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वह कोमा में पड़ी हुई थी। मुझे उसका इंतजार था। पूरा एक वर्ष बीत चुका था लेकिन उसकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। कोमा मूर्छा की एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति को एक साल तो क्या पाँच-पाँच साल गुजर जाते हैं पर व्यक्ति को होश नहीं आता है। कई बार तो कोमा में ही मृत्यु हो जाती है। इसमें इंतजार के सिवा और कुछ किया ही नहीं जा सकता है।
पूजा की मुझसे हालत देखी नहीं जाती थी। कितनी बातूनी थी वह। उसके कारण पूरे घर में उल्लास छाया रहता था।
सच है पत्नी के बिना घर सुनसान हो जाता है। बल्कि मैं तो कहता हूँ मरघट बन जाता है। पूजा मेरी पत्नी है। उसके कोमा में चले जाने से घर में सन्नाटा छा गया।
मेरा एक ही बच्चा था अनुराग। उसकी दो साल पहले ही मृत्यु हुई थी। वह उसके सदमें को बर्दाश्त नहीं कर पाई और कोमा में चली गई। बड़ा प्यारा बच्चा था वह। वह उसकी नयनों का तारा था। बड़ी कठिनाई से वह हुआ था। क्लोनिंग का परिणाम था वह।
हाँ, आज के समय में क्लोनिंग एक सामान्य बात हो गई है। इसमें बंध्य औरतों को बड़ी राहत मिली। उसका एक-एक पल अनुराग के बारे में सोचते हुए बीतता था। कभी-कभी तो मुझे भी ईर्ष्या होने लगती या फिर झुंझलाहट क्योंकि मैं स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगता।
यद्यपि वह मेरा भी पूरा ख्याल रखती थी। अस्पताल से आता तो मैं उसे दरवाजे पर ही खड़ा पाता। वह मेरी प्रतीक्षा में पलकें बिछाये खड़ी रहती।
हमारा जीवन अच्छी तरह से व्यतीत हो रहा था। मैं पूजा को इतना अधिक प्यार करता था कि इसकी उसे कमी महसूस नहीं होने दी। अस्पताल जाते समय मैं चाहता था कि वह मुस्कराते हुए मुझे विदा करे। उसकी मुस्कराहट भी लाजवाब थी। अनुराग मुझसे पहले ही स्कूल चला जाता था।
पूजा उसे स्कूल डेंस पहनाती। उसका टिफन तैयार करती। स्कूल में यदि किसी क्लासमेट का जन्मदिन होता तो वह टिफिन के एक खाने में टोफियाँ रखती। यदि उसका स्वयं का जन्मदिन होता तो हम एक छोटी पार्टी रखते जिसमें बच्चे को ही बुलाते थे। बच्चे उसे उपहार देते जिसे पार्टी खत्म होने पर वह घंटो निहारता। उसे हंसता हुआ देखकर हम फूले नहीं समाते।
हर शाम हम घर से बाहर निकल पड़ते। कभी बगीचे में जाते। वह झूले का आनन्द उठाता। अब तो एस्सल वर्ल्ड के कई आइटम आ गये थे।
हम उसे हर आइटम को एन्ज्वाय करवाते। घर पर वह अक्सर विज्ञान कथा की कोई-न-कोई फिल्म देख रहा होता।
भारतीय कथाकारों ने भी बहुत अच्छी कथाएँ लिखी थीं। डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय, डॉ. अरविन्द मिश्र, डॉ. जयन्त विष्णु नालींकर एवं देवेन्द्र मेवाड़ी की विज्ञान कथाएँ तो देख-देखकर वह अघाता नहीं था। यों वह वर्ल्ड क्लासिक्स की विज्ञान कथाएँ भी देखा करता था।
खेल में उसे क्रिकेट का बहुत अधिक शौक था। पढ़ने में भी वह अव्वल रहता था। विज्ञान के पढ़ने में उसकी गहरी रुचि थी। उसकी मम्मी तो उसे नित्य पढ़ाया करती थी।
यदि समय होता तो मैं भी उसे पढ़ाता था। डॉक्टर का एक ऐसा पेशा है कि रोगी को देखने के लिए 24 घंटों तैयार रहना पड़ता था।
लोगों ने बहुत कहा था कि मैं प्राइवेट प्रेक्टिस प्रारम्भ करूँ, लेकिन मैंने मना कर दिया। पैसा ही तो सब कुछ नहीं है। मैं अधिक से अधिक समय अपने परिवार को देना चाहता था। पूजा और अनुराग दोनों को मेरा भरपूर प्रेम मिल सके इसके अतिरिक्त मुझे और कुछ नहीं चाहिए था। पूजा मुझे कितना
चाहती थी, इसका मैं बखान नहीं कर सकता।
हमारा एक हंसता-खेलता परिवार था। हमारे बड़े अच्छे दिन व्यतीत हो रहे थे। लेकिन भाग्य को मंजूर नहीं था। अनुराग अचानक बीमार पड़ गया और फिर उसकी बीमारी इतनी अधिक बढ़ गई कि वह संभल नहीं सका।
मैं स्वयं डॉक्टर था लेकिन विवश था। उसकी बीमारी जानलेवा साबित हुई। मैंने उसे बचाने का बहुत प्रयत्न किया लेकिन क्रूर भाग्य के आगे मेरा कोई बस नहीं चला।
लेकिन में इसे क्रूर भाग्य नहीं मानता। यह तो मनुष्य के स्वयं के हाथों से बोया हुआ बीज है। आज उसी के कुकृत्यों का परिणाम भी उसे ही भोगना पड़ रहा हैं यह कोई अबूझ पहेली नहीं है।
मनुष्य में इतना अधिक प्रदूषण फैला दिया है कि इसका परिणाम मेरे बच्चे को भोगना पड़ा है और केवल मेरा बच्चा ही नहीं पूरा शहर इससे पीड़ित है।
लोग शहर में उद्योग धंधे तो लगाते हैं लेकिन उससे उत्पन्न प्रदूषण की अनदेखी कर देते हैं वे उसका कोई समाधान नहीं ढूँढ़ते हैं। शहर में मिनामाटा बीमारी फैली हुई थी। यह बीमारी कालू नदी में औद्योगिक अवशिष्टों के कारण फैली थी। इस बीमारी का परिणाम जापानवासी भुगत चुके थे लेकिन फिर भी अक्ल नहीं आई।
मिनामाटा बीमारी पारे के कारण होती है। पारे का प्रयोग कागज मिलोंऔर रेयान मिलों द्वारा काफी मात्रा में होता है। इस पारे का अवशिट नदी में मिलकर नदी को विषैला करता है झीलों और नदियों में यह सतत रूप से इकटठा होता रहता है। हमारे शहर में भी कागज और रेयन की मिलें स्थापित हुई। कौन नहीं जानता है यहाँ स्थापित हुई नेशनल कार्पोरेशन, विजय इण्डस्टींज, अजन्ता पेपर मिल, बालकृष्ण पेपर मिल, बी. के. पेपर मिल, अमर डाई पिगमेन्ट एण्ड डाइस्टफ मिलों को। इन मिलों से निकला पारे का अवशिष्ट कालू नदी में जा मिला और नदी विषैली हो गई। नदी का पानी भी अब भूरा हो गया। पानी को देखते ही हमें घृणा होने लगती है लेकिन हम विवश हैं प्रदूषित पानी पीने को। कोई हमारे दर्द को समझने वाला नहीं है।
पारे के अनेक कार्बनिक यौगिक अकार्बनिक पदार्थों की तुलना में अधिक विषैले हैं। पर्यावरण में पारे की मात्रा मिथाइल मरकरी 1ध्4पारा1ध्2 के कारण बढ़ गई है मिथाइल मरकरी एक अत्यन्त विषैला पदार्थ है यह पदार्थ वनस्पति एवं जन्तुओं के द्वारा आसानी से ग्राह्य है।
कालू नदी में पारे की मात्रा निरन्तर बढ़ती गई। इससे यहाँ के वनस्पति तथा जीव-जन्तुओं पर काफी अधिक प्रभव पड़ा।
अनुराग भी की घातक बीमारी की चपेट में आ गया। हमें पहले की डर था कि अनुराग को यह बीमारी नहीं लग जाये। हमने बड़ी सावधानी बरती लेकिन फिर भी उसे इस बीमारी ने नहीं बख्शा।
इस बीमारी के लगने के बाद ही वह मानसिक रूप से पिछड़ने लगा। यह बीमारी स्नायु संस्थान को नष्ट करती है। कहाँ वह पढ़ाई में अव्वल रहता था और कहाँ व पिछड़े बच्चों की श्रेणी में आ गया। ऐसा नहीं था कि पूजा उसकी पढ़ाई में कोई कसर रखी थी लेकिन उसकी समझ शक्ति तेजी से घट गई थी। गणित के सवाल वह कठिनाई से ही हल कर पाता था। उसकी स्मरण शक्ति बहुत कमजोर हो गई थी।
उसके पढ़ाई में पिछड़ने में हमारी सारी उम्मीदें पर पानी फिर गया लेकिन अनुराग से हमें सहानुभूति थी। इसमें उसका कोई दोष नहीं था लेकिन उसके शिक्षकों तथा अन्य मित्रों को यह बात समझना बहुत कठिन था। उसके पढ़ाई में पिछड़ने के कारण होशियार बच्चों ने भी उसका साथ छोड़ दिया था। यह देखकर हमें बड़ा अफसोस होता। अब हम उसके मां बाप ही नहीं थे। हम उसका दोस्त बनकर इस कमी को दूर करते। पूजा तो उसकी छोटी-छोटी बात का बहुत ख्याल रखती थी। उससे स्कूल की एक-एक गतिविधि के बारे में पूछती। उसे किस चीज की खाने की इच्छा है, वही बनाती। क्या खेल खेलना चाहता है, उसी की सामग्री दिलाती। केवल यही नहीं हम भी उसके साथ-साथ खेलते। उसे हंसाने का प्रयत्न करते थे। उसकी मासूमियत ही हमारे लिये सबसे बड़ा खजाना था। पूजा उसे पल-पल का ख्याल रखती थी।
लेकिन बीमारी के बढ़ने के साथ-उसके उसके पागलपन में भी वृद्धि होती गई। यही नहीं धीरे-धीरे उसकी देखने और बोलने की क्षमता समाप्त होती गई।
पूजा का तो रो-रोकर हाल बेहाल था। उसके अश्रु कभी सूखते नजर नहीं आते। हमारा घूमना फिरना सब बंद हो गया था।
मैं स्वयं डॉक्टर था लेकिन कुछ कर नहीं पाता। पूजा मुझे बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाने के लिये जोर देती। मैं बड़े से बड़े डॉक्टर से परामर्श करता। यहां तक कि मैंने विदेशों के डॉक्टर से भी संपर्क किया। अब टेली-मेडिसिन का जमाना आ गया था। अतः विदेश में बैठे हुए डॉक्टर की मदद से शल्य चिकित्सा तक की जा सकती थी। लेकिन यह बड़े दुःख की बात थी कि मिनामाटा जैसी घातक बीमारी का कोई उपाय नहीं था। विदेशी चिकित्सकों का परामर्श भी हमारे लिये उपयोगी साबित नहीं हुआ। अब वह इसकी अंतिम अवस्था में पहुँच चुका था। अब वह बेहोशी या तंद्रा में ही पड़ा रहता।
पूजा गुम-सुम और उदास रहती। उसका खाना-पीना भी छूट चुका था। दिन-रात वह अनुराग के बिस्तर के पास बैठी रहती तथा उसकी आँखों में अश्रु बहते रहते। मुझसे उसकी यह स्थिति देखी नही जाती। मुझे अब अस्पताल में भी व्यस्त रहना पड़ा। मिनामाटा से पीड़ित बच्चों, महिलाओं तथा पुरुष से अस्पताल भरा रहता।
मिनामाटा पूरे शहर में फैल गई थी। स्थिति यह हो गई कि कोई बिस्तर खाली नहीं था। अतिरिक्त बिस्तर की व्यवस्था की गई परन्तु वह भी पर्याप्त नहीं था। कोमा में नित्य आये लोगों को घर भेज दिया जाता। जो गंभीर अवस्था में नहीं होते उन्हें भी भर्ती नहीं किया जाता। अस्पताल में मृतकों की संख्या बढ़ती जा रही थी। यह सख्त हिदायत दी गई कि भोजन में मछलियाँ नहीं खायी जायें। कालू नदी में पायी जाने वाली मछलियों में खतरे की हद से कहीं अधिक पारे की मात्रा पायी गई है। यह पारा उनके सारे शरीर में व्याप्त हो गया है। इस नदी के ऊपर उड़कर मछलियों का शिकार करने वाले पक्षी या तो मर चुके हैं अथवा उस नदी को छोड़कर अन्यत्र चले गये है।
कालू नदी के किनारे मरे हुए पक्षियों को दुर्गन्ध फैल गई।
कालू नदी का पानी खतरनाक ढंग से प्रदूषित हो चुका था। सावधानियाँ बरतने के बावजूद मिनामाटा के मृत व्यक्तियों की संख्या बढ़ती जा रही थी।
मेरी अस्पताल में पूरी-पूरी रात गुजर जाती। एक तरफ अनुराग की बीमारी तथा दूसरी ओर मेरी व्यस्तता। बीच-बीच में विडियोफोन पर मैं उसका हाल पूछ लेता। लेकिन फोन भी अधिक समय तक अटेन्ड नहीं कर पाता।
घर में मैंने अक्वा फिल्टर रख रखा था। सभी फलों तथा सब्जियों को धोकर उपयोग किया जाता तथा अन्य सावधानियाँ बरती जातीं।
लेकिन अनुराग की तबियत बिगड़ती चली गई। उसके उसे लिए मिनीमाटा जानलेवा साबित हुई। वह कोमा में ही चल बसा। मुझे अस्पताल में ही उसकी मृत्यु की सूचना मिली।
मैं धक रहा गया। पूजा का क्या हाल हुआ होगा, उसकी कल्पना करके ही मैं सिहर उठा। मैं तुरन्त घर कीओर लपका। मेरे हृदय की धडत्रकन बढ़ चुकी थी।
मैं तो डॉक्टर होने के नाते स्वयं को संयत करना सीख चुका था लेकिन बेचारी पूजा........ वह स्वयं को नहीं संभाल पाई होगी।
घर पहुँचा तो पाया कि वह मूर्छित हो चुकी थी । घर में कोहराम मचा हुआ था।
होश में आते ही वह बिलख उठी। कुछ समय बाद वह फिर मूर्छित हो जाती। उसके माता-पिता आ चुके थे। घर में कोहराम मचा हुआ था। उन्होंने भी उसे ढ़ांढ़स बंधाया। मेरे माता-पिता सहित अन्य रिश्तेदारों ने भी उसे दिलासा दिलाने का प्रयत्न किया और कहाकि ईश्वर की मर्जी के आगे किसका बच चलता हैं लेकिन वह चीख उठती.... और कहती यह ईश्वर की मर्जी नहीं हैं.... यह तो मनुष्य की करतूत है...आप सबकी.... आपने नदी में जहर घोल दिया.......मिनमाटा ईश्वर की देन नहीं है.... आपने मेरे बच्चे का गला घोटा.. . आप हत्यारे हैं... हाँ.... हाँ... आप हत्यारे हैं....आपने मेरे अनु की हत्या की.... आप मेरी भी हत्या की दीजिए.... मेरा भी गला दबा दीजिए....लीजिए दबाइये... वह रिश्तेदार के दोनों हाथ पकड़कर अपने गले तक ले जाती....रिश्तेदार अपना हाथ छुड़ा लेता....
वह फिर मूर्छित हो जाती.... कई दिनों तक उसके मूर्छित होने का तथा होश में आने का सिलसिला चलता रहा।
रिश्तेदार जा चुके थे। उसकी मम्मी भी जा चुकी थी। मैं ने अपनी मम्मी को रोक लिया था इस डर से कि कहीं वह पीछे से कुछ कर न ले। मेरा अस्पताल जाना आवश्यक होता था। अब वह गुमसुम और उदास रहने लगी। कई दिन बीत गये पर कई दिन बीतने पर भी उसकी उदासी दूर नहीं हुई। मैं उसे घुमाने भी ले गया पर उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। हंसना, मुस्कराना वह भूल चुकी थी। उसकी गुलाब की पंखुड़ियों सी खिलखिलाहट से घर महका रहता लेकिन अब मरघट की-सीशांति छाई रहती जीवन बेसुरा हो चला था।
पूजा ने बोलना बहुत कम कर दिया था। वह केवल एक दो शब्द ही बोलती थी। उसने मुस्कराना बिल्कुल बंद कर दिया था। मुझे याद नहीं है कि इस घटना के पश्चात वह फिर कभी मुस्कराई है।
खाना-पीना उसका बहुत कम हो चुका था। उसकी भूख मिट चुकी थी। उसके स्वास्थ्य में बड़ी तेजी से गिरावट आई और फिर वही बात आई जिसका कि मुझे डर था। पूजा को मिनासाटा रोग ने आ घेरा।
मैं स्वच्छता का पूरा ख्याल रखता। खान-पान में पूरा एहतियात बरतता। फिल्टर्ड पानी को भी हम उबाल कर तथा
ठंडा करके पीते। मछलियों का खाने में नामोनिशान नहीं था। पूरे एहतियात के बावजूद भी मैं उसे मिनामाटा से नहीं बचा सका। अब वह अनुराग की ही स्थिति में गुजरने लगी। उसकी स्थिति दिन प्रतिदिन गिरने लगी। दवाईयों का उस पर कोई असर नहीं हुआ। पारे का विष उसके शरीर में फैल चुका था। कागज तथा रेयान मिलों से रिसता अवशिष्ट पदार्थ.... नदी में घुलता जहरीला अपशिष्ट ...जहर घोल दिया इसने... खून के एक-एक कतरे में...पशु... पक्षी... तथा मानव...शहर का.. . बच्चा... महिला... कोई इस राक्षसी पंजे में नही बचा... हर खून दूषित हो चुका था... थोड़ा कम...थोड़ा ज्यादा... लेकिन विषाक्त पार की मात्रा हरेक के खून में थी.... पता नहीं कब. ..कौन...इस काल की चपेट में आ जाये....पूजा कैसे बचती. .. आखिर वह कोमा में चली गई...दीर्घ मूर्च्छा... उसे इस तरह मूर्छा में रहते हुए पूरा वर्ष बीत चुका था। मुझे उसके होश में आने का इंतजार था। पता नहीं वह होश में आयेगी भी या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह दीर्घ मूर्च्छा में ही दम तोड़ दे। यह सोचकर मैं काँप उठा लेकिन फिर मन में नहीं माना... मन के एक कोने में आशा की एक कोपल जिन्दा थी... मैं उसके होश में आने की प्रतीक्षा करने लगा... उस सुनहरे पल की. ....। मैं उस पल के लिये अधीर हो उठा।
उधर शहर में मिनामाटा का तांडव नृत्य जारी था।
harishgoyalswf@gmail.com
मिनामाटा = 'पारे के योगिक मिथाइल मरकरी की विषाक्तता के कारण उत्पन्न रोग का जापानी नाम, क्योंकि इस व्याधि का प्रभाव सर्वप्रथम जापान में देखा गया था।
विज्ञान कथा अक्टूबर-दिसम्बर' 2016 से साभार
प्रदूषण का विकृत रूप दर्शाती एक रोचक कहानी। सच में अगर हमने प्रदूषण पर काबू नहीं पाया तो यह पूरी मनुष्य जाति को लील लेगी।
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