हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 4

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सुप्रसिद्ध गुजराती कवि, विवेचक, पत्रकार, उपन्यासकार स्व. श्री हरीन्द्र दवे के उपन्यास 'वसीयत' का हिंदी अनुवाद धारावाही रूप में (किश्...

सुप्रसिद्ध गुजराती कवि, विवेचक, पत्रकार, उपन्यासकार स्व. श्री हरीन्द्र दवे के उपन्यास 'वसीयत' का हिंदी अनुवाद धारावाही रूप में (किश्तों में ) प्रस्तुत कर रहे हैं श्री हर्षद दवे. प्रस्तुत है चौथी किश्त.

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वसीयत - प्रकरण  - ४  - हरीन्द्र दवे  - भाषांतर : हर्षद दवे

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शेफाली के लिए ये दिन बहुत ही मुश्किल के थे. उस के पूरे जीवन एवं शिक्षा के आधार जैसे अंकल की मौत हुई थी. प्रेम वत्सल एवं हंसमुख मोहिनी आंटी की किसी ने हत्या कर दी थी. ऐसी अनहोनी के बीच घर, संपत्ति, जेवर, जागीर, जायदाद, वसीयत इत्यादि शब्दों को लेकर ही बातें होतीं रहतीं थीं. वे लोग मृत्यु  का लिहाज भी नहीं रख पा रहे थे.

'शेफाली,' कृष्णराव ने कहा, 'डॉक्टर अंकल के पोस्टमार्टम का रिजल्ट काफी निराशाजनक है.'

'क्यों? ऐसा लगता है कि किसी ने साजिश की है?'

'नहीं, ऐसी बात नहीं है. मृत्यु का ठीक समय तय करना मुश्किल लग रहा है. अब जयपुर से आनेवाली जानकारी की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी.'

'किसकी बात कर रहे हैं पप्पा?'

'श्रीमती पंडित की हत्या पहले हुई है तो यह बात हमारे लिए फायदेमंद है.' कृष्णराव ने कहा.

'पप्पा, श्रीमती पंडित की मौत हुई है. उनकी हत्या कर दी गई है यह हकीकत ही काफी दुखदायी है. अब उनकी मौत पहले हुई है या बाद में इस से अपने दुःख या आघात किस प्रकार कम हो सकते है?' शेफाली की समझ में पिता की बात आती ही नहीं थी. 'प्लीज, इनमें से एक भी मौत हमारे लिए फायदेमंद नहीं हो सकती. डॉक्टर अंकल एवं मोहिनी आंटी की मौत से हो रहा फायदा दरअसल में फ़ायदा हो ही नहीं सकता. दोनों की मौत हमारे लिए इतना बड़ा घाटा है जिसे किसी भी प्रकार के भौतिक लाभ से पूरा नहीं किया जा सकता.'

'डॉक्टर अंकल की मौत का गम केवल तुझे ही है क्या? हमें क्या कोई गम नहीं? शेफाली, दौलतमंद मैं नहीं होने वाला, तुम होनेवाली हो, हमें तो डॉक्टर अंकल की तेरे लिए जो भावना है उस का अपमान हो ऐसा कुछ भी नहीं होना चाहिए बस इस बात की फ़िक्र है.' कृष्णराव ने कहा. वे भी भावुक हो रहे थे. 'मुझे पता है कि जब वह आएगा तब खींचातानी शुरू हो जाएगी.'

'वह...? वह कौन?' शेफाली ने पूछा.

'श्रीमती मोहिनी पंडित की संपत्ति का वारिस बनने वाला लड़का. एक अज्ञात यतीम बच्चे को संपत्ति दे देने के पीछे उसका क्या इरादा होगा?' 

'पप्पा, क्या मोहिनी आंटी को पता था कि मौत इस कदर होगी? मुझे तो यह घटना जीवन की नश्वरता की मिसाल लगती है.'

'तेरे फलसफे की बातें बाद में करेंगे. पहले जो हकीकत है उसे सुन और समझ,' कृष्णराव ने कहा, 'डॉक्टर अंकल के पोस्टमार्टम के मुताबिक मौत संभवतः हृदयरोग के हमले से ही हुई हो सकती है ऐसे नतीजे पर डॉक्टर पहुंचे हैं. परन्तु मृत्यु का समय निश्चित रूप से नहीं बता पा रहे. उनका कहना है कि मौत रात के बारह बजे से लेकर सवेरे चार-पांच बजे के बीच किसी भी वक्त हुई हो ऐसा हो सकता है.' 

शेफाली ने कुछ नहीं कहा. उसे यह अत्यंत शोक के समय कही जा रही कायदे की भाषा जरा भी समझ में नहीं आती थी.

कृष्णराव ने कहा: ‘अभी बैरिस्टर मोहंती आएँगे. वे चाहते हैं कि तुम्हें पोस्टमार्टम की रिपोर्ट का आंशिक स्वीकार करते हुए मृत देह की अंत्येष्टि के लिए अनुमति देनी होगी.’

‘मतलब?’

‘अस्पताल के मोर्ग में किसी के शव को कितने समय तक रखा जा सकता हैं? आज तो उस के दाह संस्कार करने ही होंगे.’

‘इसमें मेरी अनुमति की क्या आवश्यकता है?’

‘केवल तू ही उनकी हयात वारिस है.’

‘यदि मैं अपनी मरजी से वारिस ना रहने की घोषणा कर दूं तो?’

कृष्णराव चौंके. उसने कहा: ‘बेटी, तू समझ नहीं रही. यह संपत्ति या वसीयत का प्रश्न नहीं हैं. डॉक्टर अंकल की अंतिम इच्छा का उचित रूप से पालन करने की बात है. तुझे क्या ऐसा लगता हैं कि मेरी नियत उस संपत्ति को हथियाने की है? कुछ भी मिले या कुछ भी न मिले, उस पर केवल तेरा हक है. मैं बेटी से कुछ भी नहीं चाहता. परन्तु डॉक्टर अंकल की संपत्ति पर कोई गैरकानूनी तरीके से कब्जा कर ले यह मैं हरगिज नहीं होने दूंगा.’

जब यह बात चल रही थी ठीक उसी समय बैरिस्टर मोहंती आ पहुंचे. उन्होंने कहा: ‘शेफाली, कृष्णराव की बात सही है. मेरे मित्र की मौत हुई है. उस की संपत्ति तुझे मिले इस के बाद तूं यदि उसे दान में दे दे तो भी कोई हर्ज नहीं है. किन्तु उचित प्रमाण के बगैर इतनी सारी जायदाद बिलकुल अज्ञात व्यक्ति के हाथ कैसे जाने दे सकते हैं?

‘पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के बारे में भविष्य में कोई प्रश्न उपस्थित होने पर इस के लिए मैं अभी से किसी बंधन में न रहने की शर्त पर मेरे पालक पिता डॉ. दिवाकर पंडित की देह के दाह संस्कार के लिए मैं अनुमति देती हूँ.’ इस मतलब के कागज पर दस्तखत करते हुए शेफाली का सारा बदन सिहर उठा. अपने परम प्रिय अंकल की देह पंचमहाभूत में विलीन हो जानेवाली है, तब भी इस मौत के बारे में भविष्य में विवाद उठाने का अधिकार मैं अपने पास रखती हूँ ऐसा सोचने पर भी शेफाली थरथरा उठती थी.

डॉ. दिवाकर पंडित के अंतिम संस्कार में दो दिन का विलम्ब हुआ. फिर भी बैंगलोर की जनता उनकी अंतिम यात्रा में काफी तादाद में उमड़ पड़ी थी. माध्यम वर्गीय, छोटे छोटे कई लोग आँखों में आंसू लिए डॉक्टर को अंजली दे रहे थे. डॉक्टर पंडित न जाने कितने लोगों के स्वास्थ्य से ले के नानाविध कई प्रकार के प्रश्नों में सहायक हुए थे इसकी कथा गाथा हर एक आदमी की जुबान पर थीं.

‘मैं उन के पुत्र के स्थान पर हूँ: दाह संस्कार मैं करूंगी.’ ऐसा शेफाली ने कहा तब अपने को आधुनिक विचार के समझने वाले लोग भी चौंक उठे थे. डॉक्टर पंडित के बहुत से मित्र थे, परन्तु कोई रिश्तेदार या स्वजन नहीं था. आखिर कृष्णराव दाह संस्कार करेंगे ऐसा हल निकाला गया. शेफाली श्मशान गृह में कुछ दूरी पर खड़ी रही और अपने डॉक्टर अंकल की देह को पंचमहाभूत में विलीन होते हुए देखती रही. अब हम उसे कभी नहीं देख पाएंगे? वह चेहरा, वे आँखें, वह स्नेहपूर्ण आवाज फिर कभी देखने-सुनने को नहीं मिलेंगे क्या? इस पल तक उन की क्षर देह मौजूद थी; अब तो कोई भी अवशेष बाकी नहीं बचा. इतनी दौलत, इतनी प्रतिष्ठा – फिर भी अभी डॉक्टर अंकल इस लोक से अलग किसी अन्य लोक में बिलकुल अकेले होंगे और वहां से मोहिनी आंटी के साथ इस धरती पर अपनी भौतिक संपत्ति के लिए व्यवहृत हो रहीं अभिलाषाओं को देख रहे होंगे. आकाश में नजर आ रहे एक बदल में उसे डॉक्टर अंकल की आंखे दिखाई दे रहीं हो ऐसा लगा. अंकल की मौत के दो दिन से जो कुछ भी हो रहा था इस के लिए उसे बेहद क्षोभ हुआ.

दाह संस्कार के पहले, श्मशानगृह में और तत्पश्चात डॉक्टर अंकल की अंतिम बिदाई के बाद सब ‘उस’ के बारे में ही बातें करते थे. पंजाब के कोई शहर में रहते इस अनाथ लड़के को मोहिनी आंटी ने इतनी सारी जायदाद क्यों दी इस के बारे में सब उत्सुक बने हुए थे. सब की चर्चा का विषय बेशुमार दौलत और उनके वारिस थे. शेफाली को लगा कि सही माने में अनाथ तो थे डॉक्टर अंकल एवं आंटी. उन के पास बंगले, गाड़ियां, अलंकार, जायदाद सबकुछ था, किन्तु उनका कोई न था. आदमी और औरत दोनों अकेले साथ रहे तब सब को लगता था कि वे अब साथ साथ जिएंगे और उनका अकेलापन कम हो जाएगा. दोनों अकेले रहे और एक दूसरे से दूर रहकर, एक दूसरे से बिलकुल अलग प्रकार से इस दुनिया को छोड़ कर चले गए. अब उन को नहीं, उन की संपत्ति को चर्चा का विषय बनाया जा रहा था. बैंगलोर के वर्तमान पत्रों में भी खबरें छपीं: ‘करोड़ों रुपये किस को मिलेंगे?’ इसी शीर्षक के अंतर्गत छपी एक खबर में शेफाली की तसवीर दिखा कर डॉक्टर पंडित एवं मोहिनी जैसे एक दूसरे के दुश्मन हो ऐसे दोनों के वसीयतनामे के बारे में चर्चा की गई थी. शेफाली और लुधियाना के यतीम युवक पृथ्वीसिंह एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी की हैसियत से मुकाबला होने वाला है और मामला अदालत में रंग जमाएगा ऐसी अफवाहें भी उस में छपी थीं. शेफाली के लिए यह सब आघात पहुंचाने वाली बातें थीं, दिल दहलाने वाली बातें थीं. इन सब से वह त्रस्त हो चुकी थी. वह अपने घर के आँगन में आरामकुर्सी रखकर डॉक्टर अंकल जहाँ हमेशा बैठते थे उस बरामदे के सामने बैठी हुई थी. पिछले दो दशक की स्मृति किसी फिल्म के एक के बाद एक दृश्य की भांति उस की नज़रों के सामने उभर रहीं थी. चौकीदार, महाराज, माली इत्यादि की इस समय की प्राणहीन आवन-जावन डॉक्टर अंकल थे तब कितनी ज्यादा चैतन्य से भरी भरी सी लगती थी! और खरीद ने बाद डॉक्टर ने जिसका बहुत ही कम उपयोग किया था वह नई सी फियाट पर इस समय आवरण चढ़ाया हुआ था. फोर्ड कार मोहिनी आंटी अपने साथ ले गई थी.

आज मोहिनी आंटी की देह ले कर डॉ. जैन आने वाले है ऐसी खबर डॉ. उमेश मिश्र ने दी थी. ‘आश्चर्य की बात है,’ उमेश ने कहा था, ‘वहां के डॉक्टरों ने कहा कि गला दबा देने से सांस घुट जाने की वजह से मौत हुई है ऐसे नतीजे पर कोरोनर आये थे. हत्या रात्रि के बारह बजे से सवेरे पांच-साढ़े पांच के बीच किसी भी वक्त हुई हो सकती है, ऐसा रिपोर्ट है. इस का मतलब यह हुआ कि अब किस की मौत पहले हुई यह तय कर पाना असंभव नहीं तो मुश्किल तो हो ही जायेगा.’

ऐसे माहौल में फंसी और तड़प रही शेफाली के पास आ कर कृष्णराव ने कहा: ‘वो आ गया है...’

‘कौन?’ शेफाली ने पूछा. लेकिन उत्तर की जरूरत नहीं रही. दो दिन से ‘उस’ के चर्चे हो रहे थे.

‘उसे डॉ. मिश्रा सीधे सोलिसिटर अमिन के वहां ले गए थे.’ कृष्णराव ने जानकारी दी.

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पृथ्वीसिंह ने इस के पहले काफी लोगों की मृत्यु देखी थीं. उस के साथ ही अनाथाश्रम में पले एक लड़के ने गले में दर्द की शिकायत की थी. डॉक्टर ने दवाई दी थी. पर ज्वर बढ़ता ही चला. सिर को चीर देनेवाले ज्वर में पड़े लड़के को देखने के लिए डॉक्टर अनाथाश्रम में आये थे तब वह अंतिम सांसें ले रहा था. इतने विषम ज्वर में वह होश गँवा बैठा था और ‘ओ ...माँ ...’ की चीत्कार बार बार करता रहता था. दो-तीन दिन का था तब कोई उसे अनाथाश्रम में ले आया था. उसने कभी माँ को नहीं देखा था. फिर भी माँ को याद करते हुए ही उसकी मौत हुई थी. जिस माँ ने उसका जन्म होते ही उसे त्याग दिया और यतीम बना दिया था उसी माँ को वह बच्चा अपने अंतिम क्षणों में याद करता रहा था. पृथ्वी को तुरंत ही गुरूजी के शब्द याद आ गए: ‘माँ तो माँ ही रहती है. अपने लाड़ले बेटे को त्यागना पड़े यह कितनी बड़ी मजबूरी होगी!’

मोहिनी उस की माँ होगी? या फिर वह माँ की कोई सहेली होगी? माँ ने अपनी कोई निशानी नहीं रहने दी थी. अब तो मोहिनी भी नहीं है. वह होती तो माँ की खबर शायद मिल पाती. माँ की गोद में कभी सिर रख कर रोने को मन करता था. अब ऐसा मौक़ा कभी नहीं मिल पाएगा. वह इस वास्तविकता का आदी हो चुका था. अनाथाश्रम के सारे बच्चों की माँओं ने कभी भी अपनी कोई निशानी कहाँ रहने दी थीं जो कोई अपनी माँ को पहचान सके. ‘माँ कैसी होगी’ इस की कल्पना पर ही यहाँ सब बच्चे बड़े होते थे. केवल पृथ्वी आशान्वित था कि कभी वह माँ को देख पाएगा. उस माँ को जो कभी मुंह छिपा के गुरूजी के पास आती थी और उसकी हर संभावित दरकार रखती थी. तीज-त्यौहार पर वह अनाथाश्रम के लिए और अपने लिए बैंक ड्राफ्ट भेजती और भेजने वाले की खोज-खबर न मिल पाए इस बात का खयाल रखती थी. हमेशा अपना चेहरा छिपाती रहती माँ कभी तो उसे मिलेगी ऐसा पृथ्वी का ख़याल था. माँ उसे अपनी बाहों में ले लेगी, तब उसके कंधे पर सिर रखकर वह रोएगा और कहेगा, ‘माँ, तू कहाँ थी?’ सब लड़के माँ की बातें करते. किसी की माँ मर चुकी हो तो माँ की तस्वीर जेब में रखकर घूमते थे. अपनी माँ की कोई तस्वीर भी तो नहीं थी. अपनी माँ का कोई चेहरा न था. पृथ्वी इस बात को अच्छी तरह से समझ चुका था. इतने में अचानक मोहिनी पंडित के नाम से बुलावा आया. वह लुधियाना से देश का तीन चौथाई हिस्सा पार करके बैंगलोर आया: माँ की एक झलक पाने के लिए.

‘बेटे,’ अमिन साहब ने फोन पर कहा, ‘तूं तैयार रहना. मैं अभी तुझे लेने के लिए आ रहा हूँ. हम मोहिनी के घर जा रहे हैं. उस की मृत देह आ चुकी है. उस के अंतिम दर्शन कर लेते हैं.’

‘वहां मुझे कोई पहचान पाएगा?’

‘मैं तुम्हारे साथ हूँ. मोहिनी की वसीयत का तू एकमात्र वारिस है. अब तुम यतीम नहीं. तुम बेशुमार जायदाद के मालिक हो. और मोहिनी के विल के ऐक्जीक्यूटर की हैसियत से मुझे तेरे हित की सुरक्षा करनी है.’

अमिन साहब ने फोन रख दिया. पृथ्वीसिंह फिर से सोचने लगा. यदि सारे विश्व की जायदाद मिल जाए तो भी क्या, वह यतीम थोड़े ही मिट जाएगा? वह सोलिसिटर अमिन को ‘अमिन साहब कहता था. उसके लिए कोई अंकल याँ आंटी न थे, कोई मम्मी या पप्पा न थे. वह बिलकुल अकेला था. शानदार अशोक होटल के शानोशौकत भरे माहौल में वह खो गया हो ऐसा लगता था उसे. कभी ऐसा लगता था कि यह एक स्वप्न है. अभी नींद टूटने पर वह लुधियाना के हॉस्टल में सोया पड़ा होगा और उस के आसपास वे परिचित चेहरे नजर आएँगे. ‘यार, कल पार्टी नहीं हो पाई. लेकिन आज तो तुझे पिक्चर ले ही जाना होगा.’ वह खुद इस स्वप्न पर मन ही मन हंसेगा और मित्रों की फरमाइश को पूरी कर सकें उतने पैसे अपनी जेब में है या नहीं उस की फ़िक्र में लग जाएगा.

रूम के फोन की घंटी बजी: रिसेप्शनिस्ट ने कहा, ‘सोलिसिटर अमिन नीचे लाउंज में आप की प्रतीक्षा कर रहे हैं. आप तैयार हो कर जाइए.’

‘अभी दस मिनट में आ रहा हूँ.’ पृथ्वीसिंह ने जवाब दिया.

वह तैयार हुआ. किसी की मैयत में जाना मुश्किल नहीं है. वैसे भी उस के पास तीन-चार जोड़ कपड़े ही थे. उस में से सफ़ेद पेंट, सफेद शर्ट और पगड़ी में वह तैयार हो गया. यह पोषक उसे काफी जंच रही थी. सफ़ेद रंग उसे हमेशा सादगीपूर्ण लगता था. आज वह मृत्यु का सत्कार करने वही रंग में जा रहा था.

पृथ्वीसिंह नीचे गया. सोलिसिटर अमिन लाउंज में कोई पुस्तक पढ़ रहे थे. पृथ्वीसिंह को आते हुए देखकर वे उठ खड़े हुए. ‘जल्दबाजी तो नहीं करवाई मैंने?’ उन्होंने पूछा.

‘नहीं अमिन साहब, मैं तक़रीबन तैयार ही था.’ पृथ्वीसिंह ने कहा. एक अज्ञात स्त्री जो उसे चाहती थी, जिसका इस दुनिया में पति के सिवा और कोई न था उस के अंतिम दर्शन की यह तैयारी थी. आज तक उस ने कई मौतें देखीं थीं. परन्तु आज जैसी दिल की तेज धडकनें उसने कभी भी महसूस नहीं की थी. कौन सा सम्बन्ध, कौन सा रूणानुबंध उसका इस स्त्री के साथ होगा? जीते जी जिसका प्यार न मिल सका वह स्त्री मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति देती गई है. पृथ्वीसिंह सोच में डूब गया. ‘मान लिया जाए कि ईश्वर ने मुझे पसंद करने को कहा होता कि एक ओर ममतामयी माँ होती और दूसरी ओर केवल जायदाद होती तो तू क्या पसंद करता?’ उसने अपने आप से प्रश्न किया और फिर मन ही मन कहा: ‘पृथ्वी, ईश्वर ने तेरे लिए कोई भी विकल्प पसंद करने का अवकाश ही नहीं रहने दिया. तेरे लिए था केवल अनाथाश्रम. घर या अनाथाश्रम के बीच पसंद ना-पसंदवाली बात ही नहीं थी. केवल हॉस्टल था. हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करें या घर पर रहकर पढाई करे ऐसा चयन करने का अधिकार नहीं था. आज ही मोहिनी पंडित की मौत हुइ है. वसीयतनामे में तेरे नाम सम्पत्ति है. पृथ्वी, यतीम को कभी कोई विकल्प नहीं मिलता.’

‘पृथ्वी, तू गहरी सोच में पड़ गया है?’ सोलिसिटर अमिन ने पूछा.

‘जी?’ बोलने के बाद अमिन का प्रश्न पृथ्वी के दिमाग के अंदर गया: ‘नहीं, अमिन साहब, सब कुछ नया नया है सो जरा अजीब सा लगता है.’

‘देख बेटे, तूं मुझे साहब कहकर मत पुकार. अंकल कहेगा तो भी चलेगा. तू यहाँ बिलकुल अकेला है ऐसा मत सोचना. श्रीमती पंडित के सोलिसिटर की हैसियत से में तेरा साथ निभाने के लिए प्रतिबद्ध हूँ. तुझे मिलने के बाद हमारा सम्बन्ध केवल वकील-मुवक्किल का नहीं रहा है. जिस प्रकार दिवाकर-मोहिनी किसी की भी नजर में बस जाए ऐसे थे, उसी प्रकार तूं भी मेरे मन में पहली नजर में बस गया है. तूं दूर से आ रहा है. तेरे कोई स्वजन तेरे मार्गदर्शन के लिए यहाँ नहीं है लेकिन तू जरा भी घबराना नहीं. कहीं कुछ भी समझ में न आये तो मुझसे पूछ लेना. मेरा कहा बाद में मानना इस के पहले तुझे सब से पहले तेरी अंतरात्मा से पूछना चाहिए.’

पृथ्वी ने पहली बार महसूस किया कि वह अकेला नहीं है. उस ने कुछ नहीं कहा केवल एहसानमंद दृष्टि से उनकी ओर देखा. उन आँखों में रहा जवाब एक भी शब्द कहे बगैर ही अमिन की समझ में आ गया.

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शेफाली निरीह दृष्टि से देख रही थी. एम्बुलेंस कम्पाउंड में आ कर रुकी. डॉ. मिश्र के साथ उस के हम उम्र का एक दूसरा युवक उतरा. ‘यही डॉ. प्रकाशचंद्र जैन लग रहे हैं.’ कृष्णराव ने कहा. अब बहुत से नाम रोजमर्रा की बातों में जोड़े जा रहे थे. एम्बुलेंस में से स्ट्रेचर पर सफ़ेद कपड़े से लपेटी हुई एक मृत देह नीचे उतारी गई. कृष्णराव आगे आये. मृत देह बंगले के बरामदे में रखी गई. कृष्णराव ने सब से पहले उस पर चन्दन का हार चढ़ाया. वहां एकत्रित हुए डॉ. पंडित के मित्र एवं स्वजनों की पुष्पहार व दर्शन के लिए भीड़ जमा हो गई. दरअसल सब को मोहिनी पंडित की अकुदरती मौत के बारे में भारी कुतूहल था. शेफाली पिता के द्वारा दिया गया हार हाथ में लिए एक कोने में खड़ी थी. डॉ. मिश्र का ध्यान उस तरफ गया. वे शेफाली के पास आए. ‘चल, तू आंटी के दर्शन कर ले.’ उन्होंने कहा. अब तक शेफाली अश्रु को रोके हुए थीं. वह जोरों से रो पड़ी. उमेश उसे राह दिखता पाट पर रखी श्रीमती पंडित की मृतदेह के पास ले गया. आंटी के चेहरे से जरा सा कपड़ा हटा लिया गया था. आँखें बंद थीं. शेफाली समझ गई थी कि पोस्टमार्टम के दौरान टांके लगाने के बाद आँखे बंद कर दी गई हैं. चेहरे पर तनाव था. हत्यारे ने गला दबाया तब तंग हो गए चेहरे के स्नायुओं की वजह से ही यह तनाव उभर आया होगा. वह मोहिनी की देह पर सिर रखकर सिसकियाँ लेती रही. अभी गिनती के घंटों के पहले उसने डॉक्टर अंकल के शरीर को पंचमहाभूत में विलीन होते हुए देखा था.

न जाने कब तक शेफाली आसपास के माहौल को भूल कर मोहिनी की देह पर सिर रखकर रोती रही. उसने धीरे धीरे सिर ऊपर उठाया. उसकी आँखों के सामने एक अनजान युवक का चेहरा था. कोमल दाढ़ी-मूंछवाला एक युवक तक़रीबन स्तब्ध एवं रिक्त हो कर कभी मोहिनी के शव के सामने, कभी शेफाली की ओर तो कभी आसपास इकठ्ठे हुए लोगों की ओर देख रहा था. अमीन ने उसके हाथों में पुष्पहार थमाया. उसने यंत्रवत वह हार मोहिनी की देह पर रखा और तब उस का हाथ मोहिनी के मस्तिष्क के किसी हिस्से को छू गया. उस की देह में सरसराहट सी हुई. वह सिर से पाँव तक सिहर उठा. वह उसकी माँ थी? उसकी माँ की कोई प्रिय सखी थी? यह स्त्री कल के यतीम लड़के को अचानक दौलतमंद बना गई थी. कल तक गुरु अमरदासपुर हॉस्टल से निकलकर कहाँ रहेगा ऐसा सोचने वाले लड़के को यकायक बैंगलोर के अशोक होटल में रहने वाला बना दिया था. उसने अपने जीवन में इसके पहले इस स्त्री को कभी नहीं देखा था. आज उसकी मृतदेह को वंदन कर रहा था तब उस के पूरे शारीर में कुछ अलग ही भाव उभर रहे थे. उस के रोम रोम से ‘माँ’ ‘माँ’ की पुकार उठती थी. और वह सब की उपस्थिति को भूलकर मोहिनी के पाँव पर सिर रखकर रो पड़ा. उसका रुदन शांत एवं नीरव था. पप्पा जिस युवक को ‘वो आया’ ऐसा कहते थे यही वह युवक है, ऐसा ख़याल शेफाली को आया. समय की संजीदगी को भूलकर सब इस अज्ञात युवक को देखते रहे थे. पलभर के लिए शेफाली ने सोचा कि वह उस युवक के सिर पर हाथ रखकर उसे उठाये लेकिन वह हिम्मत नहीं जुटा पाई. कुछ देर के बाद पृथ्वी ने सिर उठाया और उस अज्ञात स्त्री को प्रणाम किया फिर फर्राटे से वह खंड से बाहर निकलकर बरामदे के एक खम्भे का सहारा लेकर खड़ा रह गया.

यहाँ हर कोई सब को पहचानते थे: एक वो ही था जो बिलकुल अनजान एवं तनहा था. सभी को कोई न कोई सांत्वना देनेवाला था. कुछ बात कर सकें ऐसा कोई न कोई सब के पास था. उसके लिए ऐसा कोई कंधा नहीं था जिसके सहारे वह अपना सिर रखकर दिल का बोझ हल्का कर लेता. उस स्त्री के चेहरे पर नजर आती तनाव युक्त रेखाएँ हमेशा अपने तंग रहते चेहरे की याद दिलातीं थीं. वह न जाने कितना समय उस प्रकार अकेला खड़ा रहा. वहां से गुजरने वाले उसे दूर से देखते रहते और फिर बिना पास आये चले जाते थे.

‘आप बैठिये – यहाँ आराम कुरसी है.’ किसी की आवाज सुनाई दी.

पृथ्वी चौंका. मोहिनी के वक्षस्थल पर सिर रखकर हृदय विदारक रुदन कर रही थी वो ही लड़की ही उसे यह कह रही थी. उसके कानों से ये शब्द टकराए मगर अर्थ दिमाग तक नहीं पहुँच रहा था. ‘आप बैठिये,’ एक बार फिर शेफाली ने कहा.

‘कोई बात नहीं, बस, यूं ही खड़ा हूँ.’ पृथ्वी ने कहा.

‘पृथ्वी,’ पीछे से सोलिसिटर अमिन आ पहुंचे, ‘तूं थोड़ी देर के लिए बैठ. बाद में काफी देर तक खड़े रहना है मोहिनी की शवयात्रा अभी निकलेगी. तुझे उस में आगे रहना है. दाह संस्कार भी तुझे ही करना होगा.’

‘दाह संस्कार?’ पृथ्वी ने पूछा. उसे शब्द सुनाई दे रहे थे, परन्तु शब्द के अर्थ समझ में नहीं आ रहे थे. उस के आसपास शोरोगुल का एक विश्व छा गया था. उस शोरगुल के बीच एक निश्छल मृतदेह थी. जिस की जिंदगी उसने देखी नहीं, उस नारी की देह को वह अग्नि दे कर धू धू जलाएगा? कौन है यह स्त्री, जो उसे लुधियाना से बैंगलोर ले आई है? कौन है यह स्त्री, जिसने उसके जीवन प्रवाह को दूसरी ओर मोड दिया? और उस स्त्री के साथ उस का क्या इतना ही सम्बन्ध है? उस के अंतिम दर्शन करने और उस की देह के दाह संस्कार करने जितना ही सम्बन्ध?

वह आराम कुरसी पर बैठा. उस ने आँखें मूँद लीं. शायद इस स्त्री के साथ उसका आत्मीय व घनिष्ठ सम्बन्ध भी हो सकता है. शायद वह उसके उदर में नौ महिने तक रहा हो. उस के रक्त बिंदुओं से अपनी देह बनी हो. उसकी बंद आँखों के सामने उसे कुछ देर पहले देखा था वही तंग चेहरा उभरा, ‘अपने बच्चे को अनाथाश्रम के दरवाजे पर छोड़ जानेवाली माँ की कैसी मजबूरी होगी!’ गुरूजी के शब्द पृथ्वी को याद आ गए. अपने साथ पढ़ते बच्चों को ‘माँ’ की बातें करते उसने सुना था. आज शायद उसने पहली और अंतिम बार माँ को देखा. उस माँ को देखा जिस की आँखों पर या अधर पर स्मित न था. हृदय में धड़कन नहीं थी; फिर ऐसी स्थिति में भी वह उसे निहाल करती गई थी.

वह शववाहिनी में बैठा. सभी अनजान लोग थे. सब उसे कुतूहल से देख रहे थे. शायद ही कोई उसके साथ एकाध शब्द बोलता था. कोई कुछ कहता तो भी बिलकुल आम शब्द. अपने लोगों के बीच अकेले होना कुछ और बात है और गैरों के बीच तनहा होना यह बिलकुल अलग बात थी. उसने अग्निदाह दिया. यतीम लड़के के लिए इस पल तक बिलकुल अज्ञात व्यक्ति को अग्निदाह देने का अनुभव भी कुछ अलग ही था. हृदय को बस में रखते हुए मुश्किल से उसने चन्दन के काष्ठ का जलता हुआ छोर चार बार मोहिनी के पाँव के अंगूठे से लगाया. राल एवं घी इत्यादि की वजह से कुछ ही पल में चिता धधक उठी. वह श्मशान में जमा हुए समूह से कुछ दूर हट के ये अग्निशिखाओं को रिक्त आँखों से ताकता रहा. इतनी उम्र में पहली ही बार किसी व्यक्ति ने उसके योगक्षेम के बारे में सोचा, उस के भविष्य को उज्ज्वल बनाया. अब वह व्यक्ति अग्नि में अपनी देह को विलीन कर रही थी.

सोलिसिटर अमिन उसे एकटक देख रहे थे. इस युवक से उसे लगाव हो गया था. वे पृथ्वी के पास आए. उन्होंने उस के कंधे पर हाथ रखा. पृथ्वी चौंक पड़ा. लेकिन उसने तुरंत खुद को संभाल लिया. अपने कंधे पर इस प्रकार हाथ रखने वाले की ओर देखा. अमिन की आँखों में गीलेपन के साथ साथ स्नेह भी था वह पृथ्वी देख पाया: ‘पृथ्वी, मोहिनी अब केवल स्मृति बनकर रह गई.’

पृथ्वी ने अमिन की ओर देखा: ‘अमिन साहब,’ फिर तुरंत उसने सुधार कर कहा: ‘अंकल, आप क्या माँ को निकट से जानते थे?’

‘माँ!’ अमिन ने विस्मय दर्शाया. फिर कहा: ‘हाँ, मोहिनी और डॉक्टर पंडित हमारे मित्र वर्ग में से थे. मैं उन्हें जानता हूँ इतना तो अवश्य कह सकता हूँ.’

‘एक मेहरबानी करेंगे?’

‘क्या?’

‘मुझे माँ की,’ फिर पलभर रुक के कहा, ‘श्रीमती पंडित की एक तस्वीर देंगे?’

‘अवश्य, आज ही तेरे होटल पर पहुंचा दूंगा.’

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श्मशान में उसने जो छिटपुट शब्द सुने थे, उस से उस के मन में खलबली मच गई थी: विशेष रूप से कृष्णराव ने अपने किसी मित्र से पृथ्वीसिंह का परिचय देते हुए व्यंग्य में कहा था: ‘बड़े नसीब वाला है! कल तक हाथ में रामपात्र (भिक्षापात्र) था, आज अचानक सिंहासन मिल गया.’ एक पल के लिए पृथ्वी को इतना गुस्सा आया कि उस के जी में आया कि फ़ौरन उस के मुंह पे कह दे, ‘मैं यतीम हूँ, अनाथाश्रम में रहा हूँ परन्तु आप जैसे कई लोगों से भीतर से अधिक समृद्ध हूँ.’ किन्तु उसकी नजर के सामने माँ की धू धू जलती हुई चिता थी. उसे ध्यान में रखते हुए वह गम खा गया.

ऐसे ही वाक्य उसे दो-तीन बार और सुनने को मिले. किसी ने कहा: ‘यही है वो लुधियाना के अज्ञात...’ और फिर अटक गया. सामने चिता जल रही थी और लोग वसीयत की बातें कर रहे थे. एक तरफ एक व्यक्ति इस दुनिया से सदा के लिए नामशेष हो रहा था, और दूसरी तरफ लोग बंटवारे की समस्या पर बहस कर रहे थे. वहां एकत्रित हुए सारे अज्ञात लोगों की आँखें उस पर ही केंद्रित हुईं थीं. शायद सब उसे ही पूरी कहानी का खलनायक मान रहे थे.

होटल पर पहुंचते ही उसे सब से पहला विचार यह आया कि वह श्रीमंतों के अनाथाश्रम में है. सब श्मशानगृह से अपने अपने घर गए. केवल उस का ही कोई घर न था. अमिन ने उसे समझाया था कि मोहिनी की संपत्ति के पचीस प्रतिशत तो प्राप्त होंगे ही, किन्तु साथ साथ यदि ऐसा सिद्ध कर दिया गया कि डॉ. पंडित की मौत मोहिनी की मौत के बाद हुई है, तो डॉ. पंडित के वसीयतनामे का मोहिनी का हिस्सा भी तुझे मिलेगा. तेरे सोलिसिटर होने से मैं तुझे पूरा सहयोग दूंगा. फिर भी यदि तू कोई और वकील रखना चाहे तो रख लेना.

वसीयत, संपत्ति, बंटवारा इत्यादि शब्द उसके दिमाग में चकरा रहे थे. जो उसके साथ थे वे लोग भी इस बारे में अनजान थे. उस के सामने कोई दावेदार है या नहीं उसका अंदाजा उसे नहीं था. इन सब लोगों के बीच वह एक अनजान प्राणी सा लगता था. सब उसे विचित्र दृष्टि से देखते थे. शायद ही किसी की आँखों में सहानुभूति या प्रेम था. वह किस से सलाह-मशविरा करता? जिन्होंने उसे अंकल कहने की अनुमति दी वे अमिन साहब से? जो उसे टकटकी लगाये देख रहे ये अपरिचित लोगों से? पलभर के लिए उस के जी में आया कि तार दे कर वह गुरूजी को यहाँ बुला लें. किन्तु इस उम्र में उन्हें ऐसी तकलीफ देना क्या मुनासिब होगा?

वह ऐसा सोच रहा था कि टेलीफोन की घंटी बजी: ‘निश्चित रूप से अमिन अंकल ही होंगे,’ उस ने सोचा. यहाँ पिछले दो दिन से अमिन के सिवा और किसी के टेलीफोन नहीं आये थे. ऐसे बार बार फोन पर बात करने की उसे आदत नहीं थी. उसने फोन उठाया और ‘हेलो’ कहा कि सामने वाले छोर से पंजाबी भाषा में एक गहन आवाज सुनाई दी. ‘कौन पृथ्वी बोल रहा है?’

‘हाँ.’

‘तू बहोत घबरा गया है, ठीक है न?’ लुधियाना छोड़ने के बाद वह पहली बार किसी के साथ पंजाबी में बात कर रहा था इस पर उस के हृदय में एक स्पंदन जगा ही था कि उस व्यक्ति के प्रश्न में छलकते वात्सल्य भाव ने उस के अन्तःकरण को छू लिया. वह उत्तर नहीं दे पाया, केवल गदगद हो गया.

‘बेटे, तू बहुत घबरा गया है. तू अकेलापन महसूस कर रहा है. परन्तु घबराना नहीं. तू अकेला नहीं है. मैं तेरे साथ हूँ.’

‘इतने मधुर शब्द के लिए धन्यवाद. आप कौन हैं?’

‘मैं तुम्हारा हितचिन्तक हूँ. तेरे नजदीक से ही बात कर रहा हूँ. अभी तुझ से मिलने आ रहा हूँ. वहां और तो कोई नहीं है न?’

‘नहीं.’ पृथ्वी ने कहा.

टेलीफोन रखने के बाद वह एक चित्त हो कर रह देखता रहा. कौन होगा वह? शुद्ध पंजाबी बोलने वाली उस आवाज में ममता छलक रही थी. वह अपनी परिचित आवाजें याद करने लगा: गुरूजी सरदार दलजीतसिंह या करतारसिंह या अपनी कॉलेज के अध्यापक या सहाध्यायीओं में से किसी की यह आवाज नहीं थी. जरा गहन और मोटी सी भारी आवाज वह पहली ही बार सुन रहा था.

वह उत्सुक हो कर दरवाजे को देखता रहा. थोड़ी देर के बाद दरवाजे पर दस्तक की आवाज सुनाई दी.

वह साशंक हो कर धड़कते दिल से दरवाजा खोलने के लिए उठा. एक बार फिर उस आदमी ने अधीर होकर दस्तक दिए.

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 4
हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 4
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