भाषा-विज्ञानी की दृष्टि में ‘लेकिन-किन्तु-परन्तु’ भले ही दो वाक्यों को जोड़ने के ही काम आता हो, पर सत्य यह है कि यदि ये शब्द न होते, तो बेचा...
भाषा-विज्ञानी की दृष्टि में ‘लेकिन-किन्तु-परन्तु’ भले ही दो वाक्यों को जोड़ने के ही काम आता हो, पर सत्य यह है कि यदि ये शब्द न होते, तो बेचारे पढ़े-लिखे लोगों, विशेषतः बुद्धिजीवियों, के लिए कितनी मुश्किल हो जाती!
ठेठ देहाती या साक्षर अपनी बात सीधे-सीधे और कभी-कभी ‘तू-तड़ाक’ से भी कह देता है। वह किसी ‘लेकिन-किन्तु-परन्तु’ के चक्कर में नहीं पड़ता, लेकिन (क्षमा करें, मुझे भी इस शब्द का प्रयोग करना पड़ रहा है) जब कोई शिक्षित, बुद्धिजीवी, पत्रकार, साहित्यकार, कलाकार, नेता, प्रोफेशनल,व्यापारी या अधिकारी कुछ कहता है तो पहले वह दो वाक्यों को आलू की टिक्कियों की भांति विरोधाभास के दोने में रखता है, फिर उसमें निहितार्थ और फलितार्थ की खट्टी-मीठी चटनी डालता है। उसके बाद उसमें ‘लेकिन-किन्तु-परन्तु’ का बुकनू डालता है और महकती हुई चतुराई की हरी धनिया से सजाकर पेश करता है- ‘‘लीजिए, जनाब ख़ास आपके लिए!’’
जिस प्रकार विष से विष को मारा जाता है, या कांटे से ही कांटा निकाला जाता है, उसकी प्रकार यह ’लेकिन-किन्तु-परन्तु’ सकारात्मक और नकारात्मक वाक्यों को फ़ेवीकोल की तरह जोड़ने का ही काम नहीं करता, कभी-कभी प्रयोगकर्ता को अपनी ही बात में फंसने से बचा भी लेता है। कुछ दृष्टांतों से बात स्पष्ट होगी।
एक बार भ्रष्टाचार के मामले में मंत्री जी को जेल की हवा खानी पड़ी। वह थ्री-स्टार जेल थी- एक गेस्ट हाउस में बनायी गयी थी- सामान्य अपराधियों वाली ‘आदर्श जेल’ नहीं, जहां आदर्श के नाम पर साइनबोर्ड के अलावा कुछ नहीं होता। मंत्री जी को मनचाहा खाने-पीने की सुविधा थी ही,टी.वी. और चोरी से मोबाइल की भी सुविधा थी। एक दिन जब वे भ्रष्टाचार के खिलाफ़ अखबारों में छपे हुए समाचार पढ़ते-पढ़ते और टी.वी. में स्वयं से ही सम्बन्धित ब्रेकिंग न्यूज देखते-देखते ऊब गये, तो उन्होंने जेल से बयान दिया कि उन्होंने कोई भ्रष्टाचार नहीं किया है, बल्कि वे स्वयं भ्रष्टाचार का शिकार हो गये हैं, क्योंकि आजकल मुख्यमंत्री और उनमें छत्तीस का आंकड़ा है। अपने बयान में उन्होंने मुख्यमंत्री के क़रीबी लोगों को लपेटते हुए मीडिया को सूचित किया कि उनका दृढ़ संकल्प है कि वे अपने विभाग से भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करके ही दम लेंगे।
अख़बारों में उनके बयान छपने के बाद प्रमुख सचिव की अध्यक्षता में मंत्री जी के विभाग के शीर्ष अधिकारियों की आपातकालीन बैठक हुई जिसमें सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया कि सभी अधिकारी माननीय मुख्यमंत्री के भ्रष्टाचार दूर करने के संकल्प को योजनाबद्ध तरीके से कार्यरूप में परिणत करेंगे। यह प्रस्ताव भी अगले दिन के समाचार-पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुआ।
बन्दी मंत्री से पत्रकारों ने पूछा- ‘‘माननीय, आप भी भ्रष्टाचार दूर करने की बात करते हैं और आपके विभाग के अधिकारी भी। क्या यह बतलाने की महती कृपा करेंगे कि आखिर भ्रष्टाचार है कहां?’’
प्रश्न सुन मंत्री जी सकपका गये। फिर स्वयं को संयत करते हुए पत्रकारों को दिव्य ज्ञान प्रदान करते हुए बोले-‘‘आपके प्रश्न के मूल में सत्य प्रच्छन्न है। यद्यपि वे सत्य से पूर्णतः अवगत हैं, तथापि अभी वे सत्य का उद्घाटन नहीं करेंगे। समय आने पर करेंगे!’’
पत्रकारों ने कहा- ‘‘लेकिन वह समय कब आयेगा, मंत्रीवर? जब भ्रष्टाचारियों में आपसी टकराव समाप्त हो जायेगा?’’
मंत्री जी को कोई उत्तर न सूझा। चुप लगा गये। पत्रकारों ने थोड़ी देर मंत्री जी का मुख ताका, पर वहां कोई भी उत्तर प्रकट होने का चिह्न न था। कोई ब्रेकिंग न्यूज न मिल सकी, जिससे टी.आर.पी. में इज़ाफ़ा होता! पत्रकार-छायाकार मायूस होकर लौट गये।
एक समय था जब समाचार-पत्रों में साहित्य से सम्बन्धित प्रचुर समाचारों के साथ-साथ साहित्यिक रचनाएं भी छपा करती थीं, पर आजकल माहौल बदल गया है। अब उसमें केवल अपराध की सूचनाएं, फिल्म स्टारों या क्रिकेट के स्टारों के बारे में समाचार, राजनीतिक पहलवानों के बयान और सोना-चांदी व शेयर-मार्केट के समाचार छपते हैं। इसके अलावा चेहरे को गोरा बनाने की क्रीम, बालों को काले, लम्बे, घने और रूसीमुक्त बनाने वाले शैम्पू, अनचाहे बालों को मिटा देने वाली क्रीम, दांतों को मोती जैसे चमकाने और पत्थर जैसे मजबूत बनाने वाले टूथपेस्ट, मुंह से बदबू गायब करने वाले माउथवाश, पसीने की बदबू मार भगाने वाले सेंट, यौन-दुर्बलता दूर करने के कैप्सूल और सिर दर्द को दूर भगाने और इन्द्रियवर्धक जापानी तेल जैसे विज्ञापन प्रमुखता से छपते हैं ताकि बाजारवाद को ही प्रश्रय मिले। कला-साहित्य का प्रचार हो गया तो लोगों की रुचियां बदल जायेंगी और कारपोरेट बेचारे कंगले हो जायेंगे।
मित्रों की सलाह पर मैंने सर्वाधिक प्रसारित होने वाले एक दैनिक के सम्पादक से पूछा- ‘‘श्रीमानजी! आप अपने अखबार में प्रतिदिन खेलकूद या व्यापार जगत को पूरा पृष्ठ देते हैं, जबकि साहित्य को सप्ताह में मुश्किल से एक पृष्ठ! क्या साहित्य, खेलकूद या व्यापार की भांति दिन-प्रतिदिन काम आने वाली चीज़ नहीं है?’’
उन्होंने तपाक से उत्तर दिया- ‘‘आपका सवाल दुरुस्त है लेकिन.....’’
वाक्य पूरा होता कि उनका मोबाइल बज उठा। वे उसकी सेवा में व्यस्त हो गये। फिर जैसे ही मेरी ओर मुख़ातिब हुए, उनके वरिष्ठ सहायक ने कमरे में प्रवेश किया और उन्हें बाअदब बताया कि अख़बार के मालिक अपने रूम में पधारे हैं। पिछले महीने पांच प्रतिशत सर्कुलेशन बढ़ने के बजाय कम होने के कारण उन्होंने सम्पादक महोदय को फ़ौरन तलब किया है। सम्पादक जी ने मेरी ओर दुबारा देखा। उनकी आंखों में विवशता का पानी झलक रहा था जिसमें मेरा प्रश्न डूब-उतरा रहा था। उनकी आंखों से झांकता हुआ सटीक सम्पादकीय उत्तर मुझे मिल गया था। उत्तर में अनेक ’लेकिन-किन्तु-परन्तु’ डुबकियाँ लगा रहे थे।
यों तो तमाम कि़स्से हैं जिनमें ‘लेकिन-किन्तु-परन्तु’ की महती भूमिका है, पर एक वाक़ये का जि़क्र यहां ज़रूरी जान पड़ता है- एक बार मैं रेल से सफ़र कर रहा था। यह यात्रा कार्यालय के कार्य को लेकर थी, इसलिए मैं सेकेंड ए.सी. के डिब्बे में था। आफि़स की ओर से मुझे ए.सी. का किराया मिलता है- चाहे मैं उस श्रेणी में यात्रा करूं या नहीं! कुछ लोग सेकेंड क्लास में यात्रा करते हैं, लेकिन कागज पर ए.सी. में यात्रा दिखाते हैं। मैं ऐसा बिल्कुल नहीं करता, क्योंकि कभी-कभी तो हमें सरकारी खर्च पर आभिजात्यता झाड़ने का मौका मिलता है और हम उसको भी गॅंवा दें!
डिब्बे में मेरे बगल में एक साम्यवादी चिन्तक नेताजी बैठे हुए थे। मेरे हाथ में श्रीलाल शुक्ल की ‘राग दरबारी’ थी । उसे देखकर उन्होंने स्वयं बातचीत प्रारंभ की। अपनी लम्बी-चैड़ी हांकने में जब वे बहुत उँचे उड़ने लगे, तो मैंने उनको ज़मीन पर लाने के लिए एक प्रश्न दागा- ‘‘महाशय! आप तो समानता के पुजारी हैं और अनेकानेक असमानताओं के विरोध में सैकड़ों आन्दोलन कर ‘गिनीज बुक ऑफ़ वल्र्ड रिकार्ड’ में नाम भी दर्ज करा चुके हैं। मुझे आश्चर्य है कि आपका ध्यान रेल के अलग-अलग क्लास की ओर क्यों नहीं गया? सभी पैसेंजर्स भारत के नागरिक हैं और जब सभी नागरिक समान हैं तो फिर रेल में ए.सी., स्लीपर क्लास, जनरल क्लास जैसे बंटवारे का क्या औचित्य है? क्या इससे साम्यवाद के सिद्धान्तों का हनन नहीं होता?’’
‘‘आपका प्रश्न महत्वपूर्ण है बन्धु! किन्तु क्या है कि प्रतिभाओं का सम्मान करना हम भारतीयों की विशिष्ट परम्परा रही है। अब यदि सभी लोगों को एक समान समझा जायेगा, तो फिर.....वह कौन-सी कहावत है?.......हां, सब धान बाइस पसेरी!......आप समझने की कोशिश कीजिए- कभी-कभी असमानता द्वारा भी समानता के सिद्धान्त का पालन किया जाता है।’’ हर किसी को उ
सका देय देने का सिद्धान्त तो दुनिया के सभी देशों में मान्य है।’’ तर्क प्रस्तुत कर वे अपनी फ्रेंचकट दाढ़ी ऐसे दुलराने लगे- जैसे लेनिन से समर्थन प्राप्त कर रहे हों।अगले स्टेशन पर विचारक नेता हाथ हिलाते हुए डिब्बे से उतर गये। कामरेडों ने उनका सामान ढोया।
साम्यवादी नेताजी के जाने के थोड़ी-ही देर बाद एक काला सूट धारण किये एक अधेड़ साहब पधारे। उनके साथ उनका एक बूढ़ा अर्दली भी था। हल्के-फुल्के परिचय के बाद पता चला कि कोई मुंसिफ साहब थे। परिचय के बाद भी वहां सन्नाटा पसरा था। डिब्बे के उस सेक्शन में, जहाँ मेरी सीट थी, वहां एक ही यात्री और था, जो उस समय सो रहा था। मुझे वातावरण उबाऊ लग रहा था। मैं ’राग दरबारी’ में खोने की कोशिश करने लगा,पर पता नहीं क्यों, पढ़ने में मन नहीं लग रहा था। मुंसिफ़ साहब व्यवस्थित हो चुके थे। एक-दो बार उन्होंने मेरी ओर देखा था, जैसे कहना चाहते हों- यदि संवाद की स्थिति बनती है, तो पहल मुझे ही करनी होगी। मैं भी उन्हें बहुत जल्दी आश्वस्त नहीं करना चाहता था। इसलिए काफी देर बाद बातचीत शुरू हो पायी.....उनके रेस्पांस से जैसे हिदायत की फुरफुराती हवा आ रही थी कि कोई मक्खी उनकी नाक पर जल्दी बैठने की कोशिश न करे, जैसा कि मक्खियां अमूनन किया करती हैं।.....मुंसिफ साहब हर कार्य ठोक-बजाकर, आराम से करने के आदी थे। ठीक भी था-जल्दबाजी में कहीं न्याय होता है?
मुंसिफ साहब से बातचीत शुरू हो चुकी थी। न्याय-अन्याय पर बात होनी थी, सो हुई। मैंने मौका पाकर सवाल उछाला- ‘‘माननीय! कानूनी कहावत है- ‘जस्टिस डिलेड, जस्टिस डिनाइड! अन्याय में देरी का अर्थ है कि न्याय का न मिलना!’ और जैसा कि आजकल पढ़ने और सुनने में आता है कि दादा मुकदमा दायर करता है और पोता उसका फ़ैसला सुनता है। क्या यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं?’’
मेरी बात से मुश्किल से सहमत होते हुए उन्होंने कहना शुरू किया- ‘‘आपका कथन सत्य है, परन्तु.......आ-आं-आंक्छी!’’ उन्हें जबरदस्त छींक आ गयी थी। वे शीघ्रता से टायलेट की ओर लपके। मैंने उनके अर्दली की ओर देखा। वह बड़े दुलार से मेरी ओर देख रहा था। जब नजरें मिलीं, तो बोला- ‘‘साहब! आप लोगन चाहै जानु बहाना ढूढ़ौ, मुला सांच तौ यहै है कि न्याय-व्याय अब कचेहरिन मा नहीं मिलत है। जौनु मनई कचेहरी आवा,समझौ वहिके करम फूटिगे। यहि ते तौ यहै अच्छा है कि कौनो माफि़या ते आपन मामिला निपटाय ल्यौ.......’’
इससे पहले कि मुंसिफ़ साहब का अर्दली कुछ और उत्तर-आधुनिक न्यायिक सिद्धान्त निरूपित करता, उसके साहब अपनी सीट संभाल चुके थे। लेकिन, इससे पहले आज की न्यायिक व्यवस्था पर उनसे कुछ साधिकार टिप्पणी प्राप्त होती, मैं उतरने की तैयारी में लग गया।....... मेरा गंतव्य आने वाला था।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " बर्फ से शहर के लिए " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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