स्त्री अधिकार एवं स्वतंत्रता की पैरवी डॉ. विजय शिंदे देवगिरी महावि...
स्त्री अधिकार एवं स्वतंत्रता की पैरवी
डॉ. विजय शिंदे
देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद.
भूमिका
भारतीय समाज में नारी जीवन, उसका अधिकार, स्थान, महत्त्व एवं अस्तित्व एक अद्भुत पहेली है। उसको समझने के लिए इतिहास को लंबी परंपरा की परतों को खोलना पड़ेगा। जिस देश में नारी को देवता रूप में पूजा जाता है, उसी देश में उसे उपेक्षित, भयावह, पीड़ादायक जिंदगी जीने के लिए मजबूर किया जाता है। उस पर इतना अन्याय-अत्याचार किया जाता है कि पूछो मत। अत्याचारों की काल-कोठरी में उसे उठाकर फेंक दिया जाता है, जहां से वह भाग नहीं सकती है। वह नितांत मूक बनकर बिना शिकायत उन पीड़ाओं को सहन करने लगती है। इस देश की मिट्टी से सीता, उर्वशी, कुंती, द्रौपदी, यशोधरा जन्मी जिसे सम्मानित किया, देवता माना। पर इन देवियों के आंतरिक दुःख का क्या? जिसे इन्होंने चुपचाप सहा। ऐसी देवियों को आंतरिक पीड़ा देकर देश ने सुख के महल बनाए। चाहे वह पौराणिक स्त्री पात्र हो या आधुनिक स्त्री पात्र हो। कितनों के नामों को गिना जा सकता है जो आज आदर्श माने जाते हैं, पर तत्कालीन युग में इनका साथ किसी ने नहीं दिया। मीरां भी उन्हंीं में से एक पात्र जिसका राजघराणे से संबंध पर पीड़ाएं तो सब नारियों के लिए जो थी वहीं। क्या अपनी धून-मस्ती में जीना दुनिया की नजरों में अपराध ही माना जाएगा। अपने अराध्य को सर्वोपरि मानना, उसके साथ तादात्म्य स्थापित करना कलंक माना जाएगा...? परिस्थितियां बदली देश अंग्रेजों की गुलामी से भी गुजर चुका। रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीर नारियों से आत्मभिमान सींचा भी गया पर नारी की उपेक्षा जैसे की वैसी। विधवा जीवन जीने की मजबूरी, शिक्षा से वंचित रहना, दहलिज को लांघना नहीं, परदे में रहना एक नहीं हजारों पाबंदियां। सामाजिक परिवर्तन होने लगा। सावित्रिबाई फुले एवं अन्य समाजसुधारकों के महनीय कार्य से शिक्षा के दरवाजें स्त्रियों के लिए खोले और नारियां अपने अधिकार, अस्मिता, आत्मभिमान के लिए सजग हो गई। शिक्षा का सफर जारी रखते हुए दुनिया घूमने लगी।
आज भारत में नारियों की स्थितियां पौराणिक नारी की अपेक्षा अलग पर अन्याय, अत्याचार, शोषण अब भी जारी है। शील को लेकर संदेह पैदा कर उसको घायल करना तथा चारों ओर से घेर मिलजुल पत्थर मारना जारी है। पुरुषी अहं के तले स्त्रियों को दबाए रखना आम बात है। जरा-सी उसकी आवाज बढ़ी, विद्रोही स्वर पनपा की उसकी गाल पर कलंकिनी-कुलनासिनी का थप्पड जड़ा जाता है। खैर इन सारी पाबंदियों को बड़े साहस के साथ नारियां नकार रही है। अब वह दिन दूर नहीं जहां नारी देवी होने का चोला उतार फेंकेगी और पुरुष जिस आजादी के साथ जीया हे वैसे जीएगी। समाज के चारों तरफ नारी अधिकार एवं स्वतंत्रता की पैरवी शुरू है। समय आ चुका है कि अपने मन में चल रही खलबली-विद्रोह को नारियां सही दिशा दें और स्वयं ‘लीड’ करते हुए खुद तो आजादी से जीए पर अन्यों के लिए भी एक उदाहरण पेश करें। हो सके तो अपने साथ समूह को भी जागृत करें। आधुनिक हिंदी लेखिकाओं में समाविष्ट होनेवाली प्रभा खेतान विद्रोही महिलाओं के लिए एक उदाहरण पेश कर रही है। वे जैसी जी रही है वह पुरुष सत्ता के लिए आवाहन है। सावध-संभला हुआ उपेक्षा से भरा आरंभिक जीवन पर जैसे ही होश संभाला अपना जीवन मार्ग खुद चुना। जिसके साथ नौ वर्ष की उम्र में यौन अत्याचार हुआ उसकी पीड़ा को परिवार ने समझे बिना हमेशा उपेक्षा से नकारा जीवन जीने के लिए शब्दों के बाण चलाए। अपने परिवार में मन की पीड़ा किसी के पास खोल नहीं सकी, उसे परिवार की सेवा करने वाली सेविका ‘दाई मां’ के पास जाना पड़ा। उसने भी छोटी प्रभा के आंसुओं को पीते वक्त कहा, ‘ना बेटी इस बात को दुबारा जुबान पर मत लाना। जो हुआ उसे भूल जाओ।’ पर वे इस बात को भूलेगी कैसे। संभली, समेटी और शिक्षा पाकर पुरुषी सत्ता को नकारे मन चाहा व्यवसाय भी किया। परिवार, देश-दुनिया, पास-पड़ोसी एवं समाज की टिप्पणियों को अहमियत दिए बिना। ‘अन्या से अनन्या’ में प्रभा खेतान ने अपने आत्मकथन को बड़ी बेबाकी और ईमानदारी से खोला है, जिसे पढ़ उसके आजादी की लड़ाई का परिचय होता है। कई लांछन लगे पर उन्होंने उसे अहमियत नहीं दी। राधा-मीरांबाई जिस धुन और धुंद के साथ जीई वैसे प्रभा जी भी।
‘‘म्हांरां री गिरधर गोपाड़ दुसरा णा कूयां।
दूसरां णां कोयां साधां सकड़ डोक जूयां।
भाया छाड्यां बंधा छाड्यां छाड्यां सगा सूयां।
***
राणां विषरो प्याड़ा भेज्या पीया मगण हूयां।
अब त बात फेड़ पड्या जाण्यां सब कूयां।
मीरां री लगण लग्यां होणा हो जो हूयां।।’’
मीरांबाई के लिए गोपाल ही सर्वस्व थे पर प्रभा जी के लिए उनका मन, स्त्री अधिकार, आजादी की पैरवी ही गोपाल था। उसको पाने के लिए जी तोड़ मेहनत, आरोपों-प्रत्यारोपों के बावजूद भी सामाजिक व्यवस्था के बंधनों का विष बड़े प्यार से पी कर पचाया और अपने मन की आजादी पाई। मैथिलीशरण जी ने जिस नारी को ‘अबला’ संबोधित किया अब समय आ चुका है उसे वापस ले। प्रभा जी वह पतंगा है जो आग में अपने पंखों को दुनिया की नजरों में राख कर बैठी पर खुद मन-मुरादी जिंदगी जी कर बाकी स्त्रियों के लिए एक उदाहरण बन गई।
स्त्री सम्मान
हिंदी साहित्य में नहीं तो भारतीय साहित्य में प्रभा जी के बुद्घि, कार्य एवं साहस को सराहा जा रहा है। वे दर्शन, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, विश्व बाजार एवं उद्योग जगत् की गहरी जानकार है। चमड़े का आंतर्राष्ट्रीय बाजार में व्यापार करते हुए अपने अनुभवों को साहित्य में पिरोया। भीतरी मन की भाव-भावनाओं को कागज़ो पर उतारा। विश्व स्तर पर लिखे-पढ़े जा रहे साहित्य का अध्ययन कर भारतीय समाज में निहित स्त्री के शोषण, मनोविज्ञान एवं मुक्ति संघर्ष पर विचारोत्तजक लेखन किया। ऐसा लेखन करने के पीछे उनका उद्देश्य एक ही रहा कि भारतीय स्त्री सम्मानित हो। प्रभा जी का यह आत्मकथन जब प्रकाशित हुआ तब उनके साहस एवं बेबाकी की प्रशंसा हुई और आलोचना भी। इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा क्योंकि वह इन प्रशंसाओं एवं आलोचनाओं से ऊपर उठकर तन्मय अवस्था में पहुंच चुकी थी। उन्होंने परंपरागत स्त्री के सांचे को तोड़कर चकनाचुर किया। परंतु जब असल में वे उन क्षणोें से गुजर रही थी तब बहुत तड़पी। पीड़ाओं से अब हटूं-पलायन करूं तो यह लड़ाई अधुरी रहेगी, मेरी लड़ाई मेरी नहीं संपूर्ण स्त्री जाति की हैसमझा। अर्थात् अपने भीतर संपूर्ण नारी जाति को देखने का उनका व्यापक दृष्टिकोण ताकत देता रहा। उन्हें पता था कि आज जिन स्थितियों में कदम रखा है वह आसानी से संभव नहीं हुआ, कितनी स्त्रियों के आहुति के बाद समाज प्रवाह उन स्थितियों में पहुंच चुका, जहां मैं सोचती हूं वह करने का संबल पाया है। अनेक स्त्रियों के सती जाने के बाद परिवर्तन की धारा प्रवाहित हुई है, इस पर संवार होना ही है। बचपन से उनके सामने जो आदर्श रखे थे उन्हें नकारा और भीतरी स्त्री को सलाम किया। ‘‘सती को प्रणाम ! सती मां ! तेरा आदर्श मेरे सामने हमेशा रहा, मैंने खुद को उसी परंपरा में ढालने की कोशिश की। मेरे लिए सती का अर्थ था, पति की एकनिष्ठ भक्ति, सूचना समर्पण, किसी पराए मर्द की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखना। लेकिन आज मेरे भीतर की बची हुई स्त्री को प्रणाम।’’ (पृ. ५) जिसने काली-सावली रूप रंगवाली नारी बन कर जन्म लिया, नौवें वर्ष में रिश्ते से भाई लगने वाले पुरुष से यौनत्याचार सहा वह साठवें बरस में सती को प्रणाम करते हुए भीतरी नवीन स्त्री का सम्मान कर रही है।
प्रभा जी ने अपने जीवन में दुगुनी उम्रवाले डॉक्टर सर्राफ से प्रेम किया। स्वयं अविवाहिता पर जिससे वे प्रेम करना चाह रही है वह विवाहित, पांच बच्चों का पिता। कहीं कोई तालमेल नहीं फिर भी जुड़ना और अंत तक ईमानदारी से निभाना, अविवाहित रहकर। भला ऐसी नारी को कोई सम्मानित करेगा? परंपरागत कटघरे ऐसी नारी को जुतों से पिटेगा पर ‘अन्या से अनन्या’ तक सफर करने वाली प्रभा जी को देख सलाम करने का मन करता है। उनकी सोच, जीना कहीं भी गलत नहीं लगता। उल्टा उन्होंने जिस पुरुष के साथ जुड़ना पसंद किया उसे, उसके परिवार एवं बच्चों के भविष्य को सुरक्षित किया। ‘रखैल’ का आम अर्थ है ऐसी स्त्री जो एकाध पुरुष के साथ रहे जो उसकी सारी जिम्मेदारियां निभाए-ढोए। उसके बदले में उसे शरीर सुख दे। लेकिन यहां प्रभा जी स्वयं आत्मनिर्भर, उसे खुद किसी की आर्थिक सहायता नहीं चाहिए, खुद का भरण-पोषण खुद कर रही है। वे खुद कमाती है, स्वावलंबी है, आत्मनिर्भर एवं संघर्षशील है। समाज द्वारा ‘रखैल’ का लेबल हमेशा स्त्री पर लगाया जाता है उसे उन्होंने नकारा और जो पुरुष प्रतिष्ठा पा चुका उसे रखैल के कटघरे में खड़ा किया। यहां वह पुरुष डॉक्टर सर्राफ नहीं तो संपूर्ण वर्ग है। मैं कौन हूं? के सवाल में उलझी प्रभा जाने-अनजाने कई सवालों के उत्तर देकर ‘मानवी’ होने के दांवे को पुष्ट करती है। वह स्वयं तो सम्मानित होती है पर संपूर्ण स्त्री जाति को सम्मानित करती है जिसे पांव की जूती मानकर हमेशा कुचला था। प्रभा जी को भी कई बार कुचला पर उन्होंने हार नहीं मानी। ‘‘हां, टूटी हूं, बार-बार टूटी हूं... पर कहीं तो चोट के निशान नहीं... दुनिया के पैरों तले रौंदी गई, पर मैं मिट्टी के लोंदे में परिवर्तित नहीं हो पाई। इस उम्र में भी एक पूरी-की-पूरी साबुत औरत हूं, जिसे अपनी उपलब्धियों पर नाज है।’’ (पृ. २९). प्रभा जी का यह निष्कर्ष है कि केवल भारत में ही नहीं अमरिका, युरोप एवं अन्य प्रगत राष्ट्रों में तथा दुनिया के किसी भी कोने में जाओ नारी को प्रताड़ित किया जा रहा है। इसीलिए संघर्ष एवं लड़ाई से सम्मान और स्वाभिमान की जीत हासिल हो सकती है। व्यापारिक संबांधों के कारण उन्होंने बाहरी देशों की महिलाओं को देखा-परखा। उनके कई देशों के पुरुषों के साथ व्यापारिक संबंध आए उनसे दोस्ती भी बनी पर कभी-भी यह संबंध व्यापारिक संबंध से नीचे फिसलने नहीं दिए। यह परंपरागत भारतीय नारी का संस्कारशील मन था जो एक के साथ जुड़कर ईमानदारी से मानसिक सम्मान को सर आंखों पर रख रहा था।
स्त्री वादी दृष्टिकोण
प्रभा खेतान पूरे आत्मकथन में स्त्री अधिकार की पैरवी करते नजर आती है। उसने भारतीय एवं पाश्चात्य चिंतकों को पढ़ा समझा और उसके आधार से अपनी जिंदगी संवारने की कोशिश की। हांलाकि उसके मन में हजारों हलचले निर्माण हुई। कई बार सावध भूमिकाएं अदा करते, कदम पीछे भी हटा लिए, लंबी जीत के लिए कुछ क्षणों की हार भी कबुल की फिर ताकत पाकर स्वीवादी विचारों का पुरस्कार किया। सार्त्र, सिमोन द बोउवा जैसे विचारवतों से पुष्ट होकर बेधड़क जिंदगी जीने का बल उनमें आया। साथी-संगी एवं परिवार में जिन पुरुषों ने स्त्री वादी दृष्टिकोणों को नकारा उन्हें खड़े बोल सुनाए। उन्होंने स्त्री के गुलाम-शोषित रूप को नकारा और पुरुषों के सामने सवाल रखा कि तुम लोगों को अपनी मां का, बहन का शोषण नजर नहीं आता? वैसे प्रभा जी के साथ पढ़ने वाले लड़के और लड़कियों के प्रश्न अलग थे। वे जिन प्रश्नों के साथ लड़ रहे थे उनसे वे कभी जुड़ी नहीं परंतु उनका लड़ना उन्हें उचित लगता था। प्रभा खेतान के दीमाग में जो प्रश्न उठ रहे थे वे स्त्री स्वंतत्रता को लेकर थे। ‘‘मैं व्यक्ति-स्वतंत्रता के नाम पर अपने ही टापू पर खड़ी किसी अनजान पुल को खोज रही थी एवं अपने स्त्री अधिकारों की पैरवी कर रही थी। (पृ. ८८). अपने जीवन में डॉक्टर सर्राफ को उन्होंने चुना परंतु सर्राफ ने उनके लिए सुख के महल खड़े किए ऐसी बात नहीं। सर्राफ की पत्नी बच्चे एवं अन्य रिश्तेदारों ने प्रभा जी को हमेशा अपमानित किया। यहां तक सर्राफ ने भी उनकी कई बार तौहिन की। उनके बाहर घुमने फिरने, अन्यों के साथ फोन पर बात करने पर पाबंदियां लगवाई। उनकी हमेशा खोज-खबर रखी। इस स्थिति और बंदीघर को जब प्रभा जी ने नकारा तो गुस्से में ‘रंडीखाना’ खोल दो कहकर अपमानित किया। किसी महिला की प्रतिबद्घता का यो अपमान उनसे सहा नहीं गया और प्रभा जी ने सर्राफ को अपनी आजादी स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए चीख कर कहा ‘‘स्वतंत्र स्त्री का क्या यही अर्थ हुआ कि उसे वेश्या का दर्जा दे दिया जाए? मुझे आपसे और आपकी गार्जियनशिप से मुक्ति चाहिए।’’(पृ. १८०). सर्राफ को लगा कि अब ये लड़की अपने हाथ से निकल जाएगी तो नरम होकर दुनिया के खतरे एवं जोखिमों का जामा पहनाकर उसके संपत्ति की चिंता और नारी होने का जिक्र किया। परंतु प्रभा खेतान को पता था कि नारी का जहां अपमान होगा वहां दुर्गा तो बनना पड़ेगा।
‘अन्या से अनन्या’ में लेखिका ने चाहा कि स्त्री अपने जीवन की बागडौर अपने ही हाथों में रखे। स्त्री जीवन का सूत्रसंचालन हमेशा पुरुषों ने किया इसका आश्चर्य उन्हें हैं। उन्होंने एक जगह पढ़ा था कि आप अपनी गाड़ी खुद चलाती हैं तो आपका आत्मविश्वास बढ़ता है। अतः उन्होंने गाड़ी चलाने की भरसक कोशिश की। सीखी भी। अस्तित्वहीन स्त्री जीवन को नकारते हुए लिखा कि ‘‘भला यह भी कोई बात हुई कि कोई आपको लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान ले जा रहा है।’’ (पृ.१९६). वैसे यह वाक्य संवारी के दृष्टिकोण से था पर नारी के लिए ‘फिट’ बैठता है। नारी किसी संवारी से कम नहीं, अतः संवारी वाले अस्तित्व को नकार कर स्त्री वादी दृष्टिकोण का उन्होंने पुरस्कार किया। लेखिका स्त्रियों को सजग कर रही है कि हमेशा उनकी आर्थिक निर्भरता नकारी, गृहस्थी में उसके श्रम को नकारा, कभी-कभार एकाध स्त्री सफल बनी तो असे अपवाद मान हाशिए पर फेंक दिया। पर भविष्य में नारी शिक्षा पाए, ताकत पाए और मुख्याधारा में बनी रहे। ‘‘स्त्री भी न्याय और औचित्य की मांग करेगी? इस नए सर्जित संसार में प्रगति का प्रशस्त मार्ग, घर की देहरी से निकलकर पृथ्वी के अनंत छोर तक जाता। है।’’ (पृ. २५८). स्त्री इस वास्तव को जाने और अपने डैनों को अहिस्ता से दुनिया के आकाश में फैलाकर उड़ना शुरू करे, जहां वह आजाद जीवन जी सके।
साहसिक संघर्ष
दिन और परिस्थितियां बदली है। आप चुप बैठेंगे तो कुचले जाओगे। खैरियत इसमें है कि साहस के साथ निर्णय लें और उन निर्णयों के साथ कटिबद्ध रहे। प्रभा जी को डॉक्टर सर्राफ के प्रति आकर्षण-प्रेम हुआ और बेबाकी से इजहार भी किया। पुरुष प्रेम में साहसिक कदम लेखिका ने पहले उठाया, सोच समझ कर। सारी स्थितियों को जानकर। डॉक्टर दूसरी शादी करने की स्थिति में नहीं है जानते हुए भी। लेखिका के मन में डॉक्टर के लिए जो चाहत थी वह ईमानदार थी, उसमें झूठ-फरेब नहीं था। उस चाहत के साथ, सारी उपेक्षाओं और पीड़ीओं के बावजूद, जिंदगी भर जुड़े रहने का उनका सफर साहसिक माना जाएगा। परंतु जिन रास्तों से गुजरकर उन्हें कई चोटों ने घायल किया उसे देख उनके विचार स्त्री अधिकारों की मांग के लिए प्रखर बनते हैं। एक स्त्री होने के साथ उन्होंने जो निर्णय लिया था उससे कई प्रकारों से अपमान सहना पड़ा, सर्राफ से भी और समाज से भी। लेखिका समाज से लड़ने के लिए सक्षम है पर डॉक्टर से नहीं। डॉक्टर एक पुरुष है पुरुषों की गलतियां समाज हमेशा माफ करता है स्त्रियों को हमेशा कटघरे में खड़ा किया जाता है। लेखिका के मन में आक्रोश रहा पर थोड़ी नरमाई से डॉक्टर को नकारे बिना स्त्री जाति के जिंदगी में पुरूषों के अनावश्यक हस्तक्षेपों को नकारा। संपूर्ण आत्मकथन में प्रभा जी जैसे पुरुषी सत्ता से लड़ी वैसे पतिव्रता, सती-सावित्री महिलाओं से भी लड़ी, जिनकी नजर में वे पथभ्रष्ट और अपवित्र थी। खैर इन दो सत्ताओं के साथ उनकी अंदरूनी लड़ाई भी शुरू थी ‘अनन्या’ की। ‘‘मैं वह अन्य थी जिसे निरंतर निर्मित किया जा रहा था। क्योंकि महज मेरा होना पत्नीत्व नामक संस्था को चुनौती दे रहा था। मैं बस पति-पत्नी के बीच ‘एक वह’ थी।’’ (पृ. १७५). मन के कोनो में निर्मित इन भावानाओं पर भी आखिरकार लेखिका ने विजय हासिल की।
प्रभा जी अपनी कमाई से किसी की सहायता लिए बिना बड़ा प्लैट खरिदने का मन बनाती है इसे भी आवाहन दिया, समाज के साथ दोस्त, परिवार एवं आत्मीय जनों ने भी। बिना पुरुष घर बनाने की कल्पना बीमार सामाजिक मानसिकता स्वीकार नहीं पाई। परंतु सबके विरोध को झेलते हुए बड़ा प्लैट लिया जिसमें ऑफीस, घर डॉक्टर साहब और उनके परिवार के लिए जगह हो। जिस नारी ने अपनी जिंदगी को लड़ते-लड़ते राख किया, जिसके लिए जीवन न्योछावर किया उसके जीवन में कोई और नारी प्रवेश कर चुकी है पता चला तब बगावत की। साहसिक बगावत जो आम स्त्री नहीं कर सकती। ‘‘मैं सर से पांव तक एक जलती अग्निशिखा थी, बदले की आग में धधकती हुई। डॉक्टर साहब किसी और को खोेज सकते हैं तो मैं क्यों नहीं खोज सकती? जितनी चोट मुझे लगी है उतनी चोट उन्हें भी लगानी चाहिए। मैं भली-भांति समझ गई थी कि केवल कहने-सुनने से बात बनेगी नहीं। पुरुष जैसे औरत को काम में लेता है, औरत भी वैसे ही पुरुष को व्यवहार कर सकती है। औरत भी कह सकती है तू नहीं तो कोई और सही। कम-से-कम एक बार किसी अन्य पुरुष की बाहों में अपना होना तो महसूस कर पाऊंगी।’’ (पृ. २५१) यह सोच, पुरुषी सत्ताक समाज के साथ स्त्री जाति का साहसिक संघर्ष नहीं तो और क्या है?
प्रतिबद्धता
‘अन्या से अनन्या’ में जो वर्णन प्रभा जी ने किया है उससे पता चलता है वे एक तूफानी जिंदगी जी चुकी है। उसके पास-पड़ोस केवल डॉक्टर नहीं तो उनसे भी हट्टे-कट्टे खूबसूरत पुरुषों की भरमार थी। प्रभा जी के पास पुरुषों को आकर्षित करने के लिए सौंदर्य भी था और ढेर सारा पैसा भी। कई जनों ने उन्हें इस विषय को लेकर छेड़ा भी, प्रस्ताव भी रखे, अपने समाज और आस-पासवालों ने तथा दुनिया के सफर में भी, देशी-विदेशी लोगों ने। हिंदुस्तानी लड़की का शाश्वत सपना ‘लाल चुनरी’ के कई मौके उसके सामने से गुजर चुके लेकिन उन्होंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। क्यों? उन्होंने सारी यंत्रणाओं के बावजूद डॉक्टर सर्राफ का वर्णन किया था। मन की पवित्रता रखते हुए ईमानदारी से उनके लिए प्रतिबद्धता निभाती रही। यह प्रतिबद्घता केवल उनके साथ नहीं तो सारे नकारों के बावजूद उनकी पत्नी, बच्चों और दोस्तों के साथ भी रही। परिवार के कई मुश्किल प्रसंगों एवं आर्थिक जिम्मेदारियों मे उनका बड़ा हिस्सा रहा। उनके परिवार को अपना मान सारी जिम्मेदारियों को निर्वहन करती रही और जब कहा कि अब आपकी जरूरत नहीं मत आओ.... आई नहीं...। जब कहा अब आप आए, दौड़ती आई...। पहचानती थी कि डॉक्टर का परिवार अपना इस्तेमाल करता है करने दिया। केवल प्रतिबद्घता के कारण।
प्रभा जी की प्रतिबद्धता अपने निर्णयों के साथ भी रही। जिसे चुना-वरण किया उसे जुड़े रहने की प्रतिबद्धता। अवैध रिश्ते को निभाने के लिए अपने जिंदगी की आहुति देकर प्रतिबद्घता निभाना आम व्यक्ति मूर्खतापूर्ण मानेगा पर उसे उन्होंने निभाया। डॉक्टर से सुख कम, दुःख-आंसू ज्यादा मिले पर कभी शिकायत नहीं। समय का डटकर सामना करते वे लिखती हैं, ‘‘परिस्थिति पूरी तरह मुझ पर हावी थी, एक अवैध रिश्ते को जीकर दिखलाने के प्रयास का शायद यही हश्र होना था, इससे भिन्न और कुछ नहीं।’’ (पृ. २४२) अंदरूनी दुःख-पीड़ा फिर भी रिश्ते को निभाने की प्रतिबद्धता दीपक से झप्पटा मार परों को जलाने जैसा ही है।
विद्रोह और नकार
प्रभा खेतान के जिंदगी का सफर विद्रोह और नकार से भर चुका है। उनकी मां बच्चे पैदा करती रही और प्रभा को ऐसी जिंदगी से दूर रहने की हिदायत दी। विरासत में विद्रोह और अन्याय को नकारने की ताकत उन्हें मिली।‘‘ मुझे अम्मा की तरह नहीं होना, कभी नहीं। भाभी की घुटन भरी जिंदगी की नियति मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकती। मैं अपने जीवन को आंसुओं में नहीं बहा सकती। क्या एक बूंद आंसू में स्त्री का सारा ब्रह्मांड समा जाए? क्यों? किसलिए? (पृ. ४५) स्त्री जीवन में भरे पारिवारिक दुःख-पीड़ा, त्याग और चुप्पी को पूरे आत्मकथन में नकारा है। पारिवारिक बंधनों के प्रति लगातार विद्रोह कर लड़ाई ठनी है, परंतु जिन आंयुओं की बात प्रभा जी कर रही है यह उनसे भी छूटे नहीं। आंसू बंधनों से नहीं किंतु सामाजिक उपेक्षा एवं अपमान से निकले, वह आक्रोश के रहे हैं। नारी अस्तित्व का खारिज होना उन्होंने ताकत के साथ नकारा है। डॉक्टर सर्राफ द्वारा उन्हें कभी स्वीकारना कभी नकारना, उनकी नहीं तो सर्राफ की उलझन थी, अतः कड़ाई के साथ उन्हें भी कड़वे बोल सुनाए। नारी को वैवाहिक बंधनों में बांधकर गुलाम करने वाली व्यवस्था ‘विवाह एक ओवररेटेड संस्था है’ कहकर नकारा। इन्सान जब तक जिंदगी में ‘ना’ वहीं कर सकता तब तक सफल नहीं हो सकता। ‘ना’ करने के लिए साहस और सामर्थ्य की जरूरत होती है। मनुष्य उन चीजों को भी नकारे जो अपने जीवन में फायदेमंद हो सकती है पर अपनी नहीं होती और मनुष्य उन चीजों को भी नकारे जो अपने जीवन में नुकसानदेह होती है। कुछ क्षण का लाभ आपको जिंदगी भर गुलाम बना सकता है, आज़ादी को छीन सकता है। अर्थात् मोह-माया से दूर रहना है तो नकार जरूरी है। सर्राफ ने प्रभा को कई बार रुपए देने चाहे, मदत करनी चाही पर हमेशा उन्होंने ‘मेरा प्यार बिकाऊ नहीं है’ कहते नकारा।
आत्मकथन में जितनी घटनाओं एवं प्रसंगों का विश्लेषण है उनमें कई प्रकार का विद्रोह रहा है। प्रभा जी ने महाविद्यालयीन जीवन में बंगाल के भीतर बदली राजनीतिक परिस्थितियां एवं वामपंत की विद्रोहात्मक स्थिति का जिक्र किया है। इंदिरा गांधी का समय, आपात्कालीन स्थितियों का वर्णन एवं विद्रोहात्मक वातावरण का वर्णन हुआ है, जिसे प्रभा जी कभी जुड़ी नहीं परंतु महिलाओं के लिए सामाजिक बंधनों का अक्सर विरोध किया। उन्होंने अपने मौन और नरम विद्रोह को ईमानदारी से स्वीकारा भी। ‘‘मैंने लकीर से हटकर व्यवस्था के प्रति विद्रोह किया किंतु वह मुझ अकेले को विद्रोह था। जन-आंदोलन में मैं कभी नहीं उतरी। कैरियरपरस्ती में लगी हुई स्त्री के किसी जुलूस में शामिल होने का सवाल ही नहीं उठता।’’ (पृ. २६०) कहा जा सकता है कि लेखिका का पुरुष प्रधान संस्कृति के प्रति विद्रोह और नकार बना रहा। नारियों को परखते हुए अनेक मोड़ों पर कभी नरम और प्रखर होते उन्होंने फूंक-फूंक कर जिंदगी में कदम उठाए, जिससे वे सफल उद्योजक और विद्रोही नारी बनी।
उपसंहार
हिंदी साहित्य में आत्मकथन फिलहाल जिस दौर से गुजर रहा है और अपने पुराने चोले को उतारकर बेबाक नवीन पुट ग्रहण कर रहा है उसमें ‘अन्या से अनन्या’ का स्थान महत्वपूर्ण रहेगा। हिंदी साहित्य में ही क्यों कहे इधर भारतीय साहित्य में जो महिलाएं धुआंधार लेखन कर रही है वह नारी जाति के स्वतंत्रता, आज़ादी, अस्मिता की जबरदस्त लड़ाई लड़ रही है। सालों-साल से उपेक्षा और बेड़ियों से जकड़ी जिंदगी को नकार सामाजिक व्यवस्था को चकनाचूर कर रही है। सौ-डेढ़ सौ सालों का यह परिवर्तन अवाक करने वाला है। कुछ साल पहले विधवाओं के साथ अत्याचार, बाल कटवाना, सती प्रथा... का प्रचलन था पर अब परिवर्तन आ चुका है। शिक्षा से जाग्रत हो चुकी महिलाएं एकाधिकार अजमाने वाले पुरुष व्यवस्था को मुंहतोड़ जवाब देने की क्षमता रखती है। उन्हें कोई ‘अंडरएस्टिमेट’ कर गलत कदम उठाने की कोशिश करे तो कुचला जाएगा।
‘अन्या से अनन्या’ में प्रभा खेतान ने खुद से जोड़कर वर्तमान युग में मौजुद महिलाओं की स्थिति का चहुंमुखी चिंतन किया। अपनी जगह कहां है? परखते-परखते अनायास ही महिलाओं के अधिकार एवं स्वतंत्रता की पैरवी उन्होंने की है। प्रसंग-दर-प्रसंग आगे-पीछे घटित विविध घटनाओं का सफल रेखांकन आत्मकथन में होता है, जो नारी जीवन की मुश्किलों, पीड़ाओं को वर्णित कर आत्मविश्वास की चेतना प्रदान करने में सफल हुआ है।
आधार ग्रंथ
अन्या से अनन्या (आत्मकथन)-प्रभा खेतान
राजकमल प्रकाशन प्रा.लि, नई दिल्ली, पहला संस्करण - २००७,
पृष्ठ - २८७, मूल्य - २५०/-
डॉ. विजय शिंदे
४१/बी, शाहूनगर को.सो.,
बंसीलालनगर, औरंगाबाद.
फोन - ०९४२३२२२८०८
ईमेल - र्वीींीींहळपवशऽसारळश्र.लेा
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Dr Rohidas Nitonde
डॉ,रोहिदास जी 'ऍन अथैटिक आर्टिकल' टिप्पण्णी बहुत कुछ बताती है। इसका अर्थ मैं मानु कि आप भी स्त्री के वर्तमान स्थिति की चिंता कर रहें हैं और आदमी जब तक चिंतीत नहीं होता तब तक कुछ कर नहीं पाता। आपकी मेरी चिंता दुनिया की बने और जल्दि स्त्रियों को अधिकार प्राप्त हो।
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But at receiving end there might be also woman
'उचित समय पर उचित आलेख' क्या करें दोस्त दुनिया इतनी निर्दयी हो गई है कि महिलाओं को सरलता से जीने नहीं दे रही है। प्रभा खेतान जैसी महिलाएं झूंडों में आगे आए और पुरुषों को अपनी जगह दिखा दे तो स्त्रियों के अधिकार मिलने के लिए जादा समय लगेगा नहीं।
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