हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार (6)

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पिछले अंक 5 से जारी.. सु बह उठते ही, कुम्हार सीधे पटवारी के घर पहुँचा। उस वक़्त वह बाहर संडास में था। और इस तरह कराह रहा था जैसे कोई उसे ह...

पिछले अंक 5 से जारी..

सुबह उठते ही, कुम्हार सीधे पटवारी के घर पहुँचा। उस वक़्त वह बाहर संडास में था। और इस तरह कराह रहा था जैसे कोई उसे हलाल कर रहा हो। भारी कराह के बीच उसने कुम्हार से थोड़ी देर इंतज़ार करने को कहा।

कुम्हार बाहर ही खड़ा रहा। पटवारी बहुत ही गंदी गली में रहता था जिसकी दोनों तरफ़ बनी नालियों से इस वक़्त टट्टी बह रही थी। तीखी दुर्गंध उठ रही थी। कुम्हार का दम-सा घुटने लगा। बचाव के लिए धीरे-धीरे चलता वह गली के मुहाने पर आ गया। यहाँ भी भयंकर गंदगी और बदबू थी। सामने कूड़े का अम्बार लगा था। सूअरों और कुत्तों की नोंक-झोंक थी।

कुम्हार रात भर इस कुड्डना में था कि उसे बेदख़ल करने के लिए कैसी चालें चली जा रही हैं। जिस जगह पर वह रह रहा है, वह उसके पुरखों की है और खेत भी उन्हीं के हैं जो उसे विरासत में मिले। अब यह कैसी चाल है कि उससे पट्टे के काग़ज़ माँगे जा रहे हैं। हमारे पास कहाँ से आया काग़ज़? किसी भी किसान के पास घर या खेत का काग़ज़ नहीं मिलेगा। यह काम तो पटवारी का है। खसरा-खतौनी किसलिए हैं? यह तो सरासर नाइंसाफी है और उसे सताने का नया तरीका। इसी बहाने सताया जाए, तंग किया जाए ताकि भाग खड़ा होऊँ और यह जगह ये लोग हथिया लें और ऊँचे दामों में बेचें - यही कुछ खेल है। इस खेल में बड़े साहब से लेकर पटवारी तक जुड़े हैं। तभी बड़े साहब मौक़ा देखने आए थे। श्यामल का बाबू और बच्चू ने तो यहाँ तक उसे बताया कि मौक़ा तो बड़े साहब कई बार देखने आए। तूने तो एक ही बार उन्हें देखा। पहले तो यह हवा उड़ी कि केवल उसकी ज़मीन पर फैक्टरी लग रही है लेकिन अब मामला कुछ दूसरा है। सारी बस्ती ख़ाली कराई जाएगी। सबसे पट्टे काग़ज़ माँगे जा रहे हैं- पट्टा काग़ज़ दिखाओ, नहीं तो भागो। हे भगवान! क्या होने जा रहा है? हमने पहले यही सोचा था कि परेशान होने की ज़रूरत नहीं। जब बात साफ़ होगी, तभी देखूँगा। पटवारी ने कहा था कि परेशान न हो, वह सब रास्ता निकाल देगा? कहीं कोई रास्ता न निकाल पाया तो? ख़ैर जो सब के साथ होगा वही उसके साथ होगा। पटवारी पर भरोसा करने में क्या जाता है। हो सकता है वह कुछ जुगाड़ बना दे- वह बार-बार कह रहा है, रास्ता निकाल देगा, भरोसा रखो। लेकिन परबतिया कहाँ सुन रही है, वह तो कहती आ रही है कि यह पटवारी नम्बर एक का शातिर है- इसका भरोसा मत करना। मैना ने भी उसे आगाह किया है, वह तो उस पर झपट्टा मार बैठी थी - बड़े मियां ने भी उसे बैठने न दिया। क्या किया जाए फिर? अब बस्ती के लोग नए फरमान पर क्या उसके पास आएँगे? क्यों नहीं आएँगे, अब तो मामला ही उलट गया! इन्हीं बातों में ऊभ-चूभ था वह। सो नहीं पा रहा था। परबतिया भी कहाँ सो पाई थी। रह-रह उठती, पानी पीती, हे भगवान की पुकार लगाती, रात-भर बिस्तर में कल्थती रही। वह भी तो झूठे खर्राटे भरता सोने का नाटक करता रहा। इसी में रात निकल गई..

पटवारी बाहर खड़ा दिखा जाँघिया का नाड़ा लगाता, तो कुम्हार उसकी तरफ़ दौड़ा आया। पटवारी जाँघिया भर पहने था। बाल भरी छाती पर बाल चीटों की तरह चिपटे नज़र आ रहे थे। वह जनेऊ पहने था जो जाँघिया के नाड़े तक लटका रहा था। छाती वह बेतरह खुजला रहा था। नंगे पाँव था। कुम्हार के पास आते ही उसने उसे ऊपर से नीचे तक कुटिलता से देखा जैसे कह रहा हो कि जब मैं दरवाज़े जाता था तो ऐंठ दिखलाता था, सीधे मुँह बात नहीं- अब बताओ क्या हुआ? क्यों दौड़े आए? अब बेटा तुझे और तेरी बस्ती को टाँग न दूँ तो नाम बलभद्दर पांड़े नहीं। ब्राह्मण की औलाद नहीं। यकायक वह मुस्कुराया और बोला - अरे भोला तुम! क्या हुआ? परेशान दीख रहे हो? मैंने पहले ही कहा तुम जरा भी परेशान न होना, मैं जो हूँ। सब रास्ते पे ला दूँगा, कैसा भी टेढ़ा मामला हो, ये ब्राह्मण सुलझा देगा; फिर तुम्हारा और किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा- यकायक वह चुप हो गया, नाली में थूकता आगे बोला- क्या है, ऊपर के अफ़सरान बहुतै टेढ़े हैं, उन्हें क्या है, उन्हें तो आडर देना है, बस दे दिया। मुसीबत तो हमारे सिर है। ये काम हमारा थोड़ई है। यह तो बाबू का है लेकिन बाबू भी निहायत हरामी है - कुछ करता नहीं, इसलिए बड़े साहब ने मेरे मत्थे डाल दिया। अब तुम देखो, चालीस घर हैं जहाँ तुम रहते हो- आगे-पीछे सब मिलाकर। फिर पीछे खेत हैं, मैं जानता हूँ कि तुम्हारे हैं और बस्ती के लोगों के भी हैं किसानों के; लेकिन अफ़सरान यह लफड़ा लगा रहे हैं कि सब ज़मीन कब्जे की है। मैंने खसरा-खतौनी दिखा दी- तुम्हारी भी खसरा-खतौनी दिखा दी, उस पर तुम्हारा नहीं, तुम्हारे बाबा का नाम है, एक तरह से ज़मीन तुम्हारी ही है, तुम्हारा उनकी जगह नाम चढ़ना है। साहब लोगों का यह खेल चल नहीं पाएगा जब हम लोग मिलकर उनके ख़िलाफ़ खड़े होंगे? यकायक पटवारी चुप हो गया। पेट पर हाथ फेरने लगा जैसे पेट में दर्द हो रहा हो।

और वास्तव में यह सच्चाई थी। पेट में उसके दर्द था। वह बताने लगा कि दर्द की वजह से वह ठीक से सो नहीं पा रहा है। बवासीर की चोट अलग है। हालत ख़राब है।

यकायक उसने कुम्हार के कंधे पर हाथ रखा और भारी स्नेह से कहा- भोला, ज़िन्दगी में कुछ रखा नहीं है, ग़लत काम से भगवान बचाए। ग़रीबों की हाय मैं अपने सिर पर नहीं लेना चाहता। कहते हैं कि मरी खाल की हाय से लौह तक भस्म हो जाता है, फिर ऐसे में हम जीवित इंसान हैं। आज तुमसे मैं सच्ची कहता हूँ सारी नौटंकी ऊपर के अफ़सरान की रची है- मैं नौकरी में हूँ तो काम तो मुझे सब करने होंगे- ऐसे में तुमसे और बस्ती के लोगों से बस एक ही प्रार्थना है कि मुझ पर कोई शक न लाएँ। जो भी षड़यंत्र होगा वह ऊपर से होगा- उसमें मैं कहीं नहीं। यह तुम सब लोग साफ़ जान लो। मैं तुम लोगों की तरफ़ हूँ और जो भी रास्ता बताऊँगा वह जीत का होगा, समझ गए! मुझे बार-बार यह बात कहते ख़राब लग रहा है, अब तुम जैसा कहोगे मैं करने को तैयार हूँ...

कुम्हार बोला - हम लोग क्या कहेंगे? कहना तो आपको है। मैं आपकी बात सब तक पहुँचा दूँगा, फिर देखते हैं क्या राय बनती है...

पटवारी अंदर ही अंदर भारी प्रसन्न हुआ- अब जाकर मछली बंसी में फँसी। देखते हैं आगे क्या होता है- सारी मछलियाँ एक बार में फँस जाएँ तो कमाल हो जाएगा।

पटवारी की पत्नी ने चाय तैयार होने की आवाज़ दी। पटवारी ने बहुत ही प्यार से कहा- भोला, चाय पी के जा देख, तेरी भाभी निमंत्रण दे रही हैं, बस एक मिनट लगेगा।

यकायक पटवारिन उँगलियों में कप फँसाए उबलती चाय भगोनियाँ में लिए सामने आ खड़ी हुई।

-देख भोला, तेरी भाभी तेरे लिए चाय लाई है- भोला की तरफ़ इशारा करते हुए उसने पत्नी से पूछा- जानती है ये कौन हैं?

पत्नी मुस्कुराती बोली- क्यों नहीं जानती। कुम्हार भैया हैं, बड़े मियां की सवारी करने वाले!

कुम्हार भाव-विह्वल हो गया। पटवारिन के सामने हाथ जोड़कर झुक गया।

पटवारिन ने मुस्कुराते हुए कपों में चाय ढाली।

-ले भोला- पटवारी ने अपने हाथों से भोला को कप देते हुए कहा- चाय पी! बैठ जा, हाँ, फर्श पर, आराम से...

फर्श पर उकडूँ बैठे गर्म-गर्म चाय पीते कुम्हार को लगा वह ग़ैर के घर पर नहीं अपने किसी साथी के घर पर है। वह साथी जो उसका हितू और संकट से उबारने की चिंता में है। कंधे-से-कंधा मिलाकर चलनेवाला।

पटवारिन ने कुम्हार का कप दुबारा भर दिया न-न करने के बाद भी।

***

कुम्हार जब पटवारी से मिलने के लिए उसके घर जा रहा था, मैना ने उसे देख लिया था। मैना जान रही थी कि पटवारी कुम्हार के साथ कोई गड़बड़ी करने पर तुला है। कहीं उसके जैसा सलूक कुम्हार के साथ न हो जाए- इसलिए पहले दिन से ही वह सचेत हो गई थी और वह उस पर वार भी कर बैठी थी- लेकिन उसके आगे वह बेबस थी। कुम्हार को देख-देख आहत हो उठती थी। कुम्हार को मिलने वाला काग़ज़ और दोनों का चिंता में रात-रात सो न पाना- उसकी चिंता को बढ़ा गया था। वह शाम को चाक पर बैठना चाह रही थी, उस वक़्त पता नहीं क्या सोचकर रह गई थी; लेकिन सुबह कुम्हार को जाता देखकर उससे रहा नहीं गया। वह उड़ती हुई चाक पर आ बैठी।

कुम्हारिन झाड़ू लगा रही थी, उदास-सी। मैना को देखते ही बोल पड़ी- मैना रानी, तुम तो सब देख- सुन रही हो कि क्या हो रहा है। लगता है, हम कहीं के न रहेंगे।

-नहीं, ऐसा नहीं होगा- मैना धीमी आवाज़ में बोली- ये सही है कि बदमाश किसी खुचड़ में लगे हैं, अनर्थ करना चाहते हैं लेकिन ऐसा होने नहीं पाएगा...

-हम गरीब-गुर्बा क्या कर सकते हैं?

-बस किसी के भुलावे में न आओ, पटवारी कुछ भी बोले, मीठी-मीठी बात करे, सचेत रहना है...

-तुम तो जानती हो, माटी की उधारी के बहाने दाँव-पेंच शुरू हुई, अब पट्टा माँग रहे हैं, दरअसल यहीं अनर्थ की साया दीखती है।

झाड़ू लगाने के बाद वह कुएँ से पानी खैंचने लगी। सब ओर पानी किंछा। गोपी को उठाया और पढ़ने के लिए बैठाल दिया। इधर वह भी अनमना-अनमना रहता। घर पर छाई विपदा और फिर श्यामल का साथ छूटने से उसकी सारी चंचलता ग़ायब-सी हो गई है। बड़े मियां के पास कम ही जाता। पहले दिन भर गलियों-कुलियों में इधर-उधर घूमता फिरता था, अब नीम के नीचे ही बना रहता। कहीं जाता ही नहीं। माँ-बाप की उदासी उसे रह-रह काटने दौड़ती। चाहकर भी उनसे कुछ पूछ नहीं पाता। पहले बाप उसे अपनी गोद में बैठा कर सुबह-शाम रोटी खिलाता था, अब चुपचाप अकेले एक दो कौर खाता है और ढेरों पानी पी के उठ खड़ा होता है। अम्मा भी ऐसई करती है।

गोपी ने अपनी एक किताब खोली और माँ से कहा- अम्मा, नानी हमसे पूछती थी कि अमरीका कहाँ है?

-तूने क्या बताया?

-सात समुन्दर पार कोई गाँव है... यह बताया....

-तू पूरा गधा ही रहेगा, बड़े मियां की तरह- कुम्हारिन ने मन में कहा- अमरीका पड़ोस की कुम्हारिन है, कभी-कभी यहाँ आती थी। अब दूर कहीं चली गई है। जब आती थी तो तेरा बाप उससे मसखरी करता था, मैं अनजान बनी रहती थी। काश, अब वह आए, कम से कम तेरा बाप उदासी से तो उबरे!

थोड़ी देर बाद जब गोपी तैयार होकर पीठ पर बस्ता लादे, पानी की बोतल पकड़े स्कूल के लिए निकला, कुम्हारिन रसोई साफ़ करके कुएँ पर मुगरियों से पीट-पीट कर कपड़े धो रही थी, कुम्हार नीम के नीचे डली खाट पर आकर बैठ गया। पटवारी से मिलकर आशा की जो किरण उसे दिखी थी, घर तक आते-आते वह लुप्त हो गई और ऐसा लग रहा था कि कोई उसे गगरे की तरह गले में रस्सी बाँध कर गहरे, अँधेरे कुएँ में ठेल रहा हो।

कुम्हारिन समझ गई कि कोई बात बन नहीं पाई है, नहीं कुम्हार इस तरह आकर न बैठता। वह चुप रही, कपड़े धोती रही।

सहसा कुम्हार के मन में आया कि कुम्हारिन से पूछे कि अगर उसे यहाँ से बेदख़ल किया गया तो क्या वह चली जाएगी?

-क्यों चली जाऊँगी?

-फिर करोगी क्या?

-कुछ न बना तो जान तो दे दूँगी अनर्थ के सामने।

कुम्हार ने मन ही मन सवाल-जवाब कर डाले और मैना के बारे में सोचने लगा जो चाक पर बैठी उसकी तरफ़ ताक रही थी। इस बिचारी पर कितना बड़ा जुल्म हुआ, कितना सहा है इसने!

सहसा बड़े मियां के खुरों के पटकने की आवाज़ आई। जान गया कि पानी चाहता है, वह उठा और पानी की बाल्टी लिए सार की तरफ़ बढ़ा।

जब लौटा तो कुम्हारिन ने मीठी आवाज़ में कहा- जिया गोपी से अमरीका के बारे में पूछ रही थीं कि कहाँ है वह?

कुम्हार ऊपर से गुनमथान बना रहा, अंदर एक गुदगुदी-सी उतर गई, पूछना चाहा, आई थी क्या? लेकिन पूछा नहीं। वह नहाने के लिए तैयार होने लगा। कुम्हारिन समझ गई कि अमरीका के नाम से कुम्हार अंदर ही अंदर ख़ुश है।

इस वक़्त उसे इसी ख़ुशी की तलाश थी।

***

सरकार के फ़रमान-पट्टे वाली बात जंगल में आग फैलने की गति से भी तेज़ गति से बस्ती के लोगों को पता चली तो वे कुम्हार के पास टूट पड़े। बस्ती में अकेला कुम्हार ही बचा था जो ज़िद के चलते डटा हुआ था, बाक़ी सारे लोग यहाँ से चले गए थे। झोपड़ों में ताले पड़े थे।

इतवार के दिन, सुबह बस्ती के तक़रीबन सभी लोग कुम्हार के झोपड़े के सामने, नीम की छाँव में जमा थे। बच्चे, बूढ़े, जवान-औरत मर्द सभी। सभी इस बात से नाराज़गी जतला रहे थे कि हमारी ज़मीन है तो हमें बेदख़ल करने की साजिश क्यों रची जा रही है? सरकार हमें न पानी देती है, न बिजली और न अन्य ज़रूरत की चीज़ें, बावजूद इसके हम किसी तरह गुज़र-बसर कर रहे हैं। सरकार से कुछ माँग नहीं रहे हैं फिर क्यों यह खूँरेज हरकत? जरूर इसमें पटवारी से लेकर बड़े साहब का खेल है। बड़े साहब के निर्देश पर बेदख़ल करने का खेल रचा जा रहा है ताकि बड़ी रकम हाथ लगे। हमें बेदख़ल करके यह ज़मीन किसी फैक्ट्री मालिक या बिल्डर को दी जाएगी। और फैक्ट्री मालिक या बिल्डर उस पर मनमानी करेगा... लेकिन ऐसा हो पाएगा क्या? लोग इस बात पर तमतमा उठते कि कोई ऐसी पहल करे तो सई, फिर हम बताते हैं कि ज़मीन के लोग, मज़दूर किसान छोटे-मोटे रोज़गार के इंसान होते क्या हैं? हमारी ज़मीन भला कोई हड़प कैसे सकता है? कुछ नौजवान रह-रह लट्ठ चमकाने लग जाते कि पटवारी अगर मिला तो उसका एक ही बार में भेजा उड़ा दिया जाएगा।

भोला ने समझाया कि लट्ठ से काम नहीं चलेगा बल्कि बिगड़ जाएगा- अपनी लड़ाई बहुत ही शांत तरीके से सोचकर लड़ी जाए ताकि जीत हमारी हो। इसके लिए हमें ऊपर फरियाद करनी पड़ेगी।

श्यामल के बाबू ने भोला से कहा- दादा, पहले तो यह पता चला था कि तुम्हारी ज़मीन पर फैक्टरी डल रही है और उसका कोई काग़ज़ तुम्हें थमाया गया है...

भोला ने गर्दन हिलाकर कहा- हमारी ज़मीन में फैक्टरी डलने की बात तो तुम्हीं लोगों ने मुझे बताई, पटवारी से मैंने पूछा तो उसने साफ़ कुछ नहीं कहा- घुमा के बात करता रहा, अभी कल वह आया बाबू के साथ दूसरा फरमान सुनाया। पहले बोला कि तुम्हारे पास पट्टा है क्या? मैंने कहा- हमारे पास पट्टा कहाँ से आया। हमारी ज़मीन है, खसरा-खतौनी में हमारे बाप-दादों का नाम दर्ज़ है। पटवारी बोला- देख लो घर में कहीं कोई न कोई काग़ज़ होगा। मैंने कहा- मालिक ऐसा कुछ भी नहीं है तो वह बोला कि घबराओ नहीं, जब ज़मीन तुम्हारी है तो उसे कोई ले नहीं सकता- यह उनके लिए है जिन्होंने ज़मीन कब्जियाई है जिनके नाम खसरा-खतौनी में नहीं हैं, उनके लिए यह आडर है। उसने जेब से आडर निकाला और कहा- जिन्होंने ज़मीन कब्जियाई है उन्हें यहाँ से हटना होगा। यह भी कहा कि यह आडर किसी एक के नाम नहीं आम सूचना है, सभी के लिए, सारी बस्ती के लिए -कहकर पटवारी ने काग़ज़ सबके सामने कर दिया- लो, देख लो, ये रहा।

एक नवयुवक ने काग़ज़ को देखने के लिए उस पर झपट्टा जैसा मारा।

श्यामल के बाबू ने नवयुवक के व्यवहार पर माथा सिकोड़ा, फिर भोला से पूछा- पहले तो पटवारी तुम्हें घेर रहा था?

-हाँ, ये बात सही है -कुम्हारिन बोली- ये बीमार पड़ गए थे, पटवारी कई बार आया, लेकिन साफ़ कुछ नहीं बोल रहा था, जो कुछ सुना तुम लोगों से सुना, ख़ैर, मैंने कई बार उससे पूछा कि मालिक कौनों बात हो तो बतलाओ, लेकिन वो ऐसा चंट कि मिनका तक नहीं, बात छुपाए रहा; आखिर कल पट्टे की बात कह डाली और ये काग़ज़ दे गया...

-यही बात तो मेरी समझ में नहीं आ रही है- श्यामल के बाबू ने कहा।

-काय भैया, ए बताओ - बूढ़े जगेसर ने अपनी पग्गड़ उतारते हुए भोला से कहा - हम तो अस्सी साल से खेती कर रहे हैं, कभी ऐसा फरमान नहीं आया, लगान फगान जो सिर पड़ती थी, दे आते थे, मामला खतम, मगर जे बात हमारी समझ में तनिक जम नहीं रही है कि पट्टा दिखलाओ, पट्टा नहीं तो हटो।

-काका, श्यामल के बाबू ने ज़ोरों से कहा ताकि काका बात ठीक से सुन-समझ लें- यही बात के लाने तो हम सब यहाँ जुड़े हैं।

काका ने पहले यह आपत्ति दर्ज़ की कि ज़ोर से बोलने की ज़रूरत नहीं, हमें सब सुनाई पड़ रहा है, फिर बोले, जे तो अंधेर है! पूरा अंधेर!!!

काका की बूढ़ी पत्नी यानी काकी जो हाथों में ढेर-सी लाल-हरी चूड़ियाँ डाटे थीं, हाथ मटकाते हुए ज़ोरों से चीखीं- जे अंधेर हुआ तो हम यहीं जान दे देंगे। हम यहीं डोली में बैठ के आए, अब यहाँ से हमारी लहास उठेगी ठठरी में...

काका चीखे - लहास काहे को उठेगी। हम उनकी लहास उठा देंगे। ऐसा नहीं होगा कि कोई हमारी आराज़ी हड़पे और हम चुप बैठे रहें।

बच्चू कुली बोला- हमें तो पटवारी की कारस्तानी लगती है। ज़रूर उसी का खेल है यह।

-बिल्कुल सही कहा - परसादे बोला जो बहँगी में चना ज़ोर गरम बेचता है - वो जैसा ऊपर के अफ़सरों को सुझाएगा वो वैसा करेंगे!

-ज़रूर उसने अफ़सरों को सल्लाह दी होगी कि बस्ती की समूची ज़मीन की नीलामी लगा दो, खसरा-खतौनी हम देख लेंगे... बच्चू खैनी की पीक किनारे थूकता बोला।

रामचरण का बेटा जो सरकारी स्कूल में पढ़ रहा था, ज़ोरों से चीखकर बोला - खसरा-खतौनी उसके बाप की है जो जैसा चाहेगा, करेगा!

-ये सब कर सकते हैं - श्यामल का बाबू गर्दन हिलाते बोला- इतने चालबाज़, बदमाश और चंट होते हैं कि कुछ भी कर डालें!!!

-सही कह रहे हो तुम - भोला श्यामल के बाबू का समर्थन करता बोला - लेकिन हम उनकी एक चाल नहीं चलने देंगे! ये डाल-डाल तो हम पात-पात!!!

-सही कहा - सबने ज़ोरों से इस बात का समर्थन किया।

-और हमने अगर ऐसा न किया तो हम कहीं के न रहेंगे- भोला आगे बोला- और इनके हौसले तो देखो, सीधे लूट पर उतर आए। ज़रा-भी सरम-हया आँखों में न रही।

बच्चू बोला- अरे काका, सरम-हया की तो बातै न करो। सब दूर यही मचा है। अब तो किसी को गला काटते जरा भी हिचक नहीं होती-कमीनपन तो ख़ून में मिल गया है। हमारे यहाँ रेलवई में देखो, कोई किसी को नहीं पहचानता। कोई भी मरता-खपता रहे, किसी को कोई लेना-देना नहीं। कोई रेल से कटा तो कट जान दो, पुलिस आई और ले गई- मामला खतम। ऐसई सब ओर हो रहा है, कोई किसी का मीत नहीं।

-तो ये क्या रेलवई का मामला है? - श्यामल का बाबू आँखों में रोष भरता बोला - ऐसा नहीं है। यहाँ हम सब पटवारी और ऊपर के अफ़सरानों के बाँस बजा देंगे। मजबूरी में हम सब यहाँ से चले क्या गए, सोच लिया यहाँ कोई रहता नहीं। एक गरीब कुम्हार बचा है- लात मार के हँकाल दो- ये इत्ता आसान नहीं है- भोला तो आधी रात को मेरे पास दौड़ा आया था, सारा मामला बतलाया, हमने लीला और गुड्डू से भी बात कर ली है, वे अभी आने वाले हैं, उनकी तो ऊपर तक पकड़ है।

काका बीच में हाथ लहराकर बोलने को हुए कि श्यामल का बाबू उन्हें रोकता बोला- काका, बोलने तो दो, बीच में, अरे यार, तुम बच्चू कमाल करते हो, ये काकी, तुम काए को तूफान खड़ा करने लग गईं बीच में। सुनो तो सई। लो हम बैठे जात हैं, तुम लोग कर लो बातें... यकायक सब ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगे। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि कौन क्या बोल रहा है। काकी बीच में खड़ी हो गईं, कहने लगीं - हमने तो अंगरेजन के छक्के छुड़ा दिए, ये गू खौने सियार किस खेत की मूली हैं। पूछो काका से हमने कहा कि यहाँ अंधेर नहीं चलेगा, छावनी नहीं बन सकती, ज़मीन हमारी है और कहीं विराने में जाओ, फिर क्या था हैट उतार कर वह हमारे सामने झुक गया, बोला - राइट!

बच्चू बोला - काकी, ये अंगरेजन के बाप हैं। इतने हरामी इतने हरामी कि क्या कहें। अंगरेज तो हैट उतारकर खड़ा हो गया होगा, झुक गया होगा और छावनी नहीं बनी होगी, ये नीच तुम्हारे सामने झुक भी जाएँगे, बात भी मान लेंगे, पीछे से पलटा खा जाएँगे। इनके पेट में इतनी घनघोर दाढ़ी है कि भगवान तक नहीं जान सकते...

यहाँ ये बातें चल रही थीं, दूसरी तरफ़ पटवारी, बाबू के साथ, संडास के बग़ल वाली कुठरिया में बैठा सोच रहा था कि ऐसा क्या किया जाए कि साँप भी मर जाए और डंडा भी न टूटे। इनके भले भी बने रहें और इन्हें कहीं का भी न छोड़ें।

और उसने रास्ता निकाल लिया था। पटवारी ने बाबू से कहा- आ, मेरे पीछे आ। पता नहीं कैसा बाबू है, कुछ गुर सीख ले, नहीं ज़िन्दगी दोजख में तब्दील हो जाएगी। ये सिधाई का ज़माना नहीं है, यहाँ ख़ून पीकर ही जिया जा सकता है। कौन किसका ख़ून नहीं पी रहा है, बता दे तू? हर आदमी किसी न किसी का ख़ून पी रहा है। शेर अगर ख़ून न पिये तो क्या जिएगा? कर ले वो रहम। निपट जाएगा। इसीलिए तेरे से कह रहा हूँ कि मेरे सुझाए रास्ते पर चल। जी कड़ा कर और कस के अब गला पकड़। छूरी भी चलाएगा और रहम भी करेगा- ये दो बातें एक-साथ नहीं चलतीं। और यहाँ हम छूरी कहाँ चला रहे हैं। ये तो धरम करम है। राजकाज। इसमें सब चलता है। सब जायज़ है। अब अगर ऊपर वाले अफ़सर चाहते हैं कि उनकी जेबें भरी जाएँ तो कैसे भरी जाएँगी-इसी तरह। बो हमारा गला पकड़ेंगे और हम दूसरे का। बस हो गया खेल। ये सही है कि ज़मीन किसानों की है, खसरा-खतौनी में दर्ज है, लेकिन हम ठप्पे से कहते हैं कि उनकी नहीं है, तो नहीं है। हमारे पास दूसरे सौ तरीक़े हैं। हम सिद्ध कर सकते हैं कि ज़मीन इनकी नहीं है। कोई माई का लाल कितना भी बड़ा कानून का बाप हो, उसे ले नहीं सकता। कितना भी दौड़े - धूपे। न्याय की गुहार लगाए- लेकिन वही न्याय कहेगा कि ज़मीन इनकी नहीं है जो कल तक इनके पक्ष में था। इसलिए बाबू महाराज, आप जी कर्रा करो, आगा-पीछा छोड़ो- आँख बंद करो और मेरे पीछे चलो। अब छूरी क़साई की तरह पहटनी होगी और तेज़ धार रखनी होगी और वैसा ही कर्रा वार करना होगा, फिर देखो मज़ा, कोई सामने आए, उसे कटना ही होगा। मेरे सब्र का बाँध अब टूट गया। अरे, कहाँ जाता है बे! इधर रामू हलवाई के बग़ल वाली गली और फिर सीधा रास्ता। कितनी मौक़े की ज़मीन है। अरबों रुपए आएँगे। साहब कह रहे थे कि ऐसा कंपा बनाओ कि एक बार में शिकार फँस जाए; दूसरे कंपे की ज़रूरत ही न पड़े। सीधा रास्ता दिख रहा है न! देख, यहाँ फिर कुछ नया खेल होगा। कमान अपने हाथ में फिर कठपुतलियों को जैसा चाहो नचाओ।

इन्हीं बातों के बीच पटवारी और बाबू कुम्हार के झोपड़े के सामने आ पहुँचे। यहाँ अपरम्पार भीड़ थी। पूरा मेले जैसा मामला।

पटवारी जैसे ही भोला का नाम ले आगे आया, भीड़ से निकले एक नवयुवक ने दौड़कर उसका जबड़ा पंजों में भर लिया और ज़ोरों से दबाकर जबरदस्त चीख़ के बीच उसके सिर पर ज़ोरों से मुक्के बरसाने लगा।

भोला जब तक दौड़ता एक दूसरा नवयुवक भयंकर चीत्कार के साथ पटवारी पर झपटा और उसने पटवारी का गला मसक दिया।

भोला जब तक छुड़ाता, पटवारी बेहोश हो चुका था और ज़मीन पर अचेत पड़ा था।

सब ओर सन्नाटा। दोनों नवयुवक भीड़ में खोकर लापता हो गए थे। सारे लोग ऐसे खड़े थे मानों बेजान, बेहिस हों।

एक दूसरा ही मामला आ खड़ा हुआ था। सब भयभीत, डरे हुए थे कि अब पुलिस आएगी, पूछताछ होगी, सबकी धुनाई और फिर थाने का चक्कर। ले लो ज़मीन अब।

यकायक बाबू सिर पर पैर रख के यहाँ से भागा। और दूर जा खड़ा हुआ। घबराया- बौखलाया, काँपता-सा। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि क्या करे?

सहसा काकी चिल्लाईं कि पानी डालो मूँ पर, अभी होश आ जाएगा, ऐसई गश आ गया होगा।

कुम्हारिन कलसा उठा लाई।

पटवारी के मुँह पर पानी डाला गया। उसे हिलाया-डुलाया गया। सहसा वह कराहा।

बाबू चीखा दूर से- मैं पुलिस को इत्तिला करता हूँ। सबको बँधवा डालूँगा। हम तो सरकारी काम से आए हैं, हमें काहे मारे डाल रहे हो।

थोड़ी देर में पटवारी उठ बैठा। गरदन लटकाए था। दरअसल उसने नाटक किया था जिसमें वह सफल हो गया था। अंदर ही अंदर वह बेहद ख़ुश था। वह बाबू को बताना चाह रहा था कि उल्लू चुप तो रह, अब मामला अपने हाथ में है, सब उसकी गिरफ़्त में होंगे कठपुतली जैसे, तू देखता जा। उसने बाबू को चुप रहने को कहा जो चीख़े जा रहा था।

पटवारी को खाट पर बैठाया गया। उसे पीने को पानी दिया गया। भोला ने कहा- लो मालिक तनक पानी पी लो, तबियत दुरुस्त हो जाएगी। आपको चक्कर आ गया था।

-हाँ, मुझे चक्कर आ गया था - काँखता हुआ पटवारी बोला।

-तुझे चक्कर नहीं आया, गुण्डों ने तेरा गला मसका था। झूठ काहे को बोलता है- बाबू बोला तो पटवारी काँखता, अफ़सोस में बोला- काहे को तू किसी को फँसाता है भाई, मैं कह रहा हूँ, मुझे चक्कर आया था, तू कहता है, गुण्डों ने गला मसका था। क्यों भोला?

भोला चुप।

पटवारी ने काँखती आवाज़ में आगे कहा - क्यों काकी, तुम क्या कहती हो?

काकी आँखें चमकाती, चेहरे पर आई मुस्कुराहट छिपाती बोलीं - तुझे भला कौन मार सकता है। बो लड़के तो तेरे सुआगत में बढ़े थे... सहसा भीड़ से चीख़ती आवाज़ में बोलीं- चलो, चलो यहाँ से! तमाशा न लगाओ, आदमी को साँस तो लेने दो। चढ़ आए छाती पे।

-सबको बेवकूफ बना दो मुझे कतई नहीं बना सकता- बाबू यकायक आग-बबूला होता बोला।

पटवारी ने निःशक्त भाव से हाथ उठाया जैसे कह रहा हो कि मूर्ख, इतना समझाया फिर भी बात समझ में नहीं आई। काहे को बाबू बना है तू! घास बेच। उल्लू कहीं का!

बाबू चीखता ही रहा, पटवारी की बात उसकी समझ में नहीं आ पाई थी।

यकायक पटवारी ज़ोरों से चीख़ा-चुप रहता है कि नहीं, हरामखोर! -कहकर उसने अपना सिर खाट के पावे पर दे मारा-ले चिल्ला! और चिल्ला!! जान ले ले मेरी!!!

खाट के पावे पर मार जबरदस्त थी कि पटवारी ख़ूनाख़ून हो गया। माथे से बेतरह ख़ून बह उठा।

दृश्य बदल गया था और अब जो दृश्य था, अजीबो-ग़रीब था।

भोला, श्यामल के बाबू और बच्चू ने दौड़कर पटवारी को सम्हाला। चोटखाई जगह पर हथेली जमा दी ताकि ख़ून न बह पाए।

थाड़ी देर में चोटखाई जगह पर फिटकरी पीसकर भरी गई। अब ख़ून रुक गया। सिर पर पट्टी बाँध दी गई थी और पटवारी को खाट पर थोड़ा आराम करने को कहा गया।

पटवारी आराम करने लगा। चेहरे पर मुस्कान थी जो दीख नहीं रही थी मगर उसके पूरे शरीर को रौशन कर रही थी।

बाबू ग़ुस्से और डर से काँपता भाग खड़ा हुआ।

***

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(क्रमशः अगले अंक में जारी...)

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रचनाकार: हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार (6)
हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार (6)
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