ग़ज़ल- 22 किसी बात का कब बुरा मानता हूँ II तुझे तो मैं अपना खुदा मानता हूँ II मेरी कामियाबी का क्या राज़ खोलूँ , इसे तो मैं तेरी दुआ...
ग़ज़ल- 22
किसी बात का कब बुरा मानता हूँ II
तुझे तो मैं अपना खुदा मानता हूँ II
मेरी कामियाबी का क्या राज़ खोलूँ ,
इसे तो मैं तेरी दुआ मानता हूँ II
मेरा तू जो चाहे वो हँसकर उठाले ,
मेरा तो मैं सब कुछ तेरा मानता हूँ II
जो मैं चाहता हूँ वो सब कुछ है तुझमें ,
तुझे अपनी खातिर बना मानता हूँ II
नया कुछ नहीं है तेरा मेरा मिलना ,
ये जन्मों का मैं सिलसिला मानता हूँ II
भले दूर से दूर तुम हो वलेकिन ,
मैं कब खुद को तुझसे जुदा मानता हूँ II
मिलो न मिलो इसकी परवाह क्या अब ,
दिल-ओ-जाँ तुझे जब दिया मानता हूँ II
तेरी बेनियाज़ी को तेरी क़सम है ,
मैं परवाह की इंतिहा मानता हूँ II
[ वलेकिन=किन्तु ;बेनियाज़ी=उपेक्षा ]
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ग़ज़ल 23
कुछ नहीं सूझता की क्या लिक्खूं ?
पहला ख़त है डरा डरा लिक्खूं II
उसने पूछा है हाल-ए-दिल मेरा ,
कोई बतलाये क्या हुआ लिक्खूं ?
हुस्न के कितने रंग होते हैं ?
उसमें बाकी है कौन सा लिक्खूं ?
उसका हर पल जुबां पे नाम रहे ,
क्या ग़लत हो उसे खुदा लिक्खूं ?
उसको पाने के इलावा मेरा ,
कोई मक़सद न अब रहा लिक्खूं ?
मुझको लिखना है एक अफ़्साना ,
क्यूं न अपना ही वाकया लिक्खूं ?
उसपे मरता हूँ उसपे मरता हूँ ,
एक ही जुम्ला कई दफा लिक्खूं ?
[ वाकया=घटना ;जुम्ला=वाक्य ]
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ग़ज़ल 24
चाहता हूँ कि बकूँ उसको गाली पे गाली II
पर निकलते हैं मुंह से लफ्ज़ दो ही हट,स्साली II
हुस्न से लगती है मंदिर की सीता राधा वो ,
है जो किरदार से नगर वधू -ए- वैशाली II
इतनी वो शाह-खर्च है कि यकीं कैसे हो ?
वो फ़क़त करती है मजदूरी और हम्माली II
अपनी बोली से तो कोयल का चूज़ा लगती है ,
है इरादों से मगर खौफनाक औ ' काली II
जब जला लेती है मानिंद-ए-रुई होली-ए-दिल ,
तब मनाती है शब-ओ-रोज़ ईद-ओ-दीवाली II
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ग़ज़ल 25
है आग कभी पानी II
ये मेरी जिंदगानी II
तुमको न 'सेव ' करते
हो याद मुँह ज़ुबानी II
जो कुछ है पास अपने
सब रब की मेहरबानी II
जैसे हो 'जोक ' कोई
ऐसी मेरी कहानी II
जब 'सर्च 'किया पाया
ग़म ही है शादमानी II
कितना सम्हालियेगा
दौलत है आनी जानी II
[शादमानी=ख़ुशी ,प्रसन्नता ]
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ग़ज़ल 26
जाने ये क्या रोग लग गया बुड्ढों और जवानों को II
बच्चे भी अब धीरे धीरे भूल रहे मुस्कानों को II
एक तरफ रूखी सूखी रोटी के भी लाले जग में ,
एक तरफ चख चख के दुनिया फेंक रही पकवानों को II
रुक जाये दो एक रोज़ न इस मंहगाई में सो लोग ,
इस्तकबाल छोड़ दर से ही टाल रहे मेहमानों को II
बाज़ारों से ग़ायब चीज़ें पुलिस ढूँढती बैठक में ,
शयनागार किचिन तो देखे न देखे तहखानों को II
एक ही खुश हो जाये शायद वक़्त वक़्त पर लोग अपने ,
तरह तरह से पूजें ना ना किस्मों के भगवानों को II
पीने वालों से कहिये मानिन्दे दवा भर लें इसको ,
मत गाली बकिये बद कहिये दारू को मयखानों को II
आज़ादी कि कीमत पूछो जानो कैसे हासिल की ?
ओ आजाद वतन के पैदा मत भूलो कुर्बानों को II
ढेर बड़े लिक्खाड़ हमीं क्या लिखें लिखी ही बात फ़क़त ,
हेर फेर हर्फों में करके बदल बदल उनवानों को II
[इस्तकबाल=स्वागत;उनवान=शीर्षक ]
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ग़ज़ल 27
ज़रा सी खता की सजा ऐसी पाई II
ओ रब्बा दुहाई दुहाई दुहाई II
गुनाहों कि दल दल में कुछ यूँ फंसे हम ,
कि मरकर ही फिर जान अपनी बचाई II
वो बहरे नहीं हैं कि हैं हम ही पागल ,
जो नक्कार खाने में तूती बजाई II
वो सावन के अंधे हैं देखें जिधर भी ,
उन्हें बस हरा ही हरा दे दिखाई II
समझने दो उनको समझना है जो कुछ ,
नहीं श़क की दुनिया में कोई दवाई II
मेरी मौत का उनको सचमुच है सदमा ,
तभी तो अभी तक न फूटी रुलाई II
जब अच्छा ही अच्छा किया तो ये जाना ,
कि अच्छाई सबसे बड़ी है बुराई II
शिकार उनको करने कि आदत थी इतनी ,
न कोई मिला खुद पे गोली चलाई II
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ग़ज़ल 28
नुकसान कुछ न कुछ हरेक बार हुआ है II
दिल जब भी मुहब्बत में गिरफ्तार हुआ है II
इतने से गम हाल जो बेहाल है उसका ,
दुःख दर्द से वो आज ही दो चार हुआ है II
सच क्या है इसी की तलाश में वो पस्त है ,
पढ़ पढ़ के ही तो शख्श वो बेकार हुआ है II
करते हैं मुहब्बत मगर वो मिल नहीं सकते ,
मजहब जो उनके बीच में दीवार हुआ है II
इक वो ही अकेला यहाँ खुदगर्ज़ नहीं है ,
मतलब परस्त सारा ही संसार हुआ है II
मंदिर में मस्जिदों में नहीं वो तलाशता ,
जिसको खुदा का खुद में ही दीदार हुआ है II
बुजदिल न थे न भागे थे मैदाने जंग से ,
दुश्मन का छुप के पीठ पे ये वार हुआ है II
ग़ज़ल-29
पूछ तो क्यों रो रहे हैं ?
कौन सा गम ढो रहे हैं ?
रात भर जागे नहीं ,क्यों
दिन चढ़े तक सो रहे हैं ?
क्यों ख़ुशी की बात पर भी
ग़मज़दा ही हो रहे हैं ?
पत्थरों में किस बिना पर
बीज आख़िर बो रहे हैं ?
साबका किससे पड़ा कि
अपना आप खो रहे हैं ?
काम को क्या खेल समझें
खेल अब काम हो रहे हैं ?
हो रहे हैं आज बढ़कर
हमसे कमतर जो रहे हैं ?
अब नहीं पहचानते जो
अपने कल तक 'वो ' रहे हैं ?
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ग़ज़ल-30
इक मोम न निखालिस लोहा भी गलाते हैं II
केले भी गड़पते हैं हड्डी भी चबाते हैं II
रोते हैं बमुश्किल ही वो भी लम्हा दो लम्हा ,
बातों पे छोटी घंटों टसुए न बहाते हैं II
मन गरीब हैं पर घर आये मेहमान को ,
मंहगाई में भी दिल से भर पेट खिलाते हैं II
व्हिस्की बियर या वाइन जिसको हराम होती ,
उस दोस्त को पकड़कर जबरन न पिलाते हैं II
खोटे खरे की अच्छी पहचान हो गई है ,
चुन चुन के चोखे चोखे अब दोस्त बनाते हैं II
लेते हैं गोद जिसको उंगली पकड़ के उसको ,
देते हैं एक मक़सद चलना भी सिखाते हैं II
पेड़ो को बख्श रखते ; पानी नहीं मिटाते ,
यूं यार हम भी होली हर साल मनाते हैं II
खैरात न मुस्टंडों को हम कभी भी देते ,
चाहे तो मुस्तहक को कुछ काम दिलाते हैं II
[मुस्तहक=ज़रूरतमंद ,योग्य ]
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ग़ज़ल-31
पूरा पूरा उजड़ गया हूँ II
जबसे तुझसे बिछड़ गया हूँ II
बरगद सा मैं जमा हुआ था ,
नीलगिरी सा उखड गया हूँ II
अब न रफूगर समझना मुझको ,
मैं ही सिरे से उधड़ गया हूँ II
तेरी खातिर राहनुमा था ,
तुझ बिन सबसे पिछड़ गया हूँ II
तू निगराँ था काबू में था ,
खुल्लम खुल्ला बिगड़ गया हूँ II
नदिया होना नामुमकिन था ,
पोखर होकर मैं सड़ गया हूँ II
[राहनुमा=मार्गदर्शक ;निगराँ =निगरानी रखने वाला ]
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डॉ. हीरालाल प्रजापति
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जवाब देंहटाएंप्रिय अजय जी, धन्यवाद्.
हटाएंमेरी कुछ और गज़लें एवं अन्य रचनायें भी रचनाकार पर उपलब्ध हैं.....
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आपकी प्रतिक्रिया को प्रतीक्षारत .......... डॉ. हीरालाल प्रजापति
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Bhut is sunder rachanaye. Shankar Lal
जवाब देंहटाएंpratikriya ka hardik hardik dhanywad
हटाएंhardik hardik dhanywad .
हटाएंVah kya khoob likha hai.
जवाब देंहटाएंdhanywaaaaaaaaaaaad..................
हटाएंbahut bahut shukriya.
हटाएंtaarif ka bahut bahut shukriya .
हटाएंprashansa ka atyant hardik dhanywad .
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