साहित्य में जहां सिपाही, मजदूर, संत, वकील आदि पाये जाते रहे हैं वहीं कोतवलों की संख्या भी अच्छी-खासी है। साहित्य में उनकी चर्चा का नहीं होन...
साहित्य में जहां सिपाही, मजदूर, संत, वकील आदि पाये जाते रहे हैं वहीं कोतवलों की संख्या भी अच्छी-खासी है। साहित्य में उनकी चर्चा का नहीं होना उनकी प्रतिभा और लगन के प्रति अन्याय होगा। कोतवाल बड़ी आसानी से बता सकते हैं कि किन-किन लोगों ने साहित्य में कचरा लिखा है। उन्हें कैसे लिखना चाहिए था। प्रेमचंद दलित विरोधी थे। निराला खालिश बाभन थे। परसाई ने संस्कृति को माटी में मिला दिया। ज्ञान चतुर्वेदी ने गालियों के सिवा कुछ नहीं लिखा। असगर वजाहत सांप्रदायिक हैं। मैत्रेयी पुष्पा औरत नहीं होती तो कहीं नहीं छपतीं। कोतवालों के कंधे पर चढ़कर ही साहित्य बैताल बन जाता है। यह चीखता-चिल्लाता है लेकिन कोतवाल क्यों मानें ? इसे पीपल पर अटका कर ही आयेंगे।
कलम के कोतवालों की एक विशेषता होती है कि वे सभी विधाओं के एक्सपर्ट होते हैं। कविता और कहानी में जिस दक्षता से पैठ करेंगे, उसी तीव्रता से गजल और व्यंग्य में भी। व्यंग्य में तो वैसे भी कोतवालों की एक विशाल फौज है। वे अक्सर कोड ऑफ कंडक्ट तय करते रहते हैं। व्यंग्य एक लाईन में लिखा जायेगा, या एक पेज में; ये कोतवाल साहब तय करेंगे। व्यंग्य दो शब्दों में लिखा जायेगा या दो लाख शब्दों में यह कोतवाली में ही तय होगा। व्यंग्य के पुरस्कार किसको दिये जाने हैं, वह मनुष्य उस पुरस्कार के लिए उचित पात्र है या नहीं। इसके लिए कोतवाल साहब से एन ओ सी लेनी होगी। कोतवाल साहब के हाथ कानून से भी लंबे हैं। वे यह भी तय करते हैं कि किस पत्रिका का संपादक अपनी पत्रिका में किसकी रचना छापे या नहीं छापे। पत्रिका का स्तर कैसा है यह कोतवाल साहब से पूछ कर ही तय होगा। कोतवाल साब से यदि किसी ने पूछ लिया-'श्रीमान जी आप आजकल क्या लिख रहे हैं ? तो मुस्करायेंगे और उवाचेंगे-
-'' हमसे बचा क्या है जो लिखेंगे। साहित्य में जो भी उत्तम है वह हमने लिखा है। साहित्य में जो उत्तम होगा वह हम ही लिखेंगे। हम हैं तो साहित्य है।''
पूछने वाला श्रीमान जी के चरण कमलों में लोट कर प्रस्थान कर जायेगा। हो सकता है कि प्रस्थान करने के पूर्व पूछ ले-
-'' प्रभु , आपके इस अपूर्व ज्ञान का आधार क्या है ? क्या आपने भी तुलसीदास की तरह सभी आगमों और निगमों को अध्ययन किया है ?''
कोतवाल साहब की त्योंरियां तन जायेंगी। अपनी तुलना तुलसी से किये जाने पर आहत हो गये है। उनका जवाब होगा-
-'' अरे मूर्ख, तू क्या मुझे भी तुलसी की तरह घाट-घाट का भिखारी समझता है। उसके पास तो समय ही समय था। बैठा, पढ़ता रहता था। उसने क्या मौलिक लिखा है ? रामचरितमानस क्या है ? बाल्मिकी के रामायण की कॉपी है। मैंने आजतक किसी भी साहित्यकार को नहीं पढ़ा क्योंकि मैं अपनी मौलिकता नष्ट नहीं करना चाहता। मैं नहीं चाहता कि मेरी भाषा पर इन लोगों की छाया भी पड़े। मेरे पास समय नहीं है कि लिख सकूं । तू पढ़ने की बात करता है। मैं मास्टर हूं। छात्र नहीं कि पढूं। मै जरूरी नहीं समझता कि परसाई और जोशी के पीछे भागूं। मैं अपनी मौलिकता खोना नहीं चाहता। मैं ब्लॉग पढ़ता हूं। फेसबुक के कॉमेंटों का अध्ययन करता हूं। ट्विटर के टव्टि जिनते ज्ञान वर्द्धक होते हैं उतने कालिदास के पद भी नहीं। तू एक शब्द में सुन। मेरे पहले किसी ने उत्तम साहित्य नहीं रचा तो मैं किसी को क्यों पढ़ूं ?''
प्रश्नवाचक मूढ़ की तरह ताकेगा और पदप्रहार के भय से पलायन कर जायेगा। कोतवाल साहब केवल कलम को ही कुदाल की तरह नहीं चलाते। समय-असमय अपने सीनियर या जूनियर साहित्यकारों पर जीभ भी जूते की तरह भांजते हैं। यदि उन्हें अपनी कोतवाली के बैरोमीटर के अनुकूल किसी की रचना नहीं लगी तो नाम लेकर गालियां देने में भी गुरेज नहीं करते। उनकी इसी खासियत ने साहित्य में उनका दुर्लभ स्थान तय किया है।
एकबार वे अपने विद्यालय में बच्चों को बता रहे थे-
-'' क्या है निराला के पास ? उल्टा-सीधा जो मन में आया लिखा दिया। कहीं किसी शास्त्र में लिखा है कि राम ने शक्तिपूजा की थी। निराला ने करा दी। प्रेमचंद कौन थे ? मालूम भी है किसी को, कौन थे प्रेमचंद ? आजतक यह राज़ साहित्य से बाहर नहीं आ सका कि प्रेमचंद जो थे वह शरदचंद के छोटे भाई थे। उनकी रचनाओं को अपने नाम से छपवा लिया करते थे। कई लोगों ने तो दो नामों से लिखा है और यह घपला आलोचना के क्षेत्र में खूब हुआ है। महावीरप्रसाद द्विवेदी और हजारीप्रसाद द्विवेदी एक ही आदमी के नाम है। महावीर प्रसाद के नाम से नहीं चले तो हजारी प्रसाद नाम रख लिया। साहित्य में मेरे रहते पाखंड हो ही नही ंसकता। मैं एक-एक को बेनकाब करके छोड़ूंगा।''
एक अभागे बच्चे ने प्रश्न करने की हिम्मत की-
-'' सर हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार आप किसको मानते हैं ?''
-'' जब तक मेरा उपन्यास पूरा होकर बाजार में नहीं आता तब तक तो वेदप्रकाश शर्मा ही हिन्दी के सबसे सफल कहानीकार और उपन्यासकार हैं। आपको हंसी आयेगी। यदि किसी बच्चे ने हंसने की जुर्रत की तो प्रेक्टिकल में उसके अंक काट लिये जायेंगे। बताइये, उनके पास जितने पाठक हैं, उतने हैं किसी के पास ? पाठकों की संख्या के आधार पर उनका मुकाबला केवल गुलशननंदा से है। ये बीते हुये कल की बातें हैं। मेरे तीन उपन्यास अगले साल बाजार में आ जायेंगे। उसके बाद देखना सारी परिभाषायें बदल जायेंगी।''
-'' पर सर, आलोचक कहीं उसे स्वीकार न करें तो...........।''
-'' कौन बोला ? बोला कौन ? अच्छा तो यह तू है बलदेउवा। बेटा, इस बार तो तू पास ही नहीं करेगा। इ आलोचक कौन होता है रे। हम अपनी आलोचना की पुस्तक ला रहे हैं- ' हिन्दी उपन्यास के नये मापदंड'। खुद ही मापदंड तय करेंगे। ससुर कलम के कोतवाल हम हैं और तय करेंगे दूसरे। देख लूंगा एक-एक को।''
शशिकांत सिंह 'शशि'
जवाहर नवोदय विद्यालय शंकरनगर नांदेड़ महाराष्ट्र, 431736
मोबाइल-7387311701
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skantsingh28@gmail.com
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आशाओं के रथ पर दो वर्ष की यात्रा - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन व्यंग्य...
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