प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (Functional Linguistics) (हैलिडे के व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) के विशेष संदर्भ में) प्रोफेसर ...
प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (Functional Linguistics) (हैलिडे के व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) के विशेष संदर्भ में)
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान एवं प्राग स्कूल
अमेरिकन संरचनावादी भाषावैज्ञानिक भाषा विश्लेषण में अर्थ की उपेक्षा करते हैं किन्तु प्राग स्कूल के भाषावैज्ञानिकों ने अर्थ का परित्याग नहीं किया। प्राग स्कूल के भाषावैज्ञानिकों ने भाषा के आशय (Content) को महत्वपूर्ण माना। उनका विचार था कि भाषा का आशय उच्चार के संदर्भ से निर्दिष्ट होता है। यही भाषा का प्रकार्य है। शब्द के अर्थ का मतलब केवल शब्दकोशीय अर्थ ही नहीं है अपितु इसमें शैलीगत एवं संदर्भगत अर्थ भी समाहित हैं। इनकी मान्यता है कि भाषा का प्रयोक्ता अपने विचारों का सम्प्रेषण करता है। भाषा शून्य में नहीं अपितु समाज में बोली जाती है। भाषा सामाजिक वस्तु है। सम्प्रेषण में वक्ता श्रोता को केवल तथ्यपरक सूचना ही नहीं देता। वह सम्प्रेषित तथ्य के बारे में अपने निजी भावों को भी प्रकट करता है। संदर्भ के बिना भाषा के वक्ता के आशय को नहीं समझा जा सकता। वक्ता अपनी बात से श्रोता में मनोनुकूल प्रतिक्रिया उत्पन्न करना चाहता है। भाषा की व्यवस्था में सम्प्रेषण व्यापार के सभी प्रकार्यों का स्थान है।
इस स्कूल की स्थापना सन् 1926 ईस्वी में हुई। इसके मूल संस्थापक विलेम मथेसिउस थे जो कैरोलाइन विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे। प्राग स्कूल या सम्प्रदाय में कार्य करने वाले भाषावैज्ञानिकों में निकोलायी सेर्गेयेविच त्रुवेत्स्कॉय, आन्द्रे मार्टिने तथा रोमन याकोब्सन के नाम प्रमुख हैं। इनके विचारों की यह सामान्य उल्लेखनीय विशेषता है कि ये सभी भाषा की संदर्भाश्रित शैलियों को महत्वपूर्ण मानते हैं। इनका मानना है कि भाषा का वक्ता सामाजिक संदर्भों में अलग अगल शैलियों का व्यवहार करता है। निकोलायी सेर्गेयेविच त्रुवेत्स्कॉय ने स्वनिम के क्षेत्र में प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान के सिद्धांतों का प्रयोग किया। आन्द्रे मार्टिने ने ध्वनि-परिवर्तन पर विचार किया और परस्पर स्वनिमों की प्रकार्यात्मक उपयोगिता की व्याख्या करने का प्रयास किया। इसी काल में आस्ट्रिया में मनोवैज्ञानिक कार्ल ब्रुल्हर ने भाषा को सम्प्रेषण व्यवहार के एक साधन के रूप में मानने पर बल प्रदान किया। वक्ता भाषा के माध्यम से श्रोता से अपना कथन कहता है। इस प्रकार भाषा व्यापार के तीन प्रमुख तत्त्व हैं – (1) वक्ता (2) श्रोता (3) विषय संदर्भ। ये तीनों तत्त्व सम्प्रेषण के साथ जुड़े रहते हैं। इन तीनों के आधार पर उन्होंने भाषा के तीन प्रकार्य होना प्रतिपादित किया।
रोमन याकोब्सन ने भी भाषा के तीन आधारभूत तत्त्व माने। वक्ता की दृष्टि से अभिव्यक्ति प्रकार्य, श्रोता की दृष्टि से प्रभाविक प्रकार्य और संदर्भ की दृष्टि से साम्प्रेषणिक प्रकार्य। इसका विस्तार करते हुए उन्होंने भाषा के छह प्रकार्य माने।
1.वक्तृबोधक अभिव्यंजक प्रकार्य (Expressive Function)
2.कामनार्थक प्रकार्य (Conative Function)
3.अभिधापरक प्रकार्य (Donative Function)
4.सामाजिक सम्बोधन परक प्रकार्य (Phatic Function)
5.कूट सम्प्रेषणपरक प्रकार्य (Codifying Function)
6.काव्यात्मक प्रकार्य (Poetic Function)
प्रकार्यवादियों के अनुसार भाषा की संरचना प्रकार्य के अनुरूप परिवर्तित होती है। रोमन याकोब्सन ने भाषा के प्रकार्यों का निर्धारण किया तथा इनके संदर्भ में भाषा के स्वनिमों के प्रभेदक अभिलक्षों का अध्ययन सम्पन्न किया। इन्होंने स्वनिम को प्रभेदक अभिलक्षणों के गुच्छ के रूप में परिभाषित किया।
ध्वन्यात्मक (phonetic)
स्वनिमिक (phonological)
व्याकरणिक (grammatical)
परिस्थितीय अथवा अर्थ विषयक (situational or semantic)
(J.R.Firth: Synopsis of Linguistic Theory (Studies in Linguistic Analysis – Special Volume of the Philological Society, pp. 11-23) |
प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान एवं लंदन स्कूल (प्रोफेसर फर्थ)
प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान पर विचार करते समय लन्दन स्कूल के प्रोफेसर फर्थ का उल्लेख करना भी प्रासंगिक है। प्रोफेसर फर्थ के मत के अनुसार भाषा के विश्लेषण का उद्देश्य उसके अर्थ का विवरण प्रस्तुत करना है जिससे हम भाषा के जीवंत प्रयोगों को आत्मसात कर सकें। भाषा एक अर्थपूर्ण प्रक्रिया है। प्रोफेसर फर्थ का मत है कि भाषा अर्थपूर्ण भाषा-व्यवहार है। भाषा का अध्ययन अर्थ की विभिन्न रीतियों अथवा वृत्तियों के संदर्भ में करना अभिप्रेत है। भाषा और अर्थ जटिल रूप से अंतःपाशित (interlocked)) हैं। एकपक्षीय व्यवस्थापरक (mono systemic) विवरण भाषा के सभी पहलुओं की व्याख्या करने में असमर्थ है। प्रोफेसर फर्थ ने भाषा और अर्थ के जटिल रूप से अंतःपाशित पहलुओं को स्पष्ट करने के लिए भाषा अध्ययन को कई स्तरों पर करने की अनुशंसा की है। उदाहरणार्थ –
1. ध्वन्यात्मक (phonetic)
2. स्वनिमिक (phonological)
3. व्याकरणिक (grammatical)
4. परिस्थितीय अथवा अर्थ विषयक (situational or semantic)
(J.R.Firth: Synopsis of Linguistic Theory (Studies in Linguistic Analysis – Special Volume of the Philological Society, pp. 11-23) |
संरचनात्मक भाषाविज्ञान और प्रोफेसर फर्थ के विचारों के अन्तर को इससे समझा जा सकता है कि जहाँ संरचनात्मक भाषाविज्ञान भाषा का अध्ययन ‘अर्थ को बीच में लाए बिना’ की मान्यता को ध्यान में रखकर करने पर जोर देता है वहीं इसके उलट प्रोफेसर फर्थ का विचार था कि भाषा का विश्लेषण हम जिस स्तर पर क्यों न करें, वह विश्लेषण प्रत्येक स्तर पर अर्थ का ही विश्लेषण है। फर्थ के शब्द हैं –
"अर्थ प्रसंगाश्रित सम्बंधों (contextual relations) की संश्लिष्टता है और ध्वनि, व्याकरण, शब्दकोष निर्माण और अर्थविज्ञान इनमें से प्रत्येक के अपने उचित संदर्भ में प्रसंगाश्रित सम्बंधों की संश्लिष्टता के घटक होते हैं"।
(J.R.Firth: The Technique of Semantics (Papers in Linguistics, P.19) |
इस प्रकार फर्थ के मतानुसार भाषा का विश्लेषण सभी स्तरों पर अर्थ का ही विश्लेषण है। इस कारण प्रोफेसर फर्थ ने भाषा को ध्वनि, व्याकरण, शब्दकोश आदि कई व्यवस्थाओं से निर्मित पूर्ण व्यवस्था माना। उनके शब्द हैं कि ये सभी व्यवस्थाएँ परस्पर सम्बद्ध होती हैं और समग्र रूप से अर्थ का प्रतिपादन करती हैं।
J.R.Firth: The Teaching of Semantics, P. 19, in Papers in Linguistics, London. (1957) |
प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान एवं साइमन डिक का प्रकार्यात्मक व्याकरण (Functional Grammar)-
प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान के क्षेत्र में जिन भाषावैज्ञानिकों ने महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किए, उनमें साइमन डिक, हैलिडे, रॉबर्ट वान वैलिन के नाम अधिक चर्चित हैं। सन् 1970 और सन् 1980 के दशकों में साइमन डिक का प्रकार्यात्मक व्याकरण (Functional Grammar) प्रभावशाली रहा। डिक ने प्रकार्यात्मक व्याकरण को इस प्रकार परिभाषित किया है – "प्रकार्यात्मक रूपावली मॉडल में भाषा की अवधारणा मूल रूप से यह है कि मनुष्य समाज के अन्य सदस्यों के साथ सामाजिक सम्पर्क के लिए भाषा का एक साधन के रूप में प्रयोग करता है। दूसरे शब्दों में कोई भी प्राकृतिक भाषा अपने उपयोगकर्ताओं की संप्रेषण क्षमता से सम्बद्ध होती है"।
विशेष अध्ययन के लिए देखें – (1.Dick, S. C. : Studies in Functional Grammar. London (1980) 2.Dick, S. C. : Functional Grammar. Dordrecht/Cinnaminson NJ: Foris (1981)) |
प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान एवं रॉबर्ट वान वैलिन का भूमिका और संदर्भ व्याकरण (Role and reference grammar)-
रॉबर्ट वान वैलिन द्वारा विकसित भूमिका और संदर्भ व्याकरण (Role and reference grammar) के ढाँचे को प्रकार्यात्मक विश्लेषण के ही अन्तर्गत रखा जाना उचित है। इन्होंने भी किसी भाषा के वाक्य का विवरण भाषा की अर्थ संरचना और सम्प्रेषण व्यापार के संदर्भ में ही करने जोर दिया है। विशेष अध्ययन के लिए देखें –(1.Foley, W. A., Van Valin, R. D. Jr. : Functional Syntax and Universal Grammar. Cambridge: Cambridge Univ. Press (1984)। 2.Van Valin, Robert D., Jr. (Ed.) : Advances in Role and Reference Grammar. Amsterdam: Benjamins (1993)) |
प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान एवं हैलिडे का व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL):
हैलिडे का व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान भी भाषा के प्रकार्यों की अवधारणा के चतुर्दिक केन्द्रित भाषा के अध्ययन का सिद्धांत है। व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) भी प्रकार्यात्मक है। यह भी मानता है कि विशेष प्रकार्यों को सम्पन्न करने के लिए भाषा का विकास होता है। व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) भाषा को सामाजिक संदर्भ में व्याख्यायित करने का सिद्धांत है। भाषा सामाजिक संदर्भानुसार परस्पर विनिमय होने वाले अर्थ को व्यक्त करने का एक संसाधन है। इसी कारण व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक व्याकरण भाषा के अर्थ को विवेच्य मानता है। भाषा के प्रयोक्ता भाषा का प्रयोग सामाजिक संदर्भगत अर्थ को व्यक्त करने के लिए करते हैं। इसी कारण हैलिडे का कथन है कि भाषा का प्रयोक्ता किन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए भाषा का प्रयोग एक संसाधन के रूप में कर रहा है – इस पर भाषावैज्ञानिक को अपनी दृष्टि केन्द्रित रखनी चाहिए। हैलिडे का स्पष्ट विचार है कि भाषा का महत्व उसके सामाजिक उपयोग में निहित है और इस पर अनिवार्य रूप से उपभोक्ता की दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए। हैलिडे ने प्रोफेसर फर्थ के विचारों को आगे बढ़ाने का काम किया। उन्होंने अर्थ के साथ-साथ सामाजिक परिस्थितियों तथा संदर्भों को भी समाविष्ट किया। हैलिडे ने माना कि भाषा के अध्ययन में संदर्भ प्रमुख है जो भाषा को सामाजिक परिस्थितियों से जोड़ने का काम करता है।
हैलिडे संरचनात्मक भाषावैज्ञानिकों की तरह भाषा को केवल व्यवस्था नहीं मानते अथवा उसे केवल सभी व्याकरणसम्मत वाक्यों का सेट नहीं मानते। उनकी मान्यता है कि सभी संदर्भों में प्रयुक्त समस्त भाषिक रूपों का अध्ययन ही विवेच्य है। संरचनात्मक भाषाविज्ञान ने भाषा की विशिष्ट संरचना के अध्ययन को ही विवेच्य माना। सवाल उठता है कि व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) में भाषाई संरचना की क्या भूमिका है?
संरचनात्मक भाषाविज्ञान में विश्लेषण की इकाई "वाक्य" है।व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) में विश्लेषण की इकाई "पाठ" है। इसकी मान्यता है कि भाषा की लघु इकाई ( ध्वनि आदि) का अध्ययन भी पाठ द्वारा व्यक्त अर्थ में उसके योगदान की पृष्ठभूमि में किया जाना चाहिए। संदर्भ के अनुरूप वांछनीय अर्थ को व्यक्त करने के लिए यह भाषिक संरचनाओं की भूमिका को प्राकृतिक मानता है। भाषिक संरचनाओं का अध्ययन पाठ को इकाई मानकर तथा सामाजिक संदर्भानुसार करने की अनुशंसा करता है।
जीवन के समस्त प्रयोजनों की सिद्धि के लिए भाषा का प्रयोग होता है और इसी कारण प्रत्येक भाषा की अनेक प्रयुक्तियाँ (Registers) होती हैं। हिन्दी के संदर्भ में इसकी विवेचना करना संगत होगा।
जनभाषा हिन्दी तथा प्रयोजनमूलक हिन्दी का अन्तर तथा ‘प्रयुक्ति’ (रजिस्टर)
बोलचाल की जनभाषा हिन्दी तथा प्रयोजनमूलक हिन्दी का मुख्य अन्तर प्रयुक्ति का है। जनभाषा की अपनी कोई विशिष्ट पारिभाषिक शब्दावली नहीं होती। किसी कार्य क्षेत्र में प्रयुक्त होनेवाली विशिष्ट शब्दावली ही ‘प्रयुक्ति’ है जिसके लिए अंग्रेजी में “Register” शब्द का प्रयोग होता है जिसका पारिभाषिक अर्थ है –“एक रजिस्टर एक विशेष उद्देश्य के लिए या किसी विशेष सामाजिक सेटिंग में इस्तेमाल भाषा की एक किस्म है”। इसका अर्थ यही है कि विशेष कार्य क्षेत्र में जब हम अपनी भाषा का इस्तेमाल करते है तो उसकी विशिष्ट किस्म हो जाती है। यह विशिष्ट किस्म उस कार्य क्षेत्र की विशिष्ट शब्दावली, वाक्यांशो और मुहावरों के कारण बनती है। व्यक्ति के कार्य क्षेत्र अनगिनत हैं। हिन्दी में “Register” के लिए प्रयुक्ति शब्द का प्रयोग होता है। अनगिनत कार्य क्षेत्रों के अनुरूप भाषा की प्रयुक्तियाँ भी अनगिनत हैं। कहावत है - ‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’। इसी प्रकार कार्य क्षेत्र अनगिनत तथा भाषा की प्रयुक्तियाँ भी अनगिनत। प्रत्येक कार्य क्षेत्र में कुछ विशिष्ट शब्दों का चलन हो जाता है। जब पहली बार कोई व्यक्ति किसी अपरिचित कार्य क्षेत्र में जाता है तो वहाँ कुछ नए शब्दों को सुनता है। एक दो दिन में वह उस कार्य क्षेत्र के उन विशिष्ट शब्दों के प्रयोग का आदी हो जाता है।
साहित्यिक हिन्दी एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी का अन्तर-
साहित्यिक भाषा और प्रयोजनमूलक भाषा का अन्तर यह है कि साहित्य में लक्ष्यार्थ एवं व्यंग्यार्थ की प्रधानता होती है, विचलन या विपथन होता है जबकि प्रयोजनमूलक भाषा में वाच्यार्थ होता है। प्रत्येक प्रयुक्ति का अपना निश्चित अर्थ होता है। इस कारण व्यक्त शब्द का अर्थ एकार्थक होता है। प्रयुक्ति इसी कारण रूढ़ हो जाती है। उस कार्य क्षेत्र में कार्य करने वाला उस प्रयुक्ति के विशिष्ट किन्तु रूढ़ अर्थ से सहज ही परिचित हो जाता है, उसके प्रयोग का अभ्यस्त हो जाता है। प्रयुक्ति एक शब्द की भी हो सकती है एकाधिक शब्दों से बने वाक्यांश की भी हो सकती है।
प्रयोजनमूलक हिन्दी के प्रमुख भेद एवं उपभेद:
प्रयोजनमूलक हिन्दी के भेदों की गणना सम्भव नहीं है। अध्ययन के लिए किसी विवेच्य के भेद प्रभेद करने होते हैं। इस दृष्टि से प्रयोजनमूलक हिन्दी के प्रमुख भेदों तथा भेदों के प्रभेदों को आगे प्रस्तुत किया जा रहा है। यह वर्गीकरण केवल व्यवहारिक दृष्टि से ही है। एक भेद के अन्तर्गत परिगणित उपभेदों में से कुछ को द्सरे भेद का उपभेद भी माना जा सकता है। उदाहरण के लिए हम एक भेद व्यवसायों की व्यवसायिक हिन्दी के नाम से कर रहे हैं। इस पर तर्क वितर्क सम्भव है। अन्य भेदों के कार्य क्षेत्रों को भी विशेष व्यवसाय मानते हुए वर्गीकरण पर प्रश्नवाचक चिन्ह लागाए जा सकते हैं। इसी कारण हम फिर दोहरा रहे हैं कि यह वर्गीकरण अन्तिम नहीं है। व्यवहार, परम्परा, सुविधा आदि कारणों से यह वर्गीकरण किया जा रहा है।
विज्ञान, तकनीक एवं प्रौद्योगिकी के कार्य क्षेत्रों की हिन्दी | 1.वैज्ञानिक हिन्दी 2.तकनीकी हिन्दी 3. प्रौद्योगिकी संस्थानों की हिन्दी एवं उन संस्थानों के विषयों का हिन्दी के माध्यम से शिक्षण प्रशिक्षण 4. हिन्दी भाषा के विविध कार्य व्यापारों के निष्पादन के लिए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग |
जनसंचार के माध्यमों की हिन्दी (प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हिन्दी) | 1. समाचार पत्रों की हिन्दी 2. पत्रिकाओं की हिन्दी 3. पत्रकारिता की हिन्दी 4. रेडियो की हिन्दी 5. टी. वी. पर प्रसारित विविध कार्यक्रमों की हिन्दी 6. फिल्मों के संवादों की हिन्दी 7. फिल्मों के गानों की हिन्दी 8. विज्ञापनों की हिन्दी 9. कम्प्यूटर की सोशल साइटों एवं ईमेलों आदि की हिन्दी |
वाणिज्य, व्यापार एवं औद्योगिकी के उपक्रमों के कार्य क्षेत्रो की हिन्दी | 1.मंडी की हिन्दी 2.दलालों की हिन्दी 3.शेयर मार्किट की हिन्दी 4. बैंकों की हिन्दी 5. अन्य औद्योगिक उपक्रमों (यथा- बीमा, रेल, हवाई जहाज, होटल, पर्यटन से सम्बंधित अन्य उपक्रमों) के कार्य क्षेत्रों की हिन्दी |
विधि एवं न्यायालयों के कार्य क्षेत्रों की हिन्दी | 1. विधि विधान के कार्य क्षेत्र की हिन्दी 2. न्यायालयों के कार्य क्षेत्र की हिन्दी |
अन्य विभिन्न व्यवसायों के कार्य क्षेत्रों की हिन्दी | उपर्युक्त वर्णित कार्य क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य व्यवसायों के कार्य क्षेत्रों की व्यवसायिक हिन्दी |
जो विद्वान प्रशासन के कार्य क्षेत्र की हिन्दी को प्रयोजनमूलक हिन्दी के अन्तर्गत रखने के पक्षधर हों उनके लिए ‘प्रशासनिक हिन्दी’ | |
भाषा मानवीय अनुभवों का प्रतिपादन करता है। मानवीय अनुभवों का संसार अपरिमित है। इस कारण भाषा में एक कथ्य के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग होता है। एक शब्द के संदर्भ के अनुसार अनेक अर्थ होते हैं। एक शब्द के अनेक प्रयोग होते हैं। भाषा का प्रयोगकर्ता अपनी भाषा में उपलब्ध विकल्पों में से संदर्भ को ध्यान में रखकर किसी विकल्प का चयन करता है। भाषा में उपलब्ध विकल्प भाषा के विभिन्न स्तरों पर मिलते हैं। भाषा के तीन बुनियादी स्तर होते हैं।
1. ध्वनि
2. शब्द-व्याकरण (lexicogrammar)
3. अर्थ
इस कारण शोधकर्ता को अपने अनुसंधान के विषय और उद्देश्य को ध्यान में रखकर तत्सम्बंधित भाषा के स्तर विशेष के प्रासंगिक अथवा संदर्भगत पहलुओं की दृष्टि से अपना विश्लेषण करना चाहिए। भाषा बहुपक्षीय व्यवस्थाओं की व्यवस्था है। "भाषा सम्भावित अर्थों को व्यक्त करने का संसाधन है" भाषा की इस परिभाषा को इष्ट मानते हुए व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान अनुसंधान की विषयवस्तु और उद्देश्य के अनुरूप शोधकर्ता को शोध-प्रविधि में लचीलापन रुख अपनाने की सलाह देता है।
व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) भाषा में प्रत्येक स्तर पर उपलब्ध समस्त सम्भावित विकल्पों को समग्रता में देखता है और संदर्भ के अनुरूप प्रयोग का अध्ययन करने पर बल देता है। इसमें "व्यवस्थागत प्रयोग" का मतलब है भाषा में प्रत्येक स्तर पर उपलब्ध समस्त सम्भावित विकल्पों में से संदर्भ के अनुरूप भाषा-प्रयोक्ता द्वारा चयन।हिन्दी के संदर्भ में इसे सर्वनाम के प्रयोग से समझा जा सकता है। भाषा का प्रयोक्ता "तू", "तुम", "आप" के विकल्पों में से श्रोता के साथ उसके सामाजिक सम्बंध और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किसी एक विकल्प का चयन करता है। इसी चयन से वाक्य रचना का निर्धारण होता है।
तू | जा |
तुम | जाओ |
आप | जाइए |
व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) भाषा की वाक्यात्मक संरचनाओं के अध्ययन के साथ साथ भाषा के प्रकार्यों को वरीयता प्रदान करता है। सामाजिक स्तर पर भाषा की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। भाषा में वक्ता और श्रोता जब परस्पर सम्भाषण करते हैं तो परिस्थियों, परिवेश एवं विषय के संदर्भ के अनुरूप भाषा की शैलियों का चयन करते हैं। भाषा के द्वारा सम्पन्न होने वाले प्रकार्यों से संरचना के सभी स्तर प्रभावित एवं नियंत्रित होते हैं। व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) में इसके लिए पारिभाषिक शब्द "मेटाफंकशन्स" का प्रयोग होता है।
व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) तथा डिक के प्रकार्यात्मक व्याकरण में यह अन्तर है कि व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) भाषा की संरचना के सभी स्तरों पर विचार करता है। हेलिडे भाषा को कई व्यवस्थाओं से निर्मित व्यवस्था मानते हैं। इसी अन्तर के कारण इसको केवल प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान न कहकर व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान के नाम से जाना जाता है।
व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) में, 'स्तरीकरण' शब्द का पारिभाषिक अर्थ में प्रयोग होता है। इसमें भाषा का विश्लेषण चार स्तरों पर किया जाता है –
1.संदर्भ अथवा प्रसंग (Context)
2.व्यवस्थापरक अर्थविज्ञान (Systemic Semantics)
3.शब्द-व्याकरण (Lexico-Grammar)
4.स्वनिम विज्ञान – लेखिम विज्ञान (Phonology – Graphology)
इनको अपेक्षाकृत विस्तार से इस प्रकार समझा जा सकता है।
(1)संदर्भ अथवा प्रसंग (Context)-
व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) भाषा का अध्ययन सामाजिक पृष्ठभूमि में सम्पन्न करता है। वह अपना ध्यान इस ओर केन्द्रित रखता है कि भाषा सामाजिक संदर्भों से किस प्रकार नियंत्रित एवं परिचालित होती है।संदर्भ को ध्यान में रखकर भाषा का विश्लेषण इसकी केंद्रीय अवधारणा है। इसके लिए भाषाविज्ञान संदर्भानुसार अर्थ को व्यक्त करने के लिए एक व्यवस्थित संसाधन है। इसके अन्तर्गत फील्ड, टेनर और मोड इन तीन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग होता है। फील्ड से अभिप्राय है कि भाषा का विषय क्या है। टेनर वक्ताओं की सामाजिक भूमिकाओं को स्पष्ट करता है। मोड से अभिप्राय है कि संप्रेषण का माध्यम क्या है और उस माध्यम के अनुरूप भाषा का रूप किस प्रकार रूपायित होता है। भाषा मौखिक है अथवा लिखित है अथवा दृश्य-श्रव्य रूपों के साथ भाषा का प्रयोग हो रहा है। हम सब जानते हैं कि जब हम भाषण देते हैं तथा जब लेखन के द्वारा अपने भावों अथवा विचारों को व्यक्त करते हैं तो भाषा के स्वरूप में अन्तर आ जाता है।
(2)व्यवस्थापरक अर्थ विज्ञान (Systemic Semantics) अथवा संकेतप्रयोग विज्ञान (Pragmatics) – इसको तीन घटकों में विभाजित किया जाता है।
(क) संप्रत्ययमूलक अर्थविज्ञान (Ideational Semantics)
(ख) अन्तर्वैयक्तिक अर्थविज्ञान (Interpersonal Semantics)
(ग) पाठ अर्थविज्ञान (Textual Semantics)
व्यवस्थापरक अर्थविज्ञान के उपर्युक्त घटकों के अनुरूप सभी भाषाओं के तीन प्रकार्य अथवा मेटाफंकशन्स (metafunctions) होते हैं –
(क) रचित अनुभव – भाषा मानवीय अनुभव की विवेचना करता है। यह अनुभव एक ओर बाह्य जगत के बारे में होते हैं तो दूसरी ओर अन्तर्मन का अनुभव संसार होता है। इस अनुभव का प्रतिपादन भाषा करती है। रचित अनुभव के अर्थ संसार में उदाहरण के लिए भाषा के प्रयोक्ता की बाह्य जगत के सम्बंध में अभिवृत्ति और तदनुरूप भाषा के अभिवृत्तिपरक अर्थ (attitudinal meaning) का अध्ययन किया जाता है।
(ख) सामाजिक सम्बंध (वक्ता और श्रोता के पारस्परिक सम्बंधों के अनुरूप भाषा-प्रयोग के अर्थ संसार का अध्ययन।
(ग) उपर्युक्त दोनों प्रकार्यों को अभिव्यक्त करने के लिए शब्दों से रचित पाठ। यह पहले कहा जा चुका है कि संरचनात्मक भाषाविज्ञान जहाँ वाक्य को इकाई मानकर भाषा का विश्लेषण करता है, वहीं हैलिडे ने पाठ को इकाई मानकर भाषा के अध्ययन करने का प्रस्ताव किया है।
उपर्युक्त तीनों प्रकार्य समन्वित रूप से सम्पन्न होते हैं। इस कारण भाषा का विश्लेषण भाषा के द्वारा व्यक्त तीनों प्रकार्यों में भाषा की संरचनात्मक संगठन की भूमिका को स्पष्ट करने में सक्षम होना चाहिए। इसको सुविधा के लिए अलग अलग व्याकरण, अर्थ एवं प्रसंग या संदर्भ के नाम से पुकारा जा सकता है। मगर भाषा में सामान्यीकृत दृष्टि से ये तीनों जो प्रकार्य करते हैं उनको व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान में मेटाफंकशन्स कहा जाता है।
Halliday, M.A.K.: Text as semantic choice in social contexts. Reprinted in full in Linguistic Studies of Text and Discourse. Volume 2 in the Collected Works of M.A.K. Halliday. Edited by J, J. Webster. London and New York: Continuum. pp. 23–81 (1977). |
(3)व्याकरण-शब्द (Lexico-Grammar) –
इसके अन्तर्गत उच्चारों में शब्दों के वाक्यात्मक संगठन का अध्ययन किया जाता है। इसके अन्तर्गत शब्दों का अध्ययन उनकी प्रकार्यात्मक भूमिकाओं की दृष्टि से किया जाता है। हैलिडे ने इन भूमिकाओं को ध्यान में रखकर शब्दों की वाक्यात्मक भूमिकाएँ कर्ता अथवा अभिकर्ता (Agent), माध्यम (Medium), थीम (Theme), और मूड (Mood) आदि के रूप में वर्गीकत करके उनकी व्याख्या की है। व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान की संकल्पना है कि व्याकरण-शब्द (lexicogrammar) वाक्य रचना, शब्दकोश, और रूपविज्ञान को सम्बद्ध करती है। हैलिडे का कथन है कि उपर्युक्त तीन घटकों को समन्वित रूप में वर्णित किया जाना चाहिए। इस कारण यदि किसी भाषा का कोश भाषा के तीनों घटकों (वाक्य रचना, शब्दकोश, और रूपविज्ञान) को समेटकर बनाया जाएगा तो वह कोष उस भाषा की प्रकृति को व्यक्त करने में कारगर होगा। भाषा के एक रजिस्टर में जिन शाब्दिक वाक्यात्मक अभिरचनाओं की अधिक आवृत्ति हो रही है, भाषा के दूसरे रजिस्टर में उससे भिन्न शाब्दिक वाक्यात्मक अभिरचनाओं की आवृत्ति हो सकती है। हैलिडे के इस विवेचन से किसी क्षेत्र विशेष के कर्मचारियों एवं अधिकारियों को उनके प्रयोजन की भाषा सिखाने में विशेष सहायता प्राप्त होती है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान ने अलग अलग क्षेत्रों में प्रयुक्त प्रयोजनमूलक हिन्दी के रजिस्टरों पर बहुत काम किया है। यही कारण है कि संस्थान जिस क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्तियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाता है, उनको ध्यान में रखकर पाठ्य सामग्री में संशोधन एवं परिवर्द्धन करता है। इससे बहुत कम समय में प्रशिक्षणार्थियों को कार्य साधक ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि रेलवे के स्टेशनों पर रेल के आने जाने आदि का समय बतलाने वाले घोषकों को प्रयोजनमूलक हिन्दी में प्रशिक्षित करना है तो यह उनके मतलब के 60 से 80 शब्दों से निर्मित वाक्यों का उच्चारण सिखाकर सम्पन्न हो सकता है।
इस दृष्टि से विशेष अध्ययन के लिए देखें – (Halliday, M. A. K. : A Short Introduction to Functional Grammar. London: Arnold (1985/1994/2004)) |
भाषा में प्रत्येक शब्द के प्रयोग के संदर्भ होते हैं। शब्द जिस संदर्भ में प्रयुक्त होता है, उसका उस संदर्भ में आने वाले अन्य शब्द / शब्दों से सम्बंध होता है। हम पहले विचार कर चुके हैं कि भारतीय मनीषियों ने शब्द के अर्थबोध के लिए ‘योग्यता’ के महत्व का प्रतिपादन किया है। हैलिडे ने इसकी विवेचना शब्द सहसम्बंध (collocation) के उदाहरणों द्वारा की है। इसको हिन्दी से कुछ उदाहरण देकर स्पष्ट करने का प्रयास किया जाएगा।
(क)हिन्दी का प्रयोक्ता विभिन्न पशुओं के लिए अलग अलग गुणवाचक शब्दों का सहसम्बंध मानता है और तदनुरूप प्रयोग करता है। उदाहरणार्थ –
पशु का नाम | गुणवाचक शब्द |
शेर | वीरता |
हाथी | आलसीपन |
कुत्ता | वफादारी |
(ख) हिन्दी में शेर दहाड़ता है, कुत्ता भोंकता है, हाथी चिंघाड़ता है, गाय रम्भाती है और भौंरा गुंजार करता है।
(ग) विभिन्न वस्तुओं की आवाजों के सहसम्बंध शब्द
वस्तु का नाम | आवाज का सहसम्बंध शब्द | उदाहरण |
कंगन | खनखनाना | राधा के कंगन खनखना रहे हैं। |
बिजली | कड़कना | आसमान में बिजली कड़क रही है। |
बादल | गड़गड़ाना | आकाश में बादल गड़गड़ा रहे हैं। |
पत्ते | खड़खड़ाना | पेड़ के पत्ते खड़खड़ा रहे हैं। |
दरवाजा | भड़भड़ाना | बाहर का दरवाजा भड़भड़ा रहा है। |
लकड़ी | चटचटाना | जलती लकड़ी चटचटाती है। |
फसल | लहलहाना | पानी पड़ते ही किसान की फसल लहलहा उठी। |
शब्दों का अध्ययन उनकी प्रकार्यात्मक भूमिकाओं की दृष्टि से करने की संकल्पना को हिन्दी भाषा की सकर्मक क्रियाओं के वाक्य-प्रयोगों से स्पष्ट करने का प्रयास किया जाएगा। सकर्मक क्रियाओं के प्रयोग के कारण वाक्य कर्म की आकांक्षा करता है। तालिका में संज्ञा वाक्यांश2 का व्याकरणिक प्रकार्य "कर्म" है। नीचे उदाहरणों में हम देख सकते हैं कि तालिका (क) के वाक्यों में कर्म चिह्नक [ 0] है अर्थात अचिह्नित कर्म है। तालिका (ख) के वाक्यों में कर्म चिह्नक [ को] है।
(क)
क्रम | संज्ञा वाक्यांश1 (कर्ता) | संज्ञा वाक्यांश2 (कर्म) कर्म चिह्नक [ 0] | सकर्मक क्रिया |
1. | बच्चे ने | अपनी ऊँगली | काट ली। |
2. | नौकर | बगीचे का पेड़ | काट रहा है। |
3. | रोजाना हम | चार रोटियाँ | खाते हैं। |
4. | सुनार | जेवर | गढ़ता है। |
5. | मैं | मिठाइयाँ | चख रहा हूँ। |
6. | बालक | सीढ़ियाँ | चढ़ रहा है। |
7. | ग्वाला | गाय | चराता है। |
8. | मैंने | अपनी कार | चलाई। |
9. | मैं | चार गिलास पानी | पीता हूँ। |
10. | मेरा दोस्त | अपना बिस्तर | बाँध रहा है। |
11. | किसान ने | बीज | बिखेर दिए। |
12. | माली | अच्छे अच्छे फूल | बीन रहा है। |
13. | जुलाहा | कपड़ा | बुनता है। |
14. | मैंने | मोमबत्ती | बुझा दी। |
15. | मुझको | तुम्हारा पत्र | मिल गया। |
(ख)
क्रम | संज्ञा वाक्यांश1 (कर्ता) | संज्ञा वाक्यांश2 (कर्म) कर्म चिह्नक [ को] | सकर्मक क्रिया |
1. | मास्टर | लड़कों को | घुड़कता है। |
2. | प्रत्येक माँ | अपने बच्चे को | चाहती है। |
3. | बदमाश लड़के | बेचारी बुढ़िया को | चिढ़ाते हैं। |
4. | प्रेमी | अपनी प्रेमिका को | चूमता है। |
5. | भयानक शोर ने | लड़के को | चौंका दिया। |
6. | दुकानकार | ग्राहक को | ठग रहा है। |
7. | मास्टर जी | बच्चों को | डाट रहे हैं। |
8. | बदमाश | भोले भाले आदमी को | धमकाता है। |
9. | मेरा पड़ौसी | अपनी पत्नी को | पीट रहा है। |
10. | माँ | अपने बच्चे को | पुचकारती है। |
11. | दुकानकार | ग्राहक को | बहका रहा है। |
12. | वह | जिद्दी बच्चे को | फुसला रहा है। |
13. | अधिकारी ने | कामचोर कर्मचारी को | बुलाया |
14. | भारतीय सैनिक | पाकिस्तानी सैनिकों को | ललकार रहे हैं। |
15. | साहूकार | गरीबों को | सताता है। |
संरचनात्मक भाषावैज्ञानिक इसकी व्याख्या इस प्रकार करेगा।
(क) यदि वाक्य में निम्न सकर्मक क्रियाओं का प्रयोग होता है तो कर्म चिह्नक [ 0] अर्थात अचिह्नित कर्म रहता है। /काटना, खाना, गढ़ना, चखना, चढ़ना, चराना, चलाना, पीना, बाँधना, बिखेरना, बीनना, बुनना, बुझाना, मिलना/
(ख) यदि वाक्य में निम्न सकर्मक क्रियाओं का प्रयोग होता है तो कर्म चिह्नक [ को] का प्रयोग होता है। /घुड़कना, चाहना, चिढ़ाना, चूमना, चौंकाना, ठगना, डाटना, धमकाना, पीटना, पुचकारना, फुसलाना, बहकाना, बुलाना, ललकारना, सहलाना/
उपर्युक्त (क) एवं (ख) तालिका में दिए गए वाक्यों के अर्थपरक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि तालिका (क) के वाक्यों में कर्म चिह्नक [ 0] अर्थात अचिह्नित कर्म अचेतन संज्ञा पद की आकांक्षा करता है, जबकि तालिका (ख) के वाक्यों में कर्म चिह्नक [ को] चेतन संज्ञा पद की आकांक्षा करता है। अर्थपरक अध्ययन के बिना व्याकरणिक पद की प्रकार्यात्मक भूमिका को नहीं समझा जा सकता।
(4)स्वनिम विज्ञान – लेखिम विज्ञान (Phonology – Graphology) -
स्वनिम विज्ञान इस पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है कि टैक्स्ट में ध्वनियाँ किस प्रकार संगठित होती हैं। इसके अन्तर्गत खण्डात्मक स्वनिमों के साथ साथ भाषा के अधिखण्डात्मक अभिलक्षणों को विशेष महत्व प्रदान किया जाता है। लेखिम विज्ञान इस पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है कि टैक्स्ट में लिखित प्रतीक एक प्रणाली के रूप में किस प्रकार संगठित होते है। (अक्षर,वाक्य, पैराग्राफ, आदि)।
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
सेवानिवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान
123, हरि एन्कलेव
बुलन्द शहर – 203001
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