विजय वर्मा एक अन्तर्यात्रा कौन है मेरे अंदर जो नित्य थोड़ा -थोड़ा मरता है ? कौन है जो किसी रिश्ते में नहीं बंधता ? किसी ठौर नहीं ठहरता...
विजय वर्मा
एक अन्तर्यात्रा
कौन है मेरे अंदर
जो नित्य थोड़ा -थोड़ा मरता है ?
कौन है जो किसी
रिश्ते में नहीं बंधता ?
किसी ठौर नहीं ठहरता ?
फिर भी न बरसने वाले
बादल की तरह
रह-रह कर घुमड़ता है।
कैसा पात्र है जो रोज़ -रोज़
थोड़ा खाली हो रहा है,
और मेरा मन मुझसे ही
सवाली हो रहा है !
कि खाली हो रहा है फिर भी
भरा का भरा है ?
कैसी यह पहेली है ?
क्या यह माज़रा है ?
कहीं कोई सम्बन्ध की गंध
है बाकी तो नहीं मन में !
संतों की भाषा,विद्वानों का मत
क्या गलत ? क्या सही ?
परेशां हूँ मैं कि
ख़ुद के अंदर ही
मैं कहीं हूँ कि नहीं ?
खरंगाझार , जमशेदपुर
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v k verma,sr.chemist,D.V.C.,BTPS
BOKARO THERMAL,BOKARO
vijayvermavijay560@gmail.com
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जतिन दवे
अस्तित्व के लिए...
प्रस्तुति - हर्षद दवे
मैं तुझ में हूँ बसा, तू फ़िर भी मुजको ढूंढता है;
प्रथम करता है व्यय अत्यंत,
फ़िर खुद को कोसता है.
आधार जीवन का हूँ यह पृथ्वी के हर जीव का;
मै जल हूँ, तू बचा मुजको ये तुजसे मांगता हूँ.
झरनो में संगीत हूँ मैं,
नदियों की शीतलता हूँ
पेड़ों को हरियाली देता,
धरती का शृंगार हूँ
भक्ति में पवित्र गंगा, ईश्वरीय उपहार हूँ !
प्यास प्यासे की बुझाता, गर्मी में बौछार हूँ !
वक्त क़म है और क़म है मेरे स्रोत भी,
ना रहूँगा मैं तो क्या है तेरा जीवन भी?
ले शपथ तू आज तेरे अस्तित्व के लिए,
हर बूंद को बचा हर जीवन के लिए!
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मोतीलाल
अब भी बचे हैं कुछ लोग
जो घंटों बहस करते हैं
बड़े आराम से
पार्क के उस कोने में
जिंदगी के बारे में
और लौटते हैं घर
रात के अंतिम बस से
जब सभी सो रहे होते हैं
और ओढ़ लेते हैं चुपके से चादर ।
अब भी बचे हैं कुछ लोग
जो सुधारना चाहते हैं
बड़े आराम से
इस कस्बे के हर कोनों को
ताकि यहाँ के लोग
सुख की जिंदगी गुजार सके
जबकि उनकी चाहत
रोज कल के डब्बे में बंद हो जाती है ।
ऐसे ही कुछ लोग
शांति की खोज में
गुम होते चले गये हैं
हमारी भीड़भाड़ में कहीं
और भटकने की स्थिति
दरवाजे पर अब भी खड़ी है
ताकि कुछ ऐसा गुजारा जाये
कुछ ऐसा गूंजित किया जाये
जिसकी प्रतिध्वनि
गूंजता रहे अंनत काल तक
लेकिन इसका क्या किया जाये
जब वह रस्सी ही हाथ नहीं आ रही है ।
* मोतीलाल/राउरकेला
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अनन्त आलोक
ग़ज़ल
मिले थे पहली बार जहाँ वहीँ इक बार आ जाना ,
मुहब्बत कितनी है दिल में कसम तुमको दिखा जाना|
कुछ तो मजबूरियां होंगी वफ़ा हम कर नहीं पाए ,
निभाया हमने हर रिश्ता सदा ही बा वफ़ा जाना |
संभाले रखा है हमने वो पहला पहला दस्ते मिलन ,
कि फिर इन हाथों से मेरे अपने हाथ छुआ जाना |
तुम्हारी बेरुखी अब तो हुई बर्दाश्त के बाहिर ,
कि हमसे हो गई है क्या खता इतना बता जाना |
तुम्हारी हर अदा मेरे शे'र का एक मिसरा है ,
मुक्कमल हो जाए ग़ज़ल कमर थोड़ी हिला जाना |
करो तुम जो भी जी चाहे तुम्हारा मुआमला निजी ,
'अनन्त' जी फितरत से नहीं कभी भी बेवफा जाना |
##
ग़ज़ल
मंजिल एक फिर उल्टी दिशाओं में क्यों दौड़ रहे,
तुम्हारे भीतर है भगवन क्यों बाहर हाथ जोड़ रहे|
गाँव की महिलाएं सारी खेत में हल चलती हैं,
ये कैसे मर्द हैं मौला मजे में मंजे तोड़ रहे |
हुए हम बिन कहे तेरे और तुम हो गए मेरे ,
कुंडलियों के नैन मिले पुरोहित रिश्ता जोड़ रहे|
गम के बादल क्यों छाए फिजा की आँख नम क्यों है,
नदी के अश्क सूख गए समंदर हंस छोड़ रहे |
क्यों चुनते राह सरल साथी यूँ क्यों राह बदलते हो,
सयाना उतना जिसकी जीस्त में जितने मोड़ रहे |
बदल गए आनादोत्सव भी बदल गए जन्मोत्सव भी,
किये थे दान पुन्य कभी आज गुब्बारे फोड़ रहे |
##
*अनन्त आलोक *
साहित्यालोक , बायरी , ददाहू , सिमौर , हिमाचल प्रदेश १७३०२२
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डॉ.विजय शिंदे
बिखरी बूंदें
देखो प्रकृति का चमत्कार।
सुबह-सुबह
सूरज की किरणों का स्वागत सत्कार।
ले आई हाथों में
हरि दूब पर मोतियों का हार।
एक-दूसरे को खिलाया-पिलाया।
प्यार किया।
क्षणभंगुर जीवन की खुशी,
खुशी का खजाना,
खजाने की खनखनाहट।
हरि दूब पर रंगों की सजावट।
रंगों की सजावट आंखों को सुहाए।
बूंदें और किरणों के मिलन से
प्रकृति ने रंग कितने बिखराए।
बूंदें बिखरी दूब पर,
रंग कितने झिलमिलाए।
तंग गली में नन्हें-मुन्ने बच्चे।
मृत्यु से अनजाने, तिरंगा हाथों में ले के।
लगा रहे थे नारे आजादी के।
अचानक, धरती का कोप।
भूचाल आया।
देखो, प्रकृति का यह भी हाहाकार।
बच्चे, बडे, बूढों की चित्कार।
हरि दूब की बूंदों का संसार लहूआए।
प्रकृति ने रंग कितने बिखराए।
बूंदें बिखरी दूब पर,
रंग कितने झिलमिलाए।
नन्हीं-मुन्नी जानों पर प्रकृति का घांव।
शहर, गांवों में दौड़ते लोगों के पांव।
तो बर्फीली वादियों में आंतकवादियों के दांव।
ढही इमारतों को,
मिट्टी को मशीने हटाती।
खून से लथ-पथ धरती।
सुनहरी मोतियों की माला टूटे।
खून से लथ-पथ हाथ-पांव, चेहरे देखे।
हरि दूब का संसार लहूआए।
प्रकृति ने रंग कितने बिखराए।
बूंदें बिखरी दूब पर,
रंग कितने झिलमिलाए।
मृत्यु तय हुई है
क्या मेरी मां को मालूम है?
उसके अजन्मे बालक की मृत्यु
जन्म लेने से पहले तय हुई है?
मालूम नहीं मुझे यह मृत्यु किसने दी है?
लेकिन मालूम है मुझे
जन्म से पहले ही मेरा मरना तय है।
न जाने कितने बालकों को इसका भय है?
किसी के पिता रास्ता भूल गए।
शरीर में एक छोटा-सा विषाणु लेकर आए।
मिला यह उन्हें कामुकता से या भूल से?
लेकिन मुझे तो लगता है
यह मुझे मिला विरासत से।
मैंने उन्हें न घर मांगा था, न धन मांगा था।
किलकिली आंखों से
इस दुनिया को देखने का मौका मांगा था।
लेकिन मुझे मालूम है
मेरा जन्म से पहले मरना तय है।
न जाने कितने बालकों को इसका भय है?
मालूम नहीं मुझे
मेरी मां को किसी का दूषित खून चढाया था?
लेकिन सिर्फ इतना मालूम है।
मुझे मृत्यु के नाम लिखा है।
एक और पन्ने पर एडस् से मृत्यु लिखा है।
मेरा जन्म से पहले मरना तय है।
न जाने कितने बालकों को इसका भय है?
हे डॉक्टर! मुझे जरूर बता दें।
मेरी मृत्यु विरासत की भूल है?
या किसी का दूषित खून है?
या आपके भूले-बिसरे सुई की नोंक है?
लेकिन मुझे सि॑र्फ इतना मालूम है।
मेरा जन्म से पहले मरना तय है।
न जाने कितने बालकों को इसका भय है?
नशा
प्यार, मुहब्बत का ‘नशा’
चढ़ने लगा
मेरे साथ तुम्हें और
तुम्हारे साथ मुझे वह
जखड़ने लगा।
मैं बांधु तुम्हें
मिठी वाणी से,
तू बांधे मुझे
मिठी हंसी से।
वाणी और हंसी से,
घर अपना भर जाए
खुशियों से।
डॉ. विजय शिंदे
देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद - 431005 (महाराष्ट्र)
ब्लॉग - साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे
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विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
पिता
अक्सर, पिता
दिखने में कठोर होते हैं
जो बालक को भाते नहीं,
पर, वही बालक,
बड़ा होकर
जब पिता बनता है,
तब समझ आती है, उसे
पिता की भूमिका...
***
पिता नहीं होते,
मां की तरह
बाहर -भीतर से
एक जैसे
पर ऊपर से दिखने वाले
कठोर 'पापा'
अँदर से नरम होते हैं
नारियल की तरह्....
****
पिता, बच्चों की जिन्दगी में,
वो सब कुछ देखना चाहते हैं
जो वो पा न सके स्वयं
पर बेटा !
उनके इस भाव को
ना समझी में ,
पिता का स्वार्थ समझ
कर देता है अनसुना-अनदेखा,
गँवा देता है हसीन पल
और तोड़ देता है ,'स्वप्न'
जो पिता ने देखें थे
उसके लिये....
*****
विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
कवि एवं साहित्यकार, गंगा पुर सिटी (राज.)
तेरा हॄदय
---------
हे कलियुग !
तेरे आगमन ने ,
दशा ही बदल दी उसकी
सहने लगी है अब ,
हर मौसम बेसहारा बन,
भटकती रहती खुले में,
द्वार-द्वार भिखारिन सी
देखी जा सकती है
भूखी - प्यासी
गली- गली, गांव-गांव
शहरों की सडकों पर,
जो कभी पुजती थी 'मातृवत'
वो सुन रही आज दुत्कार
सह रही डण्डों की मार
आश्चर्य ! घोर आश्चर्य !!
भर - भर के टृक ,
भैजी जा रही कत्लखानो में,
कटने के वास्ते,अबतो।
झूठा दम्भ है तेरा
गौ भक्ति का / कृष्ण भक्ति का,
सच में ,आज
कितना निष्ठुर हो गया
तेरा हॄदय !
छोड़ दिया जिसने,
द्रवित होना, उद्वेलित होना......
*****
सुन्दरता
-------
जितना सुन्दर दिखता है वृक्ष
कहीं, उससे भी ज्यादा,
सुन्दर होती है,
उसकी जड़
पर हाय ! हम देख नहीं सकते,
कर सकते हैं,
उसे महसूस;
वृक्ष की वाह्य सुन्दरता/दृढ़ता को देखकर
क्योंकि खोखली जड़ बाले वृक्ष,
सुन्दर हुआ नहीं करते......
********
खण्डहर किला
-------------
मेरा घर,
उसके नीचे
जिसके नीचे , हुआ करता था
पूरा गाँव
पर आज मेरा घर
छोटा हो कर भी
उससे बडा लगता है।
मेरा गाँव
पाता था रोशनी
जिसके चिरागों से,
आज वही, 'खण्डहर-किला'
भिखारी बन ,चाहता है-रोशनी,
मेरे घर से /मेरे गाँव से ।
जहाँ कभी
अस्त नहीं होता था 'सूरज'
आठों प्रहर
वहां अब रात ,जाने का
नाम न लेती
मानो ,वो भूल गयीं हो,
अपनी सीमाएं
जैसे भूला था कभी
राज मद में, ये अभागा
कोई नहीं आता उसके पास
मिटाने को सूनापन
और जानने को उसके हाल
दो घड़ी
जो बन गया है 'मजार' आज
स्वयं अपनी......
********
तुलसी
----------
मैं
सदियों से शोभा थी
तेरे आंगन की,
तू सजाता/ सँवारता / बचाता आया
दुनिया के हर संताप से,
पर,आज मैं,
खरपतवार समझ,
आंगन से हटा दी गई
जैसे जन्म से पहले,
नष्ट कर दी जाती बिटिया
और बिसार दी गई, वो 'रीति'
दकियानूसी समझ ।
मेरा स्थान पा लिया है , अब
उन गँधहीन 'कैक्टसो' ने,
जिन्हें ,तू पाल रहा है, आज
सुपुत्रों की तरह,
जो दे नहीं सकते, तुझे सुवास
सिवाय कांटों के ।
मैंने तुझे पहचान दी
तेरी बचाई जान
जिसे तू जानता,
और जानता विज्ञान
पर ,हाय ! इस बात को,
तू कब समझेगा ?
हटाकर कटिले झाड़,कब
मुझे फिर से आंगन में रोपेगा ?
सच बता ,क्या वो दिन आयेंगे?
जब मैं आंगन में तेरे लहलहाऊगी
और एक बिटिया की तरह
तुझे !
सुखद अहसास कराऊंगी...
*********
बोध
---------
मैं,
बिचलित था
बरसों से, ये सोच कर
तुम छोड़ गए, मुझे अकेला
इस भीड़ भरे संसार में
मैं भी कैसा अबोध,
बहाता रहा नदियाँ
आंखों से,
और ढूंढता रहा तुम्हें,
उन स्मृतियों में /उन स्थानों पर
जहाँ तुम्हें मैंने ,
खोया था ।
पर आज जब
तुम्हें पाता हूं, मुझमें
तो सोचता हूं , तुम गये नहीं
ये 'मैं ' नहीं,
तुम ही तो हो
फर्क कहां होता है
अंश और अंशी में.........
**********
- विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र '
(कवि एवं साहित्यकार )
कर्मचारी कालोनी , गंगापुर सिटी , जिला-
सवाईमाधोपुर(राज. )३२२२०१
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वोडाफ़ोन मोबाइल नं - *******513@mms1.live.vodafone.in से प्राप्त कविता (रचनाकार ने अपना नाम भूलवश नहीं दिया है)
नववर्षाभिनंदन
तिक्त क्षार कुछ खट्टे मीठे रस का प्याला रीत रहा !
सपनोँ की सौगात नयी दे, वर्ष पुराना बीत रहा!
पंछी जैसे पंख लगे दिन बरस बरस के चले गये!
जाने कितने स्वप्न नयन के तरस तरस के चले गये!
कभी वही बैरी बन आया, कुछ पहले जो मीत रहा!!!!
छलका नयनोँ का पानी ही इन अधरोँ का हास बना!
पतझड़ ही कुछ दिन बीते तो मुसकाता मधुमास बना!
सांझ, उषा, दिन,रैन एक सा ही सबमेँ प्रतीत रहा!!!
अपनोँ से अब लगते है वे, जो कल तक अनजाने थे!
संबंधोँ की परिभाषा के अक्षर लगे सुहाने थे!
धूप छाँव सा अपना सूरज, होता अस्त उदित रहा!!!!
क्या खोया क्या पाया हमने आज तुला पर मत तौलो!
नये वर्ष की नूतन आशाओँ के नये द्वार खोलो!
आनेवाला कल तो सुखद संभावना सहित रहा!!!
हँसी खुशी से झूमे तन मन हो के आज निहाल !
कि आया नया साल ! कि आया नया साल !
धरती ओढ़े धानी चूनर हरा गुलाबी लाल,, कि आया नया साल!
नव प्रभात की नई किरन फिर आई हमेँ जगाने!
नयन नयन मेँ इन्द्रधनुषी सपने नये सजाने!
आओ हम फिर आज मिला लें जीवन के सुरताल! कि आया नया साल!!!
बीते कल मेँ, मत सोचो कि क्या जीता क्या हारा!
नया वर्ष देने आया है, अवसर तुम्हें दुबारा!
रहे न कोई स्वप्न अधूरा, जीवन हो खुशहाल! कि आया नया साल!!!
नया साल! कि आया नया साल! रहे न जाये आश अधूरी,
फिर न कभी मन तरसे! तेरे घर आंगन मेँ मित्रोँ, इतनी खुशियाँ बरसे!
एक एक क्षण नये वर्ष के रखना बन्धु सम्हाल-!!!! कि आया नया साल ! कि आया नया साल!!!!
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शशांक मिश्र भारती
हाइकु
01:-
स्वार्थ दमके
वायदे ही वायदे
है राजनीति।
02:-
आज के खेल
आधार जोड़-तोड़
फेल ही फेल।
03:-
पिसते रोज
गरीब ही गरीब
इनके राज।
04:-
वादों में मिले
झूठ के आश्वासन
तो नींद कहां ?
05:-
शैशव हंसा
खिला रोम ही रोम
प्रभु को पाना।
06:-
बूंद से बूंद
सागर से सागर
अपने में ही।
-
01:-
रंग आतंक
वोट नीति करती
अधिक गाढ़ा।
02:-
अंग्रेज गए
काम अपना कर,
सुधरा कौन ?
03:-
रंग चुनावी
असमय न चढ़े,
पावस ज्यों ।
04:-
मौज-मस्ती
करवाते पर्व
आजकल के।
05:-
गणतंत्र के
तंत्र तेज ही तेज
गण निस्तेज।
06-
फाग का राग
हंसे चना सरसों
झूमे अलसी।
हिन्दी सदन बड़ागांव,शाहजहांपुर-242401उ0प्र0
--------------
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प्रकाश पंड्या
पतंग
मैं हूं पतंग
डोर के संग
लिये अरमान,
छूने को आसमान,
भरी उड़ान।
असीम आकाश में लड़ी
अपनों से ही जंग
पर वाह री किस्मत !
खुल गई गांठ अलग हुई डोर से
टूट गये अरमान,
छूटा आसमान,
कई निगाहों के लिये बनी
हंसी और सहानुभूति का पात्र।
इससे पहले कि जमीन पर गिरुं
छिना झपटी में हो जाऊं
नेस्तनाबूद,
बीच राह में थाम लिया मुझे
बिजली के नंगे तारों ने।
मुझसे अलग हुई डोर ने किसी ओर का दामन थामा
गांठ लगाई फिर उड़ चली व्योम पथ पर․․․․․।
नववर्ष! अब ये घर तू संभाल
अगल बगल में तांक-झांक के साथ
उसने शुरू किया समेटना सामान
झटपट भरने लगा वो झोली में
घर के आले, अहाते, कोठियों, कनस्तरों में पड़ी बची खुची सामग्री।
यकायक बढ़ गई सामान समेटने की उसकी गति
उसे किसी ओर के आने की आहट सुनाई पड़ी थी
फिर तो जो कुछ समेट पाता
झोली में ठूंस कर भर सकता था
बिजली की गति से भरने लगा
दो-दो हाथों से।
बड़ी मुश्किल से मुंह बंद हो पाया था
ठसाठस भरी झोली का
ज्यों ही पीठ पर भारी भरकम झोली लादकर
खिसकने लगा वह वहां से
इस गर्ज से कि किसी को कानों कान खबर न लगे।
और पार हो जाए तड़ीपार की तरह
धरी रह गई उसकी चतुराई किसी ने देख लिया था उसे
झटपट जाते हुए
बरखुरदार ऐसी भी क्या जल्दी
कहते हुए किसी ने टोका भी
मगर वह तो बस भाग छुटना चाहता था
एक पल भी रुके बगैर।
उसने उठा लिया समझदारी भरा कदम
इससे पहले कि नवागत उसे घर से बेदखल करे
बड़ी संजीदगी से अपने स्वाभिमान की रक्षा में सफल हो
खुद ही घर छोड़ दिया उसने।
मैंने भी उसे अपनी पीठ पर भारी भरकम सामान भरी
झोली लादकर जाते देखा था।
मेरे एकदम करीब से वह गुजरा तो झोली में से आ रही थी
तरह-तरह की आवाजें-
कहकहों की, कराहों की,
एहसानों की, गुनाहों की,
क्षिप्र बस्ती छोड़ देने की गुजारिश की
यहीं ठहरने की सिफारिश की।
हांफते हुए तेजी से
ओझल होने की कोशिश में उसकी जेब से गिरी चिट्ठी
मुझे हाथ लगी है
लिखा है- जो अच्छा है
सच्चा है
काम का है
खासो आम का है
सुकून भरा है
मस्ती की धुन भरा है
दूब की मांनिद
हरा है
मनोनुकूल है
वक्त को कबूल है
जो कार्यसिद्धि में सहायक है
काबिल और लायक है
ये सब संभालना
और सहेजना
जो कुछ बुरा है
उसे लौटती डाक से
मेरे पते पर भेजना।
नववर्ष! अब ये घर तू संभाल
तुम्हारा बीता हुआ साल
-प्रकाश पंड्या
प्रगति नगर,कॉलेज रोड़, बांसवाड़ा-राजस्थान
prakashpandya1857@gmail.com
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मुरसलीन साकी
मुझे खबर न थी इस तरह सतायेगी।
वो एक पल की मुलाकात यूं रूलायेगी॥
ये आंसुओं की नहीं खून दिल की लाली है।
ये जिन्दगी न जाने कैसे गुल खिलायेगी॥
वो चांदनी रात और हिजर का आलम।
तमाम उमर मेरा यूंहि दिल दुखायेगी॥
अब अश्क हैं और मैं हूं और तन्हाई है।
अब ये बरसात भी, ये कब तलक जलायेगी॥
सुना था मैंने मोहब्बत अजीब है साकी।
यकीं नहीं था मुझे होश भी उड़ायेगी॥
जिन्दगी भर हम खुशी की राह पर चलते गये।
गम जो थे वो हमको मन्जिल की तरह मिलते गये ॥
इस तरह उजड़ा नशेमन हमने कोशिश की मगर।
थे बनाये जितने भी वो आशियां जलते गये॥
हम गमों को छोड़ कर जब भी कभी रूख्सत हुये।
काफिले हम को गमों के और भी मिलते गये॥
थी खबर न आयेंगे मिलने वो आखिर वक्त में।
पर मेरे आंसू चरागों की तरह जलते गये॥
मिल सकी न हमको मन्जिल न खुशी का रास्ता।
बस मुसाफिर की तरह सारी उमर चलते गये॥
मुरसलीन साकी
लखीमपुर खीरी
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त्रिमोहनसिंह चंदेल
हाथ कैसे आपके दुःख में बंटायें।
यंत्र में होती नहीं संवेदनाएं।
आइये फिर शहर की तहजीब जी लें ,
फूल की बातें करें कांटे उगाएं।
वृक्ष ने व्यक्तित्व में विस्तार लाने ,
स्वयं तोड़ी टहनियों की आस्थाएं।
मालगाड़ी से कटे डिब्बों सरीखी ,
छूटती ही जा रही हें मान्यताएं।
इस तरह भी जिंदगी गुजारी है अपनी ,
अधर पर मुस्कान अंतर में व्यथाएं।
- त्रिमोहनसिंह चंदेल
ग्वालियर (मध्य प्रदेश)
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मनोज परसाई
आ जाओ जल्दी से यीशु,
बच्चों के संसार में।
ढेर सारी खुशियाँ बाँटो,
हम सबको उपहार में।
नये खिलौने नये-नये कपड़े,
पापा से मंगवायेंगे।
मीठी वाली नयी चाकलेट,
मम्मी से बुलवायेंगे।
देर करो मत, जल्दी आओ
नयी इनोवा कार में।
ढेर सारी खुशियाँ बाँटो,
हम सबको उपहार में।
आ जाओ जल्दी से यीशु,
बच्चों के संसार में।
हैप्पी मैरी क्रिसमस तुमको,
हम सब बच्चे बोलेंगे।
अओगे जब पास हमारे,
तभी चाकलेट खोलेंगे।
सचमुच हम सब साथ तुम्हारे,
झूमें नाचें गायेंगे।
सान्ताक्लाज बनकर आ जाओ,
क्रिसमस खूब मनायेंगे।
मजा आयेगा तुमको यीशु,
बच्चों के संसार में।
ढेर सारी खुशियाँ बाँटो,
हम सबको उपहार में।
आ जाओ जल्दी से यीशु,
बच्चों के संसार में।
मनोज परसाई
manojparsai2506@gmail.com
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चन्द्र कान्त बन्सल
सोच रहा हूँ
बुश की देखा देखी चिदंबरम और आडवानी पर भी जुते
मारना तो ठीक पर की न लगने की नक़ल सोच रहा हूँ.
अमरीका ने क्यों छोड़ा उसकी वो जाने पर भारत में
उन दिनों था चुनाव का बड़ा जबरदस्त दखल सोच रहा हूँ.
मदिर का निगेबां नमाजी और मस्जिद का रहनुमा पुजारी
कब होगा हमारी सोच में ये फेरबदल सोच रहा हूँ.
आतंक हरा है भगवा है या फिर काले रंग का ही है
कौन है इसमे असल और कौन नक़ल सोच रहा हूँ.
मेरी परदेश में लगी नौकरी तो सब बड़े ही खुश थे
सिवा माँ के जिसकी पेशानी पर था एक बल सोच रहा हूँ.
बाबरी राम जन्मभूमि का कुछ यूँ क्यों नहीं करते
बनाओ दरीचे करे प्रेमी युगल प्रेम शगल सोच रहा हूँ.
प्रजातंत्र की इससे बड़ी दुर्गति और क्या होगी जब
प्रजा की पुलिस तंत्र फंसा करे रणवीरो का क़त्ल सोच रहा हूँ.
यूँ तो मांग लूँ गरीबों के लिए दो जहाँ की दौलत वो दे भी देगा
मगर छीन लेगा उनके अमन सुकून के हर पल सोच रहा हूँ.
इस दौर में जहाँ पैर रखने को जगह नहीं मयस्सर वहां भी
तुझे दिल में बसा बनाने की एक नया ताजमहल सोच रहा हूँ.
हिंदी मुझे अजीज है माँ की तरह तो उर्दू लगे मुझे मासी जैसी
दोनों है मेरी जान को प्यारी तभी तो यह हज़ल सोच रहा हूँ.
तेरे आने से यकीं रख मेरे को ख़ुशी दोबाला हो जाती है
तेरे जाने से मेरे दिल में होता है एक खलल सोच रहा हूँ.
वो जिसकी चाहत में तमाम रातें गुजारी है करवटें बदल बदल के
वो मिलेंगे सरे महफ़िल तो करेगा कौन पहल सोच रहा हूँ.
जंग किसी भी समस्या का समाधान तभी हो सकती है
जब सिपाही की जगह खेत रहे कर्नल और जनरल सोच रहा हूँ.
दंगों बम विस्फोटों और आतंकी हमलों में सिर्फ जनता ही हलाक
कभी भी किसी भी नुमाइंदे का नहीं हुआ क़त्ल सोच रहा हूँ.
यूँ पांच सितारा की गोल मेज सभाओ से महंगाई नहीं मिटेगी
मिलाओ हाथ अमीरों मैं फर्श पर करवटें बदल -२ सोच रहा हूँ.
कब तक एक गरीब की भूख को सपने दिखाते रहोगे
यह चिन्गारी भी दब दब के बन जाएगी एक दावानल सोच रहा हूँ.
प्रजातंत्र में तेरी सत्ता कब तक तेरी बनी रहेगी ए हाकिम
तुझे उतार इस समाज में लाने की एक नया कल सोच रहा हूँ.
मुझ गरीब को हर बात मात और अमीर को बेबात शह
क्या मेरा कसूर इतना ही मेरे पास नहीं महल दोमहल सोच रहा हूँ.
चन्द्र कान्त बन्सल
निकट विद्या भवन, कृष्णा नगर कानपूर रोड लखनऊ
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राजीव आनंद
हत्या किस्त में जारी
हत्याओं का दौर किस्तों में जारी है
कहने को पुलिस अपराधियों पर भारी है
सर्द रातें फूटपाथी गरीबों पर भारी है
कंबल तो कागजों पर बंटना महीनों से जारी है
नेता-अफसरों का काजू खाना मुसलसल जारी है
भूख से मरती बेवाओं को पेंशन भी मिलना भारी है
नशा रसूख का नेताओं पर इस कदर तारी है
न पहचानना गरीबों को पूरे पांच साल जारी है
नेता दागी है
सौ में से नब्बे फीसदी नेता दागी है
देश का लोकतंत्र कटघरे में खड़ा फरयादी है
देश की सियासत गरीबों पर जारी है
ये बीमारी देश की बेमीयादी है
कानून कड़े बना तो दिए गए
महिलाओं का उत्पीड़न अब भी जारी है
धरती पर स्वर्ग कहीं है तो यहीं है
इसे नरक बनाने का सिलसिला अब भी जारी है
राजीव आनंद
प्रोफसर कॉलोनी, न्यु बरगंड़ा
गिरिडीह-815301 झारखंड़
kya gazab ka likha hai Rajeev ji aapne , bahut sundar
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार २४/१२/१३ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी,आपका वहाँ हार्दिक स्वागत है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर संकलन
जवाब देंहटाएंसंकलित कविताओं की विविधता प्रशसनीय है..
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