हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 10 वीं किश्त

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वसीयत – १०

उपन्यास : हरीन्द्र दवे भाषांतर: हर्षद दवे

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इन्सपेक्टर न्यालचंद ड्राइवर से कह रहे थे: ‘किसी से टकराये बगैर चला सके उतनी तेज रफ्तार से गाड़ी चला.’ बैंगलोर से जयपुर आने पर टूरिस्ट गाइड मानसिंह की पूछताछ से कोई सुराग हाथ लगेगा ऐसी उम्मीद थी उसे. मानसिंह ने सरसपुर के डाक बंगले में रहे आयरिश युगल की बात की थी उस में उसे केस की टोह मिलेगी ऐसा लगा था. उतने में भरतपुर पुलिस अधिकारी मार्टिन अल्वारेज का फोन आया:

‘न्याल, तूं भरतपुर आ जा, कुछ मजेदार घटना घटी है.’

‘कौन से केस में?’

‘वैसे यह दिल्ली के बैंक रोबरी का केस है, परन्तु संदेहास्पद व्यक्ति आप के एक केस से सम्बन्ध रखती है.’

‘मोहिनी हत्या केस से?’

‘एक्जेटली. तू जल्दी आ. कल रात उस की जमकर पिटाई की गई है. तेरे आने के बाद आगे पूछताछ करूँगा.’

मार्टिन के इस फोन के बाद वह घर जाने के लिए भी नहीं रूका. उस की पत्नी कोलेज में अध्यापक थी. वह घर से कोलेज जाने के लिए निकल चुकी थी. उसने फोन से कह दिया:

‘मैं भरतपुर जा रहा हूँ.’

‘परन्तु आपका बैग?’ उसकी पत्नी ने पूछा.

‘बैंगलोर से आया तब से अटैची अभी पुलिस स्टेशन में ही है.’

‘जाना जरूरी है क्या?’

‘हाँ डियर, इट्स ड्यूटी. परन्तु हो सके उतना जल्दी लौटूंगा.दूर कहाँ जा रहा हूँ? बिलकुल पास में ही हूँ.’ बस फोन रखकर उसने जीप भगाई.

उसका ड्राइवर न्यालचंद के मिजाज से वाकिफ था. उसने जीप की गति और तेज कर दी. न्यालचंद आसपास के विस्तार पर नजर करता हुआ मन में सोच रहा था: पंजाब की कन्या बैंगलोर में गृहिणी बनी. अपने शौक से राजस्थान आई और वहां उस की हत्या हो गई. उस का दुश्मन कौन हो सकता है? वह अपनी दौलत किसी अज्ञात यतीम लड़के को देती गई. वह उस का क्या लगता होगा? उस ने सिर हिला के मन ही मन कहा: किसी स्त्री के बारे में गलत क्यूँ सोचना? परन्तु विधाता की विचित्रता तो देखिये! उस का पति भी उसी रात चल बसा. वह कुदरती मौत होगी? या उस के मित्र डॉक्टरों ने पोस्टमोर्टम के बाद इच्छानुसार सर्टिफिकेट लिख दिया होगा. यदि वह बैंगलोर में होता तो शायद ज्यादा दरकार से पोस्टमोर्टम हो यह देखा होता. डॉक्टर दिवाकर पंडित भी क्या अफलातून आदमी थे! बैंगलोर में जिस किसी से भी मिला वे सब उनके चहक और उन के भक्त लगे. स्पष्ट रूप से कोई खलनायक नजर न आता हो ऐसी कहानी में खलनायक को खोजना पड़ता है ऐसा उसका पुलिस खाते का लंबे अरसे का उसे तजुर्बा था.

जीप कब भरतपुर के पुलिस थाने के कम्पाऊंड में आ गई इसका ख़याल ही न्यालचंद को नहीं रहा. ‘हाय न्याल!’ मार्टिन ने आवाज दी.

‘हेलो मार्टिन,’ न्यालचंद ने जवाब दिया. दोनों बरसों के बाद मिल रहे थे.

मार्टिन न्यालचंद के गले लग गया. ‘पाजी, कहाँ है तू इतने बरसों से? बस अखबारों में छाया रहता है. इन्सपेक्टर न्यालचंद ने यह गिरफ्तारी की, उस ह्त्या का पर्दाफ़ाश किया, परन्तु कभी ट्रेनिंग कोलेज के दोस्त मार्टिन को याद करता है ऐसा नहीं पढ़ा,’ मार्टिन ने कहा: ‘मुझे लगा कि यह हरामजादा ठीक हाथ लगा है. फॉर वंस, तेरा केस मैंने सलटाया है. तूं हमेशा भूत की चोटी पकडता है. मुझे लगा कि एक बार मैं दोस्त की चोटी पकडूं तो मजा आ जाये.’

‘मार्टिन, तूं बहोत उत्तेजित हो गया है ऐसा लगता है. बात क्या है? कन्फेशन हो गया?’

‘कुछ हो गया. कुछ बाकी है. तेरी उपस्थिति में ज्यादा मजा आएगा.’

‘बात क्या है यह तो बता!’

‘पहले कुछ आराम कर ले. कुछ खाया पिया? घर से टिफिन मंगवाया है. तेरी भाभी से कहा कि न्याल के लिए कुछ सागपात बनाना. मैं भी उसके साथ घासफूस खाऊँगा.’

‘तूं मटन-बिरियानी खा न, कौन मना कर रहा है? मुझे घासफूस देना.’

‘नहीं रे पाजी, इतने दिनों के बाद मिला है, फिर खाने की इत्ती सी बात में तेरा दिल क्यों तोड़े?’ मार्टिन ने कहा.

खाते वक्त मार्टिन ने बात आगे बढ़ाई, ‘दिल्ली के बैंक रोबरी के बारे में तो तूं जानता ही होगा.’

‘तू छानबीन कर रहा है यह पढ़ने पर दिलचस्पी तो रहेगी ही.’

‘बैंक के केशियर ने दो आदमिओं का हुलिया ठीक ठीक बताया था. उनमें से एक का चित्र हमारे ट्रेसर ने इतनी बारीकी से बनाया था कि मैं उसी की तलाश में था. उस के गाल पर तिल था वह ज्यादा गाढा, नकली हो ऐसा लगता था. उस की ठुड्डी पर एक तिल था वह असली था. केशियर ने उसकी लम्बाई, उसका कद, उस के चेहरे का आकार, उस की आँखों का वर्णन इतनी सूक्ष्मता से बताया था कि उसे पकड़ने से पूरा मामला सलट जाएगा ऐसा लगता था.’

न्यालचंद ध्यान से सुन रहा था. मार्टिन साहसी था. पहले किसी से न निबटे ऐसे एक-दो मुकद्दमे उसने निबटा के दिल्ली पुलिस में सीनियोरिटी हांसिल की थी. वहां से अब सिआईडी ब्रांच में भी उनके नामके सिक्के पड़ते थे.

‘बैंगलोर से दिल्ली का टिकट ले कर वह आदमी बैठा और दो चार स्टेशन के बाद उतर गया. बैंगलोर के एक सब इन्सपेक्टर ने दिल्ली के बैंक रोबरी का सर्कुलर देखा था. उस में चित्रित की गई आकृति से उसे लगा कि वह यही आदमी हो सकता है. उस का टिकट दिल्ली का है इसकी तसल्ली करके उसने मुझे फोन किया. परन्तु दिल्ली के स्टेशन जा कर जांच की तो उस के बताये कोच नंबर पर तीन सरदारजी ही थे. वह नहीं था.’

‘हं...तो फिर कैसे हाथ आया?’

‘चार दीन के बाद दिल्ली से आई हुई फ्लाईट में उसके जैसे हुलियेवाला एक आदमी उतरा है ऐसी खबर मिली. वह गुरुद्वारा शिलगंज के पास में स्थित एक छोटे से होटल में ठहरा था. मैंने खुदने उस पर निगरानी रखना शुरू किया. वह दिल्ली से पाटोदी जानेवाली बस में बैठा. फिर पाटोदी से अलवर जानेवाली बस में बैठा. बीच में एक सरदार ने उसे रस्ते के बारे में कुछ पूछा तब उसने पंजाबी में कुछ कहा. सरदारजी का सवाल समजना मुश्किल था और इस आदमी का जवाब भी कोड लेंग्वेज में (सांकेतिक भाषा में) हो ऐसा था. मैंने अलवर फोन कर दिया. अलवर में उस को गिरफ्तार कर के यहाँ ले आये. इंटरेस्टिंग बात यह है कि उस बस का इंजन खराब हो जाने पर यात्री नीचे उतारे गए. कुछ देर के बाद उस में धमाका हुआ. पूरी बस आग की लपटों से घिर गई.’

ध्यान से सुन रहे न्यालचंद ने पूछा: ‘इस आदमी ने बैंगलोर से कौन सी तारीख पर यात्रा आरम्भ की थी?’

‘जिस तारीख को श्रीमती पंडित के वारिस ने बैंगलोर से लुधियाणा जाने का तय किया था उसी तारीख को – उसी ट्रेन में.’ मार्टिन ने कहा, ‘इसीलिए ही मुझे इस आदमी में दिलचस्पी बढ़ी. कल रात मैंने उसे ठीक से पीटा है. काफी सह लेता है. दिल्ली के बेंक लूट के बारे में उसने कबूलियत दी है. कुछ राशि भी उस के कहे अनुसार पटना से उस के घर से बरामद हुई है ऐसा कोल अभी आया था. परन्तु शाम को उस की पूछताछ करने में तुझे ज्यादा मझा आएगा.

‘कल उसने कुछ संकेत दिया था क्या?’

‘हाँ.’

‘क्या?’

‘वह जयपुर धंदे के वास्ते आया था.’

‘क्या करता है वह?’

‘वह पटने की एवं दिल्ली की मिल के लिए ऑर्डर लेता है. खुदा जाने, पैसे लेता है, माल पहुंचाता है या फिर...’

‘इंटरेस्टिंग.’ न्यालचंद ने कहा.

शाम सात बजे थाने के अंदर की कोठरी के पास दोनों गए. मार्टिन ने कहा, ‘यह मेरा टॉर्चर चेंबर है. यहाँ बाहर का दरवाजा बंद हो तो आवाज कहीं बाहर नहीं जाती.’

कोठरी में दो कुर्सियां रखीं थीं. न्यालचंद और मार्टिन वहां बैठे थोड़ी देर बाद उस व्यक्ति को हाजिर किया गया जिस पर शक था. उस के दोनों हाथों में एवं पैरों में हथकड़ी थी. मार्टिन ने हवालदार से पूछा, ‘आराम किया इस बदमाश ने?’

‘सर, जितनी बार उस की आँखें बंद होतीं थीं उतनी बार उसके ललाट पर बर्फ का टुकड़ा या गरम पानी रख दिया जाता था.’

‘वेरी गुड.’ न्यालचंद ने उस की तरफ देखा. उस की आँखें फूल गईं थीं. उस के चेहरे पर उँगलियों के लाल निशान थे. मार्टिन ने हवालदार को बाहर जाने का इशारा किया.

‘जानता है इस साहब को?’ मार्टिन ने पूछा.

वह आदमी बिलकुल निरुत्तर खड़ा रहा.

‘क्यों मुंह में जबान नहीं है क्या?’

फिर एक बार उस आदमी ने तिरछी नज़रों से उधर देख कर थूका.

‘पाजी, बदमाश,’ मार्टिन ने उस के गल पर चमचमाती थप्पड़ लगा दी. ‘कल रात की तरह तेरी जबान खोलनी पड़ेगी.’

वह तक़रीबन पूरा घूम गया. उस के हाथ व पैरों की बेडियाँ खनखना उठीं. मार्टिन ने दूसरे गाल पर दूसरा थप्पड़ मारा. फिर उस के सिर के बाल पकड़कर कहा, ‘बोल कुत्ते, तूं सीधे से बताना चाहता है याँ टेढ़ी उंगली से घी निकालना पड़ेगा?’

‘क्या जानना है आपको?’

‘तूं इन को पहचानता है?’

‘नहीं.’

‘बस में बम तूने रखा था?’

‘मुझे मालूम नहीं.’

‘क्या नहीं मालूम?’ मार्टिन ने लात लगाई. पेट में लात लगते ही वह आदमी करीब करीब झुक सा गया. वह नीचे ही गिर गया होता परन्तु मार्टिन ने उस के सिर के बाल खिंच कर उसे फिर से स्थिर खडा किया.

‘मार्टिन,’ न्यालचंद ने पूछा, ‘और किसी प्रकार से...’

‘यह सुव्वर का बच्चा और किसी प्रकार से माननेवाला नहीं है. कल भी जरा पिटाई करने के बाद ही उसने जबान खोली थी. आज भी कुछ पिटाई करने के बाद सब कुछ बताने लगेगा.’

‘मेरे से आप सब कुछ जान लेंगे फिर भी कुछ नहीं जान पाएँगे.’ उसने दृढ़ता से कहा.’हम चिट्ठी के चाकर हैं.’

‘किस के लिए काम करते हो?’

उसने हाथ ऊपर उठाया.

‘उपरवाला तुझे बैंक लूटने के लिए और ह्त्या करने के लिए कहता है, ऐसा?’

मुलजिम फिर एकबार चुप रहा.

न्यालचंद ने अब दौर सम्हाला, ‘बैंक लूट तो तूने क़ुबूल की है.’

‘हाँ, फिर एकबार कहलवाना चाहते हैं?’

न्यालचंद ने होंट चबाये. ‘ह्त्या क़ुबूल करता है?’

‘किसकी ह्त्या?’

‘तूने कितनी हत्याएं की है?’

मुलजिम ने दांत भींचकर कहा,’एक भी नहीं.’

‘तेरा नाम क्या है?’

‘कल बताया है, रिकार्ड में पढ़लो.’

‘न्याल, यह बदमाश ऐसे माननेवाला नहीं.’ मार्टिन ने उस की पीठ में डंडा लगते हुए कहा, ‘तेरा नाम बता.’

‘चंद्रसेन.’

‘असली नाम?’

‘अभी यही नाम असली है.’

‘चंद्रसेन.’

फिर एक थप्पड़. ‘पहले क्या नाम था?’

‘मोहकमसिंह.’

‘अब कैसा ठिकाने पर आया. दिल्ली का बैंक लूट कर कहाँ गया था?’

‘पटना.’

‘वहां से?’

‘बैंगलोर.’

न्यालचंद ने फिर एकबार दौर सम्हालते हुए कहा. ‘दिल्ली में बैंक लूटने के अगले दिन कहाँ था?’

फिर एकबार चंद्रसेन चुप रहा.

‘कहाँ था बता!’ मार्टिन ने गर्जना की.

‘जयपुर में.’

‘वहां क्या कर रहा था?’

‘धंदे के वास्ते गया था.’

‘ह्त्या करना तेरा धंधा है?’

फिर एकबार चंद्रसेन तिरछी नज़रों से देखकर तिरस्कार से थूका. मार्टिन गुस्से से जैसे पगला गया. उस ने दो चार लातें और दो चार थप्पड़ लगा दिए. चंद्रसेन आँखें मूँद कर सहता रहा. जैसे अचानक उस में किसी और को मार पड़ती हो ऐसी स्वस्थता आ गई.

‘जयपुर में क्या काम था?’

‘आप यह बात उगलवाना रहने दें. आप के लिए और मेरे लिए अच्छा नहीं होगा.’

‘हमारे लिए चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. बता दे, तूं जयपुर क्यों गया था.’

दरवाजे पर दस्तक हुई.

‘कौन?’ मार्टिन ने पूछा.

‘साहब आप का फोन है.’ हवालदार हाथ में फोन का इंस्ट्रूमेंट ले कर खड़ा था.

‘कह नहीं सकता कि साहब व्यस्त हैं?’

‘साहब, वह कह रहा है कि साहब की जिंदगी और मौत का सवाल है. इसलिए मैंने हिमत की है.’

मार्टिन ने फोन लिया. ‘हेलो.’

सामनेवाले छोर से मोटी सी आवाज सुनाई दी, ‘इन्सपेक्टर साहब, आप इस मुलजिम पर सितम ढा रहे है उसका गिन गिन के बदला लिया जाएगा.’

‘कौन है तूं?’

‘बहोत जल्दी पता चलेगा आप को. परन्तु आप का और आप के बीवी बच्चे की खैरियत चाहते हैं तो इस मुलजिम को छोड़ दीजिए. उन से जो कुछ भी सही बात जानोगे वह सही नहीं होगी और यदि वह सच बताएगा तो हम उसे और आप को ज़िंदा नहीं रहने देंगे.’

‘साला सुव्वर, तूं किसे धमकी दे रहा है?’

‘मार्टिन अल्वारेज और न्यालचंद राजपूत को! जान की सलामती चाहते हो तो जांच छोड़ दो वरना –‘ सामने से फोन रख दीया गया. मार्टिन ने चंद्रसेन की ओर देखा. उस के होंट पर हलकी सी मुस्कान उभरी. ‘ले जा यह डिब्बा,’ मार्टिन ने हवालदार से कहा, ‘अब किसी का भी फोन आये – चाहे वह जिंदगी और मौत का क्यों न हों, कह देना कि साहब नहीं है.’

हवालदार के जाने के बाद मार्टिन ने कमर से कोडा निकल कर दो तीन फटकारे.

चंद्रसेन की आँखें लाल हो गईं. उसने होंट दबाये और फिर कहा: ‘आप क्या जानना चाहते हैं?’

‘तूं कल सरसपुर में था ऐसा कह रहा था और आज जयपुर कहाँ से आ गया?’

‘अच्छा, सरसपुर में था. आप को क्या जानना है?’

‘तूं सरसपुर क्यों गया था?’

‘घूमने.’

‘घूमने गया था ये बात है?’ मार्टिन ने फिर एक बार हवामें कोडा घुमाकर पूछा: ‘वहां तूं कहाँ रहा था?’

‘डाक बंगले के पास जंगल है. वहां एक आदिवासी का झोंपडा खाली था वहां रहा था.’

‘तूं वहां कब पहुंचा था?’

‘रात दस बजे.’

‘फिर?’

‘सवेरे पांच बजे जगा.’

न्यालचंद ने मार्टिन की ओर देखा. मार्टिन ने कोड़ा लगाते हुए कहा: ‘खबरदार यदि जूठ बोला तो.’

‘मेरी घडी में पांच बजे थे.’

‘फिर?’

‘मैं डाक बंगले के पास गया. वहां पहली मंझिल की खिडकी के पास एक स्त्री खड़ी थी. खूबसूरत थी.’

‘सवेरे उस समय तूं उसका चेहरा देख पाया?’

‘वह उस के कक्ष में थी और लैम्प की रौशनी उस के चेहरा पर पड़ती थी.’

‘फिर?’

‘वह रूम में चली गई. मुझे उस स्त्री के बारे में जानने की इच्छा हुई.’

‘सुव्वर, तूं सरसपुर घूमने गया था. गाँव में रहने के बजाय जंगल में रहा और फिर अज्ञात स्त्री को देखकर तुझे उस के बारे में जानने की इच्छा हुई ऐसा? कहानी बनानी आती है पर इतना होंशियार भी नहीं. सच सच बता, वरना तेरी चमड़ी उधेड़ दूंगा.’

‘बाकी क्या बचा है?’

न्यालचंद ने कहा, ‘चंद्रसेन मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि तूं कुबूल कर लेगा तो हम तुम्हें सरकारी गवाह बनाकर ज़िंदा छोड़ देंगे.’

‘आप मुझे ज़िंदा छोड़ देंगे परन्तु वे लोग मुझे कच्चा चबा जाएँगे उसका क्या?’

‘वे लोग से क्या मतलब?’

‘यह मार्टिन साहब ने जिन के साथ अभी फोन पर बात की वे.’

‘तुझे कैसे पता चला कि मार्टिन ने तूं मानता है उन्हीं लोगों से बात की?’

‘मार्टिन साहब से पूछिए. उनका चेहरा ही बता रहा था.’

‘मैं तुझ से एक और प्रोमिस करता हूँ. हम तुम्हें सजा नहीं दिलवाएंगे – इतना ही नहीं, जहाँ तेरी जान का कोई ख़तरा हो ऐसी सुरक्षित जगह पर भेज देंगे.’

‘फांसी पर लटकाओगे या तोप के मुंह लगाएंगे?’

‘क्यों?’

‘इस के सिवा और कोई सुरक्षित जगह नहीं.’

‘तूं बेवजह डरता है. मरना तो किसी भी प्रकार से है ही. तो फिर सच बता कर क्यों नहीं मर रहा?’

‘न्याल...’ मार्टिन ने हाथ का कोडा घुमाते हुए कहा.

‘मार्टिन, मुझे अपने हिसाब से काम करने दे.’ न्यालचंद ने उस के कोड को रोकते हुए कहा.

‘चंद्रसेन, तुझे सरसपुर किसने भेजा था?’

‘मुझे मालूम नहीं.’

इस पर मार्टिन ने सट्टाक से कोड़ा फटकारा.

‘आप कोडे से फटकारेंगे या लोहे की जलती सलाख ठुसेंगे या फिर चमड़ी उधेड़ देंगे फिर भी जो मैं नहीं जानता वह कहाँ से बताउंगा?’

‘क्यों नहीं जानता?’

‘मुझे आदेश मिले थे.’

‘किस की तरफ से?’

‘मालूम नहीं. उस में केवल उतना कहा गया था कि सरसपुर डाक बंगले में एक स्त्री ठहरी है उसे खतम करनेका है.’

‘कोई कह गया था या किसीने चिठ्ठी भिजवाई थी?’

‘मुझे जयपुर का टिकट दे कर एक आदमी ने कहा, तुझे उस स्त्री को मारना होगा.’

‘उसे क्यों मारना है यह नहीं कहा?’

‘हम ऐसे सवाल नहीं करते – कर नहीं सकते.’

‘कौन आदेश देता है, इस के बारे में भी तुझे कुछ नहीं पता?’

‘नहीं.’

‘टिकट देनेवाले को पहचानता है तूं?’

‘वह कइं बार ऐसे संदेशे देता है.’

‘दिल्ली में ही?’

‘नहीं, कभी पटना में, कभी अमृतसर में तो कभी बैंगलोर में.’

‘तूं ने खिड़की पर उस स्त्री को देखा...फिर तूं ने क्या किया?’

‘वह रूम में गई, मैं पाइप के जरिये ऊपर चढ़कर खिड़की तक पहुँच गया. खिड़की से कूदा. उस स्त्री की नजर मेरे ऊपर पड़े और वह चीखे उस के पहले मैंने उस के मुंह पर हाथ दबा दिया. बस फिर दो मिनट लगे.’

तेरी उँगलियों के निशान क्यों नहीं?’

‘ऐसे काम हम दस्ताने पहनकर ही करते हैं.’

इतना कहते कहते उस के होंट पर खून निकल आया. मार्टिन ने मारे घूंसे का असर था. न्यालचंद ने जेब से रूमाल निकाल कर उसके होंट साफ़ किये.

‘साहब, आप ने इस प्रकार से पूछा इसलिए मैंने बताया. यह मार्टिन साहब मेरी चमड़ी उधेड़ देते तो भी मैं एक शब्द तक नहीं बोलता.’ वह कह रहा था तब उस के चेहरे से खून टपक रहा था.

‘मार्टिन, आज इतना काफी है. हम उसे बाकी के सवाल बाद में पूछेंगे.’

‘उसे सोने दूं, न्याल? कल रात से उसकी पलक एक बार भी नहीं झपकने दी.’

‘सोने दे. सवेरे मैं उस के साथ बात करूँगा.’

मार्टिन और न्यालचंद कोठरी से बाहर निकल ही रहे थे कि सहसा चंद्रसेन ने कहा: ‘साहब, आप...’ ज़रा झिझककर उस ने कहा: ‘आप अकेले मुझ से एक मिनट के लिए मिल सकते हैं क्या?’

न्यालचंद ने मार्टिन की ओर देखा. मार्टिन ने हंसकर कहा: ‘गो अहेड. पर सम्हालना. मैं जरा दूर खडा रहता हूँ. आप दोनों पर मेरी नजर रहे उस प्रकार से.’

मार्टिन ने दरवाजा खुला रखा और दूर जा कर खडा रहा. चंद्रसेन ने न्यालचंद को पास बुलाके धीरे से कहा: ‘साहब, आप बहुत भले आदमी हैं. आप मुझसे जो कुछ भी जानना चाहते हैं वह सबकुछ बताने को मैं तैयार हूँ. परन्तु आज की रात आप मुझे यहाँ रखेंगे तो उस में मेरी जान का ख़तरा है. यह जो फोन आया था वह हमारा संकेत है. चौबीस घंटे में वे लोग मुझे छुडाकर ले जाएंगे या इस जगह को बम से उड़ा देंगे.’

‘हम कड़ी निगरानी रखेंगे.’

‘निगरानी रखने से कोई फरक नहीं पड़ेगा. आपको मुझे यहाँ से किसी गुप्त स्थान पर ले ही जाना चाहिए. अन्यथा वे किसी भी प्रकार की निगरानी को नाकाम कर के या मुझे उठाकर ले जाएँगे या मुझे मार डालेंगे. मुझे मरना तो है ही – या आप के हाथों या मेरे साथिओं के हाथों. परन्तु यदि कुछ दीन जीवित रह पाऊं तो शायद मैं बच भी सकता हूँ. मैंने आप को मेरी बात बता दी. आप जो करना चाहते हैं कीजिये. परन्तु मुझे यहाँ से कहीं बाहर ले जाइए और वह भी चुपके से, तभी आप को कुछ जानने को मिलेगा, वरना, आप को मेरी मृतदेह ही हाथ लगेगी और आप का केस कभी नहीं निबटेगा. और साहब, मैं जीना चाहता हूँ.’ एकदम नरम हो कर चन्द्रसेन ने कहा, ‘मेरे आठ साल के बच्चे के लिए भी मुझे ज़िंदा रहना है.’ चंद्रसेन की आँखें भर आईं.

जवाब में न्यालचंद ने सिर्फ इतना ही कहा: ‘मैं देखता हूँ.’

और वह बाहर निकल गया.

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‘भाभी, यह मार्टिन आज भी वैसा का वैसा ही हे, बिलकुल नहीं सुधरा. मुझे लगा था कि शादी के बाद उसमें कुछ अक्ल आई होगी.’ न्यालचंद ने मजाक किया.

इझाबेला हंस पड़ी.

‘बेला, इस स्टुपिड घासखाऊ की बात मत सुनना. वह हमको अलग करके ही दम लेगा. हां, उसे जरा होश में लाने के लिए दवाई देनी पड़ेगी. हमारे डॉक्टर विदेश से फ्रेंच वाइन की बोतल लाये है न उस का आज उदघाटन करेंगे. और यदि तूं सोना चाहे तो सो जाना. हम कइं बरसों के बाद मिले हैं इसलिए सुबह तो ऐसे ही हो जाएगी.’

‘हां भाभी, आप सुपर्ब वेजिटेरियन फ़ूड बनाती हैं. कोई आपको क्रिश्चियन नहीं कहेगा. आज बहोत दिनों के बाद खाने का मजा आया. अब आप आराम कीजिये.’

इझाबेला ने रेफ्रिजरेटर से वाइन की बोतल निकाली. आलमारी से वाइन ग्लास निकाल कर दिए. फिर ‘गुडनाईट’ कहकर ऊपर चली गई.

उस के जाने के बाद मार्टिन ने धीरे से कहा: ‘मुझे इस आदमी की बात पर भरोसा नहीं है.’

‘मुझे वह सच्चा लग रहा है.’

‘यार, तेरे पर ख़तरा हो सकता है.’

‘मैं सम्हाल लूंगा, पर तूं जरा सोच. यदि यह आदमी यहाँ से भाग निकलना चाहता हो तो वह मुझे विशवास क्यों दिलाता?’

‘तूं सीधा आदमी है, इसलिए! आश्रम में संत बनने के बजाय तूं पुलिस अफसर बन बैठा.’

‘दोस्त, पुलिस बने हैं तो उसका मतलब यह तो नहीं कि हमेशा गाली गलौज करते रहें?’

‘मेरी तरह गाँव में पोस्टिंग मिली होती तब पता चलता. जयपुर के थाने में सुसंस्कृत एवं संतपना चल सकता है. यहाँ पर ज़रा भी भले बने कि पुलिस एवं मुजरिम दोनों हमारे हालात खस्ता कर दें.’

‘परन्तु मार्टिन, इस में कुछ करना चाहिए ऐसा मुझे लग रहा है.’

दोनों के बीच देर तक खुसुरफूसर चलती रही, बहसबाजी हुई. बीच में ऐसा लगा कि धीमी आवाज में बतियाते दोनों आमने सामने आ जाएंगे. परन्तु फिर यकायक दोनों शांत हो गए.

‘साला, तूं ने अभी तक जाम खली नहीं किया. असली फ्रेंच वाइन है इसलिए पसंद नहीं आता?’

‘नहीं दोस्त, लेकिन तेरे जैसे दोस्त और ऐसी कंपनी जयपुर में नहीं है. इसलिए आदत छूट गई है.’

रात के दो बजे टन टन टकोरे पड़े. मार्टिन ने कहा: ‘चल, अब थोड़ा सो लेते हैं. सवेरे फिर वोही रफतार शुरू होनेवाली हे है.’

‘हाँ दोस्त, चल थोड़ी देर आराम कर लेते हैं, यदि कोई सोने दे तो!’

‘न्याल, यहाँ रेफ्रिजरेटर है. रात को प्यास लगे तो पानी से ले कर व्हिस्की तक सबकुछ इसमें है. यदि जरूरत हो तो मैं उपरवाले कमरे में हूँ. आवाज देते ही दौडता चला आउंगा. सवेरे कम्पाउंड में टहलना हो तो यह लेच उलटा खुलता है. टॉयलेट सामने है. नाईट लैम्प जलता है. अगर तकलीफ हो तो स्विच तेरे पास में है.’

मार्टिन दो बजकर पन्द्रह मिनट पर ऊपर गया.

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भयसूचक घंटी बजी. गोलाबारी की आवाजें सुनाई दीं. मार्टिन अपने बिस्तर में उठ बैठा. सायरन अभी भी अविरत बज रही थी. बाहर कोलाहल मचा हुआ था. उसने जल्दी से कपडे पहने. हाथ में रिवाल्वर लिया एवं सीढियाँ उतरते हुए कहा: ‘न्याल...’ कक्ष में अँधेरा था परन्तु दरवाजा खुला था. न्यालचंद अवश्य ये आवाजें सुनकर बाहर निकल गया होगा ऐसा लगा.

मार्टिन बाहर निकला.

बाहर पुलिस लोग घबडाहट में इधर उधर दौड रहे थे. थाने की तीनों जीप बाहर निकल गई थीं. एक सब इन्सपेक्टर हवा में राइफल का निशाना लगाये खड़ा था.

मार्टिन को देखकर वह चौंका. ‘साहब, आप यहाँ?’

‘हाँ, क्यों?’

‘आप कुछ देर पहले अंदर नहीं गए थे?’

‘नहीं.’

‘थेंक गोड, आप बच गए.’

‘कैसे?’

‘मालूम नहीं. आप को अंदर जाते हुए एक हवालदार ने देखा. फिर थोड़ी ही देर में गोलाबारी की आवाजें सुनाई देने लगी. हमारी ही एक जीप का अपहरण किया गया. और कुछ आदमी लोकप में रहे उस कैदी को उठा ले गए.’

‘क्या कह रहा है?’ मार्टिन को विश्वास नहीं हो रहा था. ‘मेरा थाना किले सामान है. और अक्लमंदों आप मुझे नहीं जानते? कोई मेरा भेस बदलकर अंदर जाए और आप लोग उसे जाने देंगे?’

‘साहब, हवालदार ने ऐसा कहा.’

‘कहाँ है वह रास्कल?’

‘वह स्कूटर पर उस जीप के पीछे गया है.’

‘बाकी सब कहाँ है?’

‘वे भी दोनों जीप ले के पीछे गए हैं.’

‘ओ गोड.’ कहकर मार्टिन कुर्सी पर बैठ गया.

‘मेरे करियर पर आप सबने मिलकर कालिख पोत दी.’

स्कूटरवाला हवालदार वापस आया.

‘क्या हुआ रामसिंह?’

‘साहब वे लोग हवा में गायब हो गए हो ऐसा लगा.’

‘न्यालचंद कहाँ है?’ मार्टिन को अचानक याद आया.

‘सर,’... रामसिंह झिझक रहा था.

‘जल्दी बोल, न्यालचंद कहाँ है?’

‘सर, अँधेरे में मेरी आँखे शायद धोखा खा गई होगी. परन्तु उनको दो तीन लोगों ने पकड़ रखा था. वे लोग उन को जीप में उठा ले गए. मैं गोली छोड़नेवाला था. परन्तु साहब को गोली लग जाए इसलिए मैंने ऐसा नहीं किया!’

‘ओह माय गोड!’ मार्टिन ने अपना सिर पीटा.

‘दोनों जीपें कहाँ है?’

‘गाँव के दोनों नाके दबाए बैठे हैं.’

‘इडियट्स, सारे अश्व भाग जाने के बाद अस्तम्बल को ताला लगाने से क्या होगा? बुला लो इन को... और हाँ! आज शाम तक उसे पकड़ना ही होगा, न्यालचंद को छुडाना ही होगा.’

‘यस सर.’

‘मार्टिन को अभी तक किसी केस में शर्म से मस्तक नहीं झुकाना पड़ा था. मैं शाम तक सब को पकड़ लूंगा. परन्तु तब तक कैदी भाग निकला है यह बात बाहर नहीं फैलनी चाहिए.’

‘जी.’

‘आप सब यहीं पर रहना. कोई घर नहीं जाएगा. और, रामसिंह, तूं मेरे साथ रहेगा. उस जीप को बुला लो. मुझे प्लान करना पड़ेगा.’

‘यस सर...’

‘और खबरदार, कैदी भाग निकला है यह बात बाहर जाने न पाए. अगर बात बाहर गई तो तुम लोगों की खैर नहीं!’

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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रचनाकार: हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 10 वीं किश्त
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