सोयी हुई धूप के सिरहाने वो आदमी एक निर्वस्त्र पोटली की तरह लेटा है सोयी हुई धूप के सिरहाने सूरज की कंपकंपाती किरणें उसके बदन के उभ...
सोयी हुई धूप के सिरहाने
वो आदमी
एक निर्वस्त्र पोटली की तरह
लेटा है
सोयी हुई धूप के सिरहाने
सूरज की कंपकंपाती किरणें
उसके बदन के उभड़े हुए हिस्सों पर
अंगुलियाँ फिराने के प्रयत्न में
अक्सर
बर्फीली हवा द्वारा
निगल ली जाती हैं
और से के बादलों में गुम हो जाती है.
सोयी हुई धूप के सिरहाने
खली पड़े मैदान के आगोश में लेटी
एक औपनिवेशिक इमारत
नितांत सर्द भय में
इस तरह कांपती रहती है हमेशा
जैसे भूकंप के चाबुक पर
मानकों के सरपट घोड़े
ध्वस्त कर डालना चाहते हों
गतिहीनता के सारे रिकार्ड.
वो पुराने पेड़
जिन्हें कहीं नहीं जाना होता
किसी भी मोसम में
छुट्टियों के दरमियां भी
सोयी हुई धूप के चहरे को
निहारते रहते हैं अपलक सिरहाने खड़े
सोचते
ये नींद बहुत देर तक नहीं टिकेगी
शाम से पहले ही
उजाले के पैरों में जंजीरें डाल देगा कुहासा
वो आदमी जो सारी नग्नता के साथ
इतने इत्मीनान से लिपटा रहा है
इसके गर्म जिस्म के साथ
बर्फ़ का टुकड़ा बनने से पहले
ज़रूर उठ बेठेगा
और हाथों के शामियानों से
सर्दी की शर्मिंदगी ढांपने की कोशिश करेगा
वो ईमारत भी भाग खड़ी होगी निस्संदेह
अतीत की अदृश्य दीवारों के पीछे.
कुछ ही पलों में सोयी हुई धूप
फाख्ता हो जाएगी.
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२.जड़ों को तलाशते मृत पेड़
वो इंसान मेरी शब्दावली में पेड़ है.
वो पेड़
वो जो वहां है, शायद
मेरी इसी शव्दावली में एक इंसान है
कुछ ऐसे ही हैं मेरे मापदंड
कुछ ऐसी ही मेरी पहचान है
मैं उपमाओं और रूपकों के रेगिस्तान का
आकस्मिक गोताखोर हूँ
मेरी अँगुलियों में प्राचीन बत्तखों के घोंसले हैं
मेरे शरीर पर डॉलफिन की चिकनाई है
वो एस्किमो
वो उस पेड़ पर बने मचान पर रहता है
जो अपने ही पसीने की नदी से
जीवित रहता है .
मुझे लगता है
मेरा दिमाग
तेज़ दौड़ते पहियों पर चिपक गया है
अनायास ही ये
उलजलूल अतीन्द्रिय वार्तालाप में
विलुप्त हो जाता है
जैसे सारा विश्व
चक्करों के चक्रव्यूह में फंस गया हो.
वो पेड़ जिसे पेड़ कहना
अतीत के प्रति अपराध होगा
हड्डियों के सूखे ढांचे में तब्दील हो गया है
किंकर्तव्यविमूढ़ मुद्रा में झुर्रियों की तरह झर रहा है
जड़ों को ढूँढने का मरणासन्न प्रयत्न कर रहा है.
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३. समय की अधूरी आलोचना
मैं अपनी अंगुलियों में गिरफ्त कलम से
समय को मुटठ्ठियों में ढालना चाहता हूँ,
उन जगहों पर जहाँ मेरा होना
बेहद ज़रूरी होता है,
गैर-ज़रूरी ढंग से
मैं गायब रहता हूँ;
जिस समय मेरी आवाज़ को लोग सुन सकते है
मैं प्रतिध्वनियों की प्रतीक्षा करता हूँ;
इस दौरान
मेरे शब्दों के मुन्तजिर लोग
मुझे मूक-बघिर समझ कर
सामान्यताओं को सीमा से बाहर कर चुके होते है.
वो सबसे ज्यादा नुकीले मुद्दे
जो मुझे समाप्त कर रहे होते हैं
उन्हें मैं झेलता रहता हूँ
सहनशक्ति का मुद्दा बनाये .
सुर्ख़ियों को
बासीपन के मनमाफिक मुलम्मे में लपेटकर
आँख-मिचौली का खेल खेलता हूँ
मुझे अख़बार के रंगीन पन्नों पर
साँस लेने लायक कुछ तस्वीरें मिल जाती है
फिर फेफड़ों में भर जाती है सुबह के पेड़ों की ताज़ी हवा
किसी स्मैकिये की तरह मेरा अभ्यस्त मस्तिष्क
तृप्त होने लगता है मेरे भगोड़ेपन से निज़ात पाकर.
बलात्कार के सामाजिक समारोहों
उनके राजकीय उद्घाटनों की मार्मिक खबरों को
मैं ‘दबंग’ की दूसरी क़िस्त से
निष्क्रिय कर डालता हूँ
इससे पहले की वो कोई दबाब बना सके
मेरी विज्ञापन-सुलभ चेतना पर .
मुझे फ़िक्र है तो
देशव्यापी भ्रष्टाचार को कुछ लोगों की टोली
कैसे इस देश से मिटा सकती है
जबकि मेरे जांघिये और बनियान में
रिश्वतखोरी और भ्रष्टता की चिरकालिक दुर्गन्ध है
और मेरे माथे से पिछले निलंबन की इबारत मिटी नहीं है
मुझे स्त्रियों और भ्रष्टाचार से नफ़रत है
स्त्रियाँ भ्रष्टाचार के लिए उकसाती हैं
भ्रष्टाचार मुझे आकृष्ट करता है
मुझे उन दलितों से भी नफरत है
जो जब देखो भिखमंगो की तरह
आरक्षण मांगते फिरते हैं कभी राज्य से कभी उद्योग से कभी समाज से
हर जगह दिखने लगे हैं ये
दफ्तर में, टी वी पर , किताबों में
यहाँ तक की हमारी पॉश कोलोनियों में
मुझे मुसलमानों से भी ज्यादा है इन दलितों से
मुझे अस्मिताओं के संघर्ष पर विश्वास नहीं है
मेरी नसों में राष्ट्रवाद की पवित्र सरिता बहती है
मुझे इस देश से बेहद प्यार है
प्यार है मुझे अपने अतीत से
स्नेह अक्षय अपनी संस्कृति से
संस्कृति अक्षुण्ण पुरातन काल से
इसके लिए
रक्तपात भी कर सकता हूँ
मैं अपने ही देशवासियों का
फिर उन्हें
धर्मान्धता, उग्रवाद, नक्सलवाद की संगीनों पर
जिंदा लटका सकता हूँ .
मैं पेशाब की सार्वजानिक अवैध जगहों पर
जहाँ नगरपालिकाओं की नज़र नहीं जाती
भीतर के वहशी इन्सान को
चालू गालियों में व्यक्त कर डालता हूँ
जिस के आस-पास उग आते हैं कई चित्र
मर्दवादी समाज के नपुंसक मानचित्र
ऐसी जगहों के सिवाय
शालीनता के सौ पुतलों के बराबर
नाटकीय अभिनायक हूँ मैं.
चाय की दुकानों पर मैं बहस नहीं करता
मुझे लगता है
मेरी भरी-भरकम शव्दावालियों के नीचे
इस देश के सर्वहारा की जान निकला जाएगी
या फिर वो शख्स
जो पढ़े-लिखे लगते हैं
चटपटी स्थानीय खबरों की तरह
पोस्ट-मार्टम की मेज बना डालेंगे
मेरे श्रमसाध्य विचारों की लाशों को
इन्हें जीवित बचाए रखना
बड़ा कठिन पड़ सकता है मेरे लिए .
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संक्षिप परिचय :डॉ. नरेन्द्र कुमार आर्य . जन्म-अगस्त १९७४ में मुरादाबाद जनपद , उत्तर -प्रदेश;उच्च शिक्षा -एम.ए (राजनीति विज्ञान )एम.बी.ए.(विपणन) बनारस हिंदू विश्वविद्यालय,डॉक्टरेट पटना विश्वविद्यालय.पूर्व वरिष्ठ व्याख्याता वर्तमान में भारत सरकार के सार्वजनिक उपक्रम में प्रबंधकीय पद पर कार्यरत; विभिन्न अकादमिक और प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं यथा ‘हंस’, ‘वाक्’, कथादेश, जनपथ, युद्धरत आम आदमी, अपेक्षा, मीडिया विमर्श,फ़िलहाल,पत्रिकाओं इत्यादि एवं जर्नल्स में लेख व कवितायेँ. अंग्रेजी कविताओं का कई विदेशी आन्तार्जालिक रैबिट,वर्सराईट, डेड स्नेक , रैवेन, रैबिट, कैमल सलून,सेकंड हम्प, इत्यादि पत्रिकाओं मे प्रकाशन. “कैमल सलून” द्वारा प्रतिष्ठित “Sundress Press best poetry on net (2014) के लिए नामांकित किया गया.
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