संदर्भः- दादरी-बिसहड़ा-कांड के बाद सांप्रदायिक सौहार्द की अनूठी मिसाल दादरी के बिसहाड़-कांड के घटनाक्रम में सामने आई असहिष्णुता को जिस...
संदर्भः- दादरी-बिसहड़ा-कांड के बाद सांप्रदायिक सौहार्द की अनूठी मिसाल
दादरी के बिसहाड़-कांड के घटनाक्रम में सामने आई असहिष्णुता को जिस दायित्व बोध और शालीन व्यवहार से गांव के ग्रामीणों ने पाटने का काम किया है,उसने सिद्ध कर दिया है कि भारत का मूल स्वरूप बहुलतावादी है। हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है तो इसलिए,क्योंकि बहुसंख्यक सनातन हिंदू समाज इस सिद्धांत में निष्ठा रखता है। किंतु घटना का यह दुर्भाग्यपूर्ण पहलू रहा कि जिस साहित्यकार को मानक सामाजिक मूल्यों का जनक माना जाता है,उसने व्यवहार के स्तर पर अंततः सांप्रदायिक विभाजन का ही काम किया। वामपंथी बुद्विजीवियों की इस पूर्वग्रही मानसिकता का तभी खुलासा हो गया था,जब प्रसिद्ध कन्नड़भाषी लेखक यूआर अनंतमूर्ती ने नरेंद्र मोदी के पक्ष में राजनीतिक माहौल बनते देख,यह बयान दिया था कि 'यदि मोदी प्रधानमंत्री बने तो वे देश छोड़ देंगे।' जबकि संविधान की मामूली समझ रखने वाला व्यक्ति जानता है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था एकपदीय नहीं है,बहुपदीय है। नतीजतन सत्ता विद्यायिका के साथ-साथ न्यायपालिका,कार्यपालिका और खबरपालिका जैसे स्तंभों में विक्रेंदित है। राष्ट्रपति और तीन अंगों में विभाजित सेना की भी अपनी-अपनी भूमिकाएं हैं। ऐसे में लोकतंत्र पर आशंकाएं करना और देश,बहुसंख्यक लोगों द्वारा अपनाए जाने वाले धार्मिक हिंदू राष्ट्र में बदल जाएगा,यह सोचना ही नादानी है। जाहिर है,साहित्य का यह विलाप भेड़चाल में तब्दील होता जा रहा है।
बिसहाड़ में गोमांस खाने की अफवाह के चलते विवेक शून्य हुई भीड़ ने मोहम्मद अखलाक की हत्या कर दी थी। निसंदेह यह हत्या अफसोसनाक थी,क्योंकि देश के भीतर और बाहर माहौल खराब हुआ। इस आग पर पानी डालने की बजाय,घी डालने का काम पहले तो नेताओं ने किया,फिर उसी का अनुसरण देश के उन चुनिंदा रचनाधर्मियों ने किया,जिन्हें समाज की चेतना का प्रतिनिधि माना जाता है। सामाजवादी पार्टी के प्रमुख नेता और उत्तर-प्रदेश सरकार में मंत्री आजम खान ने सभी वैधानिक मर्यादाओं का उल्लघंन करते हुए,यह मुद्दा संयुक्त राष्ट्र तक पहुंचा दिया। आजम खान ने संयुक्त राष्ट्र की महासचिव बान की मून से शिकायत की है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ धर्म निरपेक्ष बहुलतावादी भारत को बहुसंख्यक वर्चस्व वाले मजहबी हिंदु राष्ट्र में तब्दील करने की कोशिश कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र इस शिकायत पर क्या कदम उठाता है,तत्काल तो यह समझ से परे है,लेकिन उनकी यह हरकत गैरजिम्मेबार है,क्योंकि वे एक राज्य की निर्वाचित सरकार में मंत्री हैं। सभी धर्मों के लोगों ने उन्हें विधायक चुना है।
इस लिहाज से उनकी जिम्मेबारी बनती थी कि वे खुद गांव में पहुंचकर सद्भाव की समझाइश से समरसता का वातावरण तैयार करते। लेकिन आजम खान तो स्वयं मुजफ्फरनगर के दंगों में उन्माद भड़का चुके हैं,लिहाजा उनसे सद्भाव की पहल करने की बात सोचना ही बेमानी है।
बिसहड़ा में जिस निर्ममता से अखलाक की हत्या हुई थी,उस नफरत का विस्तार पहले तो राजनेताओं ने अपनी राजनीति चमकाने के संकीर्ण बयान देकर किया। फिर इसी सिलसिले को वामपंथी लेखकों ने साहित्य आकदमी के धूल चढ़े सम्मान लौटाकर शुरू कर दिया। हालांकि उन्होंने इस कड़ी में नरेंद्र दाभोलकर,गोविंद पनसरे एवं एमएस कलबुर्गी जैसे बुद्धिजीवियों की हत्या के मामले भी जोड़ लिए,जिससे कट्टरता का विस्तार दिखे। पंजाबी लेखिका दलीप कौर टिवाणा ने तो पद्म सम्मान भी लौटा दिया। दरअसल लेखकों के पास अलमारियों में बंद ऐसे शोपीस लौटाने को थे,जिन्हें लौटाकर भी उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा पर कोई विपरीत प्रभाव पड़ने वाला नहीं है और न ही उनकी लेखकीय गरिमा पर आंच आने वाली है। ज्यादातर लेखक अपना लेखकीय कर्म पूरा कर चुके हैं,इसलिए वामपंथी कर्मकांड में अपनी निष्ठा की समिधा डालकर यह जता देना चाहते है कि हम मूल्यों के लिए शहीदी अंदाज में सर्वस्व न्यौछावर कर रहे हैं। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति के अधिकार के प्रति प्रगट किया जा रहा यह प्रतिरोध आखिरकार लेखकीय शक्तियों की असहिष्णुता का परिचायक है,क्योंकि इस सामूहिक प्रतिरोध देशव्यापी संप्रादायिक सद्भाव को तनावपूर्ण बना रहा है। जबकि बिसहड़ा में सद्भाव का जो वातावरण गांव के हिंदुओं ने रचा वह सभ्य समाज की भारतीय परिकल्पना,मसलन 'वसुधैव कुटुंब' की अवधारणा को मजबूत करता है।
निसंदेह उपरोक्त घटना से गांव का माहौल दो समुदाओं के बीच दूषित हो गया था। गांव में जो तनाव प्रगट था,उसके चलते यह कतई संभव नहीं था कि कोई मुस्लिम व्यक्ति तय तारीख को एक साथ अपनी दो बेटियों की शादी गांव में रहकर ही कर पाता। बेटियों के पिता हकीम ने किसी दूसरे सुरक्षित गांव में जाकर बेटियों की शादी करने का मन बना लिया था। लेकिन जब संवैधानिक मूल्यों और चेतावनियों से लगभग बेखबर बुजुर्ग ग्रामीणों को यह पता चला कि हकीम अशुभ की आशंका के चलते दूसरे गांव जाकर बेटियों का निकाह करने की तैयारी में है,तो संवेदनशील ग्रमीण एकाएक पीड़ित हो उठे। वे हकीम के घर पहुंचे। उसे दिलासा दी। शादी का प्रबंध और बारातियों के स्वागत की जिम्मेबारी अपने ऊपर ली। धार्मिक भेद और अविश्वास की खाई पट गई। इस भरोसे ने जो नया परिवेश रचा,उसमें बाराती ही नहीं,वधु पक्ष के लोग भी अतिथियों की तरह दिखाई दिए। हिंदू-मुस्लिम एकता के ऐसे उदाहरण बिरले होते हैं। विविधता में एकता की इस समरस तस्वीर को वास्तव में हिंदु ग्रामीणों ने पारदर्शी बनाया है। आचार-व्यवहार की अनूठी मिसाल पेश करके वातावरण को तनाव मुक्त किया है। समरसता का यह ऐसा पाठ है,जिससे सबक लेने की जरूरत न केवल राजनीतिकों को है,बल्कि उस लेखक समुदाय को भी है,जिसने सम्मान लौटाने का सिलसिला जारी रखते हुए सौहार्द की तस्वीर को अंततः बदरंग करने का ही काम किया है।
दरअसल वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में सृजनशील वामपंथियों का आक्रोश दिशाहीन होता दिखाई दे रहा है। इस दिशाहीनता की स्पष्ट झलक पंजाबी लेखिका दलीप कौर दिवाणा द्वारा पद्मश्री सम्मान लौटाने के संदर्भ में मिलती है। उन्होंने कहा है,वे यह सम्मान 1984 में हुए सिख दंगे और मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार के परिप्रेक्ष्य में लौटा रही हैं। याद रहे,उन्हें सम्मान 2004 में कांग्रेस नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के दौरान मिला था। जबकि 1984 में हुए सिख दंगों के लिए दोषी कांग्रेसी थे। उनके अंतर्मन में यदि वाकई सिखों के प्रति हुए अत्याचार की थोड़ी-बहुत भी परवाह थी तो उन्हें सम्मान कांग्रेस के कार्यकाल में लेने की जरूरत ही नहीं थी। यह इसलिए भी उचित होता,क्योंकि पद्मश्री,पद्म भूषण और भारत रत्न ऐसे सम्मान हैं,जिनका निर्धारण सीधे-सीधे केंद्र में सत्तारूढ़ दल करता है। अलबत्ता साहित्य आकदमी सम्मानों का निर्धारण स्वायत्तशासी संस्था 'साहित्य अकादमी' करती है और इसके सदस्य देश के जाने-माने बहुभाषी साहित्यकार होते हैं। गोया,धर्म की आड़ में लौटाए जा रहे सम्मानों की पृष्ठभूमि कोई मानक विचार न होते हुए,वह स्थिति है,जिसमें वामपंथी बुद्धिजीवी राजनीतिक,संास्कृतिक,ऐतिहासिक और आर्थिक विमर्श से एक-एककर बेदखल होते जा रहे हैं। उनके पास विमर्श के लिए ऐसा कोई सरकारी धन से पोषित मंच नहीं रह गया है,जिससे परस्पर उपकृत होने और करने का सिलसिला बदस्तूर रहता। दरअसल कांग्रेस का कार्यकाल वामपंथी बुद्धिजीवियों की ऐसी आसान वैचारिक पल्लवन की आश्रयस्थली थी,जिसमें बैठकर उन्होंने न केवल गांधीवाद की समतावादी वैचारिक प्रतिबद्धता को दरकिनार किया,बल्कि देश की समूची राष्ट्रवादी चेतना को भी प्रतिक्रियावादी ठहरा दिया। मार्क्स के वर्गवादी विचार का विघटन रूस में हो जाने के बावजूद वामपंथी साहित्य के मंचों से लाल झंडा आजादी के 65 साल तक इसलिए फहराते रहे,क्योंकि उदार कांग्रेस अपने वैचारिक दारिद्रय का पोषण गांधीवाद से करने की बजाय,कठमुल्ले वामपंथियों से करती रही।
अन्यथा,क्या वजह रही कि यही बौद्धिक वामपंथी नंदीग्राम और सिंगूर में किसान-मजदूरों का दमन देखते रहे,लेकिन प्रतिरोध का कहीं स्वर नहीं उभरा,क्योंकि पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी की सरकार थी। कुछ समय पहले धार्मिक कट्टरवाद के चलते केरल के एक महाविद्यालय के प्राध्यापक टीजे जोसेफ का दाहिना हाथ काट देने की घटना सामने आई थी। केरल जैसे शत-प्रतिशत शिक्षित प्रदेश में कुछ मुस्लिम कट्टरपंथियों ने जोसेफ का हाथ इसलिए काट दिया था,क्योंकि उन्होंने पैगंबर मोहम्मद के बारे में एक ऐसा प्रश्न पूछ लिया था,जिसे मतांधों ने पैगंबर का अपमान माना और जोसेफ को सुनियोजित ढ़ंग से अंग-भंग की सजा भी दे दी। लेकिन किसी वामपंथी का प्रतिरोध में मुंह नहीं खुला,क्योंकि केरल में वाम सरकार सत्तारूढ़ थी। पश्चिम बंगाल से बांग्लादेश मूल की लेखिका तसलीमा नसरीन का निर्वासन हुआ,लेकिन वामपंथी बौद्धिक मौन रहे।
कश्मीर से मुस्लिम अतिवादियों ने करीब चार लाख हिंदु,बौद्ध और सिखों को खदेड़ दिया,लेकिन वामपंथियों ने पुनर्वास की बात तो छोड़िए इस विस्थापन की कभी निंदा भी नहीं की। किसी मुस्लिम समुदाय ने बिसहड़ा की तरह हिंदुओं को कश्मीर में ही बने रहने की गारंटी नहीं ली। इसके उलट उनके घर और अचल संपत्तियों को कब्जा लिया। बावजूद संवेदना के प्रतीक माने जाने वाले कथित साहित्यकार धर्म की ओट में राजनीतिकों जैसा व्यवहार अपना रहे हैं तो इस प्रतिक्रिया से यह साफ होता है कि वे समाज में बंधुत्वों जैसा सौहार्द पैदा करने की बजाय,हशिए पर आ जाने के कारण बेजा असहमति का गुबार निकाल रहे हैं। विचार के पक्ष में गुबार निकालकर इन कतिपय लेखकों ने वही किया है,जो चंद कठमुल्ले देश की राष्ट्रीयता और नागरिकता को धर्म के नाम पर परिभाषित और विभाजित करते रहे हैं। बावजूद सफल नहीं हुए,क्योंकि बिसहाड़ की तरह देश में ऐसे बहुत से मानवतावादी समूह हैं,जो सृजनशीलता से तो नहीं जुड़े,लेकिन मानवाधिकारों का हनन क्या होता है,इस पाठ को सम्मान लौटाने वाले लेखकों से कहीं ज्यादा जानते समझते हैं। इंसानियत का यह सबक लेखक सीखना चाहते हैं,तो दिल्ली से दादरी (बिसहाड़) बहुत ज्यादा दूर नहीं है।
प्रमोद भार्गव
लेखक/पत्रकार
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लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।
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