सुप्रसिद्ध गुजराती कवि, विवेचक, पत्रकार, उपन्यासकार स्व. श्री हरीन्द्र दवे के उपन्यास 'वसीयत' का हिंदी अनुवाद धारावाही रूप में (किश्...
सुप्रसिद्ध गुजराती कवि, विवेचक, पत्रकार, उपन्यासकार स्व. श्री हरीन्द्र दवे के उपन्यास 'वसीयत' का हिंदी अनुवाद धारावाही रूप में (किश्तों में ) प्रस्तुत कर रहे हैं श्री हर्षद दवे. प्रस्तुत है तीसरी किश्त.
वसीयत - प्रकरण - ३.
हरीन्द्र दवे - भाषांतर : हर्षद दवे
-----------------------------------------------------------------
लुधियाना के गुरु रामदास हॉस्टल में सरदार पृथ्वीसिंह के आसपास सभी एकत्रित हो गए थे. उसने वकालत की अंतिम परीक्षा बहुत ही अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण की थी. सारी यूनिवर्सिटी में दूसरा स्थान पाया था उसने और लुधियाना के सारे विद्यार्थिओं में उसका स्थान पहला था.
'पार्टी तो बनती ही है,' मित्र कह रहे थे.
'अभी मार्कशीट तो हाथ में आने दो. कहीं गलतफहमी हुई न हो. हमारी यूनिवर्सिटिओं का क्या कहना. अनुत्तीर्ण को उत्तीर्ण घोषित कर दे और उत्तीर्ण को अनुत्तीर्ण !' पृथ्वीसिंह ने कहा.
'पृथ्वीसिंह के बारे में एक ही बात हो सकती है. शायद सारी यूनिवर्सिटिओं में उसका स्थान पहला रहा हो और गलती से दूसरा स्थान दे दिया गया हो.' एक मित्र ने कहा.
आज पृथ्वीसिंह के पांव जमीं पर टिकते नहीं थे. किसी सरदार के अनाथ बच्चे की तरह पला पुत्र आज अचानक वकालत की परीक्षा अच्छे नंबर के साथ उत्तीर्ण कर पाया था. मित्रों ने उसे घिर लिया यह अच्छा हुआ. मित्रों के अलावा उसका था भी कौन कि जिस के आगे वह अपने दिल की बात कहता?
मित्र मिलकर रात को कौन सा सिनेमा देखें, कौन से होटल में खाना होगा इस के आयोजन में लगे हुए थे. पृथ्वीसिंह अपनी जेब में कितने रुपये हैं इसका हिसाब मन ही मन जोड़ रहा था. जब वह कुछ सोच रहा हो तब कुछ ज्यादा ही आकर्षक दिखता था. पतला, ऊंचा, ट्रिम की गई काली दाढ़ी एवं अंडाकार चेहरेवाला पृथ्वीसिंह कोई श्रीमंत खानदान के कुलदीपक सा प्रभावी लगता था. उसे देखकर वह अनाथाश्रम में पला होगा और प्रदान एवं पसीने की मेहनत के बलबूते पर आगे अभ्यास कर पाया होगा ऐसा तो कोई सोच भी नहीं सकता था. वाणी की मधुरता के साथ साथ उसका आचरण भी उतना ही मधुर था. खेलकूद में भी कुशल. पंजाब की इंटरकोलेज हॉकी में उसने ही अपने कालेज को बढ़त दिलवाकर अग्रसर रखा था. राज्य स्तर पर भी वह खेला था कभी, किन्तु पार्ट टाइम नौकरी एवं पढ़ाई के बीच पिछले साल उसे हॉकी खेलने का समय ही नहीं मिल पाया था.
परीक्षा का नतीजा जानने के बाद अब वह सातवें आसमान में उड़ रहा था. 'अब पराधीन रहने के युग का अंत हो गया. अब में अपने पसीने की कमाई मेरे लिए - शायद मेरे ...' वह रुक गया. वह सोचने जा रहा था कि 'शायद मेरे परिवार के लिए...' फिर तुरंत ही उस के मन में प्रश्न उठा : 'तेरा परिवार? कौन है तेरे परिवार में? अनाथाश्रम में तेरे साथ पले कुछ बच्चे तेरे भाई हैं. अनाथालय के गुरूजी दलजीतसिंह और इस हॉस्टल के सुपरिनटेनडेंट करतारसिंह तेरे गुरुजन हैं. इन के सिवा तेरा है कौन परिवार में ?' हॉस्टल में जब सारे बच्चें छुट्टियों में घर जाते तब करतारसिंह उसे हॉस्टल में रहने के लिए विशेष अनुमति देते थे. उसे कभी कभी अपनी इस अकेलेपन की स्थिति पर तरस आता और कभी वह उब भी जाता. वह सोचता: 'मेरा कौन?' यदि अकेलापन ज्यादा सताता तब वह अमरदसपुर के अनाथाश्रम में गुरूजी के पास चार-छः दिन हो आता था.
गुरूजी कहते: 'बेटा, सब लड़के घर जाते हैं तब तूं यहाँ क्यों नहीं चला आता? यह तेरा घर ही तो है?'
हाँ, वह बिल्कुल छोटा सा था तब से इसी अनाथाश्रम को जानता था. गुरूजी ने कहा: 'एक दिन सवेरे पांच बजे में बाहर निकला तब मैंने चबूतरे पर एक टोकरा देखा. उस में करीब छः महीने का बच्चा किलकारियां मार रह था. छोड़ जानेवाले ने अच्छी तरह से ऊनी कपड़े में लपेटकर रखा था उसे. आसपास रूई का आवरण रखा था. शायद किसी की ठोकर लग जाये तो भी बच्चे को चोट न पहुंचे इस ख्याल से रखा था. मैंने बच्चे को उठाया ही था कि किसी की छाया दूर से सरक गई हो ऐसा लगा. बच्चा उचित जगह पहुंचे इसी उम्मीद में ही शायद कोई वहां खड़ा था. उस टोकरे में चिट्ठी थी: 'यह सिख मां की औलाद है. उसे सिख की तरह पालेंगे-पोसेंगे तो ख़ुशी होगी.'
गुरूजी कहते: 'पृथ्वी, तुझे देखता हूँ तो मुझे गुरु गोविन्दसिंह के प्रिय कृष्ण की याद आती है. कृष्ण को भी उनके पिता टोकरे में उठा कर गोकुल छोड़ गए थे. तेरी माता ने भी संसार की यातना स्वरूप बाढ़ यह टोकरा सर पर उठाए पार की होगी.'
गुरुजी सभी बच्चों को समानरूप से चाहते थे. लेकिन पृथ्वीसिंह से उन्हें कुछ अधिक लगाव था. 'तू अचानक ही मुझे पृथ्वी पर से मिल गया था, इसीलिए मैंने तेरा नाम पृथ्वीसिंह रखा, सरदार पृथ्वीसिंह, तुम्हारी मां की इच्छा थी कि तू आदर्श सिख बने.' गुरूजी उसे बचपन से ही 'श्री गुरु ग्रंथसाहिब' के पाठ कराते थे एवं उसे शबद कीर्तन सिखाते थे. पृथ्वी की आवाज मधुर थी. वह जब मधुर आवाज में कीर्तन गाता था तब अमरदासपुर के अनाथाश्रम के पास पड़ोस के लोग भी अपने अपने घर में शांति से सुनते थे. गुरूजी ने उसे मां का प्यार एवं पिता का स्नेह दिया था. पाठशाला के सारे बच्चे कहते: 'मेरी मम्मी मुझे पीटती है.' 'मेरे पिता ने मुझे पुस्तक दिला दी.' तब शुरू में पृथ्वीसिंह व्याकुल हो जाता था. उस पर गुस्सा होनेवाले या उसे प्यार करनेवाले मां-बाप नहीं हैं इस बात का गम उसे खाए जाता था. किन्तु बाद में वह भी औरों की भांति सरल-सहज रूप से कहने लगा: 'बस मेरे गुरूजी से कहने भर की देर है: मैं जो पुस्तक कहूँ, ला दें.' और इस में शक की कोई गुंजाइश न थी या कोई अतिशयोक्ति वाली बात भी नहीं थी. गुरूजी ने यह अनाथाश्रम के किसी बच्चे को ऐसा नहीं लगने दिया था कि वे अनाथ है. एक बार पृथ्वीसिंह नींद में रो रहा था. गुरूजी उसके पास आए. उसे सहलाया. उसकी आँखें खुल गईं: 'गुरूजी!' पृथ्वी विस्मित हो कर देखता ही रह गया. इतनी रात गए गुरूजी उसकी फिकर कर रहे थे इस से वह चकित हो गया. 'हाँ, बेटा, क्यों रो रहा था?' गुरूजी ने पूछा.
'गुरूजी, मैं कुछ नहीं जानता. लेकिन स्वप्न में मेरी माँ जैसी कोई औरत आई और फिर तुरंत चली गई.’
'बेटे, तेरी माँ दरअसल तूने स्वप्न में जैसी देखी है ऐसी ही थी. ईश्वर तुझ से सत्य छिपाना नहीं चाहते थे इसीलिए तो तू ने यह स्वप्न देखा. हकीकत में तेरी माँ यहाँ आई थी.'
पृथ्वी उस समय मुश्किल से आठ साल का होगा. वह चौंक गया. 'गुरूजी, मेरी माँ आई थी? सही में?'
'हाँ, रात दस बजे मेरे रूम के द्वार पर दस्तक की आवाज सुनाई दी. मैंने दरवाजा खोला: एक स्त्री परदे में थी. उसने कहा: 'गुरूजी, यह महत्वपूर्ण पत्र आपको सौंपना है.' मैं पूछने ही वाला थी कि : 'तुम कौन हो"' किन्तु उस व्यक्ति जवाब दिए बगैर ही चली गई. उस पत्र के साथ पांच हजार रूपये थे और 'मेरे पृथ्वी का ख़याल रखना.' उतने ही शब्द थे.'
इस घटना की याद आने पर वह सोच में डूब गया: मेरी माँ मेरी खबर रखती ही होनी चाहिए. मैं अनाथाश्रम में हूँ, मेरा नाम पृथ्वीसिंह रखा गया है, ये सारी बातों की जानकारी उसे होगी ही. वकालत की परीक्षा में मैं यूनिवर्सिटी में दुसरे स्थान पर हूँ इस से वह वाकिफ होगी क्या? क्या मेरी माँ ने मेरा त्याग किया होगा? माँ गुरूजी को कई बार इस तरह मिली थी. उपर्युक्त घटना से पहले और बाद में भी. 'गुरूजी आप उसे पूछ क्यों नहीं लेते कि वह कौन है?'
'बेटे, तेरी माँ कोई कुलीन खानदान की बेटी है. न जाने कौन से बंधन उसे तेरे पास आने से रोक रहे हैं? वह तुझे अपार स्नेह करती है. तुझे टोकरे में यहाँ पर छोड़ जाने के बाद वह तेरी ही नहीं, ये सारे यतीम बच्चों की माँ बन चुकी है. तुझे यहाँ छोड़ जाने के बाद कई बार वह किसी न किसी बहाने रूपया-पैसा देती ही रही है. हाँ, जब वह उस दिन परदे में आयी थी तब उसने एक ही बार तुम्हारा नाम लिखा: परन्तु तेरे साथ साथ ये सभी बच्चों के लिए तेरी माँ से मिले हुए दान से ही खाने-पीने की एवं पहनने की चीजें आई हैं. माँ हमेशा माँ ही रहती है, वह कभी तुझे अवश्य मिलेगी. तू अनाथ नहीं है. तेरी माँ है: केवल इस दुनिया के कौन से दुःख से वह अभागिनी नारी तेरे जैसे तेजस्वी पुत्र के मुखदर्शन से वंचित रही होगी यह मैं नहीं जानता. उस स्त्री के बारे में कभी भी बूरा मत सोचना. वह देवी है.'
पृथ्वीसिंह के मन में गुरूजी के ये शब्द बार बार आते थे. माँ कहाँ होगी? उसे अवश्य पता होगा कि मैं क़ानून की पढ़ाई कर रहा हूँ. वरना अभी दो महीने पहले ही गुरूजी ने एक हजार रूपये का ड्रॉफ्ट मेरे नाम भेजा, वे रूपये कहाँ से आये? उसे यह भी पता होगा कि आज उसका बेटा समग्र पंजाब यूनिवर्सिटी में दूसरे स्थान पर है. अब वह अवश्य मुझ से मिलना चाहेगी, मिलेगी ही. मैं उसे किस प्रकार से मिलूंगा? क्या मैं दौड़कर उस के गले लग जाउंगा? नहीं, यह तो नहीं हो पाएगा. अनाथ बच्चों में किसी से इस प्रकार प्रेम कर पाने की शक्ति ही नहीं होती. मैं पलभर के लिए रूक जाउंगा और फिर कहूंगा: 'माँ, तू कहाँ थी अब तक?' और वह रो पड़ेगी. गुरूजी बता रहे थे ऐसे संसार की न जाने कौन सी जटिल परिस्थिति ने हम माँ-बेटे को एक
दूसरे से अलग रखा होगा! पर माँ कैसी होगी? पृथ्वी माँ का चेहरा अपनी दृष्टि के सामने उभार ने की कोशिश करता रहा. एक आकृति नजर के सामने उभरती थी. विशाल आँखें - सजल विशाल आँखों के सिवा उसे कुछ नजर नहीं आता था. वह पोंछेगा उन आँखों के आंसू और कहेगा: 'माँ, तेरे जैसी अद्भुत माँ दुनिया के किसी भी बेटे को नसीब नहीं हुई होगी, बिना देखे भी मैं तुझे पहचानता हूँ. गुरूजी कहते हैं उसी प्रकार तू देवी है!'
मित्रों ने ख़ुशी मनाने का सारा आयोजन किया था. फिर भी, वे जो कह रहे थे यह बात पृथ्वीसिंह की समझ में नहीं आ रही थी उस की देह यहीं थी, लेकिन उस की आत्मा अदृष्ट माँ से मिलने, उस के साथ प्यार भरी दो बातें करने के लिए तड़प रही थी. 'पृथ्वी', एक मित्र ने उसे जोर से हिला कर पूछा, 'तू कहाँ खो गया है! यहाँ है कि किसी गर्ल-फ्रेंड के ख्यालों में डूब गया है?' पृथ्वी अचानक होश में आया. विचारों को परे हटा कर कहा: 'कुछ नहीं यार, सोच रहा था.' उसकी आवाज में गहरा दर्द था.
इतने में सुपरिन्टेंडेंट करतारसिंह आ गए. 'कोंग्रेट्स, पृथ्वी, तुम ने इस हॉस्टल का नाम रोशन किया है. तुमने यूनिवर्सिटी में दूसरा स्थान पाया है परन्तु तुम एक और परीक्षा में भी उत्तीर्ण हुए हो.'
'कौन सी!' पृथ्वीसिंह ने विस्मित होते हुए पूछा.
'सर, हम से छिपा के पृथ्वी ने कौन सी परीक्षा उत्तीर्ण कर ली?' मित्रों ने पूछा.
'आज सवेरे गुरुद्वारा में पृथ्वी ने शब्द-कीर्तन गाए थे. हम साथ ही गए थे. शब्द सुनकर ग्रंथीजी पृथ्वी को विशिष्ट रूप से मिलने आए और कहा: "शाम को अवश्य आना." अभी वहां जाना है.' करतारसिंह ने कहा.'
'वैसे भी तेरे उत्तीर्ण होने की ख़ुशी में तुझे सब से पहले गुरुद्वारा में ही जाना चाहिए पृथ्वी, हो आओ. पार्टी हम बाद में मनाएंगे.' कहते हुए मित्रों ने अपना अभी पार्टीवाला आग्रह छोड़ दिया.
'गुरुद्वारा में एक अतिथि है,' करतारसिंह ने कहा, 'और उन्हें भी पृथ्वी की आवाज में रही भावना ने द्रवित कर दिया है.'
'कौन अतिथि है?'
'संत हरचंदसिंह लोंगोवाल. सवेरे पृथ्वी की आवाज में कीर्तन सुनकर वे फ़िदा हो गए. उन्होंने कहा: 'यह लड़का पंथ का नाम रोशन करेगा.' सवेरे वे जप में बैठे थे इसीलिए ही ग्रंथीजी के द्वारा उन्होंने शाम को मिलने के लिए कहलवाया था. पृथ्वी, संतजी की आशीष मिल गई तो समझ ले तेरा बेड़ा पार हो गया.'
<> <> <>
संतजी ने पृथ्वी के सर पर हाथ धरा.
'बेटे, पंथ को तेरे जैसे युवकों की जरुरत है. नामी वकील हो जाने पर पंथ को भूल न जाना. गुरु की तुम पर कृपा है. उस कृपा का द्रोह कभी न करना. तेरे गम में गुरु को याद करना, वे सहायता करेंगे. सुख में गुरु का कार्य आगे बढ़ाना,' संतजी ने कहा, 'सत श्री अकाल, बोले सो निहाल.'
'सत श्री अकाल.' पृथ्वी ने कहा.
ठीक उसी वक्त करतारसिंह उखड़ी सांस लिए आये.
'पृथ्वी!'
'जी.' पृथ्वी विस्मित हुआ. अभी कुछ देर पहले सुपरिन्टेंडेंटसाहब ने ही उसे बताया था कि संतजी यहाँ पर पधारे हैं. सहसा ऐसा क्या हुआ होगा कि यहाँ पर वे दौड़े-भागे चले आए?
'पृथ्वी बेटा तेरा टेलीग्राम है,' करतारसिंह ने कहा, 'उस में कुछ अशुभ खबर है. मैंने पढ़ा और लगा कि यह खबर तुझे तुरंत देनी चाहिए.' पृथ्वी ने टेलीग्राम पर नजर दौड़ाई. उस में लिखा था: 'तत्काल हवाई जहाज से बैंगलोर पंहुचिए. हवाई अड्डे पर डॉ. उमेश मिश्र आपको मिलेंगे. उसके हाथों में आप के नाम का पोस्टर होगा. श्रीमती मोहिनी पंडित के वसीयतनामे के सन्दर्भ में आप की तुरंत आवश्यकता है.' टेलीग्राम भेजने वाले का नाम था 'सोलिसिटर अमिन'.
टेलीग्राम में सबकुछ ठीक से लिखा था. फिर भी पृथ्वी की समझ में कुछ भी नहीं आया. 'सर, क्या यह टेलीग्राम मेरे ही नाम से है?'
'हाँ बेटा ऊपर लिखे पते को देख: सरदार पृथ्वीसिंह, केर ऑफ़ गुरु रामदास हॉस्टल, लुधियाना. पहले तो मुझे भी लगा कि टेलीग्राम तेरे नाम कैसे हो सकता है?'
'सर, मैं किसी मोहिनी पंडित को नहीं जनता.'
'तो फिर...'
'बेटे,' मौन रहकर सुन रहे ग्रंथिजी ने कहा, 'हम जिसे जानते हैं केवल वही हमारे शुभचिंतक हो ऐसा जरुरी नहीं.'
'किन्तु यह श्रीमती मोहिनी पंडित मेरी शुभचिंतक कैसे हो सकती हैं?' अभी पृथ्वीसिंह के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा था.
'तुझे वहां बुलाया गया है; श्रीमती पंडित के वसीयतनामे के सन्दर्भ में! मतलब यह हुआ कि यह अज्ञात स्त्री तुम्हारी शुभचिंतक है. वह तुझे कुछ देना चाहती होगी. तुझे जल्दी जाना चाहिए. और हवाई जहाज से ही जाना चाहिए. करतारसिंह, उस के पास हवाई जहाज के टिकट के लिए रुपये नहीं होंगे. आप उसे पर्याप्त मात्र में रुपये देना. वह अवश्य लौटा देगा. मुझे लगता है कि संतजी ने दिए हुए आशीर्वाद उसे लाभदायक सिद्ध हो रहे हैं.' कहने के बाद ग्रंथिजी ने पृथ्वीसिंह की और देखते हुए कहा: 'जल्दी जाओ. और संतजी की बात याद रखना, पंथ को कभी मत भूलना.'
अभी भी पृथ्वीसिंह टेलीग्राम देख रहा था. तब तक सुपरिन्टेंडेंट ने एक लड़के से कहा: 'वह बैंगलोर किस प्रकार से जल्दी पहुँच सकता है सीधे हवाई जहाज से या फिर दिल्ही से जाना पड़ेगा, हवाई जहाज का समय क्या है यह मैत्री ट्रावेल्सवाले अमरजीतसिंह के वहां जा के सब पूछताछ करने के लिए जाओ और उसके कहे अनुसार टिकट बुक करवाकर तुरंत हॉस्टल आओ. और पृथ्वी, चल, तेरा बैग तैयार कर ले. दुनिया में कब किस प्रकार से गुरु की कृपा अवतरित होती है उसका ख्याल क्या कभी किसी को आया है! यह तेरे ही नाम से तार है. बैंगलोर से दिया है और तुझे वहां जाकर मोहिनी पंडित से मिलना जरुरी है. बैंगलोर हवाई अड्डे पर जिस के भी हाथों में तुम्हारा नाम लिखा पोस्टर हो उस से मिलना.'
पृथ्वीसिंह के दिमाग में मोहिनी पंडित का नाम बार बार उठ रहा था. उस नाम में जैसे कोई चमत्कार भरी शक्ति हो ऐसा प्रतीत हुआ. यह नाम अलीबाबा के 'खुल जा सिम सिम' की तरह कोई भेदी दरवाजा खोलता हो ऐसा अनुभव किया उसने. वह कौन होगी?
उसकी आँखों के सामने एक आकार उभरा. उस आकृति का चेहरा पहचाना नहीं जा रहा था: केवल दो बड़ी बड़ी आँखे दिखाई देतीं थीं. आंखों में रिसते अश्रुबिंदु दीखते थे. और उसे देखकर वह सन्न सा रह गया.
<> <> <>
पृथ्वीसिंह रात को ही दिल्ही जाने के लिए निकल गया. सवेरे उसे पालम एयरपोर्ट पर मैत्री ट्रेवल्स का एजंट इन्डियन एयरलाइन्स के इन्क्वायरी काउंटर के पास मिलने वाला था. उस के लिए बैंगलोर के टिकट का प्रबंध कर के ही इंतजार कर रहा होगा. कैसे जाया जाए उस के बारे में जानकारी भी उसी से हासिल करनी थी. रातभर वह जागता रहा. मोहिनी पंडित का नाम उसकी आँखों के सामने से हट ही नहीं रहा था. उस नाम में कोई अजब सी मोहिनी थी. एक अनाथ लड़के को अचानक किसी अज्ञात स्त्री के वसीयतनामे के सन्दर्भ में छोटा - सा बुलावा आए, यह भी अजीब सी बात है. परदे में जो स्त्री गुरूजी के पास आई थी क्या यह वही स्त्री तो नहीं होगी? क्या वह मेरी माँ होगी? परन्तु माँ ने कहा था कि वह सिख माँ की औलाद है. श्रीमती पंडित...शायद माँ नहीं हो सकती. फिर वह कौन होगी? क्या माँ अब भी सामने नहीं आना चाहती होगी? यह मोहिनी पंडित के जरिये उस को मदद करना चाहती होगी? माँ और मोहिनी पंडित... ये दो शब्दों के बीच वह सारी रात झपकियाँ लेता रहा.
बैंगलोर जाते हवाई जहाज के सिक्योरिटी चेक तक मैत्री ट्रेवल्स का एजंट उसे छोड़ गया. पृथ्वी के लिए हवाई जहाज की यह पहली यात्रा थी. हर बार उसे ऐसा लगता था कि उस से कोई गलती हो जाएगी तो फिर? कोई गलत-सलत हवाई जहाज में बैठ गया तो? एजंट ने उसे सबकुछ समझाया. बोर्डिंग कार्ड दिलवाया. लगेज हवाई जहाज में रखवाया और उसका परिचय बैंगलोर जानेवाले एक यात्री से भी करा दिया.
हवाई जहाज के टेक ऑफ़ लेने के बाद पृथ्वीसिंह धीरे धीरे ऊपर उठ रहे हवाई जहाज के इर्दगिर्द बढ़ते जाते अवकाश के बीच बिंदु सी होती जा रही दिल्ही की इमारतों को देख रहा. कुछ देर में बीच में केवल बादलों का पर्दा रहा. बादल पर बैठ के परिओं के देश में जाते राजकुमार की परिकथा उसे याद आ गई. वह मन ही मन हंसा: 'यतीम बच्चों के मन में माँ की कल्पना एवं परी के देश की कल्पना एक सामान ही तो होगी न ! न उन्हें माँ मिलती है, न परियां! यह पूरी यात्रा के अंत में ऐसा भी हो सकता है कि इसका सारा खर्चा उस के जिम्मे आए ऐसी कोई खौफनाक साजिश भी की गई हो. ऐसा विचार आते ही उस के दिमाग से तुरंत निकल भी गया. मोहिनी पंडित का नाम उस के सामने आता रहा हर बार एक अजब सा आकर्षण जगाए! उस नाम के साथ कोई भी प्रपंच या साजिश टिक नहीं सकती. केवल इतना सोचने से उसे करार आ गया. रातभर जगने से उस की पलकें झुक गईं. दो एक बार एयर होस्टेस ने चाय-नाश्ते के लिए उसे जगाने की कोशिश की. पर वह गहरी नींद में सोया हुआ था. होस्टेस ने उसे जोर से हिला के जगाया तब हवाई जहाज बैंगलोर के करीब आ चूका था और सेफ्टी बेल्ट बाँधने के बारे में एयर होस्टेस उसे सूचना दे रही थी. हवाई जहाज नीचे आया तब पृथ्वीसिंह की धड़कनें तेज हो गईं थीं. अपने जीवन में इतनी लम्बी यात्रा का यह उसका प्रथम अनुभव था. इतने दूर की एवं अज्ञात जगह की यात्रा के उस पार क्या होगा इस के बारे में उस के मन में चित्र-विचित्र विचार आ रहे थे.
बैंगलोर हवाई अड्डे पर हवाई जहाज रुका: वह बहार निकला. अराइवल लाउंज में दाखिल होते ही उसने एक युवक सज्जन को हाथ में पोस्टर लिए हुए देखा. पोस्टर पर लिखा था: 'सरदार पृथ्वीसिंह'. वह रुका. पलभर उसने अपने आप से ही पूछा: 'यह मेरा ही नाम है न?' उसे रुका हुआ पा कर वे सज्जन आगे आये. उसके कुछ बोलने से पहले ही पृथ्वीसिंह ने पूछा: ' क्या आप ही डॉ. उमेश मिश्र हैं?'
डॉ. मिश्र ने कहा: 'हाँ, सरदार पृथ्वीसिंह, वेलकम टु बैंगलोर.'
आगे क्या बात करें इस के बारे में दोनों सोच रहे थे. दोनों सामान की प्रतीक्षा कर रहे थे.
'डॉ. मिश्र, आप बैंगलोर से ही हैं?'
'हाँ, डॉक्टर पंडित के साथ ही काम करता था.'
'डॉ. पंडित?'
'हाँ, डॉक्टर दिवाकर पंडित, आप उन को जानते ही होंगे.' डॉ. मिश्र ने कहा.
तभी लगेज रोलर पर अपना बैग आते देखा. पृथ्वीसिंह ने आगे झुककर बैग उठा लिया.
'बस, सिर्फ इतना ही सामान है?'
'हाँ,' पृथ्वीसिंह ने कहा, 'अब हम कहाँ जा रहे हैं?'
'सोलिसिटर अमिन के पास.'
'सोलिसिटर अमिन? हाँ, याद आया. जिन्होंने तार दिया था वही न?' पृथ्वीसिंह ने पूछा.
'हाँ वे ही श्रीमती मोहिनी पंडित के वसीयतनामे के एक्जीक्यूटर है. गुजरात से हैं. तीन पुश्तों से बैंगलोर में रह रहे हैं.'
'आप मूल __'
'मैं उत्तर प्रदेश से हूँ. राजस्थान में पढ़ाई की और बैंगलोर में प्रेक्टिस करता हूँ.' कहते हुए डॉ. मिश्र ने पूछा, 'आप?'
'मैंने कल ही ला की अंतिम परीक्षा उत्तीर्ण की. मैं लुधियाना में पढ़ाई कर रहा था.'
'एक्सलेंट.' डॉ. मिश्र ने गाड़ी को सोलिसिटर अमिन के निवासस्थान की ओर मोड़ते हुए कहा, 'अब हम अमिनसाहब के यहाँ आ चुके हैं. बाईं ओर जो आखिरी बँगला दिखाई दे रहा है वह अमिन साहब का है.'
पृथ्वीसिंह मन ही मन घबड़ा रहा था. श्रीमती मोहिनी पंडित, डॉ. दिवाकर पंडित, डॉ. उमेश मिश्र और अब सोलिसिटर अमिन: इतने अज्ञात नामों के बीच वह उलझ गया था. आज तक उसकी जिंदगी में इस प्रकार से इतने अधिक नाम आए ही नहीं थे. उस के कोलेज के मित्र जब कभी अपने चाचा, मामा, मौसी की बातें करते तब वह मन ही मन में चकित रह जाता था. एक व्यक्ति इतने सारे लोगों के साथ सम्बन्ध किस प्रकार बनाये रख सकता है या बात उसकी समझ में नहीं आती थी. आज जीवन में पहली ही बार उस के पास नामों का झमेला हो रहा था. और सारे के सारे नाम अज्ञात थे. डॉ. मिश्र ने ज्यादा पूछताछ नहीं की इसलिए उसे कुछ आराम मिला. गाड़ी अमिन साहब के कम्पाउंड में रुकी. अमिन बंगले के बरामदे में ही बैठे थे. गाड़ी के रुकने तक वे अपनी आरामकुर्सी में बैठे रहे. डॉ. उमेश ने पृथ्वीसिंह के लिए दरवाजा खोला. पृथ्वीसिंह गाड़ी से बहार निकला. डॉ. मिश्र भी आये. अमिन पृथ्वीसिंह की ओर देखते रहे. यह सुकुमार प्रतिभासंपन्न युवक कुछ आशंकित होते हुए आगे कदम बढ़ा रहा था. वह सीढ़ियों के पास पहुंचा कि अमिन खड़े हुए.
'आईए सरदार पृथ्वीसिंहजी,' उन्होंने कहा.
'आप बड़े हैं, आप मुझे इतने बड़े नाम से पुकारते हैं इस से मैं घबड़ा जाता हूँ. आप मुझे केवल पृथ्वी के नाम से पुकारेंगे तो अच्छा लगेगा.'
'एक्स्युज मी,' डॉ. मिश्र ने अधबीच पूछा: 'क्या मैं जा सकता हूँ? सरदार पृथ्वीसिंह के लिए अशोक में प्रबंध हो चुका है. उनका बैगेज यहीं पर रखूँ या अशोक में छोड़ता चलूँ? यह एक बैग है.'
डॉ. मिश्र, उसे यहीं पर रख दीजिए. यहाँ से कोई पृथ्वीसिंह को होटल पर छोड़ने जायेगा तब साथ ले जायेगा.'
'डॉ.मिश्र की गाड़ी कम्पाउंड के बाहर निकल ने के बाद अमिन ने कहा: 'पृथ्वीसिंह, बैठिए. आप थक चुके होंगे फिर भी कुछ बात कर लेते हैं. बाद में मेरा ड्राइवर आपको अशोक होटल तक पहुंचा देगा.'
पृथ्वीसिंह अशोक होटल का नाम सुनकर चौंका. उसने कहा, ' अमिन साहब, मेरा नाम सरदार पृथ्वीसिंह है यह ठीक है,' फिर अपनी जेब से टेलीग्राम निकालकर कहा: 'गुरु रामदास हॉस्टल का पता भी सही है. किन्तु आप को जिस सरदार पृथ्वीसिंह की आवश्यकता है क्या मैं वही हूँ?'
'हमें इसी विषय पर बात करनी है. आप बैठिए और चैन की साँस लीजिए,' अमिन ने कहा. अमिन आरामकुर्सी में बैठे. उनकी दाईं ओर की कुर्सी की तरफ संकेत करके पृथ्वीसिंह को बैठने के लिए कहा. और फिर पूछा: 'आप चाय लेते हैं?'
'हाँ.'
अमिन ने महाराज को दो कप चाय लाने के लिए कहा.
'देखिये पृथ्वीसिंह, जिनकी हमें जरूरत है वे आप ही हैं इस के बारे में मुझे कोई संदेह नहीं है. फिर भी मेरे पास जो विवरण है उस के साथ मिलान कर लेते हैं. आपका बचपन कहाँ गुजरा था?'
‘महोदय, आप मुझे ‘आप’ कहते हैं तब अजीब सा लगता है. आप बुजुर्ग हैं इसलिए विशेष रूप से ऐसा लगता है. इस के अलावा एक यतीम लड़के को अचानक कोई सम्मान से पुकार ने लगे तो कैसा लगेगा? अब आप के प्रश्न का उत्तर: ‘मैं छः महिने का था तब मेरी माँ ने मुझे त्याग दिया था. मैं अमरदासपुर के अनाथाश्रम में पला बड़ा हुआ हूँ. हमारे गुरूजी सरदार दलजितसिंह कहते हैं कि किसी अज्ञात भद्र महिला की ओर से मुझे गुप्त रूप से मदद मिलती रहती है. परन्तु वह महिला कौन है यह मैं नहीं जानता. आप के टेलीग्राम में मोहिनी पंडित का नाम था. आज डॉ. उमेश मिश्र से मिला: उन्होंने फिर डॉ. दिवाकर पंडित के बारे में बात की. और अब में आप के पास – सोलिसिटर अमिन साहब के पास बैठा हूँ. ये नाम मुझे अनजाने से लगते हैं. किसी ग़लतफ़हमी की वजह से मैं यहाँ आ गया हूँ ऐसा लगता हो तो मैं क्षमा चाहता हूँ. इतना मान, हवाई जहाज की यात्रा, फाइवस्टार होटल में मुकाम, और आप जैसे प्रतिष्ठित सज्जन के साथ चाय लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ यह भी विधि का कोई संयोग होगा. मुझे लगता है कि अब आप को यकीन हो गया होगा कि आप जिसकी तलाश में हैं वे सरदार पृथ्वीसिंह कोई ओर ही होंगे.’
‘अब मुझे यकीन हो गया है कि जिनकी मुझे जरूरत है वह सरदार पृथ्वीसिंह आप ही हैं – सोरी, तू ही है. तेरे लिए ही हमने तार भेजा था. और आज तेरी अत्यंत आवश्यकता है. परन्तु एक बात बता, क्या तू श्रीमती मोहिनी पंडित को बिलकुल नहीं जानता?’
‘नहीं, यह नाम मैंने आप के टेलीग्राम में ही पहली बार पढ़ा था.’
‘क्या तू कुमारी मोहिनी चटवाल को जानता है?’
‘मोहिनी चटवाल?’ पृथ्वीसिंह दिमाग टटोलता रहा. ‘नहीं, साहब, मैं यतीम बच्चा. खानदान कुलीन परिवारों के परिचय में मैं कैसे आ सकता? पहली बार आप जैसे महानुभाव के आँगन में बैठा हूँ, तब भीतर से थर थर काँप रहा हूँ. कहीं गलत आदमी मानकर मुझे कोई निकल तो नहीं देगा ऐसा डर कल रात से आज दोपहर तक था. अब डॉ. मिश्र को एवं आपको मिलने के बाद इतनी तसल्ली हो गई कि ये सज्जन मुझे सविनय कह सकते हैं कि हमने गलत आदमी को बुला लिया है...परन्तु निकल नहीं देंगे.’
‘पृथ्वी, तू बहुत ही भोला लड़का है, साथ ही मीठा भी. यदि तू बिना वजह यहाँ आ गया होता तो भी तुझे निकलना मेरे लिए संभव नहीं हो पाता. आज तो मैंने तुझे खास तौर पर बुलाया है.’
पृथ्वीसिंह सोलिसिटर अमिन की ओर एहसानमंद होकर अपेक्षित दृष्टि से देखता रहा. अमिन ने आगे कहा, ‘पृथ्वी, श्रीमती मोहिनी पंडित को तू नहीं पहचानता, किन्तु श्रीमती पंडित तुझे पहचानती हैं.’
‘तो शायद__’ पृथ्वीसिंह की आँखें चमक उठीं. ‘अमिन साहब, अनाथाश्रम के गुरूजी मेरी माँ के बारे में कह रहे थे. वे कहते थे कि तेरी माँ जिन्दा है. परन्तु किसी कारणवश वह तुझसे मिल नहीं पाती. शायद श्रीमती पंडित...’
‘जल्दबाजी में किसी नतीजे पर मत पहुँच जाना, पृथ्वी,’ अमिन ने गौर से पृथ्वीसिंह की और देखा. पृथ्वीसिंह की आँखें और नाक मोहिनी की याद दिलाते थे. शायद पृथ्वीसिंह की बात सही हो सकती है. फिर भी इस समय वे किसी भी नतीजे पर आना नहीं चाहते थे.
‘श्रीमती पंडित तुझे पहचानती है. परन्तु वह तुम्हारी माँ है ऐसा उसने नहीं कहा है.’
‘अमिन साहब यह कैसा रहस्य है! मुझे कुछ बताएँगे भी कि एक यतीम बच्चे के साथ आप सब कोई क्रूर खेल खेल रहे हैं?’
‘यह बात सही है कि विधि ने क्रूर मजाक किया है. परन्तु हम तो केवल जो हकीकत है उसे बयां कर रहे है.’ अमिन ने कहा.
‘अमिन साहब, मुझे एक बार श्रीमती पंडित से मिला दो. एक ही दृष्टि में मैं उसे पहचान लुंगा. माँ कभी छिप नहीं सकतीं. माँ का चेहरा, माँ की ऑंखें पहचान लेने में यतीम बच्चों को देर नहीं लगती.’
‘यहीं पर तो विधि की क्रूरता की बात आती है, पृथ्वी!’
पृथ्वी बेचैन हो रहा था. उस की दृष्टि के सामने बरसों से जो देखता आया था वह आकृति आई, वे आँखें और आँखों में चमकते अश्रुबिंदु...
अमिन ने कहा: ‘मोहिनी पंडित मर चुकी है. उसकी हत्या कर दी गई है और उस के वसीयतनामे में वह लुधियाना में पढ़ रहे एक अनाथ लड़के को काफी बड़ी मात्रा में संपत्ति देती गई है.’
यह सुनकर पृथ्वीसिंह पलभर सन्न रह गया. भीतर ही भीतर गहराई में उसे ऐसा लगता था कि इस यात्रा के अंत में उसे माँ मिलेगी, परन्तु माँ के बदले...
<> <> <>
(क्रमशः अगले अंकों में जारी)
बढ़िया । हर्षदजी की बानी में प्रवाहिता है। कथा प्रवाह सुन्दर है ही । अनुवाद भी अच्छा बन पड़ा है। साधुवाद ।
जवाब देंहटाएंभरत कापडीआ
श्री बेनामीजी/भरतजी आपका बहुत बहुत धन्यवाद...कथा प्रवाह की सुंदरता का श्रेय जाता है श्री हरीन्द्र दवे को, मेरी कोशिश है कि अनुवाद उतना ही सरल, सहज एवं सुन्दर हो सके जितना की मूल उपन्यास है.
जवाब देंहटाएं