डॉ.चन्द्रकुमार जैन गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मुक्त भारत की कल्पना को अत्यंत ह्रदय स्पर्शी शब्दों प्रकार अभिव्यक्ति दी है - हो चि...
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने मुक्त भारत की कल्पना को अत्यंत ह्रदय स्पर्शी शब्दों प्रकार अभिव्यक्ति दी है -
हो चित्त जहाँ भय-शून्य, माथ हो उन्नत
हो ज्ञान जहाँ पर मुक्त, खुला यह जग हो
घर की दीवारें बने न कोई कारा
हो जहाँ सत्य ही स्रोत सभी शब्दों का
हो लगन ठीक से ही सब कुछ करने की
हों नहीं रूढ़ियाँ रचती कोई मरुथल
पाये न सूखने इस विवेक की धारा
हो सदा विचारों ,कर्मों की गतो फलती
बातें हों सारी सोची और विचारी
हे पिता मुक्त वह स्वर्ग रचाओ हममें
बस उसी स्वर्ग में जागे देश हमारा।
वास्तव में अनेक क्रांतिकारियों और देशभक्तों के प्रयास तथा बलिदान से आजादी की गौरव गाथा लिखी गई है। यदि बीज को भी धरती में दबा दें तो वो धूप तथा हवा की चाहत में धरती से बाहर आ जाता है क्योंकि स्वतंत्रता जीवन का वरदान है। व्यक्ति को पराधीनता में चाहे कितना भी सुख प्राप्त हो किन्तु उसे वो आन्नद नही मिलता जो स्वतंत्रता में कष्ट उठाने पर भी मिल जाता है। सरदार भगत सिंह ने कहा था - राख का हर एक कण मेरी गर्मी से गतिमान है मैं एक ऐसा पागल हूँ जो जेल में भी आज़ाद है। तभी तो कहा गया है कि
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।
सच है कि ज़िन्दगी तो अपने दम पर ही जी जाती है। दूसरो के कन्धों पर तो सिर्फ जनाजे उठाये जाते हैं। इससे आज़ादी की कीमत समझी जा सकती है। यही कारण है कि नेता जी सुभाषचन्द्र बॉस ने दमदार शब्दों में कहा - ये हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी स्वतंत्रता का मोल अपने खून से चुकाएं. हमें अपने बलिदान और परिश्रम से जो आज़ादी मिले, हमारे अन्दर उसकी रक्षा करने की ताकत होनी चाहिए। यही बात अलग अंदाज़ में सरदार वल्लभभाई पटेल भी कह गए - यह हर एक नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह यह अनुभव करे की उसका देश स्वतंत्र है और उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करना उसका कर्तव्य है। हर एक भारतीय को अब यह भूल जाना चाहिए कि वह एक राजपूत है, एक सिख या जाट है. उसे यह याद होना चाहिए कि वह एक भारतीय है और उसे इस देश में हर अधिकार है पर कुछ जिम्मेदारियां भी हैं। वहीं वैचारिक स्वतंत्रता का मूल्य महात्मा गांधी ने कुछ इस तरह समझाया -आप मुझे जंजीरों में जकड़ सकते हैं, यातना दे सकते हैं, यहाँ तक की आप इस शरीर को नष्ट कर सकते हैं, लेकिन आप कभी मेरे विचारों को कैद नहीं कर सकते।
इन विचारों को पढ़कर सहज समझा जा सकता कि आजादी अपने साथ कई जिम्मेदारियां भी लाती है, हम सभी को जिसका ईमानदारी से निर्वाह करना चाहिए किन्तु क्या आज हम 67 वर्षों बाद भी आजादी के मोल को समझकर उसका सम्मान कर रहे है? आलम तो ये है कि यदि स्कूलों तथा सरकारी दफ्तरों में 15 अगस्त न मनाया जाए और उस दिन छुट्टी न की जाए तो लोगों को याद भी न रहे कि स्वतंत्रता दिवस हमारा राष्ट्रीय महापर्व है जो हमारी जिंदगी का एक बेहद अहम दिन होता है।कवीन्द्र रवीन्द्र के ही शब्दों में फिर देखिये -हम तब स्वतंत्र होते हैं जब हम पूरी कीमत चुका देते हैं। तो तय कि कीमत चुकाने के बाद ही हमें आज़ादी मिली पर सवाल तो यह है कि क्या उस आज़ादी की रक्षा की कीमत चुकाने हम तैयार हैं ? याद रहे कि सच्चा नागरिक वह होता है जो स्वतंत्रता के साथ आई जिम्मेदारियों को समझता है।
आजादी के आंदोलन में देशभक्त माखनलाल चर्तुवेदी की अभिलाषा अनेक वीरों के लिए प्रेरणा स्रोत रही। कवि माखनलाल चर्तुवेदी जी फूल को माध्यम बनाकर अपनी देशभक्ति की भावना को कविता के रूप में प्रकट करते हैं -
चाह नही, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ
चाह नही सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ
चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ
मुझे तोङ लेना वनमाली!
उस पथ पर तुम देना फेंक।
मातृ-भूमि पर शीश चढाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक।।
कविता का आशय है कि, पुष्प कहता है कि मेरी इच्छा किसी सुंदरी या सुरबाला के गहने में गूंथने की नही है। मेरी इच्छा किसी प्रेमी की माला बनने में भी नही है। मैं किसी सम्राट के शव पर भी चढ़ना नही चाहता और ना ही देवताओं के मस्तक पर चढकर इतराना चाहता हूँ। मेरी तो अभिलाषा है कि मुझे वहाँ फेंक दिया जाये जिस पथ से मातृ-भूमि की रक्षा के लिये वीर जा रहे हों।धन्य है ऎसी अभिलाषा और परम धन्य है ऎसी देश भक्ति। वीरों की कुर्बानी की राह में अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वाली ऎसी वीरता की नमन। इनके दम पर ही तो देश स्वतन्त्र हुआ। कौन नहीं जानता कि आज़ादी के स्वप्न को हितैषी जी ( वास्तविक रचयिता ) ने इन अल्फ़ाज़ों में खूबसूरती से बयां किया था -
वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहां होगा
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमां होगा
बच्चन जी समझते थे कि कोई भी बड़ी कोशिश, फिर वह आज़ादी का जेहाद ही क्यों न हो, यूं ही परवान नहीं चढ़ती। लिहाज़ा उन्होंने आगाह कर दिया -
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
ज़िंदगी में आज़ादी और आज़ादी की ज़िंदगी को अगर हम प्यार करते है तो आज ही संकल्प करें। बकौल द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी कुछ इस तरह -
इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।
नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो
नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो
नये राग को नूतन स्वर दो
भाषा को नूतन अक्षर दो
युग की नयी मूर्ति-रचना में
इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥
चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना
अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना
सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे
सब हैं प्रतिपल साथ हमारे
दो कुरूप को रूप सलोना
इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥
इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।
जय भारत
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प्राध्यापक - हिन्दी विभाग
शासकीय दिग्विजय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
राजनांदगांव।
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