कहानी प्रतिघात -राकेश भ्रमर न मिता एक हंसमुख और खुशमिज़ाज लड़की थी। उसके चेहरे की सौम्यता, स्निग्धता और लावण्य किसी का भी मन मोह लेते थे। उ...
कहानी
प्रतिघात
-राकेश भ्रमर
नमिता एक हंसमुख और खुशमिज़ाज लड़की थी। उसके चेहरे की सौम्यता, स्निग्धता और लावण्य किसी का भी मन मोह लेते थे। उसके गुलाबी होंठ सदैव मीठी मुस्कुराहट के दरिया में छोटी नाव की तरह हिचकोले खाते रहते थे। आंखों की पुतलियां सितारों की तरह नाचती रहती थीं। उसके चेहरे और बातों में ऐसा आकर्षण था, जो देखने वाले को बरबस अपनी तरफ खींच लेता था।
परन्तु पिछले कुछ दिनों से नमिता के चेहरे का लावण्य धुंधला पड़ता जा रहा था। होंठों की मुस्कुराहट सिकुड़कर मुरझाए फूल की तरह सिमट गयी थी। आंखों की पुतलियों ने नाचना बन्द कर दिया था। आंखों के नीचे स्याह घेरे पड़ने लगे थे। वह समझ नहीं पा रही थी कि वह अपने जीवन की कौन सी अमूल्य वस्तु खोती जा रही थी। सब कुछ उसके हाथ से फिसलता जा रहा था। कुछ भी उसके वश में नहीं रहा था।
उसका सुख-चैन उससे छिन गया था। रातों की नींद उड़ गई थी। दिन उसके लिए दहशत की चादर फैलाये हुए आता और उसे अपने साए में समेट लेता।
नमिता के दुःख का कारण क्या था? यह वह किसी को बता नहीं पा रही थी... न अपने किसी परिजन को, न आत्मीय को, न सहकर्मियों को। सारा दुःख वह अकेले झेल रही थी और बबूल से गिरे कांटे की तरह सूखती जा रही थी। फिर भी उसके चेहरे का रेगिस्तान की तरह सूखना और फूलों जैसी कोमलता का मुरझाना किसी की निगाहों से छिपा नहीं था। लोग पहले काना-फूसी में उसके बारे में बात करते रहे, फिर खुलकर बोलने लगे। सीधे उसी से पूछते, ‘‘क्या हुआ है नमिता तुम्हारे साथ जो तुम ग्रहण लगे चांद की भांति कांतिविहीन होती जा रही हो?’’
वह पूछने वाले की तरफ देखती भी नहीं। सिर झुकाकर एक फीकी, निर्जीव मुस्कुराहट के साथ बस इतना कहती, ‘‘नहीं, कुछ नहीं...’’ शब्द जैसे उसका साथ छोड़ देते। आजकल वह बातें भी कम करती थी। लोग जी मसोहकर रह जाते। इतनी सौम्य और सुन्दर लड़की के साथ क्या हो गया था? किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
इस तरह के हालात कब तक चल सकते थे? नमिता किस-किस से मुंह छुपाती? अपरिचितों से मुंह चुरा सकती थी, उनकी नज़रों का सामना भी कर सकती थी। उनकी बातों के तीरों को नज़र-अन्दाज कर सकती थी, परन्तु अपने घर-परिवार के सदस्यों, परिचितों और सहकर्मियों की निगाहों से कब तक बच सकती थी। उनकी बातों का कब तक जवाब नहीं देती? आखिर टूट ही गई एक दिन... सबके सामने नहीं... आफिस की एक महिला सहकर्मी थी, उम्र में उससे कुछ वर्ष बड़ी, जीवन का अनुभव भी था और आफिस में वह नमिता से कई वर्ष श्रेष्ठ थी। एक दिन एकान्त में जब उस महिला ने नमिता से प्यार भरी वाणी में आश्वासन देते हुए पूछा, तो नमिता रोने लगी। बांध टूट चुका था। फालतू का पानी बह जाने के बाद जब नमिता संयत हुई तो उसने धीरे-धीरे अपनी परेशानी का कारण बयान कर दिया। सुनकर प्रीति वाधवा हैरान रह गई थीं।
नमिता स्टेनोग्राफर थी और कार्यालय प्रमुख भूषण राज चड्ढा के साथ संबद्ध थी। चड्ढा अधेड़ उम्र का सुखी परिवार वाला व्यक्ति था। आफिस में उसकी अपनी पी.ए. थी, परन्तु डिक्टेशन और टाइपिंग का काम नमिता से ही करवाता था। काम कम करवाता था, सामने बिठाकर बातें ज्यादा करता था। उसे मुस्कुराती नज़रों से देखा करता था। पहले वह भी मुस्कुराती थी और मुस्कुराकर ही उसकी बातों का जवाब भी देती थी। परन्तु धीरे-धीरे नमिता की समझ में आ गया कि चड्ढा साहब की नजरों का अर्थ कुछ दूसरा था, तो वह सतर्क हो गयी। अब बदले में वह मुस्कुराहट नहीं फेंकती और चड्ढा की बातों पर मौन होकर नीचे देखने लगती। जब वह कोई द्विअर्थी बात कहता, तो वह अन्दर से डरकर सिमट जाती, परन्तु बाहर से अपने को संभाले रहती कि एकान्त सूने कमरे में कोई अनहोनी न हो जाए। चड्ढा नमिता की खामोशी, शर्म और झिझक को उसकी स्वीकृति समझ बैठा।
नमिता को अपने बास की कुत्सित मंशा का आभास हो चुका था। वह यह तो नहीं जानती थी कि चड्ढा के अन्तर्गत कार्य करते हुये वह कितनी सुरक्षित और निरापद है। वह जीवन का कौन सा सुख उसे देगा या उसके घर परिवार के लिए क्या करेगा; परन्तु इतना वह अवश्य जानती थी कि केन्द्र सरकार के कार्यालय की यह पक्की नौकरी उसके लिए अति आवश्यक थी। उसका तीन साल का प्रोबेशन था। दो साल पूरे हो चुके थे। एक साल बाद उसे कन्फर्मेशन लेटर प्राप्त हो जाएगा, तब वह अपनी पक्की नौकरी के प्रति आश्वस्त हो सकेगी।
नमिता आम भारतीय लड़कियों की तरह साधारण मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की थी। मां-बाप के अलावा घर में एक छोटा भाई और बहन थी। बाप एक प्राइवेट फर्म में एकाउन्टेंट था। सीमित आमदनी के बावजूद बाप ने नमिता को पर्याप्त शिक्षा दी। घर में बड़ी होने के नाते मां-बाप की आंखों का तारा तो थी ही, साथ ही साथ उम्मीद का चिराग भी कि शिक्षा पूरी करते ही कोई नौकरी मिल जाएगी तो घर की आर्थिक स्थिति में थोड़ा सुधार आ जाएगा। छोटे भाई बहन की पढ़ाई अच्छे ढंग से तथा सुचारू रूप से चलती रहेगी। बच्चे ही तो मां-बाप की वैशाखी बनते हैं।
नमिता ने अपने मां-बाप को निराश नहीं किया। बी.ए. में दाखिला लेने के साथ-साथ वह एक प्राइवेट इन्स्टीट्यूट से आशुलिपि का कोर्स भी पूरा करती रही। जैसे ही वह कोर्स पूरा हुआ, उसने एस.एस.सी. की परीक्षा दी और आज अपनी मेहनत की बदौलत सरकारी नौकरी कर रही थी।
नमिता के मौन ने चड्ढा को साहस प्रदान किया। उसने और ज्यादा चारा फेंका, ‘‘अगर तुम चाहोगी तो तुम्हारे भाई-बहन पढ़-लिखकर अच्छी सर्विस में आ जाएंगे। मैं उन्हें आगे बढ़ने में मदद करूंगा।’’
नमिता ने निमिष मात्र के लिए अपनी निगाहें उठाईं और चड्ढा के लाल-लाल फूले गालों वाले चेहरे पर टिका दीं। उसकी आंखों में ब्रह्माण्ड का सारा प्यार नमिता के लिए उमड़ रहा था, परन्तु इस प्यार में उसे चड्ढा के खतरनाक और कुत्सित इरादों का भी पता चल रहा था। ऐसे इरादे, जो एक खूंखार भेडि़ये की आंखों में भेड़ या बकरी को देखकर आते हैं।
‘‘हां, सच! तुम चिन्ता न करो, मैं तुम्हारे भाई-बहनों को गाइड करूंगा कि उन्हें प्रोफेशनल कोर्स करने चाहिए या सामान्य कोर्स करके प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से लोक सेवा में आना चाहिए। मैंने कई लोगों को गाइड किया है और आज कई लड़के ऊंची सरकारी नौकरी में पदस्थ हैं और मेरा आभार मानते हैं।’’
परन्तु नमिता के हृदय में चड्ढा के लिए ऐसे किसी भाव का संचार नहीं हुआ कि वह अपने मन को उसके साथ जोड़ सकती। उसके मन के किसी कोने में चड्ढा के प्रति प्रेम-भाव जागृत नहीं हुआ। उसके सामने बैठकर वह घुटन का अनुभव करती थी। वह निःस्पृह भाव से बैठी रहती थी... मजबूर थी। उठकर भाग नहीं सकती थी। काम करवाने के बहाने चड्ढा उसे देर तक बिठाए रखता। उलूल-जलूल बातें करके उसे बहलाने की कोशिश करता। उसकी बातों से नमिता के हृदय में न तो किसी प्रकार की मीठी अनुभूति होती थी, न उसके मन में किसी प्रेरणा का संचार। परन्तु चड्ढा को लगता था कि उसकी वाणी में ऐसा सम्मोहन है कि नमिता का जवान हृदय उसके अधेड़ हृदय की तरफ खिंचा चला आ रहा था। वह कल्पना में देखता कि जब दो हृदय आपस में टकराएंगे, तो एक भयानक विस्फोट होगा और... और एक आग लगेगी, एक ऐसी आग जो उन दोनों के तन-बदन को एक साथ समेट लेगी। उन दोनों के मिलन से वह भयंकर आग अपने आप बुझ जाएगी।
चड्ढा विस्फोट होने के पहले ही जलने लगा था।
नमिता के लिए कठिन परीक्षा की घड़ी थी। न तो वह चड्ढा को खुलकर मना कर सकती थी, न अपने मन की व्यथा किसी से कह सकती थी। खामख्वाह बदनामी होती... परन्तु उसकी चुप्पी का घातक परिणाम हुआ। कहते हैं कि चुप रहने से कई गंभीर दुर्घटनाएं टल जाती हैं, परन्तु प्यार और वासना के मामले में चुप्पी खतरनाक मोड़ पर आकर खत्म होती है।
चड्ढा की बातों का जब नमिता कोई जवाब न देती तो वह बोलता, ‘‘अच्छा तुम बोर हो रही हो। एक काम करो, चलो, एक डी.ओ. का डिक्टेशन ही ले लो।’’
नमिता जब तक अपना पैड और कलम संभालती, वह अपनी कुर्सी से खड़ा होकर मेज की दाहिनी तरफ आ जाता और कुछ सोचने का बहाना करते हुए नमिता की कुर्सी के बाएं सिरे पर आकर खड़ा हो जाता। फिर दाहिनी तरफ नमिता के बाएं कन्धे पर लगभग झुकते हुए कहता, ‘‘हां लिखो... माई डियर...’’ फिर एक पल की चुप्पी... चुप्पी के बाद... ‘‘नहीं यह छोड़ो, लिखो डियर श्री...’’ फिर चड्ढा की सुई लगभग अटक जाती और वह माई डियर या डियर श्री से आगे नहीं बढ़ पाता। यह शायद नमिता के सौन्दर्य या उसके सुगठित शरीर का कमाल था कि पल भर में ही चड्ढा की सांस फूलने लगती और वह नमिता की चिकनी पीठ को लालसा भरी निगाहों से ताकते हुए लंबी-लंबी सांसें लेने लगता। जब वह ज्यादा असंयत हो जाता तो कसमसाते हुए नमिता के सिर पर हाथ रखकर कहता, ‘‘हां, क्या लिखा...?’’ नमिता के शरीर में एक लिजलिजी लहर समा जाती। चड्ढा का हाथ धीरे-धीरे नमिता के नर्म बालों को सहलाता। वह ऐसा जाहिर करता जैसे पितृ भाव से किसी नादान बच्चे को प्यार-दुलार कर रहा हो, परन्तु यह उसका मन और नमिता का हृदय ही जानता था कि चड्ढा के मोटे खुरदरे हाथों से किस प्रकार के भाव प्रवाहित होकर नमिता के शरीर की शिराओं में एक घृणा का विष घोल रहे हैं।
नौकरी नमिता की मजबूरी थी, तो अधिकार और पद चड्ढा की उद्दण्डता और धृष्टता की पराकाष्ठा... दोनों का कोई मेल नहीं था, परन्तु अधिकार हमेशा मजबूरी पर हावी रहते हैं। इसके चलते भ्रष्टाचार, अनाचार और व्यभिचार जैसे अपराध समाज में पनपते हैं। मजबूरी को जब असीमित मात्रा में दबाया-कुचला जाता है तो जलजले के साथ-साथ भयानक तूफान आता है, जिसमें बहुत कुछ विनाशकारी घटित होता है। विनाश अच्छे-बुरे का कभी खयाल नहीं करता।
मजबूरी आदमी को अकल्पित और अपरिमित सीमा तक सहनशील बना देती है। नमिता के साथ भी यही हो रहा था। वह अपने बास की ज्यादतियों का शिकार हो रही थी, परन्तु उनका विरोध नहीं कर पा रही थी, न शब्दों से न हरकतों से... नतीजा ये हुआ कि चड्ढा के अनुभवी हाथ अब नमिता के सिर से होते हुए उसकी गर्दन को गुदगुदाने लगे थे और कभी-कभी उसके गालों तक पहुंच जाते थे। फिर कई बार उसकी पीठ को सहलाते, जैसे कुछ ढूंढ़ने का प्रयास कर रहे हों। उसकी ब्रेसरी के ऊपर हाथ रोककर उसके हुक को टटोलते हुए ऊपर से ही खोलने का प्रयास करते, परन्तु नमिता कुछ इस प्रकार सिकुड़ जाती कि चड्ढा अपने प्रयास में विफल होकर कुर्सी पर जाकर बैठ जाता और हताश स्वर में कहता, ‘‘निम्मी...’’ आजकल वह प्यार से उसे निम्मी कहने लगा था, ‘‘तुम कुछ हेल्प क्यों नहीं करती? तुम समझ रही हो न्... मैं क्या कहना चाहता हूं?’’ वह अपनी आंखों में आशाओं के असंख्य दीपक जलाकर उसकी तरफ देखता, परन्तु वह झटके से उठकर खड़ी हो जाती और सर्र से बाहर निकल जाती।
नमिता नासमझ नहीं थी, परन्तु चड्ढा अपनी हजार कोशिशों के बाद भी उसके मन में कोई कोमल भाव नहीं जगा सका। नमिता उसकी बेतुकी और अर्थहीन बातों को सुनकर भी अनसुना कर देती... उसके स्पर्श को बस की भीड़ में हुई धक्का-मुक्की समझकर भुलाने का प्रयास करती, परन्तु बस में होने वाले शारीरिक स्पर्श तथा चड्ढा के हाथों के सायास स्पर्श में जमीन आसमान का अन्तर था। वह चाहकर भी उसके स्पर्शों के लिजलिजेपन को भुला नहीं पाती थी और न इस संबन्ध को स्वीकार करने का मन बना पा रही थी।
रात-दिन वह विचारों के सागर में गोते लगाती रहती, परन्तु कोई किनारा उसे नज़र नहीं आ रहा था। इधर घर में उसकी शादी की बातें भी चलने लगी थीं। इस स्थिति में अगर वह किसी गलत रास्ते पर चल पड़ी या किसी ने जबरदस्ती उसके दामन में दाग लगा दिया तो क्या वह अपने आपको माफ कर सकेगी। क्या वह अपने मन को संभाल कर रख पाएगी? एक छोटी सी गलती उसके पूरे जीवन को तबाह कर सकती थी। किस मुसीबत में आकर वह फंस गई थी? क्या करे, क्या न करे? वह रात-दिन सोचती रहती। जब से चड्ढा ने उसकी पीठ को सहलाना शुरू किया था और उसके गालों को उंगलियों के बीच फंसाकर कभी धीरे से, तो कभी जोर से चिकोटी काट लेता, तब से वह और ज्यादा डरने लगी थी। चड्ढा अपनी समझ में बहुत कोमलता से उसके गालों पर चिकोटियां काटता था, परन्तु यह तो नमिता का हृदय ही जानता था कि उन चिकोटियों में कितनी पीड़ा छिपी होती थी। वह किस प्रकार इस पीड़ा को सहन करती थी, उसके सिवा और कौन जान सकता था।
चड्ढा जब इस तरह की हरकतें करता तो वह अपने शरीर को मेज पर टिका देती कि कहीं चड्ढा के हाथ उसके सीने की गोलाइयों को न लपक लें। वह हर संभव प्रयास करती कि चड्ढा उसके साथ कोई गलत हरकत न करने पाए, परन्तु शिकारी भेडि़ये के पंजे अक्सर उसके कोमल बदन को खरोंच देते।
एक दिन तो हद् हो गयी। चड्ढा ने उसके दोनों गालों पर हाथ फिराते हुए आगे की तरफ से ठोढ़ी और गर्दन को सहलाना शुरू कर दिया, फिर धीरे-धीरे हाथों को आगे बढ़ाते हुए उसके गालों की तरफ झुक आया। जब उसकी गर्म सांसें नमिता के बाएं गाल से टकराईं तो वह चौंकी, झटके से बाईं तरफ मुड़ी, तो चड्ढा का मुंह सीधे उसके होंठों से जा लगा। उसने भूखे भेडि़ये की तरह नमिता के दोनों होंठ अपने मुंह में भर लिए और चुभलाने लगा। इसी हड़बड़ी में उसके हाथ नमिता के सीने के दोनों उभारों को मसलने लगे। पल भर के लिए वह हतप्रभ सी रह गयी। जब उसकी समझ में आया तो उसने झटका देकर अपने आपको चड्ढा के चंगुल से छुड़ाया और धक्का देकर उसे पीछे किया। चड्ढा के लिए यह धक्का अचानक और अनायास था, अतः वह पीछे हटते हुए मेज से टकराया और गिरते-गिरते बचा।
नमिता कमरे से बाहर हो चुकी थी। अपनी सांसें संयत करने में उसे बहुत देर लगी। उसकी आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया था। उसका दिल और दिमाग दोनों सुन्न से हो गए थे। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे वह? उधर चड्ढा अपनी सांसों को संयत करते हुए मन ही मन खुश हो रहा था कि एक मंजिल उसने हासिल कर ली थी, अब अंतिम मंजिल हासिल करने में कितनी देर लग सकती थी।
नमिता के पास अब दो ही रास्ते बचे थे। या तो वह नौकरी छोड़ देती या चड्ढा के साथ समझौता करके उसके साथ नाजायज रिश्ता बना लेती। पहला रास्ता आसान नहीं था, और दूसरा रास्ता अपनाने से न केवल बदनामी होती; बल्कि उसका भावी जीवन भी तबाह हो सकता था। इस रिश्ते का असर उसकी मानसिक स्थिति पर तो पड़ता ही, भविष्य में उसका दाम्पत्य और पारिवारिक जीवन भी नष्ट हो सकता था। जो रिश्ता समाज को स्वीकार्य नहीं था, उस रिश्ते के साथ जुड़कर वह समाज को किस तरह अपना मुंह दिखलाती। ऐसे रिश्तों से कभी भी मनुष्य सुखी नहीं रहता।
द्विविधा, संशय और अनिर्णय की स्थिति किसी भी व्यक्ति की मानसिक सुख-शांति छीन लेती है। इसका असर उसके तन-बदन पर पड़ने लगता है। यही स्थिति नमिता की भी थी। नौकरी करते हुए वह चड्ढा की ज्यादतियों और बेजा हरकतों से अपने को किसी भी प्रकार नहीं बचा सकती थी। दूरी बनाकर भी कितना रखती। वह उसका ही नहीं, पूरे कार्यालय का बास था। नमिता ने काफी सोच-समझकर एक निर्णय लिया। अब जब भी बास उसे अपने कमरे में बुलाता, वह जान-बूझकर देरी से जाती। बार-बार कहने के बावजूद भी कुर्सी पर नहीं बैठती, बल्कि खड़ी ही रहती; ताकि जैसे ही बास अपनी कुर्सी से उठकर खड़ा हो और उसकी तरफ बढ़े, वह दरवाजे की तरफ सरक जाए और वह नमिता को पकड़ न सके। वह हरदम चौकन्नी रहती। अब वह सिर नीचा करके भी खड़ी नहीं होती थी, बल्कि चौकन्नी आंखों से अपनी पलकें इधर-उधर घुमाती रहती।
नमिता की इन सावधानियों से भूषण राज चड्ढा नमिता के अन्तर्मन को समझ गया। वह चालाक भेडि़या था और अपने जीवन में तमाम भेड़ों को अपना शिकार बना चुका था।
चड्ढा ने अपना पैंतरा बदला, अब वह नमिता को किसी सेक्शन से कोई फाइल लेकर आने के लिए कहता। वह फाइल को लेकर आती तो कहता, ‘‘देखो इसमें एक पत्र लगा होगा, पिछले महीने हमने मुंबई आफिस से कुछ जानकारी मांगी थी। उसका जवाब अभी तक नहीं आया है। एक रिमाइन्डर बनाकर लाओ, बना लोगी?’’ वह थोड़ा तेज आवाज में कहता, जैसे धमकी दे रहा हो।
नमिता जानती थी कि यह काम संबन्धित विभाग के क्लर्क का था, उस विभाग के मुख्य लिपिक और कार्यालय अधीक्षक का था। नमिता का किसी भी दृष्टिकोण से उस विभाग या उसकी किसी फाइल से संबन्ध नहीं था, परन्तु चड्ढा जान बूझकर उसे तंग करने के यह काम सौंप रहा था; ताकि काम न कर पाने के लिए वह उसे डांट-डपट सके। वह चड्ढा की चाल समझ रही थी, अतः उस ने मना भी नहीं किया और ‘‘मैं कर लूंगी सर!’’ कहती हुई बाहर निकल गयी।
चड्ढा पीछे से अपनी कुटिल मुस्कान के साथ नमिता के पृष्ठ भाग को जिन्दा निगल जाने वाले भाव से देख रहा था। मन ही मन वह सोच रहा था, ‘कहां तक उड़ोगी मुझसे? पंख काटकर रख दूंगा। घोंसला तो इसी वृक्ष पर है तुम्हारा! कभी न कभी फन्दे में आओगी ही। शिकारी बाज से आज तक कोई चिडि़या बच पाई है!’
नमिता ने धैर्य से काम लिया। वह संबन्धित अनुभाग के अधीक्षक के पास गई, अपनी समस्या बताई। कार्यालय अधीक्षक समझदार था। उसने नमिता का रिमाइन्डर तैयार करवा दिया। वह खुशी-खुशी फाइल के साथ रिमाइन्डर लेकर चड्ढा के चेम्बर में घुसी। वह किसी फाइल पर झुका हुआ था, चश्मा नाक पर लटकाकर उसने आंखें उठाईं और त्योरियां चढ़ाकर पूछा, ‘‘हूं, तो रिमाइन्डर बन गया?’’
‘‘जी सर! देख लीजिए,’’ वह आत्मविश्वास से बोली। उसकी अंग्रेजी और टाइपिंग दोनों अच्छी थीं। तत्थ्यात्मक गलतियां हो नहीं सकती थीं, क्योंकि कार्यालय अधीक्षक ने स्वयं मदद की थी। चड्ढा ने सरसरी तौर पर पत्र को देखा और घुड़ककर बोला, ‘‘तो ऐसे बनाया जाता है रिमाइन्डर? तुम्हें कोई अकल भी है। ये देखो, ये फीगर गलत है। ये कालम सही नहीं बना है। इसका प्रेजेन्टेशन सही नहीं है, और यह कौन से फान्ट में टाइप किया है... जाओ, दुबारा से बना कर लाओ, वरना समझ लो, अभी प्रोबेशन में हो। मन लगाकर काम करो, वरना जिन्दगी भर इसी ग्रेड में पड़ी रहोगी। कभी प्रमोशन नहीं मिलेगा।’’
नमिता कुछ देर तो सहमी खड़ी रही। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ड्राफ्ट में क्या गलती थी। कार्यालय अधीक्षक अनुभवी थे। उन्होंने खुद सारे फीगर्स चेक किये थे। नमिता ने स्वयं टाइप किया था। उसमें कोई गलती नहीं थी। वह लगभग रुआंसी हो गई। दो साल तक चड्ढा ने भले उससे एक पैसे का काम नहीं लिया था, परन्तु बातें बहुत मीठी की थीं। अब अचानक उसके व्यवहार में आए इस परिवर्तन से नमिता स्तब्ध थी। इस परिवर्तन का कारण उसे पता था, परन्तु वह हैरान इस बात से नहीं थी। वह हैरान इस बात पर थी कि मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए किस कदर तक मीठा और विनम्र हो सकता है। परन्तु जब उसकी स्वार्थपूर्ति नहीं होती है तो वह किस हद तक नीचता पर उतर सकता है और दूसरे व्यक्ति को परेशान करने के हथकण्डे अपना सकता है। आदमी समय-समय पर न जाने कितने रूप धरता है? यह सारे रूप वह अपने स्वार्थ और परिस्थिति के अनुरूप बदलता रहता है।
अब यह रोज का नियम बन गया था। चड्ढा उसे रोज कोई न कोई जटिल काम बता देता। वह सही ढंग से काम कर भी देती, तब भी उसके काम में नुक्श निकालता, जोर-जोर से सबके सामने उसे डांटता, भद्दी और गंदी बातों से उसको जलील करता। कई बार नमिता रो पड़ती, परन्तु चड्ढा जैसे इस बात पर तुला हुआ था कि ऐन-केन प्रकारेण नमिता के सौन्दर्य और अथाह यौवन का रसपान उसे करना ही था। घी अगर सीधी उंगली से नहीं निकल रहा था, तो टेढ़ी उंगली से निकलेगा ही। वह अगर मान जाती तो आज ऐसा दिन क्यों आता। चड्ढा अपने मन की कर लेता तो नमिता को इस तरह दुःख के सागर में गोते क्यों लगाने पड़ते? क्यों वह अपने फूल से कोमल तन को झुलसाती धूप में तपाती और सबके सामने जलील होती? परन्तु नमिता चड्ढा की तरह समझदार नहीं थी।
यह एक चूहे बिल्ली की लड़ाई थी। भेडि़ये और भेड़ के बीच जीवन और मृत्यु का प्रश्न था। भेडि़या चालाक था, उसके पास शक्ति और अधिकार थे। इनके मद में वह चूर था, परन्तु भेड़ ने भी तय कर लिया था कि यथाशक्ति, यथायुक्ति और यथासंभव वह अपना बचाव करेगी। भेडि़ये के खूंखार पंजों और दांतों के बीच में फंसकर अपना जीवन बर्बाद नहीं करेगी। इसी अंतर्द्वंद में वह फंसी थी और अपने सौन्दर्य रूपी फूलों की पंखुडियों को दिनोदिन सुखाती जा रही थी।
‘‘तो ये है तुम्हारी परेशानी का कारण!’’ प्रीति ने लंबे निश्वास के साथ कहा, ‘‘समस्या जटिल है... तो क्या सोचा है तुमने? क्या तुम समझती हो इस तरह की लड़ाई से तुम स्वयं को बचा पाओगी? असंभव है... मैंने इस दफ्तर में लगभग दस साल गुजारे हैं। मैं उसकी एक-एक हरकत से वाकिफ हूं। मैं जब यहां आई थी, तब शादी-शुदा थी। चड्ढा केवल कुंआरी लड़कियों पर नजर डालता है। दस सालों में मैंने बहुत कुछ देखा है... कितनी लड़कियों को मैंने यही पर परिस्थितियों से समझौता करते हुए देखा है, कितनी तो जबर्दस्ती उसकी हवस का शिकार हुई हैं। जो नौकरी छोड़कर चली गईं, उनकी बात अलग थी। वह बच गईं या उनको किसी दूसरी जगह ऐसे ही किसी भेडि़ये का सामना करना पड़ा था, कह नहीं सकती।’’
‘‘मेरे लिए नौकरी और आत्मसम्मान दोनों ही जरूरी हैं। मैं दोनों में से किसी को खोना नहीं चाहती। नौकरी जाने से मेरे मां-बाप, भाई और बहन के जीवन पर असर पड़ेगा। आत्म-सम्मान खो दिया, तो फिर मेरे जीने का क्या मकसद... फिर तो नौकरी और आत्मसम्मान दोनों त्यागकर वैश्यावृत्ति ही अपना लूं। उसमें ज्यादा कमा सकती हूं। सुखी और स्वछन्द भी रहूंगी।’’ नमिता के स्वर में हताशा टपक रही थी।
‘‘छी, ऐसी बात क्यों सोचती हो?’’ प्रीति ने उसके हाथ को थामते हुए कहा, ‘‘इस तरह निराश होने से काम नहीं चलेगा। क्या तुम किसी लड़के को प्यार करती हो?’’
नमिता ने चौंकती नज़रों से प्रीति को देखा। उसके इस अचानक प्रश्न का मतलब नहीं समझी। फिर सिर झुकाकर बोली ‘‘उस हद तक नहीं कि उससे शादी कर लूं। कालेज में इस तरह के प्यार हो जाते हैं, जिनका कोई गंभीर अर्थ नहीं होता। बस एक दूसरे के प्रति आकर्षण होता है। ऐसा ही पहले कुछ था... दो एक लड़कों के साथ, परन्तु अब नहीं, लेकिन आपने क्यों पूछा?’’
‘‘यही कि शिद्दत से किसी को प्यार करने वाली लड़की के कदम जल्दी किसी और राह पर नहीं चलते। मैं ऐसा समझ रही थी, शायद तुम अपने प्यार की खातिर चड्ढा के मन-मुताबिक नरम-दिल नहीं हो पा रही हो, वरना रुपये-पैसे के साथ-साथ जवानी का मजा कौन लड़की नहीं उठाना चाहती।’’
नमिता के सीने पर जैसे किसी ने ठूंसा मार दिया हो, वह कराहती हुई बोली, ‘‘तो क्या मैं चड्ढा की जांघों के नीचे लेट जाती। क्या किसी को प्यार न करने वाली लड़की इज्जतदार नहीं होती। और वह अपना सतीत्व जिस-तिस के साथ बांटती फिरती है, कुछ पैसों के लिए।’’
प्रीति ने तुरन्त एतराज किया, ‘‘नहीं, नहीं, मेरा यह मतलब नहीं... मैं एक आम बात कह रही थी। तुम्हारे जैसी दृढ़ चरित्र की लड़कियां आजकल कहां मिलती हैं। आज बाहर की दुनिया में इतनी चमक है और पैसों की इतनी खनक है कि इस सबके लिए कोई भी लड़की अपनी अस्मत बेचने के लिए आमादा रहती है। तुम बुरा मत मानो, मैं सच कहती हूं, आजकल की पढ़ी-लिखी लड़कियों के लिए कौमार्य और सतीत्व बेकार के शब्द हैं। मौज-मस्ती करना, ढेर सारा रुपया कमाना, चाहे जिस रास्ते से, और समाज में एक हैसियत बनाना उनका मकसद होता है। वह यह मानकर चलती हैं कि अगर आपके पास रुपया-पैसा है, रुतवा और हैसियत है, तो समाज में इज्जत है। आप सबके सामने सर उठाकर ही नहीं, गर्व से सीना तानकर चल सकते हैं, वरना कोरे सतीत्व और ढंके-मुंदे इज्जतदार बदन की यहां क्या कीमत है?’’
‘‘मैं उलझ सी गई हूं, मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं?’’ नमिता ने अपने हाथ मलते हुए कहा।
‘‘तू बच्ची है, आगे जीवन में तुझे पता नहीं किन-किन भेडि़यों का सामना करना पड़ेगा। पता नहीं कितने शिकारी रास्ते में जाल बिछाये तेरे हुस्न और जिस्म को नोचने के लिए छिपे बैठे होंगे। तू किस-किस से अपने को बचायेगी?’’ प्रीति ने कहा।
नमिता सचमुच उलझकर रह गयी थी। प्रीति की बातों से उसे और ज्यादा उलझन हो रही थी। उसकी बातों में आशा की कोई किरण नहीं दिखाई पड़ रही थी। ऐसा लग रहा था, जैसे प्रीति उसे हालात से समझौता करने की सलाह दे रही थी। क्या वह चड्ढा से मिली हुई थी और उसे बरगलाने तथा उसके ईमान को डिगाने के लिए इस तरह की बदहवाश और हताश कर देने वाली बातें कर रही थी।
नमिता की आंखों में सागर उमड़ने को बैचेन दिख रहे थे। उसने निरीह भाव से प्रीति की तरफ देखा। प्रीति मुस्कुरा पड़ी। बोली, ‘‘हताश होने की जरूरत नहीं है, भगवान किसी को भी इतना निरीह नहीं बनाता कि उसके जिन्दा रहने के सारे रास्ते बन्द कर दे। जो आशा का दामन विपरीत परिस्थितियों में भी थामें रहते हैं, वह अपना लक्ष्य अवश्य प्राप्त करते हैं।’’ प्रीति ने उसका हौसला बढ़ाया।
प्रीति की बातों से नमिता को भले ही कोई राहत न मिली हो, परन्तु बाद में उसने जो सलाह दी, उससे नमिता को धुंधले अन्धेरे में रोशनी की किरण दिखाई देने लगी। फिर भी एक संशय बना रहा। नमिता ने पूछा, ‘‘अगर मैं तबादले का आवेदन देती हूं तो उसे आफिस में ही देना पड़ेगा न! तब ये चड्ढ़ा का बच्चा क्यों उसे आगे भेजेगा?’’
‘‘बात तो तुम्हारी सही है, परन्तु एक रास्ता फिर भी है। आवेदन की एक प्रति हम पंजीकृत डाक से सीधे डायरेक्टर को भेज सकते हैं। दूसरी प्रति प्रापर चैनेल के माध्यम से भेजने के लिए आफिस में दे देंगे। झक मार कर उसे मुख्यालय भेजना पड़ेगा।’’ प्रीति ने बताया।
दोनों ने बहुत सोच-समझकर एक-एक शब्द चुनकर तबादले का आवेदन बनाया। एक प्रति डाक से मुख्यालय भेज दी, हालांकि वह दिल्ली में ही था। दूसरी प्रति उसी दिन उसने आफिस में जमा कर दी... धड़कते दिल से कि जब उसका आवेदन चड्ढा के समक्ष प्रस्तुत होगा तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? क्या वह भड़क उठेगा और उसे बुलाकर अनाप-शनाप कुछ सुनाएगा या फिर शांत रहकर कोई ऐसी चाल चलेगा कि नमिता धराशायी हो जाएगी और उसकी आशाओं पर पानी फिर जाएगा।
उस सारे दिन नमिता बहुत बैचेन रही। सहकर्मियों से बातें करती थी, परन्तु मन कहीं और अटका हुआ था। न उसके दिल की धड़कन की रफ्तार कम हो रही थी, न उसकी बैचेनी। रह रहकर मन की सारी ग्रंथियां भूषण राज चड्ढा के इर्द-गिर्द घूमने लगती थीं।
दुष्ट आदमी चाहे ऊपर से कितना ही मीठा दिखाई देता हो, प्यारी-प्यारी बातें करता हो, परन्तु अपनी दुष्टता से कभी बाज नहीं आता। नमिता के आवेदन को देखते ही चड्ढा की नसों में खून की जगह आग प्रवाहित होने लगी। वह अन्दर ही अन्दर सुलग उठा। थोड़ी देर बाद उसने नमिता को अपने कक्ष में बुलाया। वह डरती-कांपती उसके सामने पहुंची... एक चिडि़या बाज के मुंह के सामने खड़ी थी।
अर्थपूर्ण नजरों से नमिता के सारे बदन को नंगा करता हुआ चड्ढा बोला, ‘‘तो उड़ने का ख्वाब देख रही हो।’’
‘‘.....’’ वह अपनी आंखें नहीं उठा पा रही थी।
‘‘तुम यह आवेदन देने के पहले यह क्यों भूल गयी कि तुम्हारी स्थिति पिंजरे में कैद पंक्षी की तरह है। बाज तुम्हारी रखवाली कर रहा है। पिंजरे का द्वार खुल भी जाएगा तो बाज की तेज निगाहों और उसकी तीव्र गति से स्वयं को कैसे बचा पाओगी?’’
नमिता की रूह कांप कर रह गयी। उसकी आंखों के सामने अन्धेरा सा छाता जा रहा था। कुछ समझ में नहीं आया तो लजरती आवाज में उसने दया की भीख मांगी, ‘‘मैं आपकी बेटी जैसी हूं, मुझ पर दया कीजिए।’’
‘‘हुंह, दया... क्या तुम मुझ पर दया कर सकती हो? बोलो, तुम भी एक लड़की हो, तुम्हारे पास भी भावनाएं और संवेदनाएं हैं। क्या तुम मेरे दिल का हाल नहीं समझ सकती? तुम अपनी थोड़ी सी दया और प्रेम की एक छोटी बूंद मेरे ऊपर टपका दो, फिर देखो, मैं तुम्हारे ऊपर दया की इतनी वर्षा करूंगा कि तुम्हारा जीवन धन्य हो जाएगा। बोलो मंजूर है।’’ वह हंसा।
नमिता के पास उसकी बात का कोई जवाब नहीं था। वह चुपचाप बाहर निकल आई। चड्ढा की कुटिल हंसी देर तक उसका पीछा करती रही।
नमिता को मुख्यालय में बैठे वरिष्ठ अधिकारियों पर पूरा भरोसा था। वह उन्हें जानती नहीं थी, परन्तु इतना अवश्य समझती थी कि वहां के सारे अधिकारी पत्थरदिल नहीं हो सकते थे। हर अधिकारी चड्ढा की तरह क्रूर और दुष्ट नहीं हो सकता। जब उसका आवेदन मुख्यालय पहुंचेगा तो संबंधित अधिकारी उस पर सहानुभूति पूर्वक विचार अवश्य करेंगे। भगवान पर भी उसे पूरा भरोसा था। आजकल कुछ ज्यादा ही हो गया था। सुबह-शाम घर में साईं बाबा की पूजा करती थी। दफ्तर आते समय भी लोदी रोड पर स्थित साईं मन्दिर में मत्था टेकने के लिए जरूर रुकती। इतनी श्रद्धा और भक्ति के बाद भी क्या भगवान उसकी रक्षा नहीं करेंगे?
कई दिन बीत गए। दिनों दिन नमिता की चिन्ता बढ़ती जा रही थी। इस चिन्ता में वह आफिस का काम भी ढंग से न कर पाती। उसकी कुशलता और क्षमता खत्म होती जा रही थी। काम में कोई न कोई गलती कर देती। चड्ढा उसकी मनोस्थिति समझ रहा था। नमिता अभी नैतिकता और मर्यादा की बाढ़ में बह रही थी। वह जानता था कि बाढ़ का पानी एक न एक दिन कम होगा। वह स्थिर और मंथर गति से प्रवाहमान होगा, तब नमिता उसकी बांहों में होगी और वह आसमान की तरह उसे अपने साए में समेट लेगा।
नमिता की परेशानी के मद्देनज़र उस ने उसे एक दिन समझाते हुए कहा, ‘‘क्यों अपनी जान सुखा रही हो? कंचन काया को पत्थर मत बनाओ। अभी मैंने तुम्हारा आवेदन आगे नहीं भेजा है। मेरा कहना मान लो, तुम्हारा कुछ बिगड़ेगा नहीं... औरत का इन संबंधों से कुछ बिगड़ता भी नहीं है। बल्कि वह और ज्यादा खुश रहने लगती हैं। इतनी छोटी सी बात तुम्हारी समझ में क्यों नहीं आ रही है? सुन्दरता, यौवन और धन का एक ही उपयोग होता है, भोग करना। इनको संचित करके रखोगे तो विनाश ही होगा।’’
नमिता फिर भी नहीं समझी। वह समझकर भी नहीं समझना चाहती थी।
एक महीने बाद उसे पता चला कि बास ने उसका आवेदन मुख्यालय अग्रसारित तो कर दिया है, परन्तु अनुशंसा में जो कुछ लिखा है, उसे सुनकर नमिता के पांवों तले की जमीन ही खिसक गई। वह व्यक्ति जो उसको प्यार करने का दावा करता था, उसके सुन्दर शरीर का उपभोग करना चाहता था, उसके अनुपम सौन्दर्य से स्वयं को रससिक्त करके अनुकंपित होना चाहता था, उसके मन में नमिता के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने और उसे पूरी तरह से बर्बाद कर देने के लिए ये विचार किस प्रकार आए होंगे, यह नमिता जैसी कमसिन, दुनियादारी की समझ न रखने वाली, अल्हड़ लड़की की समझ से परे था।
प्रीति ने फाइल देखने के बाद उसे बताया था कि बास ने उसके आवेदन पर मन्तव्य दिया था कि वह कामचोर थी, अपना काम ढंग से नहीं कर पाती थी। अंग्रेजी अच्छी नहीं थी। स्टेनोग्राफर होने के बावजूद डिक्टेशन नहीं ले पाती थी। टाइपिंग में भी ढेर सारी गलतियां करती थी, जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता था। उसे सुधारने और ढंग से काम करने के तमाम अवसर मुहैया कराए गये, परन्तु वह अपने कार्य में आवश्यक सुधार लाने के बजाय और ज्यादा लापरवाही बरतने लगी थी। शायद वह किसी अनजान लड़के के प्यार में गिरफ्तार थी, जिससे हमेशा मोबाइल पर बातें करती रहती थी। काम में मन न लगाने का यह भी एक बड़ा कारण था। आगे बास ने लिखा था कि समझाने के साथ-साथ उसे काम में सुधार लाने के तरीके भी सुझाए गये थे, परन्तु सारे प्रयत्न विफल हो गये और नमिता में आवश्यक सुधार नहीं आने के बाद उसे चेतावनी दी जाने लगी, जिससे घबराकर उसने दूसरे कार्यालय में अपने तबादले के लिए आवेदन दिया था। यहां तक जो कुछ बास ने लिखा था, वह सत्य तो नहीं था और उससे नमिता का कोई नुकसान भी नहीं होने वाला था। लेकिन अन्तिम भाग विष्फोटक था, जिसे सुनकर नमिता के होश उड़ गये थे। चड्ढा ने लिखा था -
‘‘सरकारी कार्य में अनियमिता और लापरवाही बरतने, निपुणता और निष्ठा में कमी एवं अनुशासनहीनता के कारण मैं मिस नमिता के विरुद्ध अनुशासनात्मक विभागीय कार्रवाई की अनुशंसा करता हूं। इसके अतिरिक्त जब तक विभागीय कार्रवाई समाप्त न हो जाए, मिस नमिता का किसी और कार्यालय में स्थानान्तरण न किया जाए; ताकि अनुशासनात्मक कार्यवाई सुचारू रुप से संपन्न हो सके।’’
नमिता की उम्मीद के सारे चराग बुझ गये। दफ्तर के सारे कर्मचारियों की सहानुभूति उसके साथ थी, परन्तु वह भी नमिता की तरह लाचार थे। बास के दुष्ट स्वभाव, गन्दी हरकतों और भेडि़ये जैसी चालाकी से परिचित थे। वह निरंकुश था, परन्तु उच्चाधिकारियों को अपनी मुट्ठी में कर रखा था। बेईमान था, परन्तु अकेला सब माल हजम नहीं करता था। पैसे के बल पर सभी को उसने अपने वश में कर रखा था। सालों से एक ही दफ्तर में जमा हुआ था। जिसके बारे में जो कुछ लिखता था, हेड आफिस के अधिकारी तुरन्त उसे मान लेते थे। नमिता के मामले में भी यही हुआ। उसकी अनुशंसा तुरन्त मान ली गई थी। शायद उसने खुद जाकर डायरेक्टर से मुलाकात करके उन्हें उल्टा-सीधा समझा दिया था। एक हफ्ता भी न बीता कि हेड आफिस से नमिता के आवेदन का जबाव आ गया। उसके तबादले के निवेदन को निरस्त करते हुए उसके खिलाफ विभागीय जांच प्रांरभ कर दी गई थी और मजे की बात ये कि जांच अधिकारी भूषण राज चड्ढा को नियुक्त किया गया था। जिसने शिकायत की थी, वहीं जांच अधिकारी... लोकतन्त्र का अच्छा मजाक था।
मानसिक रूप से नमिता इतना थक चुकी थी कि वह लगभग बीमार रहने लगी थी। दो-तीन दिन वह दफ्तर नहीं आई। परन्तु उससे क्या फायदा होता? बीमारी के बहाने वह कितनी छुट्टी ले सकती थी। अन्ततः छुट्टी भी तो चड्ढा को ही मंजूर करनी थी। वह कोई और अड़ंगा लगा देता तो... तो नमिता के हाथ में क्या था? वह क्या कर सकती थी?
तीन दिन तक छुट्टी में रहने पर उसने बहुत कुछ सोचा, और बहुत कुछ समझने की कोशिश की। घर में किसी से बात नहीं की, परन्तु अपने जीवन और वर्तमान परिस्थितियों का गहराई से मनन किया। जीवन में आदमी कितना खोता है, कितना पाता है। यह उसके कर्मों पर निर्भर करता है। अगर वह कुछ खोता है, तो अपनी गलती से और वह अपनी गल्तियों से कितना सीखता है, यह भी उसी के ऊपर निर्भर रहता है। वह गल्तियां नहीं भी करता है, तो भी जीवन किस हद तक उसके प्रति कठोर हो सकता है, यह नमिता अच्छी तरह से देख रही थी। नमिता ने कोई गलत काम नहीं किया था, परन्तु वह बुरे दौर से गुजर रही थी। उसकी केवल एक ही गल्ती थी कि वह एक लड़की थी, वह भी सुन्दर और वह ऐसे समाज में पैदा हुई थी, जहां हर व्यक्ति खूबसूरती को नोचने और बर्बाद करने के लिए तत्पर रहता है।
परन्तु क्या ज्यादतियों की कोई सीमा नहीं है... उसकी भी कोई सीमा होगी। कोई किसी पर कितना जुल्म कर सकता है। हम जुल्म सहते चले जाते हैं, इसीलिए हमें और ज्यादा जुल्मों का सामना करना पड़ता है। अगर हम उसका मुकाबला करें, तो शायद इससे छुटकारा मिल जाए। तुरन्त नहीं तो थोड़े समय बाद... तो फिर हम मुसीबतों का सामना क्यों नहीं करते? क्यों हम थोड़ी सी परेशानी आने पर घबराकर अपने कर्तव्यों से च्युत हो जाते हैं? परेशानी में पड़कर हम अपना जोश और होश क्यों खोएं। निष्ठा और ईमानदारी से अगर हम अपना कार्य करते रहें, तो भी क्या परेशानियां हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगी? छोड़ेंगी, जरूर छोड़ेंगी... उसने अपने मन में सोचा।
जब वह तीन दिन बाद वापस आई तो कुछ प्रफुल्लित लग रही थी। मन को काफी हद तक संयत कर लिया था, स्वयं को समझा लिया था कि चिन्ता करने से किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता था। स्थिर दिमाग से हर समस्या का निदान संभव था... उचित या अनुचित... यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम कौन सी स्थिति स्वीकार करते हैं।
प्रीति ने उसे समझाया, ‘‘देखो, नमिता, स्थिति अब गंभीर हो चुकी है। भेडि़ये को ही अगर भेड़ की रखवाली के लिए नियुक्त किया जाय तो तुम समझ सकती हो कि भेड़ का क्या हश्र होगा। यहां तो भेडि़ये को भेड़ के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कहा गया है। बताओ, भेडि़ये का स्वभाव क्या है? ...शिकार करना... जब भेड़ उसके सामने है और शिकार करने के लिए वह स्वतन्त्र है, तो वह इसके सिवा और क्या करेगा। वह तुम्हारी सुरक्षा किस प्रकार करेगा? यह उसका स्वभाव नहीं है।’’
‘‘तब...?’’ नमिता ने एक याचक की तरह प्रीति को देखा, शायद वह कोई राह बता सके। प्रीति पर वह अत्यधिक विश्वास करने लगी थी।
‘‘समझदारी से काम लो... अगर तुम नौकरी छोड़ती हो या जांच के बाद तुम्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है, तो दोनों में फर्क क्या है? दोनों स्थितियों में तुम बेरोजगार हो जाओगी। तब तुम्हारे घर का सुख-चैन, दो जून की रोटी, भाई बहनों की शिक्षा, तुम्हारी शादी, एक सुखमय जीवन... सब खटाई में पड़ जाएगा।’’ प्रीति बहुत धीरे-धीरे उसे समझाने के अंदाज में बता रही थी।
आगे वह बोली, ‘‘अगर तुम्हारी नौकरी बनी रहेगी, तो सारी सुख-सुविधायें तुम्हारे कदमों पर बिछी रहेंगी। तुम्हारी सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा, भौतिक इच्छाओं की पूर्ति होती रहेगी, अच्छे घर में शादी हो जाएगी और क्या चाहिए तुम्हें?’’
नमिता की समझ में नहीं आया कि वह अपनी नौकरी कैसे बचा सकती थी?
प्रीति स्वयं ही बताने लगी, ‘‘तुम नौकरी छोड़ दोगी, तो दूसरी नौकरी जल्दी कहां मिलेगी? वह भी सरकारी नौकरी... प्राइवेट नौकरी भले ही मिल जाए। फिर इस बात की क्या गारण्टी कि नए दफ्तर में भूषण राज जैसे जवान, सुन्दर और कमसिन काया के शौकीन नहीं होंगे। हर जगह एक ही स्थिति है, नमिता। मानव रूपी मगरमच्छ हर जगह मुंह खोले जवान लड़कियों को निगलने के लिए तत्पर रहते हैं। मेरा कहना मानो, तो समझौता कर लो। सारे संकट एक ही झटके में दूर हो जाएंगे। किसी को पता भी नहीं चलेगा। शारीरिक सुख के साथ-साथ अन्य सुख भी तुम्हारी झोली में भर जाएंगे, नौकरी भी बची रहेगी।’’
नमिता का सन्देह सच में बदल गया। कई बार उसे शंका होती थी कि प्रीति उसे किसी न किसी जाल में फंसाएगी... वह चड्ढा की दलाल थी। उसने शंकित नजरों से प्रीति को देखा, तो वह हल्के से मुस्कुरायी, ‘‘तुम अपने मन में कोई शंका मत पालो। उससे तुम्हारी समस्या का समाधान नहीं होगा। तुम मुझे भले ही बुरा समझो, परन्तु इसमें तुम्हारी ही भलाई है। सोचो, सुन्दरता और जवानी का क्या उपयोग....? यह सुख देने के लिए होती है, न कि दुःख... तो फिर तुम सुख का रास्ता क्यों नहीं अपनाती?’’
नमिता की अक्ल के ताले खुल गये थे। वह अच्छी तरह समझ गई थी कि इस दुनिया में पुरुष ही नहीं, औरतें भी एक-दूसरे की दुश्मन होती हैं। कौन किस चरित्र का है, पता ही नहीं चलता। सभी मनुष्य का भेष धरे रहते हैं, परन्तु उन में कोई भेडि़या, तो कोई सांप होता है। औरतें कब नागिन बनकर किसी को डस लें, पता ही नहीं चलता। कई औरतें लोमड़ी की तरह चालाक होती हैं, जो बरगलाकर भेड़ जैसी औरतों को भेडि़ये के चंगुल में फंसाती है। नमिता बहुत कुछ समझ चुकी थी। वह मजबूर थी, परन्तु उस मजबूरी के बीच से भी वह अपना बचाव कैसे कर सकती थी, यह वह समझ चुकी थी। उसके एक दृढ़ निश्चय किया और परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार हो गई।
प्रीति अभी तक उसके दिमाग की सफाई करने में जुटी हुई थी, ‘‘औरत और मर्द के सम्बन्ध में किसी का कुछ नहीं बिगड़ता, परन्तु सुख दोनों को प्राप्त होता है... तुम समझ रही हो न! जाकर एक बार चड्ढा से माफी मांग लो। जैसा वह कहे, कर दो। जांच भी खतम हो जाएगी और तुम्हारे चेहरे की पहले वाली रौनक एवं सुन्दरता फिर से लौट आएगी। फिर वही मोहक हंसी तुम्हारे गुलाबी होंठों पर नृत्य करेगी।’’
अब किसी और प्रवचन की नमिता को जरूरत नहीं थी। वह झटके से उठी और धीरे-धीरे कदमों से चड्ढा के कमरे में प्रवेश कर गई। आज न तो उसके मन में डर था, न वह कांप रही थी। उसकी आंखें भी झुकी हुई नहीं थीं। वह सीधी चड्ढा की आंखों में देख रही थी। पहले तो वह चौंका, फिर नमिता के दृढ़ चेहरे को देखकर हौले से मुस्कुराया और कुर्सी से उठकर बोला -
‘‘आओ, आओ, निम्मी! कैसी हो?’’ उसके मुंह से लार टपकने लगी थी।
‘‘मैं ठीक हूं!’’ उसने सपाट स्वर में कहा, ‘‘मैं आप से माफी मांगने आई हूं, उस सबके लिए, जो अभी तक हुआ है और उस सबके लिए, जो अभी तक नहीं हुआ, परन्तु कभी भी हो सकता है।’’ उसका अन्दाज ऐसा था, जैसे वह कह रही हो- ‘चड्ढा साहब! मैं आपको देखने आई हूं कि कितने खूंखार भेडि़ये हैं आप! किस तरह आप औरत के शरीर को खाते हैं, नोंचकर या समूचा... चलिए दिखाइए अपनी ताकत!’
भेडि़ये की खुशी का ठिकाना न रहा। शिकार अपने आप उसके जाल में फंस गया था। वह अपनी जगह से उठा और इस तरह अंगड़ाई ली, जैसे वह अच्छी तरह जानता था कि अब शिकार उसके पंजे से बचकर कहीं नहीं जा सकता था। उसे अपनी चालों पर पूरा भरोसा था। वह धीरे-धीरे मुस्कुराते हुए आगे बढ़ रहा था। भेड़ को डर नहीं लग रहा था। वह सीधे तनकर खड़ी थी। भेडि़या नजदीक आ गया था, वह फिर भी नहीं डरी। भेडि़या थोड़ा सहमा... इस भेड़ को आज क्या हो गया। वह उसके भयानक मुंह के तीखे दांतों और नुकीले पंजों से भी नहीं डर रही थी। भेडि़या भेड़ को जिन्दा निगलने की उतावली और जल्दबाजी में था। भेड़ अगर तनकर खड़ी रही, उससे डरकर भागी नहीं, तो फिर शिकार करने का फायदा क्या?
भेडि़ये ने अपने नुकीले पंजे भेड़ के कन्धे पर रखे और दर्दनाक स्थिति तक उसके नर्म गोश्त में चुभाया, परन्तु भेडि़ये को भेड़ के कन्धे पत्थर के लगे। उसने अपना थूथन भेड़ के सुन्दर लपलपाते मुख की तरफ बढ़ाया, तो उसे लगा जैसे वह एक आग का गोला निगल रहा हो।
नमिता के दृढ़ आत्मविश्वास और आंखों की अनोखी चमक ने चड्ढा के सारे हौसलों को पस्त कर दिया। उसके सौन्दर्य और यौवन की आग इतनी तेज थी कि चड्ढा उसकी आंच से ही पिघल गया। अचानक उसे एक झटका सा लगा और उसके हाथ-पैर ढीले पड़ गये। वह दौड़ने के पहले ही थक गया था।
उसको अपने जाल में फंसाने के लिए चड्ढा ने न जाने कितने जतन किये थे। वह उसके फंदे में आ भी गई थी। परन्तु उसको नोचकर खाने के सारे मंसूबे धरे के धरे रह गये। कुछ करने के पहले ही पसीने से लथ-पथ वह अपनी कुर्सी पर जा गिरा था। वह अपनी सांसों को दुरुस्त भी नहीं कर पाया था कि नमिता की चुभती हुई आवाज उनके कानों में पड़ी, ‘‘आप तो बहुत समझदार, बुद्धिमान और पौरुषवान व्यक्ति हैं सर! कहां गई आपकी मर्दानगी? इसी बूते पर एक जवान और सुन्दर लड़की को भोगने के मंसूबे बांध रहे थे और इतनी कुटिल चालें चल रहे थे। आइए, आज मैं सामने खड़ी हूं, स्वेच्छा से अपने को समर्पित कर रही हूं... जितना चाहे भोग लीजिए... चलिए, उठिए!’’
चड्ढा साहब में उठने की तो दूर, नमिता की आंखों में भी देखने की ताकत नहीं थी।
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(राकेश भ्रमर)
ई-15, प्रगति विहार हास्टल,
लोधी रोड, नई दिल्ली-110003
दूरभाष:09968020930
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