रवि श्रीवास्तव की कहानी - एक ऑफ़िस ऐसा भी

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रवि श्रीवास्तव,   कहानी एक ऑफ़िस ऐसा भी। भाग -1 ऑफ़िस जाना है इसका ख्याल मन में आते ही लोगों को मन में कुछ अजीब सा ऐहसास होने लगता ...

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रवि श्रीवास्तव,
 
कहानी
एक ऑफ़िस ऐसा भी। भाग -1
ऑफ़िस जाना है इसका ख्याल मन में आते ही लोगों को मन में कुछ अजीब सा ऐहसास होने लगता है। बहुत सारा काम करना पड़ेगा, बॉस की डॉट सुननी पड़ेगी, अच्छा काम किया तो तोड़ी सी सराहना मिलती है।
पर इस कहानी में एक ऐसा ऑफ़िस है जो आप को थोड़ा हैरान कर देगा। सुबह से शाम तक अब यहां एक ही काम होता है। बाजार में अपना वर्चस्व फैला रखी कम्पनी एमएनआई को मात देने की सोच के साथ टीएनएस नाम से कम्पनी ने अपनी शुरूआत की। शुरूआती कुछ दिनों में काम भी सही तरीके से चला। पर अचानक कुछ ऐसा हुआ जिसने सब कुछ बिखेर कर रख दिया। सारी बातें और सोच धरी रह गई। इसका हर कर्मचारी यहां परेशान आत्मा की तरह रहता है।

आदित्य: ऑफ़िस का मेरा पहला दिन कुछ जगह नौकरियों का तजुरबा लेने के बाद जब मैं इस ऑफ़िस में आया तो मुझे यहां काम कर रहे लोगों को देखकर उत्साहित हो उठा। मुझे लगा आगे बढ़ने और सीखने के लिए इससे अच्छी जगह क्या हो सकती है। कम वेतन में अच्छे भविष्य की तलाश में हामी भर दी। काफी अच्छे लोगों के बीच शुरूआती समय गुजरता गया। मेहनत और लगन से मैंने वहां काम सीखा। पर आज वही पूरा ऑफ़िस लापरवाही और राजनीति की वजह से इस हालत में आ पहुंचा जिसे देख मुझे अपनी मेहनत पर गुस्सा भी आता, दिल करता कि मैं भी कामचोर बन जाऊं पर शायद खुदा ने ऐसी फितरत नहीं दी थी मुझे। हमारे विभाग की बागडोर जिसके हाथ में थी वो काफी नौजवान युवक दीपक सर थे। उनको देख ये लगता था कि दिल में कुछ कर दिखाने का हौसला हो तो कुछ भी मुमकिन नहीं है। क्षेत्र का बेहतरीन तजुरबा लिए आरिफ सर जिनकी उम्र करीब 60 साल की होगी हमारे बॉस को कम्पनी को आगे बढ़ाने की सलाह देते थे। साथ ही एक विभाग की जिम्मेदारी भी उनके पास थी।

बॉस की मेहनत से कम्पनी ने बाजार में अपना नाम तो कमा लिया था। पर एक कमी रही काम कर रहे कर्मचारी खुश नहीं नज़र आ रहे थे। ये उनकी कमी थी या उनकी तरक्की की जलन या दोनों समझ नहीं आ रहा था। खैर फिर भी काम अच्छी तरह से चल रहा था। एक और कमजोरी वेतन का समय पर न आना। सारे कम्पनियों के लोग अपना वेतन पाकर खर्च कर महीने के आखिरी तक गरीब हो जाते थे तब हमारे ऑफ़िस के सारे कर्मचारी अमीरी के गुलछर्रे उड़ाते थे। पहले दिन तो मेरा काफी नरबस तरीके से दफ्तर का समय गुजरा। अपने आप को असहाय भी महसूस कर रहा था। पर हौसले को बुलंद रखा। दो तीन दिन के बात दिल में थोड़ा सी दिलासा आई। नये दोस्त बनें। इन नए दोस्तों के साथ काम करने में धीरे-धीरे मज़ा आने लगा। इस ऑफ़िस में बहुत सारे लोगों के बीच एक ऐसे शख्सियत से मुलाकात हुई जिसे देख मुझे आश्चर्य होता था। ऐसी सकारात्मक सोच की सड़क से गुजर रहे भिखारी को देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना दिखा दे। अंकित नाम के इस शख्स से जब मुलाकात हुई तो लगा कि खुदा के किस नुमाइंदे से मिला हूं। पर धीरे धीरे जान पहचान अच्छी हो गई थी। हमारे विभाग की देख-रेख कर रहे अंकित की दीपक से अच्छी दोस्ती थी। उनकी दोस्ती को लेकर लोग एक नई फिल्म ये दोस्ताना के निर्माण की बाते कर रहे थे। ऑफ़िस के काम को नहीं पर अपने वेतन को लेकर सारे कर्मचारी न खुश थे। सबकी नज़र में एक जो कराश रहा था वो मेरा बॉस दीपक था। सब उसे तानाशाह की पदवी देने लगे थे।

एक बात जो सबको खटक रही थी वो थी 6 महीने का इंक्रीमेंट जो बॉस ने ऐसे बोला था । तब भी ऑफ़िस काफी अच्छे तरीके से चल रहा था। किसी को आपस में एक दूसरे से कोई शिकायत नहीं थी। काम और लोगों की लगन ने कम्पनी को ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया था। कि दूसरी कम्पनी को अपने अस्तित्व को बचाने में सोचना पड़ रहा था। कुछ महीनों में खड़ी ये कम्पनी धीरे-धीरे अपने कदमों पर चलने लगी थी। अब कम्पनी को दौड़ना बाकी था। जाहिर है रेस लंगड़े घोड़े से नहीं जीता जा सकता था। बॉस के दिमाग की एक उपज निकलकर सबके सामने आई। बाजार में अपना पूरा साम्राज्य फैला रखी कम्पनी से एक कर्मचारी को उसकी कमजोरी और ताक़त को जानने के लिए कम्पनी में प्रतीक को नियुक्त कर लिया। आरिफ सर को सारे दिन की रिपोर्ट प्रतीक को देनी पड़ती थी। साथ ही अगले दिन का विवरण बनाकर रखना पड़ता था। प्रतीक के आने के बाद कुछ दिन तक फील्ड पर काम कर रहे कर्मचारियों ने अच्छा काम किया। हर तरफ कम्पनी के चर्चे होने लगे थे। पर ये खुशी ज्यादा दिन तक नहीं रह पाई। प्रतीक के व्यवहार में थोड़ा बदलाव आया। फील्ड पर काम कर रहे कर्मचारी अब निराश होने लगे। उनका मानना था कि प्रतीक गालियों से उनसे बाद करने लगा था। अब जो जोश था वो बुझने लगा था।

दोनों तरफ आग लग चुकी थी। कलह शुरू हो गई थी। बात दोनों पक्ष रखते आरिफ और दीपक के सामने पर निर्णय नहीं निकला। कुछ कर्मचारियों ने अपना इस्तीफ़ा दे दिया। बॉस को फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्हें लगा कि चेस का वजीर तो उनके हाथ में है। पर इतनी नादानी आज तक नहीं देखी कि मैदान में पूरी सेना के बल पर युद्ध जीता जाता है। ये उनकी नादानी थी या किसी पर बहुत जाता आत्मविश्वास ये वो अपने मन में रखे रहे। हांलाकि सब कुछ उजड़ने के बाद कई बार दोष देते हुए आरिफ सर के मुंह से सुन लिया था। अब तक लोग दीपक और आरिफ से खुश नहीं थे एक और नया अध्याय प्रतीक ने जोड़ दिया। कहावत कही गई है कि तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा। वही कुछ शुरू हो गया। इक छोटी सी कम्पनी जो अभी खड़ी हुई थी। विनाश का सिलसिला शुरू हो गया। इस छोटी सी कम्पनी में राजनीति शुरू हो गई। तब से मक्कारी का सिलसिला शुरू होता गया। काम न करने और दूसरों पर काम टाल देने में सभी ने जैसे स्नातक की डिग्री ले रखी हो। जिन्हें थोड़ा सा काम करना पड़ जाए लगता था कि धरती का सारा बोझ उनके सिर पर आ गया हो। फिर क्या था ऑफ़िस के अंदर तीन बड़े ग्रुप बन गए। 1-महिला ग्रुप नाम है पर महिलाओं के साथ कुछ लोग शामिल थे जो उनकी बातों पर ज्यादा गौर करते थे।2- राजनीति ग्रुप इसमें कुछ चुनिंदा लोग थे।

सबसे बड़े ग्रुप में स्मूकर्स था। जिसमें ऐसा लगता था कि ईश्वर ने हर अलग-अलग जगह से परेशान आत्माएं भेजी हैं। सब परेशान पर सिगरेट के धुएं के छल्ले में परेशानी भूल जाते हैं। इन तीनों ग्रुप में जो फिट बैठते थे। वो थे अंकित शर्मा। जो हर तरफ रहते थे। अब ऑफ़िस में हर तरफ से पांसा फेके जा रहे थे। पर इन पासाओं की स्मूकर्स ग्रुप को कोई परवाह नहीं थी। कुछ ऐसे कर्मचारी भी थे जो धूम्रपान नहीं करते थे पर रहते थे स्मूकर्स के साथ में। तानाशाही और सिर्फ चुनिंदा लोगों की बात सुनने का आरोप कर्मचारी बॉस पर लगाते रहे। पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा था। सब जानकर भी अनदेखा किया जा रहा था। कही न कही इसमें थोड़ी सच्चाई भी थी। अचानक मालिक के आदेश पर कम्पनी को दूसरी इमारत में भेजा गया। कुछ कर्मचारियों को बुरा लगा पर मरता क्या न करता। दूसरी जगह नौकरी का मौका नहीं मिल रहा था। जहां काम कर रहे थे उसमें भी इतनी समस्याएं थी। वेतन का समय पर न आना। खैर ऑफ़िस दूसरी इमारत में पहुंचा। वेतन थोड़ा से समय पर आ गया। और नाराज़ 5 कर्मचारियों नें एक साथ बिना बताए दफ़्तर आना बंद कर दिया। और एक बड़ा झटका कम्पनी को लगा। बढ़ रही कम्पनी फिर से पिछले कदम पर आने लगी। कुछ नए लोगों की नियुक्ति की गई। पर वो बात नहीं थी जो जज्बा पहले के लोग रखते थे। उस नई इमारत में जब मैं गया तो अंकित शर्मा पूछ लिया आखिर ऑफ़िस में क्या हो रहा है। तो उनके जवाब से मुझे काफी हंसी आई। इतना प्यारा सा जवाब भाई जिंदगी में जहर घुल गया है। जो नए नुमाइंदो की नियुक्ति हुई थी पहले तो वो कर्म को पूजा मानते थे पर कुछ ही दिनों में उनके तेवर बदल गए।

इस दफ्तर में ज्यादा काम करने वाला हमेशा बेवकूफ की श्रेणी में रहा। क्योंकि हमारे बॉस की आंखों से काम करने वाले कर्मचारी नहीं दिखते थे। सुजीत नाम के बंदे को कुछ दिन के लिए काम सीखने के लिए रखा गया। उस समय तो ऐसा लग रहा था कि कम्पनी के लिए अपनी जान को भी न्यौछावर कर देगा । नियुक्ति मिलते ही कुछ ही महीनों में गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए दूसरा रूप भी सामने आया। बॉस अपनी हकड़ में अंजान बने रहे और लोग आश्चर्य चकित रह गए। धीरे-धीरे पटरी पर गाड़ी आ ही रही थी। पर फिर वेतन का मुद्दा सामने आया।राकेश राजा, हासिम जैसे अनुभवी लोगों को कम वेतन मिल रहा था। जिसमें राकेश राजा ने तो अपना मोर्चा खोल दिया। अब वो हर दिन दफ़्तर देर से आने लगे थे। पर हासिम शांत स्वाभाव से बैठे थे। नई नियुक्ति में फिर से एक कर्मचारी वहां से लाया गया जहां से प्रतीक को लाया गया था। बॉस की सोच अपरमपार चल रही थी। कहते है जो दूसरे के लिए गढ्ढा खोदते हैं वही उसमें गिरते हैं।

बड़ा तजुरबा रखने वाले भास्कर को लाया गया। इस ग्रहण लगी कम्पनी को नई उम्मीद देने के लिए। तभी मालिक का नया फरमान आया कि कम्पनी को पुरानी बिल्डिंग में फिर से भेज दिया जाए। फिर से कर्मचारी को वही पुरानी इमारत मिली पर इस बार नीचे का फ्लोर मिला। बॉस को लग गया था कि नाव डूब रही है पर उपाय करने के बजाए आंखें बंद कर ली। दफ़्तर में गिने चुने लोग काम कर रहे थे। बाकी तो अपनी अय्याशी के लिए नाम कमाने लगे। एक नया दौर आया जिसने पूरे ऑफ़िस को अपने रंग में रंग दिया। एक ऐसा वायरस जो बहुत जल्द सब पर भारी पड़ गया। पर काम करने वाले कर भी रहे थे। पर दीपक सर की बात ही निराली थी। उन्हें कोई मतलब ही नहीं था। खैर जो वायरस था गेम खेलने का। गेम के लेकर ऑफ़िस में अचानक एक नया मोड़ आया। कम्प्यूटर पर गेम खेलने का चस्के ने सब पर नशा चढा दिया। कुछ तो इस नशे से बचे थे पर उनका काम बॉस को नहीं दिखता था।

हर कम्प्यूटर पर गेम का एक टैब खुला रहता था। देखकर ऐसा लगता था कि जैसे हम दफ़्तर में न होकर किसी खेल के क्लब में हो। पहले तो बॉस के चोरी-छिपे खेल रहे थे। पर कुछ ही दिनों में बॉस क्या है इसका मतलब ही नहीं रह गया। इस बीच एक नए क्रांतिकारी का उदय हुआ। जो दीपक के रवैये से परेशान तो था साथ ही इस पूरे सिस्टम से। काम छोड़कर लोग गेम खेल रहे थे। जो उसे पसंद नहीं था। अनुभव नाम के इस बंदे में काम की लगन और मेहनत तो कूट-कूट कर भरी थी। पर शरीर से लग रहा था कि तेज आंधियों में बचके रहता होगा वरना हवा में उड़ सकता है। ज्यादा बखान तो उसका नहीं कर सकता। पर इतना जरूर था कि उसके शरीर की सारी हड्डियों को आसानी से गिन सकते हो। अपने आप में आत्मविश्वास लिए हर किसी को काम करने के लिए कहता पर लोगों को तो नशा कैंडी क्रश नाम के गेम में था। अगर कोई बड़ा काम होता और कोई उसकी बात को नहीं सुन रहा होता तो वह खुद उस काम को करने लगता था। उसकी कुछ बातों को लेकर राजनीतिक ग्रुप और महिला ग्रुप के साथ-साथ धूम्रपान करने वाले उसके साथ के लोग मजाक बनाते रहते थे। पर न किसी का गम उसे न किसी की परवाह, चल जाता था उधर जिधर दिखे राह। ऐसा मुंह फट आदमी शायद ही इस कम्पनी में कोई रहा हो। जो भी कहना हो सीधा मुंह पर। डर भी उसे किसी का नहीं था क्योंकि वह खुद में ईमानदारी से और समय से अधिक काम करता था। अभिनव जब किसी से काम करने को कहता तो ऐसा लगता था था कि कोई मच्छर आकर कान में गाना गाया और चला गया। थक हार के वह आदित्य के पास आता था तब थोड़ी बहुत सुनवाई होती जाती थी। आदित्य को चस्का तो था गेम का पर उससे ज्यादा काम का भी था। वह अपना गेम अधिकतर दूसरों से खेलने को कहता था जिनको महारथ हासिल थी।

इस दफ़्तर के अंदर का हाल ऐसा हो गया था कि सुबह कदम रखते ही हाय हैलो करने के बाद कितने लेवल को पार किया कल ये जानना दूसरों को जरूरी हो गया था। जो कर्मचारी इसमें स्नातक कर चुके थे वो तो फोन भी करते थे भाई लाइफ ख़त्म हो गई और गेम को अनलॉक कर दो। सुबह की शिफ्ट में लड़कियों पर इसका ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा था। वो अपना काम बड़े मन के साथ करती थी। लेकिन दोपहर के बाद तो काम करने वाले कर्मचारियों का उद्देश्य काम नहीं गेम का लेवल पार करना था। गेम का कमजोर सिपाही होने के वजह से आदित्य को बोरियत होती थी। पर शान बचाने के लिए दूसरे से लेवल जरूर पार कराता था। हाल बदलते गे काम छूट जाए पर एक दूसरे को लाइफ भेजना जरूरी था।

 इन चीजों को देखकर अनदेखा किया हमारे बॉस ने जिससे कुछ लोगों का तो मनोबल बढ़ता गया। कामचोरियां हद से ज्यादा बढ़ने लगी। सुजीत का हाल था कि लोहे में रहे और लोहार में भी। भास्कर तो उसे खबरी का नाम दिया। समय पर आने जाने के लिए भास्कर और दीपक में बहस भी हुई थी। वह भी पूरे कर्मचारियों के सामने बॉस की हैसियत में दीपक में कुछ खास दम नहीं दिखा।

एक बार आदित्य की अंतरात्मा जागी उसने अंकित से कहा कि इसका वर्णन वह कविता के जरिए सबके सामने रख देगा। तो पुराना घिसा डायलॉग सुना बाबू क्लेश हो जाएगा। आदित्य चुप हो गया। गेम चरम सीमा पर चल रहा था। सब अपना ही भविष्य को अंधेरे में डाल रहे थे ये बात समझ नहीं पा रहे थे। ऑफ़िस से घर जाने के बाद रात कैसे बीते जल्दी से कल जाकर कर्मठ कर्मचारी की तरह बहुत सारे लेवल पार करूंगा। हाल वही चल रहा था विनाशकाले विपरीत बुद्धि। कम्पनी के पतन के चर्चे एक बार फिर बाजार में होने लगी। बॉस ने कभी इसका कारण न तो जानने की कोशिश की और न ही मालिक से बात करने की हिम्मत जुटा पाए। कर्मचारी क्या काम कर रहे है इसका लेखा जोखा भी बॉस ने कभी नहीं देखा। सिर्फ कुछ लोगों को निशाना बनाया। हालात बिगड़ते गए। अय्याशियां कामचोरियां बढ़ती गई। कुछ कर्मचारियों ने स्वेच्छा से ऑफ़िस छोड़ दिया। फिर एक दिन मानव संसाधन का फोन आना शुरू हो गया। कुछ लोगों से उनका राजीनामा मांग लिया गया। बचे कर्मचारियों से ऑफ़िस बिना बैशाखी के रेंग रहा था। ठोकर लगने के बात भी मक्कारी नहीं गई। मालिक ने दीपक को दूसरी कम्पनी में तवादला कर दिया। अब पूरी कम्पनी के सर्वेसवा आरिफ बचे थे। आरिफ की चापलूसी कहे या आज्ञाकारी कर्मचारी ये तो सुजीत ही जानता था कि वह क्या कर रहा है। पर इतना जरूर था कि उसने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था। आने-जाने का समय उसका बदल गया था ऐसा लग रहा था कि वह यहां पिकनिक मनाने आता था। देर से आना जल्दी जाना आदत बन गई थी। कामचोरी की सारे हदें सुजीत ने तोड़ दी थी। जिसे वह गर्व से दूसरे के सामने कहता था।

काम करने वालों को लेकर पहले भी बॉस की आंखें बंद थी आज भी आरिफ सर की आंखें बंद हैं। कौन काम कर रहा है कभी नहीं पूछा न ही देखा। दूसरों को ताना देने वाला सुजीत आज वही काम कर रहा था। आरिफ के सामने अपने को अच्छा साबित कर सारी सत्ता अपने हाथों में ले लिया था। बाकी कर्मचारी मूकदर्शक बने थे। हालांकि सुजीत ने बचे किसी कर्मचारी के बारे में कुछ गलत नहीं किया था। लेकिन लोगों की नजरों में खटक रहा था। काम न करने को लेकर और आने-जाने के समय को लेकर पूरे दफ़्तर में चर्चा होती थी। डूब रही कम्पनी में एक बार मालिक का आश्वासन फिर आया कि फिर से कुछ नए तरीके से इसकी शुरूआत करेंगे। मालिक तो शुरू करवा देंगे पर क्या ऐसे कर्मचारी से कम्पनी आगे बढ़ सकती है। ये सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा काम की कद्र कब होगी इस कम्पनी में। आदित्य हर रोज जाकर यही सोचता था। क्या काम से बढ़कर चापलूसी है जो अधिकारियों को नज़र नहीं आती है। ऑफ़िस का नाम सुनकर लगता था कि बहुत सारे लोग काम करते होंगे। लेकिन अब न तो बहुत सारे लोग थे न ही ज्यादा काम।

एक ऐसा ऑफ़िस जिसने काम करने वाले कर्मचारियों के नजरअंदाज किया। उसका पतन हो रहा है। बचे कर्मचारी आस लगाकर बैठे है कि मालिक शायद कुछ नया कर दे। लेकिन मक्कारी की आदत आज भी वही है। आदित्य भी इन सबकी की तरह बनना चाहता है पर अभी तक ख़ुदा की मेहरबानी चल रही है उसे इन सबसे दूर रखने की। सब कुछ ऐसे ही चल रहा है। सबको इंतजार है मालिक के आखिरी फैसले का। कि क्या होगा मालिक का आखिरी निर्णय। अब न तो बाजार में इसका ज्यादा नाम भी नहीं बचा। दूसरी बड़ी कम्पनी को प्रभावित कर रही ये कम्पनी के इस तरह बिखरने से उस कम्पनी ने राहत की सांस ली है। पड़े सूखे में बारिश की आस लगाए बैठे लोगों के जैसे आज बचे कर्मचारी भी ऐसी आस लगाएं है। अब देखना है कि मालिक का दिल कब पसीजता है।

ये कहानी का भाग एक है जल्द ही आप के सामने दूसरा भाग आप के सामने आएगा और आगे की ऑफ़िस के अंदर की वो बात जिसे सोचकर आप हंसेगे और दंग भी रह जाएंगे। कि सच में क्या एक ऑफ़िस ऐसा भी है।
 
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रचनाकार: रवि श्रीवास्तव की कहानी - एक ऑफ़िस ऐसा भी
रवि श्रीवास्तव की कहानी - एक ऑफ़िस ऐसा भी
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