हम हिन्दी-भाषी ही हैं सबसे बड़े अँगरेज! / डॉ. रामवृक्ष सिंह

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  इस देश से अँगरेजी नहीं जानेवाली। और उसकी जगह हिन्दी या अन्य कोई भारतीय भाषा नहीं आनेवाली। यह लगभग पूरी तरह स्वीकार कर लिया गया है। वैश्वी...

 

इस देश से अँगरेजी नहीं जानेवाली। और उसकी जगह हिन्दी या अन्य कोई भारतीय भाषा नहीं आनेवाली। यह लगभग पूरी तरह स्वीकार कर लिया गया है। वैश्वीकरण और उसकी कोख से उपजे कंप्यूटरीकरण, डिजिटाइजेशन आदि उत्तर अधुनातन अवधारणाओं ने यह पूरी तरह सुनिश्चित कर दिया है कि केवल भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में अब तकनीकी कार्यों के लिए भाषा के तौर पर अँगरेजी और लिपि के तौर पर रोमन का उपयोग ही अधिकांशतः होता रहेगा। यदि दुनिया की अन्य भाषाओं और लिपियों में कहीं-कहीं, किसी-किसी देश या राज्य में छिटपुट कुछ काम होगा, तो वह अँगरेजी व रोमन का पश्चगामी ही होगा। मूल काम के अँगरेजी से इतर किसी भी भाषा में होने की संभावना अब बहुत क्षीण है।

इसके कई कारण हैं, जिनमें सबसे पहला तो यही है कि सूचना प्रौद्योगिकी का बिस्मिल्लाह ही अँगरेजी और रोमन में हुआ है। उदारीकरण और वैश्वीकरण ने उस छोटी-सी लहर को एक विशाल सुनामी का रूप दे दिया है, जो पूरे ब्रह्माण्ड में छा गयी है। धरती ही नहीं, चाँद, मंगल आदि सौर-मंडल के अन्य पिण्डों पर भी जहाँ-जहाँ इंसान स्वयं अथवा अपने किसी यंत्र के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने में सक्षम हुआ है, वहाँ-वहाँ अँगरेजी और रोमन ही उसकी उपस्थिति की भाषा व लिपि बनी हैं। दूसरा कारण आर्थिक है। अँगरेजी या रोमन की जगह किसी अन्य भाषा को लाने का खर्च बहुत बड़ा है। वह खर्च इतना अधिक है कि केवल भाषान्तरण के लिए उतने बड़े खर्च का कोई औचित्य नहीं बनता। उतनी बड़ी रकम बचाकर देश और अर्थव्यवस्था के दीगर बड़े-बड़े और भाषा से अधिक जरूरी काम पूरे किए जा सकते हैं।

यही कारण है कि पिछली सदी के आखिरी कुछ दशकों में जोर-शोर से चला ‘अँगरेजी हटाओ’ आन्दोलन अब लगभग पूरी तरह दम तोड़कर, इतिहास की बात हो चला है। उस आन्दोलन के पुरोधा कहाँ और किस हाल में हैं, क्या कर रहे हैं, आन्दोलन की अलख जगी हुई है या नहीं, यह अपने-आप में शोध का विषय है। यदि शोध का विषय न हो तो भी वे पुरोधा इतनी प्रमुखता से अपनी उपस्थिति का भान हमें नहीं करा रहे हैं कि हम अपने सामान्य ज्ञान के आधार पर या समाचार अथवा संचार-माध्यमों के हवाले से बता सकें कि वे किस शहर में हैं, कौन-सी संस्था चला रहे हैं और कितने लोगों के मन में हिन्दी के लिए प्रेम की अलख अब भी जगाए हुए हैं।

इस बीच, ‘अंग्रेजी हटाओ-हिन्दी लाओ’ आन्दोलन की कोख से सरकारी अमलों और इदारों में ‘राजभाषा’ नाम की एक संकल्पना ने जन्म लिया। प्रकट रूप में तो हिन्दी को ही राजभाषा का दर्ज़ा मिला, किन्तु सन् 1963 के राजभाषा अधिनियम ने कामकाज की 14 मदों के लिए हिन्दी के साथ-साथ अँगरेजी को भी अनिवार्य रूप से नत्थी कर दिया। इसका नतीज़ा यह हुआ कि हिन्दी के साथ-साथ अँगरेजी भी लगभग अनन्त काल तक के लिए केन्द्र सरकार के कामकाज की कतिपयों मदों का माध्यम बन गई है।

राजभाषा अधिनियम 1963 के क्रियान्वयन के लिए सन् 1976 में निर्मित राजभाषा नियम की मद सं. 12 में यह प्रावधान किया गया कि किसी भी सरकारी अधिष्ठान या स्थापना में भारत की राजभाषा नीति की सभी मदों के क्रियान्वयन का दायित्व उस स्थापना के प्रशासनिक प्रमुख का होगा। इसमें यह छूट नहीं है कि यदि प्रशासनिक प्रमुख हिन्दीतर भाषी है, उसे हिन्दी नहीं आती तो वह इस दायित्व से बरी होगा। बल्कि बाद में जारी बहुत-से आदेशों, परिपत्रों आदि के ज़रिए यह अनिवार्य किया गया कि प्रत्येक सरकारी कर्मचारी सेवा में आने के तीन वर्ष के भीतर हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान अर्जित करेगा। वर्ग-4 के कर्मचारियों को इस नियम से छूट प्राप्त है।

अधिकारी के रूप में अपने लगभग तीन दशक के अनुभव के आधार पर मैं निर्भ्रान्त रूप से इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हिन्दी-भाषी कर्मचारी और अधिकारी इस मामले में बहुत बड़े अँगरेजीदाँ हैं। दक्षिण के अधिकारी और कर्मचारी कम से कम अपने कर्तव्य-बोध के चलते राजभाषा नीति के प्रावधानों को लागू करने का प्रयास करते हैं। वे जैसी भी टूटी-फूटी हिन्दी जानते हैं, उसका इस्तेमाल करते हैं। हिन्दी में हस्ताक्षर भी करते हैं और अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को हिन्दी में काम करने के लिए प्रेरित–प्रोत्साहित करते हैं। ऐसे अधिकारी यदि किसी राजभाषा कार्यान्वयन समिति के अध्यक्ष होते हैं तो एक-एक मद की रेशा-रेशा समीक्षा करते हैं और सरकारी नियमों को कार्यरूप में परिणत करने के प्रयास करते हैं। यदि आज अखिल भारतीय स्तर पर सरकारी कामकाज में हिन्दी का कुछ प्रयोग हो रहा है, तो इसका बहुत बड़ा श्रेय इन हिन्दीतर भाषा-भाषी अधिकारियों और प्रशासनिक प्रमुखों को भी दिया जाना चाहिए।

इसके विपरीत हैं वे हिन्दी-भाषी उच्चाधिकारी जो हिन्दी की अवहेलना करने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते हैं। उन्हीं की देखा-देखी उनसे कनिष्ठतर अधिकारी व कर्मचारी भी हिन्दी जानते हुए भी हिन्दी में काम नहीं करते। हिन्दी में काम करना उन्हें अपनी हेठी प्रतीत होता है। यद्यपि उन्हें हिन्दी आती है, लेकिन वे हिन्दी में काम नहीं करते। उन्हें अँगरेजी अपेक्षाकृत कम आती है। वे गलत-सलत अँगरेजी बोलते और लिखते हैं। इसके बावज़ूद अँगरेजी में काम करना उन्हें अच्छा लगता है। गृह राज्य मंत्री रिजिजू ने कुछ महीने पहले कहा था कि उत्तर भारतीयों को नियम तोड़ना अच्छा लगता है। उनका यह कथन राजभाषा संबंधी नियमों के अनुपालन के मामले में तो काफी हद तक लागू होता है।

सच्ची बात तो यह है कि हमारे देश के दस हिन्दी-भाषी प्रान्तों में ही यदि सभी लोग हिन्दी में काम करने लगें, उसका व्यवहार अपने रोज-मर्रा के सरकारी काम-काज में करने लगें, तो देश में राजभाषा अधिकारियों, अनुवादकों का बहुत बड़ा अमला रखने की ज़रूरत ही समाप्त हो जाए। किन्तु इन दस हिन्दी-भाषी प्रान्तों के साक्षर और अर्ध-साक्षर लोग ही सबसे बड़े अँगरेज़ हैं। उन्हें अँगरेज़ी से प्यार है। वे अँगरेजी बोलने-लिखने में शान और गौरव का अनुभव करते हैं, फिर चाहे वह उन्हें ठीक से आती हो या न आती हो। इसके विपरीत हिन्दी बोलने और व्यवहार करने में उन्हें लज्जा का अनुभव होता है।

उत्तर प्रदेश में हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षाओं में हर वर्ष तीस-बत्तीस लाख में से लगभग दो-तीन लाख परीक्षार्थी हिन्दी के पर्चे में फेल हो जाते हैं। जब यहाँ की जन-भाषा ही हिन्दी है, तो उसी जन-भाषा के पर्चे में विद्यार्थियों के फेल होने का क्या सबब है? ज़ाहिर है कि ये विद्यार्थी हिन्दी लिखने-पढ़ने के लिए तनिक भी श्रम नहीं करना चाहते। इसी प्रकार हिन्दी प्रान्तों के केन्द्र सरकार के कर्मचारी हिन्दी जानते हुए भी उसे लिखने, उसमें कंप्यूटर संचालन करने, टंकण आदि के काम के लिए तनिक भी प्रयास और श्रम नहीं करना चाहते। इसलिए कि इसमें उन्हें तनिक भी गौरव-बोध नहीं होता।

इन प्रान्तों में व्यक्तित्व-विकास के नाम पर निजी संस्थाओं में, युवाओं को उलटी-पुल्टी अँगरेजी सिखाई जाती है। लोक-व्यवहार के कुछ चलताऊ वाक्य, कुछ जुमले, हेलो-हाय, हाउ आर यू, फाइन, थैंक्यू, एक्स्क्यूज मी, सॉरी, पार्डन, मे आइ कम इन, प्लीज सिट डाउन, ओ के, नो इशू, या-या आदि चालीस-पचास शब्द सीख लो और जेंटल मैन या अँगरेज लेडी बन जाओ। इसी तरह अर्जित की गई आला पर्सनैलिटी के दम पर शिक्षा की गुमटियों से डिग्री-प्राप्त हमारे एमबीए और बीटेक डिग्री-धारक युवा चार-चार हजार की नौकरियाँ पाकर अपने-अपने परिवारों का नाम रोशन कर रहे हैं। यदि वे हिन्दी को सही सम्मान देते तो उनका क्या घिस जाता, हमें तो समझ नहीं आता।

यही स्थिति केन्द्र सरकार के दफ्तरों में है। वहाँ लोग आम बोल-चाल में हिन्दी का इस्तेमाल करते हैं। किन्तु जब फाइल और रजिस्टर में लिखा-पढ़ी का काम करने की बात आती है, कंप्यूटर पर काम करने का नंबर आता है तो सब मामला टाँय-टाँय फिस्स हो जाता है। उस मामले में ज्यादातर हिन्दी भाषी केन्द्र-सरकार के कर्मचारी पक्के अँगरेज बन जाते हैं।

इन पंक्तियों के लेखक ने दिल्ली के तीस हजारी टेलीफोन एक्स्चेंज में ग्राहकों के नाम, पते व अन्य अभिलेख सन् 1985-86 में ही हिन्दी में तैयार कर दिए थे। ये अभिलेख कई लेजरों में थे, जिनके पन्नों को हर कुछ महीने बाद नए सिरे से लिखना पड़ता था, क्योंकि बार-बार अलटने-पलटने से पन्ने खराब हो जाते थे। वहाँ का कोई भी सहकर्मी अँगरेजी में दक्ष नहीं था। वे सब के सब इन्टर पास या बमुश्किल स्नातक थे। सारे अभिलेख हिन्दी में तैयार करने के बाद अधोहस्ताक्षरी नई नौकरी पकड़कर दक्षिण भारत चला गया। एक वर्ष बाद अपने पुराने साथियों से मिलने आया और जिज्ञासावश उन्हीं अभिलेखों को पलटकर देखा तो पाया कि सारी इबारतें फिर से अँगरेजी में हो गई हैं।

अँगरेजी हमें रोजगार दे रही है। अँगरेजी हमें गौरव-बोध दे रही है। इसलिए अँगरेजी के प्रति हम हिन्दी-भाषियों की निष्ठा, आस्था, समर्पण, भक्ति और प्रेम स्वाभाविक है। यह दूसरी बात है कि हिन्दी भी हमें रोजगार देती है। पर हिन्दी हमारे मन में गौरव का बोध नहीं जगाती। अगर हम हिन्दी पर अधिक बल देते हैं, तो समाज के लोग हमें अल्प शिक्षित समझेंगे। समाज का तथाकथित निचला तबका तब खुद को हमसे आइडेंटिफाइ करेगा, हमारी बराबरी करेगा और यह हम साहब बन चुके सामन्ती मानसिकता वाले सरकारी अफसरों को यह गवारा नहीं। इसलिए आम आदमी से अलग दिखने के लिए, खुद को बहुत बड़ा तुर्रम खाँ साबित करने के लिए हम अँग्रेजी में काम करेंगे, अपनी भाषा में अँग्रेजी के शब्द ठूँसेंगे, और वह दिखने की कोशिश करेंगे, जो दरअसल हम हैं नहीं। यानी अँगरेज- बड़े वाले अँगरेज, सबसे बड़े वाले... लाट साहब !!!

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रचनाकार: हम हिन्दी-भाषी ही हैं सबसे बड़े अँगरेज! / डॉ. रामवृक्ष सिंह
हम हिन्दी-भाषी ही हैं सबसे बड़े अँगरेज! / डॉ. रामवृक्ष सिंह
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