हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार (5)

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पिछले अंक 4 से जारी.. रा त में कुम्हार को भूख नहीं थी। पत्नी के बार-बार कहने पर उसने एक रोटी खाई और ढेरों पानी चढ़ा लिया। इस पर पत्नी नारा...

पिछले अंक 4 से जारी..

रात में कुम्हार को भूख नहीं थी। पत्नी के बार-बार कहने पर उसने एक रोटी खाई और ढेरों पानी चढ़ा लिया। इस पर पत्नी नाराज़ हुई। उसने पत्नी की नाराज़गी पर ज़रा भी ध्यान न दिया। सीधे खाट पर पड़ गया। लेटते ही उसकी आँख लग गई लेकिन थोड़ी ही देर में वह जाग गया। उसे अजीब-सी बेचैनी हो रही थी। मन में बार-बार यह ख़्याल आ रहा था कि कहीं उसकी ज़मीन हाथ से जाने वाली तो नहीं। उसे लग रहा था कि हो न हो बड़े साहब की निगाह उसकी ज़मीन पर है तभी वह दौरे पर आए थे, उसके झोपड़े, ख़ाली पड़ी ज़मीन और नीम के विशाल पेड़ को लालच भरी निगाह से देख रहे थे। उन्होंने तभी पटवारी को तलब किया था जो दौड़ा हुआ उनके सामने जा खड़ा हुआ था। ज़रूर बड़े साहब ने पटवारी को हुक्म दिया कि यह ज़मीन मौक़े की है, इस पर कब्जा जमाओ... पटवारी उस वक़्त हाथ जोड़ के हुक्म की तामीली के लिए उनके सामने झुक गया था जैसे कह रहा हो कि हुजूर, यह काम हो जाएगा, आप निशाख़ातिर रहें। हे भगवान! क्या अनर्थ होने वाला है। घरवाली भी उसे सचेत कर रही थी। वह तो साफ़ कह रही थी कि यह पटवारी गड़बड़ आदमी है, कुछ न कुछ अंधेर ज़रूर करेगा।

कुम्हार उठकर बैठ गया। तकिया के नीचे से उसने बीड़ी का बंडल निकाला। बीड़ी जलाने को हुआ कि अंधेरे में बीड़ी की चिनगी नज़र आई। लग रहा था कोई उसके पास आ रहा है। श्यामल के बाबू थे, खाना खाकर उसके पास यूँ ही दो पल के लिए बैठने आए थे। हाथ में उसके जलती बीड़ी थी। खाट पर बैठते ही उसने पूछा- और भोला, कैसे हो? अब तो तुम चंगे हो गए।

-हाँ भाई, जो कष्ट लिखा है, वह तो भोगना ही पड़ेगा। यकायक वह खोखली हँसी हँसा - अब बिलकुल ठीक हूँ। भगवान चाहेगा तो अब नया हीला और भी रफ़्तार पकड़ लेगा।

-बिल्कुल! आज कुछ भी करो, माटी बेचो, पैसे कहीं नहीं गए। आदमी में बस हुनर हो, वह भूखा नहीं मरेगा- श्यामल का बाबू बोला- पेट भर को मिल ही जाएगा यार, और ये तुमने समय रहते कर लिया, अच्छी बात है। आगे इसी काम को गोपी भी अच्छे से सम्हाल सकता है।

-अरे, गोपी की क्या? अभी तो उसके खेलने के दिन हैं; सज्ञान होते कौन-सी लाइन हाथ लगे, क्या भरोसा। देख नहीं रहे हो नई-नई चीज़ें आ रही हैं, नये नये धंधे। कभी सोचा नहीं, कभी देखा नहीं।

-ऐसई है भाई- श्यामल का बाबू थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला- फैक्टरी का क्या मामला है? तरह-तरह की बातें सुन रहा हूँ। कोई कह रहा है कि बस्ती के बीचोबीच में कहीं लगने वाली है, कोई कहता है तुम्हारे झोपड़े के सामने। आज पटवारी मुझे मिला संझा को, मैंने उससे पूछा तो वह भी कहने लगा कि फैक्टरी लगेगी। मैंने पूछा कहाँ तो बोला चिंता क्यों करते हो। सुना है, तुम्हारी ख़ैर-ख़बर लेने घर आया था?

कुम्हार बोला- हाँ, आया था। मुझसे भी यही कहने लगा कि मेरे रहते चिंता न करो, मुझ पर भरोसा रखो, मैं सब देख लूँगा।

-तुम किसी से या पटवारी से चर्चा न करना - श्यामल का बाबू बोला- पटवारी तो मेरे कान में कह रहा था कि बड़े साहब को तुम्हारा झोपड़ा और नीम का पेड़ और खाली पड़ी ज़मीन जँच गई है, हो न हो वहीं फैक्टरी डले।

कुम्हार के प्राण नहों में समा गए।

-तुम चिंता मत करो- श्यामल का बाबू बोला- कोई मज़ाक-खेल है क्या? हम लोग मर गए हैं क्या? कोई यहाँ घुसे तो सई। लहास गिरा देंगे.. वह ग़ुस्से में भर उठा था।

यकायक श्यामल की आवाज़ आई। शायद उसकी माँ उसे बुला रही थी। जय राम कहकर श्यामल का बाबू उठा और अँधेरे में खो गया।

कुम्हार के दिल की धड़कन बढ़ गई थी। थोड़ी देर बाद जब वह मटके से पानी निकालकर पी रहा था, उसके दिमाग़ में आया कि उसे घबराना नहीं चाहिए जब तक कोई बात साफ़ नहीं हो जाती। अभी एकदम से भड़भड़ाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं। पटवारी ज़रूर गड़बड़ आदमी है लेकिन जब वह कुछ कह रहा है तो उस पर यक़ीन करना चाहिए। हो सकता है, वह कुछ मदद करे। अक्सर देखा गया है, नीचे के लोग मदद कर देते हैं। हो सकता है कुछ करे, नहीं भला क्यों कहता। वह तो हमारी ख़ैर-ख़बर के लिए झोपड़े पर आया, आज भला कौन किसे पूछता है- ऐसे में बिना सबूत के उस पर शक करना ठीक नहीं। जब वह कह रहा है कि हम कोई न कोई रास्ता निकाल देंगे तो उस पर भरोसा करने में क्या जाता है। पत्नी लाख मना करे, मैं तो अभी उस पर भरोसा करूँगा चाहे जो हो जाए। उड़ी-उड़ी बातों पर क्यों कान दें...इन बातों को सोचता वह काफ़ी देर तक नीम के नीचे टहलता रहा। जब दूर के पेड़ों पर पंछियों के पंख फड़फड़ाने की आवाज़ आई और पीछे के ठूँठ पर बैठने वाले उल्लू के बोलने की आवाज़, वह खाट पर लेट चुका था।

थोड़ी देर बाद वह गहरी नींद के हवाले था।

***

सबेरे जब कुम्हार की नींद टूटी, अवध सामने खड़ा मिला। वह बहन को लेने आया था। माँ सख़्त बीमार थी और उसके नाम की रट लगाए थी। इस ख़बर से कुम्हारिन के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। आँगन में बैठी वह घुटी आवाज़ में मुँह में आँचल ठूँसे रो रही थी। माँ के लिए वह रो रही थी, इसी के साथ कुम्हार को अकेला छोड़ने का दुःख भी उसे साल रहा था। वह बीमार था, अभी-अभी तो ठीक हुआ- उसे छोड़ के कैसे जाए? सोच-सोचकर बेहाल हुई जा रही थी वह।

कुम्हार ने अवध से पूछा - क्या हुआ जिया को?

सास को वह जिया कहता था। हालाँकि सभी उसे जिया कहके पुकारते थे।

अवध ने कहा - पहले सर्दी हुई, फिर तेज़ बुखार और पेट में दर्द। उस पर दस्त। अब ये हाल है कि उठ-बैठ नहीं पा रही हैं, कह रही हैं, समय आ गया है, परबतिया को बुलाओ। न कुछ खा रही हैं न पी। बस एक रट परबतिया! परबतिया!!!

परबतिया अपना सामान बाँध रही थी और बीच-बीच में कुम्हार से कहे जा रही थी- ठीक से रहना। रोटी बना लेना। मन तो हो रहा है कि गोपी को छोड़ जाऊँ लेकिन बो जाने की ज़िद किए है कि नानी के घर जाएँगे... एक पल यहाँ नहीं रुकेगा, नहीं छोड़ जाती।

अवध ने कहा- जीजा, तुम भी चलो न! हम ऑटो बुला लाते हैं, वैसे भी तुम कभी निकल नहीं पाते हो!

-बहन को ले जाओ, समय मिला तो मैं पीछे से आ जाऊँगा।

परबतिया ने कहा - रहन दो तुम, कोई झूठ तुमसे बुलवा ले।

-चलो न जीजा! अवध ने इसरार किया।

भोला ने कहा - सच्ची कहता हूँ, तुम चलो, मैं जरूर आऊँगा। जिया को देखने का मेरा भी मन है।

परबतिया का जाने का ज़रा भी मन न था। रह-रह वह अँसुआ पड़ती। रुँधे कण्ठ के बीच उसने खाना बनाया, सबको खिलाया। जब जाने को हुई, उसे ज़ोरों की रुलाई छूटी। आवाज़ तो नहीं निकल पाई क्योंकि उसने मुँह में आँचल ठूँस लिया था। हाँ, आँसुओं को वह रोक न सकी जो उसके चेहरे को भिंगो रहे थे।

अवध झोला लिए आगे-आगे चलने को हुआ, पीछे गोपी की उँगली पकड़े कुम्हारिन थी।

ठीक इसी वक़्त मैना ने दर्दीला स्वर छेड़ दिया। कुम्हारिन ने मैना को देखा जैसे कह रही हो कि ध्यान रखना कुम्हार का। मैं जल्द लौटूँगी।

हाथ हिलाते हुए कुम्हार रुँधे कण्ठ से दीवार की आड़ में आ गया। पता नहीं क्यों इस वक़्त पत्नी को जाता देख वह सिसकियाँ दे रो पड़ा।

***

मण्डी के ठेले में जोतने के लिए बड़े मियां को चटकारा देता जब अवध बढ़ा, उस वक़्त इंतहा ख़ुश था। इसलिए कि अब वह बड़े मियां को लाइन पे ला देगा। बहुत बदमाशी, हरमपन जोता था, अब उसका हिसाब निपटाना है। देखता हूँ कौन बचाने आएगा अब! जीजा की मज़बूरी है और बहन बोलने से रही- ऐसे में मैं ख़ुदमुख़्तार हूँ। ऐसा बाँस बजाऊँगा कि शरीर की सारी चूलें ढीली हो जाएँगी। फिर करते रहना सीपो, सीपो। देखते हैं कितना सिपियाते हो। हरमपन न घुसेड़ दी तो अवध नाम नहीं। साला, नीच! कमीन! बिनती करी कि यार, बिरादर, किसी तरह काम निकाल दो। भाई रस्ते में खैंच के पड़ गया है। अगर वह खैंचे न होता तो कोई बात ही न थी। काम सुभीते से हो जाता। मैं सहारे के लिए था ही, ऐसे में भाई सुनने को तैयार ही नहीं। सच्चाई के लिए रोने लगे, भोला को धोखा दिया, उसे बताया नहीं साफ़-साफ़। एक नेक आदमी से बात छुपाई और उसे निकाल लाए। लो, अब निकाल नहीं लाया, सामने बात करके, सीधी-सीधी। अब सच्चाई झाड़ो। ईमानदारी का रँड़ापा रोओ। कौन सुनेगा? कौन है तुम्हारा जो बीच में आएगा। आए तो सई। समझा दूँगा उसे भी अच्छे से कि बीच में आने का मतलब क्या होता है। अवध से उलझने का मतलब क्या होता है- समझ में आ जाएगा जब लट्ठ चलेगा। साला हरामी... वह बड़बड़ा रहा है- बड़े मियां नाम रक्खा है, सारा बड़प्पन निकाल दूँगा इस बार। करो हरमपन, देखता हूँ कितना करते हो। टाँग के रख दूँगा, सारी हेकड़ी निकल जाएगी...

कुम्हार की पीछे से आवाज़ आई- सँभालकर रखना हमारे बड़े मियां को...

बिना पीछे देखे अवध ने जवाब दिया- चिंता न करो जीजा, ख़ूब आराम से रखूँगा। ऐसा आराम ज़िन्दगी में न मिला होगा। और अब आराम ही आराम है। कोई झंझट नहीं। मण्डी के मज़े लो और करो सीपो-सीपो! सुबह से शाम तक मज़े ही मज़े। एक चक्कर, दो चक्कर, तीन चक्कर, चार चक्कर, पाँच चक्कर। इस मण्डी से उस मण्डी, उस मण्डी से उस मण्डी। बढ़ते जाओ, चलते जाओ, गाड़ी खैंचते जाओ। दुनिया के मज़े लो ख़ूब, क्या रक्खा है ज़िन्दगानी में। खोने को क्या है अपने पास, पाने को ज़हान है...

बड़े मियां तेज़ गति से चल रहे थे, उन्हें हँकाने की ज़रूरत नहीं पड़ रही थी, उल्टे अवध को दौड़ना पड़ रहा था।

-यार, तू तो दौड़ रहा है, मुझे थका डालेगा, धीरे तो चल- अवध हाँफता बोला।

अवध जब बड़े मियां को लेकर निकला था तो उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था, गुस्से में तड़प रहा था, लेकिन पता नहीं अब यकायक उसे क्या हुआ कि वह सोचने लगा कि जानवर को सताने का कोई मतलब नहीं। जो हुआ सो हुआ, भूल जाओ। बड़े मियां से प्यार भरे अंदाज़ में बोला - देखो बड़े मियां, तुम्हें हम साफ़ समझा देना चाहते हैं। तू तो जानता है कि मैं अब ठेला खैंचने लगा हूँ। इस मण्डी से उस मण्डी। पहले वाला काम, खेती का, मैंने छोड़ दिया और ये बात मैंने अभी तक किसी से बताई नहीं, जीजा से भी नहीं, इसलिए भी नहीं बतलाई कि पहले काम तो जमे फिर बताएँ सबको! यहाँ काम जमा नहीं और हल्ला मच गया। इसलिए मैंने खेती से हाथ जोड़ लिए - साली में कुछ है भी नहीं, बरखा भी नहीं हो रही है, कुंओं में पानी नहीं है तो खेती भला क्या होगी? ख़ाक़! ऐसे में मैंने चुपचाप ये धंधा पकड़ लिया है। पिछली दफा तुम्हें जब लाए थे झूठ बोल के तब शुरुआत की थी और तब तुमने ऐसी की तैसी कर दी थी, नहीं तुम्हें मौज़ कराता। मण्डी में खाने की कोई कमी तो है नहीं, सब्ज़ी ही सब्ज़ी, और बो भी तरह-तरह की। ढेर लगा है, तुम मज़े से भर पेट खाते; लेकिन उस रात तो मेरी जान पर बन गई थी। वह हमारा साथी, करण था न, काम से पहले देसी जम के खैंच गया। अब खैंच तो ली लेकिन बेटा अपने को सँभाल नहीं पाए, फिर वह देसी भी पता नहीं कैसी थी कि उसने उसकी हालत बिगाड़ दी; चढ़ गई। ऐसी चढ़ी कि न पूछो। वह मण्डी में ही डल गया। कित्ती कोशिश की, उठा ही नहीं। फिर तुमने भी रंग में भंग कर दिया। दुलत्ती और चला बैठे- अवध दाढ़ दिखाने लगा - देखो, अभी भी दर्द बना है, तुमने ऐसी दुलत्ती भाँजी कि मैं चारों खाने चित। घण्टों होश नहीं। ठेले खड़े थे बेसहारा। हे भगवान! क्या करता उनका। फिर अकेले भगवान का नाम लेकर खैंचना शुरू किया। पूरी रात ठेले खैंचे तब जाकर काम पूरा हुआ - और पसीना इत्ता कि हर बार बनियान कपड़े गारने पड़ते... ख़ैर, अब तू गड़बड़ नहीं करेगा, समझ ले... रुक, पहले बीड़ी, खैनी का जुगाड़ तो कर लूँ....

अवध पान के ठेले के सामने रुक गया। उसी के बग़ल लाला की चाय की दुकान थी जहाँ इस वक़्त ताज़ा समोसे बनने की गंध उठ रही थी।

अवध बोला - बड़े मियां, समोसा खाना है तो बोल दे। गरम-गरम मामला है, ऊपर से धनिया की चटनी, ऐ रामू, एक गुटखा और जर्दा तो रगड़ बढ़िया, ख़ुशबूदार।

लाला बोले - अरे, ये बड़े मियां को तुम कहाँ ले जा रहे हो, यह तो भोला कुम्हार का साथी है।

अवध बोला - बड़े मियां ने हीला बदल दिया है। वक़्त के हिसाब से जीना चाहता है जिसमें मौज़-मस्ती भी कुछ करने को मिले, बहुत हो चुके मटके, कुल्हड़, सकोरे, परई!!!

लाला ने अवध से छिपाकर बड़े मियां को चार समोसे दिये जो कल रात के बचे थे। अंदर का माल ख़राब हो गया था।

बड़े मियां कुछ नहीं बोले। चुपचाप खा गए। जानवरों के साथ सब ऐसा ही बर्ताव करते हैं। किसी में ज़रा भी हमदर्दी नहीं।

-कैसे लगे बड़े मियां - अवध ने पूछा - अच्छे थे न? ख़ूब गर्म?

बड़े मियां ने कोई जवाब न दिया।

-एक और चलेगा? अवध ने पूछा

बड़े मियां कोई जवाब देते इससे पहले ही लाला ने एक काफ़ी गर्म समोसा बड़े मियां को दिया जिसे वे बहुत ही मुश्किल से किसी तरह हलक के नीचे उतार पाये। रास्ते में जहाँ खटखटे के घोड़े-खच्चर और गधे पानी सोखते हैं, अवध ने बड़े मियां को ढील दिया। खैनी-तम्बाखू का मज़ा लेने को भी कहा जिसे बड़े मियां ने हँसकर मना कर दिया।

अवध के व्यवहार पर बड़े मियां आश्चर्यचकित थे। ये वही अवध है कि कोई और अवध। यह तो बहुत ही अच्छा आदमी है। कितनी सेवा कर रहा है, कितना ध्यान रख रहा है। प्यार से काम समझाता है, ज़रा भी नाराज़ नहीं होता। ऐसे चलो, किनारे चलो, फासला बना के। रुक-रुककर सुस्ता के चलो, कोई जल्दी नहीं, कोई आफ़त नहीं फटी पड़ी है। ठेले मुकाम पर पहुँच जाएँ सही सलामत - यही अपना काम है। ठेले वाले कर्रे पैसे देते हैं तो उनका भी काम अच्छे से होना चाहिए, क्या?

हफ़्ते-दस दिन में बड़े मियां ने अवध का दिल जीत लिया। सलीक़े और लगन से ऐसा काम किया कि अवध उसे इंतहा प्यार करने लगा।

थोड़े ही दिन में बड़े मियां शहर के चप्पे-चप्पे से परिचित हो गए। किस मण्डी में, किस रास्ते से कैसे माल लेकर निकलना है- अच्छे से जान गए थे। कहाँ ढाल है, कहाँ चढ़ाव, कहाँ गहरा जानलेवा गड्ढा, कहाँ रास्ता सँकरा, कहाँ चौड़ा - सब उनके दिमाग़ में बसा था। आँख मूँदकर बता देते।

शाम को दो-तीन बजे से सब्ज़ी बाज़ार लगना शुरू हो जाता। शुरू में तो लोग इक्का-दुक्का दिखते लेकिन गैस बत्ती के जलते ही ऐसी गदर मचती कि न पूछो। ठेलमठेल। चीख़-गुहार। सब्जी वालों की ऐसी गुहार कि कान के पर्दे फट जाएँ। बड़े मियां सोचते, ऐसी गुहार की क्या ज़रूरत? लोग अपने आप आ रहे हैं, सामान ख़रीद रहे हैं, फिर भी गुहार! यह गुहार लगातार तेज़ होती जाती। जैसे-जैसे रात घनी होती जाती गुहार और भीड़ ढलान पर होती जाती। धीरे-धीरे भीड़ छँटने लग जाती। सब्जी बेचनेवाले ही रह जाते। गैस-बत्तियाँ बुझाई जाने लगतीं। और फिर सामान बँधने लग जाते। ठेलों को एक लाइन में बाँधना शुरू हो जाता। फिर शुरू होता इन्हें दूसरी मण्डी में ले जाने का सिलसिला।

बड़े मियां अपने काम को बहुत ही अच्छे से अंजाम दे रहे थे कि अगले माह ही ऐसा कुछ घट गया जिसने सब कुछ उलट-पलट डाला।

हुआ यह कि बड़े मियां ठेलों की आख़िरी खेप लेकर धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। वे सबसे आगे थे और एक-दूसरे से बँधे दस ठेले उनके पीछे। यकायक उनके आगे दो साइकिल सवार जो बेतरह शराब पिए हुए थे, नशे में डाँवाडोल, उलझकर सड़क पर आ गिरे। शराबियों के गिरते ही सामने से तेज़ गति से आ रहा एक डम्फर, उनको कुचलने से बचाने के चक्कर में यकायक संतुलन खो बैठा। शराबी तो बच गए, रहे ठेले उसकी चपेट में आ गए। दस के दसों ठेले पहचान में नहीं आ रहे थे, दुच गए थे। उनमें लदा सामान चारों तरफ़ बिखर कर मिट्टी में मिल गया था। क़िस्मत अच्छी थी कि बड़े मियां को गिरने के बाद भी तनिक भी चोट न लगी और वे भौंचक खड़े थे। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। कैसे अवध को बुलाया जाए।

संयोग था कि अवध वहाँ आ पहुँचा। दुचे ठेले और सामान का सत्यानास देखकर उसका दिमाग़ घूम गया - बड़े मियां ने ज़रूर कोई हरमपन की तभी यह हादसा हुआ, अब ठेलेवाले उसे ज़िन्दा नहीं छोड़ेंगे? कहाँ से भरेगा वह पैसा! हे भगवान! उसकी आँखों में ख़ून उतर आया - उसने लट्ठ उठाया और अनगिनत लट्ठ बड़े मियां पर बरसने लगे। पाँवों पर लट्ठ, पीठ पर लट्ठ, सिर पर लट्ठ, पोंद पर लट्ठ। हे भगवान! ये ज़ालिम तो मार डालेगा। बड़े मियां गिर गए फिर भी लट्ठों की बरसात होती ही रही।

इस बीच, पता नहीं कैसे और क्या हुआ कि अवध का पाँव चीथड़े में उलझ गया और वह ज़मीन पर लोट गया।

बड़े मियां को जान बचाकर भागने का मौक़ा मिल गया। वे भागे, सिर पर पाँव रखे। बेतरह चिल्लाते।

***

पत्नी मैके क्या गई, कुम्हार को घर काटने-सा दौड़ता महसूस होता। लगता वह वीराने में रह रहा है जहाँ परिन्दे तक जाना पसंद नहीं करते। पत्नी जा रही थी तो मैना दर्दीला गीत गा रही थी। उसके जाते ही ऐसी चुप हुई जैसे कण्ठ अवरुद्ध हो गया। या वह बोलना भूल गई हो। कुम्हार ने कई बार आवाज़ देकर उसे बुलाया, दाने का आमंत्रण दिया, वह बंदी उतरी तो उतरी नहीं। लगता था जैसे उसे भी कुम्हारिन का जाना अखर गया हो। पेड़ में छिपी बैठी वह कभी ज़ोरों से पंख फड़फड़ा उठती जिससे उसके होने का एहसास तो होता, लेकिन वीरानगी और बढ़ गई-सी लगती।

रात को कुम्हार को भूख ही नहीं लगी, इसलिए पानी पीकर खाट पर लेट गया। अँधेरी रात थी, हाथ को हाथ न सूझने वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। पल भर को कुम्हार की आँख लगी कि एकदम से चौंककर उठ बैठा। लगा पत्नी है जो बड़े मियां को पानी देने गई है। बाल्टी से वह उसके बड़े मुँह के मटके में पानी कुरो रही है। वह उठा और धीरे-धीरे चलता सार की तरफ़ गया। सार में घना अँधेरा था। बड़े मियां को तो अवध ले गया था, वो तो यहाँ थे नहीं, फिर पत्नी भी तो नहीं है- वो कैसे यहाँ आ गई।

गहरी साँस छोड़ता कुम्हार खाट पर वापस आ गया। पता नहीं क्यों खाट पर बैठते ही उसे लगा, पत्नी जाँत चला रही है, साथ में लोकगीत की कोई दर्दीली पंक्ति जाँत की चाल से मिलाकर गा उठी है। रह-रह चूड़ियाँ भी खनक रही हैं। वह खाट से उठा, झोपड़े में गया - कोई न था!

हे भगवान! क्या हो गया है उसे! उसने श्यामल के घर की टोह ली। यह आवाज़ और किसी की नहीं, कुम्हारिन की थी - उसकी पत्नी की। उसने उसका नाम मन में उच्चारित किया - परबतिया! परबतिया!!

खाट पर सीधा लेटकर वह सोचने लगा कि पत्नी कब मायके गई थी। उसे कुछ याद नहीं। शायद गोपी छे माह का था तभी एक माह के लिए गई थी। उसके बाद घर वह एक पल को नहीं छोड़ पाई थी। घर गृहस्थी में ऐसी फँसी कि सीवान-खेत से आगे न बढ़ पाई। यही उसकी चौहद्दी थी जिसमें वह कोल्हू के बैल की तरह घूमती रही।

-सोते क्यों नहीं? क्या सोच रहे हो? - जैसे ही उसकी आँख लगी, कानों में ये शब्द बजे। उसने आँखें खोलीं, देखा तो कोई नहीं। वह सोच में पड़ गया- पत्नी की आवाज़ थी, कानों में गूँजी थी। कहाँ से आई? कैसे आई? समझ में नहीं आता। ज़रूर कुछ है जो समझ से परे है! मैके में वह उसे बेक़रारी से याद कर रही है, तभी वह याद यहाँ मुझे बेक़रारी में डाले है।

यकायक वह उठ बैठा। सोचा, क्यों न सास के बहाने वह पत्नी से मिल आए। सास की ख़ैर-ख़बर मिल जाएगी इसी बहाने पत्नी से भेंट भी हो जाएगी। मन भी जुड़ा जाएगा। फिर सोचा, कहीं बुरा न मानें पत्नी तो? मानने दो बुरा। पत्नी से ही तो मिलने गया था, किसी और से तो नहीं। इसमें हरज क्या है? फिर अवध ने भी तो आने के लिए इसरार किया था, कई बार बोला था- यह तर्क देकर वह लेटा और विचार बना लिया कि कल सुबह वह घर से निकलेगा और सीधे ससुराल के लिए चल देगा। वैसे ससुराल है भी कितनी दूर। कुल मिलाकर दस किलोमीटर। पाँचों पीरन के पास!

अलसुबह जब झीना उजास फैल रहा था, कुम्हार को नींद लग गई। नींद में उसने देखा, बड़े मियां भयंकर चीत्कार के साथ सरपट, सिर पर पैर रखे उसकी तरफ़ दौड़े चले आ रहे हैं और उनके पीछे अवध है जिसके हाथ में है बड़ा-सा लट्ठ, तेल पिया। अवध बेतरह ग़ुस्से में है, अलफ़, बेहिसाब गालियाँ बकता। वह बड़े मियां को रुकने के लिए चिल्ला रहा है ताकि वह उसका मार-मार कर कचूमर निकाल दे। बड़े मियां हैं कि रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। सार में पनाह के लिए वे भागे। अवध सार में पहुँच गया। बड़े मियां वहाँ से किसी तरह निकले और कुम्हार के झोपड़े में घुस गए और खाट पर लेटे कुम्हार के ऊपर चढ़ बैठे बेतरह गुहार लगाते कि बचाओ! बचाओ!! जल्लाद से बचाओ!!!

भयंकर चीख़ के साथ कुम्हार उठ बैठा, आँखें खोलकर देखा तो सामने सचमुच में बड़े मियां खड़े थे। बड़े मियां के अंजर-पंजर ढीले थे। शरीर ख़ूना-ख़ून था। पैर, सिर, पीठ, गरदन, शरीर का कोई भी हिस्सा ऐसा न था जो चोटखाया न हो, ख़ून से छिबा न हो।

कुम्हार को यह समझते देर न लगी कि किसने इसके साथ दुराचार किया। उसकी आँखों में ख़ून उतर आया, बावजूद इसके उसने ज़ब्त किया। बड़े मियां के घावों को गर्म पानी से धोया, उस पर फिटकिरी फेरी और मरहम का लेप लगाया।

बड़े मियां को दाना-पानी देकर कुम्हार घण्टों उसके बदन को सहलाता रहा।

दूसरे दिन दोपहर होने से पहले कुम्हार बड़े मियां के साथ अपनी ससुराल के दरवाज़े पर था। बड़े मियां ने सी-पो की मीठी गुहार से साँकल खोलने का निवेदन किया।

कुम्हारिन ने साँकल खोली, दोनों को सामने खड़ा देखा तो शर्म से सिर पीट लिया- हाय दैया! फिर कुम्हार से कहा- इतनी बेसब्री की क्या ज़रूरत थी। भगे चले आए। एकाध दिन तो रुक जाते। साथ में बड़े मियां को भी ले आए! मैना की कसर रह गई थी बस...

***

कुम्हार जब ससुराल पहुँचा था तो दरवाज़े की संध से उसने पत्नी को देख लिया था जो आँगन में पटे पर बैठी हसिया से तरकारी काट रही थी। सामने उसकी माँ नाव जैसी खाट पर लेटी थी। माँ पाँव में चाँदी के लच्छे पहने थी जो धूप में चमक रहे थे।- ये तो भली-चंगी है, बीमार बिल्कुल नहीं। जरूर परबतिया को बुलाने का नाटक रचा गया। वैसे तो किसी तरह निकल न पाती।

उसका मन हुआ कि साँकल खड़काए लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया, पीछे हट गया। बड़े मियां से फुसफुसाकर बोला- यार, तुम आवाज़ लगाओ न।

-न बाबा, हमसे न होगा- बड़े मियां घबराकर बोले।

-क्यों नहीं होगा?

-मुझे डर लग रहा है। भौजाई उल्टा-सीधा न सोचें।

-तो बेवकूफ ये बात तूने पहले क्यों नहीं बताई।

-तुमने पूछा कब था? मैं तो तुम्हारी ख़ातिर दौड़ा चला आया।

-तो मेरे ख़ातिर ही अब आवाज़ लगा दो।

-न बाबा!!!

-तो तू लौट जा यहाँ से - कुम्हार ने जब यह कहा तो बड़े मियां आँखें चमका के बोले- यह तुम्हारी नहीं, मेरी भी ससुराल है।

-बो कैसे?

-तुम्हारी ससुराल है तो इस नाते मेरी भी ससुराल हुई।

-तो तू ससुराल में रसगुल्ले खा, मैं निकलता हूँ- जब कुम्हार ने ऐसा कहा और बढ़ने को हुआ तो बड़े मियां ने हारकर गुहार लगा दी।

एक हफ़्ते बाद जब कुम्हारिन घर आई, कुम्हार ने उसे ये बातें बताईं।

कुम्हारिन बोली- तुम भी गजब हो- वह हँसने लगी।

कुम्हार भी हँसा।

कुम्हारिन बोली- चले गए तो अच्छा ही हुआ, माँ से, सबसे भेंट हो गई। वैसे जिया को कोई ख़ास दिक़्क़त नहीं थी। दस्त हुए और वह लस्त पड़ गई। लगी छाती पीटने कि बुलाओ सबको। बिचारा अवध काम छोड़कर भागा आया। समय से जिया को दवा मिल गई, एक खुराक में बच गई... लेकिन तुम्हारे बिना एक पल वहाँ रहना मुश्किल था। मैं तो उस रात जागती रही, करवटें बदलती रही। बस तू ही तू आँखों के आगे था।

कुम्हार ने मुस्कुराकर कहा - मैं तो तान के सोया और देर से उठा।

कुम्हारिन बोली- हो ही नहीं सकता! अगर ऐसा होता तो भागे आते भाई बंद को लिए!

-मैं तो जिया की ख़ातिर गया था।

-झूठा कहीं का! तू ऐसई बोलता है, कसम खा।

-किसकी? लंगड़ी की।

-हाँ, तेरे लिए तो वही सबसे प्यारी है।

-हाँ, मैं लंगड़ी की कसम खाके कहता हूँ कि उस रात मैं सो नहीं पाया। पूरी रात तेरी याद में कट गई...

-अब तू जान और तेरी लंगड़ी जाने!

हल्की ठण्ड थी, धूप अच्छी लग रही थी। कुम्हारिन बोली- यहाँ तो कम है, माँ के यहाँ जादा ठण्ड थी। तुम जब आए थे जिया धूप में पड़ी थीं। उसके पाँव के चाँदी के लच्छे कैसे चमक रहे थे काँच से....

-बुढ़ापे में भी जिया गहने लादे रहती हैं।

-क्यों न लादें, भगवान ने दिया है तो लादे हैं। उस पर भी नज़र लगी है कि माँ किसे देती है। अवध को या दया को। क्या करना है अपने को! सब अच्छे से रहें- भैया जियें कुशल से काम।

जीजी! - गौरी की आवाज़ थी।

श्यामल के बाबू ने शहर में झुग्गी बना ली थी। लीला ने जगह दिखलाई और बस मामला जम गया। कई दिनों से यहाँ से जाने का हो रहा था, सामान तो थोड़ा-थोड़ा करके चला गया था, कुछ रह गया है, वह यहीं पड़ा रहेगा, उसकी ऐसी ज़रूरत भी नहीं। आज शाम को गौरी बच्चे श्यामल के साथ यहाँ से चली जाएगी। यह ख़बर देने वह आई थी। वह यह भी कह रही थी कि तुम लोग भी वहीं आ जाओ, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। यहाँ कुछ नहीं धरा है।

गीली आँखें रुँधा कण्ठ लिए जब पत्नी लौटी, कुम्हार सब जानते हुए भी अनजान बना रहा, प्लास्टिक के गिलासों की गिनती करने में उलझा था। पत्नी ने गौरी के यहाँ से जाने की ख़बर दी तब भी वह कुछ नहीं बोला। बोलकर भी क्या करेगा वह?

शाम को गोपी श्यामल के घर से लौटा तो आँखों में आँसू भरे, बेआवाज़ रो रहा था।

माँ ने अनजान बनते हुए पूछा - क्या हो गया बेटा?

गोपी यकायक ज़ोरों से रो पड़ा।

-क्या हो गया है? बोल तो सई।

रोते-रोते वह बोला- श्यामल जा रहा है, हम किसके साथ खेलेंगे। हमें भी भेज दो उसके साथ।

कुम्हार बोला- तो यहाँ बड़े मियां के साथ कौन खेलेगा? मैना को दाना-पानी कौन देगा?

-अम्मा दे देगी।

-अच्छा दादा- तेज़ी से आता श्यामल का बाबू कुम्हार-कुम्हारिन के पाँव छूता बोला- हम लोग निकल रहे हैं, अब तुम्हारा इंतज़ार है। आ जाओ तो मज़े रहेंगे। लीला और गुड्डू का जलवा है, घर बन जाएगा चुटकियों में... अच्छा...

काफ़ी दूर तक दोनों उन्हें ऑटो के पीछे-पीछे चलते छोड़ने आए।

गोपी खाट में मुँह छिपाए रो रहा था।

***

फैक्ट्री लगने वाली बात जंगल में आग की तरह फैली। और शहर के जिस भी कोने में बस्ती के लोग थे, उन तक किसी न किसी के ज़रिए पहुँच ही गई। यह बात सच है कि उनकी ज़मीनों पर आँच नहीं आई थी, इसलिए वे अंदर ही अंदर ख़ुश थे लेकिन यह भी सच है कुम्हार के साथ होने वाले अन्याय से सभी दुखी भी थे और उसे दिलासा दे रहे थे कि जो भी सुना है, ख़राब है, लेकिन हम तुम्हारे साथ हैं, तुम जब भी आवाज़ दोगे, हम हक़ की लड़ाई के लिए आ खड़े होंगे। कुम्हार के लिए यह एक बहुत बड़ी बात थी कि समूची बस्ती के लोग उसके साथ हैं। सभी उसके साथ लड़ने-मरने के लिए तैयार हैं। उसकी छाती फूल कर दुगुनी हो गई थी।

सुनी-सुनाई बातों से जहाँ कुम्हार विचलित था, वहीं यह सोच उसे अंदर ही अंदर ताक़त दे रहा था कि जब तक बात साफ़ होकर सामने नहीं आए घबराना मूर्खता है। पटवारी ने भी यही कहा है कि फैक्ट्री लगने वाली है, लेकिन कहाँ लगेगी- यह बात उसने अभी तक साफ़ नहीं की थी। वह तो यहाँ तक कह रहा है कि मेरे रहते घबराने की ज़रूरत नहीं। मुझ पर भरोसा रक्खो, मैं सब रास्ते पर ला दूँगा। यह बात अलग है कि पटवारी ने अभी तक जो काम किए, ग़लत किए हैं, पत्नी भी इसी बात को रह-रह दुहराती रहती है लेकिन जब तक वह हमारे साथ कुछ ग़लत नहीं कर रहा है, उस पर भरोसा करने से क्या जाता है।

मैना का स्वर आज बदला हुआ है। जैसा सुरीला वह गाती उसके बिल्कुल उलट। उसमें कुछ ऐसा भाव है जैसे कोई घपला होने वाला है, कुम्हार को उससे आगाह कर रही हो। और कुम्हार है कि उसकी बात समझ नहीं पा रहा है। निरीह भाव से वह टुकुर-टुकुर पत्नी की ओर ताक रहा है। कुम्हारिन भी कुछ समझ नहीं पा रही है। यकायक वह बोली- चिड़िया ऐसा तभी बोलती है जब उन्हें साँप या बिल्ली आते दिखाई देते हैं। वे संकट पहचानती हैं।

-चल तू काम कर, जो होगा सो देखा जाएगा। अभी से उसके लिए हलाकान क्यों हों? - कुम्हार ने कुम्हारिन से कहा।

कुम्हारिन चाक के पास रौंधी माटी रख रही थी और कुम्हार चाक पर बैठने से पहले बड़े मियां को देखने गया। उसके घावों पर उसने मरहम का लेप लगाया था। मरहम घाव पर टिकता नहीं था इसलिए कई-कई बार उसे लगाना पड़ता था। और सब घाव पुर गए थे, कूल्हे का घाव बाक़ी था जो उसे भारी पीड़ा दे रहा था, पुरने का नाम नहीं ले रहा था।

कुम्हार के नगीच आती कुम्हारिन बोली- नाकिस ने इतनी बेरहमी से मारा कि जान निकलना रह गया था।

-पूरा मार डालता तो सब्र होता।

कुम्हारिन आँखें तमतमा के बोली- अवध अब दिखे तो बताऊँ उसे। इतना सुनाऊँगी कि यहाँ दुबारा कभी पाँव नहीं रखेगा।

-वह नीच है कमीन! ऐसा दोगला आदमी हमने देखा नहीं। झूठा कहीं का मक्कार। देखो न, मण्डी में काम करने लगा, ख़बर तक न दी जैसे मैं उससे काम की बोलूँगा।

-मर भी जाऊँ तो न बोलूँ - पत्नी ने कहा।

गहरी साँस भरता कुम्हार चाक पर बैठने को हुआ कि उसे पटवारी आता दिखा। पेड़ों की चितकबरी धूप-छाँव में धीरे-धीरे चलता वह सीधे कुम्हार के पास आता जा रहा है।

कुम्हारिन बोली- लो, पटवारी आ गया। मैना इसके लिए तो नहीं किटकिटा रही थी?

कुम्हार कुछ नहीं बोला। उसके स्वागत में झुककर खड़ा हो गया, बोला- हुजूर, बैठें- बाल्टी में हाथ डुबोता मिट्टी साफ़ करता वह बोला- बस एक मिनट हाथ धोके खाट लाया।

वह खाट के लिए झोपड़े में घुसा।

खाट बिछाता वह बोला- बैठें हुजूर।

-अरे यार, मैं तो यूँ ही यहाँ घूम आया, मैं तो तहसील जा रहा था- यकायक नई बुनी खाट को देखता बोला- बड़ी सुन्दर बुनी है। भोला, तू जो काम करता है नायाब करता है। तेरे मटके भी ऐसई कमाल के होते हैं!

वह खाट पर बैठ के बाध पर पंजे पटकता उसकी तारीफ़ के पुल बाँधने लगा कि मैना ज़ोरों से किटकिटाने लगी।

सहसा वह फड़फड़ाते हुए तीर की तरह नीचे उतरी और पटवारी के सिर पर ऐसा झपट्टा मारा मानो उसका मुँह नोच डालना चाहती हो।

पटवारी सकते में आ गया। घबरा गया। लगा बाज है जो उसकी आँखें निकालना चाहता है।

वह हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ और ज़ोरों से चीख़ा- ये बाज़ कहाँ से आ गया! मारो! मारो!! मारो!!!

मैना पलक झपकते नीम में कहीं छिप गई थी। पटवारी हकबकाया हुआ था- क्या करे, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। बाज उस पर क्यों झपट्टा मार रहा है? उसने क्या बिगाड़ा है उसका? वह निरीह भाव से मुस्कुराया और कुम्हार की ओर देखने लगा जैसे उसी से यह प्रश्न कर रहा हो।

कुम्हार जानते हुए भी अनजान बना रहा और यह कहने लगा- बैठें हुजूर, बाज-फाज से क्या डरना, पंछियों की भला किसी से क्या अदावत होगी! वे तो वैसे ही इंसानों से दूर रहना चाहते हैं।

सिर खुजलाता पटवारी जैसे ही खाट पर बैठने को हुआ- मैना फिर उस पर झपट्टा मार बैठी।

अजीब मामला था। पटवारी परेशान। अब वह एक पल भी यहाँ बैठना नहीं चाह रहा था, बोला- फिर आते हैं भोला, ये बाज़ कहीं मेरी आँखें न फोड़ डाले। क्या भरोसा! पता नहीं कौन-सी अदावत का बदला ले रहा है यह दुष्ट? आज का दिन ही ख़राब है, साहब अलग परेशान कर रहे हैं। ख़ैर, भोला,- आँखों पर हाथ धरे, कहीं बाज़ उस पर फिर झपट्टा न मार बैठे-पटवारी जिस रास्ते आया था, उसी पर धीरे-धीरे चलता आगे बढ़ा और सीधे बाबू के घर जा पहुँचा।

बाबू कई दिनों से बीमार था। पटवारी को देखते ही बोला- आओ दादा, आओ! यहाँ तो समूची बस्ती के लोग- सब एक ही बात पूछ रहे हैं कि कहीं उनकी ज़मीन तो नहीं दब रही है! मैं कुछ नहीं बोल रहा हूँ। मुँह सिए बैठा हूँ, जब तुम इशारा करोगे तभी मैं कुछ बोलूँगा। लेकिन दादा मेरी समझ में नहीं आ रहा, तुम मामले को इतना झुला क्यों रहे हो? जब ऊपर से आदेश आ गया है, तो थमा दो उसे-काहे को रोके पड़े हो...

पटवारी ढेर सारा पान मुँह में भरे बाबू को देखता, मुस्कुराता रहा। यकायक पान की पीक को एक तरफ़ थूकता बोला- देखा तुमने! मेरी ज़रा-सी हवा से बस्ती के लोग हरकत में आ गए। हड़कम्प मच गया है। रहा कुम्हार, ऊपर से चाहे वह कितना बन रहा हो, अंदर से टूट चुका है। बस थोड़ा और रुक जाओ, आदेश तो थमाना ही थमाना है...

यहाँ पटवारी और बाबू में ये बातें चल रही थीं, वहीं कुम्हार और कुम्हारिन मैना की कारसाज़ी पर आह्लादित थे। कुम्हारिन ठहाका लगाके बोली- मुझे तो लगा, मैना आँखें नोंच के रहेगी। यह कहो बच गया, नहीं सूरे बना देती। अब वह यहाँ आने वाला नहीं।

-आएगा तो मैना उसकी गत बना देगी। कुम्हार हँस के बोला।

कुम्हार ने सोचा पटवारी अब यहाँ आने से पहले दस बार सोचेगा। लेकिन पटवारी था कि दूसरे दिन सुबह-सुबह कुम्हार के झोपड़े के सामने खड़ा मुस्कुरा रहा था।

कुम्हारिन कुम्हार से बोली - तुम अंदर रहो, मैं देखती हूँ। क्यों बार-बार फेरे लगा रहा है?

कुम्हार बोला - लगाने दो फेरे! चिंता काहे की। तू मत जा बाहर। औरतजात है, अच्छा नहीं लगता। कुछ ऊँच-नीच हो जाएगी।

-ऊँच-नीच की मुझे चिंता नहीं- कुम्हारिन फुसफुसाकर बोली।

-तुझे नहीं है, मुझे तो है।

-क्या ऊँच-नीच होगी बता? कुम्हारिन यकायक ग़ुस्साकर बोली।

-यही कि यह अच्छा आदमी नहीं है, इसके मुँह लगना ठीक नहीं।

-इसके मुँह कौन लग रहा है- इसे तो समझाना है कि कोई भी जुल यहाँ चलने वाला नहीं। दुनिया में हल्ला करने से कुछ नहीं होगा। मान लो अगर पुराना पैसा है तो पर्ची काट दो, हम भर देंगे। काहे को बार-बार भिखारियों की तरह आ खड़े हो रहे हो।

कुम्हार हँस पड़ा। कुम्हारिन भी।

कुम्हारिन आगे बोली- देख रहे हो तुम! फेरे पर फेरे। कोई तरीका है यह?

कुम्हार बोला - अच्छा तू तरीका मत सिखा, अंदर चल।

-मैं अंदर नहीं जाने वाली। इसकी पग्गड़ न उतार दी, नाम परबतिया नहीं।

-तेरे हाथ जोड़ता हूँ।

-पाँव भी जोड़ ले तब भी मैं सुनने वाली नहीं।

कुम्हार पत्नी की कलाई पकड़े अंदर की तरफ़ खींच रहा था, पत्नी थी कि समूची ताक़त लगाकर बाहर की तरफ़ निकल पड़ने के लिए कसमसा रही थी। यकायक उसने दाँत काटने का नाटक कर कलाई छुड़ा ली और बाहर की ओर भागी। बाहर से उसने टटरा भिड़ा दिया।

पटवारी को सामने खड़ा देख, कुम्हारिन इस अंदाज़ में बोली जैसे उसके आने की उसे भनक तक न हो- हुजूर, ये तो घर पे नहीं हैं। अभी-अभी निकले हैं, बड़े मियां का मरहम लेने गए हैं। आप बैठें, खाट लाती हूँ...

-मैं बैठूँगा नहीं, चलूँगा।

-कोई बात हो तो बता दें - मैं उन्हें बतला दूँगी।

-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। बस ऐसई, वह हँसा- पटवारी जब तक अपनी जरीब न घुमा ले उसे चैन कहाँ पड़ता है- चलो तुम कहती हो तो थोड़ा इंतज़ार कर लेते हैं, खाट की चिंता तुम न करो, खड़े रहेंगे, ऐसा क्या?

कुम्हारिन जिस उबाल के दबाव में झोपड़े से निकली थी, पता नहीं क्या हुआ कि वह शांत हो गया। दरवाज़े आए आदमी के साथ अनादर ठीक नहीं जब तक वह कोई गड़बड़ न करे। इस लिहाज़ से टटरा हटाती अंदर आई और खाट लेकर बाहर निकली।

खाट बिछाती वह बोली - बैठें हुजूर, दरवाज़े पर खड़ा रहना अच्छा नहीं लगता।

मुस्कुराता हुआ पटवारी खाट पर बैठ गया। उसने पान की पन्नी निकाली और कई सारे पान मुँह में ठूँस लिये। थोड़ा सा चूना भी उँगली से काटा और चारों तरफ़ नज़र मारने लगा।

इस बीच कुम्हारिन काम के बहाने से झोपड़े के पीछे गई। आँगन से होती हुई बाहर के झोपड़े में आई, कटाक्ष करती कुम्हार से बोली - तुम्हारे जीजा दरवज्ज़े पर बैठे इंतज़ार कर रहे हैं, तुम्हारा। आरती के लिए जाओ।

-तू तो कह रही थी कि पग्गड़ उतार लूँगी, अब क्या हुआ?

कुम्हारिन चुप।

-बोल न, क्या हुआ?

-यह तुम्हारा मामला है, तुम जानो।

-यह हमारा अकेले का मामला है? इसमें तुम नहीं हो?

-मैं क्या जानूँ! - कुम्हारिन तंजिया अंदाज़ में मुस्कुराती बोली।

-ये तो अंधेर है। - कुम्हार गहरी साँस छोड़ता बोला।

-चिंता न कर मेरे माटी के कुम्हार, चिंता न कर! तूने ही कहा है जब तक बात साफ़ न हो, चिंता में गलना अच्छा नहीं।

सहसा बाहर पेड़ पर मैना अजीब-सी आवाज़ में किटकिटाने लगी। पटवारी खाट पर पैर चढ़ाकर बैठ गया था, मैना का यह रूप देखकर उठ खड़ा हुआ - भयभीत सा।

कुम्हार ने चुटकी ली - तू नहीं है तो मैना है मेरे साथ - वह निपट लेगी।

कुम्हारिन ने जब इस पर नाराज़गी जतलाते हुए उसे तिरछी नज़रों से देखा तो वह हँसता आगे बोला- जा तू, अपना काम निपटा। बड़े मियां को खुल्ला छोड़ दे, इधर-उधर चर लेगा। कुछ तो पेट भरेगा उसका।

सार में बड़े मियां पीठ खुजला रहे थे, कुम्हारिन को देखते ही बोले- ये पटवारी जानहार दरवज्ज़े पे काहे खड़ा है जमदूत की तरह। कई दिनों से इसे देख रहा हूँ, चक्कर काटते।

-मुझे नहीं पता, इनसे पूछ तू।

-मुझे तो इसकी आँखों में बदमाशी दीखती है।

-तो तू कुछ कर। कोई खेल दिखला दे, जो होगा देखा जाएगा।

-और जो कुम्हार मेरी कुटम्मस करे तो...

-मैं किस मर्ज़ की दवा हूँ...

कुम्हारिन ने बड़े मियां को खुल्ला छोड़ा तो वह बगटुट दौड़ता झोपड़े के सामने खाट पर बैठे पटवारी को देखता उस तक जा पहुँचा और फिर पता नहीं क्या हुआ कि वह उसके मुँह पर ज़ोरों की सी-पो, सी-पो की गुहार लगाने लगा। मैना भी किटकिटाते हुए पेड़ से उतर पड़ी।

एक तरफ़ बड़े मियां की गुहार थी, दूसरी तरफ़ मैना की किटकिट...

पटवारी ने सोचा - भाग लो यहाँ से, कहीं बाज़ झपट्टा न मार बैठे और उसकी हालत बिगाड़ दे और ये बड़े मियां को तो देखो, मुँह पर रेंक रहा है जैसे कान के पर्दे फाड़ डालेगा। उस पर कहीं दुलत्ती झाड़ दी तो मैं कहीं का न रहूँगा।

यकायक पटवारी यहाँ से भागा और सीवान पर जाकर साँस ली। महुए के पेड़ की छाँह में खड़े होकर वह कुम्हार का इंतज़ार करने लगा। कुम्हार आएगा तो इसी रास्ते। और कोई रास्ता है नहीं। देखते हैं कब तक नहीं आता है।

***

चाक के सामने कुम्हार उदास बैठा है। थोड़ी ही दूरी पर घरवाली है जो कुम्हार की उदासी से आहत है। जबसे कुम्हार बाज़ार से लौटा है- गुमसुम है, उदास है। जैसे कोई नाइंसाफी उसके साथ हो गई है जिसे वह पीड़ा की वजह से होंठों तक ला नहीं पा रहा है। क्योंकि ख़ुद तो वह उससे टूटा है, कहीं घरवाली भी बेज़ार न हो जाए। पत्नी समझ रही है कि ज़रूर पटवारी की कोई न कोई कारस्तानी है जिसके चलते कुम्हार उदास हो गया है।

ढेरों माटी वह छान चुकी थी, इस वजह कि इसी बहाने वह कुम्हार से बात भी कर लेगी, लेकिन कुम्हार है कि अनमना, रह-रह गहरी साँस छोड़ता और ‘हे भगवान’ की कराह छोड़कर ज़मीन ताकने लग जाता।

मैना चाक पर बैठी है। कहने पर भी उसने दाने की तरफ़ नहीं देखा-जैसे कुम्हारिन की तरह वह भी कुम्हार से उदासी का कारण जानना चाहती हो।

-बड़े मियां के कूल्हे का घाव पुर नहीं रहा है।

कुम्हार ने गहरी साँस छोड़ी।

-मक्खियाँ अलग जान खाए जा रही हैं उसकी - कुम्हारिन की यह बात भी कुम्हार की ज़बान खोलने के लिए थी, लेकिन कुम्हार चुप तो चुप।

-गोपी दिन भर श्यामल की रट लगाए रहता है। न खेलता है न कुछ खाता है...

यह बात ज़रूर कुम्हार को हिला डालेगी लेकिन यह भी बेकार गई।

-मैं जाऊँ? - जलती आवाज़ में जब कुम्हारिन ने यह प्रश्न किया तो कुम्हार के बोल फूटे।

-कहाँ जा रही है?

-कुएँ में कूदने।

-कुएँ में कूदने! काहे के लिए?

-कुएँ में कूद रही हूँ और पूछता है काहे के लिए। इत्ता भोला क्यों बन रहा है तू?

कुम्हार ने कनखियों से पत्नी को देखा जो उसका नाम कभी नहीं लेती थी, आज कैसे अनचित्ते में ले बैठी।

पत्नी बात तो समझ रही थी बावजूद इसके अनजान बनी रही।

-भोला बनने की बात नहीं है। भोला तो मैं हूँ।

-कहाँ है भोला? बता तो सई। मैं उसे ढूँढ रही हूँ।

-अब तुझे नहीं दीखता है तो क्या करूँ। चिराग लेकर दिखाता फिरूँ?

-तीन घण्टे से तू होंठ सिए बैठा है, तुझे ज़रा भी रहम नहीं कि मैं कित्ता परेशान हो रही हूँ!

कुम्हार सोच में डूब गया। अब इसका क्या जवाब दे? क्या बताए कि बाज़ार में था तो वह ख़ुश था। उसने दूकानों में माल पहुँचाया था और उसका पैसा भी उसे मिला था। लाला ने उसकी इस बात के लिए तारीफ़ की थी कि थोड़े ही दिनों में उसने बाज़ार की चाल पकड़ ली है और उसका पक्का खिलाड़ी हुआ जा रहा है। लाला की बात से उसकी छाती दुगुनी हो गई थी। उसी वक़्त उसने चौकड्डे पर गन्ने की चरखी जमाने की बात भी सोची थी और उसी की धुन में वह था। रमेसर ने उसे किराए पर चरखी देने का वचन दिया था। बस ठेले की जुगाड़ उसे करनी थी... इसी सोच में डूबा वह बड़े मियां के पीछे-पीछे चला जा रहा था कि महुए के पेड़ के पास ही सब मामला बिगड़ गया...

पटवारी ने उसे घेर लिया था। पटवारी के साथ बाबू भी था जिसने पटवारी से वादा किया था कि वह उसके इशारे पर चलेगा और उसी के स्वर में स्वर मिलायेगा। बाबू अब पूरी तरह चंगा था।

बाबू ने चुटकी लेते हुए कहा - भोला, आज तो तू भारी ख़ुश दिख रहा है, लाटरी हाथ लग गई क्या?

भोला सिटपिटाया-सा बोला - नहीं मालिक, लाटरी में हमारा तनिक भी भरोसा नहीं। बस ऐसई...

पटवारी बोला- तेरे घर गए थे, तू था ही नहीं। कहाँ चला गया था? तेरी घरवाली ने बताया नहीं कि हम आए थे। काफ़ी देर तक बैठे रहे, फिर तेरे बड़े मियां और उस दुष्ट बाज़ ने हमें वहाँ टिकने नहीं दिया। ऐसी ख़ातिरदारी की कि कुछ कह नहीं सकता।

भोला ने विनीत स्वर में कहा - हुजूर, घरवाली ने बताया था... सहसा बात घुमाकर बोला - बात ये हुई कि सास की तबियत जादा खराब हो गई थी, उसी चक्कर में वहाँ निकल गया था, इसलिए भेंट नहीं हो पाई।

पटवारी बोला - कोई बात नहीं भोला, अब मिल गया है तू - फिर कुटिलता से आँख मारकर बाबू से बोला - भोला को काग़ज़ दे दो।

बाबू ने कमीज़ की जेब से एक काग़ज़ निकाला और भोला को थमाता बोला - ले, तहसील से आया है, पढ़ ले...

भोला घबरा गया, बोला - क्या है, हुजूर, हम तो पढ़े-लिखे हैं नहीं, आप बताएँ कि यह क्या है? -भोला हाथ जोड़ता दोनों के सामने खड़ा था।

पटवारी ने कहा - घबराने की कोई बात नहीं है। वही फैक्टरी वाली बात है।

बाबू ने समझाया - देखो, हाँ, यहीं खड़े रहो, उधर मत जाओ। क्या है कि गौरमिंट ने एक आडर निकाला है। आडर यह है कि सड़क किनारे और उसके आजू-बाजू जो लोग बसे हैं उनके पास ज़मीन का पट्टा है तो उसे दिखाएँ। पट्टा नहीं है तो वह ज़मीन कब्जे की मानी जाएगी, गौरमिंट सबको हटाएगी... तू घबरा न, तू तो बरसों से रह रहा है, तेरे पास तो पट्टा होगा।

कुम्हार बोला - मालिक, पट्टे की हम नहीं जानते, हाँ, ज़मीन हमारे पुरखों की है। मुद्दतों से हम यहाँ रहते और खेती करते आ रहे हैं, यह ज़मीन हमारी है। हम तो उसमें अन्न उगाते हैं किसी से भी पूछ लो...

पटवारी बोला - किसी से क्या पूछ लें, तू बता? पट्टा है तो दिखा।

-मालिक, बो तो खसरे-खतौनी में सब होगा हमारे बाप-दादों का नाम, आप देख लें...

बाबू ने उसके कंधे पर हाथ रखा, कहा - अभी तू परेशान न हो, घर में देख ले, सब मिल जाएगा।

पटवारी ने सान्त्वना के अंदाज में कहा- हम तो काग़ज़ देना नहीं चाह रहे थे, वैसे यह तेरे नाम है भी नहीं, आम जनता के नाम है, आडर है, सूचना है। हम कई दिनों से टालते आ रहे थे कि किसी तरह बात टल जाए, लेकिन क्या है, ऊपर का फरमान है। हम कितने दिन इसे दबा सकते हैं, जितने दिन हमसे दब गया, हमने दबाया। अब जब हम पर दबिश पड़ रही है, हम लाचार हैं। ये काग़ज़ सबको थमाना पड़ रहा है, फिर तू चिंता काहे कर रहा है। मैंने पहले भी कहा था कि मैं तेरे साथ हूँ और अंतिम समय तक रहूँगा, तू विश्वास तो कर! ऐसे काग़ज़ तो आए दिन आते हैं- मैं सब मामला निकाल दूँगा।

सहसा दोनों ‘बड़े साहब ने तलब किया है’ कहकर चले गए थे।

कुम्हार ने गहरी साँस छोड़ते हुए पत्नी से कहा - अब ये मामला है, क्या करें बताओ?

कुम्हारिन ने गीली आवाज़ में कहा - मैंने पहले ही कहा था, दाल में कहीं काला है। ये कमीन और कुछ नहीं, हमें बेदखल करना चाहते हैं।

काफ़ी देर तक दोनों के बीच गहरी चुप्पी छाई रही। इस बीच कुम्हार ने मैना को दाना और पानी परोसा।

मैना काठ की तरह बैठी रही जैसे जतला रही हो कि ऐसी ख़बर पर भला कोई दाना-पानी हलक के नीचे उतार कैसे सकता है!

बड़े मियां भी ग़मगीन-से धीरे-धीरे चलते चाक के पास आकर बैठ गए।

***

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(क्रमशः अगले अंक में जारी...)

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार (5)
हरि भटनागर का उपन्यास - एक थी मैना एक था कुम्हार (5)
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