लघु कथा ०१ जंगल, रजनी और नेट. पैंतालीस के पार राघव इन दिनों अपने में खोए रहते हैं. घंटों कम्प्यूटर के स्क्रीन पर घूरते हुए कभी खिसियाहट ...
लघु कथा
०१
जंगल, रजनी और नेट.
पैंतालीस के पार राघव इन दिनों अपने में खोए रहते हैं. घंटों कम्प्यूटर के स्क्रीन पर घूरते हुए कभी खिसियाहट में किसी के फेसबुक पर कमेन्ट करते हैं तो कभी किसी महिला के फितूर से चित्र पर वाह-वाह के साथ ढेरों तारीफ़ के कसीदे. चैट पर किसी महिला से वार्ता का मौक़ा मिला तो पूरी तरह डूब गए. उनके सामने नेट ने एक दूसरी ही दुनिया परोस दी है. बिना जान-पहचान वाले अनेक नर-नारी एक दूसरे से बोल-बतिया रहे हैं. कोई वर्जना नहीं, रसिकता पर परिवार के किसी मुखिया की गर्जना नहीं. इसी संसार में एक दुनिया साहित्य की भी थी. शब्दों को जड़ते हुए कहीं का रोड़ा कहीं का पत्थर उठाकर दे मारा, पढने वाले ने कहा, क्या लिख दिया जहाँ सारा. राघव पुरुषों द्वारा लिखी ऐसी कविताओं पर चिड़चिड़ा जाते. कसकर कमेन्ट दे मारते. लेकिन महिला लेखकों के इससे भी जुगाड़ू लेखन पर वाह ठोंकने को बाध्य हो जाते. हो भी क्यों न जाते. एक बार एक महिला ने कुछ तस्वीरें लगा डालीं. राघव ने मजाक में एक चुटकी ले ली. बस फिर क्या था. बेचारे को बड़ी खरी-खोटी चैट पर सुनने को मिली. ऐसे ही एक और महिला साथी ने उन्हें अन्फ्रेंड कर दिया था.
उस दिन वे बहुत ग्लानि में थे. घंटों बरामदे में पड़ी चारपाई पर लेटे रहे. बंद आँखों में चुपके से उनका बचपन आ पसरा. उन्हें याद आई अपनी रजनी गाय. उसकी मासूम सी आँखें. छुट्टियों के दिन गर्मी में अक्सर चरवाहे इस्तीफा दे देते. तब पशु स्वामियों को ही अपने मवेशी चराने पड़ते. लेकिन राघव के लिए यह जैसे किसी पुरस्कार से कम न होता. वे सुबह उठ कर पुआल का गठ्ठर मवेशियों के सामने रख जाते. मवेशी अपना नाश्ता कर रहे होते और राघव अपना कलेवा. फिर निकल जाते शिवन के जंगल. मवेशी अपनी दुनिया में रम जाते राघव और उनके साथी अपनी दुनिया में. बरगद की छाँव में आँखे बंद कर लेटे रहना, चार के पेड़ों से चिरौंजी निकाल कर खाना, गुलशकरी की मिठास, बेर-मकोय का खट्टापन......... और भी जाने क्या-क्या. भूख लगती तो रजनी के पास दौड़ पड़ते. जैसे वह गाय न होकर उनकी माँ हो. रजनी को पटाने का उनका तरीका बड़ा अनोखा था. वह उसके गले में हाथ डाले बंधे की और चल देते. पानी में उतरकर उसे रगड़-रगड़ नहलाते. गर्मी से परेशान रजनी की आँखें खुद बंद हो जातीं. घंटे भर लगते रजनी को नहलाने में. फिर साथ ही डुबकी लगा कर साथ-साथ बाहर निकल आते. फिर रजनी कहीं न जाती. पास के बरगद के पेड़ के नीचे आराम से पत्तों की तह पर लेट जाती. राघव भी उसके मुंह के पास सर करके लेट जाते. रजनी का लाड़ उमड़ पड़ता. वह अपनी जीभ से राघव के बाल चाटने लगती. फिर तो कंघी का झमेला ख़तम. राघव को पता होता कि इस समय रजनी खुश है. वह उसके थन में मुंह लगा देते. बछड़े की तरह दूध चूसने लगते. तब भी रजनी की आँखें बंद हो जातीं.
राघव ने जंगल, रजनी और नेट को एक साथ महसूस किया. जंगल उनके लिए आत्मा का एकांत आक्रोड़ था तो रजनी ममता और प्यार की साक्षात् मूर्ति और नेट चापलूसी की पगडंडी.
लघु कथा
०२
मीरा का प्रयाण
25 जून की दोपहर मंजरी के विवाह से फुर्सत मिली तो घर के लोग घेर कर बैठ गए. चुहल-हंसी और ठहाके चलते रहे. बडकी भौजी ने टहोका दिया, "रमा बाबू मिरवा का भी सुन लीजिये. कुछ कहना चाहती है."
हाँ-हाँ बोल बेटा. क्या कहती हो?
कुछ नहीं. बस देख रही हूँ क़ि आपके दिल में केवल मंजरी के लिए ही जगह है.
सो क्यों?
वो ये क़ि हम लोग भी हैं यहाँ पर, लेकिन आपने किसी से कुशल-क्षेम तक न पूछा.
ओह, तो ये बात है! अब हम केवल मीरा से ही बात करेंगे.
मैंने उस दिन पहली बार अपने बगल में बैठाया. सर पर हाथ फेरा तो उसकी आँखें बंद हो गई. और मेरी गोद में सर रखकर पड गई. सब हंस पड़े, देखो तो लग ही नहीं रहा कि दो बच्चों की माँ है. चाचा का गोद क्या मिला, जैसे स्वर्ग मिल गया. ...................
आज सुबह तड़के ही खबर मिली कि मीरा अब नहीं रही. मात्र गैस की समस्या हुई थी. रात के तीन बजे थे. उसके पति अनिल आनन-फानन लेकर मिर्ज़ापुर के लिए निकले. चार किलोमीटर बाद मीरा वाकई स्वर्ग लोक चली गई.
बनारस से शिक्षक संघ के सम्मेलन से लौटते हुए आँखें बंद हो गई. देखा कि मीरा मेरी गोद से उठी है और हाथ हिलाते आकाश की और चली जा रही है. मैं उसे पकड़ने को लपकता हूँ तो वह प्रकाश पुंज बिखेरते हुए अंतर्धान हो गई.
उस पूतात्मा को शत-शत नमन.
लघु कथा
०३
अथ वाहन हिंदी
डा० भवदेव जी अपने पुत्र सलिल जी पर खफा थे कि हिंदी दिवस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनाया तो चार पहिया वाहन क्यों नहीं भेजा. आधा दर्जन वक्ता सहियाकर मनाकर थक गए. मै पहुंचा तो सलिल जी को कुछ उम्मीद जगी. मुझे एकांत में लेजाकर बुढाऊ को समझाने का अनुरोध करने लगे. हिम्मत न होती थी, फिर भी सरे आम किसी की इज्जत न उछलने पाए, इसलिए मजबूरी थी. मैंने पैर छुआ तो डाक्टर साहब ने मगन होकर आशीर्वाद दिया.
सूत्र मिल गया.
सर, कब चलेंगे? छह तो बज गए.
बजने दो, यह कोई तरीका है? डाक्टर साहब ने गुस्से में फुँफकारा.
क्या हुआ सर? कोई बात हो गई क्या?
अब तुम बताओ कि नामवर को दिल्ली से बुलाते तो खर्चा-पानी, वाहन आदि मुहैया कराते कि नहीं?
बिलकुल. ये तो करना ही पड़ता.
नाश्ता-भोजन करते कि नहीं?
क्यों नहीं!
होटल का किराया वहन करते कि नहीं?
वो तो करना ही पड़ता.
तो क्या मैं नामवर से कम हूँ? एक ठो चार पहिया साधन भी नहीं उपलब्ध कराया इन लोगों ने.
प्रभु जी ने आँख मारी. मैंने कहा सर, यदि बुरा न मानें तो एक बात कहूं?
हाँ-हाँ, तुम बोलो.
सर मैं स्कूटर ले आया हूँ. उसी से चले चलिए.
ओह तो तुम स्कूटर से आये हो? पहले क्यों नहीं बोले. चलो लेकिन एक शर्त है. ठीक ६-३० पर यदि कार्यक्रम न शुरू हुआ तो मैं लौट आऊँगा.
और डाक्टर साहब हमारी स्कूटर पर सवार हो गए.
लघु कथा
०४
पुराने शत्रु
तब हम छोटे थे. गाँव में हम दर्जन भर बच्चों का झुण्ड एक साथ छोटे-छोटे डंडे लेकर निकलते. हमारे पास कुछ और सामान होते. जैसे सीसे का बोतल, महीन धागा वगैरह. मिशन बिच्छू शुरू हो जाता. जमीन पर यहाँ-वहां पड़े पत्थरों को हटाते. लेकिन शायद ही कभी हमें निराश होना पडा हो. आम तौर पर हर पत्थर के नीचे कोई न कोई बिच्छू निकल ही जाते. हम डंडे के छोर से उसका सर दबाते तो बिच्छू अपने डंक कनकाना कर ऊपर को उठा लेते. बस
उसी में शकार्पुन्दी गाँठ वाला धागा पिरो कर खींच लेते. कुछ देर हम उन्हें सड़क पर दौड़ाते और मन में गर्व होता कि हम कोई गाड़ी चला रहे हैं. बाद में जब बिच्छू थक जाता तो हम गाँठ खोलकर उसे दो लकड़ी का चिमटा बनाकर उसे बोतल में भर लेते. एक और खेल हमारा होता. एक विशेष प्रकार का साँप होता अवारिया. उसकी रंगत करैत की तरह होती. बहुत तेज भागता. लेकिन होता बहुत सीधा. कभी काटता नहीं था. हम बाल मंडली के लोग उसे छेड़ते. तो वह बेतहाशा भागता. हम उसे घंटों छकाते. लेकिन जब अवारिया गुस्सा जाता तो हमें दौड़ा लेता. किंवदंती थी कि जब अवारिया गुस्सा जाता है तो बिना कटे नहीं छोड़ता. उस समय हमारी जान सकते में होती.
हम अब गाँव जाते हैं कहीं भी पत्थर रखे हुए नहीं मिलते. यदि मिल भी गए तो उनके नीचे बिच्छू नहीं मिलते. इधर अवारिया भी दिखने बंद हो गए. अब बच्चे उन्हें नहीं खोजते. उनके खेल के साधन बदल गए. पता नहीं क्यों मन उदास हो जाता है. ये हमारे बचपन के शत्रु आज बहुत याद आते हैं. लगता है कि कोई प्यारा मित्र खो गया है. या फिर तब बचपन में जो हमारे सबसे करीब मित्र गाड़ियाँ हुआ कराती थीं, शायद उन्ही के चलते वो पुराने शत्रु गम हो गए. यदि उन्हें हमारी किलकारी आज भी सुनाई देती तो कभी न दूर होते. मशीनों ने हमारी शत्रुता से बदलती मित्रता को असमय में रौंद डाला.
डॉ .भव सिंह बहुत सशक्त कथा है .लघु न कही बस व्यथा कथा है हिंदी के नाम पे चलने वाले ढकोसले की .
जवाब देंहटाएंलघु कथा पुराने शत्रु टूटे फूटे पारि तंत्रों की व्यथा है .
जवाब देंहटाएंसभी कहानियाँ पसंद आई बढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंलघु कथाये नहीं बल्कि हासिये फार खड़ी हमारी सवेद्नाओं की भाव पूर्ण ब्यथा गाथा है.....मशीनों ने हमारी शत्रुता से बदलती मित्रता को असमय में रौंद डाला....बेहद मार्मिक सत्य....
जवाब देंहटाएंsabhi kathayen apne aap men sampoorn dastvez hain...bahut khoobsurat aur saargarbhit rachnayen...bahut bahut badhai.
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