राकेश भ्रमर की कहानी - कितनी देर तक

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कहानी कितनी देर तक राकेश भ्रमर चिता में आग लगने के बाद एक-एक करके लोग जाने लगे थे. अंत में केवल मैं ही चिता के पास रह गया था. कुछ दूरी पर ए...

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कहानी

कितनी देर तक

राकेश भ्रमर

चिता में आग लगने के बाद एक-एक करके लोग जाने लगे थे. अंत में केवल मैं ही चिता के पास रह गया था. कुछ दूरी पर एक डोम उत्सुक आंखों से चिता की तरफ ताक रहा था. मेरी नजरें कभी-कभी उसकी तरफ उठ जाती थीं.

सबके जाते ही मैं अपने आपको बेहद अकेला महसूस करने लगा. इस दुनिया में अंत तक कोई किसी का साथ नहीं देता. फुरसत ही नहीं है किसी के पास. वरना क्या चिता ही आग ठण्डी होने तक यहां नहीं रुकते. मैं सूनी आंखों से चिता से उठती लपटों को ताकता जा रहा था.

कल तक वह इस दुनिया में हमारी तरह हंस-बोल रहा था. आज वह चिता में लेटा हुआ था. आत्मा तो पंचतत्व में मिल गई थी. अब शरीर भी मिल रहा था. समय का चक्र कितनी जल्दी आदमी को मौत के कुएं में धकेल देता है, पता ही नहीं चलता है, किसे पता था कि विनोद इतनी जल्दी हम सबसे मुंह मोड़कर चला जाएगा. मुझे भी पता नहीं था, जबकि हम दोनों एक ही कमरे में रहते थे. हर सुख-दुःख में एक दूसरे का साथ देते थे. उसकी कोई भी बात मुझसे छिपी नहीं थी, लेकिन मौत को हम सबसे छुपाए रखा. किसी को आभास तक नहीं होने दिया कि वह सबसे जुदा होकर जा रहा है.

वह हमसे जुदा हो गया. इस बात का दुःख नहीं था. उसके मरने का भी दुःख नहीं था. वह जिन्दगी की लड़ाई लड़ते हुए मरा था, वह शहीद हो गया था. विश्वविद्यालय के हर छात्र को उसकी मौत पर गर्व था, मुझे तो सबसे ज्यादा था. वह मेरा सबसे प्यारा दोस्त था.

चिता की आग धीरे-धीरे ठण्डी पड़ती जा रही थी. विनोद का शरीर अस्तित्वहीन होता जा रहा था. उसके साथ मेरा दिल भी बैठता जा रहा था. आंसुओं को मैंने भीतर ही जज्ब कर लिया था. रोने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था, अतः उसकी चिता के पास खड़े होकर रोना क्या उसकी आत्मा को अच्छा लगता. मैंने अपने दिल को पत्थर बना लिया था.

मुझे दुःख था तो केवल इस बात का कि विश्वविद्यालय के जो छात्र विनोद की अर्थी को कंधा देकर श्मशान तक लाए थे, वह चिता की आग ठण्डी होने से पहले ही चले गए थे. जैसे कोई बेगार निभाई हो. वह विनोद जो छात्रों की भलाई के लिए शहादत की मौत मरा था, उसको ही वे लोग चिता में डालकर चलते बने थे.

चिता के बुझने तक रात काफी घिर आई थी. चारों तरफ एक डरावना-सा सन्नाटा बिखरा हुआ था. वह डोम भी न जाने कब उठकर चला गया था. विनोद की गर्म राख को मैंने हौले से छुआ. हाथ में लेकर उसे माथे से लगाया जेसे उसे अन्तिम सलामी दी हो और फिर बोझिल कदमों से शहर की ओर लौट पड़ा.

सड़के वीरान थी. कभी-कभी कोई कुत्ता भौंककर वातावरण का सन्नाटा तोड़ देता था. हॉस्टल तक पहुंचते-पहुंचते मुझे डेढ़ घण्टा लग गया.

कमरा खोलकर मैं अन्दर घुसा. बत्ती जलाते समय लगा जैसे विनोद अपने बिस्तर पर लेटा हुआ था. परन्तु नहीं, यह केवल मेरा भ्रम था. अब वह कभी इस कमरे में नहीं आएगा. उसके कपड़े जैसे के तैसे हैंगर में टंगे थे. सूटकेस पलंग के नीचे पड़ा हुआ था. बुक-शेल्फ में किताबें रखी हुई थीं. मेज पर कुछ कापियां और एक खुली किताब रखी थी जैसे विनोद का इंतजार कर रही हों. मेरे दिल में एक हूक सी उठी. विनोद की मौत के बाद मुझे न तो फुरसत मिली थी, न ही इतना होश था कि उसकी वस्तुओं को समेटकर रख सकता. जरूरत ही क्या थी? लेकिन अब तो सब कुछ समेटकर रखना ही पड़ेगा. जब उनको इस्तेमाल करने वाला ही नहीं रहा तो सब कुछ बिखरा कर रखने से फायदा क्या?

किसी की मौत के बाद उसे भुला देना आसान काम नहीं होता है. विनोद के जीवन की एक-एक घटना मेरी आंखों के सामने से गुजर रही थी. मैं चाह कर भी उनसे छुटकारा नहीं पा सकता था. इस कमरे में पूरे चार साल हमनें एक साथ बिताए थे. चार साल में शायद ही कोई ऐसी रात रही हो, जब हम एक दूसरे से अलग हुए हों. गर्मी की छुट्टियों की बात अलग थी. परन्तु आज की रात अन्य रातों से भिन्न थी. आज विनोद इस दुनिया से उठ गया था. ऐसी हालत में मेरे लिए एक पल भी सोना कठिन लग रहा था. कैसे सो सकता हूं मैं? नींद तो शायद विनोद के साथ ही चली गई थी. उसे मैं कहां जाकर ढूंढ़ूं?

विनोद अन्य छात्रों से एक भिन्न किस्म का छात्र था, पढ़ाई में अव्वल तो आता ही था, दूसरे क्षेत्रों में भी उसकी बराबरी का मुश्किल से ही मिलता था. साहित्य हो या रंगमंच, राजनीति हो या समाज सेवा... हर काम में वह आगे रहता था, हालांकि राजनीति में वह इसलिए भाग नहीं लेता था कि उसे अधिकार चाहिए थे. लोगों की सेवा ही उसके लिए प्रमुख थी.

जमींदार घराने का था वह. जब जितने पैसों की जरूरत होती, उसके घर से आ जाते, लेकिन उन पैसों का उपयोग भी वह ज्यादातर दूसरों के ऊपर ही करता था. किसी की फीस जमा करनी है, किसी के पास कोई पुस्तक नहीं है, किसी की शर्ट फट गई है, वह हर किसी की सहायता करने में आगे रहता. पैसे खत्म हो जाने की उसे चिंता नहीं थी. खत्म होते ही वह घर लिख भेजता था. एक सप्ताह के अन्दर ही फिर पैसे आ जाते.

मैं कभी-कभी कहता, ‘‘तुम इतने सारे पैसे घर से मंगाते हो, क्या घर में कोई पूछता नहीं कि तुम इतने पैसों का क्या करते हो?’’

‘‘अरे यार, मैं अपने मां-बाप का इकलौता बेटा हूं, जो कुछ पिताजी ने कमाकर रखा है, वह सब मेरे लिए ही तो है, अगर उसे मैं न खर्च करूं तो फिर कौन करेगा, इसलिए किसी के टोकने का सवाल ही पैदा नहीं होता, लेकिन इतना उनको मेरे ऊपर विश्वास है कि मैं फालतू खर्च नहीं करता, किसी भले काम में ही खर्च करता हूं. वह मेरी आदत से परिचित हैं.’’

उसकी बातों से मुझे आश्चर्य होता, कितने मां-बाप है जो अपने बच्चों को दूसरों के ऊपर अपनी कमाई खर्च करने की अनुमति देते हैं. विनोद बहुत भाग्यशाली था कि उसे ऐसे मां-बाप मिले थे. विनोद का हृदय ही विशाल नहीं था, वरन उसे मां-बाप भी विशाल हृदय के मिले थे.

विश्वविद्यालय के अन्दर उसके कारण ही रैगिंग खत्म हो गई थी, रैगिंग करने वाले छात्र ही उसके सबसे बड़े दुश्मन थे. पहले वह शान्ति से ऐसे छात्रों को समझाता था, तब भी अगर बात नहीं बनती तो मार-पीट पर उतारू हो जाता. वह अपनी तरफ से पहल नहीं करता था. बदमाश छात्र ही पहला वार करते थे, उसे भी जवाबी कार्यवाही करनी पड़ती थी. कई छात्रों की उसने पिटाई की थी. इस तरह उसके कई दुश्मन बन गए थे, परन्तु वह परवाह न करता. शायद यही लापरवाही उसकी मौत का कारण बनी.

कभी-कभी मैं उसको समझाने का प्रयास रकता, ‘‘विनोद, तुम अपने मां-बाप की इकलौती संतान हो, उन्होंने तुम्हें यहां पढ़ने के लिए भेजा है, मन लगाकर पढ़ाई करो, बेकार के झंझटों में क्यों अपने को फंसाते हो? किसी की सहायता करना अलग बात है, लेकिन दूसरों के लिए गुण्डों-बदमाशों से लड़ाई-झगड़ा करना... क्या यह ठीक बात है. आज तुम यहां हो, इसलिए बदमाश छात्रों को सबक सिखा सकते हो, ताकि वह किसी छात्रा से छेड़छाड़ न करें, परन्तु कब तक... कल तुम्हें पढ़ाई खत्म करके नौकरी करनी है या फिर घर जाकर पैतृक सम्पत्ति की देखभाल करोगे. तुम्हारे जाने के बाद तो फिर सब कुछ पहले की तरह ही चलने लगेगा. विश्वविद्यालय प्रांगण में लड़कियों से छेड़छाड़ होगी, उन पर गंदे फिकरे कसे जाएंगे, उनकी इज्जत को लूटा जाता रहेगा. यह सब शाश्वत सत्य है जिनको पूरी तरह मिटा पाना मुश्किल है, ऐसी घटनाएं कल भी होती थीं. आज भी हो रही हैं और कल भी होती रहेंगी, तो फिर तुम क्यों जान-बूझकर अपने आपको मुष्किलों में फंसाते हो?’’

विनोद बड़े गौर से मेरी बातें सुनता रहा. मैंने समझा कि मेरी बातों का उस पर असर हो रहा है, परन्तु ऐसी बात नहीं थी. मेरी बात खत्म होते ही वह अपनी विशिष्ट शैली में मुस्कराया जिसमें दुनिया भर की मिठास भरी हुई थी, फिर डांटने के स्वर में बोला-

‘‘अबे उल्लू, दिमाग तो तेरे पास है, लेकिन दुनिया से लड़ने का साहस नहीं है, आखिर लाला है न. जिन्दगी भर कलम घिसने के सिवा और तुमने जाना ही क्या है, देख बे, मैं राजपूत हूं और राजपूत का धर्म होता है... लड़ाई करना, जुल्म और अन्याय के विरुद्ध लड़ाई करना. इस धर्म के नाते ही जो मेरा कर्तव्य बनता है, उसे निभा रहा हूं, तू उपदेश चाहे जितना दे ले, लेकिन जो कुछ मैं करता हूं, उसे गलत नहीं समझता. जिस दिन मैं समझूंगा कि मुझसे गलती हुई है, उस दिन मेरा विनाश निश्चित है. उस दिन तेरा दोस्त नहीं रहूंगा, समझे?’’

बात करते-करते विनोद की आवाज भावुक हो गई, पता नहीं किस मिट्टी का बना था वह? ऊपर से सख्त पत्थर की तरह कठोर... चट्टान की तरह अडिग, परन्तु अंदर से वह एक भोला-भोला भावुक इंसान था जो सामान्य आदमी की तरह दुःखी होता था और खुशी महसूस करता था.

उसके बाद मेरे पास उसको समझाने का साहस नहीं बचता था. मैं चुप हो जाता था, परन्तु ज्यादा समय तक नहीं. दो एक दिन बाद उसे समझाने का दुःसाहस फिर कर बैठता, जिसका परिणाम पहले की तरह ही होता... हमारे बीच कभी-कभी झड़पें भी हो जाती. एक दूसरे से न बोलने की कसमें खाते, परन्तु इस सबसे उसके व्यवहार में कोई फर्क नहीं पड़ता था. मेरे नाराज होने के बावजूद मुझसे बात करता और हार कर मुझे उसकी बात का जवाब देना ही पड़ता था.

फिर एक ऐसी घटना घटी जिसने उसके जीवन का निर्णय कर दिया. भूगोल विभाग की एक छात्रा को कुछ छात्रों ने छेड़ दिया. वह छात्रा अपने क्लास रूम की तरफ जा रही थी. गैलरी में कुछ छात्र खड़े थे. छात्रा जैसे ही उनके करीब पहुंची, एक छात्र ने उसका हाथ पकड़ लिया. दूसरे ने उसके गाल पर चुम्बन ले लिया और तीसरे ने तो हद ही कर दी. उसने छात्रा को आलिंगन में कसकर उसके अंगों को मसल डाला. यह सब इतने अप्रत्याशित ढंग से हुआ था कि छात्रा कोई विरोध न कर पाई.

जब तक वह छात्रा कुछ समझ पाती, तीनों लड़के यह जा, वह जा. किसी और स्थिति में होता तो शायद छात्रा अपनी इज्जत का ख्याल कर चुप कर जाती, परन्तु वह क्षण वैसा नहीं था. कई अन्य छात्र इस घटना के चश्मदीद गवाह थे. छात्रा फूट-फूटकर रोने लगी थी. पलक झपकते ही पूरे विभाग में घटना की खबर फैल गई. फिर जैसे एक हंगामा खड़ा हो गया. छात्र-छात्राएं कक्षाओं के बाहर निकल आए. हर किसी के होंठों पर इसी घटना का जिक्र था.

संयोग से विनोद भी भूगोल का छात्र था. उसे जब घटना का पता चला तो छात्रा को लेकर तुरंत विभागाध्यक्ष के पास पहुंचा. एक लिखित शिकायत दर्ज कराई. विभागाध्यक्ष ने दोषी छात्रों के विरुद्ध कार्रवाई करने का आदेश दिया. विनोद इतने से ही संतुष्ट नहीं हुआ. उसने विश्वविद्यालय के उपकुलपति और प्राक्टर के पास जाकर भी शिकायत की और उचित कार्रवाई की मांग की.

विनोद हिंसा पर विश्वास नहीं करता था, लेकिन जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलता था तो वह मारपीट और तोड़-फोड़ का रास्ता अपनाता था. हालांकि उसके बाद उसे पछतावा होता, लेकिन वह समझता था कि हिंसा का रास्ता ही एक ऐसा रास्ता है जिस पर चल कर बहरों के कानों तक बात पहुंचाई जा सकती है.

लेकिन इस मामले में विनोद कुछ नहीं कर पाया. दोषी छात्रों को मौखिक चेतावनी देकर छोड़ दिया गया था. विनोद को बहुत निराशा हुई. चेतावनी से उन छात्रों पर क्या असर पड़ने वाला था, लेकिन उस छात्रा पर जो प्रभाव पड़ा था, वह क्या जीवन पर्यन्त दूर हो सकता था? कभी नहीं, विनोद चाहता था कि उन छात्रों को ऐसा सबक मिले कि फिर कभी वह किसी लड़की की तरफ नजर उठाकर न देखें, परन्तु उसका सोचा नहीं हो सका. छात्र संघ के अध्यक्ष और सचिव के पास जाकर भी उसने मामले को उठाया, परन्तु कुछ नहीं हुआ.

विनोद का साथ देने वाले गिने-चुने दो ही छात्र थे. नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता? यहां तो सभी के दामन में दाग लगे थे. इस घटना में विनोद दोषी छात्रों को सजा नहीं दिलवा सका. इससे उसका दिल टूट गया. पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था. विश्वविद्यालय के पचास प्रतिशत से अधिक छात्र उसका साथ देते थे, परन्तु इस बार उल्टा हुआ. कोई भी उसका साथ देने के लिए सामने नहीं आया. विनोद फिल्मी हीरो नहीं था, अकेले कितने लोगों से वह लड़ता.

दोषी छात्रों को पर्याप्त सजा क्यों नहीं मिली. इसका कारण भी बाद में पता चल गया था. वे छात्र षहर के धनाढ्य व्यापारियों के बेटे थे. उनकी पहुंच मंत्रियों तक थी. यही नहीं, वह जाने-माने गुण्डे भी थे. सभी उनसे डरते थे. उनके विरुद्ध आवाज उठाकर कौन अपनी जान जोखिम में डालता?

इस हार को विनोद ने व्यक्तिगत हार के रूप में लिया. मगर वह कुछ कर भी नहीं सकता था. दिल ही दिल में घुट रहा था. मैंने उसे इतना उदास और हताश कभी नहीं देखा था, मैं उसे तसल्ली देना चाहता था, परन्तु मेरे पास बोलने के लिए शब्द नहीं थे. शब्द होते तो भी शायद मेरा साथ न देते.

सभी ने सोचा था, कि मामला यहीं पर खत्म हो गया है, परन्तु आगे की घटनाओं की तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया था. कल की ही तो बात है, विनोद विश्वविद्यालय से लौट रहा था. सड़क पर आकर देखा कि वही तीनों छात्र पान की दुकान पर खडे़ हैं, वे सब विनोद की तरफ ही देख रहे थे. विनोद ने एक नजर उन पर डाली और फिर अपने रास्ते पर चल पड़ा.

‘‘विनोद साहब, जरा सुनिए तो सही. अपने दोस्तों से क्या इतनी जल्दी मुंह मोड़कर चल देते हैं?’’ उसके कानों में एक लड़के की आवाज पड़ी. उसके कदम रुक गए. मुड़कर देखा, वह तीनों व्यंग्य से उसे देखकर मुसकरा रहे थे.

‘‘आपने मुझसे कुछ कहा?’’ विनोद ने यथासंभव अपनी आवाज को संयत रखा. इस समय वह लड़ने के मूड़ में नहीं था. वह तीन थे और वह अकेला. चाहता तो भी उनका मुकाबला नहीं कर सकता था.

‘‘आओ, यार हमारी तुम्हारी क्या दुश्मनी? एक ही विश्वविद्यालय में पढ़ते हैं, दो दिन बाद अलग हो जाएंगे. कल कौन कहां होगा, क्या पता? फिर आपस में लड़ने-झगड़ने से क्या फायदा?’’ दूसरे छात्र ने आवाज में चाशनी घोलते हुए कहा. विनोद चकित रह गया. उसे इन बदमाश छात्रों से ऐसे व्यवहार की आशा नहीं थी.

उसने संशय भरी नजरों से उन तीनों को बारी-बारी देखा. उनके चेहरे पर मित्रता के भाव थे, क्या पता यह उनका अभिनय हो? अगर ऐसा था तो वह अभिनय अच्छा कर लेते थे. विनोद के हृदय से एक आवाज आई, ‘‘हंसते दुश्मन का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए.’’

‘‘हां, भई,’’ तभी तीसरा लड़का बोला. विनोद के विचारों को एक झटका लगा. वह लड़का कह रहा था, ‘‘आओ, आज से हम सभी दोस्त हैं, हमारी दोस्ती के लिए एक-एक पान हो जाए.’’

विनोद विचारों में गुमसुम उनके करीब खड़ा था. वह तीसरे लड़के की बात पर गौर कर रहा था और नीचे जमीन की तरफ देख रहा था. तभी अचानक वह घटना हो गई, जिसकी उसे सपने में भी आशंका नहीं थी. विचारों से उबर कर विनोद किसी की तरफ देख भी न पाया था कि अचानक एक छात्र ने अपनी जेब से लम्बे फल वाला चाकू निकाला, विनोद उसकी हरकतों से पूर्णतया अनभिज्ञ था.

एक झटके से चाकू खोलकर उस छात्र ने विनोद के पेट में घुसेड़ दिया. चाकू का पूरा फल उसके पेट में घुस गया था. यह सब अप्रत्याशित ढंग से हुआ था कि वह संभल भी न पाया. एक चीख के साथ लड़खड़ाकर गिर गया. गिरते-गिरते उस छात्र ने चाकू को एक बार ऊपर से नीचे खींचा. विनोद का पेट लगभग एक बीता फट गया था.

उसके गिरते ही छात्रों ने उसके मुंह पर घृणा से थूक दिया. बेहोश होते-होते विनोद ने उसकी आवाज को अपने कानों में घुसते सुना, ‘‘साला, हरामजादा, दुनिया की सारी लड़कियों की इज्जत का ठेका लेकर पैदा हुआ था, उल्लू का पठ्ठा... ?

अस्पताल पहुंचने के पहले ही विनोद मौत की गोद में पहुंच चुका था. दुनिया की कोई ताकत उसे बचा नहीं सकी. उसके जीवन का इतना बुरा अन्त होगा, किसने सोचा था? विनोद ने भी क्या सोचा होगा? मुझे तो अभी तक उसकी मौत का विश्वास नहीं हो रहा था, जबकि मैंने खुद अपने हाथों से उसकी चिता को आग दी थी.

पुलिस कार्यवाही के बाद विनोद की लाश को मैंने दाह-संस्कार के लिए प्राप्त कर लिया था. शहर में और कोई उसका अपना नहीं था. दोस्त होने के नाते मुझे ही आगे बढ़कर अपने कर्तव्य निभाने पड़े थे. उसके पिता को मैंने सूचना दी थी, परन्तु वह समय से पहुंच नहीं सके थे. लाश को ज्यादा दिनों तक सुरक्षित रखना भी असंभव था, अतः विनोद का दाह-संस्कार कर दिया गया. तमाम छात्रों के अलावा विश्वविद्यालय के प्रवक्ता तथा उपकुलपति भी शव यात्रा में शामिल हुए थे, परन्तु जैसा कि बयान किया जा चुका है, सारे लोग चिता में आग लगने के साथ अपने-अपने घरों को लौट गए थे.

मृत व्यक्ति का कोई कितनी देर तक साथ दे सकता है?

--

(राकेश भ्रमर)

7, श्री होम्स, कंचन विहार,

बचपन स्कूल के पास, लामती,

विजय नगर, जबलपुर-482002

मोबाइल : 9968020930

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: राकेश भ्रमर की कहानी - कितनी देर तक
राकेश भ्रमर की कहानी - कितनी देर तक
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