों का कल्याण आपके सामर्थ्‍य एवं कठिन परिश्रम पर निर्भर करेगा। मुझे पूर्ण विश्वास हैं कि आप सभी मेरे विश्वास पर खरे उतरेंगे। अगर आपको किसी भी प्रकार की कठिनार्इ या कोई समस्या आए तो मेरे घर के दरवाजे आपके लिए सदैव खुले हैं।”

कितने उदार हृदय के थे वे! आज के राजनेताओं में इस प्रकार की उदारता, परिपक्वता और खुले विचारों वाली मानसिकता नहीं मिलेगी। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी मुझे अपने कार्यों में स्वतंत्रता और समर्थन दिया,मगर राजनैतिक दबाव के चलते उन्हें भी कर्इ जगहों पर समझौता करना पड़ता था।

प्रश्न॰ 26 :- साक्षात्कार में ऐसी कोर्इ चीज जिसके बारे में मैंने आपको कुछ नहीं पूछा हो तो उसके बारे में ध्यानाकृष्ट करें।

उत्तर - आपने सब-कुछ तो पूछ लिया हैं। ऐसा कुछ भी नहीं बचा हैं,जिसे पूछना बाकी हैं।

प्रश्न॰ 27 :- किसी भी प्रकार का कोर्इ दु:ख या पछतावा?

उत्तर - किसी भी प्रकार का कोर्इ दु:ख या पछतावा नहीं हैं।

प्रश्न॰ 28 :- क्या कोल इंडिया में सीएमडी का चयन अभी भी उसी तरह से हो रहा है, जैसे आपके समय में पारदर्शिता से हुआ करता था?

उत्तर - फिलहाल कर्इ सालों से मेरा कोयला-मंत्रालय से कोई संपर्क नहीं हैं। जहाँ तक मुझे जानकारी है, श्री पीयूष गोयल र्इमानदार छवि वाले मंत्री है और पूर्व कोयला सचिव श्री अनिल स्वरूप भी बेहद अच्छे ऑफिसर और अच्छे इंसान है। अत: मुझे लगता हैं कि आजकल भी सीएमडी का चयन मेरिट एवं दक्षता के आधार पर ही होता होगा।

प्रश्न 29 :- कुछ समय पूर्व कोयला सचिव श्री अनिल स्वरूप को कोयला मंत्रालय से हटाकर शिक्षा विभाग में अचानक क्यों दे दिया गया?

उत्तर - श्री अनिल स्वरूप का कार्यकाल अभी दो-तीन साल बचा हुआ हैं। कोल-सेक्टर में उन्होंने अच्छा नाम कमाया है। अगर उन्हें शिक्षा-विभाग में दिया गया है तो सरकार ने कुछ सोच समझकर ही दिया होगा। उस क्षेत्र में भी काफी सुधार लाने बाकी है।मुझे पूर्ण विश्वास हैं, वे इस कार्य में सफल होंगे।

प्रश्न॰ 30 :- सीबीआई के पूर्व निदेशक श्री रणजीत सिन्हा पर सीबीआई कार्यवाही कर रही हैं? इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?

उत्तर :- मुझे इस विषय में कुछ भी नहीं कहना है।

प्रश्न॰32 :- सेवानिवृत्ति के पश्चात आप दो एनजीओ चला रहे हैं, इस पर कुछ बताएं।

उत्तर - मेरा पहला एनजीओ कृत्रिम अंग लगाने में संबन्धित हैं। विकलांग लोगों के जयपुर फुट लगाकर उन्हें सहायता प्रदान की जाती हैं। अलग-अलग जिलों में कलेक्टर की सहायता से विकलांगों के लिए कैम्प लगाए जाते हैं। कलेक्टर हमें जगह और लोगों के निशुल्क खाने की सुविधा प्रदान करते हैं। एक कैम्प में 300-400 पीड़ित लोग आते हैं। हम अपने टेक्नीशियन और वर्कशॉप उन कैम्पों में ले जाते हैं। सुबह आए हुए विकलांगों को देर रात तक तथा दोपहर को आए हुए को अगली सुबह तक जयपुर फुट लगाकर विदा कर दिया जाता हैं। सारे कृत्रिम अंग नि:शुल्क ही लगाए जाते हैं। सारा काम कम्पनियों की सीएसआर स्कीम अथवा डोनेशन के माध्यम से किया जाता है।

मेरा दूसरा एनजीओ डायलासिस से संबन्धित हैं। इसके लिए हमारा एनजीओ मरीज से प्रति डायलासिस तीन सौ रुपए लेता हैं, जबकि बाहर डायलासिस करवाने पर खर्च दो से ढाई हजार प्रति डायलासिस आता हैं। मेरी जानकारी के अनुसार किडनी के मरीज का मासिक खर्च चौबीस हजार से पचास हजार आता है,जबकि हमारे यहां दवाई मिलाकर पाँच हजार के अंदर आता है। डायलासिस के हमारे चार केन्द्र हैं, जिनमें 112 मशीनें लगी हुई है। पिछले सात साल में हमने चार लाख से ज्यादा डायलासिस किए हैं।

( साक्षात्कार समाप्त करने से पूर्व पारख साहब के बारे में उनकी जीवनसंगिनी श्रीमती उषा पारख की राय जानने के लिए दो सवाल मैंने उनसे भी पूछे।)

प्रश्न.33:- अपने पति श्री प्रकाश चन्द्र पारख का मूल्यांकन कैसे करती हो? जब वे किसी तरह का कठोर निर्णय लेते होंगे तब आप के ऊपर क्या प्रभाव पड़ता था?

उत्तर :- अभी हाल ही में हमने अपने व्यावहारिक जीवन के 46 साल पूरे किए है। इतनी दीर्घावधि का मूल्यांकन कुछ पंक्तियों में कर पाना मुश्किल है। काफी विशेषता है तो आप सबको मालूम ही हैं। ये अत्यंत सहयोगी पति है,यथार्थ में अधिक विश्वास रखते हैं, जल्दी से भावुकता में बहते नहीं हैं,पर यही विशेषता हमारे संबंध को संतुलित करती है। जहां मतभेद आ जाता है,वहां हमारी पुत्री सुष्मिता का दायित्व आ जाता है। अधिकतर उसका कहा अंतिम निर्णय होता है।

पारख साहब साफ-सीधी बात करते हैं, जिसमें अक्सर व्यवहार कुशलता और टेक्ट की कमी हो जाती है। शुरू में मुझे ये बहुत अखरता था,पर धीरे-धीरे मैंने इसे इनकी विशेषता के रूप में स्वीकार कर लिया है।करीबी लोग भी इसे भली-भांति समझते हैं।

प्रश्न34:- भाभीजी,कुछ अपने परिवार की पृष्ठभूमि भी बताइए।

उत्तर:- मेरे पिताजी श्री आर॰एन॰भंडारी डायरेक्टर ऑफ एंप्लॉयमेंट थे। उन्हें ऑफिस में किसी भी काम की कोताही बर्दाश्त नहीं थी। पर व्यक्तिगत रूप में वे सब के पिता समान थे। उनकी कर्मठता और ईमानदारी की कसमें खाई जाती थी।अत्यंत स्वाभिमानी एवं प्रतिभाशाली व्यक्तित्व था उनका। मेरी माताजी धार्मिक,स्वाभिमानी एवं शालीन प्रवृत्ति की महिला थी।

उस जमाने में हमने देखा था,कई परिवारों में माता-पिता से खुलकर बातें करने की इजाजत भी नहीं होती थी। हमारे उदारवादी उन्मुक्त विचारों वाले माता-पिता ने हम सबको अपने अपने विचार व्यक्त करने के लिए सदैव प्रोत्साहित किया। तर्क और वाद-विवाद हमारी ग्रोइंग अप का अहम हिस्सा रहे। ये माहौल और संस्कार हम सब भाई बहनों को विरासत में मिले। कठिन परिश्रम,सच्चाई और नियम का पालन करते हुए आज सभी सफलता की ऊंचाइयों पर है।

प्रश्न॰35:- पारख साहब की कुछ कमजोरियों के बारे में बताना आप पसंद करेंगी?

उत्तर:- (फिर से हँसते हुए) पारख साहब आजकल मेरी सुनते नहीं हैं, अपना ध्यान भी नहीं रखते हैं। यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है। जब आसिफाबाद में साहब सब-कलेक्टर थे तो वहाँ के आदिवासियों का एक मुखिया परंपरा के अनुसार मिलने आता था, उसने इनकी तरफ देखकर कहा था,“जब तक आप अपनी पत्नी की बात मानोगे तब तक आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। हमेशा आपकी तरक्की होगी।”

(यह कहते हुए वह अपने अतीत में खो जाती है,शायद उन्हें नौकरी वाले अपने पुराने दिन याद आने लगते हैं। फिर यथार्थ में लौटकर पारख साहब की तरफ देखते हुए कहने लगती है) उस समय तो मेरी सुनते थे। नौकरी के सारे समय उन्होंने मेरी बात मानी,मगर अब ... ?

(यह कहते हुए वह नीरव हो जाती है।)

(समाप्त)

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रचनाकार: शिखर तक संघर्ष (अंतिम भाग 10) // प्रकाश चन्द्र पारख
शिखर तक संघर्ष (अंतिम भाग 10) // प्रकाश चन्द्र पारख
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