हिंदी में पद्यान्वित ...
हिंदी में पद्यान्वित
श्रीमद्भगवद्गीता
पहला अध्याय
[कुरुक्षेत्र में कौरवों और और पांडवों के बीच हो रहे युद्ध को संजय हस्तिनापुर में बैठे दिव्य-दृष्टि* से देखते रहे. युद्ध भीषण था. युद्ध के दसवें दिन भीष्मपितामह घायल होकर पृथ्वी पर गिर गए. यह बताने को संजय राजा धृतराष्ट्र के पास गए.. पितामह का घायल होना सुन राजन विकल हो उठे. उन्होंने संजय से पूछा-‘‘संजय! इस युद्ध में मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?’’
संजय ने राजा को पहले कौरव-पांडव की सेनाओं की व्यूहरचनाओं और योद्धाओं के नाम बताए. फिर कहा-‘‘राजन! युद्धारंभक शंखध्वनि के बाद अर्जुन के कहने पर कृष्ण दोनों सेनाओं के बीच रथ को ले गए. वहॉ अर्जुन दोनों पक्ष की सेनाओं में अपने ही बंधु-बांधवों को देख विषादग्रस्त हो गए और अपना धनुष-वाण त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गए.’’.
धृतराष्ट्र ने पूछा
कुरूक्षेत्र की धर्मभूमि में जुटे युद्ध- इच्छा ले
संजय! कहो किया क्या मेरे और पांडु-पुत्रों ने ।1।
संजय ने धृतराष्ट्र को पहले युद्ध-भूमि में दोनो सेनाओं की व्यूह-रचना को बतायाः
संजय ने कहा
देख उस समय व्यूहबद्ध निर्भय पांडव-सेना को
जा समीप आचार्य द्रोण के कहा नृपति दुर्योधन ।2।
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*दिव्य-दुष्टि कोई अनहोनी बात नहीं है. आज भी अमेरिका में एक व्यक्ति है टेड सीरियो जो हजारों मील दूर घट रही घटनाओं के चित्र और ध्वनि को पकड़ लेता है.-ओशो
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अ-1 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 1
यह देखें आचार्य व्यूहगत सैन्य पांडु- पुत्रों की
जिसे रचा है द्रुपद-पुत्र ने शिष्य आपके बुद्धिबली ।3।
बड़े धनुर्धर शूरवीर हैं इसमें भीमार्जुन - से
सात्यकि और विराट द्रुपद ये उद्भट महारथी हैं ।4।
धृष्टकेतु व चेकितान हैं पराक्रमी काशी - नृप
पुरुजित कुंतीभोज और हैं शैब्य वीर नरपुंगव ।5।
और विक्रमी युधामन्यु सौभद्र उत्तमौजा भट
पाँचो पुत्र द्रौपदी के हैं अगम महान रथी सब ।6।
अपने दल में भी विशिष्ट जो जानें उन्हें द्विजोत्तम!
बतलाता संज्ञार्थ आपको अपने सैन्य-नायकों को ।7।
आप भीष्म संग्राम-विजेता कृप व कर्ण विकर्ण
वीर अश्वत्थामा भूरिश्रवा सोमदत्त का पुत्र ।8।
और बहुत से शूर मेरे हित अपनी छोड़ जीवेच्छा
लड़ने को हैं डटे यहाँ ये रण-पटु युद्धविशारद ।9।
सैन्य हमारी है अजेय यह भीष्मपितामह-रक्षित
पांडव-सैन्य भीम-अभिरक्षित सुगम जीतने में है ।10।
स्थित रहकर सैन्य-व्यूह के सब प्रवेश-द्वारों पर
सभी ओर से करें भीष्म की आप सभी मिल रक्षा ।11।
इसी समय कुरुवृद्ध पितामह ने दहाड़ सिंहों-सा
फूँका अपना शंख जगा अति हर्ष सुयोधन उर में ।12।
साथ बज उठे शंख नगाड़े ढोल मृदंग नरसिंघे
गूँज उठा आकाश नाद से हल्ला हुआ भयंकर ।13।
तब अपने उत्तम रथ में थे जुते अश्व सित जिसमें
बैठे हुए कृष्ण अर्जुन ने दिव्य शंख निज फूँके ।14।
अ-1 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 2
हृषीकेश ने पांचजन्य को देवदत्त को अर्जुन
पौण्ड्र नाम के महाशंख को फूँके भीम वृकोदर ।15।
फूँके शंख अनंतविजय निज कुंती-पुत्र युधिष्ठिर
फूँका फिर सहदेव नकुल ने शंख घोष मणिपुष्पक ।16।
वीर शिखंडी महारथी वर काशीराज धनुर्धर
धृष्टद्युम्न राजा विराट व अपराजित सात्यकि ने ।17।
महाबाहु सौभद्र द्रौपदी- पुत्र महीप द्रुपद भी
शंख बजाए अपने अपने अलग उच्च स्वर में खर ।18।
शंखों के इस भयद घोष ने गुँजा दिया भू-नभ को
किया विदीर्ण धृतराष्ट्र-पुत्र के हृदय तुमुल नादों से ।19।
देख व्यवस्थित तदनंतर उन कौरव को मोर्चों पर
शस्त्र चलाने को उद्यत हो कपिध्वज धनुष उठाए ।20।
फिर कहा- ‘‘ यों लड़ने को उद्यत अर्जुन ने पहले कौरव सेना के युद्धेच्छु वीरों को देखना चाहा. वे कृष्ण से बोलेः
बोला उस क्षण वचन महीपत! हृषीकेश से ऐसे
अर्जुन ने कहा
अच्युत! खड़ा करें रथ मेरा मध्य उभय सेना के ।21।
देख न लूँ मैं जबतक इन युद्धेच्छु खड़े वीरों को
मुझे योग्य किन किन से लड़ना युद्धरूप उद्यम में ।22।
दुष्टबुद्धि दुर्योधन के इन युद्ध-हितू मित्रों को
उतावले हो लड़ने आए देखॅू मैं इन सबको ।23।
अ-1 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 3
‘‘ अर्जुन के कहने पर भगवान अपना रथ दोनों सेनाओं के बीच ले गए. और योद्धाओं के समक्ष खड़ा कर कहा- अर्जुन! लो इन युद्धवीरों को देखोः
संजय ने कहा
यों कहने पर गुडाकेश के हृषीकेश ने भारत!
उत्तम रथ अपना ले जाकर मध्य उभय सेना के ।24।
खड़ा किया सामने पितामह द्रोण महीपतियों के
और कहा-तू देख‘‘पार्थ! इन जुटे हुए कुरुओं को ।25।
देखा तभी पार्थ ने स्थित वहाँ बड़े बूढ़ों को
पुत्र पौत्र दादा मामा भ्राता आचार्य मित्रों को ।26।
उसे सुहृद व ससुर दिखे उन खड़ी सैन्य में दोनों
और देख कौंतेय उपस्थित सभी बंधु-बांधव को ।27।
‘‘युद्ध-भूमि में अपनों को देख अर्जुन ममताजनित विषाद से भर गए. भगवान से बोलेः
कहा शोकयुक्त हो वह अति दयालुता से भरकर
अर्जुन ने कहा
यहॉ खड़े युद्धेच्छु सामने देख कृष्ण! अपनों को ।28।
शिथिल हो रहे अंग मेरे है सूख रहा मुख मेरा
काँप रहा सारा शरीर तन रहे रोंगटे मेरे ।29।
छूट रहा गांडीव हाथ से दहक रही त्वचा है
भ्रमित हो रहा मन मेरा असमर्थ खड़ा होने में ।30।
केशव! देख रहा सगुनों को मैं विपरीत यहाँ हूँ
मार गिराने में अपनों को श्रेय न दिखता मुझको ।31।
4 : अ-1 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता
कृष्ण! चाहता नहीं राज्य मैं नहीं जीत सुख चाहॅू
हमें लाभ क्या राज्य भोग से व गोविंद! जीने से ।32।
जिनके लिए चाहते हम सुख भोग राज्य वे सारे
छोड़ चाह जीवन धन की हैं खड़े यहॉ युद्धातुर ।33।
वे ही ये आचार्य पितामह पुत्र पौत्र पितरगण
मामा साले ससुर सगे- संबंधी डटे हुए हैं ।34।
मुझपर करें प्रहार भले ये मैं अनिच्छु इन्हें मारूँ
मिले मुझे त्रिलोकी भी यह मधुसूदन! पृथ्वी क्या ।35।
इन धृतराष्ट्रजनों को हत कर हमें हर्ष क्या होगा
मार आततायियों को इन पाप करेंगे जनार्दन! ।36।
अतः योग्य हम नहीं बंधु धृतराष्ट्रजनों को मारें
माधव! अपने कुटुम्बियों को मार सुखी हों कैसे ।37।
यद्यपि इनकी बुद्धि लोभ से भ्रष्ट नहीं देखें ये
पाप जो मित्रद्वेष से होता दोष जो कुल नशने से ।38।
जान जनार्दन! दोष जो होता कुलविनाश से भारी
इस पाप से बचने को हम क्यों न सोचना चाहें ।39।
कुल के क्षय से हो जाता कुलधर्म नष्ट सनातन
धर्म नष्ट होने से कुल को पाप दबा देता है ।40।
कृष्ण! अधर्म बढ़ने से होतीं कुल-स्त्रियाँ दूषित
वार्ष्णेय! स्त्रियाँ मलिन तो कुलज5 वर्णसंकर हों ।41।
ले जाते कुल व कुलघ्न को नरक वर्णसंकर ये
बिना मिले श्राद्ध तर्पण के पतित पितर हों इनके ।42।
इन्हीं वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघाती के
हो जाते हैं नष्ट सनातन उभे जातिधर्म कुलधर्म ।43।
अ-1 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 5
जिनके हों कुलधर्म जनार्दन! नष्ट मनुष्यों को उन
होता नरकवास चिर ऐसा सुनते हम आए हैं ।44।
अहो खेद हम महापाप करने का निश्चय करके
सुख व राज्य-लोभ से उद्यत अपनों को हतने को ।45।
मुझ सामनाविमुख निहत्थे को यदि कौरव रण में
मारें हाथ अस्त्र-शस्त्र ले तो भी है शुभ मेरा ।46।
‘‘ विषाद से ग्रस्त वह इस तरह सोच दुविधा में पड़ गए और लड़ने से विरत हो अपने धनुष-बाण त्याग दिएः
संजय ने कहा
इसप्रकार कह युद्धभूमि में शोक-उद्विग्न हो अर्जुन
बैठ गया रथ में पीछे को धनुष बाण तज अपना ।47।
अर्जुनविषादयोग नाम का पहला अघ्याय समाप्त
6 : अ-1 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता
दूसरा अध्याय
[अर्जुन को ममत्वजनित विषाद से भरे देख कृष्ण ने टोका-‘‘अर्जुन, इस विषम घड़ी में तुझे यह मोह कहाँ से हो आया? यह कायरता है. यह तेरे हृदय की दुर्ललता है.’’
किंतु अर्जुन दुबिधा में पड़े थे. वह अपने तीखे बाणों से पूज्य गुरु द्रोण, पितामह और अपनों पर कैसे प्रहार करे. सोचा, इससे तो भीख का अन्न खाना अच्छा है..
तब मधुसूदन ने हॅसकर कहा- ‘‘तू दुविधा में पड़ गया है. इस दुविधा को छोड़. यह मत सोच कि इस क्षण ज्ञान का मार्ग अपनाऊॅ कि कर्म का. यह दुविधा असमय है.
अर्जुन! यदि तू ज्ञानमार्ग को अपनाते हो तो तू देहधारी है. देह का अपना स्वधर्म है. यह आत्मा के होने से ही सक्रिय है. यह आत्मा अमर है. यह एक देह से दूसरी देह में चली जाती है. वह न किसी को मारती है न किसी के द्वारा मारी जाती है. देह मरती है और मारी भी जाती है. तू नाशवान का शोक छोड़. तू क्षत्रिय है, लड़ना तेरा स्वधर्म है. यह युद्ध तुझे अपने आप प्राप्त हुआ है. तूने इसकी योजना नहीं की है. तू लड़.
कर्मयोग के मार्ग में निश्चय करने वाली एक बुद्धि होती है. वह एक ही होती है. वह प्राणिमात्र में समता देखने वाली होती है. तू समबुद्धि से युद्ध (कर्म) कर. तेरा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं. इस योग में अकर्म में भी आसक्ति छोड़नी पड़ती है.बुद्धियोग कर्म से श्रेष्ठ है. समबुद्धि से कर्म करने से तू कर्म के बंधन में नहीं बँधेगा.]
‘‘राजन! तब विषाद से ग्रस्त अर्जुन को भगवान ने टोकाः
संजय ने कहा
वैसी दया से भर ऑंसू से भरी विकल ऑंखों वाले
दुखी हो रहे अर्जुन से उस तब बोले मधुसूदन ।1।
श्री भगवान ने कहा
अर्जुन! यह इस विषम घड़ी में मोह कहाँ से हुआ तुझे
यह आचरण न सत्पुरुषों का न ही कीर्ति दे स्वर्ग न ही ।2।
छोड़ नपुंसकता को पार्थ! इस, तुझे न यह शोभा देती
त्याग क्षुद्र दुर्बलता उर की उठो परंतप! युद्ध निमित्त ।3।
अ-2 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 7
‘‘भगवान के टोकने पर अर्जुन ने अपने मन में उठे संशय को उनके सामने रखाः
अर्जुन ने कहा
मधुसूदन! गुरु द्रोण भीष्म से कैसे युद्ध करूँगा
तीक्ष्ण शरों से युद्धभूमि में पूज्य हैं वे अरिसूदन! ।4।
हत्या न कर परम पूज्य इन महानुभाव गुरुओं की
श्रेय समझता हूँ मैं जग में अन्न भीख का खाना
धनलोलुप हों गुरु तोभी हत उन्हें यहाँ इस जग में
भोग भोगने हमें पड़ेंगे सने रुधिर से उनके ।5।
नहीं जानता क्या करना है श्रेष्ठ हमारे हित में
या तो उन्हें जीत लें हम या हमें जीत लें वे ही
जिन्हें मारकर नहीं हमें इच्छा जीवित रहने की
वे ही सब धृतराष्ट्र-पुत्र हैं खड़े सामने डट के ।6।
मैं कायरतारूप दोष से उपहत हुए प्रकृति का
मोहचित्त हूँ धर्म विषय में अतः पूछता तुझसे
कहो वही जो निश्चित ही है मेरे लिए श्रेयस्कर
मैं हूँ तेरा शिष्य, शरण तेरी, मुझको समझाओ ।7।
यदपि मिले समृद्ध राज्य भी निष्कंटक पृथ्वी का
या फिर मिले देवताओं का आधिपत्य भी मुझको
तो भी नहीं दीखता मेरा शोक दूर हो जाए
सुखा डालने वाला है यह विकल इंद्रियों को इन ।8।
संजय ने कहा
यों कह हृषीकेश से फिर उस गुडाकेश ने राजन!
कहा ‘‘करूँगा युद्ध नहीं गोविंद!’’ हुआ चुप कहकर ।9।
8 : अ-2 : हिदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्हीता
हे भारत ! तब उभय सैन्य के मध्य दुखी होते उस
अर्जुन के प्रति हृषीकेश ने कहा वचन हँसते-से ।10।
‘‘ भ्गवान अर्जुन को विषादमुक्त कर उन्हें स्वाभाविक स्थिति में लाना चाहते थे. उन्होंने पहले ज्ञानयोग की बातें की. कहा-देह नाशवान ह.ै आत्मा इसे गति देती है. यह अमर है. मरती तो देह है. देह के मरने पर आत्मा दूसरी देह धारण कर लेती है.
श्री भगवान ने कहा
तू अशोच्य का शोक करे व बातें करे पंडितों-सी
प्राण रहें या जाएँ किसी के पंडित शोक नहीं करते ।11।
ऐसा तो है नहीं कि पहले मैं था नहीं न भूप न तू
और न हो सकता है ऐसा आगे पुनः न होंगे हम ।12।
ज्यों देही की देह में होती बाल्य, युवा, जरावस्था
मिलती अन्य देह त्यों उसको मोह न उसका धीर करें ।13।
शीतउष्ण सुख-दुखदाता कौंतेय! विषय-इंद्रिय-संयोग
आते जाते हैं अनित्य वे भारत! इसे सहन तू कर ।14।
पुरुषर्षभ ! जो सुख दुख में सम धीर न इनसे विचले
वह समर्थ होता पाने में अमृत-तत्व की स्थिति ।15।
विद्यमान न भाव असत का न अभाव ही सत का
तत्वदर्शियों ने देखे हैं तत्व - रुप दोनों के ।16।
जानो उसको अविनाशी जो व्याप्त किया है सब जग
कोई कर सकता विनाश न इस अनंत अनाशी का ।17।
अप्रमेय नित्य अविनाशी देही को जो प्राप्त शरीर
कहे गये हैं नाशवान ये अतः युद्ध तू कर भारत! ।18।
जो जाने देही हतकर्ता और जो इसे मरा माने
दोनों ही जानते न सच यह हते नहीं न हता जाता ।19।
अ-2 : हिदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्हीता : 9
यह न जन्मता मरे कभी न होकर पुनः न होने को
नित्य पुरातन अज शाश्वत यह देह बधे न बधा जाता ।20।
पुरुष जो जाने इसे अजन्मा और नित्य अव्यय अक्षर
पार्थ! किसी को मारे कैसे कैसे किसी को मरवाए ।21।
जैसे त्याग जीर्ण वस्त्रों को अन्य नया धारता पुरुष
वैसे ही तज जीर्ण देह, देही नव अन्य ग्रहण करता ।22।
इसे न शस्त्र काट सकता न अग्नि इसे जला सकती
इसे न नीर भिंगा सकता न मारुत इसे सुखा सकता ।23।
इसे न काटा गला जलाया न ही सुखाया जा सकता
अचल नित्य सर्वव्यापी यह स्थिर और सनातन है ।24।
इंद्रिय मन का विषय नहीं यह रहितविकार कहलाए
जान अतः देही को ऐसा उचित नहीं शोक करना ।25।
यदि तू माने नित्य जन्मता और नित्य मरता देही
तो भी महाबाहु! चाहिए शोक न करना तुझको ।26।
क्योंकि मृत्यु ध्रुव है जन्मे का और जन्म ध्रुव मृत का
अतः जो होना अपरिहार्य है शोक न उसका समुचित ।27।
प्राणी सभी अदेह आदि में भारत! देह मघ्य में हो
मृत्यु बाद फिर हों अदेह वे उनके लिए शोक कैसा ।28।
इसे कोई देखे विस्मय-सा कहे कोई साश्चर्य इसे
कोई इसे सुने अचरज-सा सुनकर भी न कोई जाने ।29।
भारत! नित अबध्य देही है जान देह में सबकी
तुझे चाहिए किसी प्राणि के लिए न शोक करे तू ।30।
अपने क्षात्रधर्म को भी लख ठीक न विचलित होना
धर्म्य युद्ध से बढ़ क्षत्रिय का अन्य श्रेयकर कर्म नहीं ।31।
10 : अ-2 : हिदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्हीता
अपनेआप प्राप्त युद्ध यह स्वतः स्वर्ग का द्वार खुला
भाग्यवान क्षत्रिय ही पाते पार्थ! युद्ध यह अनुपम ।32।
अब यदि तू यह युद्ध धर्ममय नहीं करे तो अपना
खोकरके स्वधर्म कीर्ति तू प्राप्त पाप को होगा ।33।
तब तेरी सुदीर्घ अकीर्ति सब लोग कहेंगे बढ़चढ़
यह अपकीर्ति मृत्यु से बढ़कर माननीय सच नर को ।34।
महारथी समझेंगे डर तू भाग गया इस रण से
जिनमें तू बहुमान्य वही सब समझेंगे लघु तुझको ।35।
निंदा कर तेरे सामर्थ्य की शत्रु कहेंगे बातें
कहनी जो चाहिए नहीं है इससे बड़ा दुख ही क्या ।36।
रण में मरा तो स्वर्ग मिलेगा जीत तू पृथ्वी भोगे
अतः उठो कौंतेय! युद्ध के लिए पूर्ण निश्चय कर ।37।
सुखदुख लाभहानि पराजय-जय को जान एक जैसा
उठ लग जा इस विकट युद्ध में तुझे न पाप लगेगा ।38।
‘‘भगवान की दृष्टि उनकी मनोदशा पर भी थी. उन्हें लगा जैसे ज्ञानयोग की बातें वे समझ नहीं रहे. तब उन्होंने उनसे कर्मयोग की बातें कहीं. कहा- इस योग में समत्वबुद्धि से केवल कर्म करने में अधिकार होता है, फल में नहीं. अकर्म में भी आसक्ति नहीं रखनी होती.
कही पार्थ! यह सांख्ययोग में कर्मयोग में सुन अब
वह समत्वबुद्धि जुड़ जिससे कर्म-बंध को त्यागे ।39।
नाश न इसके समारंभ का और नहीं फल उलटा
थोड़ा भी आचरण बचा ले महा जन्म-मृतु-भय से ।40।
बुद्धि एक निश्चयवाली है श्रेयमार्ग में कुरुनंदन!
होती बहु भेदोंवाली यह बुद्धि सकाम पुरुषों की ।41।
अ-2 : हिदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्हीता : 11
वेद उक्त कामना-कर्म से प्रीति जो करें सकामी
‘सिवा़ भोग के नहीं और कुछ’ पार्थ! यों कहनेवाले।42।
जो कहते हैं श्रेष्ठ स्वर्ग को मूढ़ दिखाऊ कहते
ऐसी बहुत क्रियाएँ जो दे भोगैश्वर्य जन्म-फल को ।43।
उस वाणी से खिंच आसक्त जो भोगैश्वर्य में पूरा
उनके अंतस्तल में होती बुद्धि न निश्चयवाली ।44।
त्रिगुण विषय से वेद भरे अर्जुन! होओ निस्त्रैगुण
द्वन्द्वरहित निर्योगक्षेम हो आत्मवान सत्वस्थ सदा ।45।
भरे जलाशय के सम नर को रखे अर्थ जो गड्ढा
वेदों से उतना ही प्रयोजन ब्रह्मज्ञानि को होता ।46।
मात्र तेरा अधिकार कर्म करने में कभी न फल में
मत हो हेतु कमर्फल का न संग अकर्म में तेरा ।47।
हो असिद्धि-सिद्धि में सम योगस्थ धनंजय! होकर
कर्म करो आसक्ति त्याग है कर्मयोग समता ही ।48।
बुद्धियोग से अति निकृष्ट है कर्म सकाम धनंजय!
ले तू शरण समत्वबुद्धि की अति दीन फलकामी ।49।
बुद्धियोग से युक्त मनुज त्यागे अघ-पुण्य जगत में
लग जा बुद्धियोग-चेष्टा में योग कर्मकौशल है ।50।
ज्ञानी युक्त बुद्धियोग से त्याग फलों को कर्मज
होकर मुक्त जन्म-बंधन से निर्विकार पद पाते ।51।
तर जाएगी बुद्धि तेरी जब मोहरूप दलदल को
होगा तू वैराग्यप्राप्त तब सुने और जो योग्य श्रवण ।52।
सुन नाना मत विचलित तेरी बुद्धि जभी हो स्थिर
ठहरे अचल परम में तब तू प्राप्त योग को होगा ।53।
12 : अ-2 : हिदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्हीता
‘‘कर्मयोग की बातें उनकी समझ में आईं. उसे पूरी तरह समझने हेतु उनके मन में अनेक प्रश्न अकुला उठे. सबसे पहले भगवान से उन्होंने स्थितप्रज्ञों के लक्षणों को जानना चाहा.
अर्जुन ने कहा
स्थितप्रज्ञ समाधिस्थित के केशव! क्या लक्षण हैं
स्थिरबुद्धि बोलते कैसे बैठें व चलते कैसे ।54।
‘‘भगवान ने उल्हें स्थितिप्रज्ञों के लक्षण बतलाएः
श्री भगवान ने कहा
मन में आई सभी कामनाओं को पार्थ! छोड़ दे जो
आत्मा से ही तुष्ट रहे आत्मा में स्थिरबुद्धि वही ।55।
प्राप्त दुखों में अनुद्विग्न-मन स्पृहारहित सुख पाकर
रागरहित भय-क्रोधमुक्त मुनि स्थित-बुद्धि कहाते ।56।
जो सर्वत्र स्नेहरहित हो उस-उस शुभ-अशुभों को
पा प्रसन्न न द्वेषयुक्त न उसकी बुद्धि सुस्थिर ।57।
जैसे कछुआ सभी ओर से सिकोड़ता स्वांगों को
विषयों से इंद्रियाँ हटा ले योगि-बुद्धि तब स्थिर ।58।
निराहार के विषय छूटते चाह न छूटे रस की
किंतु छूट जाता यह रस भी परम ब्रह्म अनुभव से ।59।
अतः यत्नरत बुद्धिमान में रस-बुद्धि रहने से
हर लेतीं हैं प्रमथ इ्रिंद्रयाँ बलपूर्वक उनका मन ।60।
सभी इंद्रियों को वश कर हों साधक मेरे परायण
होती स्ववश इंद्रियाँ जिसकी बुद्धि हो उसकी स्थिर ।61।
विषयों की चिंता करते जो उन्हें सक्ति हो उनमें
काम उपजता है आसक्ति से क्रोध काम-बाधा से ।62।
अ-2 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 13
जगता मोह क्रोध से करता मोह भ्रष्ट स्मृति को
बुद्धिनाश स्मृतिविभ्रम से पतन बुद्धि के क्षय से ।63।
स्वअधीन पर अंतस जिसका रागद्वेष से विरहित
विषय-विचर इंद्रिय से स्ववशी उर-प्रसन्नता पाता ।64।
प्राप्त हो जब अंतर्प्रसन्नता मिट जाते हैं दुख सब
स्थिर होती बुद्धि शीघ्र उस विमलचित्त मनुज की ।65।
बुद्धि नहीं अयुक्त पुरुष में और नहीं भावना भी
नहीं शांति भावनाहीन को शांति बिना सुख कैसे ।66।
विषयलिप्त इंद्रियों में से मन जिसके संग होता
हरती वह प्रज्ञा मनुष्य की ज्यों प्रवायु जल-नौका ।67।
अतः इंद्रियाँ विषयों से वश हुईं सर्वथा जिनकी
महाबाहु! कहते उसकी है होती बुद्धि सुस्थिर ।68।
होती रात प्राणि की जो संयमी जागता उसमें
जाग रहे होते जब प्राणी रात ज्ञानि की होती ।69।
जलापूर्ज3 निधि को अविचल रख ज्यों नदि-नीर समाता
भोग मिलें त्यों समाधिस्थ को पाता शम, न कि भोगेच्छुक ।70।
छोड़ कामना मनुज रहे स्पृहारहित जो जग में
और अहं ममता से विरहित प्राप्त शांति को होता ।71।
पार्थ! यही ब्राह्मी स्थिति है पा न कोई मोहित हो
अंतकाल में भी स्थिति यह शांत ब्रह्म मिलता है ।72।
सांख्ययोग नाम का दूसरा अध्याय समाप्त
14 : अ-2 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता
तीसरा अध्याय
[अर्जुन ने सोचा, ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों समाधि में ले जाने वाले है. पर इन योगों की प्रशंसा्र में केशव की कही गई मिली जुली बातें उन्हें भ्रम में डाले दे रही थीं. अतः उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि वह (केशव) उन्हें इन दोनों में से किसी एक को निश्चित कर उनसे करने के लिए कहें जो उनके लिए कल्याणकारी हो.
कृष्ण उन्हें बताते हैं कि लोक में जीवन को जीने की ये दोनों अलग अलग निष्ठाऍ हैं- कर्मयोग कर्मयोगियों के लिए और ज्ञानयोग संन्यासियों के लिए. ज्ञानमार्ग से संन्यास सिद्ध होता है जिसमें कर्म महत्वपूर्ण् नहीं रह जाते. किंतु सामान्यतः कर्म किसी से छूटते नहीं. प्रकृति के त्रिगुण सबसे कुछ न कुछ कर्म कराते ही रहते हैं. जब कर्म छूटने ही नहीं हैं तो मनुष्य के लिए कर्मयोग ही श्रेष्ठ मार्ग है. अतः अपनी कर्मेंद्रियों का निग्रह कर बुद्धि को सम और स्थिर करके स्वधर्मानुसार कर्मों को निष्काम करते रहना अधिक अच्छा है.]
राजन! अर्जुन ने कर्मयोग को और विस्तार से समझना चाहा. उनका अगला प्रश्न थाः
अर्जुन ने पूछा
ज्ञान श्रेष्ठ कर्म से है यदि तू मानते जनार्दन!
फिर क्यों मुझे लगाते केशव! इस अति घोर कर्म में ।1।
अपने मिश्र वचन से करते बुद्धि मेरी मोहित-सी
कहो बात एक निश्चित कर प्राप्त कल्याण को होऊॅ ।2।
‘‘अर्जुन को अपना एक निश्चित मत बताने के लिए प्रभु ने उन्हें अनेक तरह से समझायाः
श्री भगवान ने कहा
अनघ ! लोक में निष्ठाएँ हैं द्विविध कहा मैं पहले
कर्मयोग से योगी की व ज्ञानयोग से ज्ञानी की ।3।
न तो कर्म के न करने से पाता है नैष्कम्य मनुज
न ही कर्म के त्यागमात्र से प्राप्त सिद्धि को होता ।4।
अ-3 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 15
किसी काल न रहता कोई बिना किए कुछ क्षणभर
कर्म करा लेते प्रकृ्रतिज3 गुण प्रकृतिवशी4 प्राणी से ।5।
कर्मेंद्रिय को रोक करे जो विषय-चिंतना मन से
मूढ़बुद्धि वह मनुज कहाता झूठ आचरणवाला ।6।
मन से कर इंद्रिय वश में जो अनासक्त हो अर्जुन!
कर्मेंद्रिय से कर्मयोग को आचरता वह उत्तम ।7।
कर तू कर्म शास्त्रनियत जो कर्म अकर्म से उत्तम
कर्म न करने से होगा तेरा शरीर-निर्वाह नहीं ।8।
यज्ञ-कर्म से अलग कर्म करने से नर बँधता है
करो यज्ञ के लिए कर्म तू अनासक्त कौंतेय! हुआ ।9।
यज्ञसहित रच प्रजा आदि में कहा उसे ब्रह्मा ने
पाओ वृद्धि यज्ञ से इस यह करे कामना पूरी ।10।
करो यज्ञ से देव समुन्नत देव समुन्नत करें तुम्हें
एक दूसरे को उन्नत कर परम कल्याण को पाओ ।11।
देव यज्ञ-प्रेरित देंगे प्रिय भोग बिना माँगे ही
उनका दिया उन्हें न दे जो भोगे स्वयं चोर ही है ।12।
बचा अन्न यज्ञ से खाकर संत पापमुक्त होते
पापी जो अपने पोषण के लिए पकाते अघ खाते ।13।
प्राणी सब उत्पन्न अन्न से अन्न वृष्टि से होता
होती वृष्टि यज्ञ करने से यज्ञ उत्पन्न कर्मों से ।14।
जान कर्म उत्पन्न वेद से वेद प्रकट अक्षर से
अतः सर्वगत ब्रह्म्र यज्ञ में सदा अधिष्ठित रहता ।15।
जो प्रचलित इस सृष्टि-चक्र अनुसार नहीं बरतता
इंद्रिय-सुख-भोगी पापायु वह पार्थ! व्यर्थ जीता है ।16।
16 : अ-3 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता
पर मनुष्य जो आत्म-प्रीति में और तृप्त आत्मा में
तथा तुष्ट अपने में जो कर्तव्य न कोई उसको ।17।
कर्म न करने या करने से यहॉ न उसे प्रयोजन
सर्वप्राणि में साथ किसीके स्वार्थ-संग न उसका ।18।
अतः सतत कर्तव्य-कर्म कर अनासक्त हुआ तू
अनासक्त कर्म करता जो मनुज परमगति पाता ।19।
जनक आदि ने कर्मयोग से परम सिद्धि पाई थी
अतः देखते लोकहितार्थ तू योग्य कर्म करने के ।20।
श्रेष्ठ मनुष्य जो करें आचरण अन्य करें वैसा ही
कर देते वे मनुज प्रमाण जो लोग आचरित करते ।21।
मुझे पार्थ! लोक में तीनों कुछ कर्तव्य नहीं है
प्राप्य कोई अप्राप्त नहीं पर करता कर्म पुनः भी ।22।
क्योंकि पार्थ! कर्तव्यकर्म मैं करूँ नहीं सचेतन
सब प्रकार अनुसरण करेंगे मनुज मार्ग का मेरे ।23।
यदि मैं करूँ न कर्म तो सारे मनुज भ्रष्ट हो जाएँ
और मैं होऊँ संकरकर्ता बनूँ प्रजा का नाशक ।24।
कर्मसक्त अज्ञानी करते कर्म को जैसे भारत!
अनासक्त विद्वान करे त्यों लोक-भला जो चाहे ।25।
कर्मसक्त अज्ञ की मति में भ्रम न जगाऍ ज्ञानी
करें कर्म सब योगयुक्त हो और कराएँ उनसे ।26।
कर्म सभी किए जाते हैं प्रकृति-गुणों8 के द्वारा
तोभी अज्ञ अहं मोहित हो समझे ‘मैं ही कर्ता’ ।27।
गुण व कर्म-विभाग को जाने महाबाहु! जो ज्ञानी
गुण बरतें गुण में ही ऐसा मान आसक्त न होता ।28।
अ-3 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 17
प्रकृति-गुणों से मोहित जन आसक्त रहें गुण-कर्मों में
समझरहित उन मंदबुद्धि को विचलाएँं न तत्व-ज्ञानी ।29।
तू विवेक-बुद्धि से मुझमें सभी कर्म अर्पण कर
आश-रहित ममता-वियुक्त संतापरहित हो लड़ तू ।30।
दोष-बुद्धि से रहित जो मेरे इस मत का श्रद्धा से
सदा करे अनुसरण वो नर हो मुक्त कर्म-बंधन से ।31।
दोषदृष्टि रखते इस मत के जो बरते अनुरूप नहीं
भ्रम में पड़े सम्पूर्ण ज्ञान के जान उन्हें विनष्ट हुआ ।32।
सभी प्राणि कर्म करते अपने स्वभाव के वश हो
ज्ञानी की चेष्टा भी प्रकृतिज वहाँ करे क्या निग्रह।33।
इंद्रिय व इंद्रिय- विषयों में राग द्वेष व्यवस्थित
इन दो के वश हो मनुष्य न विघ्न ये इनके पथ में ।34।
पूर्ण आचरित अन्य धर्म से श्रेष्ठ विगुण भी अपना
मृत्यु श्रेयस्कर है स्वधर्म में धर्म अन्य भयकारक ।35।
‘‘इस प्रकार की बातें सुनकर अर्जुन के मन में हुआ कि स्वधर्म तो स्वभाव से उपजता है किंतु मनुष्य किसकी प्रेरणा से पाप करता है?
अर्जुन ने पूछा
वार्ष्णेय! किससे प्रेरित फिर पाप मनुज करता है
नहीं चाहते हुए भी जैसे कोई कराता बल से ।36।
श्री भगवान ने कहा
जान रजोगुण से उपजा यह काम और क्रोध ही है
भक्षक महा महापापी यह इसे जान शत्रु ही तू ।37।
18 : अ-3 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता
जैसे ढँकी अग्नि धुँए से दर्पण ढँके धूलि से ज्यों
गर्भ ढँका झीनी झिल्ली से ढँका ज्ञान काम से त्यों ।38।
तृप्त न हों अनल-सा जो व विवेकियों के इच्छारूप
नित्य वैरियों के द्वारा है ढँका हुआ कौंतेय! विवेक ।39।
बुद्धि इंद्रियाँ चित्त काम के वास, काम इनके द्वारा
ढँक कर ज्ञान मोह लेता है देहाभिमानि मनष्यों को ।40।
अतः तू वश में करके पहले भरतर्षभ ! इंद्रिय अपनी
मार डाल काम-पापी को ज्ञान विज्ञान का नाशक यह ।41।
कहते परे देह में इंद्रिय मन है परे इंद्रियों से
मन से परे बुद्धि बुद्धि से भी जो परे आत्मा है ।42।
इसप्रकार जो परे बुद्धि से महाबाहु! पहचान उसे
अपने को अपने से वश कर मार काम शत्रु दुर्जय ।43।
कर्मयोग नाम का तीसरा अध्याय समाप्त
अ-4 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 19
शेषनाथ प्रसाद
संपर्क - sheshnath250@gmail.com
उत्कृृष्ट रचना है!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद.
हटाएंBAHUT UTTM PRYAS HAI.BDHAI HO -ASHOK
जवाब देंहटाएंकृपया चतुर्थ अध्याय का 'रसपान' यथाशीघ्र कराने की कृपा करें...
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