कहानी- फेसबुक प्रमोद भार्गव वैधव्य के बाद भावना के लिए संसार का सार जैसे इस आदर्श वाक्य में सिमट कर रह गया थ कि संसार में रहो, पर सांसा...
कहानी-
फेसबुक
प्रमोद भार्गव
वैधव्य के बाद भावना के लिए संसार का सार जैसे इस आदर्श वाक्य में सिमट कर रह गया थ कि संसार में रहो, पर सांसारिकता को अपने भीतर जगह मत बनाने दो। धर्मशास्त्रों की यही वाणी उसके लिए कुटुम्बियों की नसीहत थी। माता-पिता ने भी शेष-जीवन की सार्थकता इसी सार में जताई। और फिर पति की दृर्घटना में हुई मृत्यु के बदले सहायक शिक्षिका की अनुकंपा नियुक्ति और बेटे के लालन-पालन, पढ़ाई-लिखाई की जिम्मेबारियों में उसने पहाड़ से बीस-इक्कीस साल गुजार दिए।
परंतु मर्यादा की ये नसीहतें, जैसे उसके अंतर्मन में अंगडाइयां लेकर कबीर की उलटबांसी साबित होने को अकुलाने लगी हैं। इस मुई फेसबुक से उन्हें बहू दिव्या ने जोड़ा तो इसलिए था कि वे लंदन में कंपनी के प्रोजेक्ट वर्क के लिए गए बेटे नमन से मुफ्त में चाहे जितने लंबे समय वार्तालाप करती रहें। पर यह क्या एक दुष्ट खुशी, अनैतिक जिज्ञासा जैसे भावना में भटकाव की बैचेनी बढ़ाने लग गई है।
अब दिव्या तो वैसे उनकी बहू है, लेकिन जहां उसका आत्मीय लगाव बिटिया से रक्त-संबंधों की मार्मिक अनुभूति करा करा जाते है, वहीं उसकी शाब्दिक वाचालता एक अतरंग सहेली का अहसास करा देती है। जैसे कल कह रही थी, 'मां इस 43-44 साल की उम्र में भी आप इतनी फिट हैं कि जींस-टॉप पहनकर मॉल में चली जाएं तो इनकी (नमन) उम्र जितने मसखरे सीटियां मारने लग जाएंगे....'
-'चुप दिव्या..., कुछ तो उम्र और रिश्ते की मर्यादा का लिहाज रखा कर। वाचाल कहीं की...'
-'ओह सॉरी ममा भूल हुई...। पर अब मैं क्या कहूं..., आप हैं ही ऐसी..., इस हकीकत को कैसे झुठलाऊं...? ''और तत्परता से लिपटकर गाल पर गाल रगड़ जो शरारत की, रक्तावेग और रोमांच की तीव्र सुर्खी उसके शरीर में अनायास तैर गई थी। जबकि वास्तविकता यह थी कि इस दिखावटी नाराजगी के साथ उसके चित्त पर कुछ काल्पनिक पुरूष छवियां उभरने लग जातीं। जीवन का अपना कोई तो सम्मोहन है, जो वैधव्य के बावजूद शरीर को संजीवनी देता रहा है। किशोर वय के साथ जीवन साथी का सम्मोहन..., विवाह के बाद संतान का..., संतान जन्मने के बाद उसके उचित लालन पालन..., फिर रोजगार तथा ब्याह का और फिर दादी बन जाने का सम्मोहन...! सम्मोहन की इन्हीं सांसारिक मायावी आसक्तियों के बीच ही तो वह पहाड़ सा वैधव्य काटती आई है।
और अब सम्मोहन जैसे उलटी गिनती को आतुर है। किशोर वय की वापिसी की दस्तक अवचेतन में परत दर परत विलुप्त व सुप्त पड़ी छवियों को जैसे झकझोर रही है...। उसकी हसरत हो रही है कि कंप्यूटर की इस स्क्रीन पर तैरते ब्रह्माण्ड में कहीं एकाएक हरीश की छवि अवतरित हो जाए। वह उसे दोस्ती का प्रस्ताव दे और हरीश तुरंत स्वीकार ले। कॉलेज के दिनों के एक हरीश ही तो है, जो उसकी यादों में चुपचाप छाये रहते हैं। हरीश और भावना ने कला स्नातक एक साथ किया था। बीए के आखिरी साल में रीतिकालीन बिहारी के दोहों को पढ़ते-पढ़ते वे दोनों कब श्रृंगार के संयोग पक्ष में विलीन हो गए, पता ही नहीं चला। तब टेलीफोन, मोबाइल तो थे नहीं, सो कॉपी के पन्नों को प्रेम-पत्रों का रूप देकर रागों का रसरंजन परवान चढ़ने लगा। हरीश के लिए अब भावना पत्रों में बिहारी की नायिका की तरह उभरने लगी। हरीश पत्रों में उसके अंग-प्रत्यंगों के गठन का जो मनोनुकूल वर्णन करते तो जैसे अस्पृथ्य यौवन स्पर्श को तरस जाता।
लेकिन हृदय में जन्म लेकर विकसित हो रहा यह प्रेमावेग लंबा नहीं चला। ईर्ष्यालुओं का शाप लग गया। भाभी ने 'बिहारी समसई' में छिपे पत्र देख लिए और भैया को बता दिए। श्रृंगार का लाालित्य, वियोग की कटुता में तब्दील हो गया। मधुरस के आस्वादन पर विराम लग गया। कॉलेज जाना बंद हो गया। सखियों से मिलना सीमित हो गया। उड़ते-उड़ते सुना भैया ने दोस्तों के साथ मिलकर हरीश को डराया-धमकाया। कॉलर पकड़कर चेतावनी दी, 'दिव्या की तरफ अब कभी आंख उठाकर देखा तो जीते जी आंखें निकाल लूंगा।' बेचारा गरीब, ग्रामीण परिवेश से था। अपने दायरे में सिमट गया।
परीक्षा के दिनों में सामना होने पर विरह की वेदना और प्रेम की तीव्रता शायद दोनों की डबडबाई आंखों में छलकी और फिर स्थागित हो गई। कॉलेज परिसर में ही भाई की उपस्थिति और समाज में बदनामी के भय के चलते भावना का प्रेम एक मनोविकार साबित हुआ। रीतिकाल की भौतिक एवं भोगवादी चेतना में व्याप्त मांसल विकार की तरह।
और फिर उसे आगे पढ़ने की तीव्र इच्छा होने के बावजूद केशवदास के साथ विवाह-बंधन में बांध दिया गया। वैसे उसे दास, प्रसाद, चंद, चंद्र और लाल युग्म-संबोधन वाले पुरातन नाम पंसद ही नहीं थे। उसे ये दकियानूसी लगते। पर क्या इसे भावना का दुर्भाग्य कहा जाए कि एक अनचाहा नाम वाला अस्तित्व ही उसकी अस्मिता का सहअस्तित्व बन गया।
भावना सोचती है, दरअसल पितृसत्तात्मक समाज में पुरूष को बतौर नियंता और आर्दश के रूप में जिस तरह से स्थापित करने के लिए धर्म, संस्कृति समाज भाग्य पुनर्जन्म तथा पाप-पुण्य का सहारा लिया गया है, ये सब स्त्री चेतना को भ्रमित कर रूढ़िगत जड़ता प्रदान करने वाले हैं। वहीं, स्त्री में प्रकृति और मां की अवधारणा को लेकर गढ़ गए मिथक भी स्त्री को लाचारी की श्रेणी में लाकर खड़ी कर पुरूष की प्रधानता को मजबूत बनाते हैं। और फिर श्वेतकेतु की बनाई सात फेरों की संहिता तो जैसे स्त्री के पैरों में बेड़ियां ही डाल देती है। ऐसे में सामाजिक सोच स्त्री पर नियंत्रण के लिए और कठोर साबित होती है। हे ईश्वर...! एक दीर्घ निःश्वास, ये कैसे सामाजिक सरोकार हैं, जो दर्द विरह और वेदना का आधार बनते हैं। यह शुष्क अहसास भावना के लिए पीड़ादायी था।
पर यह क्या...? भावना एकाएक चौंक पड़ी। अभी-अभी जो मोहक कल्पना सवप्नलोक में विचरण करा रही थी, क्या वह साकार होने जा रही है...। उसने आंखें मींचकर टेबिल पर टोनियों के बल अंगुलियों पर कपाल को साधा और अंगूठों से कान के ऊपर की रक्त धमनियों को रगड़ने लगी। जैसे, अपने आराध्य के भरपूर स्मरण के लिए एकाग्रता जुटा रही हो। लेकिन यह भक्ति किसी ईश्वरीय शक्ति के लिए नहीं, हरीश के लिए थी। अश्रु निग्मित आंखें खोलीं तो मित्रता निवेदन की प्रथम पंक्ति में वे हरीश ही थे। उसने निश्चित करने के लिए हरीश की व्यक्तिगत प्रोफाइल खोली..., 'हरीश दुबे, जन्म स्थान... ग्राम अटलपुर... जिला-शिवपुरी (म.प्र.) जन्म दिनांक 12 जुलाई 1968, शिक्षा-शासकीय महाविद्यालय, शिवपुरी से एम.ए. (हिन्दी साहित्य) व्यवसाय इंदौर के एक दैनिक समाचार-पत्र में स्थानीय संपादक। एक सुखदायी सिरहन उसके पूरे बदन में सनसना गई। उसने थरथराती अंगुलियां माउस पर जैसे-तैसे स्थिर कीं और मित्रता निवेदन के लिए पुष्टि पर क्लिक कर दी। हरीश फिलहाल ऑफलाइन थे। इसलिए तत्काल उत्तर मिलने की उम्मीद जाती रही। किंतु हृदय पटल पर अतीत हलचल मचाने लगा। बिसरा दी गईं हरीश की लिखी चिट्ठियों की धुंधली इबारत मन-मस्तिष्क में आकार लेने लगी। कहीं भैया-भाभी ने टुकड़े-टुकड़े कर चिट्ठियां चूल्हें में जलाई न होतीं तो वह एक-एक कर पढ़ने बैठ गई होती। शायद उसकी लिखी चिट्ठियां हरीश के पास सुरक्षित हो ? पर कहां रखी होंगी ? सुखद दांपत्य के लिए नादान उम्र की ये नादानियां आखिकार खलल डालने का ही काम करती हैं। अपने वैवाहिक जीवन को खुसी बनाए रखने के लिए हरीश ने खुद चिट्ठियां नष्ट कर दी होंगी। फिर एक नई आशंका उसके जेहन में उभरी कि यह मित्रता कहीं हरीश के दांपत्य के लिए बेवजह शंका-कुशंकाओं के परिणाम में तब्दील न हो जाए ?
अपने पहले प्यार से मिलने की आभासी आशा ने ही उसके पूरे शरीर में एक पुलकमय सिरहन भर दी है। चेहरे पर ये भाव प्रगट न हों इसलिए वह इन भावों का झटकते हुए सामान्य होने की कोशिश में है। क्योंकि सात बजने को हैं, बहू दिव्या आने को ही होगी...,
-'ममा... दरवाजा खोलिए...।' लो बड़ी उम्र वाली है, याद किया और आ गई। एक्टिवा का इंजन बंद बाद में होगा, पुकार पहले लगा देगी। लड़की का स्वभाव भी बड़ा विचित्र है। मधुर और मृदुल, सहज और सामने वाले के व्यावहारनुसार घुलमिल जाने वाला। वाकपटु और मुखर। आंखें तो जैसे हंसती ही रहती हैं और वाणी में वीणा सी खनक। सुगठित लंबी छरहरी मांसल देह...। उफ...! वह भी क्या सोचने लगी...। अपनी ही सलौनी बहू का बिहारी की नायिका की तरह नखशिख वर्णन करने लग गई...। अब क्या करे, है भी तो वह मंत्रमुग्धता...! तभी तो दूसरी बिरादरी की होने के बावजूद नमन को रिझा लिया...। फिर वही, गुजरी बातें...। वह भूत को झटककर वर्तमान से रूबरू होने के लिए रोजमर्रा की दिनचर्या से जुड़ती है, 'दिव्या चाय बना दूं..., आज सारे दिन से मौने भी नई पी...।'
-'अरे.., ममा आपने क्यों नहीं पी...? आप तो दो-तीन बार पीती हैं...। तबीयत तो ठीक है...। 'दिव्या ने चिंता जताई।'
-'मेरी तबीयत को क्या होगा...? मैं तो बीमार ही नहीं पड़ती...। विधाता ने शरीर ही ऐसा गढ़ा है...।' भावना के उत्तर में एक बिंदास लापरवाही थी।
-'तभी तो आप इस उम्र में भी इतनी सुन्दर और सुगठित हैं। जबकि ज्यादातर औरतों का यौवन इस उम्र में ढलान पकड़ लेता है। आप टीवी सीरियलों की उन सासू मांओं सी हैं, जिनमें बेटी और बहू का फर्क करना मुश्किल है...। है न ममा... सेक्सी...!' दिव्या खिलखिला पड़ी।
-'चल हट..., वाचाल...!' भावना चपल चंचलता की गिरफ्त में थी।
-'ओह ममा...। आप तो बुरा मान गईं...।' दिव्या भावना के गले से लिपट गई।
अगले दिन...
आज रात भावना ठीक से सो नहीं पाई। करवटें बदलती रही। सोचती रही हरीश फेसबुक पर ऑनलाइन हुए तो वह क्या-क्या बातें करेगी ? अपने बारे वह क्या कुछ बता पाएगी ? अपना दुःख, पीड़ा, पति की हादसे में मौत, अनुकंपा नियुक्ति..., खुशियों में सहभागी उसके अपने ससुराली जन..., उसकी जिम्मेबारियों का खुशी-खुशी बोझ उठाने जेठ-जिठानी..., लायक बेटे-बहू और अब दादी बनने की तैयारी...। इतना सब कुछ एक साथ..., एक बार में..., संवाद-प्रतिसंवाद की काल्पनिक उडा़नें तो ठीक हैं, किंतु यर्थाथ के ठोस धरातल पर मालवा की मुलायम माटी सा उसका नसीब कहां...?
और फिर बहू के दफ्तर जाने के बाद भावना कंप्यूटर के सामने थी। दरवाजे-खिड़की बंद करके, सहमी और ठिठकी जिज्ञासाओं से सराबोर इत्मीनान के साथ। फेसबुक ऑनलाइन हुई तो देखा, हरीश के ऑनलाइन होने का संकेत चिन्ह हरा था। उसे तीव्र अहसास हुआ कि उसका वर्षों पीछे छूटा प्यार..., बस एक क्लिक भर की दूरी पर ठिठका है...। वह संयम बरतते हुए प्रतीक्षारत थी कि उधर से कोई सिलसिला शुरू हो..., तब वह... भी शुरू हो...। और फिर सवाल टपका...
-'कैसी हो भावना...?'
-'ठीक हूं...। और आप ?' उसने मायूस सा उत्तर दिया।
-'खुश हूं...। एक बेटी है। इंजीनियर है। बैंग्लोर इन्फोसिस में। इसी कंपनी में काम करने वाले लड़के से उसने अंतर्जातीय विवाह कर लिया है। वह भी इंजीनियर हैं। दोनों खुश हैं। तुम्हारे परिवार में......'
-'मेरा एक बेटा है। टीसीएस में सॉफ्टवेयर इंजीनियर। उसने भी वैश्य जाति की लड़की से प्रेम विवाह किया है। आजकल किसी प्रोजेक्ट वर्क के लिए लंदन में है...। बहू भी रिलायंस में इंजीनियर है। दोनों में तालमेल अच्छा है।
-'और तुम कहां हो...?'
-'मैं फिलहाल इंदौर में ही हूं। बहू को डिलेवरी होनी है। उसकी देखभाल में हूं...।'
-'बधाई...। ईश्वर तुम्हारी दादी बनने की मनोकामना जल्द पूरी करे...।'
-'धन्यवाद...!' फिर आगे क्या बोले की असंमजस में चुप्पी साध गई। तब हरीश ने ही सवाल उछाला, 'तुम्हारे पति क्या करते हैं...?
-'पति...,' कुछ समय के लिए निःशब्दता छाई रही। वह रूकी फिर टायपिंग शुरू की, 'जब बेटा तीन साल का था तब एक सड़क दुर्घटना में चल बसे...'
-'ओह...! यह तो ईश्वर ने तुम्हारे साथ बड़ी नाइंसाफी की। तुम्हारे दुःख का अहसास करके मैं बेहद दुःखी हुआ...'
-'होनी को कौन टाल सकता है...? भाग्य में शायद दारूण कष्ट झेलना ही बदा था...। छोड़ो..., अपनी बताओ..., आपकी पत्नी...?'
-'अब कैसे कहूं..., उनका भी तीन साल पहले ब्रेस्ट कैंसर से निधन हो गया...। अकेला हूं..., तन्हा...।'
-'हे राम...! तुम्हारे साथ भी यह कैसी विचित्र अनहोनी घटी...'
-'सब योग-संयोग है भावना...! क्या मालूम कब क्या अप्रत्याशित घट जाए...। अब यह कहां, किसने सोचा था कि फेसबुक का अंतर्जाल का जादुई तिलिस्म इस तरह से फैल जाएगा और हम जैसे सालों से बिछुड़े लोगों के मिलने की राह चमात्कारिक ढंग से इतनी आसान हो जाएगी...'
-'हां, यह तो हैं..'
-'रहती कहां हो...?'
-'स्कीम नंबर चौवन, विजय नगर में...और तुम...'
-'मैं भी विजय नगर के पास ही हूं..., बॉम्बे हॉस्पिटल है..., न..., उसके पास महालक्ष्मी नगर है..., उसमें अपना ही छोटा सा घर बना लिया है...।'
-'मुझे यहां की ज्यादा भौगोलिक जानकारी नहीं है...'
-'संभव हो तो मिलो कभी...' मैं इंदौर घुमा दूंगा...'
हरीश के इस प्रस्ताव भर से जैसे भावना को पृथ्वी घूमने का अवर मिल गया...। हरीश इंदौर क्या देश-दुनिया घुमा देगा। उसे तीव्र अनुभूति हुई कि उसकी देहयष्टि के उभारों में कही अनगढ़ रसायन गड्ड-मड्ड होने लगे हैं और उनसे निकली ऊर्जा के प्रवाह में वह विवेक, संयम, मर्यादा तोड़ने को जैसे उद्यत है। उसे तत्क्षण लगा जैसे ऊर्जा के इसी गोले पर सवार होकर वह हरीश के साथ स्वर्गारोहण कर रही है। काल्पनिक परिकथाओं के स्वप्निल संसार में इस उड़ान पर सवार रहते हुए वह अचेत हो जाए, इससे पहले उसने संक्षिप्त उत्तर दिया, 'जरूर..., ओ के...' और ऑफलाइन हो गई।
और फिर फेसबुक और मोबाइल पर वार्तालाप जैसे दिनचर्या का हिस्सा हो गया। आहिस्ता-आहिस्ता उनके वार्तालाप में जब हिचक टूटने का सिलसिला शुरू हुआ तो संवादों में उच्छृंखलता बढ़ गई। कभी-कभी भावना को लगता, यदि वे आमने-सामने होते तो शायद इतने मर्यादाहीन न होने पाते। और फिर उस दिन तो हद की वह सीमा भी टूट गई जब हरीश की जिद् के चलते, भावना मोबाइल पर हरीश का चुंबन लेने को राजी हुई। फिर तो जैसे चुंबन-प्रतिचुंबनों की बाढ़ ही आ गई। तब भावना ने अनुभव किया प्रेम के मामले में पति की मृत्यु के बाद अर्से तक संज्ञाशून्य रहने के बावजूद उसमें रंगीनी और मादकता भरपूर है। यौवन की उमंगों के ज्वार-भाटे हैं। शरीर में बह रही जो नदी विपरीत लिंगी से जैविक उत्प्रेणा न मिलने के कारण शुष्क निर्जनता को प्राप्त हो गई थी, उसमें तरल झरने फूट पड़े हैं।
इन सब जैविक गुणों की पर्याप्त उपस्थिति के बीच उसने अपने से ही सवाल किया..., इस प्रौढ़ावस्था में जिस तरह से वह हरीश की ओर खिंची चली जा रही है, क्या यह उचित है ? परिवार समाज इसे स्वीकार लेगा। दूसरों की तो वह छोड़ भी दे, उसके अपने बेटे-बहू इस रिश्ते को स्वीकार लेंगे ? उसके जेठ-जिठानी क्या कहेंगे कि जिस बहू ने 22-23 साल स्कूल आते-जाते गुजार दिए, लेकिन किसी की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखा, वह इस उम्र में, इस बेहयाई पर उतर आई। और भाई रतन को जब हरीश से उसके नए संबंधों के बारे में पता चलेगा तो वह तो आसमान ही सिर उठा लेगा। आवारा, बद्चलन, कुलच्छिनी, कुलटा, रंडी..., न जाने किन-किन उलाहनाओं से नवाजेगा। नमन के अंतर्जातीय प्रेम विवाह करने की जिद के समय भी भाई ने कितना प्रपंच रचा था। शायद स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व तलाशने के सवालों के दौरान, पुरूष पक्षधरता वाले समाज के पास यही माकूल जवाब हैं। आत्मग्लानि के वशीभूत हो जाने की बजाय उसने तनाव मुक्ति के लिए 'होगा सो, देखा जाएगा' की तर्ज पर खुद को भगवान भारोसे छोड़ दिया।
आज दोनों ने प्रत्यक्ष मिलने व घूमने का निश्चय किया है...
भावना विचित्र विडंबना से ग्रसित है। जब उसने कॉलेज के दिनों में हरीश से प्यार का विस्तार रचा था तो वह इस भय से भयभीत रहती थी, कि कहीं उनकी मोहब्बत के राज का पर्दाफाश मम्मी-पापा और भैया-भाभी के समक्ष न हो जाए। परंतु आज परिस्थतियां उलट हैं। आज उसे इस बात का डर है कि बहू दिव्या उसका राज न जान जाए...। बाईदवे जान गई और नमन को बता दिया तो वह किस मुंह से उससे बात करेगी...? वह तो एक शिक्षक होने के नाते अब तक नमन और तमाम छात्र-छात्राओं को संस्कार, नैतिकता और चरित्र मजबूत बनाए रखने की सीख देती आई है। लेकिन वह खुद इन धारणाओं के विपरीत आकार ले रही नई दुनिया के चक्रव्यूह में उलझती जा रही है। जो मूल्य..., जो संस्कार कल तक उसके लिए आदर्श थे, उन्हें जैसे आधुनिकता और पुनर्विवाह की महत्वाकांक्षा ग्रस रही है। लेकिन यही वह अनुकूल अवसर है कि कल जिन वर्जनाओं को तोड़ना अभिशप माना जाता था, आज वही पुरूष की तुलना में स्त्री अनुपात की कमी के चलते वरदान साबित हो रही हैं और अंतर्जातीय व पुनर्विवाहों को मंगलकारी माना जाने लगा है। समाज उन्हें सवीकार भी कर रहा है। फिर वह क्यों विचलित हो...? क्यों डरे...? आशा की इसी संभावना ने उसे प्रियतम से मिलने को आकूल किया हुआ है। प्रेमी से मिलन की इस उत्कट छटपटाहट ने उसे विवश कर दिया वह मर्यादा और नैतिक के छद्म आडंबरों को तिलांजलि दे और तोड़ दे मध्यवर्गीय संस्कारों की दीवार... और देहरी लांघ जाए...
और वह देहरी लांघ भी गई...
भावना ने ही मिलने की जगह सयाजी होटल के पास गुलमोहर गार्डन की पार्किंग तय की थी। यह जगह उसके घर के पास थी। वह कई मर्तबा यहां दिव्या के साथ घूमने और चाट खाने भी आ चुकी थी। पैदल पथ पर धौलपुरी लाल पत्थरों को नापते हुए उसने दूर से देखा, आसमानी रंग की बड़ी सी कार की खुली खिड़की के सहारे जो इंसान सिगरेट पीते हुए धुंआ उड़ा रहा है, वही हरीश है। वही पुरातन संजीदगी और खामोशी। निकट पहुंची तो पाया..., चेहरे पर न कोई तनाव..., न कोई हलचल..., और न कोई अस्थिरता। वही पुरातन सौम्यता और मासूम रूमानियत का बरबस खींच लेने वाला चित्ताकर्षक अनूठा तालमेल...! क्या यही वह अद्भुत संयोजन है, जो इस पुरूष की खूबसूरती उसकी स्मृतियों में राख में दबी चिंगारी की तरह दहक रही है...। हरीश की निगाह उस पर पड़ी तो वह मुस्कराया। तत्क्षण सिरगेट फेंकी। और फिर जैसे संपूर्ण आदर एवं विनम्रता उड़ेलते हुए बोला, 'आओ भावना...'
वह निशब्द ही रही। कोई अनजाना सा भय था, जो उसे सामान्य नहीं होने दे रहा था। वह कोई जानने वाला देख न ले, इस भय के वशीभूत सी बिना वक्त जाया किए कार में बैठ गई। मुख्य मार्ग पर आकर गाड़ी ने रफ्तार पकड़ी तो भावना को चैन आया। वह निश्चिंत हो रही थी कि जिस क्षेत्र में उसे जानने वाले चंद लोग हैं, उनसे दूरी बनती जा रही है। दोनों ने एक-दूसरे को इतनी गहराई से देखा, जैसे एक दूसरे में समाने को उतावले हों। फिर हरीश ने ही निःशब्दता तोड़ी, 'कहां चलें भावना...?'
-'जहां ले चलो... बस निर्जन एकांत में नहीं ले जाना..., वरना मैं लौट जाऊंगी...' अखण्ड विश्वास जताया, साथ ही लक्ष्मण रेखा भी खींच दी।
-'विश्वास रखो..., मैं तुम्हारा भरोसा कभी नहीं तोडूंगा...। तुम्हारे लिखे प्रेम-पत्र आज भी मेरे पास किसी अमूल्य धरोहर की तरह सुरक्षित हैं..., लेकिन कभी मैंने यह नहीं सोचा कि इनका दुरूपयोग भी किया जा सकता है...'
-'सच..., पढ़ाना मुझे...। मैं जानना चाहूंगी कि उम्र की नादानी में किए प्रेम की भाषा क्या थी...' वह जैसे आश्चर्य से चहकी।
-'जरूर भावना...'
-'तुम्हारे प्रेम और विश्वास की यही तो वह संजीवनी है, जिसकी सुंगध से मैं खिंची चली आई...। लेकिन यह जो हमने पुनर्विवाह करने की बात सोची है, उचित है। मेरे जेठ, जेठानी को तुम मना लोगे। उनके सामने इस प्रस्ताव को लेकर मैं कभी मुंह नहीं खोल सकती और न ही उनकी इच्छा के विरूद्ध जा सकती...। सारी पहलें तुम्हें ही करनी होगी...'
-'धीरज रखो...। बहू की डिलेवरी से फ्री हो लो..., फिर मैं तुम्हारे जेठ-जेठानी और बेटे-बहू से भी बात कर लूंगा...। तुम कहो तो तुम्हारे उस उद्दण्ड भाई से भी बात करूं..., जिसने मेरी कॉलर पकड़ कर कहा था, अब दिव्या की ओर आंख उठाकर देखा तो आंखें निकाल लूंगा...। अब मैं उन दिनों वाला हरीश नहीं रहा, प्रदेश का जाना-माना पत्रकार-संपादक हूं...। राजनीति और प्रशासन की तमाम बड़ी हस्तियों से मेरे दोस्ताना ताल्लोकात हैं...। किंतु तुम चिंता मुक्त रहो..., इन सब की कोई जरूरत पड़े, ऐसे हालात नहीं बनेंगे...।'
हरीश ने अपनी ताकत का इजहार इस शालीन समझदारी से किया कि अंहकार का उद्घाटन, हैसियत जताने का भाव भर बनकर रह गया। वह बोली, 'इतना खयाल रखना..., कोई बवडंर न हो... और हमारा उठाया यह कदम तमाशा भर न रह जाए...'
-'मुझ पर विश्वास रखो.. भावना...'
और हरीश ने धीरे से भावना के बायें हाथ की हथेली, अपनी दाईं हथेली में ले ली। इस बिंदास अंदाज से भावना ने अहसास किया कि जैसे उसके मयूरपंखी दिन लौट आए हैं। उसे अपना अस्तित्व नए ढंग से विकसित होने जैसा लगने लगा। उसे लगा कि विराट व्यक्तित्व का स्थायी हिस्सा बनकर उसे मनुष्य होने का अवसर मिलेगा और एक नई पहचान मिलेगी...। फिलहाल वह इंदौर के भूगोल से परिचित हो रही है...। ट्रेजर आइलैण्ड (मॉल) की चकाचौंध, पुरात्व संग्रहालय की प्राचीन विरासत..., लालबाग पैलेस की राजसी..., नखराली ढाणी में भोजन और अंत में मयंक ब्ल्यू वाटर पार्क में पानी की कृत्रिम तीव्र लहरों में उठती फुहारों के बीच अठखेलियां करती, बलखाती यंत्रचालित नौका में विहार...। इस रूमानी माहौल में हरीश के संसर्ग में मादकता का जो उफान उमड़ा..., उसमें उसने जाना, दो प्रेमियों के स्पर्श से शरीर में ये कौन से विचित्र रसायन खद्बदाने लगते हैं, जो तन-मन में ऐसी उत्तेजक लहरों का संचार कर देते हैं कि लगता ही नहीं कि प्रेम एक उम्र विशेष में ही संभव है...। प्रेम की ऊर्जा की यह दिव्यता तो बढ़ती उम्र के हरेक दिन..., प्रहर..., घंटे, मिनट, सैंकेड और पल प्रतिपल में है...। उसे यह अहसास कर आत्म विश्वास हुआ कि जिंदगी ने हरीश के साथ जहां से चलने की असफल कोशिश की थी..., वह अब लौटकर एक बार फिर से वहीं से चलने को बेखौफ आतुर है...। शायद एक मुकम्मल मंजिल पाने की दिशा की ओर...
वक्त बीतने के साथ दिव्या का प्रसव होने का वक्त बीत रहा है..., लेकिन दर्द नहीं उठ रहे हैं...। डॉ. सुनीता माहेश्वरी के निजी नर्सिंग होम में रोज इंजेक्शन लग रहे हैं..., किंतु दर्द हैं कि आते ही नहीं। डॉक्टर कह देती है, 'एक-दो दिन और देखते हैं नॉर्मल डिलेवरी हो जाए..., नहीं तो ऑपरेशन करना होगा।' रोज नई-नई जांचें हो रही हैं। सभी रिपोर्टें सामान्य आ रही हैं, परंतु दर्द नदारद हैं। भावना चिंतित व परेशान है। वह सोचती है आजकल की लड़कियों को न जाने क्या हो गया है कि जिसे देखो उसे ऑपरेशन से बच्चा हो रहा है। जरूर कार्यशौली में खोट है या दवाओं में..., जो जननांगों की तरलता सुखा देती हैं और शिशु को गर्भ में ही इतना हष्ट-पुष्ट बना देती हैं कि वह प्राकृतिक रूप में गर्भ-द्वार से बाहर आने ही न पाए...। नमन का जन्म तो दर्द उठने के बाद चंद पलों में हो गया था..., पर अब सामान्य प्रसव अपवादस्वरूप ही होते हैं...। कहीं ये असमंजस के हालात उसकी फूल सी बहू की जान पर संकट बनकर न टूट पड़ें..., इन कुविचारों को वह मन-मस्तिष्क से झटकारती है...। पर दिमाग की अंदरूनी सतहों में द्वंद्व-प्रतिद्वंद्व कहां विराम लेते हैं...। इन सब परेशानियों से रोज-रोज रूबरू होने के बावजूद दिव्या निश्ंिचत और बेपरवाह है। वह सासू मां को चिंता मुक्त रहने के लिए कहती है, 'ममा आप टेंश्न न लें..., भगवान की दया से सब ठीक होगा...। न मुझे कुछ होगा और न होने वाले बच्चे को...'
-'भगवान करें यही हो...।
और फिर एक दिन चैकप के वक्त डॉक्टर माहेश्वरी ने एकाएक ही बोल दिया, 'आज और अभी ऑपरेशन करना होगा...। काउण्टर पर कैश जमा कराइए और एक बोतल खून का इंतजाम रखिए...।' भावना ने तुरंत काउण्टर पर तीस हजार रूपए जमा करा दिए। पैसे की कोई चिंता नहीं थी। उसके खुद के खाते में डेढ़-दो लाख रूपए पड़े हुए थे। और एटीएम भी उसके पास था। दिव्या ने भी अपने खाते का एटीएम व कोड नंबर दिया हुआ है। बता रही थी, 60-70 हजार रूपए तो उसमें पड़े ही होंगे। दिव्या ने तुरंत मोबाइल करके दफ्तर से अपनी सहेली सोनाली को भी बुला लिया है। जिससे दवाओं की जरूरत पड़ने पर वह भाग-दौड़ करती रहे और भावना को परेशानी न हो। भावना ने खुद ब्लड-बैंक जाकर अपना खून देकर, उसके बदले 'ओ पॉजीटिव' ग्रुप खून की बोतल लाकर अस्पताल में जमा करा दी है। जरूरत पड़ने पर सोनाली भी खून देने को तैयार है।
दिव्या को ऑपरेशन थियेटर ले जाया जा रहा है। भावना को लगा, कि दिव्या के चेहरे पर कोई अज्ञात भय से निर्मित मासूमियत उतर आई है। वह उसके बालों में स्नेहिल हाथ फेरकर दुलार उड़ेलती है। और फिर प्रार्थना..., 'हे ईश्वर, जच्चा-बच्चा को ठीक रखना...।'
भावना अब अपने दूर बैठे सगे-संबंधियों कोे सूचना दे रही है। सबसे पहले उसने नमन को बताया, 'दिव्या को ऑपरेशन थियेटर में ले गए हैं। आधेक घंटे में खुशखबरी मिलेगी...। मिलते ही बताती हूं।' फिर वह अपने जेठ-जिठानी और दिव्या के माता-पिता व भाई को खबर करती है। दिव्या सोचती है, मोबाइल और इंटरनेट से कितना आसान हो गया है, देश-दुनिया में बाते करना..., पलों में उसने लंदन..., दिल्ली..., बैग्लोर और शिवपुरी में खबर पहुंचा दी...। बस खबर नहीं, की तो अपने ही भाई को..., बस एक वही है, जिससे उसका छत्तीस का आंकड़ा बना रहता है।
बढ़ती बेसब्री के बीच नर्स तौलिये में लिपटी नन्ही-परी को भावना को देते हुए कहती है, 'लाड़ली लक्ष्मी आई है... ईनाम दो...?' भावना बच्ची का माथा चूमते हुए सोनाली से कहती है, मेरे पर्स से पांच सौ रूपए निकाल कर इन्हें दो...।' फिर वह पर्स में पड़ी काजल की डिब्बी निकलवाती है और नवजात बच्ची के माथे पर काला टीका लगाती हुई कहती है, 'लाड़ली को किसी की नजर न लग जाए...।'
भावना सोचती है इन बीस-पच्चीस सालों में जमाना कितना बदल गया है कि जिस लड़की के जन्मने पर कलमुंही कहते हुए परिजनों के चेहरे जर्द पड़ जाते थे, आज नजर न लग जाए के टोटके के लिए काला टीका लगा रहे हैं। फिर वह नर्स से पूछती है, 'इसकी मां कैसी है...?'
-'अभी टांके लग रहे हैं। पन्द्रह-बीस मिनट में पलंग पर भेजते हैं, तब मिलना...।' फिर वह बच्ची को अपने हाथों में लेते हुए बोली, 'लाइए इसे मुझे दीजिए...। इसे कुछ समय केयर यूनिट में रखेंगे...।'
सोनाली ने मोबाइल से तुरंत बच्ची के चार-पांच फोटो खींच लिए हैं। दिव्या द्वारा जताई इच्छा के मुताबिक के वह मोबाइल में ही इंटरनेट कनेक्ट कर नमन को बच्ची के फोटो मेल कर रही है। इधर भावना सबको उत्साह और खुशी से बच्ची जन्मने और जच्चा-बच्चा के स्वस्थ होने की खबर दे रही है...
खुशियों को जैसे पंख मिल गए हैं...
लेकिन यह क्या दो घंटे होने को हो रहे हैं..., दिव्या को न तो पलंग पर लाया गया है और न ही उसकी कोई खबर दी जा रही है। वह जो नर्स बच्ची को लेकर आई थी, बार-बार लॉबी में होती हुई टेलीफोन अटेंडर के पास जा रही है, कुछ खुसुर-फुसुर कर रही है, लेकिन भावना से आंखें चुरा रही है। भावना के टोकने पर बोली, 'धीरज रखो..., ब्लीडिंग रूक नहीं रही है..., इसलिए समय लग रहा है। अभी ऑपरेशन टेबिल पर ही ब्लड चढ़ाया जा रहा है...'
थोड़ी देर पहले आई खुशी की जिस खबर से उसका रोम-रोम पुलकित हो गया था, इस खबर से क्षणभर में विलोप हो गई। निढाला सी वह कुर्सी में धस गई। सोनाली ढांढस बंधा रही है, 'मम्मी हिम्मत से काम लीजिए..., मैं पता करती हूं...।'
सोनाली उस नर्स को पकड़ रही है, जो बच्ची लेकर आई थी। नर्स उसे कुछ बताने की बजाय झिड़क रही है। नर्स के बदले बर्ताव पर उसे आश्चर्य हो रहा है। सोनाली नर्स के पीछे-पीछे थियेटर में घुसने की कोशिश करती है तो नर्स उसे रोकती है, लेकिन नर्स को डपटती और धकियाती हुई वह भीतर घुस जाती है।
कक्ष में बैठे चिकित्सकों का समूह दिव्या के केश को गंभीरता से लेता हुआ, उसके अब तक के उपचार तथा जांचों का गंभीरता से परीक्षण कर रहा है। डॉ. सुनीता माहेश्वरी सोनाली को कक्ष में प्रवेश होते देख पूछती हैं, 'आप कौन..., यहां बिना इजाजत कैसे...?
-'डॉक्टर मैं दिव्या की सहेली हूं...। डिलेवरी होने के ढाई घंटे बीत जाने के बावजूद उसकी कोई खबर नहीं...? बताईए उसकी हालत कैसी है ? बाहर उसकी सासू मां भी परेशान हैं...'
-'हां..., हम इसी केश को हैंडिल करने में लगे हैं...। दरअसल उसका ब्लीडिंग कंट्रोल नहीं हो रहा है। उसे कोई बीमारी तो नहीं थी...?'
-'जहा तक मेरी जानकारी में है, उसे कोई बीमारी नहीं थी...'
-'अच्छा..., उनके घर से कौन हैं, उन्हें बुलाइए...,
-'यस मैडम...।'
सोनाली तुरंत भावना के साथ कक्ष में प्रविष्ठ हुई...।
-'डॉक्टर क्या हुआ मेरी बहू को...?' भावना की घबराहट प्रगट हुई।
-'नहीं हुआ कुछ नहीं है..., लेकिन रक्तस्राव रूक नहीं रहा है। इसे कोई पुरानी बीमारी थी...?'
-'नहीं..., उसे कोई बीमारी नहीं थी...' भावना दृढ़ता से कहती है।
-'अच्छा..., इसकी बीटीसीटी जांच कराई थी...?'
-'यह क्या होती है...? आपने तो इस जांच के लिए कभी बोला ही नहीं..., जबकि पहला महीना चढ़ने के वक्त से ही आपका इलाज चल रहा है..., यह तो आपका काम है कि कौन-कौन सी जांचें कराई जाएं...'
भावना की आक्रामकता ने डॉ. सुनीता को अपनी भूल का अहसास कराया। डॉक्टर सोच रही थी, उसने अपनी गलती परिजानों पर जाहिर कर एक और भूल कर दी। दरअसल बीटीसीटी जांच कराने की जवाबदेही तो अस्पताल की ही थी। यह जांच हो जाती तो मालूम पड़ जाता कि खून का थक्का रक्तवाहनियों में कितनी देर में जमता है। रक्तसा्रव की वजह से शरीर में जो बांकी खून है, उसमें प्लेटलेट्स और प्लाज्मा की कमी लगातार बढ़ रही है। इनकी पूर्ति के लिए सद्यः प्रसूता के शरीर में प्लेट्लेटस और प्लाज्मा के साथ खून भी चढ़ाने की बड़ी मात्रा में जरूरत होगी...। इसकी पर्याप्त आपूर्ति नहीं हुई तो मरीज का बचना..., इस कुशंका ने डॉ. सुनीता को भी भीतर से झकझोर कर रख दिया है। फिर वह बोली, 'भावना जी हम पूरी कोशिश में लगे हैं कि दिव्या खतरे से बाहर आ जाए..., लेकिन इसके लिए आपको ओ पॉजीटिव ब्लड की दस-बारह बोतलों का इंतजाम करना होगा...'
-'इतना खून एकाएक हम कहां से जुटाएंगे..., आप इंतजाम कराइए डॉक्टर पैसे भले ही चाहे जितने खर्च हो जाए...'
-'हम भी अपने सोर्सेज से खून जुटाएंगे..., लेकिन आप इस काम में लग जाइए...'
-'...........'
निःशब्द भावना को जैसे सांप सूंघ गया। फिर वह जैसे-तैसे संभलकर बोली, 'मुझे जरा बहू के पास ले चलिए..., वह किस हालत में है, मैं देखना चाहती हूं...'
-'ठीक है। लेकिन हिम्मत से काम लीजिएगा...'
डॉ. सुनीता खुद भावना और सोनाली को ओ.टी. में ले गईं। ओ.टी. टेबिल पर दिव्या संज्ञाशून्य पड़ी थी। उसमें जो संज्ञा शेष थी भी तो वह वेंटीलेटर और कृत्रिम तरीके से दिए जा रहे खून और स्लाइन की बोतलों के बदौलत थी। दिव्या का पेट खुला पड़ा था और रक्तपात जारी था...। बहू की यह हालत देख भावना चकरा गई। सोनाली ने संभाला नहीं होता तो गिर गई होती।
-'डॉक्टर मेरी बहू को किसी तरह बचा लीजिए..., नहीं तो इसके साथ मैं भी यहीं दम तोड़ दूंगी...'
-'देखिए मिसेज भावना धीरज रखिए और साहस से काम लेते हुए अपने रिश्तेदारों और मित्रों को खून का इंतजाम करने के लिए कहिए...। वक्त जाया नहीं कीजिए प्लीज...'
-'हां..., मम्मी जी अब हमें ब्लड इंतजाम की कोशिश में ही लग जाना चाहिए...। मैं भी अपने दफ्तर फोन करके कुछ मित्रों को बुलाती हूं... 'सोनाली ने हिम्मत जुटाई और वह भावना को ओ.टी. से बाहर ले आई।
अब भावना और सोनाली परिचितों के नाम शिद्दत से याद करते हुए नंबर मिला रही हैं। आशा बंध रही है। इधर भावना सोनाली से कहती है, 'तुम्हारे और दिव्या के फेसबुक पर तमाम मित्र हैं, उन्हें कहो, वे कुछ मद्द करें...।
-'ओह मम्मी यह वर्चुअल वर्ल्ड है। मसलन महज आभासी दुनिया। इसमें दोस्तों की सूची तो लंबी होती है, लेकिन फेसबुक पर मित्र सिर्फ मित्रता का छद्म आभास कराने वाले होते हैं। इनका वास्तविक जीवन और सरोकारों से कोई वास्ता नहीं होता...।'
सोनाली का नकारात्मक उत्तर जानकर भावना ने अनुभव किया, फेसबुक तीव्रता से बदलती और आत्मकेंद्रित होती यह कैसी भ्रामक दुनिया है...? जिसमें आपके आभासी तो सैंकड़ों और हजारों दोस्त हैं, लेकिन असल जीवन में एक भी नहीं...। फिर अकस्मात उसके मस्तिष्क में रोशनी की किरण कौंधी..., और जैसे समस्या के समाधान की उम्मीद जग गई...। इसी फेसबुक पर तो उसे हरीश मिले हैं। वे फकत आभासी नहीं हैं, वास्तविक हैं। मीडिया से जुड़े हैं। उनके पास जरूर कोई न कोई सार्थक उपाय होगा..., उसने बिना वक्त गंवाए हरीश को नंबर मिलाया..., और दूसरी तरफ मोबाइल ऑन होते ही, बिना किसी भूमिका के चीख सी पड़ी..., 'हरीश मुझे तुम्हारी मद्द की फौरन जरूरत है...'
-'बताओ भावना, इतना परेशान क्यों लग रही हो...'
-'मेरी बहू का ऑपरेशन से बच्ची हुई है। वह तो ठीक है, लेकिन बहू का रक्तस्राव नहीं थम रहा है। डॉक्टर कह रहे हैं, तत्काल दस-बारह बोतल ओ पॉजीटिव ब्लड की व्यवस्था करो..., मैं इस अनजान शहर में कहां से इंतजाम करूं...। प्लीज तुम कुछ करो..., मेरी बहू की जान बचा लो...'
-'तुम धैर्य से काम लो..., मैं तत्काल अपने दफ्तर के कुछ लड़कों को लेकर अस्पताल पहुंचता हूं..., अरे हां किस अस्पताल में आना है....
-'माहेश्वरी नर्सिंग होम... सयाजी होटल के ठीक सामने, उज्जैन रोड पर...'
-'अरे..., इस अस्पताल के मालिक डॉ. अनंत माहेश्वरी और उनकी पत्नी सुनीता तो मेरे अच्छे मिलने वालों में से है..., मैं उनसे मोबाइल पर जानकारी लेता हूं...'
पांच-सात मिनट बाद ही भावना को लगा, परिदृश्य बदल रहा है। शायद हरीश की डॉ. अनंत से मोबाइल पर बात हो गई है। क्योंकि वार्ड बॉय आकर, उन्हें गेस्ट रूम में बैठने को कहता है। लेकिन वह मना कर देती है और बेसब्री से हरीश का इंतजार करती है। करीब पच्चीस मिनट के भीतर हरीश चार लड़कों को लेकर लॉबी में पहुंचते हैं। भावना लपककर हरीश के पास पहुंचती है और अनायास ही बेपरवाह सी उसकी छाती में समाकर सुबकने लग जाती है, 'हरीश मेरी... बहू...'
-'धीरज रखो मैं चार लड़कों को साथ लेकर आया हूं..., खून की कमी नहीं पड़ने देंगे...,' और वह उसके सिर पर हाथ फेरता व माथा चूमता हुआ डॉ. अनंत के कक्ष में घुस जाता है। हलचल तेज हो जाती है। एक नर्स और कंपाउण्डर लड़कों को रक्त कोष में ले जाते हैं...। भावना की जैसे जान में जान लौटने लगी है। करीब दस मिनट बाद हरीश, भावना के पास आकर कहते हैं, 'अब घबराने की जरूरत नहीं है, मैंने डॉक्टर को बोल दिया है..., खून और पैसे की कमी की वजहों से हमारी बहू को कुछ नहीं होना चाहिए...। डॉक्टर ने गेस्ट रूम खुलवा दिया है, वहीं बैठते हैं.....'
भावना का मोबाइल लगातार घनघना रहा है...। अब वह सबको संतोषजनक उत्तर दे पा रही है। शिवपुरी से उसके जेठ-जेठानी, दिल्ली से दिव्या के माता-पिता और बैंग्लोर से दिव्या का भाई भी साधन मिलते ही इंदौर आ रहे हैं। लेकिन नमन नहीं आ पा रहा है..., सात समुन्दर पार लंदन से अचानक आए भी तो कैसे...? वह मां से पल-पल की जानकारी ले रहा है..., दिव्या से बात करने को कह रहा है..., लेकिन वह तो नीम बेहोशी में है..., बात कराए भी तो कैसे...? कहती है, 'होश में आने दे..., सबसे पहले मुझसे ही बात कराऊंगी...,' बस एक भाई है जिसे उसने इस संकट की जानकारी नहीं दी है। इसी बीच सोनाली केयर यूनिट से बच्ची को ले आई है और हरीश को दिखा रही है..., हरीश बच्ची की गोदी में पांच सौ रूपए रखते हैं और दाएं हाथ के अंगूठे व तर्जनी के बीच उसके मुंह को लेकर हिलाते हुए कहते हैं, 'आते ही तूफान खड़ा कर दिया..., इतनी बड़ी शरारत साथ में लेकर आई है कि मां और दादी की जान पर बन आई..., ऐं...ऐं... नटखट..., लाड़ली लक्ष्मी...!' हरीश की इतनी अंतरंग आत्मीयता और दायित्व बोध देख भावना जैसे उस पर न्यौछावर है...।
सूरज ढलने लगा है..., सात बजने को हैं..., पांच बोतल खून दो बोतल प्लाज्मा चढ़ चुका है। हरीश अभी तक अस्पताल में ही हैं। डॉ. अनंत खुद गेस्ट रूम में आकर कहते हैं..., 'रक्तस्राव पूरी तरह रूक गया है और अब पेशेंट सौ फीसदी खतरे से बाहर है। भगवान चाहेगा तो सुबह तक होश आ जाएगा..., लेकिन अभी हमें पांच बोतल खून की और जरूरत पड़ेगी...'
-'कोई समस्या नहीं है डॉक्टर..., डोनरों का इंतजाम करना मेरा काम है...,'
-'इतने ब्लड का इंतजाम यदि सही समय पर नहीं होता तो हम पेशेंट को बचा नहीं पाते। प्लेटलेट्स की कसी एक हजार में से एक पेशेंट को होती है। आपने हमारे अस्पताल को कलंक लगने से बचा लिया हरीश जी...'
-'छोडिए डॉक्टर..., वह कहावत है न, 'जाको राखो साईंया, मार सके न कोई..., हम और आप तो निमित्त भर हैं.' भावना अब संतुष्ट है। हरीश रात ग्यारह बजे आने की कहकर चले जाते हैं। सोनाली साथ ही है। वह अपनी होस्टल वॉर्डन को फोन करके बोल देती है कि उसकी सहेली की तबीयत खराब है, इसलिए वह आज रात अस्पताल में ही रहेगी। भावना में कहीं रूढ़ छवि उभरती है और मन में ही सोचती है..., ये नौकरीपेशा लड़कियां भी क्या होस्टलों में रहकर अपनी उम्र जाया कर रही हैं..., घर बसाएं और ठाठ से पति व बच्चों के साथ जिएं...। जीवन में पुरूष की अपनी मर्दानी भूमिका है..., देखा नहीं हरीश की उपस्थिति और पहुंच ने कैसे आनन-फानन में दिव्या के प्राण बचा लिए...। लेकिन भावना, सोनाली को कोई नसीहत देती, इससे पहले सोनाली ने रहस्यपूर्ण सवाल उछाल दिया, 'ये कौन थे मम्मी जी..., इनसे आपका क्या रिश्ता है...'
भावना ने सोनाली को विस्फारित नेत्रों से देखा..., जैसे वह अनेक शंका-कुशंकाओं से ग्रसित रहते हुए, उनका जवाब चाहने की इच्छुक है। गलती उसकी ही रही, जो वह हरीश के आते ही भावोद्वेग में उनसे लिपट गई थी और उन्होंने भी बालों में हाथ फेरते हुए उसके माथे को चूम लिया था। अब ऐसा आचरण या तो अभिभावक का हो सकता है अथवा पति या प्रेमी का...। इसलिए सोनाली के मन में कोई आशंका उभर भी रही है तो उसमें उसकी गलती कहां है...? वही है जो रूढ़िवादिता के चलते ग्लानि और आत्महीनता से उबर नहीं पा रही है..., लेकिन अब वह इन्हें जल्द झटक देगी..., फिर चाहे उसे किसी भी परिस्थिति से सामना क्यों न करना पड़े... और फिर वह साहस जुटाकर सोनाली के समक्ष हरीश से अपने संबंधों की अब तक की पूरी कहानी बयान कर देती है। फिर कहती है...
-'अब मैं गलत हूं भी तो बेटे-बहू और ससुराल पक्ष से माफी मांग लूंगी..., लेकिन तुमसे क्या छिपाऊं बेटी (सोनाली) अब मैं हरीश से जुड़ना चाहती हूं...। उन्हें शिद्दत से जहां एक स्त्री की जरूत है, वहीं मुझे भी पुरूष का साथ चाहिए..., लेकिन हम शारीरिक जरूरतों की पूर्ति के लिए महज कामचलाऊ लिव एण्ड रिलेशनशिप की तर्ज पर रहने वाले जोड़ों की तरह नहीं रहेंगे..., बाकायदा शादी करके पति-पत्नी की तरह रहेंगे...। यही वह रिश्ता है..., जिसके दरमियान रहते आत्मबोध और आत्मगौरव का अनुभव होता है और पारिवारिक व सामाजिक स्वीकार्यता मिलती है...। देखो..., आगे देखते हैं..., ऊंट किस करबट बैठाता है...'
-'एक बात बताऊं मम्मी जी...' सोनाली बोली।
-'बोलो बेटी..., तुम तो मेरे लिए दिव्या समान हो..., तुम जो भी कहोगी मैं बुरा नहीं मानूंगी...'
-'नहीं मैं ऐसा कुछ कहने नहीं जा रही..., जो आपको बुरा लगे..., अच्छा ही लगेगा सुनकर..., बहुत अच्छा...' उसके चेहरे पर एक रहस्यपूर्ण कुटिल मुस्कान थी।
-'..........' भावना, सोनाली का चेहरा पढ़ते हुए मौन ही रही।
-'दरअसल..., आपके और हरीश जी के संबंधों के बारे में मुझे और दिव्या को सब पता है...'
-'क्या...' भावना आश्चर्यचकित रह गई।
-'हां..., आपने फेसबुक पर हरीश जी से जो दोस्ती की और जो बातचीत का सिलसिला चला..., वह सब हमने पढ़ लिया है...'
-'कैसे...? मैं तो डीलीट कर देती थी...'
-'शायद एक दिन आपने फेसबुक लॉग आउट किए बिना ही बंद कर दी थी...। दिव्या ने अपनी पोस्टें देखने के लिए अपना एकाउंट खोला तो लॉगआउट न करने के कारण आपका एकाउंट खुल गया और प्रोफाइल भी हरीश जी की खुली हुई थी। किसी अनजान आदमी से आपकी दोस्ती देख..., दिव्या की जिज्ञासा बढ़ना स्वाभाविक थी। अब हम लोग सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं..., सो कंप्यूटर तकनीक की सब बारीकियां जानती हैं। बहरहाल..., दिव्या ने डीलीट किए संदेश की लिंक को क्लिक कर देखा तो प्रारंभ से लेकर अंत तक के सभी संदेश खुलते चले गए...
-'हे राम...! फिर...,' अब वह उस धारणा को भी जान लेने को उत्सुक है, जो उसकी प्रेम कहानी बांचने के बाद उन्होंने बनाई...
-'आप क्या सोचती हैं..., दिव्या ने या मैंने इसे गलत माना..., नहीं...। आप ने हरीश जी से ब्याह करने का जो फैसला लिया है, वही सही है..., उचित है..., बढ़ती उम्र में अकेलेपन के अवसाद से बचने के लिए..., एक साथी ऐसा चाहिए जो अंतरंग हो..., जैसे आपके लिए हरीश जी हैं..., इस विपदा में जिस चिंता और जिम्मेदारी से उन्होंने संकट निवारण के लिए उपाय किए, वह एक सच्चा मित्र, आत्मीय परिजन या रक्त संबंधी ही कर सकता है...'
-'हां..., सो तो है..., दिव्या की स्वास्थ्य की शुभ खबर आई, तभी वे दफ्तर गए...,
-'आपकी खुशी के लिए एक बात और मम्मी जी..., दिव्या ने नमन को और ताई-ताऊ जी को भी आपके पुनर्विवाह के लिए राजी कर लिया है..., लेकिन हम चाहते थे..., डिलेवरी हो जाए तब आपको यह खुशखबरी बतौर सरप्राइज दें...'
-'सच..., सोनाली...' और दिव्या ने सोनाली को अपने आगोश में ले लिया...।
दिव्या को गहरी व आत्मीय अनुभूति हो रही है कि जैसे उसकी उम्र घट रही है..., जीवन में सुगंधें लौट रही हैं...। जीवन का एक चक्र पूरा होकर नए सिरे से शुरू हो रहा है..., और वह पुनर्विवाह के एक साल बाद बहू दिव्या को संकोच मिश्रित खुशी के साथ फेसबुक पर संदेश दे रही है, 'मैं मां बनने जा रही हूं...।' प्रकृति और स्त्री कितने ही बवडंरों से जूझ लें..., सृजन की जैविक अनुकूलता जैसे उनका अक्षुण्ण लक्षण है...।
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प्रमोद भार्गवशब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.)-473-551
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ई-पता : pramodsvp997@rediffmail.com
ई-पता : pramod.bhargava15@gmail.com
बढ़िया. नए दौर की नए मूल्यों की कहानी. अंत थोड़ा और ड्रामेटिक, अन एक्सपेक्टेड होता तो और मजा आता.
जवाब देंहटाएंAchhi kahani,paripakav umra men rishton ko sahej kar naye mod deti kahani
जवाब देंहटाएंBADHAIE
paripakva upra men rishton ko talashtne aur sahjne ko jatati ek ACHHI KAHANI
जवाब देंहटाएंBADHAIE
*रचनाकार* में "प्रमोद भार्गवजी" की पुरस्कृत कहानी *फेसबुक* अच्छी लगी .
जवाब देंहटाएंअंत तक सस्पेंस बना रहा . आश्चर्यजनक रूप से उनकी प्रिय बहू द्वारा सहजता व सकारात्मक रूप से सभी मसले आसानी से हल कर देने का कार्य बहुत प्रेरक रहा .
कहानी सुंदर - अच्छी बन पड़ी है। लेखक को बधाई+शुभकामना भेज रही हूँ .
अलका मधुसूदन पटेल ,लेखिका-साहित्यकार
"सच..., सोनाली...' और दिव्या ने सोनाली को अपने आगोश में ले लिया...। दिव्या को गहरी व आत्मीय अनुभूति हो रही है कि जैसे उसकी उम्र घट रही है..., जीवन में सुगंधें लौट रही हैं..." ये भावना से दिव्या कैसे हो गयी , पुरस्कृत कहानी में ये गलती
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