राजेन्द्र यादवः खट्टी और मीठी यादें प्रोफेसर महावीर सरन जैन कल राजेन्द्र यादव के निधन का दुखद समाचार मिला और राजेन्द्र या...
राजेन्द्र यादवः खट्टी और मीठी यादें
प्रोफेसर महावीर सरन जैन
कल राजेन्द्र यादव के निधन का दुखद समाचार मिला और राजेन्द्र यादव के साथ जुड़ी घटनाओं की याद आती रही। राजेन्द्र यादव से मेरी पहली मुलाकात केरल के एर्नाकुलम में दिसम्बर, 1965 में हुई थी। उन दिनों केरल विश्वविद्यालय का हिन्दी विभाग त्रिवेन्द्रम (तिरुवनन्तपुरम) में न होकर एर्नाकुलम में स्थित था जिसके अध्यक्ष प्रोफेसर चन्द्रहासन थे। उन्होंने केरल विश्वविद्यालय के तत्वावधान में विश्वविद्यालयों के हिन्दी प्राध्यपकों की संगोष्ठी आयोजित की थी। केरल विश्वविद्यालय की ओर से भारत के विश्वविद्यालयों को पत्र भेजकर यह अनुरोध किया गया था कि वे अपने विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के एक प्राध्यापक को संगोष्ठी के लिए प्रतिनियुक्त करें। प्रतिनियुक्त प्राध्यापक से यह अपेक्षा की गई थी कि वे संगोष्ठी में किसी विषय पर शोध निबंध का वाचन करें। मैंने इस संगोष्ठी में जबलपुर के विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया और “भारतवर्ष में अन्य भाषा शिक्षण की समस्याएँ” शीर्षक शोध निबंध का वाचन किया। इसे केरल की सचित्र हिन्दी पत्रिका “युग प्रभात” ने प्रकाशित किया (वर्ष 10, अंक 10, मार्च, 1966, पृष्ठ 15 – 18)। इस संगोष्ठी में प्रोफेसर चन्द्रहासन ने हिन्दी एवं मलयालम के कुछ रचनाकारों को भी आमंत्रित किया था। हिन्दी के जो रचनाकार इस संगोष्ठी में सम्मलित हुए, उनमें रामधारी सिंह दिनकर, मोहन राकेश एवं राजेन्द्र यादव प्रमुख थे। मेरी राजेन्द्र यादव से यहीं पहली मुलाकात हुई। संगोष्ठी के बाद प्रोफेसर चन्द्रहासन के सहयोगी डॉ. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर ने यह प्रस्ताव रखा कि हम त्रिवेन्द्रम रुकते हुए कन्याकुमारी की भी यात्रा करें। सात आठ लोगों ने एक दल के रूप में यात्रा की जिनमें राजेन्द्र यादव भी थे। तीर्थ यात्री के रूप में राजेन्द्र यादव का व्यवहार स्नेहपूर्ण, सौम्य, वत्सल एवं अलमस्त था। पूरी यात्रा में कोई विवाद नहीं हुआ। उनका “प्रेत बोलते हैं” शीर्षक उपन्यास यद्यपि सन् 1951 में ही प्रकाशित हो गया था मगर इसका संशोधित रूप सन् 1959 में राजकमल प्रकाशन द्वारा “सारा आकाश” नाम से प्रकाशित हुआ। इसके बाद ही यह अधिक चर्चित हुआ। मैंने इसे सन् 1960 के आसपास पढ़ा। मैंने इसकी चर्चा राजेन्द्र यादव से यात्रा के दौरान की। सुनकर राजेन्द्र यादव को अच्छा लगा। उन्होंने मुझे अपनी अन्य प्रकाशित रचनाओं (उपन्यासों, कथा-संग्रहों तथा कविता-संग्रह) के बारे में अवगत कराया।
मैंने राजेन्द्र यादव को साहित्यिक मुद्दों पर बोलते हुए सुना है और “हंस” में उनकी लिखी हुई टिप्पणियाँ भी पढ़ी हैं। मुझे उनमें अँधेरा अधिक नज़र आया है मगर अपने लेखन में वे सर्वत्र अवसाद, टूटन, वितृष्णा को ही महिमामंडित नहीं करते, उजाला भी बिखेरते हैं। “सारा आकाश” का मध्य वर्ग का पढ़ा लिखा नवयुवक नायक घुटन एवं टूटन के बीच आशा और विश्वास भी कायम रख पाता है। “उखड़े हुए लोग” को पढ़ने के बाद “देशबंधुजी एम. पी. उर्फ नेता भैया” भ्रष्टाचारी एवं चरित्रहीन नेताओं के जीवन्त प्रतीक के रूप में नज़र आते हैं। चुनाव के समय वे किस प्रकार जनसेवा की कसमें खाते हैं किन्तु सत्ता पाने के बाद क्या क्या दुराचरण करते हैं – इसका बिंब हमारे सामने मूर्तिमान हो उठता है। उपन्यास के सभी पात्रों का चरित्र चित्रण सहज नहीं लगता। शरद और जया का रिश्ता राजेन्द्र यादव के लिए आदर्श हो सकता है मगर यह मेरे गले नहीं उतरता। साम्यवादी विचारधारा के पोषक सूरज को शरद और जया से सहानुभूति हो सकती है मगर दाम्पत्य जीवन की मर्यादा में विश्वास करने वाले व्यक्ति के लिए वे सहानुभूति के पात्र नहीं हो सकते। “कुलटा” आत्म-कथात्मक शैली में समाज के मध्यवर्गीय जीवन का प्रभावी चित्रण प्रस्तुत करता है। “शह और मात” में उदय एवं सुजाता की प्रेम कहानी का चित्रण जीवन की आस्था का दस्तावेज़ है। कुरूप होने के कारण एक अतृप्त नारी की अनियंत्रणीय काम इच्छाओं की मनोविश्लेषणात्मक प्रस्तुति है -“अनदेखे अनजान पुल”। इसकी कथा में सहज प्रवाह है। इसका शिल्प-विधान अपेक्षाकृत अधिक गठित है। “एक इंच मुस्कान” उपन्यास जिस समय रचा गया, राजेन्द्र यादव पति तथा मन्नू भण्डारी पत्नी की सार्थक भूमिकाओं का निर्वाह करते प्रतीत होते हैं। इसका प्रमाण यह उपन्यास है जिसमें दोनों ने उपन्यास के नायक अमर और उपन्यास की नायिका अमला की प्रेम कथा को क्रमशः अलग अलग लिखकर उनमें तारतम्य बैठाने का यथासाध्य प्रयास किया है। इसमें भी नारी का प्रेम अधिक संयत, सहज, स्वाभाविक और सरस प्रतीत होता है। हो सकता है कि मिलजुलकर लिखने के फलस्वरूप प्रणीत उपन्यास ही बाद में दोनों के दाम्पत्य जीवन की दरार का कारण बना हो। उपदेश देना आसान है; जीवन में उसके अनुरूप आचरण करना दुष्कर।
स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी साहित्य के इतिहास में सन् 1950 के बाद के प्रथम चरण की जिन कहानिकारों की रचनाओं को “नई कहानी” के नाम से पहचाना जाता है, उनमें जो कहानिकार कहानी के कथ्य और शिल्प में अपेक्षाकृत अधिक नवीनता लेकर आए उसमें तीन रचनाकारों का महत्व निर्विवाद है। मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर के नाम सर्वाधिक उभरकर आते हैं। इनके तुलनात्मक अध्ययन करने का यह प्रसंग नहीं है। वैसे भी मेरे लिए तीनों के अपने अपने सकारात्मक गुण हैं और मेरे लिए सम्प्रति यही कहना अभीष्ट है कि “कौ बड़ छोट, कहत अपराधू”। राजेन्द्र यादव के संदर्भ में यही कहना चाहूँगा कि यदि कोई हिन्दी की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह प्रकाशित करना चाहेगा तो उसमें “टूटना” एवं “जहाँ लक्ष्मी कैद है” शीर्षक कहानियों को स्थान देना ही होगा।
राजेन्द्र यादव केन्द्रीय हिन्दी संस्थान की शासी परिषद (ग्वर्निंग कॉउन्सिल) के सन् 1953 से सन् 1955 की अवधि में सदस्य थे। उस अवधि में मेरा उनसे अनगिनत बार मिलना जुलना हुआ। कभी उन्होंने मेरे साथ अपने व्यक्तिगत जीवन के अनेक पहलुओं को बेबाक उजागर किया तो परिषद की बैठकों में कुछ मुद्दों पर अपने मत को दुराग्रह की सीमा तक थोपने का असफल प्रयास भी किया। हमारी तीखी बहसें भी हुईं। मैंने उनके विवादास्पद व्यक्तित्व को जाना ही नहीं, भोगा भी। संस्था का संचालन करते समय हमें संस्था के दूरगामी हितों को ध्यान में रखकर निर्णय लेना होता है। निर्णय बहुमत के आधार पर ही सम्भव हो सकता है। निदेशक को शासी परिषद के समस्त सदस्यों से विचार विमर्श करने के बाद संस्था के हित तथा सदस्यों के बहुमत के विचारों को ध्यान में रककर बहस के मुद्दे तय करना होता है तथा सदस्यों के विचारार्थ तदनुकूल प्रस्ताव पेश करना होता है। यदि सदस्यों में एक या दो सदस्य अलग मत व्यक्त करते हैं तो बैठक का अध्यक्ष को वोटिंग करानी पड़ती है। जिस मत के पक्ष में बहुमत होता है, वह पारित हो जाता है। मैं राजेन्द्र यादव को बैठक के पहले हर मुद्दे पर अपनी ओर से समझाने का पूरा प्रयास करता था। मगर कभी कभी वे जो विचार बना लेते थे, उस पर अड़ जाते थे। उदाहरण के रूप में एक मुद्दे पर मेरे समझाने के बावजूद वे नहीं पिघले। इसकी परिणति यह हुई कि बैठक के बाद उन्होंने तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री को अपनी यह राय लिखकर भेज दी कि अब संस्थान को बंद कर देना चाहिए। संस्थान को बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं है। अपने अनुभव के आधार पर मुझे ऐसा लगता है कि जब वे आहत महसूस करते थे तो उनका आक्रोश चरम पर पहुँच जाता था। तप्त लौह पिण्ड की भाँति वे इतना दहकते थे कि उसमें अकल्पित भी कर जाते थे। मगर शांत भी वे उसी तरह हो जाते थे और तब लगता था कि हमारे सम्बंधों में कोई दरार नहीं आई है।
मैं इस अवसर पर उनके साथ व्यतीत मधुर स्नेहिल क्षणों को ही याद करना चाहता था मगर तीखे एवं खट्टे क्षणों की यादें भी उतनी ही प्रखर हैं कि चाहकर भी उनको भूल नहीं पा रहा हूँ। विनय है, भविष्य में प्रीतिकर स्मृतियाँ ही याद रहें। इसी भावना पूरित संकल्प के साथ उनको नमन करता हूँ।
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवा निवृत्त निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरि एन्कलेव, चाँदपुर रोड
बुलन्द शहर - 203001
संस्मरण पसंद आया. यादों के प्रवाह में आप कुछ चुटीली टिप्पणियाँ भी कर गए हैं जो आपकी स्वतंत्र पहचान सी प्रतीत होती है.
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