0000000000000 डॉ. श्याम गुप्त कुछ श्रेष्ठ अगीत अगीत .टोपी वे राष्ट्र गान गाकर भीड़ को देश पर मर मिटने की, कसम दिलाकर; बैठ गए लक्...
0000000000000
डॉ. श्याम गुप्त
कुछ श्रेष्ठ अगीत
अगीत
.टोपी
वे राष्ट्र गान गाकर
भीड़ को देश पर मर मिटने की,
कसम दिलाकर;
बैठ गए लक्सरी कार में जाकर ;
टोपी पकडाई पी ऐ को
अगले वर्ष के लिए
रखे धुलाकर |
प्रकृति सुन्दरी का यौवन....
कम संसाधन
अधिक दोहन,
न नदिया में जल,
न बाग़-बगीचों का नगर |
न कोकिल की कूक
न मयूर की नृत्य सुषमा ,
कहीं अनावृष्टि कहीं अति-वृष्टि ;
किसने भ्रष्ट किया-
प्रकृति सुन्दरी का यौवन ?
माँ और आया
" अंग्रेज़ी आया ने,
हिन्दी मां को घर से निकाला;
देकर, फास्ट-फ़ूड ,पिज्जा, बर्गर -
क्रिकेट, केम्पा-कोला, कम्प्यूटरीकरण ,
उदारीकरण, वैश्वीकरण
का हवाला | "
लयबद्ध अगीत
तुम जो सदा कहा करती थीं
मीत सदा मेरे बन रहना |
तुमने ही मुख फेर लिया क्यों
मैंने तो कुछ नहीं कहा था |
शायद तुमको नहीं पता था ,
मीत भला कहते हैं किसको |
मीत शब्द को नहीं पढ़ा था ,
तुमने मन के शब्दकोश में ||
नव अगीत
प्रश्न
कितने शहीद ,
कब्र से उठकर पूछते हैं-
हम मरे किस देश के लिए ,
अल्लाह के, या-
ईश्वर के |
बंधन
वह बंधन में थी ,
संस्कृति संस्कार सुरुचि के
परिधान कन्धों पर धारकर ;
अब वह मुक्त है ,
सहर्ष , कपडे उतारकर ||
त्रिपदा अगीत
खडे सडक इस पार रहे हम,
खडे सडक उस पार रहे तुम;
बीच में दुनिया रही भागती।
क्यों पश्चिम अपनाया जाए,
सूरज उगता है पूरब में;
पश्चिम में तो ढलना निश्चित |
लयबद्ध षटपदी अगीत
पुरुष-धर्म से जो गिर जाता,
अवगुण युक्त वही पति करता;
पतिव्रत धर्म-हीन, नारी को |
अर्थ राज्य छल और दंभ हित,
नारी का प्रयोग जो करता;
वह नर कब निज धर्म निभाता ?
" जग की इस अशांति-क्रंदन का,
लालच लोभ मोह-बंधन का |
भ्रष्ट पतित सत्ता गठबंधन,
यह सब क्यों, इस यक्ष -प्रश्न का |
एक यही उत्तर सीधा सा ;
भूल गया नर आप स्वयं को || "
त्रिपदा अगीत ग़ज़ल...
बात करें
भग्न अतीत की न बात करें ,
व्यर्थ बात की क्या बात करें ;
अब नवोन्मेष की बात करें |
यदि महलों में जीवन हंसता ,
झोपडियों में जीवन पलता ;
क्या उंच-नीच की बात करें |
शीश झुकाएं क्यों पश्चिम को,
क्यों अतीत से हम भरमाएं ;
कुछ आदर्शों की बात करें |
शास्त्र बड़े-बूढ़े और बालक ,
है सम्मान देना, पाना तो ;
मत श्याम’व्यंग्य की बात करें
---- डा श्याम गुप्त ,सुश्यानिदे, के-३४८, आशियाना, लखनऊ
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विजय वर्मा
काल-चिंतन
क्या कथ्य !
क्या अकथ्य!
अब बचेगा सिर्फ
अर्ध-सत्य !
अर्ध-सत्य !
उद्घोष कर रहा नेपथ्य !
क्या करणीय !
क्या अकरणीय !
अब रहा नहीं
विचारणीय !
स्वीकृत है यहाँ
मन-भली लगी ,
भले ही वो
नहीं हो तथ्य !
मंज़िल ही अब
प्रधान है ,भले ही हो
राह-भ्रष्ट !
रुग्ण है मनोवृति
आनंदहीन प्रभुकृति
मरणासन्न समाज को
दे दान दया और
प्रेम-पथ्य
-----.
वक़्त के थपेड़े
वक़्त के थपेड़े भी सह लेंगें ,
दर्द के अफ़साने आपस में कह लेंगें ।
कुछ लोग भटक गए है , वे लौट आएंगे।
फिर से अपनी खोयी हुई खुशियाँ पाएंगे।
नाराज़ होकर भागे थें जंगल की ओर
पर पूरी तरह से विमुख नहीं है,
आखिर कौन है इस जहाँ में
जिसे सालता कोई दुःख नहीं है ?
अंधकारों ने हमें बहुत सताया है
पर उसका दुःख नहीं है
दुःख तो यह है कि
आदमी का आदमी पर से
विश्वास खोता जा रहा है ,
हैरान हूँ मैं कि मेरे देश में
यह क्या होता जा रहा है !
यह क्या होता जा रहा है !
--
v k verma,sr.chemist,D.V.C.,BTPS
BOKARO THERMAL,BOKARO
vijayvermavijay560@gmail.com
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अनन्त आलोक
काँधे चढ़ी औरतें
पहाड़ के काँधे चढ़ी औरतें
कर रही हैं हजामत
बूढ़े पहाड़ की
कनपटी और सर के पिछले हिस्से में
बचे खुचे , पके , भुरियाये बाल
क़तर देती हैं हर वर्ष
जाड़ा आने से पहले
ये औरतें भले ही प्रोफेशनल हजाम न हों
लेकिन इनके आगे बड़े बड़े हजाम
भरते हैं पानी
जब चलता है इनका दराती उस्तरा
इनमें से अधिकतर ने नहीं पढ़ा है
गणित
मगर इनके ज्यामितिक ज्ञान का कोई सानी नहीं
बिजली की फुर्ती से कतरती हैं ये
अपने अपने हिस्से की आयतें
वर्ग और त्रिभुजें
बिना स्केल पेंसिल और प्रकार के
काटती हैं
भिन्न भिन्न प्रकार के स्टेंशियल
पहाड़ का सर हो जाता है
एकदम फैशनेबल , आकर्षक
फ़िल्मी सितारों
आज के नोजवानों ने
इन्हीं से सीखा होगा
बालों में कटिंग के अलग अलग
डिजाइन बनवाना
पहाड़ ने गर्दन से छाती तक
ओढा रखा है स्लेट पत्थर के श्याम सफेद
चेकदार मकानों से बना
काफिया
गेहुँवी हरी टी शर्ट पहने पर्वत
लगता है एकदम स्मार्ट
हेंडसम ओल्ड यंग मेन
औरतों ने रख दी हैं
अपने अपने हिस्से की आकृतियाँ
अपने देसी फार्मूले से बदलकर
बड़े बड़े शंकू और बेलन में
ताकि बर्फ पड़ने पर खिला सके
गाय को और
सफेद अमृत बना कर
दे गाय माता वापस
पियें बच्चे बूढ़े और जवान
नोट : हिमाचल के बर्फीले क्षेत्रों में गाँव की औरतें सर्दियाँ शुरू होने से पूर्व घास काट कर रख देती हैं ताकि बर्फ के समय खिला सकें |
‘
Email: anantalok1@gmail.com
000000000000000000000000
सीमा असीम
मेंहदी
यह मेंहदी कितनी सुंदर लगती है
जब लगाओ तो खुश्बू से
मन खुश हो जाता है
रच जाये तो तन-मन
दोनों प्रसन्न हो जाते हैं
तरह तरह के बेल बूटें से
भर भर हाथ लगाती हुई हर नार
कितनी खुश होती है
कितना प्यार करता है उसका प्रिय
आज पता लग जायेगा
अगर रच गयी तो ठीक
काली पड गयी तो
बेइंतहा प्यार करता है अथाह
उसका न कोई ओर न कोई छोर
प्रफुल्लित हो सब रचवाती है
तीज के त्योहार पे
बेल बूटे पत्तियों के बीच में
दिल या प्रिय का नाम
फिर दिखायेंगी देखो कैसी लगी है
कितना रची है
अपना नाम तो ढूंढना
वे मुस्कुरा के कह देंगे
देखो कितना प्यार करता हूं
तभी तो काली पडी है
चूम के हथेली पर रचे नाम को
प्यार से निहार लेंगे
सब की अभिलाषा पूरी होकर
कुछ और खिल निखर उठेंगे
तन और मन
उन सब नवयौवनायों के!!
.निखर आई हूँ
आज कुछ ज्यादा ही
निखर आई हूँ
सँवर आई हूँ
दुनियाँ की सारी खुशियाँ
आँचल में समेट लाई हूँ
चाँद, तारों को तोड़ने
आसमाँ तक निकल आई हूँ
उन्हें माँग में सजा
खुद पर ही इतराई हूँ
फूलों से खुशबू
तितली से रंग
चुरा लाई हूँ
उसे जीवन में भर
महमहा आई हूँ
जुगनुओं की टिमटिम से चमक
धबल चाँदनी से झोली भर
मन ही मन मुस्काई हूँ
हवाओं की सर-सर
नदियों की कल-कल से
खुशनुमा तरंगें
लेकर गुनगुनाई हूँ
प्यार पाकर तुम्हारा
इतना इतराई, इठलाई, मुस्कुराई
और गुनगुनाई हूँ
कि अब खुद पर ही
शरमा आई हूँ।
कुछ शब्द
कुछ शब्द मात्र शब्द नहीं होते
प्रेरणा होते हैं
भावनाओं से भरे वो शब्द
कभी जीवन को रसमय बना जाते हैं
भिगो जाते हैं अंर्तमन को
कुछ टूट जाता है
तो जुड़ भी जाता है
अंदर तक
गहराई तक
और बदल देता है जीवन।
-निःशब्द
मैं प्रेम के दो शब्द
चाहती थी
और तुम मुझमें परिपक्वता
मैं प्रेम में सब
हार जाना चाहती थी
और तुम जीतना
मैं हार कर भी
परिपक्व होती गई
और तुम जीत कर भी
निःशब्द हो गये।
.बदन पर ओढ लेना चाहती हूँ
ओढ़ लेना चाहती हूँ
अपने बदन पर
लाल चुनरी बनाकर
कभी नाक की लौंग
कभी माथे पर
बिंदी की तरह सजाकर
कभी खनकती
चूड़ियों की खन्कार
तो कभी पायल
की झंकार की तरह
अंग-अंग पर
सुहाग चिन्ह बनाकर
और समा लेना
चांहती हूं अपने
अंर्तमन में
खशबू की तरह।
क्या ये प्यार है
आँखों से रिसता है बूंद बूंद
ये आँसू है या कुछ और
जख्मों से कतरा कतरा बहता है लहू
अम्बर से धरा पर गिरता है नीर
प्यासे लबों को जुबाँ से भिगोता है बार बार
ऐसे में
पल पल तुम्हें देखने की लालसा
मिलने की चाहत
न दिन का पता
न रात का
यूँ ही गुजर जाती है
मेरे आस पास
अगल बगल
हर जगह रहता है एक अक्स
धूप छॉव, अँधेरा उजाला
न भूख, न प्यास
सोना, जगना
कब हो जाता है
एक यंत्रचालित सा
कब हँस पडती हूँ
न जाने कब रो देती हैं
न तन साथ देता है न मन
क्या है यह
किसी मोहपाश में बँधा सा लगता है
जादूगर के जादू में
जकडा सा
बोलना, कहना, सुनना, समझना
किसी का अंदाजा ही नहीं होता
न कोई वजह
बस यूँ ही
गुजर रहे है
बेमतलब से
दिन, रात, सुबह, दोपहर शाम
क्या यही प्यार है।
सीमा असीम सक्सेना,
बरेली-243001
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मधुरिमा प्रसाद
(1)
न नींद आयी क्यों
आज की रात पल भर न नींद आयी क्यों !
देख कर उस चमकते हुए चाँद को
नन्हें तारों से घिर जो चमकता रहा
दूर जैसे खिली रात रानी कोई
भर के ख़ुशबू से प्याला छलकता रहा।
आज की रात पल भर न नींद आयी क्यों !
जगती धरती पर जगते कितने रहे
है नहीं एक सा सबका जागना मग़र
चाँद और जागता देश का बादशाह
कितनी आँखें खुली होंगी फुटपाथ पर।
आज की रात पल भर न नींद आयी क्यों!
जागती हैं ये नदियाँ मचलती हुई
जागते रहते दोनों किनारे सदा
जागता है तड़पता कोई भूख से
कोई दौलत की रखवाली करता जगा।
आज की रात पल भर न नींद आयी क्यों !
किसी घर का दिखा बुझता दीपक कहीं
झनकी पायल कहीं, ठनकी बोतल कहीं
एक घर से निकलती डोली दिखी
दूसरे द्वार से उठ के अर्थी चली।
आज की रात पल भर न नींद आई क्यों !
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(२)
अंधों के बीच
ये दुनियाँ है अंधों की दो आँख वाले
बता तो तनिक तेरी हालत है क्या !
सज के है घूमता हर कोई देख ले
देख सकता है तेरे सिवा ना कोई
तू तरसता ही रह जायेगा जब कभी
होगी हसरत कि देखे तुझे भी कोई।
ये दुनियाँ है अंधों की दो आँख वाले
बता तो तनिक तेरी हालत है क्या !
आयेंगी आंधियाँ और पतझार भी
सबको सावन करेगा सराबोर भी
बट के बाती जलायेगा तू दीप इक
देखेगा चाँद तारे खिली भोर भी।
ये दुनियाँ है अंधों की दो आँख वाले
बता तो तनिक तेरी हालत है क्या !
बोल सुन्दर असुन्दर कहेगा किसे
'हाँ' में 'हाँ' भी मिलाने को है क्या कोई
नीर बहता तेरी आँख से देख के
सोख लें, होंगे ऐसे अधर भी कोई ?
ये दुनियाँ अंधों की दो आँख वाले
बता तो तनिक तेरी हालत है क्या !
*****************
(3)
कुछ भी खो करके
कह नहीं सकते हैं कुछ भी खो करके
हाल दिल का दिल ही से कहने में डर लगता है।
पात जब शाख से बेदर्द बन के टूट गया
छाँव को हाथ लगाने में भी डर लगता है।
हर लहर दूर किनारे को छू के जा पहुँची
नाम मझधार का लेते हुए डर लगता है।
द्वार पर सजता हुआ पावदान बहुत है सुंदर
पाँव कीचड़ से सने रखने में डर लगता है।
दिल में कुछ दर्द तो उठता ही रहा लेकिन
आँख को अश्क़ बहाने में भी डर लगता है।
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(४)
समर्पण
बन के पायल वे किसी के पाँव की
चाहते हैं हर घड़ी बजते रहें।
चुभ न जायें तलुवों में कांटे कंकड़
पांवड़े बन राह में बिछते रहें।
राह लम्बी, सिर पे तपती धूप हो
चाहते पथ-वृक्ष बन उगते रहें।
मन जो होवे अनमना उनका कभी
गीत और संगीत बन बजते रहें।
उनका इक आँसू न गिरने दें कभी
नन्हीं सी मुस्कान पर मिटते रहें।
दूर आँखों से घड़ी भर को हुए
नाम उनका मन ही मन जपते रहे।
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सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
( 1 ) तल्खियाँ
तल्खियाँ जब आँगन में बाढ़ बन आती हैं
उम्मीदें जब घर की मुंडेर छू भाग जातीं हैं
नाकामियां जब आग के टीलों सा झुलसातीं हैं
दुश्वारियां जब बदन पे फफोलों सी उग आतीं हैं
तिनकों की नाव की तलाश में भटकती इक रूह
बीती बातों की यादों के झरोखों के पट खोल - खोल
सुनसान और अँधेरी बंद गलिओं में
रास्ता तलाशती है.
वीरान पड़े रास्तों को कौन है जो आकर बसाएगा
भटक रही रूह में अटकी हुई धड़कन को
कौन है जो फिर से धड़काएगा
हर रात की सुबह होती है
इस सच की सच्चाई को
कौन है जो सच कर दिखायेगा .
झांकता है मन जब अंतर्मन की गहराइयों में
वहां तल्खियाँ वक्त का पसीना नजर आतीं हैं
नाकामियां बारिश से पहले की आँधियों में समां जातीं हैं
दुश्वारियां वसंत की तैयारियों का खाका खीच जातीं हैं
ये उम्मीदें ही तो हैं जो
सुनसान हुए रास्तों को फिर से बसातीं हैं .
कविता ( 2 )
कैसे करें तुमसे हम प्रेम की प्यार - भरी बातें
जिन भावनाओं की गंगा में डुबकी लगानी थी
उसे ही ईर्ष्यालु बादलों की गर्जना ने गंदला दिया .
जिन पोखरों की ठंडक में तैरने की मंशा थी
उन्हें ही नफरत की गर्मीं ने सुखा दिया .
जिन पेड़ों की छाया से राहत की उम्मीदे थीं
उन्हें कुविचारों की जंगली आग ने जला दिया .
जिन दीपों से अंधेरों को भगाने की तमन्ना थी
उन्हें द्वेष - भरी कुटिल हवाओं ने बुझा दिया ..
जिन दिलों से आत्मीय संवेगों की बात होनी थी
उन्हें रोग - जनक परजीवी उसूलों ने रोगी बना दिया ..
जिन अपनों से सजीले संदेशों की चाहना थी
उन्हें फरेबों की धूल- भरी आंधी ने रेतीला बना दिया .
कैसे करें तुमसे हम प्रेम की प्यार - भरी बातें
सुनने से पहले ही तुमने उन्हें अपनी उड़ान का मंजर दिखा ..
( 15/07/2014)
डी - 184 , श्याम पार्क एक्स्टेनशन साहिबाबाद - 201005 ( ऊ . प्र . )
(arorask1951@yahoo.com)
0000000000000
धर्मेन्द्र निर्मल
1- मॉ का जीवन
रात सारी मां की
आंखों में कटती है
जाने कब कंस
काली कोठरी मे आ धमके।
सुबह बच्चे को स्कूल भेजते वक्त
मुंह पे आ जाता है कलेजा
देखकर भयानक कलजुगी वाचाल चेहरा
गूंगे अखबारों का।
मन को मथते
माथे को कुरेदते
घुमड़ती रहती है पूरे दिन
चिंताओं की भीड़
कि मेरा नयनाभिराम
किसी से लड़ तो नहीं
रहा होगा ?
और मेरी कोमलांगी सीता ?
हाय राम !
पता नहीं कब कहां
क्या घट जाए
बढ़ रहे हैं दिन - ब - दिन
रक्तबीज से यहां
दशानन - दुशासन।
जैसे - तैसे आती है
ढलान पर शाम
सुनकर घण्टी की आवाज
जब दरवाजा खोलती है मॉ
देखते ही
अपनी ऑंखों के तारे को
सीने से लगा
पा लेती है गोद में
भरपूर सतयुग।
न जाने दिन भर में
इस तरह
कितने जुग जी लेती है माँ।
...
2- माँ का मन
बिन पेंदी का लोटा
मां का मन।
वरना फड़फड़ाकर गिर पड़ेगी
अधीर मां
बच्चा आंखों में होना।
बच्चा मुस्कुराया नहीं कि
खिल उठी मां
बच्चा बुदबुदाया नहीं कि
बोल उठी माँ
लड़खड़ाया नहीं कि
दौड़ पड़ी चिल्लाते
दुलक आये पलकों पर
कंचन के कंचों को
झटपट आंचल में समेट
समझाने बैठ गयी
माँ - बेटा !
ऐसा नहीं करते
वैसा नहीं करते, बेटा !
सचमुच पागल सी
होती है मॉ।
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मुकेश जगमालपुरिया
कुछ साज जिन्दगी का कुछ राज जिन्दगी का ,
कुछ लफ्जों में जिन्दगी कुछ फिजाओं में
कुछ मौसम जवां जवां सा रुत मस्तानी
हर मोड़ पे जिन्दगी का , हर सास पे तोड़ जिन्दगी का
मरने के लिये जिन्दगी, जीने के लिये जिन्दगी
हर तरफ बसर जिन्दगी का
कुछ ख्वाबों में जिन्दगी कुछ यादों में जिन्दगी
कुछ जिन्दगी सफर में, कुछ अनछुये लम्हों में
कभी यादों की करवटों में तो कभी टूटते झरोखों में
कुछ जिन्दगी कुछ जिन्दगी कुछ जिन्दगी कुछ जिन्दगी
कुछ जिन्दगी गजलों में कुछ जिन्दगी कहानी में
हर तरफ निभाता अपना अपना किरदार जिन्दगी का
खोने को जिन्दगी पाने को जिन्दगी
रोने को जिन्दगी मुस्कराने को जिन्दगी
हर लफ्ज में जिन्दगी, हर अहसास में जिन्दगी
लुटने का नाम जिन्दगी, संवरने का नाम जिन्दगी
हार कर भी जीत जाना, फिर से जीत के हार जाना
वो भी जिन्दगी . . . . . . . . . . . .
जिन्दगी ही जिन्दगी, जिन्दगी का दुसरा नाम बन्दगी
चलती का नाम जिन्दगी दौड़ती का नाम जिन्दगी बचपन
में जिन्दगी, जवानी में जिन्दगी ओर बुढापे क रुप जिन्दगी
उड़ते आसमां में बादल वो भी जिन्दगी बरसते सावन में जिन्दगी
मिल के बिछड़ जाना बिछड़ के फिर मिल जाना
हर तरफ जिन्दगी का कारवां
कुछ जिन्दगी कुछ जिन्दगी कुछ जिन्दगी कुछ जिन्दगी
जिन्दगी यहाँ, जिन्दगी वहाँ, जिन्दगी हर जगह
जिन्दगी दिन में भी रातों में भी यूँ
इक मन्जिल है जिन्दगी, इक जैसा मन्जर भी जिन्दगी
जीना यहाँ मरना यहाँ वो सब जिन्दगी का फलसफा जुड़ा है खुद जिन्दगी से
मेरे होने या ना होने में भी जिन्दगी है । जिन्दगी एक नाम है तो दूजा गुमनाम भी
जिन्दगी रुकती नहीं किसी ने कहा सिर्फ दोड़ती है।.
मैं भी जिन्दगी का हिस्सा हूँ जुड़ा उससे एक किस्सा हूँ
जिन्दगी किताबों में सवालो में उसके जवाबों में
जो तूने उठाये सवाल जिन्दगी पर
वो किये बवाल तूने जिन्दगी पर
अगर लफ्जो में बयां होती जिन्दगी
मैं कब का कर देता जिन्दगी ?
जितना कहुँ उतना जिन्दगी कम
मिठास में भी, खटास में भी जिन्दगी
कुछ जिन्दगी कुछ जिन्दगी कुछ जिन्दगी कुछ जिन्दगी
खुद को खो देना जिन्दगी
दर्द में रुसवाईयाँ, कहर खुद पे ढाने का
दोस्ती में जिन्दगी, रिश्ते में जिन्दगी,
हर फिजा में जिन्दगी हर कली के संग भंवरे को जिन्दगी
जर्रे जर्रे में जिन्दगी, जिन्दगी का नूर बसा है।
गागर से लेकर सागर तक जिन्दगी का सबब
तू कहे या ना कहे जिन्दगी के सफर में
कहीं ना कहीं जिन्दगी का मोड़ है
जिन्दगी कायनात का हिस्सा किस्सा दोनों ही भाग है
मां के दुलार में जिन्दगी, बाप के फर्ज में जिन्दगी
तू समझे तो जिन्दगी ना समझे तो जिन्दगी
बस यही है
कुछ जिन्दगी … कुछ जिन्दगी ...
कुछ जिन्दगी … कुछ जिन्दगी ...
मुकेश जगमालपुरिया
सीकर (राजस्थान), भारत
332001
E-mail: mukeshjagmalpuriya@gmail.com
00000000000000000
वीरेन्द्र ‘सरल‘
वन्देमातरम्
हिन्दू की गीता ,मुस्लिम का कुरान वन्देमातरम्
मन्दिर में पूजा ,मस्जिद में अजान वन्देमातरम्
राष्ट्र की अखंडता का यही मूलमंत्र है
है हमारी एकता का प्राण वन्देमातरम्
देशभक्ति का भाव ध्वनित होता है जिसकी गूँज से
है वतन की वन्दना का गान वन्देमातरम्
एक ही स्वरूप है ,जननी जन्मभूमि का
माँ की ममता से मिली मुस्कान वन्देमातरम्
अपना सब कुछ किये न्यौछावर जिसको गाकर वीरों ने
है उनकी कुर्बानियों का निशान वन्देमातरम्
मजहबो की बंदिशों को छोड़ करके गाइये
तुम पर अपनी जान भी कुर्बान वन्देमातरम्
दीप जलाने वालों की
भारत माता बँधी हुई थी, वर्षों तक जंजीरों में।
पराधीनता लिखा हुआ था, शायद हस्त लकीरों में।
जो सपूत थे आजादी के मूल्य तभी पहचान गये।
जिल्लत के जीवन से अच्छा, मृत्यु है यह मान लिए।
शुरू हुआ फिर आजादी के महायज्ञ की तैयारी।
बलिदानों का दौर चला तो, जाग गई जनता सारी।
देश के कोने-कोने में बस इंकलाब का नारा था।
धर्म, जाति, भाषा से पहले देश सभी को प्यारा था।
देशभक्ति का प्याला पीकर, झूम रहे थे मतवाले।
प्राण न्यौछावर करने आतुर, हुए वतन के रखवाले।
आजादी के महायज्ञ में, कई वीर कुर्बान हुए।
स्वतंत्रता ही परम लक्ष्य था, अर्पित सब अरमान हुए।
बुढ़ापे का छिना सहारा, कई मांग से मिटे सिन्दूर।
बुझ गये कई कुल के दीपक, हुए बहन से भाई दूर।
हँसते-हँसते फाँसी के फंदे, पर कितने झूल गये।
मातृभूमि के खातिर अपनी, सारी दुनिया भूल गये।
बही खून की गंगा कितनी, इसका कहीं हिसाब नहीं।
पन्ना-पन्ना पलटो पर, इतिहास के पास जवाब नहीं।
पता चला जब अंग्रेजों को, शेर हिन्द के जाग गये।
देश को दो टुकड़ों में बाँट के, दूर फिरंगी भाग गये।
छटा अंधेरा हुई रौशनी, आजादी का दीप जला।
लाखों कुर्बानी के बदले, खोया हक फिर हमें मिला।
स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर, जिन्होंने आहूति दी।
देकर लहू जिगर का अपना, देश धर्म को ज्योति दी।
आज उन्हीं वीरों की गाथा, देश की माटी गाती है।
मिट्टी के हर कण से उनके, यश की खूशबू आती है।
जिनके त्याग से लहराता है, आज तिरंगा लहर-लहर।
आज उन्हीं के जयगानों से, गूँजित है हर गाँव-शहर।
मातृभूमि के चरणों पर, निज शीश चढ़ानों वालों की।
शत-शत नमन है, आजादी के दीप जलाने वालों की।
--------.
हो यही भावना सबकी
बोंये बीज शहीदों ने और हमको मिला फसल है।
मुफ्त में नहीं मिली आजादी बलिदानों का फल है।
कितने शीश कटे और कितनी बही खून की गंगा।
लाखों कुर्बानी के बदले हमको मिला तिरंगा।
आजादी के लिए लड़े जो, दी अपनी कुर्बानी।
नमन आज हम उन्हें करें जो, हुए अमर बलिदानी।
कुर्बानी की गीता पढ़कर, देशभक्ति हम सीखें।
आजादी के कल्पवृक्ष को, तन-मन-धन से सींचे।
आओ शपथ उठायें माटी, तेरा मान रखेंगे।
जान भले ही जाये पर जिन्दा, स्वाभिमान रखेंगे।
अमर तिरंगे झण्डे को हम, झुकने कभी ना देंगे।
आजादी की दिव्य ज्योति को, बुझने कभी ना देंगे।
स्वतन्त्रता के पावन दिन पर, यही कामना सबकी।
प्रगति पथ पर देश बढ़े हो, यही भावना सबकी।
मैं माटी हिन्दुस्तान की हूँ
मेरे रोंम-रोंम में है ईश्वर, मैं वाणी वेद-पुराण की हूँ।
इतिहास मेरा गौरवशाली, मैं माटी हिन्दुस्तान की हूँ॥
सागर है मेरे चरणों पर, मस्तक पर हिमालय की चोटी।
संस्कार मिला है मुझे ऐसा, मैं बाँट के खाती हूँ रोटी।
मेरे कोख में रतनों की खानें, है गोद में नदियों का कलकल।
है हरियाली मेरे आँगन में, आँचल में हरे-भरे जंगल।
मैं जननी सूर, कबीरा और तुलसी, मीरा, रसखान की हूँ।
इतिहास मेरा गौरवशाली, मैं माटी हिन्दुस्तान की हूँ॥
कहतें हैं अन्नपूर्णा मुझको, कण-कण मेरा उपजाऊ है।
मेहनत करने वाले मेरे, बेटे हलधर बलदाऊ है।
है धैर्य-शौर्य गहने मेरे और स्वाभिमान श्रृंगार मेरा।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक, है बहुत बड़ा परिवार मेरा।
प्रतिबिंब मैं त्याग-तपस्या की और कथा अमर बलिदान की हूँ॥
दौलत है ईमान मेरा और सद्साहित्य है समृद्धि।
लक्ष्मी है मेरे बाँहों में, है बाजुओं मे रिद्धि-सिद्धि।
हर साँस में मेरा रामायण, शिक्षा मैं गीता ज्ञान की हूँ॥
इतिहास मेरा गौरवशाली मैं माटी हिन्दुस्तान की हूँ।
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आजादी की बात
जब तक नहीं बनेंगे फिर से बिगड़े हुए हालात।
तब तक बेमानी है बंधु आजादी की बात॥
देश का भूखा बचपन कचरों में ढूँढेंगा रोटी।
गली-गली भटकेगा यौवन पहने बिना लगोंटी।
आजादी के दीवाने क्या देखे थे यही सपने,
जिन्हें बचाया गैरों से उन्हें लूटेंगे खुद अपने॥
जब तक करता रहेगा सच के ऊपर झूठ आघात।
तब तक बेमानी है बंधु आजादी की बात॥
टी वी संस्कृति से हो गई, परम्पराएं चूर।
नग्न दृश्य के आगे हो गई, मर्यादा मजबूर।
लज्जा लज्जित हो गई, खंडित हो गया घर-परिवार,
छलक उठी संस्कृति की पीड़ा बनकर अश्रुधार।
जब तक याद न होगा हमको, मर्यादा का पाठ।
तब तक बेमानी है बंधु, आजादी की बात॥
सिर पर चढ़कर बोल रही हो जब अंगे्रजी भूत।
अपनी ही भाषा पीती हो, तिरस्कार का घूट।
और सहा न जाता है निज भाषा का अपमान।
अपनी भाषा बनी परायी, रोता है स्वाभिमान।
जब तक देता रहेगा सूरज अंधियारे का साथ।
तब तक बेमानी है बंधु , आजादी की बात॥
छन्द
सैनिक का संदेश
(1)
आँच नहीं आने दूँगा अपने वतन पर मैं, अच्छा-बुरा चाहे मेरा जैसा भी हाल हो।
चाहे मेरा तन लाखों टुकड़ों में बट जाये, चाहे मेरे खून से जमीन सारी लाल हो।
चाह नहीं मुझे मेरे मरने के बाद मेरी, लाश पे तिरंगा, फूल, हार य गुलाल हो,
मुझे मेरे मरने का गम नहीं होगा यदि, देशवासी खुश मेरा देश खुशहाल हो।
(2)
जब तक एक भी रहेगा सांस बाकी हम, समर भूमि में अपनी वीरता दिखायेंगे।
देश और देशवासियों की हिफाजत के लिए, अपने लहू का हर कतरा बहायेंगे।
अपना ये वादा रहा जीते जीं जीतेंगे जंग, तब सीना तान के तिरंगा लहरायेंगे,
और हो गये यदि शहीद रणभूमि में तो शान से तिरंगे में लिपट घर आयेंगे।
(3)
मेरे इस तन के हर एक बूंद खून का, आये काम देश की यही है मेरी योजना।
जा रहा हूँ रण में विदा करो मुझे प्रिये, मैं खाक हो जाऊँ तो पति खोया मत सोचना।
मर भी गया तो मैं अमर हो जाऊँगा मुझे, देखना तुम मन में बाहर मत खोजना,
मातृभूमि के लिए हो जाऊँ मैं शहीद तो भी माँग से तुम अपना सिन्दूर मत पोंछना।
(4)
मेरा भी बहा है लहू मातृभूमि के लिए, ये सोच फक्र से मेरा भी ऊँचा सिर हो गया।
दे रही है साँसे दगा दोस्तों विदा दो मुझे, जिन्दगी का पूरा मेरा ये सफर हो गया।
रक्षाबंधन के दिन पूछे मेरी बहना कि आया नहीं भैया मेरा ओ किधर खो गया,
तब मेरे दोस्त मेरी बहना से कहना तू, देश के लिए तेरा भाई अमर हो गया।
(5)
आन, बान, शान तू ही, धरम-ईमान तू ही, ईसा, अल्लाह वाहेगुरू और भगवान है।
तू ही प्रकाशपर्व, होली ,क्रिसमस, दीपावली, तू ही तो हमारे लिए रोजा-रमजान है।
देश तुझे अर्पित तन-मन-धन सब, तू ही हमारी खुशियां होठों की मुस्कान है,
एक बार मिले जिन्दगी की बात कौन कहे, मिले लाखों बार भी तो तुझपे कुर्बान है।
वीरेन्द्र ‘सरल‘
बोड़रा (मगरलोड़)
जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)
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पद्मा मिश्रा
- 15 अगस्त -स्वतंत्रता दिवस --
राष्ट्र ध्वज के प्रति,,,,''
भारत के गौरव-दीप,जाग्रति के नव स्वर,
है नमन तुम्हें ओ राष्ट्र ध्वजा उन्नत भास्कर.
सागर की लहराती लहरों के नर्तन पर,
तुम अडिग हिमालय से ,अखंड एकता -शिखर.
जन-मन की आशाओं के कोमल भाव सुमन
तुमने ही दिया विश्व को नव जीवन-दर्शन
जो तीन रंग में लहराता वैभव तेरा,
है स्नेह सुधा सिंचित भारत की पुण्य धरा.
अभिमान शहीदों की बलिदानी गाथा. ,
केशर रंजित तव, उन्नत करते हो माथा.
लहराती हरियाली खेतों की सीमा पर,
गुन गुन गाती समृद्धि, शक्ति के गीत प्रखर.
वह सत्य अहिंसा प्रतिबिंबित तेरे पट पर,
तुम शांति दूत ,सादगी, प्रेम के जीवित स्वर,
इतिहास, सभ्यता का करते हो अभिनन्दन,
है चक्र सुदर्शन करता सबका दिग्दर्शन.
अब गूंज रहा सब और समीरण के रथ पर,
जन-गण-मन अधिनायक जय हे!'' दीपित स्वर.
तुम अमर,समय के पथ पर, तेरा ही वंदन,
हे क्रांति-दीप!,तव अभिनन्दन, चिर अभिनन्दन.
---
जाग रहा है मेरा भारत
जाग रहा है मेरा भारत
एक नया संकल्प ,नया दम
नए लक्ष्य की ओर चलें हम ,
आदर्शों के दीप जलाकर ,
नए सूर्य को आज गढ़ें हम,
जन-मन ने फिर आज चुना है -
विश्वासों का नया मुक्ति-पथ,
जाग रहा है मेरा भारत !
फिर अतीत से वर्तमान तक,
संवर रहा है एक नया पुल ,
नव-विकास के दीप जलेंगे
जो था पथ-दुर्गम,तृण संकुल,
विश्व चकित हो आज देखता ,
भारत का गौरव,नव-जनमत ,
जाग रहा है मेरा भारत !,
सौंप दिया है हमने तुमको,
अपने सपनों ,उम्मीदों को,
देश जगेगा - देश बढ़ेगा
चुनौतियों को विजित करेगा,
धरा-गगन तक गूंज रहा है,
जय भारत माँ,जय प्रिय भारत !
!जाग रहा है मेरा भारत !
--पद्मा मिश्रा ,जमशेदपुर
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बच्चन पाठक 'सलिल'
व्यंग्य-कविता
अनशन तेरे रूप अनेक
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पुराकाल से चली आई है
अनशन की प्रथा
और इसके रूपों में
होते रहे हैं कलात्मक परिवर्तन ।
पार्वती ने अनशन में
छोड़ दिया था पत्तों को भी चबाना
और अपर्णा कहलाई थी
उनकी कामना भी सिद्ध हो पाई थी ।
महर्षि विश्वामित्र के अनशन से
सिंहासन भी घबराया था
और एक चतुर अभिनेत्री को भेज
महर्षि का अनशन तुड़वाया था ।
अनशनकारी बुद्ध का अनशन
किसी सुजाता ने खीर खिलाकर
तुड़वाया था,
तब संसार ने एक नया दर्शन पाया था ।
आज का अनशनकारी
जंतर मंतर पर जाता है
या रास्ता जाम कर
मीडिया में छा जाता है ।
सभी अनशनकारी
गाँधी नहीं बनते
क्योंकि अनशन का मूलमंत्र है सत्याग्रह
दुराग्रही अनशन कर नहीं सकते ।
बिना समझे बूझे स्वार्थवश
जो अनशन पर जाता है
वह मीडिया में तो चलता है
पर जोकर बन जाता है ।
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रचनाकारों से
---------------
आप सृजक हैं, सृजन करें
नूतन भावों से काव्य भरें
पर वादों के कर्दम से
बचें बंधुवर आप ।
ले पुस्तक से अंध ज्ञान
अनुभवहीन उतना ही जान
पोथी पढ़ योगी बनने का
आप न झेलें पाप ।
सृजन लोक-मंगल के हित हो
राजनीत से अलग मित्र हो
पुरस्कार पद हेतु नहीं हों
साधक संकल्पित जाप ।
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लोकनाथ ‘ललकार’
आज़ादी
आज़ादी !
तू बेवफ़़ा हो गई,
स्वराज में
सुराज का हिन्दुस्तान
बन न सका !
मानों तू बर्बादी हो गई,
तेरे शोहबतमंद
भारत माँ की संतान
बन न सका !
विषधरों के विष
और
घड़ियालों के आँसू लेकर
कपूत भी
मुलाजिम हो गए,
पर
हिन्दुस्तानी होकर भी
हिंदुस्तान के आवाम के लिए
वह इंसान
बन न सका !
जिम्मेदार कौन है ?
संस्कृति गई भाड़ में,
आग लगी संस्कार में,
चरित्र हुआ गौण है !
अबलाएँ आज
तार-तार हो रहीं,
फिर भी
आधुनिकाएँ
क्यों मौन हैं ?
रूपहले पर्दों की
टीआरपी के लिए
सबलाएँ
बिंदास बिखर जातीं हैं !
इस
अश्लीलता की अदा,
नग्नता की नज़ाकत का
जिम्मेदार कौन है ?
000000000000000
गुमनाम पिथौरागढ़ी
ये तो गूंगों की नगरी है भैया जी
सरकार हमारी बहरी है भैया जी
दंगों में दोस्त दोस्त क्यों मरते हैं
प्यार मुहब्बत भी बकरी है भैया जी
राजा को वनवास कहाँ अब मिलता है
आस लगाये अब शबरी है भैया जी
दिखावटी का अफ़सोस जताता है वो
वो शख्स बड़ा ही शहरी है भैया जी
कुछ खत जले कहीं जब शहनाई गूँजी
आशिक की डूबी गगरी है भैया जी
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झोपड़ी को डुबाने निकले
सारे बादल दीवाने निकले
खेत घर हो गए बंजर से
बच्चे बाहर कमाने निकले
द्रोपदी सी प्रजा है बेबस
जब से राजा ये काने निकले
आदमी भूल आदम की पर
पाक खुद को बताने निकले
जब्त गम को किया तब हम भी
इस जहां को हँसाने निकले
माँ को खोया तो समझा मैंने
हाथ से जो खजाने निकले
---.
1
सूरज बुझाने की कोशिश में
जुगनू लगे देख साजिश में
तेरा पता था लिखा जिसपे
भीगा वो परचा भी बारिश में
चुपचाप तुम मय पियो वाइज
क्यों रहते हो यूँ नुमाइश में
ना पा सकी नौकरी विधवा
देनी थी इज्जत सिफारिश में
2
उन फाका मस्त फकीरों की हस्ती ही कुछ ऐसी थी
हाँ माल पुवे सब फीके थे मस्तीही कुछ ऐसी थी
देख जहर ये नफ़रत का फैला है अब तो शहरों में
नफ़रत दूर करे नानक की बस्ती ही कुछ ऐसी थी
जीवन है इक सोन चिरैया अब उलझी खुदगर्जी में
ढाई आखर सीखे न ख़ुदपरस्ती ही कुछ ऐसी थी
चूड़ी गुड़िया बहनों की बस्ता भी था भाईयों का
कीमत यौवन की महँगी या सस्तीही कुछ ऐसी थी
टेबिल कुर्सी जूठे बर्तन या हों सबकी गाली ज्यों
बातें सबकी यहाँ-वहां पर डसती ही कुछ ऐसी थी
3
तुमने पुरखों की हवेली बेच दी
शान सुख दुःख की सहेली बेच दी
जिस्म के बाजार ऊंचे दाम थे
गांव की राधा चमेली बेच दी
गन्दगी बीमारी के ही दाम में
मिलके ये ऋतु अलबेली बेच दी
बस्ता बचपन और कागज़ छीन कर
तुमने बच्चों की हथेली बेच दी
गांव में दिखने लगा बाज़ारपन
प्यार सी वो गुड की भेली बेच दी
4
तेरी गली
है दलदली
ये जिन्दगी
सब बांच ली
भ्रष्टों की तो
खेती फली
तकदीर तो
है मनचली
सरकार तो
है दोगली
5
वो हमारी आँखों की अर्जियां समझती हैं
है लिखी जो दिल पे वो पोथियाँ समझती हैं
सिर्फ झूठे वादों से पेट तो भरेगा ना
भूख की जो भाषा है रोटियां समझती हैं
भेड़िये भटकते हैं शहर है कि जंगल ये
आँखें हों जो भूखी तो लडकियां समझती हैं
शाह खोये हरमों में क्या करे रानी अब
दर्द है जो रानी का दासियाँ समझती हैं
बिगड़े से रईसों सी आँधियों की फितरत है
बेबसी छप्पर की कब आंधियां समझती हैं
आदमी भला लगता आता जो बगीचे में
फूल कौन तोड़ेगा डालियाँ समझती हैं
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निधि जैन
एक दिन बोले पेड़ ये हमसे सुन लो ओ प्राणी
क्यूँ करते हो तुम हम सबकी ख़त्म कहानी
क्या भूल गए हो
जरूरत का सारा सामान तुम्हें हमसे ही मिलता है
और धरती का हर फूल हमसे ही खिलता है
जीवन में ऑक्सीजन का अमृत तुम्हें हम ही देते हैं
और कार्बन- डाई- ऑक्साइड का जहर भी हम खुद में समा लेते हैं
हम ही देते हैं तुम्हें अनाज, सब्जी, मसाले और फल
हमारे ही कारण से मेघ बरसाते हैं अपना जल
चिड़ियों की चहचहाहट हमसे
कोयल की कहकहाहट हमसे
हमसे ही बजता संगीत है
हमसे ही बनता हर गीत है
हमने ही तो दी हैं जग को ये खुशबूयें सारी
हमसे ही तो हैं रंगीन फ़िज़ा ये तुम्हारी
फिर भी हमें दिन पर दिन तुम काट रहे हो
खुद अपनी ही ज़िन्दगी की खुशियों को दीमक की तरह चाट रहे हो
भूल चुके हो तुम अपनी मानवता को
पछाड़ रहे हो दानव की दानवता को
हम नहीं होंगे गर तो , तुम करोगे फिर फ़रियाद
क्यूंकि फिर न तुम बचोगे , न ही तुम्हारी औलाद
वृक्षों का गर अकाल पडेगा
तो धरती पर महाकाल मचेगा
बिखर जायेंगी वादियाँ सारी
बेलगाम होंगी ये नदियाँ सारी
कहीं बाढ़ आएगी , कहीं पड़ेगा अकाल
प्रकृति का हर रूप होगा फिर महविकराल
कुपित होकर सागर फिर लहर उठाएगा
सब ओर सुनामी का कहर मचाएगा
हर तरफ होगा बस पानी पानी
याद करने तक को न बचेंगी दादी- नानी
मौत का तांडव होगा चारों ओर
सूने पड़ जायेंगे धरती के सारे छोर
हम न रहेंगे तो कुछ न बचेगा
पछताने का भी तुम्हारे पास समय न बचेगा
इसीलिए
हे मानव
वक़्त है , संभल जाओ अब भी
अपनी ज़िन्दगी का एक- एक पौधा लगाओ तुम सब भी
प्रण करो नहीं करोगे हमारा तुम विनाश
बस फैलाओगे जगत में हरियाली का प्रकाश
हरियाली के प्रकाश में ही मिलेगी तुम्हे रिद्धि - सिद्धि
यही कहलाएगी तुम्हारे जीवन की अनुपम निधि
यही कहलाएगी तुम्हारे जीवन की अनुपम निधि
एक गुमनाम कवियत्री
निधि जैन
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राजेश कुमार पाठक
चुनो उसे जो सुने सभी का
जागो भारतवासी वरना वक्त नहीं बदलेगा।
भ्रष्ट व्यक्ति के हाथों अब देश नहीं सम्भलेगा॥
देश नहीं सम्भलेगा देखो बना भ्रष्ट सिंहासन।
लोगों को तो देखो, कैसे लेटे हैं मरणासन्न॥
मरणासन्न लोगों में कुछ तो अब भी जान है बाकी।
अब तक देखते आया पर अब दिखला दे एक झाँकी॥
दिखला दे एक झाँकी, लोग तुम्हें पुकार रहा है।
मानवता के नाम पर अब तुम्हें स्वीकार रहा है॥
कोई तो आँखें खोलो और देश की सुध ले डालो।
वीर भीम अर्जुन की धरती, कोई तो इसे सम्भालो॥
इस पुकार को सुनने वाला क्या कोई नहीं रहे हैं।
मत देखो पर सच है, अश्रुधार बहे हैं॥
अश्रुधार से बह न जाये धरती की धरती सारी।
राष्ट्र के हित में मर-मिटने की करनी है तैयारी॥
इसी बीच एक सिसकी ने मेरी आँखें खोली।
‘भारत माता की जय' कहकर निकली एक की बोली॥
इतने पर ही मरणासन्न को मिले प्राण की वायु।
उठे इस तरह मानों कि दिख रहे सभी दीर्घायु॥
एक-एक कर पूछा मुझसे, क्यों जगा दिया, था सोये।
मैंने कहा- कुछ आशाएँ रखा हूँ संजोये॥
कैसी आशाएँ हैं तेरी, जो मुझे जगाने आया ।
लड़ना है तो बतलाओ, कैसा कृपाण तू लाया ?
अगर कृपाण से लड़ना होता, क्यों तुझे भला जगाता।
उस कृपाण से लड़ने वाला चहुँओर मुझे मिल जाता॥
तुम्हें जगाया इस हेतु कि और लोग भी जागें।
समझाओ उनको कि दौलत पीछे ना भागें॥
दौलत नहीं कि देह बेच और राष्ट्र बेच कमाएँ।
मानवता के नाम पर अब अपना धर्म निभाएँ॥
क्या है धर्म और क्या अधर्म मन खुद बतला देता है।
एक वोट की चोट से अब सिंहासन हिल जाता है॥
चुनो उसे जो सुने सभी का जैसे कोई संत।
अब भ्रष्ट आचरण करने वालों, होगा तेरा अंत॥
ईमान में इतनी ताकत है
जन सहयोग हो जिस शासन में, वह शासन ही टिकता है।
वह भी क्या न्याय रहा जो पैसे पर बिकता है॥
पैसे दो तो काम बना, ना दो तो काम बिगड़ता है।
लेने वाले कुछ तो सोचो, यह पैसा नहीं ठहरता है॥
ठहरा जो कुछ इस धरती पर, ईमान तेरा कहलाता है।
पर मत भूलो इस धरती पर पैसा तो आता - जाता है॥
आता है फिर जो चल जाता, वह और कुछ नहीं नश्वर है।
जो टिक जाता इस धरती पर, वह ईश्वर है, वह ईश्वर है॥
क्यों नश्वर के फेरे में, ईश्वर को दूर किये जाते।
ईमान ही तेरा सब कुछ है, इस धर्म को अब जिये जाते॥
ईमान में इतनी ताकत है, औरों को ताकत देता है।
क्या कभी किसी ने देखा है? ईमान भी कीमत लेता है॥
उग आए न बंदूक
हर खेत को पानी हर हाथ को काम मिले।
बहुत हो गया अब तो दूर हों गिले-शिकवे॥
खेत है बंजर पड़ा हाथ है खाली।
फिर भी कहते अपने को राष्ट्र का माली।
राष्ट्र का माली है वह जो सींचे हर खेत को।
वक्त है बदल रहा अब तो हम सचेत हों॥
जन-जागरण का रथ पहुँचा हर खेत में।
भूख ही भूख दिखती आज हर पेट में॥
बंजर खेतों में उग आए न कहीं आज बंदूक।
देखो होने देना मत ऐसी कोई चूक॥
कोई चूक से बचनी है तो एक जलनीति बनाओ।
राजनीति और कूटनीति को इससे दूर भगाओ॥
ऐसी करो व्यवस्था कि कृषक मित्र कहलाओ।
पानी तो पानी है तब दूधों से नहलाओ॥
रोटी यहाँ मिलेगh
आज देखो उमड़ा जन सैलाब है।
इसलिए कि टूटा उनका ख्वाब है॥
ख्वाब था कि देश में हो क्रान्ति।
दुनिया भी आज लोहा मानती॥
फिर क्या हुआ जो आज यह पिछड़ रहा।
अपनों ही अपनों से बिछड़ रहा॥
दूर देश जा रहा, मुझे तो तुम बता।
रोटी यहाँ मिलेगी बताता हूँ मैं पता॥
बैठो न हाथ जोड़े हो जाओ तुम खड़ा।
सोचो न काम कैसा छोटा हो या बड़ा॥
काम की शुरुआत में हर काम है छोटा।
मत भूल जो बाहर गया मुश्किल से है लौटा॥
वे लौट आते हैं, उन्हें जब याद आती है।
बिछड़े बहन और माँ की जब फरियाद जाती है॥
क्यों मिलती नहीं चुनौती
कितनी इस देश में असमानताएँ हैं।
बिलख रहे हैं भूखे बच्चे और रोती माताएँ हैं॥
क्यों झेले हम इस समाज को जहाँ पे इतनी खाई हो।
फिर क्यों भूले हम इस समाज को जिसने जान गवाँई हो॥
इस समाज में सब जीते हैं, अच्छे और बुरे भी।
किसी के हाथ कलम हैं तो किसी के हाथ छुरे भी॥
छुरे और तलवार से गर तस्वीर बदलती।
सच कहता हूँ, कलम की जरूरत और नहीं रह पाती॥
वर्षों बीत गए फिर भी दिनकर की याद हमें आती।
श्वान व भूखे बच्चे टूटे, फेंकी जाय चपाती॥
पहले श्वान कि भूखे बच्चे मर्म है कितना गहरा।
जो समझा वह ज्ञानी है, तब घाव कभी न ठहरा॥
हे समाज के कर्णधार क्यों मिलती नहीं चुनौती।
देखो आज जगे हैं सब, अब समझो नहीं बपौती॥
आज समाज जगा है अब भाग खड़े हो जाओ तुम।
अंधकार फैलाये तुम, अब हो जा तुम, उसमें ही गुम॥
इंसानों की इस धरती पर
दशा देश की क्या है अब भी क्यों नहीं तुम सोचते।
बहते हुए इन आंसुओं को क्यों नहीं तुम पोंछते॥
इंसानों की इस धरती पर क्यों कराह रहा इंसान।
पहले तो सब ठीक-ठाक था, अब क्यों बना है यह श्मशान॥
धरती को श्मशान बनाने वाले तेरी खैर नहीं।
माना कि दंगा-बलवा में मेरा कोई पैर नहीं।
जयपुरिया पैरों से चल कर उन्हें आज जगाऊँगा।
इंसानों को मारा जिसने, मार उसे भगाऊँगा॥
खोई इज्जत मांग रही
कुछ को नसीब है यहाँ बंगला और मोटर।
कुछ को रोटी मिलती है अपनी इज्जत खोकर॥
खोई इज्जत मांग रही अब धरती की अबला नारी।
लौटा सकते तो लौटा दो पर बता न अपनी मजबूरी॥
हे! इस समाज के कर्णधार धिक्कार तुम्हें, धिक्कार तुम्हें।
कहते हो बिक ना पायेगी, पर बिक जाती है यहाँ जिस्में॥
मजबूर जिस्म हो भले मगर अब और नहीं बिक पायेगा।
कानून भले कमजोर पड़े अब क्रेता ना टिक पायेगा॥
जिस्म का गोरखधंधा अब और नहीं फूलेगा।
सच कहता हूँ वह मानव अब फाँसी पर झूलेगा॥
अंतर्मन की यह व्यथा।
चोट खाती सर्वथा॥
किसी का चूल्हा ना जलता तब इनकी आँखें गीली हैं।
पर मत भूलो अब इस समाज को जिसने आँखें खोलीं हैं॥
स्थिति विषम को अब और नहीं झेलेंगे।
जब जला नहीं चूल्हा-चौका तब और कहीं खा लेगें॥
खायेंगे उतना ही कि अब तन-मन टिक पायेगा।
माना इसे चुनौती तन-मन अब बिक ना पायेगा॥
आजादी की बातें करता फिर भी पेट नहीं है भरता।
पेट के लिये ही सब आज क्या नहीं करता॥
अब भूख रोटी की हमें सता रही।
अधिकार मांगो अपना यह बता रही॥
दशा देश कh
दशा देश की देख-देख कर मन अब डोल चुका है।
सत्य की बहती आँधी को क्या कोई रोक सका है?
कभी रुका हो अब न रुकेगा सत्य-जागरण का यह रथ।
काल समय अब नहीं बचा है, इसे गँवाना नहीं व्यर्थ॥
सीमाओं पर हैं चौकस क्यों मन में आई बेवसी
जबाव दो जबाव दो जबाव मांगती यह कुरसी॥
कुरसी वह सिंहासन है जो सिंह की शक्ति रखता है।
सब ठीक-ठाक अगर हो तो अजब की भक्ति रखता है॥
पर जाति धर्म और क्षेत्र के झगड़े में जो हमें उलझाता है।
गौर करो वह खुद क्यों न उस दलदल में फंस पाता है॥
मेरे भोलेपन का लाभ बरबस वह ले लेता है।
नासमझों की टोली में जब नेता वह कहलाता है॥
नहीं चाहिए ऐसा नेता लोगों से लोगों को दूर करता।
हैवान और इंसान के अंतर, को जो नहीं समझता॥
इस अंतर को समझाने देखो समूह निकला है।
मत सोचो कि यह समूह अब दीन-हीन अबला है॥
देखो-देखो इस समूह को कैसे-कैसे प्रण लेता।
आवाज दूर से आई भी तो आज उसे वह सुन लेता॥
युवा देश कk
युवा देश का वह भविष्य है जो सपने देखा करता है।
राष्ट्रवेदी पर मिट-मिट कर इतिहास लिखा करता है॥
हो भूत भविष्य या वर्तमान,
इनकी चाहत है स्वाभिमान।
स्वाभिमान टकराया जब,
अंगारे बरसाया तब॥
इन अंगारों को सहेजकर,
उन्हें दिशा देनी है।
नजरों को तो देखो,
कितनी वह पैनी है॥
इन पैनी नजरों में हम,
अलग ज्योति अब डालें।
अब तक दूर रहे पर,
अब सत्ता वही सँभालें॥
जोश में होश ने खो बैठें,
मेरी नजर रहे उनपर।
हे कर्णधार तुम उमर दराज,
बैठो आकर अपने घर पर॥
सत्ता का किया बहुत ही पान,
अब लगा दे उस पर खुद विराम।
मौन तोड़ दाs
रोज छपते हैं समाचार, हो रहे देश में अत्याचार।
पता नहीं जिम्मेवार कौन?
सारी जनता बैठी है मौन॥
इस मौन को आज मैं तोड़ने चला हूँ,
माना कि कीचड़ों में आज मैं पला हूँ।
मौन से फैलता अन्याय है,
मौन तोड़ दो तो देखो न्याय है॥
मौन तोड़ दो तो बन जाये वह आवाज,
पक्षियों को मिल गया जैसे हो परवाज़।
पहले मिटा दूँ आज मैं छोटी सी भ्रान्ति,
कभी-कभी मौन कहलाती है क्रान्ति॥
जो पता नहीं चला वह क्रान्ति है मौन,
जो पता चला बता वह क्रान्ति है कौन?
जो पता चला, क्रान्ति आवाज है तेरी,
तोड़ दो अब मौन, यह पुकार है मेरी॥
जंजीरों को है तोड़नk
इंसाफ के तराजू पर है,
देश को अब तौलना।
मुश्किल हो फिर भी,
हमें है सर उठा के बोलना॥
उन नौजवानों को हमें,
अब साथ लेना है।
जिन्हें देश के लिए,
अब बलिदान देना है॥
जागो, उठो लो संकल्प
हमें जंजीरों को है तोड़ना।
मुश्किल हो फिर भी,
हमें है सर उठा के बोलना॥
दफ्तर-दफ्तर जा कर देखा
जो जहाँ हो अपना काम करो।
मत भारत को बदनाम करो॥
हैं आशाएँ तुमसे बहुत बड़ी।
समस्याएँ भी हैं बहुत पड़ी॥
दफ्तर-दफ्तर जा कर देखा, चर्चाएँ होतीं बड़ी-बड़ी।
काम समय पर कर डालें, पर आदत ऐसी नहीं पड़ी॥
कैसे आदत में हो सुधार, वे लेते हैं सब कुछ उधार।
लेते उधार देते उधार, और बन जाते है कर्जदार॥
तब कर्जों की चर्चा होती, उसका निपटारा कैसे हो।
पब्लिक से लूटे मालों का समुचित बंटवारा कैसे हो॥
समुचित बंटवारा कैसे हो, है यहाँ छिपा भी न्याय।
इसमें भी वे ढूंढ़ते, नित नये-नये उपाय॥
ऐसा नया उपाय कि हिस्सा ज्यादा हो।
पूरे हिस्से में उनका हिस्सा आधा हो॥
जब पब्लिक करती है विरोध।
तब काम में लाते हैं अवरोध॥
काम आज नहीं होगा जाओ कल फिर आना।
कागज दिये हो आज तो कल उसे तुम पाना॥
यह कल कब आयेगा, भगवान ही जाने।
काम नहीं करने का नित गढ़ते नये बहाने॥
आज नहीं अफसर कल नहीं किरानी बाबू।
सच कहता हूँ लोगों हो गये सब बेकाबू॥
इस लेन-देन की आदत ने शासन की छवि बिगाड़ी है।
जो कल आये थे कुरसी पर अब उनके घर भी गाड़ी है॥
पहले जब कुरसी थी नहीं, चाहत थी मिलती नौकरी।
जीवन हो जाये सुरक्षित चाहे मिलती दो कौड़ी॥
क्यों परिवर्तन आता है, उनके शासन में आने से।
क्यों भूख नहीं मिटती, तब अन्न के दाने से॥
कैसे आदत में सुधार हो, आदत जब इतनी गहरी है।
आवाज दे फिर भी न सुने, जब जनता ही इतनी बहरी है॥
न्याय जहाँ बिक जाता, कुछ और नहीं बच जाता है।
बीच भँवर में जा कर, जैसे नाव कोई डुबोता है॥
मिलता है न्याय तिजोरी पर।
न कि फूटी कौड़ी पर॥
गर न्याय तुझे लेना है तो, पहले कुछ तो देना होगा।
भूल जाओ वह आम व्यक्ति, या बार्डर का सेना होगा॥
संसद की कुरसी बिक चुकी, हुई न्याय की कुरसी बिकाऊ।
इस समाज में दिखता नहीं कुरसी कोई टिकाऊ॥
चारों तरफ अंधेरा छाया, स्थिति आज अराजक है।
इस समाज में छिप कर बैठा, ढूंढ़ो कहाँ सुधारक है॥
राजेश कुमार
प्रखण्ड सांख्यिकी पर्यवेक्षक
झारखण्ड
0000000000000
सुमन त्यागी ”आकाँक्षी”
प्रभात पर्व
नव प्रभात के मधुर पर्व पर
सद्यः स्नात ऊषा की लाली
चली आ रही निशा जलधि से
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
पट रक्त मणि, खग-वृन्द सुशोभित
अलक-रश्मि छितरित जनभावन
कोयल दूती देत सन्देशा
कुहू-कुहू,कुहू-कुहू
आगवानी जनमानस राचत
ज्यों देवी निज गेह पधारत
लीपे,बुहरे चौका अँगना
चहके-चहके, चहके-चहके
अर्घ्य वारि, चन्दन तिलक सुवासित
चर-अचर कलरव उल्लासित
प्रभात पर्व का श्री गणेश ध्वनि
जय-जय,जय-जय
-----.
आकाँक्षा
कुछ कर गुजरना है
कुछ कर गुजरना है
इस जिन्दगी में, इस जिन्दगी में
लोग आते हैं और चले जाते हैं
हम भी आये हैं और चले जायेंगे
मगर कुछ करके जाना है
नया करके जाना है
इस जिन्दगी में, इस जिन्दगी में
जो आये थे वो चले गये
कुछ कर गये माना सही
उस पर अमल करना नहीं
रास्ता बनाकर,पगचिह्न अपने छोड जाना है
इस जिन्दगी में, इस जिन्दगी में
विरासतें अपनी सभी यूं छोड जाते
ऐसी ही विरासत अपनी भी निशानी हो
अब तो इस जिन्दगी की इतनी सी कहानी हो
लोगों में बस नाम अपना छोड जाना है
ऐसा तो कुछ काम अब करके ही जाना है
इस जिन्दगी में, इस जिन्दगी में
पथ एक था उसने दिखाया
मुश्किलों में जितना उसने सिखाया
याद करते आज उसको बापू कहकर
ऐसा ही युगक्रान्तिदूत खुद को बनाना है
इस जिन्दगी में, इस जिन्दगी में
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दोस्त
गर्मी की दोपहरी के खाली समय में
चाँदनी रात के सपनों में
स्कूल बेंचों के टूटने में
क्लास के बंक होने में
टीचर्स के मजाक बनने में
एग्जाम में नकल करने में
पकड़े जाने पर पिटने में
घर पर लेट होने में
माँ की डाँट पड़ने में
जींस के फटने में
लोगों के उल्लू बनने में
रात में महफिल सजने में
बिना ताल के थिरकने में
सुट्टे का धुंआ उड़ने में
कॉफी सोप के बिल में
बाइक के चक्कर लगने में
लड़कियों के पटने में
दिलफेंक आशिक बनने में
मुसीबत से बचने में
जमाने से लड़ने में
पोस्ट को हाइप देने में
स्टेटस अपडेट होने में
फोटो टैग करने में
नौकरी की ट्रीट में
रिशेप्सन की स्वीट में
सावन की फुहार में
होली के त्यौहार में
ईद की ईदी में
क्रिसमस के केक में
चेहरे की हंसी में
आँख के आँसू में
जीत के जुनून में
जिन्दगी के विश्वास में
रिश्तों की मिठास में
एक दोस्त
होता है साथ
हमेशा
0000000000000000000
मनोज 'आजिज़'
मेरा वतन है
---------------
--
मेरी रूह मेरी जान मेरा वतन है
दिलनशीं जमीं हिन्दुस्तान मेरा वतन है
ललचाये पैग़म्बर भी जहाँ जन्म के लिए
ख़ुदा की दास्तान मेरा वतन है
ज़ज्बों की, फ़क़ीरों की, रूहानियत की जगह
फिरकों में भी हमनाम, मेरा वतन है
गिरफ़्त की कोशिश न क़ामयाब हरगिज़ हुआ
हमेशा आज़ाद निशान मेरा वतन है
दरवाज़े जहाँ हर नेक के लिए खुला हो
मोहब्बत का पैग़ाम मेरा वतन है
पता- आदित्यपुर- २,जमशेदपुर 9973680146
0000000000000000000
वीणा पाण्डेय
रिश्ता है यह सबसे प्यारा
राखी का ये धागा भैया
,धागा मात्र ना इसे समझना
सुख-दुःख में तुम साथ निभाना
मन -आँगन में सदा संजोना
तेरे ललाट पर रोरी लगाकर
मोदक अपने हाथों से खिलाकर
कलाई पर जब राखी बाधें बहना
चेहरे पे अमीट विश्वास लाकर
विश्वास का ये धागाभैया
धागा मात्र ना इसे समझना।
सुख-दुःख में तुम साथ निभाना
मन -आँगन में सदा संजोना ,
तेरी खुशी में खुश है बहना
दुःख में तेरे रोये नयना ,
ममतामयी बहन का आँचल
स्नेह-धूप की छाँव समझना
स्नेह भरा धागा यह भैया,
धागा मात्र ना इसे समझना।
सुख-दुःख में तुम साथ निभाना
मन - आँगन में सदा संजोना ,
माथा चूम - बलैयाँ लेती
कामयाबी पर जश्न मनाती
बढ़ो सदा जीवन के पथ पर,
मन्नत माँग दुआयें देती
शुभ-संकेत ये धागा भैया
धागा मात्र ना इसे समझना।
सुख-दुःखमेंतुम साथ निभाना
00000000000000000000000
क़ैस जौनपुरी
अब भुगतो!
हां, हम समझ गए
क़ियामत आएगी
हमें आग में जलाएगी
हम डर गए
अब, बस करो ना
इतना ही कब्ज़े में रखना था
तो बनाया ही न होता
किसने कहा था, हमें बनाओ
खुराफ़ात तो आपही को सूझी थी ना
अब भुगतो!
Qais Jaunpuri
B-406, Shiv Shakti,
J. P. Road, Andheri (W),
Mumbai – 400053
qaisjaunpuri@gmail.com
0000000000000000
नन्द लाल भारती
असली आज़ादी का बिगुल बजाओ
मिली आज़ादी तन के गोरे मन के कालों से
बदले अनगिनत हुए शहीद
बही थी लहू की नदियां
पर क्या दुखद एहसास ,
असली आज़ादी की आस
न हुई पूरी अपनों से
आज़ाद हम और हमारा देश
असली आज़ादी कोसो दूर
स्याह होती रतियाँ .......
शोषित अदने आदमी की छाती
जैसे कब्रस्तान
नित मरते सपनों का दर्द पी रहा
अदना इंसान
देश आज़ाद क्या हुआ
भरने लगी विदेशी बैंकें
बढ़ता गया भ्रष्टाचार घिनौना
जीवन हुआ कठिन अदने का
कांट लगने लगा बिछौना .......
बड़ी उम्मीद थी आज़ादी से
सरकार मूलभूत जरुरतों ,
कौशल विकास पर देगी ध्यान
हुआ अब तक विपरीत
शिक्षा माफिया का षडयंत्र भयावह
डंसने लगा नवयुवकों का भविष्य निर्माण
जातिवाद, क्षेत्रवाद ,नक्सलवाद ,
आतंकवाद की ऊँची तान
बहुजा हिताय बहुजन सुखाय का
नहीं हुआ अपनी जहां में भान .......
लोकतंत्र के पहरेदारो
न होगा बर्दाश्त अब
जातिवाद, क्षेत्रवाद ,नक्सलवाद ,
आतंकवाद,अत्याचार और भ्रष्टाचार
ना लो और अग्निपरीक्षा
अदना तन जायेगा जब कर देगा बहिष्कार .......
सत्ताधीशों कसम है तुम्हें अमर शहीदों की
जनहित -लोकहित में
कर्तव्य पथ पर डट जाओ
चेहरा बदलना छोड़ दो
संविधान को देश का धर्मग्रन्थ बनाओ
सभी है आज़ाद अपनी जहां में
असली आज़ादी का बिगुल तो बजाओ .......
---.
हठधर्मी
कल की ही तो बात है ,
वफ़ा, विश्वास,समर्पण के बदले
जड़ा गया माथे पर
भरी महफ़िल में कांटों का ताज
और निरूपित हो गया हठधर्मी
अफ़सोस नहीं कोई,गुमान है
हठधर्मिता पर आज भी
सच्चाई और हक़ का अदना,
सिपाही होने के नाते …।
दुःख की कोई ख़ास वजह नहीं
मैं और मेरे जैसे लोग जानते है
जहां में आरोप -प्रत्यारोप का जहर
परोसा जा रहा है युगों से
सुकरात को भी दिया गया था …।
अभिव्यक्ति की आज़ादी के युग में तो
आज भी परोसा जा रहा है बेख़ौफ़
भरपूर समर्थन की छाँव तले ,
अपनी जहां में सत्य आज भी
दब जाता है ,हक़ लूट जाता है
हकदार टूट और बिखर जाता है परन्तु
हक़ सदा के लिए दबा नहीं रह जाता
उतरा ही जाता है वक्त की लहरो में
सत्य और हक़ का शंखनाद करने वाले
वास्तव में हठधर्मी है तो ,
मुझे भी यह जहर पीने में,
तनिक भय नहीं …।
-----
जातिवाद का नरपिशाच
मैं कोई पत्थर नहीं रखना चाहता
इस धरती पर
दोबारा लौटने की आस जगाने के लिए
तुम्ही बताओ यार
योग्यता और कर्म&पूजा के
समर्पण पर खंजर चले बेदर्द
आदमी दोयम दर्ज का हो गया जहां
क्यों लौटना चाहूंगा वहाँ
रिसते जख्म के दर्द का ,जहर पीने के लिए
ज़िन्दगी के हर पल
दहकते दर्द, अहकती सांस में
भेदभाव के पहाड़ के नीचे
दबते कुचलते ही तो बीत रहे है
ज़िन्दगी के हर पल
भले ही तुम कहो भगवानों की
जन्म-भूमि,कर्म भूमि है ये धरती
प्यारे मेरे लिए तो नरक ही है ना
मानता हूँ शरद,हेमंत शिशिर बसंत
ग्रीष्म वर्षा ,पावस सभी ऋतुएं
इस धरती पर उतरती है
मेरे लिए क्या ?
आदमी होकर आदमी होने के
सुख से वंचित कर दिया जाना
क्या मेरी नसीब है
नहीं दोस्त ये इंसानियत के दुशमनों की साजिश है
आदमी होने के सुख से वंचित रखने के लिए
तुम्ही बताओ किस स्वर्ग के सुख की,
अभिलाषा के लिए दोबारा लौट कर आना चाहूंगा
जहा आदमी की छाती पर
जातिवाद का नरपिशाच डराता रहता है
ज़िन्दगी के हर पल ………………
डॉ नन्द लाल भारती
00000000000000000000
प्रेम मंगल
लोकतंत्र पर व्यंग्य
लोकतंत्र की परिभाषा को
क्या तुम जानो क्या पहिचानो
अम्बर से भी ऊंची है यह
समन्दर से भी गहरी है यह।
वसुधाष्पर ज्ञान नहीं है किसी को इसका
सात समन्दर तक भी प्रचार है इसका ।
हिन्दी भाषा में जनता का शासन अर्थ है इसका,
अपना अपना भाषण देना मर्म है इसका,
जिसकी लाठी भैंस उसीकी धर्म है उसका,
लूट-खसोट कर माल बटोरना कर्म है इसका।
तुम्हारी भूमि मेरी भूमि है,
तुम्हारा माल मेरा माल है,
मेरा माल मेरा कमाल है,
इसके अन्दर मेरा कपाल है।
जहां चाहूं वहां ही मैं जाऊं,
जो चाहूं मै वह कर डालूं,
गांजा,भांग औ चरस मैं खाऊं,
संस्कारों को क्यों मैं अपनाऊं।
शासन मेरा मेरे अपने लिये है,
नियम कानून मेरे अपने ही हैं ,
कहां का भ्रष्टाचार कहां का घपला,
मिलकर चलो नहीं कोई है घपला ।
कमीशन नहीं मिला गर किसी को,
मसाला मिल जायेगा मीडिया को,
बढ़ाचढ़ा कर भरा जायेगा पेपर को,
मुख्य बना दिया जायेगा समाचार को।
लोकतंत्र है यहां सबकुछ चलता है,
मिलजुल कर खानेवाला यहीं पलता है ।
मानव जन्म की सार्थकता
जन्म मिला जब है मानव का ,
कर्म न कर ए बन्दे दानव का,
अच्छा गर कर सके न किसी का,
बुरा सोचना मत कभी किसी का ।
वफादारी गर निभा न सके जहां में,
तो जीना ना बन्दे तू गद्धारी में,
बहुत मुश्किल है नाम कमाना जहां में,
मिटती हस्ती है केवल इक पल में।
लेकर किसी से कोई बडा बनता नहीं,
देकर दान घर कभी खाली होता नहीं,
अपने लिये जीना तो मुश्किल है नहीं,
दूजों के लिये जीकर दिखाना आसान नहीं।
कन्स औ शकुनी ने बदनाम किया नाम मामा का,
कैकयी ने दुर्भाव दिखाकर आंचल गंदला किया सौतेली माता का,
हनुमंत ने सीना फाडकर विश्वास दिखा दिया रामभक्ति का,
मीरा ने प्याला पीकर जहर का दिखा दिया सच्चा प्यार श्याम का ।
नाम कमाना सच्चा धर्म है मानव का,
सद्कर्मों से सिर ऊठाना फर्ज है उसका,
कर्ज चुकाना है वसु द्वारा किये गये पालन-पोषण का,
शुक्रगुजार करना है छत देने हेतु अम्बर का।
भगतसिंह,सद्गुरु,सुखदेव गर नहीं बन सकते,
आदर्शों की पाती गर तुम नहीं लिख सकते,
सच मानो तुम जीवन अपने को सार्थक नहीं कर सकते,
धरा औ अम्बर का कर्ज कभी नहीं चुका तुम सकते।
जन्म मिला जब है मानव का ,
कर्म न कर ए बन्दे दानव का,
अच्छा गर कर सके न किसी का,
बुरा सोचना मत कभी किसी का ।
श्रीमती प्रेम मंगल
कार्यालय पर्यवेक्षक
स्वामी विवेकानन्द ग्रुप ऑफ इंस्टीट्रयूशन्स
इन्दौर (म. प्र.)
0000000000000000000000000000000
राजेन्द्र भाटिया
‘‘क्यूं होता है भ्रष्टाचार ''
बिना धरम जब धन कमाने का होता है व्यापार,
तब होता है भ्रष्टाचार।
भुला गये जब हम सारे शिष्टाचार,
तब होता है भ्रष्टाचार।
छोड़ दिया जब अच्छा व्यवहार,
तब होता है भ्रष्टाचार।
जिस समाज में भरी हो सिर्फ मारधाड़,
होता वहां है भ्रष्टाचार।
बन जाए जब आदमी का आदमी आहार,
होता है तब भ्रष्टाचार।
जब कर देते तुम अच्छी शिक्षा का तिरस्कार,
होता है तब भ्रष्टाचार।
नैतिक मूल्यों से हारकर भी, जब हम नहीं माने हार,
होता है तब भ्रष्टाचार।
अपनी झूठी शान को देखने के लिए, जब हम करें दूसरों पर आए
दिन वार, होता है तब भ्रष्टाचार।
नहीं हो जब हमें किसी के दुखः दर्द से कोई सरोकार,
होता है तब भ्रष्टाचार।
कब नहीं होगा भ्रष्टाचार?
दूसरों की भूख मिटाकर जब हम रह सकेंगे निराहार,
नहीं होगा तब भ्रष्टाचार।
दूसरों के लिए कुछ करने के बदले, नहीं लेगें जब कोई उपहार,
नहीं होगा तब भ्रष्टाचार।
हर नियुक्ति पर जब होगा, व्यक्ति होनहार और ईमानदार,
नहीं होगा तब भ्रष्टाचार
स्कूल, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में, जब दिये जाएगें अच्छे संस्कार,
जड़ से खत्म होगा तब भ्रष्टाचार।
----------------.
जीवन का सफर
जितना कम सामान रहेगा, उतना सफर' आसान रहेगा ।
उससे 'मिलना नामुमकिन है, जब तक अपना ध्यान रहेगा । ।
इच्छाएं जितनी कम होंगी, उतना ही मन शांत रहेगा
उससे मिलना नामुमकिन है, जब तक अपना ध्यान रहेगा
भोग विलास जितने कम होंगे, उतना जीवन सरल रहेगा ।
उससे मिलना नामुमकिन है, जब तक अपना ध्यान रहेगा ।।
सिमरन कर लोगे तुम जितना, उतना ही अज्ञान मिटेगा
सुख-दुःख तुमको एक लगेंगे, जब सच्चा वो ज्ञान मिलेगा
जब औरों के काम आओगे. तब-तब जीवन सफल रहेगा ।
उससे मिलना फिर मुमकिन है, जब डोरों का ध्यान रहेगा । ।
-----
रचयिताः राजेन्द्र भाटिया
पुत्र श्री खुशीराम भाटिया
27, फ्लेट नंबर 202, सीता रेजीडेन्सी,
रामगली नंबर 8, राजापार्क,
जयपुर-302004 (राज. -भारत )
ईमेलः abhatia146@gmail.com
0000000000000000000000
देवेन्द्रसिंह राठौड़
झुकने ना पाये तिरंगा, झुकने ना पाये…।
चाहे सीना छलनी हो ....ओ...
चाहे सीना छलनी हो,
चाहे गरदन कट जाये ।
झुकने ना पाये तिरंगा, झुकने ना पाये…।
आन है यारों, बान है यारों,
ये अपना ईमान है यारों,
पैदा कर लो खून में गरमी,
ये अपना सम्मान है यारों ।
ओ......आ.....
शान रहे कायम इसकी,
चाहे जान भी जाये ।
झुकने ना पाये तिरंगा झुकने ना पाये...
जान से प्यारी, जान से प्यारी,
आजादी है हमको प्यारी,
दुश्मन खाये खौफ हमेशा,
देश पे कुर्बां जान हमारी ।
ओ......आ.....
खिला रहे गुलशन अपना,
चाहे खुद क्यूं न मिट जाये ।
झुकने ना पाये तिरंगा, झुकने ना पाये...
देश ये प्यारा, देश ये प्यारा,
जान से प्यारा, देश हमारा,
हिमगिरी इसके शीश का मोती,
जग से न्यारा देश हमारा ।
ओ......आ.....
बुरी नजर जो हमपे डाले,
हमसे न बच पाये....।
झुकने ना पाये तिरंगा,झुकने ना पाये...
पता:- देवेन्द्रसिंह राठौड़ (भिनाय)
395,बी.के.कौल नगर,अजमेर
राजस्थान
Email:- dsrbhinai@gmail.com
0000000000000
रमाकान्त यादव
जब आती है याद तेरी मैं सो नहीँ पाता हूँ,
मेरी आँखो मेँ अश्क है मैं रो नहीँ पाता हूँ!
मैं जिंदगी में हर लम्हा दिल पे जख्म खाया हूँ,
अपने दुश्मनों को भी दुश्मन कह नहीँ पाता हूँ!
न जाने क्या खता हुई जो दूर मुझसे चले गए,
कैसे कहूँ तेरे बगैर मैं रह नहीँ पाता हूँ!
किस्मत, मुझे मोहब्बत हुई है ऐसे इंसा से,
"रमाकांत" जिसको मैं अपना कह नहीँ पाता हूँ!
--
मेरी मोहब्बत का ये कैसा सिला मिला?
चाह थी हँसने की आहोँ ने रुला दिया!
हमेँ गुलशन से उठाकर ले गये अजीज,
और कँटकोँ पर बेरहमी से सुला दिया!
चाहत थी जीवन मेँ कुछ और बनने की,
लेकिन तेरी चाहत ने शायर बना दिया!
--
जिँदगी जैसे ढलती शाम सी लगने लगी,
तब मेरी हर दुआ,नाकाम सी लगने लगी!
जिँदगी भर जिसके लिए आँसू बहाया था,
वही मिल जाने पर,बेदाम सी लगने लगी!
हमारा ही घर हमेँ बेगाना लगा,
हमारी हर खुशी, जब दूर हमसे रहने लगी!
मेरा ह्रदय गैरोँ से शिकवा क्या करे ऐ दोस्तोँ,
जब हमारी ही वफा ,नागिन सी डसने लगी!
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मजा आता है जीने में
जब दर्द हो यार सीने में!
खुदा है हम सबके दिल में
मक्का में न ही मदीने में!
पथ कभी आसान होगा
उस खुदा के करीने में!
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देशभक्ति काव्य:-
---------
राज दिल में छिपायें भी तो कैसे?
"शहीदों "के जख्म दिखायें भी तो कैसे?
"पाक" के मुस्कान में भी तो जहर है,
दुनिया को बतायें भी तो कैसे ?
हिंद के कातिल हैं हिंद के अजीज ही,
मन को समझायें भी तो कैसे?
वतन के नाम है हमारी जिंदगी,
"रमाकाँत" यकीं दिलाये भी कैसे?
-----------.-
मैं जबसे बना प्यार का नग्मा,
धडकनों मेँ रहने लगा हूँ!
दीवानोँ के लहू मेँ वफा बनकर,
मैं नस-नस मेँ बहने लगा हूँ!
दिल पर मिले जख्म चाहे जितने
अब तो मैं तन्हाइयोँ मेँ, रहने लगा हूँ!
ऐ सितमगर बेवफा न तडपा मुझे इतना,
"रमाकाँत" मैं तुझे और भी प्यार करने लगा हूँ!
रमाकाँत यादव, क्लास-12
, नरायनपुर, बदलापुर,उ.प्र.
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विजय कुमार अरोरा
खुशियाँ गैस के गुब्बारे की तरह होती हैं छणिक
वो तब तक ही आपके साथ रहती हैं
जब तक धागे आपकी ऊँगली से बंधे रहते हैं।
छूटते ही काफूर हो जाती हैं किसी और के पास जाने के लिए।
ग़म
एक पालतू कुत्ते की तरह होता है
जिसकी चेन हम हमेशा अपने साथ रखते हैं
गर गलती से छूट भी जाये तो भी उसे ढूँढ निकालते हैं
कहीं दूर नहीं जाने देते।
एतिहासिक क्षण
कब आएगा वो एतिहासिक क्षण
जब मैं तुम्हारे विश्ववास के पुल पर बिना अनुवाद के चल सकूंगा।
(मेरे काव्य संकलन "रिश्तों की धूप" से कुछ कवितायें।)
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विनय भारत
कविता -1
"डेंजर जीव "
लोग अपने बच्चों का नाम रखते हैं
आशू
याशुवासू तासू
और
महिलाओं में
सबसे डेंजर जीव होती है
सासू
कविता- 2
"हसीना की हँसी"
तेरी हंसी ने हसीना सुन
ऐसा खेल कर दिया
हमे उसी क्लास में
फिर से
फेल कर दिया
कविता3
“म”
ऐसा शब्द
हटाने पर जिसे
बिखऱ जाती हैभाषा
हिन्दी,
संस्कृत भी
कहाँ
टिकपाती है
“म” के पुत्रअनुस्वार
के बिना
इसी “म”की
एक महिमा है
“माँ”
जिसके बिना
कहाँ चल सकता है कोई
संसार,
वह माँ
जिसका आँचल
सिंहासन से
बढकर है
उसी “म”शब्द से
बना हूँ
“मैं”
जो करता हूँ
शरारत
विविध अठखेलियाँ,
हाँ,“म” शब्द से
बनी है
प्रकृति कीअनुपम छटाकृति“
माँ”
उसी माँ सेबना हूँ“
मैं”
आखिर
मिलता जुलता ही है“
म” और माँ
से
मेरा संबंध
“म” से बना‘
मैं’
व्यवहार में‘
माँ’से आया
मैं संसार में
000000000000
देवेन्द्र सुथार बालकवि
बाल-विवाह पर राजस्थानी कविता
गडबडजी रे लडको होइयो, जग री खुशियां लायो सा।
सात लडकियों रे बाद, लडका रो नम्बर आयो सा।
जोशी जी ने घरे बुलाया, चेनो नाम देरायो सा ।
छह महीना री उम्र में, चेनो रो लगन करायो सा ।
आसी जी रे भवंर गिरी जी, टीपुडी संग ब्याव रचायो सा ।
लगन मंडप में चेनो रोवे, माता दूध पिलावो सा ।
देख चेना ने टीपुडी रोवे, म्हारो हाथ छुडावो सा ।
इण बाल विवाह रे बोझ में, मासूमों ने मत दबावो सा ।
तेरह साल री उम्र में, चेना रो आणो आयो सा ।
चौदह साल री उम्र में, पहलो बच्चो आयो सा ।
खेल कूद री उम्र में, चौरासी भुगते चेनो सा ।
तीस साल उम्र में, चैना रे घर भरायो सा ।
सोहन, मोहन, हीरा ,पन्ना, नाथा, खेडा आया सा ।
रुपा, कूपा, भेरा, भोपा, औगड, धापू संग आया सा ।
ना समझी में घर भर गयो, अब समझ में आयोसा ।
किण विध पालू टाबरीया ने, खर्चो घणेरो आयो सा।
चैना रो तो घर डूब गयो, कर्जो चैन उडाया सा।
घर री गाडी बीच में डोले, चेना रे समझ में आयो सा।
गाडी रो तो टायर ट गया, इंजन रो काम आयो सा।
समझ पडी जब चेना ने, रोयो माथा टेक।
अगर बाल-विवाह रचायो ला, चेना री हालत देख।
अर्ज म्हारी सुनजीयो भाइयो, अब बाल-विवाह मत रचायो सा
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