( पिछले अंक से जारी…) कहानी - 9 बलदेव काका चौक बाजार में उस दिन सहमी हुई गहमागहमी थी. दुकानें खुलीं थी. ग्राहक भी आ-जा रहे थे. सौदा-सु...
कहानी - 9
बलदेव काका
चौक बाजार में उस दिन सहमी हुई गहमागहमी थी. दुकानें खुलीं थी. ग्राहक भी आ-जा रहे थे. सौदा-सुलफ भी खरीदा-बेचा जा रहा था, परन्तु सभी दुकानदारों के चेहरे पर एक सहमा हुआ सन्नाटा बैठा हुआ था. ग्राहकों को सौदा देते हुए रह-रहकर उनकी निगाहें बीच मैदान की तरफ उठ जाती थीं. एक पल वहां ठहरकर कुछ तलाशने का प्रयत्न करतीं और फिर वापस दुकान में खड़े लोगों पर आकर उलझ जातीं. किसी भी दुकानदार का चित्त शांत नहीं था. वह बेमन से ग्राहकों को निपटा रहे थे. लेकिन मन उनका कहीं और भटक रहा था दुकानदारी के हिसाब से अभी दिन की शुरुआत हुई थी. चौक की दुकानें दस से ग्यारह के बीच खुल जाती थीं, क्योंकि चौक में बहुत सारी दुकानें थोकवाली थीं, अतः फुटकर दुकानदार वहां से सौदा खरीदते थे. थोक ग्राहकों की आवा-जाही ग्यारह बजे से प्रारंभ हो जाती थी ; जबकि फुटकर ग्राहकों की आवा-जाही शाम को शुरू होती थी. तब इस मार्केट में पैदल निकलना भी आसानी से संभव नहीं होता था. तिस पर भी रिक्शेवाले, स्कूटर और मोटर साइकिल वाले घुसे चले आते थे. साइकिल वालों को तो कोई रोक नहीं सकता था. कभी-कभी तो चार पहिये वाला भी भीड़ में घुस आता और गालियां देता हुआ, रिक्शे वालों और स्कूटर, मोटर साइकिलों को रगड़ता हुआ बड़ी मुश्किल से दो कदम का रास्ता आधे घण्टा में पार कर पाता था. ऐसे में लोग एक दूसरे की मां-बहिन की करते हुए, सारे दिन की भड़ास निकालते थे कभी-कभी गर्दन पकड़ने के दृश्य भी उपस्थित हो जाते थे. ऐसे में कमजोर आदमी पिट जाता और मारने वाला मारने के बाद फौरन वहां से तिड़ी हो जाता था. जब तक वहां पर तैनात एक मात्र सिपाही को इसकी खबर लगती और वह मौका-ए-वारदात पर पहुंचता, तब तक वारदात को अंजाम देने वाला अपना अता-पता साथ लेकर गायब हो चुका होता था. बस, ले-देकर पिटा-पिटाया शिकार बचता था, जो अपने आततायी की कोई खबर नहीं दे पाता था.
कस्बे का बाजार था, आकार में छोटा था, परन्तु काफी भीड़-भाड़ वाला था सभी दुकानदार एक-दूसरे के परिचित थे और उनके बीच अपनत्व, भाई चारा और सद्भाव की अटूट भावना थी. एक-दूसरे की गमी में शरीक होते थे, तो खुशी में साथ मिलकर नाचते-गाते थे. ऊंच-नीच और छोटी-बड़ी जाति का उनके बीच कोई मसला नहीं था. बाजार के बीच में सभी एक समान थे. बाकी बातों के लिए परिवार और समाज था ही चाय की छोटी सी दुकान चलाने वाले जगदीश ने बगल की पान की दुकान वाले घनश्याम चौरसिया से पूछा- ‘‘चौरसिया भाई! आज बाजार सूना-सूना लग रहा है, जैसे कोई मनहूसियत सी बरस रही हो सारे बाजार में.''
‘‘हां, जगदीश भाई! मैं भी देख रहा हूं. क्या कारण हो सकता है इसका? मौसम ठीक है, आसमान साफ है, सूरज की किरणें बाकायदा चारों तरफ अपनी रोशनी बिखेर रही हैं. फिर भी पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है, जैसे सब कुछ सर्द हो गया हो.''
‘‘सर्दी तो है, परन्तु न तो कोहरा है, न हवा में सिहरा देने वाली ठंड. गर्मी भी कल की अपेक्षा आज ज्यादा है, फिर...?'' जगदीश बुझे से स्वर में बोला. वह भगोने से केतली में चाय उड़ेल रहा था चौरसिया बीच चौक की तरफ देखता हुआ बोला, ‘‘भैय्या, एक बात बताऊं. मुझे तो कुछ गड़बड़ लगती है. तुमने देखा, सामने बरगद के नीचे जगह खाली पड़ी है.'' जगदीश ने भगोने को फिर से भट्ठी पर चढ़ा दिया था. उसमें खौलने के लिए पानी डालते हुए कहा- ‘‘हां भैया देखा है, क्या तुम भी वही सोच रहे हो, जो मेरे मन में चल रहा है?''
‘‘शायद!'' चौरसिया अपनी गुमटी से उतरकर बाहर आ गया. कान का मफलर खोलकर गर्दन को एक झटका दिया, जैसे ठण्ड को झटककर भगा रहा हो. फिर मफलर को गले में डालकर एक जोरदार अंगडाई ली, जैसे कुत्ता अपनी झपकी लेकर अंगड़ाते हुए उठ खड़ा होता है. घनश्याम चाय की भट्ठी के नजदीक आता हुआ बोला- ‘‘काका नहीं आए आज! उनका ठीहा खाली पड़ा है. ऐसा कभी नहीं हुआ. जब से मैं पान की गुमटी पर बैठने लगा हूं, आज पहली बार उनका ठीहा खाली दिखा है. बीमारी में भी वह अपने साजो-सामान के साथ सुबह सात बजे अपनी दुकान सजा लेते थे. सर्दी में भले ही आठ बज जाएं, लेकिन नागा कभी नहीं किया. सर्दी, गर्मी, बरसात...सभी दिन उनके लिए बराबर थे. कहीं कुछ...!''
जगदीश अपने हाथ सेंकते हुए बोला, ‘‘शंका तो मुझे भी हो रही है. कल वह बहुत ढीले लग रहे थे. भगवान करे, सब ठीक-ठाक हो. सर्दी बूढ़े लोगों के लिए काल बनकर आती है.''
‘‘हां, भैया! क्या उनके घर जाकर पता करें?''
‘‘देख लो! दुकान खुली रहने दो. मैं हूं न! कोई ग्राहक आया तो बोल दूंगा कि पन्द्रह मिनट में आओ. तब तक तो लौट आओगे?''
‘‘हां,'' घनश्याम ने गुमटी की बगल में खड़ी अपनी साइकिल उठाई और एक ही झटके में उस पर सवार होकर एक तरफ दौड़ा दी.
घनश्याम थोड़ी देर करके लौटा. आधे घण्टे से ज्यादा हो गया था, तब वह लौटा. उसके चेहरे पर मुर्दनी छाई थी, फिर भी जगदीश ने पूछा- ‘‘सब ठीक है न!''
‘‘काका नहीं रहे!'' घनश्याम ने जैसे धमाका किया. उसने अपनी साइकिल गुमटी के सहारे टिकाई नहीं; बल्कि पटक दी. वह धम से चाय की दुकान के सामने रखी बेंच पर बैठ गया. जगदीश का मुंह थोड़ी देर के लिए खुला का खुला रह गया, फिर संभलकर बोला, ‘‘बैठ क्यों गये? चलना नहीं है? सबको बता दो. मैं भी दुकान बन्द करता हूं.'' जगदीश सामान समेटने लगा. लड़के को आवाज देकर जल्दी-जल्दी सब कुछ समेटने और दुकान बन्द करने के निर्देश देने लगा. इस बीच घनश्याम ऐसे बैठा रहा, जैसे उसके शरीर का सारा खून किसी ने निचोड़ लिया हो. पलक झपकते पूरे बाजार में खबर हो गई कि बलदेव काका नहीं रहे. उनका इन्तकाल हो गया है. अर्थी में जाना है. धड़ाधड़ दुकानें बन्द हो गईं. बलदेव काका की भले अपनी कोई दुकान नहीं थी, लेकिन वह इस बाजार के सबसे पुराने और सम्मानित सदस्य थे. वह बरगद के नीचे वाले चबूतरे पर रेगजीन का बड़ा टुकड़ा बिछा लेते थे. उसके ऊपर एक चद्दर दोहरा करके रख लेते थे. बगल में उनका साजो-सामान रहता था, जिससे वह अपना काम करते थे पुराने फटे-टूटे जूते-चप्पल गांठने का काम करते थे, पूरी निष्ठा और ईमानदारी से. उनके काम में इतनी सफाई और मजबूती होती थी कि जूता घिस-फटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाता था, परन्तु उनकी मरम्मत की हुई चीज पर दुबारा मरम्मत करवाने की जरूरत नहीं पड़ती थी बलदेव काका न तो कोई सन्त-महात्मा थे, न मुनि या धर्मगुरू. वह अरबपति-करोड़पति भी नहीं थे कि आर्थिक रूप से किसी की मदद कर सकते या मन्दिरों में जाकर लाखों रुपये की नकदी या जेवर चढ़ा सकते. वह कोई खैराती संस्था भी नहीं चला रहे थे, न उन्होंने किसी अनाथा लय के बच्चों को गोद लिया था. वह कस्बे के सीधे-सच्चे इन्सान थे. उन्होंने अपने स्वभाव और व्यवहार से चौक बाजार ही नहीं, सभी जानने-पहचानने वाले लोगों के बीच एक समझदार, सुलझे और मददगार व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान बनाई थी. उनके स्वभाव के कारण ही लोग उनकी श्रद्धा करते थे, उन्हें मानते थे और उनकी इज्जत करते थे जूता बाजार में तब बड़ी-बड़ी कंपनियां नहीं आई थीं. कस्बे में दो जूता-चप्पल की दुकानें थी, जिसमें कानपुर के बने जूते चप्पल बिकते थे. बाटा व फ्लेक्स के जूते कस्बे में नहीं मिलते थे. बूट और चमरौधे के लिए लोग घर में बने जूतों पर ही भरोसा करते थे. तब बलदेव काका की अपनी कोई दुकान नहीं थी. घर के एक कोने में ही जूता बनाने का काम करते थे. अच्छा काम चल जाता था. घर में सुख की रोटी नसीब हो रही थी परन्तु बुरा हो नए जमाने का...बाजार में नकली चमड़े के जूतों की बहार छा गई. जगह-जगह तरह-तरह की कंपनियों के भण्डार खुल गये. लोगों के पास भी इतना समय नहीं था कि एक बार जूते की नाप देने जाएं, फिर रुककर सप्ताह-पन्द्रह दिन इन्तजार करें. तब कहीं पांवों को जूता नसीब होता था. अब तो दुकान में घुसते ही आनन-फानन जूता दिखाने का कार्यक्रम संपन्न होता है और पसन्द आते ही लोग जूता खरीद लेते हैं. फिर साल-छः महीना पहनकर फेंक देते हैं. बाजार की मार ने बलदेव काका की कमर तोड़ दी. पुश्तैनी धन्धे के अलावा उनके पास और कोई काम नहीं था. इकलौता बेटा था, उसे भी यही काम सिखाया था. उसकी शादी भी कर दी थी. घर में चार सदस्य थे, परन्तु किसी के हाथ में कोई काम नहीं था और आमदनी के सारे स्रोत धीरे-धीरे सूखने लगे थे. जूते मरम्मत के काम में रुपया-दो-रुपया आ जाता था, परन्तु वह दाल में नमक के बराबर भी न होता. जहां अभाव होता है, वहां कष्ट अधिक होते हैं. आपस में तकरार बढ़ती है. प्रगति और विकास के रास्ते खुलते हैं, तो कुछ पुराने रास्ते बन्द भी हो जाते हैं. बन्द होने वाले रास्तों से गुजरने वाले कुछ लोगों की रोजी-रोटी के रास्ते भी बन्द हो जाते हैं. बलदेव काका को जूते गांठने के सिवा और कोई काम नहीं आता था. नए जूते कोई बनवाता नहीं था. लड़का भी कोई दूसरा काम नहीं करता था. अन्य लोगों के पास इफरात का पैसा आने लगा था. बने-बनाए जूते पहनने लगे थे. थोड़ा कटे-फटे नहीं कि नई जोड़ी खरीद लेते थे. ऐसे में बलदेव काका और उनके परिवार का गुजारा होना मुश्किल होता जा रहा था.
घर में काम धन्धे को लेकर रोज तकरार होती. लड़का इस बात पे नाराज रहता कि बाप ने कुछ कमाकर नहीं जोड़ा, वरना आज वह भी नए रेडीमेड जूतों की दुकान खोलकर बैठ जाता. मजदूरी कर नहीं सकते, कभी बाप-दादों ने भी नहीं किया था अब तक पुश्तैनी धन्धे से ही गुजारा होता रहा. अब उस पर भी आधुनिकता की मार पड़ गई थी.
घर में अभाव, गरीबी, रोज-रोज की कहा-सुनी और लड़ाई के बावजूद बलदेव काका ने चौक पर बैठना नहीं छोड़ा. बरगद के पेड़ के बन चबूतरे के नीचे जमीन पर वह अपना सामान लेकर बैठ जाते. आते-जाते इक्का-दुक्का लोग पालिश करवा लेते. आस-पास के घरों के बच्चे अपने घर के बड़े-बूढ़ों की टूटी चप्पलें भी बनवाने के लिए आ जाते. बच्चे आते तो दो-तीन के झुण्ड में आते. वह पास ही बैठ कर बलदेव काका के मरम्मत करते हाथों को देखते और जिज्ञासावश कुछ न कुछ पूछते रहते. बलदेव काका बहुत मीठी और सधी आवाज में उनकी बात का जवाब देते. उनकी बातों में हंसी का पुट रहता था. बच्चों को उनकी बातों में बहुत आनन्द आता था और वह देर तक बैठकर उनकी मीठी-मीठी बातों का मजा लेते रहते थे. इस प्रकार बलदेव काका का वक्त भी कट जाता था और उन्हें घर में पनप रहे विद्रोह की आग की आंच भी महसूस नहीं होती. उतनी देर के लिए वह सब कुछ भूल जाते..वह घर-परिवार, समाज और दुनिया से निस्पृह हो जाते. एक ऐसे सन्त बन जाते, जिसे संसार का कोई कष्ट नहीं व्यापता और कोई सुख आह्लादित नहीं करता, परन्तु पराये घरों के बच्चे उनकी बातों से न केवल आनन्दित होते; बल्कि अपने में एक जीवन दायिनी स्फूर्ति और प्रेरणादायी भावना का संचार पाते. बच्चे भले इस बात को न समझ पाते रहे हों कि बलदेव काका की वाणी में कितना प्यार और स्नेह होता था, परन्तु उनकी बातों का असर उनके दिल पर इतना गहरा होता था कि घर जाकर वह बलदेव काका की प्रेरक बातों को जैसे का तैसा बताते थे. तब चौक के इर्द-गिर्द बसे लोगों को आभास हुआ कि बलदेव काका एक सन्त हैं, खुद कष्ट सहकर दूसरों को सुख देनेवाले बलदेव काका भले ही दूसरों के लिए सन्त समान रहे हों, अपनी बातों से दूसरों को प्रेरणा और आनन्द देते रहे हों; परन्तु अपने बहू-बेटे को वह कभी प्रसन्न नहीं कर पाए. घर के कष्टों, अभावों के लिए उनके बहू और बेटा अपने पिता को ही दोड्ढी मानते रहे कि उन्होंने बच्चों के लिए कुछ नहीं किया, जबकि बेटा खुद कोई काम नहीं करता था. दिन भर घर में पड़ा रहता, रूखी-सूखी खाता और मां-बाप को गालियां देता. बाप तो कुछ बोलता ही नहीं था, परन्तु मां कभी-कभी अपना मुंह खोल देती- ‘‘खुद तो सांड़ हो गया है, पर कुछ करता-धरता नहीं! बाप को गाली देने से क्या तेरा पेट भर जाएगा? तू ऐसे ही नहीं बड़ा हो गया है. बाप कमाता नहीं तो क्या तुझे माटी खिला-पिलाकर बड़ा किया है. तेरी शादी क्या बिना पैसे के हो गयी है? यह जो छम्मक-छल्लो बैठी है, जिसकी गोद में सर रखकर तू सुख की नींद सोता है, ऐसे ही नसीब नहीं हो गई है तेरे को. जा मरे, शरम नहीं आती. जाकर मेहनत-मजदूरी कर, तो घर में सुख का अन्न-जल नसीब हो.''
‘‘तुमने मुझे इस लायक बनाया है क्या कि कुछ काम-धाम कर सकूं. सड़क पर पत्थर नहीं तोडूंगा. ईंट-गारा मेरे बस का नहीं है.'' वह झुंझलाकर बोला.
‘‘तो जाकर अपने ढंग का काम कर. सारा कसूर मां-बाप का ही नहीं होता. पढ़ने-लिखने तो भेजा था. क्यों न ढंग से पढ़ाई की! तू ही न पढ़े तो कोई क्या करे? अब तू बड़ा हो गया है, बीवी आ गई है. अपना और इसका पेट कैसे भरेगा? बाप का हाथ कब तक चलेगा? पचास के ऊपर के तो हो गए. अब कोई सौ साल तो जिएंगे नहीं. आगे तुझे ही तो करना है.'' मां कुढ़कर कहती. बहू सबकी सुनती, परन्तु कहती कुछ न! सास ससुर की मजबूरी से भी वह परिचित थी, और अपने खसम की काहिली, कामचोरी और निठल्लेपन से भी. कुछ कहती तो दोनों तरफ की मार सहती, इसलिए वह बीच में नहीं पड़ती थी, परन्तु अकेले में पति को जरूर समझाती कि बैठे-ठाले इतनी बड़ी जिन्दगी नहीं पार होगी. आगे बच्चे भी होंगे. कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा. अब वह कोई अफसर तो बन नहीं सकता था. धन्धा-व्यापार करने के लिए घर में उतना रुपया-पैसा नहीं था, तो फिर उसे मेहनत-मजदूरी करके ही दो पैसे कमाने होंगे और बीवी, बच्चे, खुद तथा मां-बाप का पेट भरना होगा. बेटे में पता नहीं कैसे कुलच्छन समा गए थे, किसकी संगत का ये असर था कि किसी की बात का उस पर कोई असर न होता था. बाप का साधु स्वभाव था ; निर्मल मन था, बातों में सच्चाई थी. कभी किसी से दिल दुःखाने वाली बात न करता था. लोग उनके पास आकर बैठते थे. उनकी वाणी से जैसे सभी के कानों में अमृत घुल जाता था. पराए घरों के छोटे-छोटे बच्चे उनकी बातों से आहलादित होकर हंसते-खिलखिलाते थे, परन्तु अपने बेटे के मन में जीवन के प्रति ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा वह नहीं जगा सके, इस बात का उन्हें अफसोस नहीं था. वह सोचते थे, मार्ग दिखाने वाला तो ईश्वर है. बेटे को जब ठोकर लगेगी, तो वह स्वयं ही सीधे रास्ते पर आ जाएगा.
एक दिन बेटे ने ऐलान किया कि वह अमृतसर जाएगा. सुनकर सब हैरान रह गये. बलदेव काका ने पत्नी की तरफ देखा, पत्नी ने उनकी तरफ...! बहू भी वहीं पास में खड़ी थी. बेटा युद्धस्थल में जाने के लिए कमर कसकर तैयार खड़ा था. उसका बदन अकड़ा हुआ था, चेहरे पर गुस्से की लहर सी दौड़ रही थी, जैसे अभी-अभी दुश्मन के हाथ-पैर तोड़कर रख देगा.
‘‘अमृतसर जाकर क्या करेगा?'' मां ने इस भाव से पूछा, जैसे ताना मार रही हो कि तेरे बाप-दादे भी कभी अमृतसर गये थे.
‘‘सतबीर बता रहा था, अमृतसर में हमारे जैसे नौजवानों के लिए बहुत काम है. वहां बहुत सारी फैक्टरियां हैं, मिलें हैं, काम की कोई कमी नहीं है.'' उसने उत्साह से बताया जैसे किसी अफसर की नौकरी मिल गई हो वहां.
‘‘हां, वहां तेरे बाप का राज है न! अच्छी खासी जमीदारी है, मिलें चल रहीं हैं. बैठकर हुकुम चलाएगा.''
‘‘हुकुम न सही, काम करके तो पैसा मिलेगा.''
‘‘तेरे बस का है? यहां तो तिनका नहीं हिला पाता, वहां कौन सा पहाड़ उठा लेगा.'' मां ने व्यंग्य से कहा.
‘‘यहां और वहां के काम में फर्क है. यहां मजदूरी भी कम मिलती है. मेरे लिए किराए-भाड़े का इन्तजाम कर दो. कल सुबह जाऊंगा.'' उसने अंतिम घोषणा कर दी और अपनी कोठरी में घुस गया. पीछे-पीछे उसकी औरत भी अन्दर चली गई.
‘‘देखो तो, कैसे हुकुम चला रहा है. इस तरह पैसे मांग रहा है, जैसे हमने उसका कर्जा खाया हो. महाजन का कारिन्दा भी इतनी अकड़ दिखाकर पैसे नहीं मांगता. यह हमारा बेटा है...! आग लगे ऐसे बेटे-बहू पर...बुढ़ापे में खटना पड़ रहा है. बाप अधमरा हो गया है, पता नहीं कब टपक जाए और इन्हें जवानी चढ़ी है. मस्ती के सिवा कुछ सूझता ही नहीं.'' बलदेव काका इतनी देर से चुप बैठे सबकी बातें सुन रहे थे. बीवी थोड़ा चुप हुई तो बोले, ‘‘जाने दो उसे, शायद बाहर जाकर सुधर जाए. यहां पुश्तैनी काम करने में उसे शर्म लगती है. बाहर कोई भी काम-धन्धा कर लेगा. कमाकर कम से कम अपना तो पेट भरेगा.''
‘‘जाए, तो अपनी छम्मकछल्लो को भी ले जाए. यहां उसे बिठाकर कौन खिलाएगा?'' बीवी ने भी अपना फैसला सुना दिया. उसकी बात वाजिब थी. लड़का बाहर चला जाए और बीवी यहां बैठी रहे. वह कुछ कमाकर न भेजे तो तीन पेट भरने के लिए अन्न कहां से आएगा? बलदेव के बूढ़े हाथ-पैर कब तक साथ देंगे? किस किस को कमाकर खिलाएंगे. इस बारे में बूढ़े मां-बाप को अधिक चिन्ता का सामना नहीं करना पड़ा. कुछ देर बाद बेटे ने खुद ही कोठरी से बाहर आकर ऐलान कर दिया कि वह अपनी पत्नी को भी साथ ले जाएगा. सबने राहत की सांस ली, परन्तु उन दोनों के लिए किराये-भाड़े का इन्तजाम करना हिमालय पर्वत पर चढ़ाई करने के बराबर था रात हो चुकी थी. इतनी रात को पैसे का इन्तजाम कहां से होता? बलदेव चिन्ता में पड़े थे. आज तक किसी के आगे हाथ नहीं पसारा था. जब तक अपनी दुकान थी, खा-पीकर दो पैसे बच जाते थे. उधर दुकान टूटी, इधर पैसों का टोंटा होने लगा. बेटा-बड़ा हुआ, उसकी शादी की. घर में बहू आई, तो खर्चे भी बढ़ गए. बेटा काम न करता था, वरना इतनी परेशानी न होती. ले-देकर उन्हीं की कमाई पर घर के खर्चे चलते थे बेटे के कारण आज उन्हें दूसरे के सामने हाथ पसारने की नौबत आ पड़ी थी चौक बाजार में सभी उनकी सज्जनता और ईमानदारी से परिचित थे. वहां के सभी दुकानदार लखपति थे. हजार-पांच सौ की उनके लिए कोई कीमत नहीं थी. बलदेव उनसे पैसे मांगते तो क्या न देते? परन्तु बलदेव को स्वयं संकोच हो रहा था. एक मन कहता चले जाओ, बेटे के लिए बाप पता नहीं क्या-क्या करता है, कितने कष्ट उठाता है. यह तो बहुत छोटी बात है. समाज में वक्त-जरूरत पर लोग एक-दूसरे से उधार लेते-देते हैं. इसमें कोई बुराई नहीं है. यह एक सामाजिक जरूरत है. पांच सौ रुपये के लिए कोई मना नहीं करेगा. बहुत सोच-विचारकर वह चौक बाजार के जौहरी रूपलाल रस्तोगी के घर पहुंचे. रात हो चुकी थी, परन्तु रस्तोगी जी बाहर ही टहल रहे थे. बलदेव ने राम-राम की, ‘‘मालिक राम-राम!''
‘‘अरे, बलदेव तुम! राम राम...कहो, कैसे आना हुआ? इतनी रात को क्या काम पड़ गया?'' बलदेव ने संकोच के साथ कहा, ‘‘मालिक, जरूरत ही ऐसी आ पड़ी, बड़ी उम्मीद लेकर आया हूं.''
‘‘हां, हां, बोलो!'' रस्तोगी जी ने खुशदिली से कहा बलदेव की हिम्मत बढ़ी और उसने धीरे-धीरे अपने मन की पर्ते खोल दींलड़के की समस्या के बारे में बताया और अपनी जरुरत भी...सुनकर रस्तोगीजी खुलकर हंसे, ‘‘अरे बलदेव, इतनी छोटी सी बात और तुम शर्म से गड़े जा रहे हो. पहले ही बताते. तुम पांच सौ क्या, हजार ले जाओ. तुम्हारे आशीर्वाद से हम लाखों कमा लेंगे. तुम्हारे जैसे सत्पुरुष की मदद करेंगे, तो क्या ईश्वर हमारी मदद न करेगा.'' रस्तोगी जी के बोल-बचन सुनकर बलदेव और ज्यादा संकोच से भर उठाबोला, ‘‘मैं आपकी पाई-पाई वापस कर दूंगा, ब्याज सहित...बस पांच सौ की मदद कर दीजिए.''
‘‘इसकी जरुरत नहीं पड़ेगी. समझ लो, यह पैसा मैंने शिर्डी बाबा के चरणों में दान कर दिया.''
बेटा बहू चले गये. घर में बलदेव और उनकी पत्नी रह गये. बेटा चाहे जैसा भी था. उसकी और बहू की वजह से घर भरा-भरा लगता था. अब चारों तरफ सन्नाटा पसरा रहता. सुबह बलदेव अपने औजार लेकर चौक चले जाते. घर और सूना हो जाता. बुढ़िया पड़ोस में बैठकर समय गुजारती. उस मोहल्ले की सभी औरतों की जिन्दगी एक ही जैसी थी...चूल्हा चौका, बर्तन भाड़े, कपड़े लत्ते और गप्पें. बलदेव तथा अन्य लोगों के घरों में केवल इतना अन्तर था कि इनके घर में चहल-पहल नहीं थी, बच्चों की किलकारियां नहीं थी. एक सूनापन था, जो काटने को दौड़ता था. बीते जीवन की यादें थीं, जो गुदगुदाती भी थीं और रुलाती भी. रात के अन्धेरे में धीमे स्वरों में बातें करते-करते दोनों पति-पत्नी चुपके से आंसू पोंछ लेते और फिर पुरानी यादों में खो जाते.
लड़का एक बार गया, तो दुबारा कस्बे में लौटकर नहीं आया. अमृतसर पहुंचा भी या नहीं...पहुंचा भी तो वहां क्या कर रहा था, इस सबकी कोई खबर नहीं थी उसने मां-बाप को एक खत लिखकर भेजने की जहमत भी नहीं उठाई. बूढ़े-बुढ़िया ने यह सोचकर संतोष कर लिया कि वह अपनी बीवी के साथ सुखी होगा. कमा-खा रहा होगा. मां-बाप के बारे में सोचने की उसे फुरसत ही नहीं मिलती होगी. अब तक तो उसके बच्चे भी हो गये होंगे. वह अपने परिवार के साथ हंसी-खुशी, सुखपूर्वक रह रहा होगा. उसे कोई दुःख नहीं होगा, तभी तो अपने बूढ़े मां-बाप की तरफ ध्यान नहीं देता. आज के लड़के आगे देखना पसन्द करते हैं, पीछे मुड़कर देखना नहीं. इसीलिए ज्यादातर घरों में मां-बाप उपेक्षित पड़े अपने जीवन की अन्तिम घड़ियां गिनते हुए दिन गुजार देते हैं. बेटे अपने बच्चों का भविष्य संवारने में जुटे रहते हैं. तब वह भूल जाते हैं कि उनके बेटे भी एक दिन उन्हें छोड़कर अलग डाल पर अपना आशियाना बना लेंगे. तब वह भी अपने मां-बाप की तरह उपेक्षित जीवन गुजारने के लिए मजबूर हो जाएंगे. हम यह भूल जाते हैं कि हमने अपने मां-बाप को जो दिया है, वही हमारे बेटे भी समय आने पर लौटाने वाले हैं. तब हमें कितनी तकलीफ होगी, इसे हम जवानी में महसूस नहीं कर पाते हैं. सुहागन औरतें हमेशा भगवान से प्रार्थना करती हैं कि वह सुहागन मरे. अधिकांश की ये इच्छा पूरी हो जाती है. बलदेव की बीवी भी एक दिन मर गई. बलदेव अब एकदम अकेले रह गये. घर में भी, बाहर भी...बुढ़ापे में पत्नी साथ छोड़ जाए तो पुरुष को नरक जैसा जीवन भोगना पड़ता है. बलदेव काका थोड़े भाग्यवान पुरुष थे कि बुढ़ापे में ताने मारने के लिए न घर में बहू थी, न तकलीफ देने के लिए बेटा. सूना एकान्त जीवन आदमी को वक्त से पहले बूढ़ा और अशक्त बना देता है. बलदेव काका वैसे भी बूढ़े हो चुके थे. बूढ़े व्यक्ति के बच्चे अगर बुढ़ापे में तकलीफ भी देते हैं तो वह इसे सहन कर लेता है. उसके जीने की ललक और खुशी नाती-पोतों से बढ़ जाती है. परन्तु बलदेव काका के पास ये सहारा भी नहीं था उनका सहारा थे, चौक में आने वाले बच्चे...उन बच्चों में वह भगवान का प्रतिरूप पाते, उन्हीं में वह अपने काल्पनिक नाती-पोतों का स्वरूप देखते. सारा दिन उनके साथ हंस-खेलकर गुजार देते. उनके जूते-चप्पल ठीक करते, उनसे मीठी-मीठी बातें करते. कई बार तो मुफ्त में उनके जूते-चप्पल ठीक कर देते और कहते, ‘‘इन पैसों की चाकलेट खा लेना.'' बच्चे और ज्यादा खुश हो जाते. चौक बाजार में आने वाले बच्चों से ही उन्हें खुशी नहीं मिलती थी, बल्कि वहां के दुकानदार भी उनके प्रति दयावान थे. वह सब जानते थे कि बलदेव काका ऐसे तो कुछ लेंगे नहीं, तो सभी कोशिश करते कि फटे-कटे जूतों की मरम्मत उनसे करवाते रहे. न हो तो दिन में एक बार जूतों में पालिश ही करवा लें. हालांकि नवजवानों के साथ ये बात नहीं थी. वह नए फैशन के जूते पहनते थे और पालिश या मरम्मत पर उनका कोई विश्वास नहीं था. परन्तु बाजार के दुकानदारों की दरियादिली और भलमनसाहत का ये नतीजा हुआ कि बुढ़ापे में उनके पास काम का ढेर लग गया था जब भी कोई उनके पास आता, वह हंसते-हंसते कहते, ‘‘अब इन बूढ़े हाथों में वह जोर कहां रहा कि इतना काम कर सकें. जब जरूरत थी, तब भगवान ने काम छुड़ा दिया. अब जब मैं दुनिया में अकेला हूं, बेटा-बहू दूर चले गए, बीवी भी साथ छोड़कर भगवान के घर चली गई, तब मेरे हाथों में काम ही काम है. इतना कमाकर क्या करूंगा? मैं अकेला आदमी...दिन भर मुश्किल से दो रोटी खा पाता हूं. क्या करूंगा इस पैसे का मैं?''
भलामानस जवाब देता, ‘‘जीवन में सुख और दुःख आते ही रहते हैं, कभी कम, कभी ज्यादा. सच्चा मनुष्य वही है जो दुःखों और कष्टों को हंस-हंसकर झेल ले. आप महान हैं, जो इतने कष्ट झेलने के बाद भी दूसरों के मुख पर हंसी बिखेरने जैसा उत्तम काम कर रहे हैं. आप तो शिर्डी के साईं बाबा जैसे हैं, कीचड़ में खिलकर भी कमल के फूल जैसे...स्वच्छ, सुन्दर, मनमोहक और सुगन्धित...''
ऐसी बातें सुनकर बलदेव शर्मिन्दा हो जाते थे. आगे कुछ न बोलते. वह इतने संकोची थे कि अपने लिए कभी किसी से कुछ न मांगते; बल्कि काम के बदले भी तय मजदूरी से कम ही लेते थे. कई बार तो मुफ्त में ही काम कर देते. चौक में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं थी जो उनसे काम करवा लेते और पैसे न देते या कह देते, बाद में दे देंगे. बलदेव मुस्कराकर कहते, ‘‘कोई बात नहीं बेटा...या भैया या साहब! हो तो दे देना, वरना कोई बात नहीं.'' और ऐसे लोग सचमुच उनको पैसे देना भूल जाते. वह भी कभी उनसे पैसे न मांगते. इस सबके बावजूद न उनके पास काम की कमी थी, न आमदनी की. भगवान ने पता नहीं यह कैसा चक्कर चलाया था कि आधुनिकता की इस आंधी के बावजूद चौक बाजार के लोग पुराने जूते-चप्पल ठीक करवाने लगे थे उनका कोई विशेष खर्चा नहीं था. दाल रोटी के सिवा कोई नशा भी नहीं करते थे. लिहाजा उनके पास काफी पैसे बच गए थे. क्या करें इस पैसे का? कहां छिपाकर रखें? सारे दिन घर में ताला पड़ा रहता था. चोरी की आशंका नहीं थी, फिर भी जब आदमी के हाथ में दो पैसे होते हैं, तो उसे उनकी सुरक्षा की चिन्ता सताने लगती है. बलदेव भी आखिर मनुष्य ही थे. पैसे खोने का डर उनके मन में सताने लगा, तो उन्होंने इससे मुक्ति पाने का एक निर्णय लिया. चौक बाजार के सारे दुकानदारों से विचार-विमर्श किया. बलदेव काका का सुझाव था, ‘‘आप लोगों की दया से मेरे हाथ में कुछ पैसे जुड़ गये हैं. अगर आपकी इजाजत हो तो बरगद के पेड़ के नीचे जो मूर्ति रखी है उसके लिए एक छोटा मंदिर बनवा दूं.''
‘‘ये तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन इसका सारा पुण्य आप ही क्यों उठाएंगे? हम भी आपकी मदद करेंगे. सब लोग पैसे लगाकर मंदिर का निर्माण करेंगे.'' सबके उत्साह, जोश और सहयोग से बरगद के नीचे एक छोटा सा सुन्दर मन्दिर बन गया. यूं तो सभी दुकानदारों ने पैसे लगाये थे, परन्तु जो भी उस मन्दिर में आता, वह बलदेव का ही एहसान मानता कि उनके कारण ही इस मन्दिर का निर्माण हुआ था बाद के दिनों में जो भी पैसे उनके हाथ में बचते, वह अड़ोस-पड़ोस की किसी कन्या की शादी में खर्च कर देते, किसी जरूरत मंद को दे देते. कितने ही लोग उनके दरवाजे पर इस आशा में आते कि उनको कुछ रुपये-पैसे मिल जाएंगे. बलदेव भी जी भरकर अपनी कमाई को लुटाते. वह अच्छी तरह जानते थे कि अपने जीते जी अगर इस पैसे का सदुपयोग नहीं किया, किसी जरूरतमन्द को नहीं दिया, तो बाद में या तो इसे चोर-उचक्के उठा ले जाएंगे या किसी नशेड़ी गंजेड़ी के हाथों में पड़कर इसे गलत कामों में खर्च किया जाएगा.
आज बलदेव काका का अन्त हो गया था. परन्तु एक सज्जन पुरुष के सद्विचारों और कार्यों का अन्त नहीं हुआ था. उनके आस-पास कहने के लिए उनके कोई सगा नहीं था, उनका अपना बेटा तक नहीं. परन्तु मृत्यु के बाद भी वह अकेले नहीं थे. उनके चाहने वालों की अपार भीड़ उनके चारों तरफ थी. जैसे ही उनके देहान्त की खबर बाजार में फैली, सारी दुकानें धड़ाधड़ बन्द हो गईं. हजारों लोग इकट्ठा हो गए. बलदेव का कितना मान-सम्मान उन सबकी नजरों में था, आज उनके मरने के बाद पता चल रहा था.
धूमधाम से उनकी शवयात्रा निकाली गई. शव-दाह के सारे संस्कार किये गए. उनकी आत्मा की शान्ति के लिए शोक सभाएं आयोजित की गईं. पुण्यात्मा की तेरहवीं चौक बाजार के बीच में की गई, जिसमें हजारों लोग शामिल हुए. आज चौक बाजार में उनकी मूर्ति लगी है और उस चौक को बलदेव चौक के नाम से जाना जाता है.
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)
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