हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 7 वीं किश्त

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वसीयत – ७ : उपन्यास : हरीन्द्र दवे : भाषांतर: हर्षद दवे   

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पृथ्वी को सारी रात नींद नहीं आई थी. कल तक वह किसी अज्ञात व्यक्ति के कक्ष में रहता था. अब अचानक वह अपनी माँ के कक्ष में रहता है. यतीम की तरह पाले बच्चे के लिए यह अनुभव अलग था. अनाथाश्रम के बच्चों में से एकाध को उसके माता-पिता मिल गए थे ऐसी घटना वह बिलकुल छोटा था तब घटी थी. तब उसके साथ ही पले उस बच्चे को एकदम सन्न सा खड़ा उसने देखा था. वह अज्ञात लोगों के साथ जाने के लिए राजी नहीं था. वे अज्ञात लोग उस बच्चे के माता-पिता थे इस बात की तसल्ली गुरूजी को हो गई थी, इसलिए उसे जाना पड़ा था. परन्तु उसकी मनोदशा ऐसी थी जैसे कि वह अनाथाश्रम का परिवार छोड़ कर जा रहा हो. अपने माता-पिता से इस स्थिति में मिलना उस के लिए संभव नहीं हो पाया. सहसा एक अज्ञात स्त्री उस के लिए संपत्ति छोड़ कर चल बसे और फिर कोई अनजान आदमी कहे कि यह स्त्री उसकी माता थी तब वह क्या करता? यही सोच रहा था पृथ्वी. यह उस के लिए सब से दुविधापूर्ण एवं मुश्किल पल था. देर रात तक वह टेबल पर पड़ी मोहिनी की तसवीर के विचार में डूब गया था. वह जिस बिस्तर पर सोया था वहां कभी मोहिनी... अब तो उसकी माता – सोती थी इसी बात को सोचकर वह सो नहीं पाया था. जब सुबह होनेवाली थी तब कहीं जा के उसकी आँखें लगीं.

उठने के बाद उस की नजर टेबल पर पड़े वर्तमानपत्र पर पड़ी. आखिरी कोलम में ऊपर से अंतिम खबर के रूप में वह पैराग्राफ छपा था. ‘लन्दन के साउथोल इलाके में एक सीख व्यापारी पर आतंकवादी सीख युवक ने गोलियाँ चलाई थीं. इस व्यापारी की हालत गंभीर है. हमलावर भाग निकला है. उसे गिरफ्तार करने के लिए स्कोटलेंड यार्ड का समूचा तंत्र तैयार व सतर्क हो गया है.’ उसने एक एक शब्द ध्यान से पढ़ा. कल रात त्यागी ने लन्दन लगाये टेलीफोन के शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे. इस खबर का सम्बन्ध उसी टेलीफोन से होगा? वह चौंक उठा. त्यागी ने स्वयं बोले हुए शब्दों का समर्थन तुरंत इस प्रकार से कर दिखाया. बैंगलोर से टेलीफोन लगा कर लन्दन में किसी आदमी की ह्त्या की जा सकती है, तो जयपुर में क्यों नहीं हो सकती?

पृथ्वी के सामने सारा सन्दर्भ बदल चुका था. अब वह यतीम नहीं रहा था. परन्तु यतीम न रहने पर भी उस की स्थिति में कुछ खास सुधार नहीं था. वह त्यक्त – तिरस्कृत बन गया था. ऐसी भद्र, संपन्न व संभ्रांत परिवार की माता ने उसे अनाथाश्रम में छोड़ दिया इस बात का रोष भी था. वह ज़िंदा थी तब वह मोहिनी को क्यों नहीं मिला इस का रंज भी उस के मन में था. परन्तु वह रंज अब जाता रहा था. मोहिनी उस की माँ थी. और वह उसे अपने जीते जी कभी मिलनेवाली नहीं थी. और वह मृत्यु के बाद अपनी वसीयत में केवल संपत्ति नहीं छोड़ गई, उस अवहेलित पुत्र के ह्रदय में वेदना का शल्य भी छोड़कर गई थी. पलभर उस के जी में आया कि सारे मकान को आग लगाकर उस आग में झुलस कर वह खुद भी खाक हो जाए. दूसरे पल वह होश में आया. उस की माँ की ह्त्या हुई थी. किस ने यह हत्या करवाई होगी? हत्या से किस को फायदा होनेवाला था? ये सारे विचार उस के मन में उभरने लगे.

शेफाली को अवश्य फायदा हो सकता है. परन्तु यह सब हुआ तब तो वह मुंबई में थी. और यदि बैंगलोर में होती भी तो उसके दिमाग में ऐसा कोई विचार प्रवेश कर पाए यह सोचने के लिए भी पृथ्वी तैयार नहीं था. क्रूरता शेफाली की नजाकत के साथ रह ही नहीं सकती. कृष्णराव को अपनी बेटी को बड़ी मात्रा में जायदाद मिले उस में दिलचस्पी हो सकती है. उस आदमी में लालसा है, परन्तु ऐसा कुछ करने की हिम्मत हो सकती है भला? दरअसल वह तो वसीयतनामे से भी अनभिज्ञ है. और डॉक्टर की मौत के समय वे शहर में नहीं थे. बैरिस्टर मोहंती या सोलिसिटर अमीन दोनों इस वसीयतनामे के बारे में सबकुछ जानते थे. इन दोनों का हाथ हो सकता है क्या? अब उसे हर एक व्यक्ति में अपनी माँ का कातिल नजर आता था. वह जैसे कातिलों के बीच फंस गया हो ऐसा महसूस करने लगा था. कौन होगा कातिल? उस की आँखें चकराने लगीं. ठीक उसी समय उसे शेफाली की आवाज सुनाई दी:

‘कल रात काफी देर हो गई?’

पृथ्वीसिंह इस समय बतियाने के मिजाज में नहीं था. उस के भीतर से तक़रीबन जुबान तक जवाब आया: ‘मैं हत्यारों की खोज में था.’ परन्तु फिर तुरंत याद आया कि वह शेफाली कसे साथ बात कर रहा था. उस ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया.

‘कुछ उदास से लग रहे हैं, नींद नहीं आई थी?’

‘नहीं. नींद उड़ जाए ऐसे में कोई आराम से सो सकता है क्या?’

‘हाँ, एक प्रकार से देखा जाए तो आपकी बात सही है.’ शेफाली ने कहा. परन्तु उसको लगा कि पृथ्वी का बात करने का ढंग बिलकुल बदल गया है. वह आई थी पृथ्वी को सुबह की चाय में साथ देने के लिए और आज कहीं बाहर निकलना हो तो इस के बारे में पहले से विचार विमर्श करने के लिए. किन्तु पृथ्वी मूड में नहीं था, यह जानकर उस ने बात को बदलते हुए कहा: ‘आप चाय-नाश्ता ले लेना. आप को यदि कहीं जाना हो तो अंकल की गाड़ी एवं ड्राइवर दोनों बाहर है.’ कहकर शेफाली जल्दी से चली गई.

जैसे सपने में हो उस प्रकार पृथ्वी ने यह सुना. फिर इन शब्दों का अर्थ और अपने विचित्र व्यवहार का खयाल आया तब उस ने तुरंत कहा: ‘शेफाली!’ बरामदे की सीढ़ियाँ उतरकर आउट हाउस की ओर जा रही शेफाली रुक गई तब पृथ्वी ने कहा: ‘प्लीज. मैं अकेला चाय लेना पसंद नहीं करता. आप बैठिये.’

पृथ्वी ऐसा क्यों बोला यह बात वह स्वयं समझ नहीं पाया. शेफाली लौट आई. पृथ्वी के चेहरे पर विह्वलता थी, ऐसा लगता था जैसे कि वह घबड़ा गया हो. उसने पूछा: ‘क्या आप की तबीअत ठीक नहीं?’

‘रातभर सो नहीं पाया था.’ पृथ्वी ने जवाब दिया.

‘हाँ, अनिद्रा एवं उचाट. ये दोनों कभी आदमी को चैन की सांस नहीं लेने देते. इस से तो पांच डिग्री बुखार अच्छा.’ शेफाली ने कहा.

शेफाली और पृथ्वी बरामदे के उसी टेबल के पास बैठे. यहाँ कभी वह हमेशा सवेरे डॉक्टर अंकल के साथ बैठती थी, अभी पृथ्वी भी वहां बैठकर सोचता रहा, ‘कभी मोहिनी भी यहीं पर बैठती होगी. चाय या कोफ़ी लेती होगी.’ अवश अवस्था में उसने पूछ लिया: ‘माँ क्या क्या बातें करती थी?’

‘माँ ?’ शेफाली की आवाज में आश्चर्य था.

‘ओह!’ पृथ्वी ने कहा, ‘मैं एबसेंट माइंडेड था. मैं सोच रहा था कि सवेरे यहाँ डॉक्टर अंकल और मोहिनी आन्टी के साथ आप कई बार बैठती थीं. तब मोहिनी आन्टी कौन सी बातें करतीं थीं? उनकी बातों का प्रिय विषय कौन सा था?’

‘वह फूलों के बारे में बातें करतीं थीं. मौसम के पलटते रुख को वह महसूस करती थीं. कभी उनकी बातें आम आदमी को चकित कर देतीं थीं. वे टपक से कहती: ‘इस पौधे का हरापन आम पत्तों के हरेपन से बिलकुल अलग ही है.’ बस ऐसी ही बातें वे किया करतीं थीं.’

पृथ्वी की नजर वृक्ष एवं पौधे पर गई. वह भी वृक्षों के बीच ही पला था. उसे भी वृक्ष बहुत ही पसंद थे. वह कई बार कहता: ‘गर मित्र नहीं है तो एकाध वृक्ष के नीचे जा कर बैठने से ह्रदय को बात करने का ठिकाना मिल जाता है.’

‘शेफाली, आप इतने प्यार से बात कर रही हैं. परन्तु मैं बहुत ही शुष्क आदमी हूँ. अभी आपके साथ मैंने कैसा व्यवहार किया था!’

‘पृथ्वीभाई, इस से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ. पहले मैं यह बता दूं कि आपने कोई गलत व्यवहार नहीं किया है. दूसरी बात यह कि आप खुद किसी गहरी सोच में थे. परन्तु इस सोच में रहने से उसी में आप के मुंह से अनायास ही एक बहुत ही मधुर शब्द निकल पडा था, इस का ख़याल है आप को?’

‘कौन सा शब्द?’

‘आपको शायद पता नहीं परन्तु आपने मोहिनी आन्टी के लिए ‘माँ’ शब्द का प्रयोग किया.’

‘ओह!’ फिर एकबार पृथ्वी का दिमाग चकराने लगा, उस के जी में आया कि वह शेफाली को सबकुछ बता दें. त्यागी से मिलना, त्यागी के बताये मोहिनी के साथ के उसके सम्बन्ध के बारे में सारा सत्य कह दें. शायद उस से उस का बोझ कुछ कम हो जाये. परन्तु उसने कसम जो खाई थी उस शपथ का बोझ उस के दिमाग पर बढ़ता जाता था. किसी को सब कुछ बता के तनावमुक्त होने का रास्ता भी तो उस के लिए नहीं बचा था.

‘आपने ‘माँ’ कहा तब यह शब्द सुनाने में इतना प्यारा लगा कि बाद में ‘मोहिनी आन्टी’ शब्द प्रयोग करने पर वह कृत्रिम सा लगा. यदि आप मोहिनी आन्टी को माँ कहें तो उस में गलत क्या है? मुझे आप के मुंह से यह शब्द सुनकर बहुत अच्छा लगा.’

‘मैं ‘माँ’ बोल गया ठीक तो है? जो नहीं होता उस के लिए हमें ज्यादा चाव रहता है. यतीम बच्चा ‘माँ’ को चाहे उस में कौन सी नई बात है?’

‘पृथ्वीभाई, आप यतीम नहीं है. आप मोहिनी आन्टी को नहीं जानते. वह अदभुत थीं. उन्होंने आप को कभी कहीं पर देखा होगा और आप के लिए उन के दिल में प्यार उमड़ आया होगा.गर्भ को नौ महिने उदर में धरनेवाली को ही केवल माँ कहते हैं क्या? मोहिनी आन्टी में भी वत्सल मातृत्व भरा पड़ा था.’

पृथ्वी केवल ये शब्द सुन ही नहीं रहा था, शेफाली की आवाज के प्रत्येक तरंग को जैसे आत्मसात कर रहा था. वे सारे तरंग उस के ह्रदय में एकत्रित हो कर एक ही ध्वनि उत्पन्न करते थे :’माँ’.

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‘पृथ्वीसिंह,’ अमिन साहब ने कहा, ‘क़ानून के चक्कर में हमारा ज्यादा वक्त बर्बाद हो ऐसा मैं नहीं चाहता. परन्तु जबतक राजस्थान की पुलिस की जांच पूरी नहीं होती तब तक किसी भी नतीजे पर पहुंचना संभव नहीं है. आप को चार पांच महिने यहाँ रहना ही पड़ेगा. हो सकता है और भी रुकना पड़े.’

‘मैं समझ सकता हूँ. वकालत का अभ्यास पूरा करने के बाद मेरे जीवन की प्रथम घटना का ताल्लुक कोर्ट के साथ ही होगा.’ पृथ्वी ने फीकी हंसी के साथ कहा.

‘बैरिस्टर मोहंती के साथ मैं अभी अभी बात कर रहा था. आपको शायद पता नहीं होगा, किन्तु मोहंती का ऑफिस भी इसी ईमारत में है. हम दोनों साथ मिलकर अदालत से तुम्हें एवं शेफाली को कामचलाऊ व्यय के लिए रूपये पचास हजार मिले ऐसी दरख्वास्त पेश करनेवाले हैं. क्या आपको यह उचित लगता है?’

‘अमिन साहब, आप मेरे हितचिन्तक है.’ हितचिन्तक शब्द बोलते ही पृथ्वी को त्यागी का स्मरण हो आया. वह काँप उठा.

पृथ्वी के चेहरे पर होते परिवर्तनों को अमिन ने तुरंत भांप लिया. ‘पृथ्वीसिंह, आप फ़िक्र न करें. यह राशि आप के व्यय करने के लिए ही है. दरअसल मैं और मोहंती श्री एवं श्रीमती पंडित के मित्र हैं. हम अदालत में किसी फ़ीस की उम्मीद में यह केस लड़ नहीं रहे हैं. अदालत के बाहर समाधान हो पाए इस से अच्छी बात और कोई नहीं हो सकती. किन्तु राजस्थान की पुलिस भी एक पक्षकार के रूप में उपस्थित है यह देखते हुए अभी समाधान कर पाने की गुंजाइश नहीं है.’

‘यदि यह बात ज्यादा दिन चलनेवाली हो तो फ़िलहाल मैं दस बारह दिन के लिए लुधियाना जा सकता हूँ?’

‘हाँ, मोहंती कह रहे थे कि शेफाली मुंबई जाएगी. उसे वहां के मेडिकल कोलेज से यहाँ ट्रांसफर करा लेने की सलाह दी गई है. वहां का कोलेज छोड़कर उसे यहाँ पढ़ना अच्छा नहीं लग रहा. फिर भी, हर महिने दो महिने यहाँ आना पड़ सकता है इस संभावना को मद्दे नजर रखते हुए वह बैंगलोर में पढाई करे यही उचित है. आप को लुधियाना जा कर आप के डिग्री-सर्टिफिकेट और आप की जरुरी चीज वस्तुएँ ले आना चाहते हो तो पन्द्रह दिन के लिए जा सकते हैं. कोर्ट में एक महीने बाद की तारीख तय हुई है. राजस्थान की पुलिस को मैं पूछताछ कर लूं बाद में आप जा सकते है.’

अमिन के शब्दों में स्नेह व परवाह दोनों नजर आते थे.

पृथ्वी अमिन के यहाँ से निकला तब वह कुछ हलकापन महसूस कर रहा था. अमिन में जो सौजन्य था वह उसे भीतर तक छू गया था. वह अमिन के चेंबर से बाहर निकला और सहसा उसकी नजर सामने वाले कोरिडोर से आ रहे बैरिस्टर मोहंती एवं शेफाली पर पड़ी. मोहंती ने ही आवाज दी: ‘पृथ्वीसिंह! अमिन से मुलाकात हो गई? अमिन के साथ मैंने कुछ देर पहले ही बात की थी.’

‘हाँ, मुझे अमिन साहब ने बताया.’ पृथ्वी ने जवाब दिया.

‘पृथ्वी.’ मोहंती की आवाज में आत्मीयता थी. ‘तूं और शेफाली इंसानियत के नाते बहुत ही प्यारे एवं अच्छे हो. संयोग से आप ऐसी विचित्र स्थिति में हैं, परन्तु ये दिन भी गुजर जाएँगे. अच्छा तो शेफाली, अब पृथ्वी है इसलिए मैं नीचे तक छोड़ने नहीं आ रहा.’

‘ठीक है.’ शेफाली ने कहा.

शेफाली कुछ हताश हो गई हो ऐसा दिखता था.

‘क्यों आज आप का मूड ठीक नहीं है?’

‘मैं मुंबई छोड़ना नहीं चाहती. मुंबई के अध्यापक मुझे केवल मेडिसिन नहीं सिखाते, इंसानियत भी सिखाते है.’

बैंगलोर में भी अच्छे अध्यापक होंगे.’

‘है न! कुछ तो अंतरराष्ट्रीय दरजे के है. परन्तु मुंबई के दो चार अध्यापक हमें सिर्फ चिकित्सा शास्त्र नहीं सिखाते. वे हमें एक इंसान की तरह जीना भी सिखाते हैं.’

‘मेरे मन में ऐसी बात आ रही है कि काश मैं भी आपकी तरह ‘मेडिसिन’ ले कर ऐसे अध्यापकों से सीखता होता तो कितना अच्छा होता!’

‘मैं कल मुंबई जाने की सोच रही हूँ. यहाँ एडमिशन का प्रबंध हो जाएगा. केवल वहां की यूनिवर्सिटी से ‘नो ओब्जेक्शन सर्टिफिकेट लाना है.’

‘मैं भी कल लुधियाना जाने के लिए सोच रहा हूँ.’

‘रिजर्वेशन हो गया?’

‘नहीं, मैं आम विद्यार्थी की तरह सफर करूँगा, ट्रेन के दूसरे दर्जे में.’

‘अभी पंजाब में कुछ चिंताजनक घटनाएं घटती हैं. आप अपना ख्याल रखना.’

‘हाँ, पंजाब के लिए मुझे भी फ़िक्र लगी है. पता नहीं कि ये सब किस लिए होता होगा.’

‘आप सम्हालना.’ फिर से शेफाली ने कहा. शेफाली की आवाज में काफी मात्रा में चिंता व दरकार नजर आता था. पृथ्वी को लगा जैसे शेफाली के रूप में माँ ही बोल रही है.

‘मुझे दस बारह दिन लग ही जाएँगे. लुधियाना जाउंगा. वहां से अमरदासपुर जाने का विचार है. अमृतसर जा कर संत लोंगोवाल के आशीर्वाद पाने की इच्छा भी है.

‘अमृतसर? वहां पर तो आतंक फैला हुआ है. वहां जाना जरूरी है क्या?’

‘देखता हूँ. आप कब लौटेगी?’

‘कम से कम पन्द्रह दिन तो लग ही जाएँगे,’ शेफाली ने कहा.

चलते चलते दोनों एक उद्यान के पास पहुंचे.

‘पार्क में बैठेंगे ?’ शेफाली ने पूछा.

‘आईए, वैसे मुझे कोई आपत्ति नहीं है,’ पृथ्वी ने कहा, ‘यहाँ पर कुदरत ज्यादा मेहरबान है. ज़रा सा चलने पर वृक्ष दिखाई पड़ते हैं.’

‘बैंगलोर में मुझे यही तो पसंद है. मुंबई में वृक्ष खोजने पड़ते है. यहाँ वृक्ष हमें खोजते हुए आते हैं.’

दोनों बाग में एक बेंच पर बैठे. क्या बात करें यह दोनों में से कोई भी सोच नहीं पाया, मोहंती के शब्द दोनों के दिमाग में एक साथ ही आए: ‘आप दोनों प्यारे हैं. संयोग से आप ऐसी विचित्र स्थिति में हैं.’

‘संयोग!’ पृथ्वी के मुंह से निकल पड़ा.

‘मोहंती अंकल ने कितनी सही बात कही?’

मोहंती अंकल शब्द सुनकर पृथ्वी चौंका. उसे त्यागी के शब्द याद आ गए. अपने संजोग भी याद आ गए. शेफाली के लिए सभी अंकल या आन्टी है. उस के लिए हर कोई अज्ञात आदमी है. इन में से किसी को उस की माता की हत्या का विचार आया होगा. शेफाली ऐसा विचार कर ही नहीं सकती, उस के ही किसी अंकल-आन्टी की यह योजना हो सकती है. इसी पल त्यागी को मिलना जरूरी है ऐसा लगा पृथ्वी को. वह खड़ा हो गया.

‘क्या हुआ?’ शेफाली ने पूछा.

‘कुछ याद आ गया. मैं अभी गुरुद्वारा जाना चाहता हूँ.’

‘मैं वहां पर छोड़ दूं?’

‘नहीं, धीरे धीरे मुझे खुद ही रास्ते पर चलना सीखना पड़ेगा.’

शेफाली पृथ्वी को जाते हुए देखती रही. आजकल उसे पृथ्वी का व्यवहार कुछ अजीब सा लगने लगा था. उस दिन गुरुद्वारा में जाने के बाद वह बिलकुल बदल गया था. कभी बिलकुल नोर्मल लगता है तो कभी एकदम बदला हुआ सा लगता है. गुरुद्वारा में ऐसा क्या होगा? वह वहां मन की शांति पाने के लिए जाता है, परन्तु जब लौटता है तब उस के दिमाग में अशांति ही पाई जाती है.

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इन्सपेक्टर न्यालचंद की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था. वह पिछले काफी दिनों से बैंगलोर में था. उसे कोई सुराग नहीं मिल रहा था. शेफाली के किसी भी परिचित सगे-सम्बन्धी या मित्रों की ओर से कोई साजिश हुई हो ऐसा कोई संकेत नहीं मिल रहा था. दो. दिवाकर पंडित की मौत स्वाभाविक रूप से हुई हो ऐसा हे लगता था. क्या मोहिनी की हत्या के पीछे डाक बंगले में ठहरे उस विदेशी ‘कपल’ का हाथ हो नहीं सकता?

जयपुर से उसे संदेशा मिला था कि वह कपल देश छोड़कर चला गया है. परन्तु जयपुर में उसके ‘गाइड’ की हैसियत से काम कर रहे मानसिंह नाम के एक आदमी को गिरफ्तार कर लिया है. अब उसे जयपुर जाना पड़ेगा.

यह सारा मामला उसे रहस्यमय लग रहा था. उसने अभी तक काफी केस इन्वेस्टिगेट किये थे परन्तु ऐसा उलझनभरा केस कभी उसके सामने नहीं आया था. पूरी घटना में उसे दिलचस्पी इसलिए थी कि अब तक उस में कोई खलनायक नजर नहीं आ रहा था.

जयपुर जाने से पहले यहाँ की छानबीन पूरी हो गई है या नहीं यह देख लेना आवश्यक था. पृथ्वीसिंह को बैंगलोर में कोई मित्र नहीं है, ऐसा लग रहा था. उस के पीछे लगाये गए ख़ुफ़िया पुलिस के आदमिओं ने कहा कि वह गुरुद्वारा में जाता है. उस के बाद कुछ गंभीर हो जाता है. शायद ईश्वर की प्रार्थना के बाद हर कोई आदमी गंभीर बन जाता होगा. बैरिस्टर मोहंती और सोलिसिटर अमिन बिलकुल ‘प्रोफेशनल’ एवं सज्जन हो ऐसा लगा. वे कोई खेल खेल रहे है ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता. शेफाली के परिवार में कृष्णराव वसीयत व जायदाद को लेकर काफी उत्तेजित हो जाते है और करोड़ों की संपत्ति पर केवल शेफाली का हक है ऐसा उछल उछल कर कहता है. परन्तु इतनी जायदाद अपने जीवनकाल के दौरान उसने कभी देखी न थी और देखा इस का परिणाम हो सकता है. शेफाली बिलकुल भोली व निर्दोष है. वह पृथ्वी के साथ प्रतिस्पर्धी की तरह नहीं, एक मित्र की तरह व्यवहार करती है. अब पूरी कहानी में दो पात्र बचते हैं: एक है जयपुर के डॉ. प्रकाशचंद जैन. वे मोहिनी का पता लगाने अंतत: सरसपुर के डाक बंगले पर आये थे. और दूसरे है डॉ. उमेश मिश्र. इस में इसमें कहीं नजर नहीं आते लेकिन फिर भी वे हर जगह हैं. अभी भी डॉ. पंडित के नर्सिंग होम का जिम्मा उनके सिर पर ही है. जयपुर जाने से पहले डॉ. मिश्र को मिलना आवश्यक था. इसीलिए ही उन्होंने डॉ. मिश्र को आज यहाँ बैंगलोर सी.आई.डी. हेडक्वार्टर्स पर बुलाया था.

डॉ. मिश्र के चेहरे पर आश्चर्य था. उसने आ कर सहजभाव से कहा: ‘इन्सपेक्टर साहब, आप को भला मेरी याद आ गई? सब वसीयत के चक्कर में उलझे हैं, तब मेरी आवश्यकता वारिसों का हवाईअड्डे पर स्वागत करने तक ही थी ऐसा मुझको लगने लगा था. इतने में आपने मुझे याद करके हैरत में डाल दिया.’

‘मुझे आप से मदद चाहिए, डॉ. मिश्र,’ इन्सपेक्टर ने कहा, ‘मोहिनी की हत्या के बारे में आप शायद ज्यादा बता सकते हैं.’

‘मैं?’

‘आप काफी ज्यादा जानते हैं, और आप के बारे में सभी बहुत ही कम जानते हैं.’

‘मेरे बारे में ज्यादा जानने जैसा है भी क्या? मैं डॉक्टर पंडित का सहायक था. डॉक्टर का मुझ पर स्नेह था. अलबत्ता इतना नहीं कि मेरे लिए वसीयत में कुछ लिखते.’ डॉ. मिश्र ने हँसते हुए कहा.

‘आप को इस बात पर रंज है?’

‘नहीं, इन्सपेक्टर साहब. फिर डॉक्टर ने मुझे विरासत में जो दिया है, वह तो उन्होंने शेफाली को भी नहीं दिया.’

‘ऐसा क्या दिया है?’

‘पिछले दो साल में डॉक्टर ने मुझे अपना लाजवाब कौशल्य सिखाया है. डॉक्टर के पास रहकर मैं और भी अच्छा तबीब बन पाया हूँ. वे मुझ से कहते थे: ईश्वर सर्जन के हाथ में छूरी नहीं रखते, एक मानव को भरोसा दिलानेवाला मरहम रखता है. मानवदेह पर छूरी चलाते समय सर्जन को उस देह की एक पीड़ा को काटनी चाहिए. यह रहस्य मुझे डॉक्टर पंडित ने सिखाई. इस से बड़ी विरासत डॉक्टर पंडित क्या किसी को भी दे पाते?’

‘इस के अलावा भी आप के पास और कुछ है, जिस का पता किसी को नहीं है.’ धीरे से इन्सपेक्टर ने कहा और डॉ. मिश्र के चेहरे पर कैसे प्रतिभाव उभरते है यह देखने लगे.

डॉ. मिश्र तक़रीबन चौंक उठे. ‘इस के अलावा भी?’

‘हाँ, आप डॉक्टर पंडित के सब से ज्यादा करीब रहे हैं. आप ने उन से पिछले कुछ दिनों में बहुत सारी बातें की हैं. और श्रीमती मोहिनी पंडित का भी कुछ निकट से परिचय पाया है. क्या आप मुझे बता सकते है कि डॉक्टर पंडित की उस रात अचानक हुई मौत के पीछे क्या राझ है?’

‘राझ? मैं कोई राझ नहीं जानता.’

‘वेल, आप जयपुर में रहे हैं. वहां के आप के डॉक्टर मित्र ने श्रीमती मोहिनी पंडित की मौत तक के सुराग पाए थे. और फिर सिविल अस्पताल में पोस्टमॉर्टम के समय पर भी उस डॉक्टर की आवाज काफी प्रभावी थी.’

‘मतलब?’

‘इस का सीधासादा मतलब यह कि आप डॉक्टर पंडित एवं श्रीमती पंडित की मौत के बारे में हम सब जो जानते हैं उस से ज्यादा जानते हैं. मैं आप को पूछताछ के लिए हिरासत में रख सकता हूँ. परन्तु अभी ऐसा नहीं कर रहा हूँ. हम कुछ दिनों के बाद फिर से मिलेंगे तब आप दिल खोल के बात करेंगे ऐसी उम्मीद है. आज तो मैं अन्य कार्य में व्यस्त हूँ, बाद में मैं आप को फोन करूँगा.’ इतना कहकर इन्सपेक्टर न्यालचंद खड़े हो गए और डॉ. मिश्र को सोचता हुआ छोड़कर केबिन के बाहर निकल गए.

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शान-ए-पंजाब लुधियाना से चली तब पृथ्वीसिंह के ह्रदय में तरह तरह के विचार उठ रहे थे. ऐसा लगा जैसे बैंगलोर से लुधियाना की ट्रेन यात्रा पलभर में पूरी हो गई हो. वह बैंगलोर स्टेशन पर पहुंचा तभी गुरुद्वारा में जिस से भेंट हुई थी वह वृद्ध सीख रंजीतसिंह ने बिलकुल अनजान बनते हुए कहा: ‘आप के लिए रिजर्वेशन वाला टिकट लिया गया है. आप अकेले नहीं.’ और उस के हाथ में एक टिकट सरका दिया गया. प्रथम श्रेणी का टिकट था. वह विस्मित हुआ. जब वह ट्रेन में दाखिल हुआ तब वहां पहले से तीन लोग बैठे हुए थे. इस में से एक सीख युगल था. तीसरा आदमी सूटबूट में सज्ज था. ट्रेन चली, ठीक उसी वक्त, जैसे कि उसे जानता ही नहीं उस प्रकार त्यागी वहां आ कर बैठ गया. टिकट चेकर आया तब त्यागी ने कहा, ‘मेरे साथवाले एक मित्र इस के बाद वाले स्टेशन से ज्वाइन करेंगे.’

टिकट चेकर के जाने के बाद उस सूटेड-बूटेड आदमी ने कहा: ‘मैं थोड़ी देर पासवाले कम्पार्टमेंट में मेरे मित्र है उन से मिलने जा रहा हूँ.’ उस युगालवाला पुरुष भी बाहर गया. बाहर जाते जाते वह द्वार ऐसे ही बंद करता गया. उस स्त्री ने द्वार को अंदर से लोक कर दिया.

त्यागी ने कहा: ‘यह बहनजी है अमरजीत कौर. वैसे दिल्ली में फैशन डीझाएनिंग का काम करती है. बैंगलोर अपने काम से आई थीं. उनके पति सरदार कुलदीपसिंह इंजीनियर है. जो सूट में थे वह मेरी तरह मोना (बिना दाढ़ी-मूंछ के) सीख है. इस समय उनका नाम चंद्रसेन है. वे बिहारी हिंदी अच्छी बोल लेते हैं. पटना में उनका बिजनेस है.’

‘मतलब इस डिब्बे में, ___’

‘इस डिब्बे में सब अपने ही आदमी हैं. और भी अपने आदमी पासवाले कम्पार्टमेंट में हैं.’

‘ये सब किस लिए, कौन से उद्देश्य के लिए आप के साथ जुड़े हुए हैं?’

‘वे सब पंथ के लिए अपना सबकुछ छोड़ने के लिए तैयार हैं.’

‘मैं भी पंथ के लिए अपना सबकुछ दे देना चाहता हूँ. परन्तु पंथ के लिए यह सब करने की क्या जरूरत है?

‘यह सब का मतलब?’ त्यागी ने पूछा.

‘गुप्त भेष में रहना, छिपाते छिपाते फिरना, दुसरे लोगों की टोह लेना – यह सब करने से पंथ को क्या फायदा?’

‘पंथ खतरे में है. दिल्ली में हिंदू शासन है. वे पंथ के लिए मुश्किल पैदा करते हैं. इस समय पंथ को बचाना हर सीख का प्रथम पवित्र कर्तव्य है.’

‘पंथ के लिए किसी खतरे की बात संत लोंगोवाल ने कभी नहीं की. मैं कई बार उनसे मिलता था. वे सरकार की ओर से हो रहे अन्याय की बात करते हैं. परन्तु हिंदुओं के साथ मैत्री बनाये रखने को ज्यादा महत्त्वपूर्ण बताते हैं.’ पृथ्वी ने साशंक कहा.

तब त्यागी पलभर पृथ्वी की ओर देखता रहा. फिर कहा: ‘तूं अभी बहुत छोटा है. लुधियाना में तेरा काम हो जाए बाद में मुझे अमृतसर में मिलना.’

‘अमृतसर में ? वहां कहाँ?’

‘सुवर्ण मंदिर में. वहां गुरु नानक निवास में जा कर अपना नाम बताना. वे तुम्हें मेरे पास ले आएँगे.’

बादवाले स्टेशन पर त्यागी उतर गए. तब शाम ढल चुकी थी. रात को उस के साथ केवल कुलदीपसिंह और अमरजीत कौर ही रहे थे. वे दोनों सहयात्री के रूप में मौजी एवम खुशमिजाज थे. रास्ता कैसे कट गया उस का उसे पता ही न चला. लुधियाना में पृथ्वी को देखकर सब चकित हो गए.

‘तूं तो वैसा का वैसा ही रहा.’ एक मित्र ने कहा.

‘क्यों? क्या मुझे बदल जाना चाहिए था?’

‘नहीं, मेरे कहने का ऐसा मतलब नहीं है. लेकिन तू अब करोड़ों की संपत्ति का मालिक बनेगा. यहाँ के अखबारों में भी तुझे मिलनेवाली संपत्ति की बात हमने पढ़ी है.’

‘दोस्तों, आप को याद हैं न कि संतजी ने क्या कहा था? यह जायदाद मुझे संतजी के आशीर्वाद से प्राप्त हुई है. इसे मुझे पंथ के लिए खर्च करनी है. मैं एक अनाथ हूँ. पंथ मेरा नाथ है.’

सुपरिटेन्डन्टट करतारसिंह यह सुनकर पृथ्वी के गले ही लग गए. ‘शाबाश बेटे, तूं ने अपनी पढ़ाई को सार्थक कर दिखाया.’

उसने अपनी वस्तुएँ बटोरकर अमरदासपुर अनाथाश्रम में गुरूजी को सुपुर्द करते हुए कहा: ‘गुरूजी, मैं अभी आपके पास पला हुआ बच्चा हूँ. मेरा घर है यहाँ. मुझे जो कुछ भी मिले वह पंथ के लिए हैं.’

गुरूजी ने कहा : ‘बेटे, पंथ के लिए जिंदगी कुर्बान कर देना यह बड़ी बात है. परन्तु इस से पहले पंथ क्या है यह अवश्य जान लेना चाहिए. पंथ विराट है; कोई तूझे उस के सिमित अर्थ में उलझा न दें!’

वह एक सराय में गया. वहां स्नान किया. पवित्र ग्रन्थ के कुछ पदों का पाठ किया. अमृतसर के स्थापक चौथे नानक गुरु रामदास का पद उस के दिमाग में आया.

मेरो सुन्दर कहहूँ मिले किंतु गली:

हरि के संत बतावतु मारगु

हम पीछे लागि चली.

[हे हरि के संत, मेरे प्रियतम मुझे कौन सी गली में मिलेंगे यह बताओ. आप ही मुझे रास्ता दिखाएँ. मैं आप के पीछे चल रहा हूँ.’]

यह गीत-गुंजन करते करते ही पृथ्वी जलियांवाले बाग से होता हुआ हरमंदिर साहब के पास के बाजार चौक में आया. इस के पहले कई बार वह हरमंदिर साहब के दर्शन के लिए आया था. परन्तु इस बार उस के भीतर कोई अलग ही स्पंदन उठ रहे थे. वह हरमंदिर साहिब में दाखिल हुआ. अकालतख़्त के पास के शक्ति स्तंभ को उस ने वंदन किये. हरमंदिर में कीर्तन सुनाई दे रहे थे और वहां पर ग्रंथी अविरत कीर्तन कर रहे थे. उस का ह्रदय आनंदविभोर हो गया.

उसने परिक्रमा की और फिर सीधा गुरु नानक निवास पहुंचा. वहां जाते ही वह स्तंभित रह गया. अभी छः महिने पहले वह यहाँ दर्शन के लिए आया था तब जो था उस से अब काफी अलग ही माहौल था. हाथ में स्टेनगन लिए उन के जैसे बहुत से युवक इधर उधर घूम रहे थे. उसने एक युवक से पूछा: ‘यहाँ निहाल त्यागी से मुलाकात कहाँ पर होगी?’

उस युवक ने एक पल के लिए उसके सामने देखा. फिर उसने तुरंत ही कहा: ‘आप सरदार पृथ्वीसिंह?’

पृथ्वी चकित हो गया.

‘मेरे पीछे चलिए.’

गुरु नानक निवास की छत पर मण्डली जमीं थी. मण्डली के बीच संत जरनैलसिंह भिन्डरांवाले बैठे थे. अभी अभी अखबारों में इस संत का नाम काफी सुनाई देता था. उसे संत के नजदीक आगे बिठा के उस युवक ने जरनैलसिंह के कान में कुछ कहा, तब ‘बैठिये,’ जरनैलसिंह ने अपनी मोटी किन्तु सम्मोहक आवाज में कहा. इसी आवाज की गूँज उसे त्यागी की आवाज में भी सुनाई देती थी. जरनैलसिंह उस समय किसी पत्रकार से बातें कर रहे थे. वे कहते थे, ‘हिंदू क़त्ल कर रहे हैं. दरबारासिंह की पुलिस सितम ढा रही है. इस बात पर वे निर्दोष सिखों को पकड़ते हैं.’

संत जरनैलसिंह भिन्डरांवाले इस पत्र के सामने हिंदुओं के खिलाफ जहर उगल रहे थे. उस पत्रकार ने कहा: ‘अभी मैं संत लोंगोवाल के पास गया था. वे हिंदू-सीख एकता की बात कर रहे हैं.’

‘तो फिर आप संतजी से ही पूछिए. मुझ से क्यूँ पूछते हैं? संतजी से पूछिए कि हिंदू बीबी दिल्ही की रानी बनकर जो सितम ढा रही हैं, इस का उन के पास क्या जवाब है?’

अभी अभी वह हरि के संतों से प्रश्न पूछ रहा था, ‘मेरो सुन्दर कहहु मिले, कितु गली?’ उस का सुन्दर, उस का ईश्वर, उसे इस द्वेष की गंगोत्री से मिलनेवाला था?

वह उठने को ही था.

‘बैठ, अभी वे आएँगे,’ एक दूसरे युवक ने उसे बिठा दिया. उसे बिठाने के लिए कंधे पर दिया गया दबाव उसे जैसे फिर खड़े न होने के लिए चेतावनी दे रहा हो उतनी हद तक भारी था. वह चुपचाप बैठ गया. परन्तु फिर उसके दिमाग में प्रश्न उठा:” ‘ क्या इस गली में ही अपना सुन्दर होगा?’

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रचनाकार: हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 7 वीं किश्त
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