भाग एक यहाँ पढ़ें भाग दो यहाँ पढ़ें सातवाँ अध्याय [कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि योग का आचरण करते हुए स...
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भाग दो यहाँ पढ़ें
सातवाँ अध्याय
[कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि योग का आचरण करते हुए संदेहरहित होकर परमेश्वर का ज्ञान कैसे प्राप्त होगा? और वह ज्ञान क्या है. वह कहते हैं- इस संसार में मेरे सिवा अन्य कुछ भी नहीं है. पुरुष व प्रकृति से समन्वित यह सृष्टि मेरा ही पर व अपर रूप है. माया के परे के मेरे इस अव्यक्त रूप को पहचान कर जो मुझे भजते हैं, उनकी बुद्धि सम हो जाती है. वह पूर्णरूप से मुझे जान लेते है. जीवन खंड में नहीं अखंड में है.]
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*
भगवान आगे बताते हैं कि अर्जुन योगरत होकर उनके सर्वात्म रूप को कैसे प्राप्त करेगा.
श्री भगवान ने कहा
पार्थ! योगरत आश्रित हो आसक्तमना मुझमें तू
असंदिग्ध जानेगा जैसे रूप समग्र सुन मेरा ।1।
कहूँगा मैं यह ज्ञान तुझे विज्ञानसहित पूणर्ता से
जिसे जान कुछ नहीं रहेगा शेष जानने को इसमें ।2।
सिद्धि हेतु यत्न करता कोई एक सहस मनुजों में
इन प्रयत्नरत सिद्धों में मुझे एक तत्व से जाने ।3।
भू जल गगन अग्नि वायु मन बुद्धि और अहं इन
आठ प्रकारों में विभक्त यह मेरी प्रकृति हुई है ।4।
यह है अपरा प्रकृति मेरी तू जान प्रकृति परा भी
महाबाहु! धारता मैं जिससे इस सम्पूर्ण जगत को ।5।
इन्हीं प्रकृतियों के जुड़ने से समझ हुए सब प्राणी
सारे जग का प्रलयरूप उत्पत्तिरूप मैं ही हूँ ।6।
मेरे सिवा धनंजय! किंचित कारण कार्य न कोई
सूत्र पिरोए मणियों-सा जग गुँथा हुआ है मुझमें ।7।
जल में रस मैं सूर्य चंद्न में प्रभा ओ3म वेदों में
पुरुषों में पुरुषत्व शब्द हूँ कुंति-पुत्र! मैं नभ में! ।8।
पृथ्वी में हूँ पूत गंध मैं तेज प्रखर अगिन में
जीवनशक्ति सभी प्राणी में तपस्वियों में तप मैं ।9।
पार्थ! सनातन जान मुझे ही बीज सभी प्राणी का
मैं ही बुद्धि बुद्धिमानों की तेज तेजस्वियों का हूँ ।10।
भरतर्षभ! मैं कामासक्तिरहित बल हूँ बलवानों में
और काम धर्मानुकूल जो सभी प्राणियों में मैं ही ।11।
जान सत्व-रज-तम से उपजे भाव मुझी से होते
किंतु नहीं हूँ मैं उनमें न वे मुझमें स्थित हैं ।12।
इन तीनों गुणरूप भाव से मोहित सारा जग है
नहीं जानता इन गुण से पर मुझ अक्षर अव्यय को ।13।
यह है मेरी त्रिगुणमयी दैवी माया दुस्तरतर
इस माया से तर जाते जो होते शरण मेरी ही ।14।
हरा ज्ञान माया ने जिनका असुर-भाव के आश्रित
मूढ़ नराधम दुष्कर्मी वे मेरी शरण न होते ।15।
भजते मुझको चार तरह के सत्कर्मी जन अर्जुन!
अर्थार्थी जिज्ञासु आर्त व निष्कामी भरतर्षभ! ।16।
उनमें भी जो एकभाव ज्ञानी रत मुझमें उत्तम
मैं अत्यंतप्रिय उसे और है वह अत्यंत प्रिय मुझको ।17।
ये सब भक्त उदार मेरे मत ज्ञानी तो स्वरूप मेरा
वह मुझसे अभिन्न दृढ़स्थित उत्तम गति से मुझमें ।18।
बहुजन्मों के अंत जन्म में परमात्मा ही सब कुछ
यों ज्ञानी जो शरण मेरे वह अतिदुर्लभ महतात्मा ।19।
नर हृतज्ञान कामना से उन1 अन्य देव आश्रित हों
अपनी प्रकृति-प्रेरणा पा उनके नियमों को धारें ।20।
जो-जो भक्त देव जो जो सश्रद्ध पूजना चाहे
उसी देव में मैं उस-उस की थिर श्रद्धा कर देता ।21।
उस श्रद्धा से जुड़ सकाम वह वही देव आराधे
होती पूर्ण कामना उसकी े विहित की हुई मेरी ।22।
पर उन अल्पबुद्धि लोगों का नाशवान फल होता
देव भजे देव को पाते भक्त मेरे पाते मुझको ।23।
जिसे न ज्ञात सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परम भाव मेरा
मुझअव्यक्त को बुद्धिहीन मानते मनुष्य तनधारी ।24।
ढॅका योगमाया से होता प्रकट न सबके आगे
मूढ़़ जानते नहीं ठीक से मुझे अजन्मा अव्यय को ।25।
अर्जुन! जो हो चुके आज हैं और जो आगे होंगे
मैं उन सबको जान रहा पर वे सब मुझे न जानें ।26।
समुत्पन्न द्वेष इच्छा से द्वंद्व-मोह में भारत!
प्राप्त हो रहे जन्म-मरण को प्राणी सकल परंतप! ।27।
नष्ट हो गए पाप सभी जिन पुण्यकर्म मनुजों के
द्वंद्व-मोह से रहित व्रती वे भजें मुझे दृढ़ता से ।28।
जरा मरण से मुक्ति हेतु जो यत्न करे आश्रित हो
लेते जान ब्रह्म और संपूर्ण कर्म अध्यात्म अखिल ।29।
साधिदैव अधियज्ञ सहित जो साधिभूत मुझे जाने
मुझमें चित्त किए वे जानें मुझे अंतकाल में भी ।30।
ज्ञानविज्ञानयोग नाम का सातवाँ अध्याय समाप्त
1 लोक और परलोक की कामनाऍ
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आठवाँ अध्याय
[कर्मयोग में अर्जुन को रस आने लगा है. कृष्ण के सामने उन्होंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी है. वह अध्यात्म, ब्रह्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ जैसे पारिभाषिक पदों को समझना चाहते है. वह यह भी जानना चाहते है कि अंत समय में वे योगयुक्त पुरुषों द्वारा किस प्रकार जाने जाते हैं?
कृष्ण उन पदों के अर्थ अर्जुन को विस्तार से बताते हैं - कहते हैं कि जो मेरे स्वरूप को पहचान लेता है मैं उसे नहीं भूलता. अतः सभी कालों में तू मेरा स्मरण करता हुआ युद्ध कर. इसके बाद अक्षर कौन है, संसार का कब और कैसे संहार होता है तथा परमेश्वर को उपलब्ध और अनुपलब्ध मनुष्य की क्या गति होती है, की चर्चा करते हैं.]
*
अर्जुन भगवान की देशना में अभी तक अध्यात्म, ब्रह्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ का उल्लेख सुनते रहे. पर अब वे उन्हें जानना चाहे. पूछाः
अर्जुन ने पूछा
क्या अध्यात्म ब्रह्म क्या है क्या कर्म कहो पुरुषोत्तम!
किसे कहें अधिभूत नाम से कहें किसे अधिदैवत ।1।
कौन यहाँ अधियज्ञ? देह में कैसे यह मधुसूदन!
युक्त पुरुष से अंत समय तू कैसे जाने जाते ।2।
श्री भगवान ने कहा
ब्रह्म परम अक्षर कहते अध्यात्म स्वरूप को अपने
त्याग कहाता कर्म प्राणि की सत्ता प्रकट करे जो ।3।
हैं अधिभूत नाशवान सब पुरुष हिरण्यमय अधिदैवत
मैं ही हूँ अधियज्ञ देह में श्रेष्ठ देहभृत अर्जुन! ।4।
अंत समय में देह त्याग जो मुझे स्मरण कर जाता
पाता वह मेरे स्वरूप को इसमें तिल संदेह नहीं ।5।
जो- जो भाव स्मरण किए वह देह अंत में छोड़े
पाए उस उस को ही वह कौंतेय! हो जिनमें भावित ।6।
अतः करो सब काल मुझे स्मरण युद्ध भी कर तू
मुझमें बुद्धि चित्त अर्पक निःशंक प्राप्त हो मुझको ।7।
योग-अभ्यासयुक्त मन से जो अन्य ओर न भटके
परम पुरुष का चिंतन करता पार्थ! प्राप्त हो उसको ।8।
जो करता स्मरण सूक्ष्म अतिसूक्ष्म अनादि जग-धाता
सूर्यवर्ण अज्ञान परे सर्वज्ञ अचिंत्य नियंता ।9।
भक्तियुक्त वह अंतसमय वृढ़ चित्त योगबल द्वारा
सम्यक कर भौं-बीच प्राण हो प्राप्त पुरुष परम को ।10।
अक्षर कहें वेदविद जिसको वीतराग यति पाऍ
जिसकी प्राप्त्येच्छा में पालें ब्रह्मचर्य सुन पद-संक्षेप ।11।
हटा इंद्रियों को विषयों से मन निरुद्ध कर उर में
स्थापित कर प्राण शीश में योगधारणा में स्थिर ।12।
जो एकाक्षर ब्र्रह्म उचार मन मुझे स्मरण करता
जाता छोड़ मनुष्य देह को वह उत्तम गति पाता ।13।
नित्य सतत स्मरण करे जो पार्थ! एक मन से मेरा
मुझमें नित्ययुक्त उस योगी को मैं पूर्ण सुलभ हूँ ।14।
मुझे प्राप्त कर पुनर्जन्म जो अशाश्वत घर दुख का
पाते नहीं महात्माजन जो परमसिद्धि को पाए ।15।
ब्रह्मलोक तक सब लोकों में अर्जुन! पुनरागम है
मुझे प्राप्त होने पर होता जन्म नहीं कौंतेय! पुनः ।16।
जो ब्रह्मा के सहसयुगी दिन जाने और सहस्रयुगी
ब्राह्म-रात्रि को जाने जाने ब्राह्मी अहोरात्र को भी ।17
सभी व्यक्त उत्पन्न अव्यक्त से ब्राह्मदिवस के उगते
ब्र्राह्मरात्रि आरंभ काल में लीन अव्यक्त में होते ।18।
वही प्राणिसमुदाय पार्थ! यह ले-ले जन्म अवश हो
जन्मे ब्राह्मदिवस के होते लीन ब्राह्म-रात्रि होते ।19।
उस अव्यक्त से परे श्रेष्ठ जो भाव अव्यक्त सनातन
सभी प्राणियों के विनाश पर भी वह नष्ट न होता ।20।
उसको ही अक्षर अव्यक्त व उसे परमगति कहते
पाकर जिसे जीव न लौटे धाम परम वह मेरा ।21।
जिसके अंतर्गत सब प्राणी व्याप्त जगत जिससे है
परमपुरुष वह लभ्य पार्थ! है एकनिष्ठ भक्ती से ।22।
भरतश्रेष्ठ! मैं मार्ग कहूँगा वे दो जिसमें योगी
देह त्याग कर गए लौटते और न फिर से लौटे ।23।
अग्नि ज्योति दिन शुक्लपक्ष छै मास उत्तरायण के
मार्ग गए तन त्याग ब्रह्म्रविद परमब्रह्म्र को पाते ।24।
धुँआ रात्रि के कृष्णपक्ष के दक्षिण अयन छमासे के
मार्ग गए तन त्याग योगिजन चंद्र ज्योति पा लौटें ।25।
शुक्ल कृष्ण दो मार्ग सनातन कहे गए हैं जग के
पड़ता जा लौटना एक से जा न लौटता दो से ।26।
पार्थ! ये दोनों मार्ग जानता जो कोई भी योगी
पड़ता नहीं मोह में अर्जुन! योगयुक्त हो सर्व उमय ।27।
इसे जान योगी वेदों तप यज्ञ दान में कहे गए
पुण्यफलों का अतिक्रम कर वह परम पाता है ।28।
अक्षरबह्मयोग नाम का आठवाँ अध्याय समाप्त
नवाँ अध्याय
[कृष्ण अब अर्जुन को वह गूढ़ रहस्य बताते हैं जिसे जानकर वह संसार के जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाऍगे. वह कहते हैं कि मैं इस संपूर्ण सृष्टि को अव्यक्त रूप से व्याप्त किए हुए हूँ. मेरे व्यक्त रूप को भक्ति द्वारा पहचान कर मुझे अनन्य भाव से भजते हुए मेरी शरण में आना ही बह्म्रप्राप्ति का राजमार्ग है. इस व्यक्तरूप की उपासना प्रत्यक्ष ज्ञान देनेवाली और सबके लिए सुलभ है. वह अर्जुन! को उनके सभी कर्म उन्हें अर्पण करने को कहते हैं. ऐसा करने से वह शुभ अशुभ कर्मों के फलरूप बंधनों से मुक्त रहेंगे]
श्री भगवान ने कहा
दोषदृष्टि से रहित! गूढ़तम ज्ञान तुझे विज्ञान सहित
कहूँगा मैं तू जान जिसे होगा विमुक्त दुख-जग से ।1।
सब गुह्म्रों सब विद्याओं का यह राजा पवित्र उत्तम
कर्तृ -सुगम धर्ममय अक्षर यह प्रत्यक्ष फल दाता ।2।
श्रद्धा रखे न इस सुधर्म में जो मुझे प्राप्त न हो वे
मृत्युयुक्त संसार मार्ग में आते लौट परंतप! ।3।
मेरे निराकार रूप से व्याप्त जगत यह सारा
प्राणि सभी स्थित मुझमें पर स्थित नहीं मैं उनमें ।4।
देख मेरी यह योगशक्ति मैं जीव उत्पन्नकर्ता पोषक
किंतु नहीं मेरा स्वरूप है स्थित उन जीवों में ।5।
महत वायु सर्वत्र विचर ज्यों रहे सदैव गगन में
वैसे ही मुझमें स्थित तू मान सभी जीवों को ।6।
कल्प अंत में सभी प्राणि लय होते मेरी प्रकृति में
कल्प आदि में मैं उनकी रचना करता कौंतेय! पुनः ।7।
इस समस्त प्राणीसमूह को जो परतंत्र प्रकृतिवश
अपनी प्रकृति स्ववश करके मैं पुनः पुनः रचता हूँ ।8।
पर उन सृजन आदि कर्मों में उदासीन अनसंगी
रहने से मेरे न बाँधते कर्म मुझे धनंजय! ।9।
प्रकृति अध्यक्षता में मेरी है रचती जगत चराचर
इसी हेतु से होता है कौंतेय! जगत - परिवर्तन ।10।
मूढ़ अवज्ञा करते मेरी मान मुझे तन-आश्रित
श्रेष्ठ भाव जानते न वे मुझ प्राणि-महा ईश्वर का ।11।
ऐसे अविवेकी लोगों के व्यर्थ ज्ञान शुभ कर्माशा
जो आसुरी राक्षसी व मोहिनी प्रकृति के आश्रित ।12।
लेकिन दैवि प्रकृति के आश्रित एकनिष्ठ महात्मा
जान मुझे सबभूत-आदि अविनाशी पार्थ! भजें वे ।13।
नित्ययुक्त मुझमें दृढ़वत हो करते यत्न लगन से
कीर्तन करते नमस्कार कर करें उपासना मेरी ।14।
ज्ञानयज्ञ से पूजन कर कुछ एकीभाव उपासें
कुछ उपासते पृथकभाव से मुझ सर्वतोमुख को ।15।
मैं ही वेदविहित कर्म मैं पितर-अन्न यज्ञ औषधि
मैं ही मंत्र अग्नि और घृत मैं ही हवन-क्रिया हूँ ।16।
मैं ही जग का धाता माता पिता पितामह मैं ही
मैं ही पूत ज्ञेय ओ3म हूँ साम यजुर्वेद ॠक मैं ।17।
मैं गति भर्ता प्रभु साक्षी मैं शरण निवास सुहृद मैं
उत्पति स्थिति प्रलय निधान मैं हूँ बीज अनाशी ।18।
मैं ही तपता सूर्यरूप से जल लेता बरसाता
असत् और सत् मैं अर्जुन! हूँ मृत्यु अमृत भी मैं ।19।
त्रिवेदोक्त काम--कर्मों के कर्ता पापमुक्त सोमप
करते विनती स्वर्गप्राप्ति की पूज यज्ञ से मुझको
हों वे प्राप्त इंद्नलोक को अपने पुण्य-फलों से
दिव्यभोग भोगते हैं वे स्वर्गलोक के दैवी ।20।
वे उस विशद स्वर्गलोक के भोग भोगकर पूरा
क्षीण पुण्य के होते ही वे मृत्युलोक को आते
यों त्रिवेद में कहे हुए सकाम धर्म के आश्रित
लगे कामना में भोगों की आवागमन को पाते ।21।
जो अनन्य जन चिंतन करते उपासते हैं मुझको
मुझमें रत उन भक्त जनों का योगक्षेम मैं लेता ।22।
जो सकाम भक्त पूजते अन्य देव श्रद्धा से
करते वे पूजन मेरा ही पर कौंतेय! अविधि वह ।23।
क्योंकि सर्व यज्ञों का भोक्ता व स्वामी भी मैं ही
वे जानते न मुझे तत्व से अतः पतन हो उनका ।24।
पूज देव देव को पाते पितर पूज पितर को
प्रेत पूज प्रेतों को मिलते मुझे पूजकर मुझको ।25।
जो जल पुष्प पत्र फल मुझको अर्पण करे हृदय से
मुझमें उस तल्लीन भक्त की प्रेम-भेंट ले लेता ।26।
तू जो करता कर्म यज्ञ व दान और भोजन भी
व तप ही जो भी करता कौंतेय! मुझे अर्पण कर ।27।
यों अर्पणकर मुक्त रहे शुभ-अशुभ कर्म-बंधन से
ऐसे हो संन्यासयुक्त तू मुक्त लीन हो मुझमें ।28।
सभी प्राणियों में समान मैं कोई न प्रिय अप्रिय है
मुझे भक्ति से भजते जो हैं मैं उनमें वे मुझमें ।29।
कोई घोर दुराचारी भी भजे अनन्य यदि मुझको
वह साधु ही है उसने यह निश्चय किया है सम्यक ।30।
वह होता तत्क्षण धर्मात्मा नित्य शांति को पाता
सत्य जान कौंतेय! भक्त मेरा न नष्ट होता है ।31।
जो भी पापयोनि वाले हों पार्थ! मेरी शरण हो
शूद्न स्त्रियाँ वैश्य सभी ही होते प्राप्त परम को ।32।
फिर हों पुण्यशील ब्राह्मण राजर्षि भक्त क्या कहना
पा सुखरहित अनित्य लोक तू मेरा सदा भजन कर ।33।
भक्त मेरा मुझमें मनवाला हो जा पूजो नमन करो
यों लग मुझसे शरण मेरी हो प्राप्त तू मुझको होगा ।34।
राजविद्याराजगुह्ययोग नाम का नवाँ अध्याय समाप्त
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संपर्क - sheshnath250@gmail.com
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