पहली किश्त | दूसरी किश्त | तीसरी किश्त | चौथी किश्त | पाँचवीं किश्त वसीयत – ६ - उपन्यास – हरीन्द्र दवे – भाषांतर : हर्षद दवे. --------...
पहली किश्त | दूसरी किश्त | तीसरी किश्त | चौथी किश्त |
वसीयत – ६ - उपन्यास – हरीन्द्र दवे – भाषांतर : हर्षद दवे.
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‘आपको इस घर में प्रवेश करने का हक ही कहाँ है?’
कृष्णराव के ऐसे शब्द सुनते ही पृथ्वी दरवाजे पर रुक गया. वह सोलिसिटर अमिन के साथ होटल से चेक आउट करवा के डॉ. पंडित के बंगले पर आया था. सोलिसिटर अमिन गाड़ी की डिकी लोक कर रहे थे तब बैग ले कर आगे जा रहे आदमी के पीछे बंगले के दरवाजे में प्रवेश कर रहे पृथ्वी को कृष्णराव के शब्दों ने रोक दिया. इतना तिरस्कार उसने आँगन में आनेवाले अनाथाश्रम के बच्चों को चले जाने के लिए कहनेवाले लोगों की आवाज में भी नहीं पाया था.
‘कृष्णराव, पृथ्वीसिंह अकेले नहीं. मैं साथ में आया हूँ.’ सोलिसिटर अमीन ने अंदर आते हुए कहा.
‘कोर्ट ने ‘स्टे’ लगाया है!’ कृष्णराव ने ऊंची आवाज में कहा. कृष्णराव की आवाज सुनकर शेफाली घरमें से भागी भागी सी निकल आई. ‘क्या है पप्पा?’ परन्तु कृष्णराव ने उसे रोकते हुए कहा: ‘तूं इस में टांग न अडा, यह तेरी समज से बाहर है.’
‘कोर्ट ने डॉ. पंडित के आवास को सील नहीं लगाया. और पृथ्वीसिंह कायम होटल में रहे इस के बजाय घर में रहे यह विचार मुझे अच्छा लगा. मैंने बैरिस्टर मोहंती और एडवोकेट हेब्बर के साथ यहाँ आने से पहले ही बात कर ली है.’ अमिन ने स्वस्थता से समझाया.
‘यदि इस साहब को कोई दिक्कत हो तो मुझे ‘पेइंग गेस्ट’ मान कर एकाध छोटी-सी कोठरी दिलवा देंगे तो भी चलेगा.’ पृथ्वीसिंह ने कहा. होटल में नहीं परन्तु अपने ही घर में रहने के लिए कइं लोगों ने उसे समझाया था. किन्तु इसी समय पृथ्वीसिंह ने शांति को उस से अधिक महत्वपूर्ण समजा और इस शांति के लिए वह श्रीमती मोहिनी पंडित के घर में रहने का अपना अधिकार जाने देने के लिए भी तैयार था.
अब शेफाली से नहीं रहा गया: ‘क्यों छोटी सी कोठरी में रहें? इतनी बड़ी जगह यहाँ है वह किस के लिए है?’
‘सो नाइस ऑफ यू, शेफाली,’ सोलिसिटर अमीन ने कहा. ‘कृष्णराव, मैं यह निर्णय इतनी जल्दी नहीं लेता. किन्तु आप इस बंगले के रसोईघर का उपयोग कर रहे हैं, महाराज से खाना पकवा रहे हैं, डाइनिंग होल में भोजन लेते हैं.’
‘अमिन साहब, शेफाली इस बंगले के मालिक डॉ. दिवाकर पंडित की एक ही जीवित वारिस है, यह आप भूल रहे हैं.’ कृष्ण राव ने कहा.
‘कृष्ण राव, पृथ्वीसिंह भी श्रीमती मोहिनी पंडित का एकमात्र वारिस है. और श्रीमती पंडित इस बंगले के मालिक डॉ. दिवाकर पंडित की दिवंगत वारिस है, यह भी आपको याद रखना चाहिए. वह फाइव-स्टार होटल के दम घुटा देनेवाले माहौल से तंग आ चुका है. इस विशाल बंगले के एकाध बेडरूम का – अरे श्रीमती पंडित के ही कक्ष का उपयोग करे तो कौन सा आसमान फट पड़नेवाला है?’ सोलिसिटर अमीन ने निर्णायक आवाज में कहा.
तब कृष्णराव कुछ रुके, फिर कहा, ‘परन्तु वह खुद ही पेइंग गेस्ट की हैसियत से रहना चाहता है, फिर आप क्यों ऐसा दुराग्रह रखते हैं?’ कृष्ण राव के शब्दों में नाराजगी स्पष्ट रूप से झलक रही थी. शेफाली अपने पिता के ऐसे वर्तन से चौंक उठी थी. वह कुछ बोलने जा रही थी, उतने में सोलिसिटर अमीन ने कहा: ‘कृष्ण राव, इस समय मन में दुर्भाव न बढ़ाएं यह आप के हित में हैं. कुछ दिनों में मैं लड़के को समज पाया हूँ, और जहाँ तक मेरा ख्याल हैं, वह लड़ना नहीं चाहता. उस का हक हाथ से निकल न जाए यह देखना मेरा फर्ज है. मोहिनी ने मुझे इस वील के सम्बन्ध में सिफारिश की थी. और एक बात आप से कहूँ तो चकित मत होना. मोहिनी के विल में साक्षी के बतौर डॉ. दिवाकर पंडित ने ही दस्तखत किये हैं.’
‘क्या कह रहे हैं?’ कृष्ण राव चौंक उठे.
‘पप्पा इस में चकित होनेवाली कौन सी बात है? मुझे यकीन है कि डॉक्टर अंकल के वसीयतनामे को मोहिनी आन्टी ने भी पढ़ा होगा. वरना जायदाद के एक ही प्रकार के वसीयतनामे दोनों करते ही क्यों?’ शेफाली ने कहा.
‘दोनों एक दूसरे को, शेफाली को एवं पृथ्वीसिंह को और संसार को कुछ दे कर जाना चाहते थे. केवल वे यह नहीं जानते थे कि उनकी मैत्री उस दुनिया में भी कायम रहेगी और दोनों एक ही रात में चल बसेंगे. वैसे देखो तो समस्या जटिल नहीं है. यहाँ पर एक तरफ देने के लिए दो आदमी हैं. अगर लेना जानें तो लेनेवाले को कोई घाटा नहीं होनेवाला.’ अमिन ने कहा और फिर बोले: ‘बीच में राजस्थान की पुलिस ने झंझट पैदा न की होती तो मोहंती और में दोनों पक्षों को फायदेवाले किसी समझौते पर विचार भी कर रहे थे.’
पृथ्वीसिंह इन झमेले के बीच जरा सन्न हो कर हाथ में छोटा सूटकेस थामे हुए खड़ा था. शेफाली ने जा कर उस के हाथ से सूटकेस ले लिया और कहा: ‘आईए पृथ्वीभाई, मैं आपको आपका कमरा दिखाती हूँ.’
सभी को आश्चर्य का झटका देती हुई शेफाली पृथ्वीसिंह को मोहिनी के शयनकक्ष तक जबरन ले गई. डॉक्टर पंडित एवं मोहिनी का एक संयुक्त शयनकक्ष था. इस शयनकक्ष के साथ जुड़े हुए दो कमरे थे. एक डॉक्टर पंडित का अभ्यास कक्ष था. दूसरे कक्ष में मोहिनी की किताबें इ. था. कभी डॉक्टर पंडित घर पर नहीं होते तब मोहिनी यहीं पर सोती थी. इस कमरे में खिड़की के पास एक पलंग भी था. दूसरा बड़ा बैग ले कर आये हुए आदमी के साथ शेफाली एवं पृथ्वी ने उस कमरे में प्रवेश किया. शेफाली ने कहा: ‘पृथ्वीभाई, मोहिनी आन्टी अपने दिन का अधिकतम समय इस कमरे में बिताती थीं.’ और फिर वह तन्मय हो कर बोलने लगी: ‘यहाँ बैठ कर आन्टी लिखतीं थीं. मैगजीन पढ़ रही हो तब इस आरामकुर्सी पर वह झूलते हुए पढ़ती थी. परन्तु यदि महत्वपूर्ण किताब पढ़नी हो तो वह इस ‘स्टिफ चेअर’ ही पसंद करती थीं.’
फिर पृथ्वीसिंह सन्न हो कर सबकुछ देखता रहा. पहले तिरस्कार के कारण वह सन्न हो गया था, अब की बार शेफाली की सरलता उसे छू गई. उसे शेफाली के स्थान पर मोहिनी का चेहरा ही दिखने लगा. जैसे कि एक बार फिर से इस कमरे में मोहिनी चल फिर रही हो ऐसा उसे लगा.
‘और पृथ्वीभाई, यह देखिये, आन्टी एवं अंकल की तसवीर.’ शेफाली ने टेबल पर रखी एक तसवीर हाथ में उठाते हुए कहा. पलभर उस की आँखें उस तसवीर को देखती रहीं. फिर उसने उस तसवीर पृथ्वीसिंह के हाथ में दी. पृथ्वी को इन्स्पेक्टर राजपूत ने एक बार मोहिनी की तसवीर दिखाई थी. सोलिसिटर अमीन उसे मोहिनी की तसवीर देनेवाले थे. परन्तु वे अभी तक उसे भेज नहीं पाए थे. अभी उस के हाथ में अनायास ही मोहिनी एवं डॉ. पंडित, दोनों की तसवीर आई. डॉ. पंडित के हाथ में कोई अलबम था. और मोहिनी उसमें कुछ दिखा रही थी. डॉ. पंडित के चेहरे के भाव सौम्य थे. मोहिनी इस तसवीर में अत्यंत मोहक लग रही थी. जब वे दोनों जीवित थे तब वह उन को क्यों नहीं मिल पाया यह विचार उसके दिमाग में बार बार उठता रहा और अचानक वह पूछ बैठा: ‘डॉ. पंडित मेरे बारे में सबकुछ जानते होंगे, ठीक है न?’
शेफाली ने विस्मित हो कर कहा: ‘क्यों?’
‘अभी अमिन साहब ने कहा न्, उस प्रकार डॉक्टर पंडित ने मोहिनी आन्टी का विल पढ़ा ही था. फिर तो उन्हें मेरे बारे में आन्टी को मेरे नाम के अलावा जो कुछ भी मालूम होगा वह सब पता होगा.’ पृथ्वी ने कहा. मोहिनी के लिए शेफाली जो शब्दप्रयोग करती थी वह ‘आन्टी’ शब्द उसे अच्छा लगा.
‘आन्टी एवं अंकल के बीच कुछ भी गोपनीय नहीं रहता था.’ शेफाली ने कहा.
अभी भी पृथ्वी के हाथ में वह तसवीर थी. उस के चन्दन के फ्रेम से खुशबू फ़ैल रही थी. ‘अंकल यह अलबम देख रहे थे,’ शेफाली ने टेबल पर पड़े हुए अलबम दिखाते हुए कहा: ‘और मोहिनी आन्टी उस में से कुछ दिखा रही थीं तब मैंने यह तसवीर खींची थी.’
पृथ्वी एक पल तसवीर की ओर व दूसरे पल शेफाली की ओर देखता रहा. सहसा शेफाली सतर्क हो गई. ‘आप जरा आराम कीजिये. मैं आप के और अमिन अंकल के लिए चाय भिजवाती हूँ.’ कहकर वह बाहर निकल गई. पृथ्वी उसे देखता रहा.
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‘साहब आप का फोन है,’ महाराज ने कहा.
पृथ्वी को आश्चर्य हुआ. अभी अभी उसकी आँखें खुली थीं. पहली ही बार दुनिया में लोग जिसे घर कहते हैं ऐसी जगह पर वह सोया था. इसीलिए आँखें लगने में कुछ देर हुई थी. उसे लगा कि यह सब एक सपना है. ऐसा लगता था जैसे वह किसी रहस्यलोक में आ गया है. इतने में महाराज ने फोन के बारे में कहा. वह सोच में डूब गया. अमिन साहब इतनी जल्दी फोन नहीं करते. वह फोन के पास गया.
वही मोटी आवाज और आत्मीय सी लगती पंजाबी भाषा.
‘मैं बात कर रहा हूँ.’
यह ‘मैं’ कौन यह पूछने की अब पृथ्वी को जरूरत नहीं रही थी. अब तक वह इस व्यक्ति को दो बार मिला था. तीन बार उस के साथ फोन पर बातें की थी. फिर भी अभी तक वह उस से पहले था उतना ही अनजान रहा था.
‘जी,’ पृथ्वी ने कहा.
‘रात को ठीक से सोया था?’
‘हाँ, कुछ देर से आँखें लगीं परन्तु बाद में अच्छी तरह से सो पाया. अभी अभी जगा. आप आ रहे हैं यहाँ?’
‘नहीं, मैं वहां नहीं आ पाऊंगा.’
‘क्यों?’
‘तूं वह नहीं समझेगा. आज शाम तूं मुझ से मिलना.’
‘कहाँ?’
‘अभी तूं गोल्फ क्लब के पास है. क्या तूं यह जानता है?’ त्यागी ने पूछा.
‘हाँ.’
‘वहां से क्वींस रोड से होते हुए केनिंगस्टन रोड तक आने पर तुझे बाइं ओर मुडना है. वहां गुरुद्वारा है. उल्सूर लेक के पास. उल्सूर लेक का निशान याद रखना.’
‘गुरुद्वारा?’
‘हाँ, वहां तू प्रार्थना करना. तू जब श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की परिक्रमा कर रहा होगा तब तुझे मेरे पास ले जाने का कोई संकेत करेगा. वह तुझ से कहेगा ‘सत् श्री अकाल’ और तू जवाब देना ‘बोले सो निहाल.’ इस के बाद वह चलने लगेगा, तू उसके पीछे चलते रहना. तू मेरे पास पहुँच जाएगा.’
‘जी.’ पृथ्वी ने जवाब दिया.
‘भूले बगैर शाम सात बजे, गुरुद्वारा की परिक्रमा में तू होना चाहिए.’ सामनेवाले छोर से फोन रख दिया गया.
पृथ्वी पर किसी ने मोहजाल फैला दिया हो ऐसे वह उस आवाज के नशे में डूब गया. यह आवाज उसकी सारी तर्कशक्ति को सन्न कर देती थी. यह आवाज जो कुछ भी कहती थी वह ऐसा करने के लिए मजबूर हो जाता था ऐसा लगता था. न जाने कब तक वह हाथ में फोन थामे बैठा रहा. फोन के डायलटोन की ध्वनि उसके कान से टकराती रहीं. आखिरकर उसने फोन क्रेडल पर रखा.
चाय के लिए वह जब बाहर बरामदे में आया तो देखा शेफाली वहां बैठी हुई थी. ‘गुड मोर्निंग.’
‘मोर्निंग.’ पृथ्वी ने कहा, ‘आप सवेरे जल्दी उठ जातीं हैं?’
‘हाँ,’ शेफाली ने जवाब दिया, ‘मैं सवेरे उठ कर दो मील घूम कर आ गई. और फिर स्नान कर के तैयार हो कर बैठी हूँ, आप को अभी चाय लेनी बाकी है, ठीक है?’
‘जी.’
‘अब बेड टी रहने दीजिए. चाय और नाश्ता साथ साथ लेने में कोई एतराज तो नहीं है न ?’
‘माता,’ पृथ्वी ने कहा.
‘आप मुझे ‘माता’ कह रहे हैं?’
शेफाली खिलखिला कर हंस पड़ी. पृथ्वी जरा झेंप गया. फिर स्वस्थ हो कर उसने कहा:
‘हाँ, शेफालीदेवी. अनाथ बच्चों को सब से पहले यह शिक्षा दी जाति है किसी भी उम्र की स्त्री को ‘माता’ कहकर पुकारना. दरअसल जिसे ‘माँ’ कह सकें ऐसा हमारा कोई होता ही नहीं. इसलिए दूनियाभर की स्त्रिओं को हम ‘माता’ कहने के आदि हो गए हैं.’
अब जैसे शेफाली की बारी थी लज्जित होने की. पृथ्वी के शब्द सुनकर वह सकुचा गई. ‘मैं मजाक नहीं कर रही थी, पृथ्वीभाई. परन्तु...’
‘शेफाली,’ पृथ्वी ने कहा, ‘मैं अब धीरे धीरे ‘नोर्मल’ या सही माने में ‘एब्नोर्मल’ होता जा रहा हूँ. मुझे लगता है कि संकोच त्यागकर सब आप को जिस नाम से पुकारते हैं उसी नाम से पुकारना चाहिए.’
‘आप कि यह बात मुझे अच्छी लगी. लीजिए, महाराज चाय-नाश्ता भी ले कर आ गए. फिर आप तैयार हो जाइए. हम आज बैंगलोर घूमने निकलेंगे.’
‘क्या?’ पृथ्वी जैसे कुछ समझा नहीं, जो सुना उस पर विश्वास नहीं हो रहा था. अब भी वह जैसे कोई स्वप्नलोक में हो ऐसा महसूस कर रहा था.
‘अमिन अंकल कहते थे कि आप इस शहर में पहली ही बार आये हैं.’
‘हाँ,’ कुछ ऐसा ही.’
‘मैं इसी शहर से हूँ. आप से दो-तीन दिन ही पहले यहाँ आई. आई थी डॉक्टर अंकल की खबर पूछने. और अब उसी चक्कर में ठहरजाना पड़ा. मुझे अमिन अंकल की बात सही लग रही है. आज मैं आप को कुछ अच्छी जगह ले चलती हूँ.’
‘जैसे कि?’
‘आप को वनस्पति एवं वृक्षों में दिलचस्पी है?’
‘हाँ.’
‘फिर आप को मैं लालबाग ले चलूंगी. वहां से टीपू का महल. वहां से विधानसभा भवन, क्वीन पार्क, पोस्ट ऑफिस, विश्वेश्वरैय्या म्यूजियम उल्सूर लेक...’
‘उल्सूर लेक’ शब्द सुनते ही वह चौंका. उसने पूछ लिया, ‘केनिंग्सटन रोड के पास?’
शेफाली को आश्चर्य हुआ. ‘आप को कैसे मालूम? क्या आप पहले यहाँ आ चुके है?’
‘नहीं, परन्तु इस रास्ते के बारे में मुझे किसीने बताया था.’
‘क्या?’
‘वहां एक गुरुद्वारा है.’
‘हाँ. आप वहां जाना चाहते हैं?’
‘फिर मेरी एक बिनती मनानी होगी.’
‘क्या?’
‘शाम पांच बजे मुझे उस गुरुद्वारा के पास छोड़ देना.’
‘मैं भी आप के साथ वहां दर्शन के लिए आऊंगी. मैं पहले भी गईं हूँ उस गुरूद्वारे में.’
‘आज नहीं, आज में वहां खुद के साथ अकेले में तीन-चार घंटे बिताना चाहता हूँ.’ पृथ्वी ने कहा. कभी कभी वह झूठ बोल लेता था. परन्तु आज झूठ बोलने में उसे भारी कष्ट पड़ रहा था.‘जैसा आप चाहें. इश्वर के पास अकेलापन ज्यादा अच्छा लगता है. मुझे भी मंदिर के शांत कोने में घंटों बैठे रहना पसंद है. हमारे घर से दस मिनट के फांसले पर रस्ते में ही एक मंदिर है. बिलकुल छोटा सा षणमुगम मंदिर है. गणेश के बड़े भाई षणमुगम . उस मंदिर के कोने में मैं कइं बार बैठी हूँ, घंटों तक.’ शेफाली बोलती रही. इस बात में गुरुद्वारावाली बात भुला दी गई यह उसके लिए खुशी की बात थी.
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‘यह लालबाग है. हम इसे शिरीष का वृक्ष कहते हैं – वो पीली फलियाँ दिख रही हैं न वही वृक्ष.’ शेफाली ने कहा.
‘वो पतले तने वाला?’
‘नहीं, वो तो डाट का वृक्ष है. कामदेव के पांच पुश्पशरों में यह शिरीष भी एक है. उस के फूल की सुगंध मादक है. वाकई कामदेव को तीर के रुप में प्रयोग करने को मन करे ऐसा ही यह वृक्ष है. अजब सम्मोहन है इस वृक्ष का.’
सम्मोहन शब्द सुनकर पृथ्वी जरा रुका.
‘शेफाली, आप मुझे मोहिनी आन्टी के बारे में ही कुछ बताएं तो?’
‘क्यों?’
मैं जानना चाहता हूँ कि यह स्त्री कैसी थी? मुझ में और उन में कोई समानता है भी? वह क्यों वसीयतनामे में मेरा नाम रखती गईं? वह कभी मेरे बारे में बात करती थीं?’
पृथ्वी ने देर रात तक मोहिनी के ही विचार किये थे. मोहिनी का अलबम देखने में वह मशगूल हो गया था. मोहिनी ने पुरातत्त्व के स्थानों में किये हुए कुछ संशोधन के बारे में वह अलबम था. उस में ज्यादातर राजस्थान के प्रदेश ही थे. इस स्त्री की पुस्तकें, मैगजीन ट्रे में रखे हुए मैगजीन, इन में कहीं भी पंजाब की संस्कृति की झलक दिखाई नहीं पड़ती थी. केवल एक ही पंजाबी पुस्तक उस ने देखी: अमृता प्रीतम की कविताओं की. बाकी सब अंग्रेजी पुस्तकें थीं. ज्यादातर पुरातत्त्व से सम्बंधित थीं. इस स्त्री के जीवन में, विचार में कहीं पंजाब नहीं था. तो फिर अचानक अमरदासपुर अनाथाश्रम के एक लड़के पर श्रीमती पंडित को किस कारण स्नेह उमड़ आया?
शेफाली ने जवाब दिया तब पृथ्वी की विचारधारा टूटी. शेफाली कह रही थी. ‘पृथ्वीभाई, आन्टी बहुत ही ममतामयी थी. लेकिन उनके पास जाने पर ही हम उनके स्नेह का अनुभव कर सकते हैं. बाहर से वह नरेली सी थी. सख्त सी लगे बाहर से परन्तु करीब जाने पर उन में रही मृदुता हम जान सकते हैं.’
‘वह देखने में कैसी थीं?’
‘सुन्दर. न ऊंचीं, न ही उनका कद छोटा था, न मोटी कि न पतली, उनके पतले होंठ हमेशा फड़फड़ाते ही रहते थे, जैसे वह सतत कुछ बोले जा रहीं हों!’ यह कहने के बाद शेफाली ने पृथ्वी की ओर देखा. पृथ्वी के होंठ भी कब से जैसे कुछ कह रहे हों ऐसे फड़फडा रहे थे: ‘बस, बिलकुल आप की तरह.’ उसने कहा.
‘मेरी तरह?’
‘हाँ, आप भी कब से होंठ फड़फडा रहे हैं. क्या आप स्वयं से कुछ कह रहे हैं?’
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अभी भी पृथ्वी के होंठ फड़फडा रहे थे. वह मन ही मन ‘राम हरि’ ‘राम हरि’ रट रहा था. शेफाली ने गुरुद्वारा के पास उसे छोड़ते हुए पूछा. ‘मैं एक घंटे के बाद लेने आऊं?’ उसने इनकार कर किया. ‘आर यू श्योर?’ शेफाली ने पूछा. उस ने फिर एक बार हाँ कही और शेफाली चली गई. उसने चैन की सांस ली. शायद शेफाली उसे लेने के लिए आती और उसे त्यागी के साथ देख लेती यह बात त्यागी को पसंद नहीं आती. त्यागी उस आदमी का सही नाम नहीं था. वह पृथ्वी जानता था. वह आदमी अपने सही नाम के साथ सामने क्यों नहीं आता? वह मेरे अतीत को इतनी हद तक कैसे जानता है? उसकी आवाज में ऐसा कौन सा जादू है जो वह उस की ओर खींचता चला जा रहा है?
गुरुद्वारासे कीर्तन की आवाजें सुनाई दे रहीं थीं:
‘हरि से लगा रहो मेरे भाई.’
रागी की (कीर्तन गानेवाले की) आवाज बहुत ही मधुर थी. पृथ्वी का मन उसी आवाज को ह्रदय के गहनतम कोने तक पहुंचा कर रटता रहा. उसने उपरी सतह पर उस रागी के साथ गाना ही शुरू कर दिया.
‘दुनिया दौलत माल खजाना
चालत चालत चल जाई...’
घनी होती जा रही शाम को दरबारी के सूरों के मिलन के साथ गाई जा रही यह पंक्ति जैसे उसे ही कही जा रही हो ऐसा पृथ्वी को लगा. दुनिया, दौलत, माल-खजाना आदि की दुनिया में वह अचानक ही आ गया था. रागी का संगीत आगे बढ़ रहा था. उसने वह पंक्ति बार बार दोहराई और फिर आगे की पंक्ति गाई :
‘नानक नाम रटो मेरे प्यारे
तब मिले रघुराई.’
देर तक वह कीर्तन के नशे में झूम रहा था. उस के दिमाग में एक के बाद एक गुरु की छवि उभरती जा रही थी. गुरु नानक, गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जुनदेव, गुरु हरगोविंद, गुरु हरिराय, गुरु हरिकृष्ण इत्यादि उसकी नजर के सामने से जैसे गुजर रहे थे. मुगलों के कारावास में हँसते हँसते कीर्तन गाते गुरु तेग बहादुर और आखिर में गुरु गोविन्दसिंह. उस की दृष्टि श्री गुरु ग्रन्थ साहिब पर ही लगी हुई थी. एक के बाद एक गुरु जैसे उसे पंथ के लिए कैसे फना होना चाहिए उसका सबक सिखा रहे थे.
सहसा उसकी नजर घड़ी पर गई. सात बजने में कुछ देर थी. वह परिक्रमा करने लगा. एक परिक्रमा पूरी करने के बाद वह दूसरी परिक्रमा कर रहा था कि एक बुजुर्ग सीख जल्दी से उस के आगे से निकले : ‘सत् श्री अकाल’ उस ने कहा. ‘बोले सो निहाल’ पृथ्वी ने उत्तर दिया. वृद्ध होने के बावजूद भी वह फुरती से चलता था. पृथ्वी उस के पीछे पीछे चलने लगा. परिक्रमा पूरी करने के बाद दोनों गुरुद्वारा के बाहर निकले और बाहर की संकरी गली में एक मकान की पहली मंझिल पर पहुंचे. तब तक दोनों के बीच एक शब्द का भी आदान-प्रदान नहीं हुआ था. पहली मंझिल का दरवाजा खोल कर उस वृद्ध ने उससे कहा: ‘बैठिये’. और वह अंदर चला गया.
पृथ्वी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. अज्ञात व्यक्ति, अज्ञात जगह. फिर भी उसे डर नहीं लग रहा था.
‘अंदर आओ...’ एक आवाज सुनाई दी. इस आवाज को वह अच्छी तरह से पहचानता था. वह अंदर गया. उस अँधेरे खंड में चार दिए जल रहे थे. वे चार दीपकों के बीच एक चौकी थी. उस पर श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की प्रति रखी हुई थी. उसे नशे में डुबो देनेवाली वह आवाज ‘ओम सतीनामुं करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभ गुरु प्रसादी’ का मन्त्र रट रही थी. अभी तक इस आदमी ने धार्मिक प्रकृति के पृथ्वी पर अजब सम्मोहन सा कर दिया था. आज पृथ्वी ने पिछले डेढ़ से दो घंटे गुरुद्वारा में ही बिताए थे और अभी भी वह भक्ति के नशे में था. ‘नानक नाम रटो मेरे प्यारे’ इस रागी के बार बार हो रहे आवर्तन में आ रहे शब्द अभी तक उस के अंतरतम में गूँज रहे थे. अचानक इस अज्ञात मकान में गुरुद्वारा में भी देखने नहीं मिला था ऐसा माहौल देखने को मिला. अपने इस रहस्यमय हितचिन्तक के लिए अभी तक वह गलत अंदाजा लगा रहा था ऐसा पृथ्वी को लगा. यह आदमी पंथ के लिए ही जी रहा है एवं वोही पंथ का उद्धारक है ऐसी श्रद्धा उस के ह्रदय में रचबस गई.
‘पृथ्वी’
‘जी.’
‘पंथ तेरे से बड़ा काम करवाना कहता है.’
‘भाईसाहब,’ पृथ्वी ने कहा, इस आदमी का नाम वह जानता नहीं था. त्यागी के नाम से उसे पुकार ने की उसकी इच्छा नहीं थी. इसलिए उस ने स्वयं ही यह संबोधन तय कर लिया. ‘पंथ के लिए मैं अपने जान की बाजी लगाने तक तैयार हूँ. कहिये मुझे क्या करना है?’
‘पंथ को जब तेरी जान की जरूरत होगी तब कहा जाएगा, परन्तु प्रारंभ तेरे सबकुछ से करना है.’
‘यतीम बच्चे का सबकुछ उसकी मजबूरी ही होती है, भाईसाहब! श्रीमती पंडित की वसीयत मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती. इस में मेरे हिस्से में जो कुछ भी आएगा वह सब मैं पंथ के चरण पर धर देने के लिए तैयार हूँ.’
‘तेरा हिस्सा ही काफी नहीं. तुझे शेष हिस्से के लिए भी लड़ना है.’ उस आदमी ने कहा.
लड़ने की बात निकली तब पृथ्वी को इस मसले पर जिस के साथ लड़ना जरुरी बनता है, वह शेफाली की याद आई. आज शेफाली के साथ बिताया दिन याद आया. उल्सूर लेक की बोट की सैरगाह याद आई. शेफाली ने जाते जाते कहा था, ‘आन्टी और अंकल दोनों अद्भुत इंसान थे! उनके दो वारिस के बीच कटुता फैले इस प्रकार का विचार तक मुझे पसंद नहीं.’ उसे शेफाली के उन शब्दों की ध्वनि की गूंज सुनाई दी. रात को उसने कक्ष में बैठकर मोहिनी के अलबम से तसवीरें देखी थीं और मोहिनी जिस टेबल पर बैठकर लिखती थी उसी टेबल पर बैठकर उसने ध्यान लगाया था. मोहिनी की छवि को देर तक, एकटक देख कर नजर के जरिये ह्रदय में बसाई थी. अब इस सम्मोहक आवाज में भाईसाहब उसे कह रहे थे: ‘तुझे शेष हिस्से के लिए लड़ना है.’ उसके सामने बहस करने की हिम्मत उस में नहीं थी. उसने केवल इतना ही कहा, ‘भाईसाहब, सामनेवाली व्यक्ति ही यदि लड़ना नहीं चाहती हो तो?’
‘वह तुझे भरमाना चाहती है. वह लड़की सुबह से तेरे साथ थी. तुझे भ्रम में डालकर तेरी सारी जायदाद हड़प लेगी. और पंथ के लिए तेरी किस्मत के द्वार खोलने का आरम्भ विधाता ने किया है, उस के खुलने से पहले ही बंद करने की कोशिश करेगी.’
‘भाईसाहब, जैसा आप कहेंगे वैसा करूँगा. परन्तु उस लड़की में सच्चाई है. मुझे वह धोखा नहीं देगी, छल नहीं कर सकती ऐसा विश्वास है.’ पृथ्वी ने कुछ झिझकते हुए कहा.
‘तुझे उस लड़की के सामने नहीं लड़ना है. उस लड़की का पिता एवं वकील इतनी आसानी से झुकनेवाले नहीं. वे तेरे हिस्से में कुछ नहीं आने देंगे.’
‘मोहिनी आन्टी की...’ उसके मुंह से मोहिनी के लिए ये शब्द निकल पड़े. उस आदमी की आँखें ऊपर उठीं. उसने पूछा, ‘किसकी?’
मोहिनी आन्टी शब्द पृथ्वी पिछले कुछ घंटों में इतनी दफा बोला था कि अब वह उसकी जबान पर अनायास ही आ जाता था. उसने स्वस्थ आवाज में कहा: ‘मोहिनी आन्टी की जायदाद में मेरा हिस्सा तो है ही. उसे मैं पंथ के चरण पर धर देता हूँ.’
‘तेरा हिस्सा उतना ही नहीं है.’
‘मतलब?’
‘डॉ. दिवाकर पंडित की सत्तर प्रतिशत संपत्ति श्रीमती पंडित को मिलती है. इस संपत्ति का ८५ प्रतिशत का वारिस तूं है.’
‘यह निर्णय तो अदालत करेगी.’
‘अदालत को हमें इस का प्रमाण देना है. डॉ. पंडित की मौत किसी के हत्या करने से हुई हो सकती है यह ‘थियरी’ राजस्थान की पुलिस ने दर्शाई है. परन्तु उन की मौत की खबर किसी ने जयपुर पहुंचाई थी. और श्रीमती पंडित की हत्या की साजिश की गई थी.’
‘किसने?’
‘यह पुलिस छानबीन कर रही है. परन्तु मोहिनी की मौत उसी रात को हो जाये उस में जिस पक्ष का फायदा हो वह पक्ष डॉ. पंडित के मृत्यु की खबर दे कर ह्त्या करवा सकता है.’
‘भाईसाहब, आप जो कह रहे है यह बात मेरे दिमाग में नहीं उतरती. कहाँ बैंगलोर, कहाँ जयपुर...’
‘कहाँ जयपुर ऐसा कह रहा है? अरे रंजीतसिंह!’ उस आदमी ने आवाज दी और कहा, ‘लन्दन फोन लगा. कोड पता है न? जगजीत को कह दे कि मेरी हाँ है. मुझे भी ऐसा ही लगता है.’
पृथ्वी आश्चर्य से उस वृद्ध सीख को लन्दन फोन लगाते हुए देख रहा. उस वृद्ध ने पंजाबी में नहीं परन्तु साफ़ अंग्रेजी में यह सन्देश दिया. और फिर कुछ समझ में न आये ऐसी बात की. उस ने फोन रख दिया उस के बाद उस आदमी ने कहा: ‘पृथ्वी, कल सुबह तूं समाचारपत्र में पढ़ेगा कि लन्दन में आतंकवादिओं ने हमला किया है. एक आदमी मारा गया है.’
‘मतलब?’ पृथ्वी का सारा शरीर काँप रहा था.
‘यही कि यहाँ से लन्दन में घंटे बाद पंथ के किसी दुश्मन की फोन पर बात कर के हत्या की जा सकती है तो यहाँ से जयपुर में कुछ करने में कितनी देर लग सकती है?’
‘भाईसाहब. मुझे क्षमा कीजिए. मैं पंथ के लिए काम करना चाहता हूँ, आतंकवादिओं के लिए नहीं.’ पृथ्वी ने दृढता के साथ कहा.
‘पृथ्वी,’ उस आदमी की आवाज में सख्ती बढ़ी, ‘तू जिस के लिए आतंकवादी शब्द का प्रयोग करता है वे पंथ के सच्चे साथी हैं. गुरु गोविन्दसिंह के पंज पियारे (पांच प्रियजन) की बात तुझे याद है न? जान हथेली पर लिए घूमनेवाले लोग पंथ के पंज पियारे जैसे हैं.’
पृथ्वी यह सुनकर सन्न हो गया.
‘इस पंथ की तुझे आज्ञा है कि तुझे इस मीरास के लिए लड़ना है.’ वह आदमी बोलता रहा. उस की आवाज की गंभीरता फिर एक बार सम्मोहन करती गई. ‘तेरी यह लड़ाई अन्यायी नहीं. पंथ किसी अन्यायी लड़त के लिए आदेश देता ही नहीं.’
‘जी.’ पृथ्वी ने कहा.
‘तेरा उस संपत्ति पर कुदरती हक है.’
‘मेरा? कुदरती हक?’ पृथ्वी विस्मित हुआ.
‘हाँ. क्यों कि शेफाली केवल डॉ. दिवाकर पंडित की पालित पुत्री है. शेफाली को वे मोहिनी को जानने लगे उस के पहले से जानते थे. परन्तु कुमारी मोहिनी चटवाल ने तुझे अपने उदर में नौ महीने तक पाला है. तूं उसी माता की कोख से जन्मा है. यह सत्य है और इस सत्य के सारे सबूत तुझे समय आने पर मिलेंगे. अभी पंथ की ओर से मुझे केवल इतना कहने की अनुमति मिली है कि मोहिनी तेरी माँ है.’
उस घने आवाज की गूँज पृथ्वी के मन के कोने में उठती रही: ‘मोहिनी तेरी माँ है,’ ‘मोहिनी तेरी माँ है.’
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(क्रमशः अगली किश्तों में जारी...)
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