यह प्रस्तुति कभी तोलस्तोय की मृत्यु की कल्पना-मात्र से अन्तोन चेख़व आहत हो उठे थे और उन्होंने कहा था कि तोलस्तोय की मृत्यु से हमारा...
यह प्रस्तुति
कभी तोलस्तोय की मृत्यु की कल्पना-मात्र से अन्तोन चेख़व आहत हो उठे थे और उन्होंने कहा था कि तोलस्तोय की मृत्यु से हमारा समाज बिना चरवाहे के रेवड़ जैसा हो जाएगा... तकरीबन ऐसे ही उद्गार कोलम्बिया के ही नहीं, वरन् विश्व के महान रचनाकार गैब्रियल गर्सिया मार्केस की बीमारी की ख़बर से कोलम्बिया के एक शीर्ष नेता ने हाल ही में कहा कि मार्केस को खो देने का सदमा झेलने के लिए अभी हमारा देश तैयार नहीं है... लेखक के प्रति एक राजनेता का उद्गार कितना भाव-विभोर करने वाला है।
20 वीं सदी के सबसे बड़े लेखकों में गिने जाने वाले 82 वर्षीय मार्केस का जन्म 6 मार्च 1928 में अराकेटका (Aracataca) कोलम्बिया में हुआ। उनकी शिक्षा-दीक्षा बोगोटा में नेशनल यूनिवर्सिटी में हुई। उन्होंने अपना कॅरियर एक पत्रकार के रूप में शुरू किया। चालीस और पचास के दशक में वे विभिन्न लातीनी अमरीकी पत्र-पत्रिकाओं के लिए पत्रकारिता करते रहे और फ़िल्मी पटकथाएँ लिखते रहे। भले ही वे मौजूदा दौर के सबसे बड़े कथाकार हैं पर युवा अवस्था में लिखी उनकी कहानियों की समकालीन लातीनी अमरीकी लेखकों द्वारा घनघोर आलोचना भी हुई। उसी के चलते उनकी एक महत्त्वपूर्ण लघु कथा ‘दि थर्ड रिसिग्नेशन' का जन्म हुआ जिसकी सभी लेखकों ने भारी प्रशंसा की और लतीनी अमरीकी लेखकों की दूसरी पीढ़ी के महत्त्वपूर्ण लेखकों में उनकी गिनती होने लगी। उसके बाद लघुकथाओं का संग्रह ‘बिग नमास फ्यूनरल' और 3 उपन्यास (लीफ स्टा्रॅम, नो वन राइट्स टू द कर्नल और इन इविल ऑवर) प्रकाशित हुए। इन सभी रचनाओं में लातीनी अमरीकी समाज का अवरुद्ध और अवसाद भरा समय प्रतिबिंबित होता है। मार्केस के लेखन पर फ्रेंज काफ्का का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। पर उनके प्रारंभिक लेखन में एक प्रतिभाशाली युवा लेखक की स्पष्ट छाप दिखाई देती है जो साहित्य में एक ऊँची छलाँग लगाने को तत्पर है। मार्केस ने जब लिखना शुरू किया (1948) उस वक्त कोलम्बिया एक भीषण गृहयुद्ध की स्थिति में था। ‘La Violencia' नाम से जाने जाने वाले इस नरसंहार में करीब दो-तीन लाख लोग मारे गऐ थे। मार्केस ने इस विभीषिका पर क़लम चलाई। उनको असली सफलता कथा साहित्य के इतिहास में अपने महान उपन्यास ‘वन हंडे्रड इयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड' से मिली। यह कोलम्बियाई परिवार की कई पीढ़ियों की कथा है, जिसमें समय, घटनाएँ, देशकाल और उनके प्रभाव चरित्रों के इर्दगिर्द इस कदर गुँथे हुए हैं कि एक जादुई यथार्थ का-सा अहसास कराते हैं। जीवित इतिहास मिथक की तरह लगता है और समय का सच समयहीन शाश्वतता से जुड़ा दिखता है। इस उपन्यास से यथार्थ की एक नयी श्रेणी-जादुई यथार्थवाद का जन्म हुआ और मार्केस इसी जादुई यथार्थवाद के प्रणेता माने जाने लगे। इस उपन्यास की करीब चार करोड़ प्रतियाँ विश्व की तीस भाषाओं में बिक चुकी हैं। इस उपन्यास में वे लिखते हैं कि किस तरह हज़ारों लोगों को चौराहों पर गोलियों से भून दिया गया और उनकी लाशें समुद्र में फिंकवा दी गईं। मार्केस के बाद के सभी उपन्यासों में भी यही मैजिकल रियलिज़्म की शैली मिलती है। उनकी इस शैली से दुनिया भर के कथाकार प्रभावित हुए हैं। मार्केस को 1982 में ‘वन हंड्रेस इयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड' के लिए साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
गैब्रियल की अधिकांश कहानियों का जन्म ‘मोकंडो' नामक एक काल्पनिक नगरी में होता है जो कालंबिया के ‘बनाना जोन' में स्थित है। संभवतः मोकंडो विलियम फ़ॉकनर के ओकनापुलाका काऊंटी से प्रभावित है पर यक़ीनन यह मार्केस के अपने जन्म स्थान अराकेटका पर आधारित है। सभी कहानियों में मार्केस यथार्थ व उसकी नियति के बारे में तमाम सवाल उठाते हैं जो गहरे अवसाद व उदासी का माहौल रचती है।
फीडेल कास्त्रो के अनन्य मित्र मार्केस ने कभी समझौते की राजनीति नहीं अपनाई। उन्होंने अमेरिका पर तीखे प्रहार किए कि वह कोलम्बिया पर आक्रमण के बहाने ढूँढ़ता रहता है। अपने देश की हिंसक अशांत स्थिति को समाप्त करने की दिशा में वे कई बार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं। अल सल्वाडोर और निकारागुआ के बीच युद्ध शान्त कराने में उनका बड़ा हाथ रहा। ‘न्यूज ऑफ़ किडनैपिंग' के साथ इनोसेंट इरनेडिश एंड अदर स्टोरीज़', ‘दि ऑटम ऑफ दि पेट्रीयार्क', क्रॉनिकल ऑफ डेथ फोरटोल्ड', ‘लव इन दि टाइम ऑफ़ कोलेरा', ‘दि जनरल इन हिज लिबरिन्थ' मार्केस की अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। उनके संस्मरणों का पहला खण्ड ‘विवीर पारा कोन्तारला' (2003) प्रकाशित है।
यहाँ हम मार्केस की दो लम्बी कहानियाँ ‘क्रॉनिकल ऑफ डेथ फोरटोल्ड' और ‘नो वन राइट्स टू द कर्नल' का अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं। अनुवाद हिन्दी के प्रसिद्ध रचनाकार इंद्रमणि उपाध्याय ने किया है। पिछले वर्ष उपाध्याय जी का जबलपुर में दुःखद निधन हो गया। लगभग दो सौ कहानियाँ उपाध्याय जी ने लिखी हैं। उनके ‘पीतल का घोड़ा' उपन्यास पर फ़िल्म बनी है और यह उपन्यास काफ़ी चर्चित और पुरस्कृत रहा।
-हरि भटनागर
गैब्रियल गर्सिया मार्केस
की लम्बी कहानी
कर्नल को कोई ख़त नहीं लिखता
कर्नल ने कॉफ़ी टिन का ढक्कन खोलकर देखा, उसमें एक छोटी चम्मच
भर कॉफ़ी थी। उसने आग के ऊपर रखे बर्तन को उठाया और उसके
आधे पानी को फ़र्श पर डाल दिया और टिन में चम्मच डाल जितनी भी कॉफ़ी डिब्बे में थी उसे खुरच कर बर्तन में डाल दी जिससे उसमें कुछ ज़ंग भी मिल गया था।
पत्थर की अंगीठी के पास उबलने का इंतज़ार करते विश्वास और निर्दोष आशाओं उम्मीदों के साथ बैठे कर्नल को अचानक महसूस हुआ कि उसके पेट में फंगस और ज़हरीली लिली ने जड़ जमाना शुरू कर दिया है। अक्टूबर का महीना था। उसके जैसे व्यक्ति के लिए भी यह सुबह काटना कष्टदायक हो रहा था जिसने पता नहीं ऐसी कितनी सुबहें काटी हैं। करीब साठ वर्ष होने को आए- पिछले गृहयुद्ध के बाद - कर्नल ने और कुछ किया ही नहीं है सिवाय प्रतीक्षा करने के। अक्टूबर जैसी कुछ ही चीज़ें थीं जो उसकी ज़िंदगी में अभी भी आती हैं।
उसकी पत्नी ने मच्छरदानी हटा दी जब उसने बेडरूम में उसे कॉफ़ी लेकर आते देखा। पिछली रात उसे दमे का दौरा पड़ा था इसलिए अभी वो उनींदी थी। लेकिन कप लेने के लिए वे बिस्तर पर ही बैठ गईं।
“और तुम?”
“मैंने पी ली है”, कर्नल ने झूठ बोला- “एक बड़ी चम्मच भर कॉफ़ी बची थी।”
उसी क्षण घंटियाँ बजने लगीं। कर्नल जनाज़े को तो भूल ही चुका था। उसकी पत्नी जब तक कॉफ़ी पिए, उसने हेमॉक (झूले) का एक छोर खोला और उसे दरवाज़े के पीछे मोड़कर रख दिया। स्त्री ने मृतक के बारे में सोचा।
“उसका जन्म 1922 में हुआ था”, उसने कहा “हमारे बेटे के ठीक एक माह बाद। अपै्रल 7 को।”
अपनी भारी साँसों के बीच वे कॉफ़ी के छोटे-छोटे घूँट लेती रहीं। कठोर झुकी रीढ़ में कुछ सफ़ेदी बची थी। उसकी परेशान साँसों ने उनके प्रश्न को सकारात्मक बना दिया था। कॉफ़ी का कप ख़ाली करने के बाद भी वे मृतक के बारे में सोच रही थीं।
“अक्टूबर में दफ़न होना बेहद कष्टकारी होगा”, उसने कहा। लेकिन उसके पति ने कोई ध्यान ही नहीं दिया। उसने खिड़की खोल दी थी। अक्टूबर आँगन तक आ गया था। चारों ओर फैली हरियाली में उत्पन्न पौधों और कीचड़ में बने कीड़े-मकोड़ों के टीलों के बारे में सोच कर्नल ने अपनी आँतों में दुष्कर माह के बारे में सोचा।
“मेरी तो हड्डियाँ तक भीग गई हैं” उसने कहा।
“सर्दी है”, स्त्री ने उत्तर दिया, “जब से बारिश शुरू हुई है, मैं तुमसे कहती आ रही हूँ कि तुम जुराब पहिनकर ही सोया करो।”
“उन्हें पहिनकर सोते मुझे एक हफ़्ता हो चुका है।”
बारिश हल्की थी लेकिन बिना रुके हो रही थी। ऐसे मौसम में कर्नल कम्बल लपेटकर हेमॉक में जाना पसंद करता है। लेकिन लगातार बजती घंटियाँ उसे जनाज़े के बारे में याद दिला रही थीं। “अक्टूबर जो ठहरा”, उसने बुदबुदाकर कहा और धीरे-धीरे कमरे के भीतर कुछ क़दम चलने के बाद उसे पलंग के पाए से बँधे टर्की की याद आई। वह एक लड़ाकू मुर्गा था।
कप को किचन में रखने के बाद उन्होंने जालीदार लकड़ी के केस में रखी पेंडुलम घड़ी में चाबी दी जो बैठकखाने में रखी थी। दमें के मरीज की साँसों के लिए सँकरे बेडरूम की तुलना में लिविंग रूम (बैठकख़ाना) बड़ा था जिसमें चार मजबूत राकर्स (झूलने वाली कुर्सियाँ), एक छोटी टेबिल के चारों ओर रखी थीं। टेबिल पर खोल बिछा था और उस पर एक प्लास्टर की बिल्ली रखी थी। घड़ी के सामने की दीवार पर मखमल की डे्रस पहिने एक स्त्री का चित्र था जिसे गुलाब से लदी नाव में बैठे कामदेव घेरे थे।
उस समय सात बजकर बीस मिनिट हुए थे जब उसने चाबी देना समाप्त किया। फिर मुर्गे को उठा वह किचन में ले आया और उसे स्टोव के एक पैर से बाँध दिया, बर्तन का पानी बदला और उसके पास मुट्ठीभर मक्के के दाने रख दिए। बच्चों का एक झुंड बाड़ के एक रास्ते से भीतर आ गया था। वे मुर्गे के पास बैठ ख़ामोशी से उसे देखते रहे।
“उसे घूरकर मत देखो”, कर्नल ने उनसे कहा, “मुर्गे थक जाते हैं यदि उन्हें ज़्यादा देर तक देखा जाए तो!”
बच्चे वहाँ से नहीं हिले। उनमें से एक ने हार्मोनिका (माउथ आर्गन) से लोकप्रिय गाने की धुन निकालना शुरू कर दिया। “कम से कम आज तो यह धुन मत बजाओ”, कर्नल ने उन्हें समझाया, “शहर में गमी हो गई है।” बच्चे ने हार्मोनिका अपने पैंट में रख लिया और जनाज़े में जाने के लिए तैयार होने चले गए।
पत्नी के दमे के कारण उनके सफे़द सूट पर प्रेस नहीं था। काला सूट पहिनना होगा जिसे वे विवाह के बाद विशेष अवसरों पर ही पहिनते आए हैं। ट्रंक के नीचे से निकालने में उन्हें कुछ समय लगा जहाँ वह अख़बार में लिपटा नेप्थलीन की गोलियों के साथ रखा था। पलंग पर लेटी पत्नी अभी भी मृतक के बारे में सोच रही थीं।
“उसकी भेंट अभी तक तो आगस्टीन से हो भी चुकी होगी”, उन्होंने बुदबुदाकर कहा। “उम्मीद है उसने उसे हमारी हालत के बारे में कुछ भी नहीं बतलाया होगा, जिसमें हम उसकी मृत्यु के बाद हैं।”
“वे संभवतः मुर्गों के बारे में बात कर रहे होंगे”, कर्नल ने कहा।
उसे ट्रंक में एक पुराना बड़ी साइज़ का छाता मिला। उसकी पत्नी ने कर्नल के लिए एकत्र किए जाने वाले रैफ़ल में जीता था। उस रात को वे खुले मैदान में आयोजित प्रोग्राम में गए थे जो बारिश होने के बावजूद होता रहा था। कर्नल, उनकी पत्नी और उनका बेटा ऑगस्टीन जो उस समय आठ वर्ष का था- छाते के नीचे बैठे शो को अंत तक देखते रहे थे। अब ऑगस्टीन मर चुका है और चमकते साटन के कपड़े को कीड़ों ने खा लिया है।
“देखो तो हमारे सर्कस के जोकर के छाते की क्या हालत हो गई है”, कर्नल ने अपने एक पुराने मुहावरे का प्रयोग करते कहा। उसके सिर के ऊपर खाली कमानियाँ खुली थीं। “अब तो केवल तारों को गिनने के काम ही आएगा।”
कहते वे मुस्कुरा दिए। लेकिन पत्नी ने छाते की ओर देखने की जहमत नहीं उठाई। “सभी कुछ की हालत तो ऐसी है”, वे बुदबुदाई। “हम भी तो जीवित क्षरित हो रहे हैं”, कह उन्होंने कसकर आँखें बंद कर लीं ताकि वे मृतक के बारे में विचार कर सकें।
अंदाज़ से शेविंग करने के बाद- चूँकि उनके पास बहुत दिनों से आईना नहीं है, कर्नल ने ख़ामोशी से कपड़े पहिन लिए। उनका पैन्ट उतना ही पैरों पर कसा हुआ था जितना उनका लंबा अंडरवियर। एड़ियों पर वह सुतली से बँधा हुआ था और उसी कपड़े के बेल्ट से कमर बँधी थी, जो दो धातु के दो बकल्स से पैंट में ही सिली हुई थीं। बेल्ट का उपयोग नहीं किया। उसकी शर्ट पुराने मनीला पेपर के रंग की थी और जो कलफ़ से कड़ी और ताँबे के स्टक से फँसी थी जो निकाले जा सकने वाले कॉलर को भी संभाले थी। चूँकि बाहर से पहिना जाने वाला कॉलर फटा हुआ था इसलिए कर्नल ने टाई पहिनने का इरादा छोड़ दिया।
वह हर काम को कुछ इस अंदाज़ में कर रहा था जैसे कोई धार्मिक कार्य संपन्न कर रहा हो। उसके हाथों की हड्डियाँ पारमासिक त्वचा से ढँकी थीं जिन पर हल्के धब्बे थे जैसे गर्दन की त्वचा में भी थे। अपने पेटेंट चमड़े के जूते पहिनने के पहिले उसने उनकी सूखी कीचड़ को खरोंच लिया। पत्नी ने उस क्षण उसे उन वस्त्रों में देखा जैसे उन्होंने विवाह के दिन पहिने थे। और तभी आकर उन्हें अहसास हुआ कि उनके पति कितने बूढ़े हो चुके हैं।
“तुम्हें देखकर तो ऐसा लगता है जैसे तुम किसी महत्त्वपूर्ण घटना के लिए तैयार हुए हों”, उन्होंने कहा।
“दफ़नाना भी तो विशेष घटना ही है”, कर्नल ने कहा “बहुत वर्षों के बाद हमारे यहाँ कोई स्वाभाविक मृत्यु हुई है।”
नौ बजे के बाद मौसम खुल गया था। कर्नल बाहर निकलने को तैयार ही थे जब उनकी पत्नी ने उनकी कोट की बाँह पकड़ उन्हें रोक लिया।
“बालों में कंघी तो कर लो?” उन्होंने कहा।
उन्होंने हड्डियों से बनी कंघी से अपने स्टील रंग के बालों को जमाने की कोशिश की। लेकिन यह एक असफल कोशिश ही सिद्ध हुई।
“मैं ज़रूर तोते जैसा दिख रहा होऊँगा”, उन्होंने कहा।
पत्नी ने गौर से ऊपर से नीचे देखा। उसे वैसा नहीं लगा। कर्नल तोते जैसा नहीं दिख रहा था। वह एक रूखा व्यक्ति था जिसके पास कठोर हड्डियाँ थीं जैसे वे नट-बोल्ट से कसी हों। उसकी आँखों से झाँकती ऊर्जा से ऐसा नहीं लगता था जैसे उन्हें फारमेलिन में सुरक्षित रखा गया हो।
“इस तरह तुम बेहद जँच रहे हो“, उन्होंने स्वीकारते हुए कहा और पति के कमरे से बाहर जाने के पहिले जोड़ा, “हाँ, ज़रा डॉक्टर से तो पूछ लेना क्या इस घर में उस पर उबलता पानी डाला गया था।”
वे शहर के बाहर नारियल के पत्तों के छप्पर वाले मकान में रहते थे जिसकी दीवारों की सफ़ेदी झर रही थी। उमस थी हालाँकि बारिश रुक चुकी थी। कर्नल एक गली से हो प्लाजा की ओर चल दिए जिसके दोनों ओर सटे हुए मकान थे। मुख्य सड़क पर पहुँचते ही उन्हें फुरफुरी छूट गई। जहाँ तक आँखें देख सकती थीं पूरा शहर फूलों के गलीचे से भरा था। मकानों के दरवाज़ों पर काले वस्त्र पहिने स्त्रियाँ जनाज़े का इंतज़ार कर रही थीं।
प्लाजा में पहुँचने के साथ ही फुहारें शुरू हो गई थीं। पूल हाल के मालिक ने कर्नल को देख लिया और बाँहें फैलाकर चिल्लाकर कहा “कर्नल, एक मिनट रुको, मैं आपको एक छाता ला देता हूँ।”
कर्नल ने बिना मुड़े उत्तर दिया, “बहुत-बहुत धन्यवाद, मैं इसी तरह ठीक हूँ।”
अभी तक चर्च से जनाज़ा बाहर नहीं निकला था। श्वेत वस्त्रों और काली टाई पहिने लोग छाता खोले खड़े धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। उनमें से एक ने कर्नल को गड्ढों-डबरों में कूदते हुए प्लाजा में देखा।
“यहाँ आ जाओ दोस्त”, उसने चिल्लाकर कहते छाते में एक ओर सरक जगह बनाई
“थैंक्स दोस्त”, कर्नल ने कहा।
लेकिन उसने उसका आमंत्रण स्वीकार नहीं किया। वह सीधे मकान के अंदर चला गया मृतक की माँ को शोक संवेदना व्यक्त करने। भीतर पहुँच सबसे पहिले उसका ध्यान वहाँ से निकल रही विभिन्न फूलों की खुशबू पर गई। तभी गर्मी का बगूला उठा। कर्नल ने भीड़ भरे बेडरूम से किसी तरह बाहर निकलने की कोशिश की लेकिन किसी ने उसकी पीठ पर हाथ रखा और धीरे से धक्का दे उसे पिछले कमरे में पहुँचा दिया, परेशान हाल लोगों से भरी गैलरी से होकर वहाँ-जहाँ मृतक की लाश रखी थी।
वहाँ मृतक की माँ खजूर के पंखे से ताबूत पर से मक्खियाँ उड़ाती बैठी थी। काले वस्त्रों में दूसरी औरतें लाश को कुछ उसी अंदाज़ में देख रही थीं जैसे कोई बहती नदी की धारा को देखता है। तभी कमरे के पीछे से रोने की आवाज़ आई। कर्नल ने एक औरत को हल्के से हटाया और उसके सामने मृतक की माँ थी। उन्हें देख उसने उनके कंधे पर हौले से हाथ रखते कहा।
“मुझे हार्दिक दुःख है।”
माँ ने सिर नहीं घुमाया, बस मुँह खोला और चीख मारकर रोने लगीं। कर्नल सहम गया। उसे महसूस हुआ जैसे आकारहीन भीड़, काँपती चीखों और रोने की आवाज़ों के साथ उसे लाश की ओर धक्का दे रही है। उसने हाथों को सहारे के लिए फैलाया लेकिन वहाँ दीवार थी ही नहीं। उसकी जगह दूसरी देहें थीं। किसी ने उनके कान में कहा, धीरे-धीरे और प्यारी-सी आवाज़ में “संभाल के कर्नल।” सिर घुमाकर जब देखा तो वह मृतक के चेहरे के सामने था। लेकिन वे उसे पहिचान नहीं पाए क्योंकि वो अकड़ा हुआ और डायनेमिक था, और सफ़ेद कपड़ों में लिपटा होने और हाथ में ट्रम्पेट होने से विक्षुब्ध दिख रहा था। जब कर्नल ने उस शोर के बीच सिर उठाया कुछ हवा के लिए तो उसने ताबूत को दरवाज़े की ओर दीवार पर लगे फूलों को तोड़ते हुए बढ़ते देखा। उन्हें पसीना आने लगा था। हड्डियों के जोड़ दर्द कर रहे थे। एक ही पल बाद स्वयं को सड़क पर पाया क्योंकि फुहारें उसकी पलकों पर पड़ रही थीं और तभी किसी ने बाँह पकड़ी और कहाः
“जल्दी करो दोस्त, मैं तुम्हारी ही राह देख रहा था।”
वह साबास था, उसके मृत बेटे का धर्मपिता, पार्टी का एकमात्र नेता, जो राजनैतिक सज़ा से बच गया था और अभी भी शहर में रह रहा था। “धन्यवाद मेरे दोस्त”, कर्नल ने कहा और ख़ामोशी से उसके साथ उसके छाते के अंदर चलने लगा। बैंड ने शोकधुन बजाना शुरू कर दिया था। कर्नल ने ग़ौर किया वहाँ ट्रम्पेट नहीं थी और तब पहली बार उसे विश्वास हो गया कि मृतक वास्तव में मर गया है।
“बेचारा”, वह बुदबुदाया।
साबास ने खखारकर गला साफ़ किया। बायें हाथ में वह छाता पकड़े था और हैंडल उसके सिर के बराबर था क्योंकि वह कर्नल से बहुत छोटा था। जब शवगाड़ी प्लाजा से आगे बढ़ गई तो वे बातचीत करने लगे। साबास कर्नल की ओर मुड़ा। उसका चेहरा उदास था “दोस्त टर्की की क्या हालत है?”
“वह अभी भी है”, कर्नल ने उत्तर दिया।
उसी पल किसी ने चिल्लाकर कहा, “अरे, वे लोग जनाज़े के साथ जा कहाँ रहे हैं?”
कर्नल ने आँखें उठाकर देखा। उसने मेयर को बैरक की बालकनी में शान से खड़े देखा। वह फ्लैनल के अंडरवियर पहिने था, उसकी बिना दाढ़ी बने गाल फूले हुए थे। बैंड वालों ने आगे बढ़ना बंद कर दिया। एक मिनिट बाद कर्नल ने फ़ादर ऐंजल की आवाज़ को मेयर पर चिल्लाते सुना। छत्ते पर होती बारिश के शोर के बीच में उसने उनके बीच के संवाद को सुनने की कोशिश की।
“अब?” साबास ने पूछा।
“अब क्या, कुछ नहीं”, कर्नल ने उत्तर दिया। “जनाज़ा पुलिस बैरक के सामने से नहीं निकल सकेगा।”
“मैं तो भूल ही गया था”, साबास के मुँह से अनायास निकला, “मैं तो हमेशा भूल ही जाता हूँ कि हम मार्शल लॉ के अंदर रह रहे हैं।”
“लेकिन यह कोई विद्रोह तो है नहीं”, कर्नल ने कहा। “यह तो बेचारा एक मृत संगीत-वादक है।”
शवयात्रा ने राह बदल दी। ग़रीब बस्ती की औरतें उसे ख़ामोशी से नाखून चबाते, गुज़रते देखती रहीं। एकाएक वे अपने घरों से निकल सड़क के बीच में आ गईं और मृतक के सम्मान में उसकी प्रशंसा करते ‘अलविदा' ज़ोर-ज़ोर से कुछ इस अंदाज में करने लगीं जैसे ताबूत में लेटा मृतक उन्हें सुन रहा हो। कब्रिस्तान में अचानक कर्नल को लगा जैसे उसकी तबियत ठीक नहीं है। साबास ने उसे दीवार की ओर धक्का दिया ताकि ताबूत ले जाने वाले लोग निकल सकें। उसने अपना मुस्कुराता चेहरा कर्नल की ओर घुमाया तो एक कठोर चेहरा उसके सामने था।
“क्या बात है दोस्त?” साबास ने प्रश्न किया।
कर्नल ने लंबी साँस छोड़ते कहा, “अक्टूबर है न।”
वे उसी गली से लौटे। वहाँ भीड़ नहीं थी। आकाश गहरा नीला था। अब बारिश नहीं होगी, कर्नल ने सोचा और उसे बेहतर महसूस होने लगा, लेकिन वह अभी भी उदास था। साबास ने उसके विचारों को भंग करते हुए कहा।
“डॉक्टर को दिखा लो।“
“मैं बीमार नहीं हूँ” कर्नल ने कहा, “दरअसल अक्टूबर में मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरे पेट में जानवर भरे हों।”
साबास ने ‘हाँ-हाँ' कहा और अपने घर के पास पहुँच गुडबाई कहा जो एक नई दो मंज़िला मकान में था और जिसमें जंग लगी लोहे की खिड़कियाँ थीं। कर्नल सीधे घर की ओर बढ़ गया क्योंकि वह जल्दी से जल्दी अपना डे्रस सूट उतारना चाहता था। कुछ ही देर बाद वह फिर से बाहर निकला और कोने के स्टोर से उसने एक टिन काफ़ी और टर्की के लिए आधा पाउंड मक्का खरीदा।
कर्नल ने टर्की की सारी ज़रूरतें पूरी कीं हालाँकि वह गुरुवार था और उसे हेमॉक (झूले) में रहना पसंद किया होता। कई दिनों तक आकाश खुला ही नहीं। पूरे हफ़्ते उसके पेट का पौधा पनपता रहा। अपनी पत्नी के दमे से खाँसने के फलस्वरूप उसने कई रातें बिना नींद के काटीं। लेकिन अक्टूबर ने शुक्रवार को समझौते का प्रस्ताव रख दिया। ऑगस्टीन के साथी-टेलरिंग शॉप के कर्मचारी, उसी की तरह मुर्गेबाज़ी को ले पागल थे। इस मौके का लाभ उठाने वे टर्की को देखने आ गए। वो पूरी तरह तंदुरुस्त था।
जब कर्नल घर में अकेले बचे तो अपनी पत्नी के पास बेडरूम में लौट आए। उसकी हालत फिलहाल बेहतर थी।
“वे लोग क्या कह रहे थे?” पत्नी ने पूछा।
“बहुत उत्साहित थे”, कर्नल ने उसे सूचित किया, “हर कोई पेसो बचा रहा है टर्की पर शर्त लगाने के लिए।”
“मेरी तो समझ में ही नहीं आता कि वे इस गंदे से टर्की में देखते क्या हैं” पत्नी ने मुँह बनाते हुए कहा “मुझे तो वह अजूबा-सा लगता है। पैरों की तुलना में उसका सिर तो देखो कितना छोटा है।”
“वे तो कहते हैं कि पूरे जिले में इसका जवाब नहीं”, कर्नल ने उत्तर दिया, “उसके दाम पचास पेसो हैं।”
उसे विश्वास था कि यह तर्क टर्की को बचाए रखने के लिए पर्याप्त था जो उनके बेटे की संपत्ति थी जिसे नौ महिने पहिले मुर्गेबाज़ी में गुप्त साहित्य बाँटने के जुर्म में गोली मार दी गई थी। “एक खर्चीला भ्रम”, पत्नी ने कहा। “जब मक्का ख़तम हो जाएगा तो हमें उसका पेट अपने कलेजे से भरना होगा।” कर्नल बहुत देर तक सोचता रहा, साथ ही वह आलमारी में रखी सफे़द डक (सूती कमीज) को देखता रहा।
“बस, कुछ महिनों की ही तो बात है”, उसने कहा, “हमें तो पता ही है कि मुर्गेबाज़ी जनवरी में है, और तब हम इसे और महँगे दाम में बेच सकेंगे।”
पैन्ट को प्रेस की ज़रूरत थी। पत्नी ने कोयले की अंगीठी पर दो चमीटे से पकड़कर उसे सुखा दिया।
“तुम्हें जाने की भला इतनी जल्दी क्यों है?” उसने पूछा।
“डाक।”
“अरे, मैं तो भूल ही गई थी कि आज शुक्रवार है”, बेडरूम में लौटते उसने कहा। कर्नल ने कपड़े पहिन लिए थे पैन्ट को छोड़कर। स्त्री ने उसके जूतों को देखा।
“तुम्हारे जूते तो फेंके जाने का इंतज़ार कर रहे हैं”, उसने कहा, “तुम पेटेंट चमड़े के जूते क्यों नहीं पहिनते।”
कर्नल उदास हो गया।
“वे अनाथों के जूते जैसे लगते हैं”, उसने विरोध करते कहा। “जब भी मैं उन्हें पहिनता हूँ तो मुझे लगता है जैसे मैं किसी पागलखाने से भागा भगोड़ा हूँ।”
“हम अपने बेटे के अनाथ हैं”, स्त्री ने कहा।
एक बार फिर उसने उसे बाध्य किया। कर्नल बंदरगाह की ओर लाँच की सीटियों के पहिले ही घर से बाहर निकल चल दिया था। पेटेंट चमड़े के जूते, बेल्ट रहित सफे़द डक्स और बिना कॉलर की शर्ट जो गर्दन पर ताँबे की बटन से बंद थी। उसने सीरियन मोसेज की दुकान से लाँचों को डाक पर लगते देखा। आठ घंटों तक बैठे रहने के बाद यात्री डगमगाते से उतरने लगे। हमेशा ही की तरह लौट आए थे।
डाक की लाँच अंतिम थी। कर्नल ने उसे दर्द से पीड़ित हो डाक पर लगते देखा। बोट के धुएँ की चिमनी की छत पर ऑइल क्लाथ से बँधे डाक थैले को उसने चोर नज़रों से देखा। पन्द्रह वर्षों की प्रतीक्षा ने उसकी अंतर्दृष्टि को पैना कर दिया था। टर्की ने उनकी उत्सुकता को तेज़ कर दिया था। जिस क्षण पोस्टमास्टर ने लाँच से कदम उठा बोर्ड पर कदम रख, थैले को खोला और उसे अपने कंधे पर डाला, कर्नल ने अपनी आँखें उस पर से पलक झपकने को भी नहीं हटाईं।
वह उसके पीछे-पीछे बंदरगाह के समानांतर चलती सड़क पर रंग-बिरंगे सामान के स्टोर्स और बूथ की भूल-भूलैयों में चलता चला गया। जब भी वह उसके पीछे जाता है कर्नल को नये प्रकार की व्यग्रता का अनुभव होता है जो उतनी तीव्र होती है जितना भ्रम। डॉक्टर पोस्ट ऑफ़िस के सामने अख़बारों की प्रतीक्षा में इंतज़ार करता खड़ा था।
“मेरी पत्नी ने तुमसे यह पूछने को कहा है कि क्या हमने तुम्हारे ऊपर अपने घर में उबलता पानी डाला है?” कर्नल ने उससे कहा।
वह एक नवजवान डॉक्टर था। जिसके सिर पर काले बालों की लटें थीं। उसके दाँतों में अविश्वसनीय-सी पूर्णता थी। डॉक्टर ने दमा-रोगी के स्वास्थ्य के बारे में पूछा। कर्नल ने विस्तार से पत्नी की बीमारी के विषय में बतलाया लेकिन उसकी आँखें पोस्टमास्टर के ऊपर ही लगी थीं, जो पत्रों को खानों में बाँट रहा था। उसकी सुस्त चाल को देख कर्नल बेचैन हो रहा था।
डॉक्टर को अख़बारों का बंडल मिल गया। उसने मेडिकल विज्ञापन के पेंफ्लेटों को एक किनारे कर दिया। फिर उसने अपनी व्यक्तिगत डाक को अलग किया। इस बीच पोस्टमास्टर उन लोगों को डाक बाँटता रहा, जो वहाँ उपस्थित थे। कर्नल अपने नाम के अक्षर वाले खाने को देखे जा रहा था जो वहाँ उपस्थित थे। कर्नल अपने नाम के अक्षर वाले खाने को देखे जा रहा था। वहाँ रखे नीली बार्डर वाले एयरमेल लिफाफे को देख उसका टेंशन बढ़ रहा था।
डॉक्टर ने अख़बारों की सील तोड़ ली थी, अख़बार के शीर्ष समाचारों को पढ़ रहा था जबकि कर्नल की आँखें उस छोटे खाने पर टिकी थीं- वह पोस्टमास्टर को उसके सामने रुकने की राह देख रहा था। लेकिन वह रुका नहीं। डॉक्टर ने पढ़ना बीच में ही छोड़ कर्नल को देखा। फिर एक नज़र पोस्टमास्टर पर डाली जो टेलीग्राफ़ की मशीन के सामने बैठ गया था। और एक बार फिर कर्नल को देखा।
“हम जा रहे हैं?” उसने कहा।
पोस्टमास्टर ने सिर नहीं उठाया।
“कर्नल के लिए कुछ नहीं है।” उसने बिना सिर उठाए कहा।
कर्नल सुनकर शर्म से संकुचित हो गया।
“मैं तो इंतज़ार भी नहीं कर रहा था”, उसने झूठ बोला। वह डॉक्टर की ओर बच्चों जैसे चेहरे के भाव के साथ मुड़ा। “कोई मुझे लिखता ही नहीं है।”
वे ख़ामोशी से लौटने लगे। डॉक्टर अपना पूरा ध्यान अख़बार पर लगाए था। कर्नल अपनी आदत के अनुसार लौट रहा था जैसे कोई गुमे सिक्के को तलाशता लौटता है। शाम रोशनी से चमक रही थी। प्लाजा में लगे बादाम के पेड़ अपनी अंतिम सूखी पत्तियों को छोड़ रहे थे। जब वे डॉक्टर के ऑफिस के दरवाज़े पर पहुँचे तब तक साँझ गहराने लगी थी।
“और नए समाचार क्या हैं?” कर्नल ने पूछा
डॉक्टर ने उसे कुछ नए अख़बार दे दिए।
“कोई नहीं जानता”, उसने कहा, “लाइनों के बीच में पढ़ना मुश्किल है, जिसे सेंसर उन्हें छापने के लिए देता है।”
कर्नल ने मुख्य शीर्ष पंक्तियाँ पढ़ डालीं। अंतर्राष्ट्रीय समाचार। ऊपर चार कॉलम में स्वेज नहर की रिपोर्ट थी। मुख्यपृष्ठ पूरा जनाज़ों के विज्ञापनों से भरा हुआ था।
“चुनाव की तो कोई उम्मीद दिखती नहीं”, कर्नल ने कहा।
“कर्नल अब इतने नासमझ भी मत बनिए”, डॉक्टर ने कहा, “मसीहा की प्रतीक्षा करते आप-हम बूढ़े हो चुके हैं।”
कर्नल, ने अख़बार वापिस करना चाहा लेकिन डॉक्टर ने मना कर दिया।
“अपने साथ घर ले जाइए”, उसने कहा, “आप आज रात उन्हें पढ़ लीजिएगा और कल मुझे दे दीजिएगा।” सात बजे के बाद टॉवर की घंटियाँ सेंसर की गई फ़िल्मों के विज्ञापन को बतलाने के लिए सुनाई देने लगीं। फादर ऐंजल इस फ़िल्मों की नैतिकता के अनुसार विभाजन की घोषणा हर माह डाक से मिलने के बाद किया करते हैं। कर्नल की पत्नी ने बारह घंटियाँ सुनीं।
“किसी के भी उपयुक्त नहीं”, उन्होंने कहा, “एक बरस होने को आया है, हर फ़िल्म हर एक के लिए अनुपयुक्त ही दिखाई जा रही है।”
उन्होंने मच्छरदानी को नीचे गिराया और भुनभुनाते हुए कहा, “पूरी दुनिया ही भ्रष्ट हो गई है।” कर्नल ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। लेटने के पहिले उन्होंने टर्की को पलंग के एक पैर से बाँध दिया। इसके बाद घर की खिड़कियाँ-दरवाजे़ बंद कर कुछ कीटनाशक बंद रूम में स्प्रे किया। फिर लैंप फ़र्श पर रख हेमॉक को टाँगा और लोकल अख़बार पढ़ने लगे।
उन्होंने पहले पेज से अंतिम पेज तक विज्ञापनों सहित सब कुछ पढ़ डाला। रात के ग्यारह बजे कर्फ्यू का हूटर बज गया। आधे घंटे बाद उनका पढ़ना पूरा हुआ तो उन्होंने रात में पेटियों का दरवाज़ा खोला और मच्छरों से घिरे-चिथते हुए किसी तरह दीवार से लग पेशाब की। जब वे लौटे तो उनकी पत्नी जाग रही थीं।
“सेवानिवृत्तों के बारे में कुछ है क्या?”, उन्होंने पूछा।
“कुछ नहीं, कुछ भी नहीं”, कर्नल ने कहा। हेमॉक में लेटने के पहिले उन्होंने लैंप बुझा दिया। “शुरू-शुरू में तो वे नए पेंशनरों की सूची दिया करते थे। करीब पाँच बरस हो गए हैं जब से उन्होंने कुछ नहीं दिया है।”
आधी रात के बाद बरसात की झड़ी शुरू हो गई। कर्नल बमुश्किल से सोए ही थे कि उनकी नींद अंतड़ियों के कारण खुल गई। छप्पर में कहीं से पानी टपक रहा था, कानों तक कम्बल ओढ़कर वे अंधेरे में टपके को ढूँढ़ते रहे। रीढ़ की हड्डी में एक सर्द सुरसुरी ऊपर से नीचे तेज़ी से फैली। उन्हें बुखार था। उन्हें लगा जैसे वे जेली के टैंक में गोल-गोल घूम रहे हों “किसी ने कुछ कहा”, कर्नल ने घूमती खाट से उत्तर दिया।
“तुम किससे बात कर रहे हो?” पत्नी ने पूछा।
“अंग्रेज़ से जो शेर की खाल ओढ़ कर्नल आरेलियानो बुनेदिया के कैम्प में आ गया था”, कर्नल ने उत्तर दिया। अपने हेमॉक में उसने बुखार में तपते हुए करवट बदली। ‘वह ड्यूक ऑफ मार्लबरो थे।'
सुबह आसमान साफ़ था। मॉस (प्रार्थना) की दूसरी घंटी पर वे हेमॉक से कूदकर उतरे और उनके सामने अस्पष्ट यथार्थ था जो टर्की की कुकड़ू -कूं से और तीखा हो गया था। उनका सिर अभी भी तेज़ी से घूम रहा था। जी मितला रहा था। पेटियों से ही वे शौचालय की ओर सर्दियों के अंधेरों की खुशबू और बमुश्किल सुनी जा सकने वाली फुसफुसाहटों से बढ़ गए। जस्ते के छप्पर वाला सकरा-सा शौचालय अमोनिया की गंध से बजबजा रहा था। कर्नल ने जैसे ही ढक्कन उठाया तो मक्खियों का एक त्रिभुज गड्ढे से तेज़ी से बाहर निकला।
वह फ़ाल्स अलार्म था। शौचालय के प्लेटफ़ार्म पर वे असहज हो बैठे थे। पेट के दबाव की जगह पाचन नलिका में हल्का-सा दर्द महसूस हो रहा था। “कोई सन्देह ही नहीं है” वे बुदबुदाये। “हर अक्टूबर में यही होता है” उम्मीद लगाए वे बैठे रहे जब तक अंतड़ियाँ शांत नहीं हो गईं। और फिर वह बेडरूम में टर्की के लिए लौट आए।
“तुम रातभर बुखार में बड़बड़ाते रहे”, पत्नी ने कहा।
वे कमरे की सफाई में, एक हफ्ते तक दमे के शिकार रहने के बाद लग गई थीं- कर्नल ने याद करने की कोशिश की।
“मुझे कल बुखार नहीं था”, उसने झूठ बोलते हुए कहा, “मकड़ियों के जाले का सपना दोबारा आया था।”
जैसा हमेशा होता था वे दमे के दौरे के बाद ऊर्जा से भरी तो थीं, लेकिन कुछ नर्वस थीं। सुबह के घंटों में उन्होंने पूरे घर को उल्टा-सीधा कर दिया। उन्होंने हर समान की पोजीशन बदली, घड़ी और लड़की की फ़ोटो को छोड़कर। वे इतनी दुबली-पतली दिख रही थीं, कि जब वे पूरी बटन लगी काली डे्रस और कपड़ों की स्लीपर्स में चलती थीं तो लगता था जैसे उनमें दीवारों के आर-पार जाने की शक्ति हो। लेकिन बारह बजने के पहिले उनका मोटापा लौट आया था, उनका स्त्रियोचित वजन। बिस्तर में तो वे शून्य लगती थीं। लेकिन अभी फर्न्स और बेगोनिया के फूलों के गमले के बीच चलते उनकी उपस्थिति घर में हर जगह मौजूद दिखती थी। “यदि ऑगस्टी का शोक वर्ष निकल गया है तो मैं गाना गाना शुरू कर दूँ”, उन्होंने अपने आप से स्टोव पर रखे बर्तन में मौजूद सब्जियों को उबालते हुए करछुल से हिलाते कहा।
“यदि तुम्हारा मन गाने का है, तो गाओ न”, कर्नल ने कहा। “यह तो तुम्हारी श्वास के लिए अच्छा ही होगा।”
लंच के बाद डॉक्टर आ गया था। कर्नल और उनकी पत्नी किचन में उस समय कॉफ़ी पी रहे थे जब उसने सड़क की ओर के दरवाज़े को खोलते हुए कहाः
“क्या हर कोई मर गया है?”
कर्नल उसके स्वागत में उठ खड़ा हुआ।
“डॉक्टर कुछ ऐसा ही लगता है।” उसने लिविंग रूम में जाते हुए कहा, “मैं तो हमेशा कहता रहता हूँ कि तुम्हारी घड़ी गिद्धों से मिली हुई है।”
पत्नी डॉक्टर को दिखाने के लिए तैयार होने बेडरूम में चली गई। डॉक्टर कर्नल के साथ लिविंग रूम में ही रुका रहा। गर्मी के बावजूद उसके लिनन सूट से ताज़गी की बू आ रही थी। जब स्त्री ने आकर बतलाया कि वो तैयार हैं तब डॉक्टर ने कर्नल को तीन शीट पेपर एक लिफाफे में दिए। बेडरूम में जाते हुए उसने कहा, “ये हैं वे समाचार जिन्हें कल के अख़बार में छापा नहीं गया।”
कर्नल को पहिले ही इसका अंदाजा हो गया था। वे देश की घटनाओं की सूचनाएँ थीं जो गुप्त रूप से बाँटे जानें वाली प्रतिलिपियाँ थीं। उनमें देश में भीतरी भागों में हो रहे सशस्त्र विरोध की घटनाएँ थीं। कर्नल ने अपने को पराजित महसूस किया। दस वर्षों की गुप्त रिपोर्ट उसे यह नहीं सिखा पाई थी कि अगले माह की रिपोर्ट से अधिक चौकाने वाली कोई ख़बर नहीं होती। जब तक डॉक्टर वापिस लिविंग रूम में आता उसने सभी समाचार पढ़ लिए थे।
“यह बीमार तो मुझसे अधिक स्वस्थ हैं”, उसने कहा, “ऐसे दमा के साथ तो मैं सौ साल तक आराम से रह सकता हूँ।”
कर्नल ने उसे घूर कर देखा। उसने बिना एक शब्द कहे लिफाफा वापिस बढ़ा दिया, लेकिन डॉक्टर ने लेने से इन्कार कर दिया।
“दूसरे को दे देना”, उसने फुसफुसा कर कहा।
कर्नल ने लिफाफे को अपने पैंट की जेब में रख लिया। पत्नी बेडरूम से बाहर यह कहती बाहर निकली, “बस किसी भी दिन मैं उठूँगी और मर जाऊँगी और तुम्हें अपने साथ ही नरक में ले जाऊँगी डॉक्टर।” डॉक्टर ने अपने सफे़द चमकते दाँतों की बाछें खिलाते हुए चुपचाप उत्तर दिया। साथ ही उसने एक कुर्सी टेबिल के पास खींची और अपने बैग से कुछ फ्री सेम्पल की दवाइयाँ निकालीं। पत्नी किचन में उठकर चली गईं।
“अभी रुको, मैं कॉफ़ी गर्म करती हूँ।”
“नहीं, बहुत-बहुत धन्यवाद”, डॉक्टर ने कहा और अपने पैड पर डोज लिखते हुए कहा,“मैं तुम्हें यह मौका दूँगा ही नहीं कि तुम मुझे ज़हर पिला सको।”
उत्तर सुन वे वहीं किचन में ज़ोर से हँस पड़ीं। लिखने के बाद डॉक्टर ने जोर से पढ़ना शुरू किया क्योंकि उसकी हैंड राइटिंग कोई पढ़ ही नहीं पाता था। कर्नल ने ध्यान से सुनने की कोशिश की। किचन से लौट पत्नी ने उनके चेहरे पर पिछली रात की थकावट देखी।
“आज सुबह इन्हें बुखार था”, उसने अपने पति की ओर इशारा करते कहा। “दो घंटों तक गृह-युद्ध की बकवास करते रहे थे।”
कर्नल ने चौंककर देखा।
“अरे वह बुखार नहीं था भई”, उन्होंने जोर देकर कहा, और कुछ पल रुक आगे जोड़ा, “जिस दिन मैं बीमार महसूस करूँगा तो मैं खुद ही जाकर कचरे के डिब्बे में स्वयं को फेंक दूँगा।”
कह वह बेडरूम में अख़बार ले चले गए।
“तारीफ़ के लिए धन्यवाद”, डॉक्टर ने कहा।
वे दोनों प्लाजा की ओर पैदल चल दिए। हवा में खुश्की थी। सड़कों की डामर गर्मी से पिघलने लगी थी। जब डॉक्टर ने उससे ‘गुड बाई' कहा तो कर्नल ने दाँत भींचते हुए धीमी आवाज़ में पूछा “डॉक्टर, हमें तुम्हें कितने पेसो देना है?”
“आज के लिए तो कुछ भी नही”, डॉक्टर ने कहते हुए उसका कंधा थपथपाया। “जब तुम्हारा टर्की जीतेगा न, तब मैं लंबा चौड़ा बिल भेज दूँगा।”
कर्नल वहाँ से टेलर की दुकान, ऑगस्टीन के मित्रों को गुप्त पत्र देने बढ़ गया। यही उसकी एकमात्र शरणस्थली बन गया था जब से उसके सह-योद्धा मारे गए हैं या शहर-बदर कर दिए गए हैं और वह एक ऐसे व्यक्ति में रूपांतरित हो गया है जिसके पास शुक्रवार की डाक का इंतज़ार करने के सिवाय और कोई काम नहीं बचा है।
गर्मी ने पत्नी की ताक़त वापस ला दी थी।
बरामदे में बेगोनियाँ से घिरी वे पुराने-जर्जर कपड़ों के बॉक्स के पास बैठीं शून्य से नए कपड़े बनाने के शाश्वत चमत्कार में व्यस्त थीं। उन्होंने बाँहों से कॉलर, पीठ से कफ और गोल पेंच, ठीक ढंग से बनाए हालाँकि अलग रंग के कपड़ों से उन्होंने बनाए थे। पेटियों से सिसादा कीड़ें ने सीटी बजाई। सूरज की रोशनी कुछ धीमी हुई, लेकिन उन्होंने उसे बेगोनियाँ के पौधों के पीछे डूबते नहीं देखा। गोधूलि बेला में ही उन्होंने सिर उठाया, जब कर्नल घर लौटे। सिर उठा अपनी गर्दन दोनों हाथों से पकड़ी, तानी और फिर उंगलियों को चटकाते कहा, “मेरा सिर तो लकड़ी जैसा अकड़ गया है।”
“वह तो हमेशा से ऐसा ही रहा है”, कर्नल ने कहा और साथ ही अपनी पत्नी की पूरी देह को रंग बिरंगे कपड़ों से भरा देखा। “तुम तो मेगपाई चिड़िया जैसी दिख रही हो।”
“तुम्हें भले मानुस जैसे कपड़ों में रखने के लिए किसी को भी आधी मेगपाई बनना ही पड़ेगा न”, उन्होंने कहते हुए तीन रंगों की एक शर्ट खोलकर दिखाई जिसमें सिवाय कॉलर और कंधों के जो एक ही रंग के थे। “कार्नीवाल में तुम्हें बस जैकेट भर उतारना होगा।”
छः बजने की सूचना देने वाले घंटों ने उन्हें बीच में ही रोक दिया। “द ऐंजल ऑफ द लार्ड एनाउंस्ड अनटु मेरी (लार्ड के देवदूत ने मेरी से कहा)।” जोर से प्रार्थना करती वे बेडरूम की ओर चली गईं। कर्नल उन बच्चों से बात करने लगे जो स्कूल के बाद टर्की को देखने आए थे। और तभी उन्हें याद आया कि कल के लिए मक्का तो है ही नहीं, इसलिए बेडरूम में पत्नी से पेसो माँगने चले गए।
“मेरे ख्याल से तो पचास सेंट ही बचे होंगे”, पत्नी ने उत्तर दिया।
वे रूमाल के कोनों में पेसो बांधकर दरी के नीचे छिपाकर रखती थीं। वे ऑगस्टीन की सिलाई मशीन बेचने से बचे पेसो थे। पिछले नौ माहों से वे पेनी दर पेनी अपनी और टर्की की आवश्यकताओं पर धीरे-धीरे खर्च करते आए हैं। अब केवल दो बीस सेंट और एक दस सेंट का सिक्का ही बचा था।
“एक पाउंड मक्का”, पत्नी ने कहा, “इस चिल्लर में खरीद लो और साथ ही कल के लिए कॉफ़ी और चार औंस चीज भी ले आना।”
“और साथ में दरवाज़े पर टाँगने के लिए सोने का हाथी भी, है न”, कर्नल ने उत्तर दिया, “पता है मक्का अकेला ब्यालीस का आएगा।”
दोनों कुछ मिनिट तक ख़ामोश हो सोचते रहे। “टर्की तो जानवर ठहरा इसलिये रुक सकता है”, स्त्री ने चुप्पी तोड़ते कहा। लेकिन उसके पति के चेहरे के बदलते भावों ने उन्हें सोचने के लिए बाध्य कर दिया। कर्नल पलंग पर बैठ घुटनों पर कोहनी रख हाथों में लिए सिक्के बजाते बैठ गए। “यह मैं अपने लिए नहीं कर रहा हूँ भई”, एक मिनिट रुककर कहा, “यदि मेरा वश चलता तो मैं आज शाम को ही टर्की का शोरबा बना लेता और पचास पेसों की बदहजमी अच्छी ही होती”, कह वे रुके और गर्दन पर बैठे मच्छर को ज़ोर से हाथ मारकर मारा और फिर अपनी पत्नी को कमरे में टहलते हुए देखने लगे।
“मेरी परेशानी का कारण वे गरीब बच्चे हैं जो एक आशा में पेसो बचा रहे हैं।”
सुन वे ध्यान मग्न हो गईं। हाथ में कीड़ामार बम ले वे कमरे में घूमने लगीं। कर्नल को उनके इस व्यवहार में कुछ अवास्तविकता लगी, जैसे वे घर में रहने वाली आत्माओं को जगाकर उनसे सलाह कर रही हों। अंत में उन्होंने बम छोटे मैटल पर हाथ के निशान छोड़ रख दिया और अपनी सिरप रंग की आँखों को कर्नल की सिरप रंग की आँखों में डाल दीं।
“ठीक है मक्का खरीद लो”, उन्होंने कहा, “भगवान जाने हमारा क्या होगा?”
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“यह डबलरोटी के दुगने हो जाने का चमत्कार है”, कर्नल इसी वाक्य को अगले हफ्ते में रोज़ टेबिल पर बैठ दोहराते रहे। अपनी सिलाई, रफूगिरी और फटे कपडों को सुधारने की चमत्कारी क्षमता के चलते पत्नी गृहस्थी को बिना पेसों के घसीटे चले जा रही थीं। अक्टूबर का समझौता चलता रहा। उमस का स्थान नींद ने ले लिया था। तंबियाए सूरज ने दमे से राहत दी तो उन्होंने तीन शामें अपनी गझिन केश-सज्जा में दे दिए। “हाई मॉस (बड़ी प्रार्थना) शुरू हो गई है”, एक शाम को कर्नल ने कहा। उस समय वे अपनी लंबी लट को कंघे से सुलझा रही थीं जिसके कुछ दाँत गिर चुके थे। दूसरी शाम पेटियों (आँगन) में गोदी में सफ़ेद कपड़ा बिछा वे एक अच्छे कंघे से जुएँ निकालती रहीं जो बीमारी के दिनों में पैदा हो गए थे। अंत में लैवेंडर पानी से बाल धोकर उनके सूखने का इंतज़ार करती रहीं और फिर उन्हें दोहरा कर गर्दन पर मोड़ बैरेट (गोल टोपी) से बाँध लिया। कर्नल बैठा इंतज़ार करता रहा। रात को हेमॉक में आँखें खोल वे घंटों टर्की को ले चिंतित होते रहे। लेकिन जब बुधवार को उसे तौला तो उसका वजन ठीक था।
उसी शाम जब ऑगस्टीन के साथी टर्की की काल्पनिक जीत की रकम गिन कर चले गए तो कर्नल भी अपने आप को बेहतर महसूस कर रहे थे। उनकी पत्नी ने उनके बाल काट दिए। “तुमने मेरे बीस वर्ष मुझसे छीन लिए हैं।” कर्नल ने अपने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। पत्नी अपने पति की इस राय से सहमत थीं।
“जब मैं स्वस्थ रहती हूँ न, तो मैं लाश को भी जीवित कर सकती हूँ”, उसने शान से कहा।
लेकिन उनका यह विश्वास कुछ घंटों तक ही कायम रहा। घर में घड़ी और पिक्चर को छोड़ और कुछ बेचने को बचा ही नहीं था। गुरूवार की रात अपने साधनों के अभाव की परेशानी बताई तो कर्नल ने उन्हें आश्वस्त करते कहा, “परेशान क्यों हो रही हो, कल डाक आएगी न।”
दूसरे दिन कर्नल ने डॉक्टर के ऑफ़िस में बैठ लांचों (नावों) के आने की राह देखी।
“कुछ भी कहो हवाई जहाज शानदार होते हैं”, कर्नल ने डाक थैले पर नजर टिकाए कहा, “वे कहते हैं कि रात भर में ही आप यूरोप पहुँच सकते हैं।”
“आप ठीक कह रहे हैं”, डॉक्टर ने एक मैगज़ीन से पंखा करते कहा। कर्नल ने डॉक पर खड़े समूह में से पोस्टमास्टर को तलाश लिया, जो लांच में कूदकर जाने को तैयार खड़ा था। सबसे पहले पोस्टमास्टर ही कूदा। उसने कैप्टन से सील बंद एक लिफ़ाफ़ा लिया, फिर वह ऊपर चढ़ गया। डाक थैला दो तेल के ड्रमों के बीच में बँधा था।
“लेकिन उसके अपने खतरे भी तो हैं”, कर्नल ने कहा। पोस्टमास्टर उसकी आँखों से ओझल हो गया था लेकिन कुछ देर बाद ही उसने उसे रिफ्रेशमेंट की रंगीन बोतलों की गाड़ी के बीच देख लिया। “मनुष्यता बिना मूल्य चुकाये तरक्की नहीं करती।”
“लेकिन हमारी आज की स्थिति में वह लांच से तो ज्यादा ही सुरक्षित है,” डॉक्टर ने कहा “बीस हजार फुट पर आप मौसम से ऊपर रहते हैं।”
“बीस हजार फुट” कर्नल ने परेशान हो दोहराया, बिना इस ऊंचाई के बारे में अंदाज लगाए।
डॉक्टर की रुचि जाग गई थी। उसने पत्रिका को दोनों हाथ से फैला लिया जब तक वह स्थिर नहीं हो गयी। “वहाँ पूर्ण स्थिरता होती है” उसने कहा।
लेकिन कर्नल पोस्टमास्टर के क्रियाकलापों को देखे जा रहा था। उसने उसे झाग भरा गुलाबी ड्रिंक लेते देखा, जिसके गिलास को वह बायें हाथ में पकड़े था। दाहिने हाथ में वह डाक थैला लिए था।
“यही नहीं समुद्र में जहाज रात को आने वाले हवाई जहाजों की राह देखते हैं।” डॉक्टर ने आगे कहा “इतनी सारी सावधानियों के साथ तो वह लांच से अधिक सुरक्षित है।”
कर्नल ने उसे देखा और कहा “स्वाभाविक है, वह तो गलीचे जैसा ही होगा।”
पोस्टमास्टर उनकी ओर बढ़ा। कर्नल ने उत्सुकता से घबराकर एक कदम पीछे रखते सीलबंद लिफ़ाफ़े के नाम को पढ़ने की कोशिश की। पास आकर पोस्टमास्टर ने थैला खोला और डॉक्टर को उसका अख़बार का बंडल दे दिया। फिर उसने डाक के बँधे बंडल को खोल डाला और लिस्ट से डाक को मिलाया और पत्रों पर लिखे पते पढ़े। डॉक्टर ने अख़बार खोल लिया।
“स्वेज में अभी भी झंझट है”, उसने अख़बार की हेडिंग पढ़ते कहा, “पश्चिम कमज़ोर हो रहा है।”
कर्नल ने हेड लाइनें नहीं पढ़ीं, उसने अपने पेट की गड़गड़ाहट को रोकने की कोशिश की, “जब से सेंसरशिप शुरू हुए हैं अख़बार केवल यूरोप की बातें करते रहते हैं, उसने पेट पर अधिकार पा कहा, “यूरोपियनों के लिए तो सबसे अच्छा यही होगा कि वे यहाँ आ जावें और हम लोग यूरोप चले जाएँ उनकी जगह। बस तभी जाकर सबकी समझ में आएगा कि उसके देश में वास्तव में क्या हो रहा है।”
“यूरोपियनों के लिए तो दक्षिण अफ्रीका मूँछ वाला एक आदमी है जिसके हाथ में गिटार है और कमर में गन”, डॉक्टर ने अख़बार नीचे कर ज़ोर से हँसते हुए कहा, “वे समस्या को समझते ही नहीं हैं।”
पोस्टमास्टर ने डाक बाँट दी। बाकी बची उसने बैग में रखी और बैग को बंद कर दिया। डॉक्टर दो व्यक्तिगत पत्रों के लिफ़ाफ़ों को पढ़ने जा रहा था, लेकिन लिफ़ाफ़ा फाड़ने के पहिले उसने कर्नल को देखा फिर उसने पोस्टमास्टर को देखा।
“कर्नल के लिए कुछ नहीं है?”
कर्नल भीतर से सहम गया। पोस्टमास्टर ने थैला कंधे पर रखा, प्लेटफ़ार्म से उतरा और बिना सिर घुमाए कहा, “कर्नल को कोई लिखता ही नहीं है।”
अपनी आदत के विपरीत वे सीधे घर नहीं गए। टेलर के यहाँ बैठ एक कप कॉफ़ी पी। इस बीच ऑगस्टीन के मित्रगण अख़बारों को पलटते रहे। उसे धोखेबाजी का अहसास हो रहा था। वे वहीं अगले शुक्रवार तक रुके रहना पसंद करते ताकि खाली हाथों से अपनी पत्नी का सामना न करना पड़े। लेकिन जब दर्जी की दुकान बंद हो गई तो सच्चाई का सामना करना पड़ा। पत्नी राह देख रही थी।
“कुछ नहीं?” उसने पूछा।
“कुछ भी नहीं”, कर्नल ने उत्तर दिया।
अगले शुक्रवार को वह फिर लांच तक गया और पिछले सभी शुक्रवारों की तरह वह बिना प्रतीक्षित पत्र के लौटा। “हमने बहुत लम्बे समय तक प्रतीक्षा कर ली”, पत्नी ने उस रात उनसे कहा, “पन्द्रह वर्षों तक एक पत्र की प्रतीक्षा करने के लिए तुम्हारी तरह सांड-से धैर्य की आवश्यकता तुम्हारे पास है।” कर्नल बिना उत्तर दिए अपने हेमॉक में लेट अख़बार पढ़ने लगे।
“हमें अपनी बारी की प्रतीक्षा तो करनी ही होगी।” उन्होंने कहा, “हमार नंबर 1823 है।”
“जबसे हम प्रतीक्षा कर रहे हैं न, तब से वह नंबर लॉटरी में दो बार आ चुका है”, उनकी पत्नी ने सर्द आवाज़ में उत्तर दिया।
कर्नल ने अपनी आदत के अनुसार पहले पेज से अंतिम पेज तक विज्ञापनों सहित अख़बार पढ़ डाला। लेकिन आज उनका मन नहीं लगा। पढ़ते हुए वह वेटर्न पेंशन के बारे में सोचता रहा। उन्नीस वर्ष पहले जब कांग्रेस ने कानून बनाया था, तब उसे आठ बरस लगे थे अपने अधिकार को सिद्ध करने में। फिर उसे छः बरस और लगे थे उस लिस्ट में अपना नाम जुड़वाने में। कर्नल को अंतिम पत्र इसी विषय में मिला था।
कर्फ्यू के घंटे के बाद उसका पढ़ना पूरा हुआ। जब वह लैम्प बुझाने हेमॉक से उतरा तब उसे अपनी पत्नी के जगे होने का अहसास हुआ।
“क्या तुम्हारे पास अभी भी वो कटिंग है?”
औरत कुछ समय तक सोचती रही।
“हाँ, वो दूसरे काग़ज़ों में होगी।” कह वे मच्छरदानी से बाहर निकलीं और अलमारी से एक लकड़ी की पेटी निकालकर खोली और उसमें से रबरबैंड से बँधा पत्रों का एक बंडल निकाला जिसमें तारीख़ों के हिसाब से चिट्ठियाँ रखी थीं। उसमें से उसने एक लॉ फर्म का एक विज्ञापन निकाला जिसमें युद्ध पेंशन के बारे में शीघ्र निर्णय का आश्वासन दिया गया था।
“मैं तुम्हें वकील बदलने के बारे में विश्वास दिलाने में समय बर्बाद कर रही थी न तब हमें पेसो खर्च करने चाहिए थे”, औरत ने अपने पति को अख़बार की कटिंग देते कहा, “हमें इस तरह उनके द्वारा शेल्फ पर रख देने से तो कुछ मिलने वाला नहीं है।”
कर्नल ने दो बरस पुरानी कटिंग पढ़ी ओर उसे दरवाज़े पर टँगी जैकेट के पॉकेट में रख दिया।
“समस्या यह है कि वकील बदलने के लिए रकम लगती है।”
“नहीं, बिल्कुल नहीं”, औरत ने निर्णयात्मक स्वर में कहा, “तुम्हें उन्हें बस इतना लिखना होता है कि जो कुछ भी फीस होगी उसे वे पेंशन मिलने पर काट लेंगे। इसी तरह तो वे मामलों को लेते हैं।”
इसलिए शनिवार की शाम को कर्नल अपने वकील से मिलने पहुँच गये। उसने उसे हेमॉक में आराम से ऊँघते हुए देखा। वह एक विशालकाय नीग्रो था जिसके मुँह में ऊपर की दो दाढ़ छोड़ कुछ नहीं था। वकील ने नीचे रखी लकड़ी की सोल वाली स्लीपर में पैर डाले और ऑफ़िस की खिड़की धूल मेरी पिऐनोला में खोल दी जहाँ ऑफीशियल गजट की कटिंग एकाउंटिंग लेजर्स में एकाउंटिंग बुलेटिन के साथ चिपकी थी। चाबी रहित पिएनोला डेस्क की दोहरी नौकरी भी करता था। वकील घूमने वाली कुर्सी पर बैठ गया। अपने आने का कारण बताने के पहिले कर्नल के चेहरे पर कुछ असहजता आई।
“मैंने तो पहिले ही तुम्हें चेतावनी दे दी थी कि इसमें कुछ और दिन लगेंगे।” कर्नल कुछ देर चुप बैठा रहा। वह पसीने से तर था। उसने कुर्सी पीछे खिसकाई और विज्ञापन के पेपर से हवा करने लगा।
“मेरा एजेंट मुझे हमेशा लिखता रहता है कि जल्दबाज़ी की आवश्यकता नहीं है।”
“पन्द्रह वर्ष से यही तो कहा जा रहा है”, कर्नल ने उत्तर दिया। “यह तो बधिया मुर्गे जैसी कहानी ही हो गई।”
वकील ने विस्तार से ऑफ़िस की कार्यप्रणाली को समझाया। उसके ढीले-ढाले चूतड़ों के लिए कुर्सी बहुत सकरी थी। “पन्द्रह वर्ष पहिले यह बहुत सरल था”, उसने कहा, “तब वहाँ बाहर के वृद्ध नागरिकों का संगठन था जिसमें दोनों पार्टियों के सदस्य थे।” उसने फेफड़ों में गंदी गर्म हवा भरते हुए अगला वाक्य कुछ ऐसे कहा जैसे अभी उसका अविष्कार किया हो, “संख्या में शक्ति होती है।”
“मेरा मामला ऐसा है ही नहीं”, कर्नल ने पहली बार अपने एकाकीपन को महसूस करते हुए कहा, “मेरे सभी कामरेड डाक की राह देखते-देखते मर गए।”
वकील के चेहरे पर कोई भाव परिवर्तन नहीं हुआ।
“कानून बहुत देर से बना था”, उसने कहा, “हर कोई तुम्हारी तरह भाग्यशाली तो नहीं था, आप तो बीस वर्षों में कर्नल बन गए थे। ऊपर से कोई अतिरिक्त राशि निश्चित नहीं की गई थी, इसलिए सरकार को बजट में अलग से व्यवस्था करनी पड़ी थी।”
यह वही पुरानी सुनी सुनाई कहानी थी जिसे सुन वह मौन क्रोध से भर जाया करता था। “यह कोई दया या भीख नहीं है”, उसने कहा, “हमें कोई खैरात नहीं बाँटी जा रही है। हमने रिपब्लिक को बचाने में अपनी हड्डियाँ तुड़वाई थीं।” वकील ने निराशा में दोनों हाथ हवा में फेंके। “बस ऐसा ही है”, उसने कहा, “आदमी की अहसानफरामोशी की कोई हद तो होती नहीं है न।”
कर्नल को यह कहानी भी पता थी। उसने उसे नीरलांदिया की संधि के दूसरे दिन सबसे पहले सुना था जब सरकार ने दो सौ क्रांतिकारी ऑफीसरों को यात्रा सुविधा और भत्ते देने का वायदा किया था। नीरलांदिया के एक विशालकाय रेशमी-सूती पेड़ के नीचे क्रांतिकारी बटालियन रुकी हुई थी, जिसमें स्कूल को छोड़कर भर्ती हुए युवक थे- वे तीन माहों तक राह देखते रहे थे। फिर वे सभी अपनी-अपनी व्यवस्था कर घर लौट गए थे और प्रतीक्षा करते रहे। साठ वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी कर्नल अभी भी प्रतीक्षा ही कर रहा है।
इन यादों में डूबे कर्नल का व्यवहार असामान्य-सा हो उठा। उसने अपना दाहिना हाथ जाँघ पर रख लिया जिसमें मात्र हड्डियाँ थीं जो नसों से मिली थीं और बुदबुदायाः “बहरहाल मैंने कुछ न कुछ करने का निश्चय किया है।”
वकील प्रतीक्षा कर रहा, “जैसे?”
“पहिला तो वकील बदलने का।”
तभी एक बत्तक बहुत से चूज़ों के साथ ऑफ़िस में घुसी। वकील तनकर बैठ उन्हें भगाने लगा। “जैसी आपकी इच्छा, यदि मैं चमत्कार कर सकता होता तो मैं इस खेत के अहाते में नहीं रहा आया होता।” उसने एक लकड़ी का पटिया आँगन के दरवाज़े पर रखा और अपनी कुर्सी पर लौट आया।
“मेरा बेटा पूरी ज़िंदगी मेहनत करता रहा”, कर्नल ने कहा, “मेरा मकान रहन रखा है, रिटायरमेंट कानून बनाने से वकीलों को जिन्दगी भर की पेंशन मुफ्त में मिल गई है।”
“मेरे लिए नहीं”, वकील ने विरोध किया, “आखिरी सेंट तक मैंने तो मामले में ही खर्च किया है।”
कर्नल को वकील के प्रति अन्याय करने से दुख महसूस हुआ।
“मेरा भी तो यही तात्पर्य था”, उसने अपने आपको सुधारते हुए कहा। उसने अपने माथे को शर्ट की बाँह से पोंछा। “इतनी गर्मी पर्याप्त है किसी के भी भीतर के स्क्रू को जं़ग लगाने के लिए।”
एक पल बाद ही वकील पूरे ऑफ़िस में पावर ऑफ एटार्नी का फ़ार्म ढूँढ़ने में व्यस्त हो गया। सूरज उस छोटे से कमरे के बीच में आ गया था जो बिना रेत के बोर्डों से बना था। हर जगह देखने के बाद वकील ने ज़मीन पर हाथ-पैरों से हाँफ़ते हुए चलते पिएनोला के नीचे पीछे की ओर रखे काग़ज़ों के बंडल को उसने किसी तरह खींचा।
“लो, ये रहे”, कहते उसने कर्नल को सील लगा एक काग़ज़ देते कहा, “मुझे अपने एजेंटों को लिखना होगा ताकि वे मेरी कॉपियों को निरस्त कर दें”, कहते उसने बात खतम की। कर्नल ने काग़ज़ पर जमी धूल झाड़ी और उसे शर्ट की जेब में मोड़कर रख लिया।
“तुम ही फाड़ डालो”, वकील ने कहा।
“नहीं”, कर्नल ने उत्तर दिया, “ये मेरी बीस सालों की यादें है।” वह वकील के देखने की राह देखने लगा, लेकिन वकील ने ऐसा नहीं किया। वह हेमॉक के पास पसीना पोंछते चला गया। वहाँ से उसने चिलचिलाती हवा के बीच से कर्नल को देखा।
“मुझे डॉक्यूमेंटों की भी आवश्यकता होगी”, कर्नल ने कहा।
“कौन से?”
“मेरे क्लेम का प्रूफ़ (सबूत)।”
वकील ने दोनों हाथ फटकारते हुए कहा “अब यह तो असंभव ही होगा कर्नल।”
कर्नल सतर्क हो गया। मकोंडो जिले के क्रांति दस्ते के टे्रजरार के रूप में उसने छः दिन की परेशानी भरी यात्रा गृहयुद्ध के दो ट्रंक भर फंड खच्चर पर लादकर की थी। वह नीरलांदिया के कैंप में भूख से मरते खच्चर को किसी तरह घसीटते संधि हस्ताक्षर के आधे घंटे पहिले पहुँच पाया था। अटलांटिक तट की क्रांति सेना के क्वार्टर मास्टर जनरल कर्नल आरेलियानो व्यूऐंदिया ने गिनने के बाद पावती की रसीद दी थी।
“वे डाक्यूमेंट तो अमूल्य हैं”, कर्नल ने कहा, “उसमें कर्नल आरेलियानो ब्यूऐंदिया के हाथ से लिखी रसीद भी है।”
“मैं जानता हूँ”, वकील ने कहा, “लेकिन वे सभी काग़ज़ हज़ारों हज़ार हाथों से होते हज़ारों हज़ार ऑफ़िस में हों। भगवान जाने युद्ध मंत्रालय के किस डिपार्टमेंट में फिलहाल दफ़न हैं।”
“किसी भी अधिकारी का ध्यान उन पर जाए बिना रह ही नहीं सकता”, कर्नल ने कहा।
“लेकिन पिछले पन्द्रह वर्षों में कितने तो अधिकारी बदले हैं”, वकील ने समझाया, “इस बारे में भी तो ग़ौर करें कि सात अध्यक्ष हो चुके हैं, और हर अध्यक्ष ने अपना मंत्रिमंडल कम से कम दस बार बदला है और प्रत्येक मंत्री ने अपने स्टाफ को कम से कम सौ बार बदला है।”
“लेकिन डॉक्यूमेंट को कोई घर तो नहीं ले जाएगा”, कर्नल ने कहा, “प्रत्येक नए अधिकारी ने उन्हें उचित फाइल में ही पाया होगा।”
वकील का धैर्य समाप्त हो गया।
“और अब मान लो उन काग़ज़ों को मंत्रालय से निकाल लें तो उन्हें नई सूची की राह देखनी पड़ेगी।”
“इससे क्या अंतर पड़ता है”, कर्नल ने कहा।
“सदियाँ लग जाएँगी सदियाँ।”
“इससे क्या अंतर पड़ता है। यदि आपकी अपेक्षाएँ ज़्यादा हों तो आप प्रतीक्षा कुछ ज़्यादा भी तो कर सकते हैं।”
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उन्होंने एक पैड, पेन, दवात और ब्लास्टर ले जाकर लिविंग रूम की छोटी टेबिल पर रखा लेकिन बेडरूम का दरवाज़ा खुला रखा ताकि पत्नी से आवश्यकता पड़ने पर कुछ माँग सकें। वे माला जप रही थीं।
“आज तारीख़ क्या है?”
“सत्ताइस अक्टूबर।”
उन्होंने बेहद सफाई से लिखना शुरू किया, जो हाथ पेन पकड़े था वह ब्लास्टर पर रखा था, रीढ़ की हड्डी सीधी थी ताकि वह आराम से साँस ले सके ठीक वैसे जैसे बैठना स्कूल में सिखाया गया था। बंद लिविंग रूम में असहनीय गर्मी थी। चिट्ठी के दाग को साफ़ करना चाहा तो वो फैल गया। लेकिन उन्होंने अपना धीरज नहीं खोया। एक तारे का निशान बना हाशिए पर लिख दिया ‘अधिकार प्राप्त किए' फिर पूरा पैराग्राफ़ एक बार पढ़ डाला।
“सूची में मेरा नाम कब जुड़ा था?”
स्त्री ने अपने जाप को बिना रोके कहा, “12 अगस्त 1949।”
कुछ ही देर बाद बारिश होने लगी। कर्नल ने एक पेज में बड़ी-बड़ी डिजाइन-सी बना दी जो बचकानी लग रही थी, वही जिसे उसने मानायोर स्कूल में सीखा था। फिर उसने दूसरे काग़ज़ पर आधी दूर तक लिखा और फिर हस्ताक्षर कर दिए।
उन्होंने पूरा पत्र पत्नी को पढ़कर सुना दिया और उन्होंने सुन प्रत्येक वाक्य के बाद सिर हिला सहमति दे दी। पढ़ने के बाद लिफाफे को सील किया और लैम्प बुझा दिया।
“तुम किसी को टाइप करने को भी तो कह सकते हो।”
“नहीं”, कर्नल ने उत्तर दिया, “मैं लोगों के अहसान माँगकर थक गया हूँ।”
आधे घंटे तक वह खजूर के पत्तों से बने छप्पर पर बारिश होते सुनता रहा। शहर पानी से भर रहा था। कर्फ्यू का हूटर होने के साथ ही घर में पानी टपकने की आवाज़ें आने लगीं।
“यह बहुत पहिले कर लेना चाहिए था।” स्त्री ने कहा, “अपने हाथ काम कर लेना ही बेहतर होता है।”
“देर आयद दुरुस्त आयद”, कर्नल ने टपके की ओर ध्यान देते हुए कहा, “शायद यह सब तभी ठीक होगा जब रहन को चुकाने की तारीख़ आयेगी।”
“दो वर्षों में” स्त्री ने कहा।
उसने टपके को देखने के लिए लैम्प जलाया और बर्तन टपके के नीचे रखा और बेडरूम में लौट टपटप की आवाज़ें सुनने लगा।
“यह भी तो हो सकता है कि ब्याज बचाने के चक्कर में वे जनवरी के पहिले ही मामला सुलटाना चाहें” कहते उसे अपने कहने पर भी विश्वास हो गया, “तब तक ऑगस्टीन की बरसी भी हो जाएगी और हम सिनेमा देख सकेंगे।”
पत्नी मन ही मन हँस दी। “अब तो मुझे कार्टूनों तक की याद नहीं है” उसने कहा “वे ‘द डेड मेन्स विल' दिखा रहे थे।”
“क्या उसमें लड़ाई थी?”
“हमें पता ही नहीं चला, उसी समय तूफान आ गया था जब भूत लड़की का हार चोरी कर रहे थे।”
बारिश की एकरस आवाज़ ने उन्हें थपकी देकर सुला दिया। कर्नल को अपनी आँतों में वमन की उछाल-सी महसूस हुई, लेकिन वह डरा नहीं। एक और अक्टूबर वह काट लेने वाला है। उसने अपने को कंबल में अच्छे से लपेट लिया और कुछ देर तक अपनी पत्नी की भारी साँसों को दूर से आते दूसरे सपने में जाते सुनता रहा। और फिर वह बोल पड़ा पूरे होशोहवास में- पत्नी भी जाग गई।
“तुम किससे बात कर रहे थे?”
“किसी से तो नहीं” कर्नल ने उत्तर दिया “मैं सोच रहा था कि मकान्डो की बैठक में हम लोग सही थे जब हमने कर्नल आरलिनियो ब्यूऐंदिया को समर्पण के विरुद्ध सलाह दी थी। बस, उसी से तो बर्बादी की शुरूआत हुई थी।”
पूरे हफ्ते बारिश होती रही थी, नवंबर की दूसरी तारीख को कर्नल की इच्छा के विपरीत पत्नी ऑगस्टीन की कब्र पर फूल लेकर गई। कब्रिस्तान से लौटते उसे दूसरा दौरा पड़ गया था। वह एक कठिनाइयों भरा हफ्ता था। अक्टूबर के चार हफ्तों से कहीं अधिक तकलीफदेह जिसमें कर्नल को विश्वास था कि वह झेल नहीं पाएगी। डॉक्टर बीमार औरत को देखने आया था और कमरे से चिल्लाता हुआ बाहर निकला था। “ऐसे दमे के चलते तो पूरे शहर को दफन कराना मेरे लिए आसान होगा!” लेकिन कर्नल से उसने अकेले में बात की और विशेष प्रकार के खान-पान करने के लिए लिखा।
कर्नल भी दोबारा बीमार पड़ गए थे। घंटों वे ठंडे पसीने से हाँफते यह महसूस करते रहे जैसे उनकी आँतें टुकड़े हो बाहर निकलने वाली हों। “सर्दियाँ जो ठहरीं” उसने धीरज के साथ दोहराया। “बारिश बंद होते ही सब कुछ बदल जायेगा”, और उसे विश्वास था पूरी तरह से कि जैसे ही चिट्ठी आयेगी वे पूरी तरह जीवित हो जाएँगे।
अब इस बार उसकी ज़िम्मेदारी थी घर की माली हालत को सुधारने की। पड़ोस के किराने की दुकान से उधार माँगते-माँगते अपने दाँत कई बार मिसमिसाए। “बस, केवल अगले हफ्ते तक की बात है” वे कहा करते थे हालाँकि अपने कहने पर खुद कतई विश्वास न था। “कुछ रकम है जिसे पिछले शुक्रवार को आ जाना था।” जब औरत का पीछा दमे ने छोड़ा तो पति को देख डर गई।
“अरे तुम तो केवल हड्डियों के ढाँचे ही बचे हो” उसने कहा।
“मैं अपने को बेचने के लिए तैयार कर रहा हूँ” कर्नल ने कहा, “क्लेरेनेट की एक फैक्टरी ने तो मुझे किराए पर रख ही लिया है समझ लो।”
लेकिन वास्तविकता यह थी कि चिट्ठी की आशा उन्हें बमुश्किल ही बचा पा रही थी। उनकी हड्डियाँ अनिद्रा से कड़कड़ा रही थीं, वे अपने और टर्की के रोजाना ज़रूरी कामों को ही नहीं कर पा रहे थे। नवंबर के दूसरे पखवारे में तो लगा कि बिना मक्के के मुर्गा दो दिनों के भीतर ही मर जायेगा। इसी चिंता में उन्हें याद आया कि पिछली जुलाई में कुछ सेम के बीज चिमनी में बाँधकर चिमनी से लटकाये थे। उन्होंने पोटली उतारी और कुछ सूखे बीज टर्की के बर्तन में डाल दिए।
“इधर तो आओ ज़रा” पत्नी ने कहा।
“एक मिनिट” कर्नल ने टर्की की प्रतिक्रियाओं को देख उत्तर दिया। “भिखारियों को चुनाव का अधिकार नहीं होता।”
उन्होंने अपनी पत्नी को बिस्तर पर बमुश्किल किसी तरह बैठते हुए देखा। उसकी जर्जर देह से दवाइयों की बू निकल रही थी। एक-एक शब्द उसने सायास धीरे-धीरे स्पष्ट बोलते हुए कहा “इस टर्की से अभी ही जाकर छुटकारा पा लो।”
कर्नल को इस बात का पूर्वाभास पहिले ही हो गया था। वह तो इसकी राह उसी शाम से देख रहा था जब उसके बेटे को गोली मारी गयी थी और उसने टर्की को बचाए रखने का निर्णय लिया था। सोच विचार के लिए उन्हें पर्याप्त समय मिल गया था।
“आज इसकी कीमत नहीं मिलेगी” उसने कहा, “दो माहों में मुर्गेबाजी हो जायेगी और तब हमें इसके अच्छे दाम आसानी से मिल जायेंगे।”
“सवाल रुपयों का नहीं है” औरत ने कहा- “आज जब बच्चे आएँ तो तुम उनसे कह देना कि वे ले जायें और जो कुछ भी करना चाहे, करें।”
“यह तो ऑगस्टीन की ख़ातिर है” कर्नल ने अपना पहिले से तयशुदा तर्क रखा “उसके उस चेहरे को याद करो जब वह टर्की के विजय की ख़बर लेकर आया था।”
औरत वास्तव में अपने बेटे के बारे में ही उस समय सोच रही थी।
“वे गंदे बदशगुनी मुर्गे ही तो उसकी मौत के लिए ज़िम्मेदार है” वे चिल्लाईं “यदि वो उस तीन जनवरी को घर में रहा आया होता तो उसकी मौत का घंटा निकल गया होता।” कहते उसने अपनी झुर्रियों से भरी दुबली पतली पहली उँगली से दरवाजे़ की ओर इशारा करते हुए कहा- “मैं तो अभी भी उसे देख रही हूँ जब वो काँख में टर्की को दबाए जा रहा था और मैंने उसे मुर्गेबाज़ी में किसी प्रकार का झगड़ा मोल न लेने के लिए कहा था और उसने मुस्कुराते हुए कहा था “चुप भी रहो, आज शाम हम रुपयों में लोट रहे होंगे।”
इतना कह वे थककर लुढ़क गईं। कर्नल ने आहिस्ता से उनका सिर तकिये पर रख दिया। उनकी आँखें पत्नी की आँखों से टकराई जो उनकी अपनी आँखों से मिलती-जुलती थीं। “हिलो मत”, कहते उन्होंने अपने सीने में उनकी साँसों की सीटियों को सुना। पत्नी कुछ पलों को बेहोश-सी हो गईं। उनकी आँखें बंद हो गयीं। और फिर जब खोला तो उनकी साँसें बिना रुके आसानी से आ जा रही थीं।
“यह इसलिए है क्योंकि हम जंजाल में फिलहाल फँसे हैं” वे बोली “अपने मुँह के निवाले को टर्की को खिलाना पाप है पाप।”
कर्नल ने उनके माथे को चादर से पोंछा।
“तीन महिने में कोई मर नहीं जाता!”
“और इस बीच हम अपना पेट कैसे भरेंगे” पत्नी ने पूछा।
“मुझे पता नहीं” कर्नल ने कहा “लेकिन यदि हम भूख से मरने वाले होते तो अभी तक कब के मर चुके होते।”
टर्की खाली बर्तन के सामने पूरी तरह सजग जिंदा बैठा था। जब उसने कर्नल को देखते देखा तो उसके मुँह से खरखराने की आदमियों जैसी कुछ आवाज़ निकली और उसने अपना सिर झटके से सीधा कर लिया।
कर्नल ने उसकी ओर अपराध भरी मुस्कराहट के साथ देखते हुए कहा,
“दोस्ती ज़िंदगी बहुत दुष्कर होती है।”
कर्नल घर से निकल सड़क पर आ गया। शहर में वह भटकता रहा, उस पूरे समय जब लोग दोपहर की झपकियाँ लेते हैं। उनके मन में कोई उथल-पुथल नहीं थी यहाँ तक कि उन्होंने अपने आप को यह भरोसा दिलाने की कोशिश भी नहीं की कि उनकी समस्याओं का कहीं कोई हल है ही नहीं। भूल चुकी गलियों में वह तब तक भटकता रहा जब तक थककर चूर नहीं हो गया। और तब वह घर लौट आया। पत्नी ने उसे आते हुए सुन लिया और बेडरूम में बुला लिया।
“क्या है?”
औरत ने उसकी ओर बिना देखे कहा ”हम घड़ी को बेच देते हैं।”
कर्नल ने इस बारे में पर्याप्त सोच-विचार किया था। “मुझे पक्का यकीन है कि एल्वारो तुम्हें तुरंत चालीस पेसो खड़े-खड़े दे देगा।” पत्नी ने कहा “याद करो उसने कैसे फटाक से सिलाई मशीन खरीद ली थी।” वे उस टेलर के बारे में कह रही थीं जिसके यहाँ ऑगस्टीन काम करता था।
“मैं उससे सुबह बात कर लूँगा।” कर्नल ने सहमति व्यक्त करते हुए कहा।
“यह सब कुछ नहीं चलेगा कि सुबह बात कर लूँगा।” उसने ज़ोर देते हुए कहा, “इसी मिनिट घड़ी को उसके पास ले जाओ, उसे उसके काउंटर पर रखो और साफ लफ्ज़ों में कहो- “एल्वारो, मैं यह घड़ी लाया हूँ, तुम इसे खरीद लो” वो तुरंत समझ जायेगा।”
कर्नल को शर्मिंदगी महसूस हुई।
“यह तो होली सेपुल्चर (समाधि) को सरेआम ले जाने जैसा होगा”, उसने विरोध करते हुए कहा। “यदि वे इस शो पीस के साथ मुझे सड़क पर ले जाते देखेंगे तो पक्का समझ लो कि राफेल इस्कालोना अपने किसी गाने में मुझे पक्की तौर पर रख देगा।”
लेकिन इस विषय पर भी उसने पति को विश्वास दिला दिया। उसने स्वयं घड़ी दीवार से उतारी, उसे अख़बार से लपेटा और उसके हाथों में दे दिया। “बिना चालीस पेसो के लौटना नहीं”, उसने कहा। कर्नल हाथों में पैकेट लिए टेलर की दुकान की ओर चल दिया। उसने ऑगस्टीन के दोस्तों को दरवाज़े के पास बैठे देखा।
उनमें से एक ने उनके लिए कुर्सी खाली कर दी। “धन्यवाद”, कर्नल ने कहा, “मैं ज़्यादा देर रुक नहीं सकता।” एल्वारो दुकान से बाहर निकल आया था। हाल में बँधे तार पर भीगी बत्तक का एक हिस्सा लटका हुआ था। वह एक उड़ती-उड़ती सी आँखों वाला तंदुरुस्त दुबला-पतला लड़का था। उसने भी उनसे बैठने को कहा। कर्नल ने कुछ राहत महसूस की। वह वहीं दरवाज़े पर स्टूल पर झुककर एल्वारो के अकेले होने की राह देखता बैठा रहा। एकाएक उसे अहसास हुआ कि वह भावहीन चेहरों से घिरा हुआ है।
“मैं बाधा तो नहीं बन रहा हूँ”, उसने कहा।
उन्होंने सामूहिक रूप से इन्कार में सिर हिला दिया। उनमें से एक उनकी ओर मुड़ा और बेहद धीमी आवाज़ में जिसे सुनना भी कठिन था कहा, “ऑगस्टीन ने इसे लिखा था।”
कर्नल ने वीरान सड़क को देखा। “उसने क्या कहा है?”
“वही हमेशा की तरह।”
उन्होंने उसे एक गुप्त काग़ज़ दिया। कर्नल ने उसे अपनी पैंट की जेब में रख लिया। फिर वह पैकेट पर उँगली से खेलता-बजाता शांत हो गया, जब तक उसे यह अहसास नहीं हो गया कि किसी का ध्यान उस पैकेट की ओर चला गया है। उँगलियाँ तत्काल रुक गईं और वे प्रतीक्षा करने लगे।
“यह क्या लिए हैं कर्नल?”
कर्नल ने हेरनान की भेदने वाली हरी आँखों से बचने की भरसक कोशिश की।
“अरे कुछ नहीं है”, उसने झूठ बोला, “जर्मन के पास घड़ी ले जा रहा हूँ सुधरवाने के लिए बस।”
“अरे ज़रूरत ही क्या है कर्नल के वहाँ जाने की”, हेरनान ने पैकेट लेने की कोशिश करते हुए कहा, “एक मिनिट मुझे तो देखने दो।”
कर्नल ने पैकेट पीछे कर लिया। उसने कहा कुछ नहीं, लेकिन उसकी आँखों की पलकें गुलाबी हो गईं। दूसरों ने भी ज़ोर दिया।
“कर्नल, उसे देखने दो। वो मशीनों के बारे में जानता है।”
“अरे नहीं। मैं उसे परेशान करना नहीं चाहता।”
“परेशान! इसमें परेशानी की भला क्या बात है”, हेरनान ने ज़ोर देकर कहा और घड़ी एक प्रकार से छीन ली। “जर्मन दस पेसो लेगा तुमसे, और वो रहेगी वैसी की वैसी।”
हेरनान घड़ी को ले दर्जी की दूकान में चला गया। एल्वारो एक सिलाई मशीन पर झुका हुआ था। पीछे दीवार पर कील में लटके गिटार के नीचे एक लड़की बटन टाँक रही थी। गिटार के ऊपर एक पुट्ठा टँगा था जिस पर बड़े-बड़े अक्षरों में राजनीति की चर्चा वर्जित है, लिखा था। उधर बाहर बैठे कर्नल को अपनी देह ही व्यर्थ लग रही थी। उसने अपने पैर स्टूल के नीचे के पटिए पर रख लिए थे।
“ईश्वर सत्यानाश करे, कर्नल।”
वह चौंक गया “गाली देने की ज़रूरत क्या है ऐं”, उन्होंने कहा।
एल्फोंसो ने अपने नाक पर चढ़े चश्मे को ठीक किया और कर्नल के जूतों को देखा।
“यह तुम्हारे जूतों के कारण है” उसने कहा “तुम शायद कोई घटिया से नए जूते पहिने हो।”
“लेकिन यह तुम बिना गाली दिए भी तो कह सकते थे।” कर्नल ने कहते हुए अपने पेटेंट जूतों का तल्ला दिखलाया। “ये सत्यानाशी चालीस बरस पुराने हैं। और पहली बार है जब इन्होंने किसी को गाली देते सुना है।”
“सब ठीक हो गया।” हेरनान भीतर से चिल्लाया जैसे ही घड़ी की घंटी बोली। पड़ोस के घर से किसी औरत ने पार्टीशन को ठोंकते हुए चिल्लाकर कहा “उस गिटार को अकेला रहने दो। अभी ऑगस्टीन का बरस पूरा नहीं हुआ है।”
सुनकर कोई ज़ोर से ठहाका मारकर हँसा।
“यह तो घड़ी है।”
हेरनान पैकेट के साथ बाहर आ गया।
“कुछ गड़बड़ थी ही नहीं”, उसने कहा, “आप कहें तो मैं आपके साथ घर चलता हूँ और बिल्कुल ठीक से टाँग दूँगा।” कर्नल ने उसके प्रस्ताव को नकार दिया।
“मुझे कितने पेसो देने हैं।”
“उस बारे में चिंता न करें आप कर्नल”, हेरनान ने ग्रुप में अपनी खाली जगह में बैठते हुए कहा, “जनवरी में टर्की उसकी कीमत चुका देगा।”
कर्नल को एक मौका दिखा जिसकी राह वह देख रहा था।
“मैं तुम्हारे साथ एक सौदा करता हूँ ”, उसने कहा।
“क्या?”
“मैं तुम सभी को टर्की दे दूँगा”, कह उसने बैठी मित्रमंडली के चेहरों को एकटक देखा, “मैं तुम सभी को टर्की दे दूँगा।”
हेरनान ने उनकी ओर संदेह भरी नज़रों से देखा।
“अब मैं उस सबके लिए बहुत बूढ़ा हो गया हूँ”, कर्नल ने अपनी बात जारी रखी, उन्होंने अपनी आवाज़ में विश्वास का पुट मिलाते हुए कहा, “मेरी उम्र के लिहाज़ से यह ज़िम्मेदारी कुछ भारी ही है। कई दिनों से मुझे ऐसा लग रहा है कि शायद वह मरने वाला है।”
“उसकी चिंता न करें कर्नल”, एल्फोंसो ने कहा, “दरअसल टर्की अपने पंख छोड़ रहा है। उसके पंखों को बुखार हो गया है।”
“अगले महिने वो बिल्कुल ठीक हो जाएगा”, हेरनान ने कहा।
“कुछ भी हो, अब मैं उसे नहीं चाहता”, कर्नल ने कहा।
हेरनान ने अपनी आँखें उनकी आँखों में गड़ाते हुए ज़ोर देते हुए कहा, “कर्नल वस्तुस्थिति भी तो समझो, सबसे बड़ी बात यह है कि आप ही ऑगस्टीन के टर्की को रिंग में भेजें, समझे आप।”
कर्नल कुछ देर तक चुप रह सोचते रहे। “मैं इस बात को समझता हूँ”, उन्होंने कहा, “इसीलिए तो मैंने उसे अभी तक पाले रखा”, उन्होंने दाँत मिसमिसाए और भीतर से महसूस किया, कि वह अपनी बात किसी तरह कह सकता है, “मुश्किल यह है कि अभी भी दो महिने बचे हैं।”
हेरनान ने समस्या को समझ लिया।
“यदि केवल यह मामला है,तो यह कोई समस्या ही नहीं है”, उसने कहा। फिर उसने अपना हल सबके सामने रख दिया। दूसरों ने उसे स्वीकार लिया। सूरज डूबने पर जब वह हाथ में पैकेट लिए घर लौटा तो उसकी पत्नी ने हमला बोल दिया।
“क्यों कुछ नहीं मिला”, उसने पूछा।
“कुछ नहीं”, कर्नल ने उत्तर दिया, “लेकिन अब चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। सभी लड़के टर्की के पेट की व्यवस्था करेंगे।”
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“एक मिनिट रुको दोस्त मैं तुम्हें छाता लाकर देता हूँ।”
साबास ने ऑफ़िस की दीवार पर बने कबर्ड को खोला। उसने भीतर सब कुछ अस्त व्यस्त पायाः घुड़सवारी के जूते, लगाम और रकाब और एक अलमोनियम का बर्तन जिसमें ऐड़ी के काँटे रखे थे, लटके थे। ऊपर आधे दर्जन छाते और एक लेडी पेरासोल (छाता) लटका था। कर्नल दूर कहीं हुई विपत्ति के मलबे के बारे में सोच रहा था।
“धन्यवाद दोस्त”, कर्नल ने खिड़की पर झुकते हुए कहा, “मैं आसमान खुलने की राह देख लूँगा।” साबास ने कबर्ड बंद नहीं किया। वह वहीं बिजली के पंखे के पार डेस्क पर बैठ गया। फिर उसने ड्राअर से एक सीरिंज रुई में लिपटी हुई निकाली। कर्नल ने बारिश में स्याह होते बादाम के पेड़ों को देखा। वह एक ख़ामोश शाम थी।
“इस खिड़की से बारिश का रूप बदल जाता है” उसने कहा, “जैसे किसी दूसरे शहर में गिर रही हो।”
“बारिश तो बारिश होती है, उसे किसी भी जगह से क्यों न देखा जाए” साबास से उत्तर दिया। उसने सीरिंज को उबालने के लिए बर्तन में रख दिया। “यह शहर बदबू मारता है।”
कर्नल ने अपने कंधे उचकाए। वे ऑफ़िस के बीच की ओर चल दिए जिसमें हरी टाइल्स और फर्नीचर पर खुले रंग के कवर चढ़े थे। पीछे की ओर नमक की बोरियाँ, शहद के छत्ते और घोड़े की जीन बेतरतीब रखे थे। साबास खाली आँखों से उनका पीछा कर रहा था।
“यदि मैं तुम्हारी जगह होता, तो मैं ऐसा कतई नहीं सोचता”, कह वहीं पालथी मारकर बैठ गए, उनकी शांत नज़रें डेस्क पर झुके आदमी की ओर थीं। एक ठिगना आदमी, मोटा थुलथुला, जिसकी आँखों में दर्द था।
“क्या तुम्हारी जाँच डॉक्टर ने की थी दोस्त”, साबास ने कहा, “जनाज़े के दिन से तुम कुछ उदास दिख रहे हो।”
कर्नल ने अपना सिर उठाया। “नहीं तो, मैं तो बिल्कुल ठीक हूँ।”
साबास सीरिंज के उबलने की राह देखता रहा। “काश! मैं ऐसा कह सकता”। उसकी आवाज़ शिकायती थी। “तुम सौभाग्यशाली हो, तुम्हारा पेट लोहे का बना है।” उसने अपने बालों भरे हाथों को देखा जिसमें गहरे रंग के दाग थे। शादी की अँगूठी पहिनी उँगली के बाद की उँगली में वह काले पत्थर जड़ी अँगूठी पहिने था।
“यह तो है”, कर्नल ने स्वीकारा।
साबास ने ऑफ़िस और घर के बीच के दरवाज़े से झाँक अपनी पत्नी को आवाज़ दी। फिर उसने अपने पेट की समस्या के बारे में बतलाना शुरू कर दिया। उसने अपनी शर्ट की जेब से एक छोटी शीशी निकाली और उसमें से मटर बराबर एक गोली निकाल डेस्क पर रख दी।
“इसे हर जगह ले ही जाना अच्छा ख़ासा सिर दर्द है”, उसने कहा, “यह तो वैसा ही है जैसे मौत को जेब में रखकर चल रहे हों।”
कर्नल डेस्क के पास पहुँचे। हाथ में ले गोली को देखते रहे पर साबास ने उसे चखने को नहीं कहा।
“इससे कॉफ़ी मीठी हो जाती है”, उसने समझाया, “यह शक्कर है बिना शक्कर के।”
“हाँ”, कर्नल ने अपने मुँह में आती कड़वाहट मिली मिठास को निगलते हुए कहा, “यह कुछ बिना घंटी के बजाने जैसा है।”
साबास ने अपनी कोहनियाँ डेस्क पर रख हाथों में चेहरा रख लिया जब उसकी पत्नी उसे इंजेक्शन लगा रही थी। इधर कर्नल की समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपनी देह के साथ क्या करें। औरत ने फैन का प्लग अलग कर उसे सेफ़ के ऊपर रखा और फिर कबर्ड की ओर चली गई।
“छातों का कुछ न कुछ रिश्ता मौत से है”, औरत ने कहा।
कर्नल ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। डाक की राह देखने वह चार बजे अपने घर से निकला था, लेकिन बारिश ने उसे साबास के ऑफ़िस में शरण लेने को विवश कर दिया था। जब लांचों के आने के हूटर बजे उस समय भी बारिश गिर रही थी।
“हर कोई कहता है कि मौत एक औरत है”, औरत ने बात जारी रखी। वे मोटी और अपने पति से ऊँची थी और उसके ऊपरी ओंठ पर एक बाल वाला तिल था। उसकी बात करने का लहजा कुछ ऐसा था जैसे पंखा-घूँ-घूँ कर रहा हो। “लेकिन मुझे नहीं लगता वो औरत है”, उसने अपनी बात आगे जारी रखते कबर्ड बंद किया और कर्नल की आँखों में झाँका। “मेरे विचार में तो वो एक बड़े नाखूनों वाला जानवर है।”
“हो सकता है”, कर्नल ने स्वीकारा। “कभी-कभी बहुत ही अजीब बातें घटती हैं।”
उन्होंने पोस्टमास्टर को लांच में छलांग लगाते मन में देखा। वकील को बदले एक माह हो चुका था। अब वे उत्तर की उम्मीद कर सकते थे। साबास की पत्नी लगातार मौत के बारे में बात करती रही जब तक उसकी नज़र कर्नल के अनमनस्क चेहरे पर नहीं पड़ी।
“दोस्त!”, उसने कहा, “तुम कुछ परेशान हो।”
कर्नल सीधे होकर बैठ गया।
“तुम सही कह रही हो दोस्त”, उन्होंने झूठ बोला, “मैं सोच रहा हूँ पाँच बज गए हैं, और टर्की केा अपना इंजेक्शन नहीं मिला है।”
सुनकर वो पशोपेश में पड़ गई। “टर्की को इंजेक्शन, क्यों वो आदमी है”, ज़ोर से बोलते उन्होंने कहा, “यह तो पाप है।”
साबास आगे नहीं सुन सकता था, उसने अपना लाल पड़ा चेहरा उठाया।
“एक मिनिट को अपना मुँह तो बंद रखो”, उसने अपनी पत्नी को डाँटा और उसने दरअसल अपना हाथ उठा अपने मुँह पर रख लिया। “तुम मेरे दोस्त को आधे घंटे से अपनी मूर्खतापूर्ण बकवास सुनाए चली जा रही हो।”
“अरे नहीं?” कर्नल ने विरोध किया।
औरत ने आवाज़ करते दरवाज़ा बंद किया। साबास ने लेवेंडर भीगे रूमाल से अपनी गर्दन पोंछी। कर्नल खिड़की की ओर बढ़ गए। बरसात की झड़ी वैसी ही लगी थी। वीरान प्लाज़ा में एक लंबे पैरों वाला मुर्गा चला जा रहा था।
“क्या यह सच है कि टर्की को इंजेक्शन दिये जा रहे हैं।”
“हाँ, सच है” कर्नल ने कहा, “अगले हफ्ते से उसकी टे्रनिंग शुरू होने वाली है।”
“यह तो पागलपन है” साबास ने कहा “यह तुम्हें तो शोभा नहीं देता।”
“तुम्हारे साथ मैं सहमत हूँ” कर्नल ने कहा “लेकिन इसके लिए उसकी गर्दन तो मरोड़ी नहीं जा सकती।”
“यह तो केवल मूर्खतापूर्ण अकड़ का नमूना ही है”, साबास ने खिड़की की ओर मुड़ते हुए कहा। कर्नल ने उसकी साँस की सीटी सुनी। दोस्त की आँखों को देख उसे दया आ गयी।
“देर आये दुरुस्त आये” कर्नल ने कहा-
“अकल से काम लो” साबास ने ज़ोर देते हुए कहा “यह तो दोहरा सौदा है। एक ओर तुम उस सिरदर्द से छुटकारा पा लोगे और दूसरी ओर तुम्हारे जेब में नौ सौ पेसो होंगे।”
“नौ सौ पेसो” कर्नल के मुँह से निकल गया।
“हाँ, नौ सौ पेसो” कर्नल की आँखों के सामने वे झूलने लगे।
“तो तुम्हारे विचार से वे इतना बड़ा खजाना एक टर्की के बदले दे देंगे?”
“मैं सोच ही नहीं रहा हूँ यार” साबास ने उत्तर दिया, “मुझे पूरा यक़ीन है।”
विद्रोह का फंड जमा करने के बाद यह सबसे बड़ी रकम है जो उनके दिमाग़ में घूम रही थी। जब उन्होंने साबास का ऑफ़िस छोड़ा तो पेट में तेज़ मरोड़ें महसूस हो रही थीं। लेकिन वे जानते थे कि उसका कारण मौसम नहीं है। पोस्टऑफ़िस पहुँच वे सीधे पोस्टमास्टर के पास चले गये।
“मैं एक अर्जेन्ट चिट्ठी की उम्मीद कर रहा हूँ।” उन्होंने कहा “एक एयर मेल”। पोस्टमास्टर ने खानों की ओर देखा, उसने चिट्ठियाँ निकालकर पढ़ीं और फिर उसे सही खाने में रख दिया। लेकिन बोला कुछ नहीं। उसने अपने हाथों की धूल झाड़ी और अर्थ भरी नज़रों से कर्नल की ओर देखा।
“मुझे पूरा यकीन है कि उसे आज आ ही जाना चाहिए था” कर्नल ने कहा।
पोस्टमास्टर ने उत्तर में कंधे उचका दिए।
“बस एक ही चीज़ है कर्नल जिसके आने की गारंटी है, वह है मौत।”
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उनकी पत्नी ने उनका स्वागत मसले हुए मक्के की प्लेट से किया। उसने ख़ामोशी के साथ आराम से सोचने के लिए पर्याप्त समय लेते धीरे-धीरे खाना खाया। सामने बैठी पत्नी ने उसके चेहरे में आए परिवर्तन को देखा।
“क्या हो गया है?”
“मैं उन लोगों के बारे में सोच रहा हूँ जो पूरी तरह से पेंशन पर निर्भर हैं।” कर्नल ने झूठ बोला “पचास वर्षों में हम छःफीट अंदर आराम से लेटे होंगे, और बेचारा असहाय आदमी हर शुक्रवार को रिटायरमेंट पेंशन को ले हर शुक्रवार को तिल-तिलकर मर रहा होगा।”
“यह तो अच्छा संकेत नहीं है” पत्नी ने कहा, “इसका मतलब है कि तुमने अपने को भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है अभी से।” उसने अपनी प्लेट से उठाकर खाते हुए कहा। लेकिन कुछ ही पलों में उसे अहसास हो गया कि उनका पति अभी भी कहीं और है टेबिल की जगह।
“फिलहाल तो तुम्हें मक्के के दलिया का मजा उठाना चाहिए।”
“अच्छा ख़ासा है” कर्नल ने कहा “यह आया कहाँ से है?”
“टर्की से” औरत ने उत्तर दिया “लड़के इतना ढेर सारा मक्का लाए थे कि उसने हमारे साथ खाने का तय किया।... यही तो ज़िंदगी है।”
“तुम ठीक कह रही हो”, कर्नल ने लंबी साँस ली, “जिं़दगी ही वह सर्वश्रेष्ठ वस्तु है जिसका आविष्कार हुआ है।” कह उन्होंने स्टोव के पैर से बँधे टर्की को देखा और इस बार वह उसे कुछ अलग-सा लगा। औरत ने भी उसे कुछ अलग-सा पाया।
“आज शाम को तो मुझे लड़कों को लाठी दिखाकर भगाना पड़ा”, पत्नी ने कहा, “वे एक बूढ़ी-सी मुर्गी को लाए थे टर्की से बच्चा पैदा कराने।”
“अब यह पहली बार तो नहीं हुआ था”, कर्नल ने कहा, “यही तो वे लोग उन शहरों में कर्नल आरेलियानो ब्यूऐंदिया के साथ किया करते थे। वे उसके पास बच्चियाँ लेकर आते थे संतान की चाहत में।”
चुटकुला सुन उसे मज़ा आया। टर्की ने गले से कुछ आवाज़ निकाली जो हाल में आदमियों की आवाज़-सी सुनाई दी। “कभी-कभी मुझे लगने लगता है कि ये जानवर बस बात शुरू ही करने वाला है”, पत्नी ने कहा। कर्नल ने टर्की की ओर दोबारा देखा।
“इसकी कीमत इसके वजन के बराबर के सोने से है”, उन्होंने धीरे से कहा। एक चम्मच मक्के का दलिया मुँह में डालते कुछ हिसाब-सा वे लगाते रहे। “यह हमें तीन वर्ष तक खाना खिलाएगा।”
“तुम उम्मीद तो नहीं खा सकते न”, पत्नी ने कहा।
“तुम खा नहीं सकतीं, लेकिन वह तुम्हें जिं़दा रख सकती है”, कर्नल ने उत्तर दिया, “वह कुछ-कुछ मेरे दोस्त साबास की जादुई गोलियों जैसी ही है।”
उनके सिर में रात भर आँकड़े घूमते रहे थे और उन्हें नींद ठिकाने से नहीं आई थी। दूसरे दिन लंच में पत्नी ने दो प्लेट दलिया रखा और सिर झुकाकर अपनी प्लेट से बिना एक शब्द बोले खाती रही चुपचाप। उसके ख़राब मूड का अहसास बीच-बीच में कर्नल को होता रहा था।
“हुआ क्या है कुछ तो बतलाओ?”
“कुछ नहीं”, पत्नी ने सर्द आवाज़ में उत्तर दिया।
उन्हें ऐसा लगा जैसे इस बार झूठ बोलने की बारी पत्नी की है। उन्होंने उसे सांत्वना देना चाहा लेकिन वे अपनी ज़िद पर अड़ी रहीं।
“कोई अनहोनी बात नहीं है”, उसने कहा, “मैं सोच रही थी कि उस आदमी को मरे दो महिने हो गए हैं और मैं अभी तक उसके परिवार में मिलने तक नहीं गई हूँ।”
इसलिए उस रात वे उनसे मिलने गए। कर्नल मृतक के घर तक उसके साथ गए और फिर लाउडस्पीकर से आते गाने को सुन सिनेमा घर की ओर बढ़ गए। फादर ऐंजल घर के दरवाज़े के सामने बैठ सिनेमा के दरवाज़े को ताक रहे थे कि उनकी बारहा वार्निंग के बावजूद कौन-कौन सिनेमा देखने जा रहा है। रोशनी की बाढ़, ज़ोर से बजता संगीत और बच्चों का उठता शोर उस इलाके में एक शारीरिक विरोध-सा प्रकट कर रहा था। एक बच्चे ने कर्नल को लकड़ी की राइफल से धमकाया।
“टर्की की तरोताज़ा ख़बर क्या है कर्नल”, आदेश भरे स्वर में फादर ने पूछा।
कर्नल ने दोनों हाथ ऊपर उठा दिया।
“वह अभी भी चहल-कदमी करता कुड़कुड़ा रहा है।”
सिनेमा हाल के प्रवेश द्वार पर चार-चार रंगों का बड़ा भारी पोस्टर लगा थाः ‘मिड नाइट वर्जिन', पोस्टर में बनी औरत गाउन पहिने एक जाँघ खोले खड़ी थी। कर्नल उसी इलाके में यों ही चहलकदमी करते रहे जब तक उन्होंने दूर से बादलों की गरज और बिजली की चमक नहीं देखी और इसके साथ ही वे अपनी पत्नी के पास लौट आए।
वे वहाँ मृतक के घर पर नहीं थीं। न ही घर पर। कर्नल ने हिसाब लगाया कि कर्फ्यू का समय शुरू होने में कुछ ही देरी है और घड़ी की टिकटिक बंद थी। वे चहलकदमी करते इंतज़ार करते रहे, शहर की ओर बढ़ता तूफान उसका अंदाज़ा था अब कभी भी आ सकता है। कपड़े पहिने वे बाहर जाने के लिए तैयार हुए ही थे कि तभी उनकी पत्नी घर लौट आईं।
कर्नल ने टर्की को उठाया और उसे ले बेडरूम में चले गए। पत्नी ने कपड़े बदले और लिविंग रूम में पानी पीने चली गईं, उसी समय कर्नल ने घड़ी में चाबी भरी थी और कर्फ्यू के हूटर का इंतज़ार करते वहीं खड़े थे ताकि घड़ी मिला सकें।
“तुम थीं कहाँ?”, कर्नल ने पूछा।
“पास-पड़ोस में”, पत्नी ने उत्तर दिया। उसने बिना अपने पति की ओर देखे खाली गिलास स्टैंड पर रखा और बेडरूम में जाते हुए कहा, “किसी ने सोचा ही नहीं था कि बारिश इतनी जल्दी आ जाएगी।” कर्नल ने इस पर कोई कमेंट नहीं किया। जैसे ही कर्फ्यू का हूटर हुआ उसने घड़ी में ग्यारह बजाए, घड़ी का शीशा बंद किया और कुर्सी से उतर उसे यथास्थान रख दिया। उसने पलटकर अपनी पत्नी को माला से जप करते देखा।
“तुमने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया”, कर्नल ने कहा।
“क्या?”
“तुम कहाँ थीं?”
“पड़ोस में बातचीत कर रही थी”, उसने कहा, “घर से बाहर बहुत दिनों के बाद जो निकली थी।”
कर्नल अपना हेमॉक बाँधने में जुट गए। फिर मकान बंदकर धुँए से कमरे के कीड़ों-मकोड़ों को भगाया। फिर लैम्प फ़र्श पर रख हेमॉक में लेट गया।
“मैं समझ सकता हूँ”, उदासी भरे स्वर में उन्होंने कहा, “बदहाली में सबसे दुखदायी होती है झूठ बोलने की विवशता।”
पत्नी ने एक लम्बी साँस ली।
“मैं फादर ऐंजल के पास गई थी”, पत्नी ने कहा, “मैं उनसे अपनी वैवाहिक अँगूठी के बदले में उधार माँगने गई थी।”
“और उसने तुमसे क्या कहा?”
“कि पवित्र वस्तुओं का रहन रखना पाप है।”
मच्छरदानी के भीतर लेट वे बातें करती रहीं। “दो दिन पहले मैंने घड़ी बेचने की कोशिश की थी”, उसने धीरे से कहा, “किसी की भी इसमें रुचि है ही नहीं, वे लोग नई घड़ियाँ बेच रहे हैं जिनके अंक चमकते हैं, यही नहीं वे किश्तों में भी देते हैं। उनसे रात में भी समय का पता चल जाता है।” कर्नल ने मन ही मन स्वीकारा कि चालीस वर्षों तक एक साथ रहने, भूख की सहभागिता, पीड़ा भोग भी पत्नी को समझने के लिए पर्याप्त नहीं था। उन्हें अहसास हुआ कि उनके प्यार में भी कुछ ऐसा है जो बुढ़ा गया है।
“वे लोग तो पिक्चर भी खरीदना नहीं चाहते”, पत्नी कहे जा रही थी, “प्रायः सभी के पास वैसी पहले से ही हैं। मैं तो टर्क के पास तक भी हो आई हूँ।”
कर्नल की कड़वाहट बढ़ गई।
“हूँ, तो अब सबको पता चल गया कि हम भूखे हैं।”
“मैं बहुत थक गई हूँ”, पत्नी ने कहा, “पुरुष कभी भी गृहस्थी की समस्याओं को समझ नहीं पाते। कई बार मैंने उबलने के लिए पत्थर डाले हैं पानी में, ताकि पड़ोसियों को पता न चले कि हम कई दिनों तक बर्तन भी आग में नहीं रख रहे हैं।”
कर्नल को यह सुन अपमान महसूस हुआ। “यह तो बेइज्जती की इंतहा है”, उन्होंने कहा।
पत्नी ने पलंग के ऊपर से मच्छरदानी हटाई और हेमॉक के पास पहुँच गईं। “इस घर के प्यार और दिखाओं को छोड़ने के लिए मैं हमेशा तैयार हूँ”, उसने कहा। उसकी आवाज़ क्रोध से काँप रही थी। “मैं इस सम्मान और त्याग से ऊब गई हूँ।”
कर्नल में ज़रा-सी भी जुंबिश नहीं हुई।
“बीस! पूरे बीस वर्ष बीत गए हैं उन रंगीन चिड़ियों की प्रतीक्षा में जिनका हर चुनाव में वे वायदा करते हैं और हमें मिला क्या है बदले में, बस मृत बेटा”, वो रौ में कहती गईं, “बस केवल एक मृत बेटा।”
कर्नल इस प्रकार के आरोपों का आदी हो चुका था।
“हमने तो अपना कर्त्तव्य निबाहा था।”
“और उन्होंने भी सीनेट में हर माह एक हज़ार पेसो का वायदा निबाहा है, बीस वर्ष पहिले”, पत्नी ने उत्तर दिया। “यही मेरा दोस्त साबास है दो मंज़िला मकान का मालिक जो इतना बड़ा नहीं है कि उसकी दौलत उसमें समा सके, एक ऐसा आदमी जो इस शहर में गले में साँप लटकाए दवाइयाँ बेचने पहली बार आया था।”
“लेकिन वो डायबेटिज से मर रहा है”, कर्नल ने प्रतिवाद किया।
“और तुम... भूख से”, औरत ने कहा, “तुम्हें इस बात का अहसास होना चाहिए कि सम्मान से पेट नहीं भरता।”
बिजली की कड़क ने उसे रोक दिया। सड़क पर बादल गरजा और वहाँ से बेडरूम में आ गया और पलंग के नीचे पत्थरों के ढेर की तरह लुढ़क कर रुक गया। औरत ने उछल कर मच्छरदानी के अंदर से अपनी माला निकाल ली।
कर्नल मुस्कुरा दिया।
“यही होता है जब तुम अपनी जुबान पर काबू नहीं रखती हो”, उन्होंने कहा, “मैं तो सदैव यही कहता रहा हूँ और मेरा विश्वास भी है कि ईश्वर मेरे पक्ष में है।”
लेकिन वास्तविकता यह नहीं थी। उनकी कटुता बढ़ गई थी। कुछ ही पलों बाद उन्होंने लैम्प बुझाया और बिजली की चमक के बाद छाये गहरे अंधेरे में अपने भीतर के अंधेरे में डूब गए। मकोंडो की याद आई। कर्नल ने नीरलेंडिया के वायदों के पूरे होने के लिए दस वर्षों तक इंतज़ार किया था। नींद के झोंके में उन्होंने धूल भरी पीली टे्रन को आते देखा जिसमें आदमी, औरतें और जानवर गर्मी में पसीना चुआते डिब्बों में ठूँस-ठूँसकर भरे थे, यहाँ तक कि डिब्बों के ऊपर भी। वह था बनाना फीवर।
चौबीस घंटों में उन्होंने शहर को बदलकर रख दिया था। “मैं जा रहा हूँ”, तब कहा था कर्नल ने, “बनाना की बू मेरी अँतड़ियों को लगातार खा रही है।” और बुधवार, 27 जून 1906 को ठीक दो बजकर अठारह मिनिट पर वापिसी टे्रन से उन्होंने माकोन्डो को छोड़ दिया था। उसे आधी सदी लग गई थी यह समझने में कि नीरलेंडिया में समर्पण करने के बाद एक पल की भी शांति उन्हें नसीब नहीं हुई है।
उन्होंने अपनी आँखें खोल दीं।
“तब उसके बारे में चिंता करने की ज़रूरत ही फिलहाल क्या है”, उन्होंने कहा।
“क्या कहा?”
“टर्की की समस्या”, कर्नल ने कहा, “कल मैं उसे अपने मित्र साबास को नौ सौ पेसो में बेच दूँगा।”
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जिबह होते पशुओं के रोने के साथ साबास के चिल्लाने की आवाज़ें ऑफ़िस की खिड़की से लगातार आ रही थीं। दो घंटे तक इंतज़ार करने के बाद उन्होंने अपने आप से कहा यदि अगले दस मिनिट में वह नहीं आता है तो मैं चला जाऊँगा। लेकिन वे बीस मिनिट तक और राह देखते बैठे रहे। जाने के लिए खड़ा होने जा रहे थे कि साबास ऑफ़िस में अपने नौकरों के समूह के साथ भीतर आ गया। आते ही उसने कई चक्कर उनके सामने से तेज़ी से लगाए लेकिन उसने एक बार भी उनकी ओर नहीं देखा।
“क्या तुम मेरी राह देख रहे थे दोस्त?”
“हाँ, यार”, कर्नल ने कहा, “लेकिन यदि फिलहाल तुम ज़्यादा व्यस्त हो तो मैं बाद में आ जाऊँगा।”
साबास ने कुछ नहीं सुना क्योंकि वह कमरे के दूसरे दरवाज़े के पास था।
“मैं अभी आता हूँ”, उसने कहा।
दोपहर दमघोंटू थी। सड़क की चिलचिलाती धूप में ऑफ़िस चमक रहा था। गर्मी से सुस्त हो कर्नल की आँखें बिना चाहे बंद हो गईं और तुरंत ही उनकी पत्नी बंद आँखों में आ गई। साबास की पत्नी तभी दबे पाँव आ गई थी।
“उठना मत दोस्त”, उसने कहा, “मैं तो ऑफ़िस का ब्लाइंड (लकड़ी की जाली) गिराने आई हूँ क्योंकि ये ऑफ़िस तो रौरव नरक हो रहा है।”
“क्या तुम हमेशा सपना देखते हो?”
“कभी-कभार”, कर्नल ने नींद आ जाने की वजह से शर्माते हुए कहा, “अब मैं सपनों में स्वयं को मकड़ी के जाले में उलझा पाता हूँ।”
”मुझे तो हर रात दुःस्वप्न आते हैं”, औरत ने कहा, “फिलहाल मेरे सिर में यही आ रहा है कि मैं उन अपरिचित लोगों को जानूँ जिनसे मैं सपनों में मिलती हूँ।” कहते हुए उसने पंखे का प्लग लगाया। “पिछले हफ्ते एक औरत मेरे पलंग के सिरहाने तक एकाएक आ गई थी”, उसने बतलाया, “हिम्मत बटोर जब मैंने उससे पूछा कि वह है कौन तो उसने उत्तर दिया, मैं वो हूँ जो इस कमरे में बारह वर्ष पहिले मरी थी।”
“लेकिन यह घर तो बमुश्किल से दो वर्ष पहले ही बना है”, कर्नल ने कहा।
“यह सही है”, औरत ने कहा, “इसका मतलब यह हुआ कि मुर्दे भी गलतियाँ करते हैं।”
पंखे की घों-घों से परछाइयाँ ठोस हो रही थीं। कर्नल असहज हो रहा था, नींद आने और औरत की बकबक से, जो सपनों से सीधे पुनर्जन्म में पहुँच गई थी। वह उसके रुकने का इंतज़ार कर रहा था ताकि वो ‘बाय' कह चल दे कि तभी साबास अपने फोरमेन के साथ भीतर आ गया था।
“तुम्हारा सूप मैं चार बार गर्म कर चुकी हूँ”, औरत ने कहा।
“तुम्हारी मर्जी हो तो तुम दस बार गर्म कर लो”, साबास ने कहा, “लेकिन फिलहाल मुझे परेशान करना बंद कर दो”, कहते उसने सेफ खोली और नोटों के एक बंडल के साथ काम की सूची निकाल फोरमेन को दे दी। फोरमेन ने नोट गिनने के लिए खिड़की की जाली ऊपर की। साबास ने कर्नल को ऑफ़िस के पीछे की और बैठा देखा लेकिन कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। वह अपने फोरमेन से बात करता रहा। कर्नल उस समय खड़ा हो रहा था जब दोनों ऑफ़िस एक बार फिर छोड़ने जा रहे थे। दरवाज़ा खोलने के पहले साबास रुका।
“दोस्त, मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूँ?”
कर्नल ने फोरमेन को अपनी ओर देखते देखा।
“कुछ नहीं यार”, उन्होंने उसकी ओर देखते हुए कहा, “मैं तो यों ही तुमसे कुछ सलाह करने आ गया था।”
“ठीक है फिर, जल्दी कहो यार” साबास ने कहा, “मेरे पास एक मिनिट की भी फुरसत नहीं है।” कह दरवाज़े के पल्ले पर हाथ रख कर खड़े कर्नल ने अपनी ज़िंदगी के सबसे लंबे पाँच सेकेंडो को अनुभव किया और दाँत मिसमिसाए।
“टर्की के बारे में चर्चा करनी है”, वह फुसफुसाया।
साबास ने दरवाज़ा खोल दिया था। “टर्की के बारे में”, उसने दोहराया और मुस्कुराकर फोरमेन को हाल की ओर धकियाते कहा, “इधर आसमान गिरने को है और मेरा यार है कि एक मुर्गे को ले परेशान है”, और फिर कर्नल को देख कहा, “ठीक है यार, मैं अभी आया।”
कर्नल ऑफ़िस के बीच में जड़वत् तब तक खड़े रहे, जब तक उसे दोनों आदमियों के पैरों की आहट सुनाई देती रही। फिर वे भी बाहर निकल शहर में यों ही टहलने लगे जो इस इतवार गर्मी से लकवा खाया-सा हो गया था। टेलर की दूकान में कोई नहीं था। डॉक्टर का ऑफ़िस बंद था। सीरियन के स्टॉल में खड़े हो कोई सामान नहीं देख रहा था। नदी स्टील की शीट जैसी थी। नदी किनारे एक आदमी चार तेल के ड्रमों के बीच चेहरे पर हैट रखे सो रहा था। कर्नल घर लौट गया इस विश्वास के साथ कि शहर में वह अकेला है जो चल फिर रहा है।
उनकी पत्नी लंच बनाकर उन्हीं की राह देख रही थीं
“मैं उधार ले आई हूँ यह वायदा कर कि कल सुबह मैं पेसो चुका दूँगी”, उसने समझाया।
लंच लेते कर्नल ने पिछले तीन घंटों में जो कुछ हुआ था, सभी कुछ बतला दिया और वे बेचैनी के साथ सुनती रहीं।
“तुम्हारी समस्या है कि तुम्हारे पास स्वाभिमान नहीं है”, पत्नी ने अंत में कहा, “तुम कुछ ऐसे अंदाज़ में लोगों के सामने जाते हो जैसे भीख माँग रहे हो, जबकि तुम्हें सिर उठाकर जाना चाहिए औरअपने दोस्त का हाथ पकड़ एक कोने में ले जाकर कहना चाहिए “दोस्त, मैंने तय कर लिया है कि मैं तुम्हें टर्की बेच दूँगा।”
“तुम जिस अंदाज़ में कह रही हो न, उससे लगता है ज़िंदगी जैसे हवा का एक झोंका हो”, कर्नल ने उत्तर दिया।
पत्नी उत्साह से भरी हुई थीं। उस सुबह उन्होंने घर की साफ़-सफ़ाई कर सब कुछ व्यवस्थित किया था। और अजीब से कपड़े पहिने थीं- अपने पति के पुराने जूते, एक ऑइल क्लाथ का एप्रन और सिर पर बँधा गंदा कपड़ा जिसकी दो गाँठें कानों पर बँधी थीं। “तुम्हारे अंदर ज़रा-सी भी व्यावसायिक बुद्धि नहीं है”, पति को समझाते हुए उन्होंने कहा, “जब तुम्हें कुछ बेचने जाना हो तो तुम्हारा चेहरा ठीक वैसा होना चाहिए जैसा खरीदने जाने पर होता है।”
उसकी वेशभूषा को देख कर्नल को मन ही मन हँसी आ रही थीं
“एक मिनिट, वैसे ही खड़ी रहो जैसी हो”, उन्होंने उसे मुस्कराते हुए टोका।
“तुम बिल्कुल उस ‘क्वेकर ओट्स' आदमी से मिलती-जुलती लग रही हो।”
पत्नी ने अपने सिर पर बँधा कपड़ा उतार लिया।
“मैं पूरी गंभीरता से कह रही हूँ”, उसने कहा, “अपने दोस्त के घर में टर्की को लेकर जा रही हूँ, अभी इसी मिनिट और तुम जो भी चाहो शर्त लगा लो, मैं ठीक आधे घंटे में नौ सौ पेसो लेकर लौट आऊँगी।”
“तुम्हारे भेजे में बुलबुले भरे हैं”, कर्नल ने कहा, “तुम अभी से टर्की से मिले पेसो से शर्त लगा रही हो, सोचो तो।”
कर्नल को उसका इरादा बदलने में अच्छी-ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी जबकि पत्नी ने पूरी सुबह अगले तीन वर्षों का बजट विस्तार से बना लिया था, पीड़ा भरे शुक्रवारों के बिना। उसने घर के लिए आवश्यक वस्तुओं की लिस्ट बना ली थी। कर्नल के लिए नए जूतों को भी वे नहीं भूली थीं। यहाँ तक कि बेडरूम में आइना रखने का स्थान भी छोड़ दिया था। अपनी योजनाओं के धूल धूसरित होते देख वे शर्म और क्रोध के मिले-जुले विभ्रम में पड़ गई थीं। अंत में एक झपकी ली और फिर जब उठी तो उसने कर्नल को पेटियो (आँगन) में बैठे देखा।
“अच्छा! तुम यहाँ बैठ कर क्या कर रहे हो?” उसने पति से पूछा।
“मैं कुछ सोच रहा हूँ।” कर्नल ने कहा।
“तब तो समस्या हल ही समझो। हमें उस राशि के विषय में सोचना चाहिए जो पचास वर्ष बाद मिलने वाली है।”
लेकिन वास्तविकता यह थी कि कर्नल ने उसी शाम टर्की को बेचने का निश्चय कर लिया था। उन्होंने ऑफ़िस में साबास को दैनिक इंजेक्शन लेते मन ही मन पंखे के सामने खड़े देखा, उसके उत्तर पहिले से तैयार थे।
“टर्की को अपने साथ ले जाओ” पत्नी ने उसे दरवाज़े पर खड़े हो सलाह दी। “उसे जीता जागता साक्षात् सामने देख समझ लो चमत्कार ही हो जायेगा।”
कर्नल ने इस सलाह पर विरोध प्रकट किया। वो उसके पीछे-पीछे निराशा मिली उत्सुकता के साथ बाहर तक चली आईं।
“भले ही ऑफ़िस में पूरी आर्मी ही क्यों न हो”, उसने कहा- “बस, उसकी बाँह पकड़ लेना, और उसे तब तक हिलने भी मत देना जब तक वह तुम्हें नौ सौ पेसो न दे दे।”
“लोग सुनेंगे तो सोचेंगे कि हम लोग लूटने की योजना बना रहे हैं।”
पत्नी ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। “याद रखना कि तुम टर्की के मालिक हो”, उसने ज़ोर देते हुए कहा, “और हाँ, याद रखना तुम उसके ऊपर अहसान करने जा रहे हो।”
“अच्छा, अच्छा ठीक है।”
साबास डॉक्टर के साथ बेडरूम में था। “बस, यही मौका है दोस्त”, साबास की पत्नी ने कर्नल से कहा, “डॉक्टर उसे रेंच पर ले जाने के लिए तैयार कर रहा है, जहाँ से वह गुरुवार तक लौटने वाला नहीं है।” कर्नल द्वंद्व में फँस गए, एक ओर वह टर्की को बेच देने का निश्चय कर चुका था, दूसरी ओर मन में था काश! वह एक घंटे लेट आया होता तो साबास मिलता ही नहीं तो कितना अच्छा होता।
“मैं इंतज़ार कर लूँगा”, उन्होंने मरी-सी आवाज़ में कहा।
लेकिन साबास की पत्नी ने उससे जबर्दस्ती की और उसे लेकर बेडरूम में चली गई जहाँ उसका पति सिंहासन जैसे पलंग पर बैठा था वह भी अंडरवियर में। उसकी रंगहीन आँखें डॉक्टर पर जमीं थीं। कर्नल ने तब तक इंतज़ार किया जब तक डॉक्टर ने ग्लास ट्यूब में रखी पेशाब को गर्म नहीं कर लिया, उसे सूँघा और फिर साबास को इशारा किया।
“हमें इसे शूट करना होगा”, डॉक्टर ने कर्नल की ओर मुड़कर कहा, “धनवान आदमी को मारने के लिए डायबिटीज़ बेहद धीमी होती है।”
“तुमने तो अपने इन घटिया बदजात इंसुलिन इंजेक्शन से अपनी पूरी कोशिशें कर ली है”, साबास ने कहा और अपने ढीले-ढाले चूतड़ को झटका दिया, “लेकिन मैं भी बेशर्म हूँ, इतनी जल्दी टूटने वाला हूँ नहीं”, और फिर कर्नल से कहाः “आओ यार, आज शाम जब मैं तुम्हें ढूँढ़ने निकला था तो तुम्हारे हैट के दर्शन तक नहीं हुए।”
“मैं पहिनता ही नहीं हूँ इसलिए मुझे उसे किसी के सामने उतारने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती।”
साबास ने कपड़े पहिनना शुरू कर दिया था। डॉक्टर ने ट्यूब में उसका खून निकाल कर जैकेट में रख लिया। फिर अपने बैग में रखे सामान को जमाने लगा। कर्नल को लगा वो जाने की तैयारी कर रहा है।
“यदि मैं तुम्हारी जगह होता न डॉक्टर तो अपने दोस्त को एक लाख पेसो का बिल भेज देता”, कर्नल ने कहा, “इस तरह उसकी परेशानी ही खतम हो जाती।”
“मैंने पहिले ही इसे एक करोड़ का सुझाव दे दिया है”, डॉक्टर ने कहा, “निर्धनता डायबिटीज़ का सबसे अच्छा इलाज है।”
“सुझाव के लिए धन्यवाद”, साबास ने घोड़े पर बैठने वाली ब्रीचेस में अपना थुलथुला पेट भरते हुए कहा, “लेकिन मैं तुम्हें धनवान होने की विपत्ति से बचाना चाहता हूँ।” डॉक्टर ने अपने बैग के छोटे चमकते क्रोम में अपने दाँतों का प्रतिबिंब देखा। उसने बिना जल्दबाज़ी दिखाए घड़ी की ओर देखा। जूते पहिनते साबास अचानक कर्नल की ओर घूमा, “और दोस्त, तुम्हारे टर्की के क्या हाल हैं?”
कर्नल को अहसास हो गया कि उसके उत्तर की प्रतीक्षा डॉक्टर भी कर रहा है। उसने अपने दाँत भींचे।
“कुछ ख़ास नहीं यार”, उसने फुसफुसा कर कहा, “मैं उसे तुम्हें बेचने आया हूँ।”
साबास ने जूते पहिन कर तस्मे बाँध लिए।
“बहुत अच्छे दोस्त”, उसने बिना भावावेश के कहा, “यही सबसे बुद्धिमानी भरी बात तुमने बहुत दिनों बाद कही है।”
“उसकी परेशानियों को झेलने के लिए मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ”, डॉक्टर के भावहीन उद्गार निकलें इसके पहिले ही कर्नल ने अपने को न्यायोचित बतलाते हुए कहा, “यदि मैं बीस वर्ष छोटा होता तो बात कुछ और होती।”
“लेकिन तुम तो हमेशा अपने उम्र से बीस वर्ष छोटे रहोगे”, डॉक्टर ने तुरंत चुटकी ली।
कर्नल की साँस में साँस आई। वह साबास के कुछ कहने का इंतज़ार करता रहा, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। साबास ने जिप वाली चमड़े की जैकेट पहनी और बेडरूम के लिए तैयार हो गया।
“यदि तुम चाहो तो इस मामले में हम अगले हफ्ते बात करेंगे दोस्त” कर्नल ने कहा।
“यही तो मैं तुमसे कहने जा रहा था”, साबास ने कहा, “मेरे पास एक ग्राहक है जो तुम्हें चार सौ पेसो दे देगा। लेकिन हमें गुरुवार तक इंतज़ार करना होगा।”
“कितने?” डॉक्टर ने पूछा।
“चार सौ पैसो।”
“मैंने तो किसी को कहते सुना था कि उसके दाम इस रकम से कहीं अधिक है”, डॉक्टर ने कहा।
“तुम नौ सौ पेसो की बात कर रहे हो न?”, कर्नल ने डॉक्टर के जवाब से प्रेरित हो कहा, “पूरे प्रांत में वह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।”
साबास ने डॉक्टर को देख उत्तर दिया।
“दूसरी परिस्थितियों में किसी ने भी एक हज़ार दे दिए होते”, उसने समझाया। “लेकिन फिलहाल कोई भी अच्छे टर्की को मैदान में नहीं उतारना चाहेगा, मैदान से गोली खाकर लौटने के चांस भी तो ज़्यादा है”, कह वह कर्नल की ओर मुड़ा और असहायता प्रकट करते बोला, ”दोस्त, मैं तुम्हें यही समझाने वाला था।”
कर्नल ने सिर हिलाते हुए कहा “ठीक है।”
कर्नल उसके पीछे हाल में चले गए। डॉक्टर लिविंग रूम में साबास की पत्नी के पास रुक गया जो उससे कह रही थी, “मुझे दवा दे दो डॉक्टर, उन सपनों के लिए जो किसी पर अचानक आ जाते है और जिनके बारे में आदमी को कुछ भी पता नहीं होता।�”
कर्नल उसकी राह ऑफ़िस में खड़े हो देखता रहा। साबास ने सेफ खोली और अपने हर पॉकेट में नोट ठूँसे और फिर चार नोट कर्नल की ओर बढ़ा दिए।
“ये साठ पेसो रखो दोस्त”, उसने कहा, “जब टर्की बिक जाएगा तब हम हिसाब कर लेंगे।
कर्नल डॉक्टर के साथ नदी किनारे बने स्टाल्स के पास से गुज़रा जहाँ दोपहर की गर्मी के बाद शाम की ठंडक से फिर से जिं़दगी जाग गई थी। गन्ने से लदा एक बजरा नदी की धारा में बहता जा रहा था। कर्नल ने डॉक्टर को कुछ अजीब से अबेध्य मूड में पाया।
“और तुम्हारा क्या हाल है डॉक्टर?”
डॉक्टर ने कंधे उचका दिए, “वैसे ही है” उसने कहा, “मुझे लगता है मुझे डॉक्टर को दिखलाना चाहिए।”
“सर्दियाँ जो हैं”, कर्नल ने कहा, “मुझे भीतर से खोखला कर रही है।”
डॉक्टर ने उसे बिना किसी व्यावसायिक दृष्टि से देखा। इसके साथ ही अपनी दूकान के दरवाज़े पर खड़े सीरियन को हाथ भी हिलाया। डॉक्टर के ऑफ़िस के दरवाज़े पर पहुँच कर्नल ने टर्की बेचने के बारे में अपनी राय बतला दी।
“मैं और कुछ कर भी तो नहीं सकता”, कर्नल ने उसे समझाया, “वो टर्की आदमी के गोश्त पर ज़िंदा है।”
“एकमात्र जानवर जो आदमी का गोश्त खाता है वो है साबास”, डॉक्टर ने कहा “मुझे पक्का यकीन है कि वो टर्की को बाद में नौ सौ पेसो में बेच देगा।”
“तो तुम्हारा यह ख्याल है?”
“ख्याल नहीं मुझे पक्का यकीन है”, डॉक्टर ने कहा, “यह उतना ही प्यारा मीठा सौदा है जैसे उसका मेयर से देशभक्ति का समझौता है।”
“कर्नल ने विश्वास करने से इन्कार कर दिया। मेरे दोस्त ने वह समझौता अपनी चमड़ी बचाने के लिए किया था”, उन्होंने कहा, “वो केवल उसी तरह शहर में रुक सकता था।”
“और उसी तरह वह अपने सहयोगियों की जायदाद आधी कीमत में खरीद सकता था, जिन्हें मेयर ने लात मारकर भगा दिया था”, डॉक्टर ने उत्तर दिया। इतना कह उसने दरवाज़ा भड़काया, उसे अपनी जेबों में चाबी नहीं मिली। उसने कर्नल की ओर अविश्वास भरी नज़रों से देखा।
“इतने भोले मत बनो”, उसने कहा, “साबास को अपनी चमड़ी से ज़्यादा पेसो से प्यार है।”
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उस रात कर्नल की पत्नी सामान खरीदने बाहर गई। वह उसके साथ सीरियन के स्टाल पर गया लेकिन डॉक्टर की कही बातों पर सोच-विचार करता रहा।
“लड़कों को तलाश कर उनसे कह दो कि टर्की बिक गया है”, पत्नी ने उनसे कहा, “हम उन्हें व्यर्थ उम्मीदों से बँधे नहीं छोड़ सकते।”
“जब तक मेरा दोस्त वापिस नहीं आता तब तक टर्की नहीं बिकेगा”, कर्नल ने उत्तर दिया।
उसने एलवारो को पूल हाल में रौलट खेलते पाया। इतवार की रात में भी वहाँ उमस थी। वहाँ गर्मी असहनीय थी शायद रेडियो फुल वाल्यूम में चलाने से। बड़े से काले आइल क्लाथ पर चमकते नंबरों को देख कर्नल को अच्छा-ख़ासा मज़ा आया जो टेबिल के बीचों-बीच दो जलती लालटेन से चमक रहे थे। एलवारो तेईस नंबर पर बाजी लगाने पर अड़ा था। उसके कंधे से कर्नल ने देखा कि चार बार ग्यारह नंबर ही आया है।
“ग्यारह पर बाज़ी लगाओ” उसने एलवारो के कान में फुसफुसाया “यही नंबर बार-बार आ रहा है।”
एलवारो ने टेबिल को गौर से देखा। अगली बाज़ी उसने नहीं खेली। उसने अपने पैंट की जेब से कुछ नोट निकाले और एक काग़ज़ भी। उसने वह काग़ज़ कर्नल को टेबिल के नीचे से बढ़ा दिया।
“यह ऑगस्टीन का है।” उसने कहा।
कर्नल ने वह गुप्त काग़ज़ जेब में रख लिया। एलवारो ने अच्छी-ख़ासी रकम ग्यारह पर लगा दी।
“छोटी रकम से शुरू करो” कर्नल ने कहा।
“यह एक अच्छा पूर्वाभास हो सकता है” एलवारो ने उत्तर दिया। साथ में खेल रहे खिलाड़ियों ने अपने अन्य नंबरों पर रखी रकम चके के घूमते ही उठाकर ग्यारह नंबर पर रख दी। कर्नल नर्वस महसूस कर रहे थे। पहली बार वह जुए के आकर्षण, कडुवाहट और तेज़ी से महसूस कर रहे थे।
पाँच नंबर जीता।
“सॉरी” कर्नल ने अपराध बोध से ग्रस्त होते हुए एलवारो की रकम को लकड़ी के द्वारा खींचे जाते देखा। “यही होता है दूसरे के फटे में टाँग अड़ाने से।”
“डॉन्ट वरी कर्नल, प्यार पर विश्वास रखें।”
माम्बो बजाते ट्रम्पेट अचानक रुक गये। सभी जुआड़ी हाथ उठाए बिखर गए। कर्नल ने अपनी पीठ पर ठंडी राइफल की नली को लगा महसूस किया। उसे अहसास हो गया कि वह गैरकानूनी काग़ज़ के साथ पुलिस रेड में पकड़ा जा चुका है। बिना हाथ ऊपर किए वह आधा घूमे और तब उन्होंने ज़िंदगी में पहली बार बेहद निकट से उस आदमी को देखा जिसने उनके बेटे को गोली मारी थीं वह आदमी उनके ठीक सामने कर्नल के पेट पर राइफल सटाए हुए खड़ा था। वह ठिगना इंडियन जैसा, मौसम से मार खाए चमड़ों वाला आदमी था और उसकी साँसों में बच्चों जैसी गंध थी। कर्नल ने दाँत मिसमिसाए और अपनी उँगलियों से राइफल को पेट से अलग कर दिया।
“एक्स्क्यूज़ मी” उसने कहा।
उसके सामने दो गोल चमगादड़ जैसी छोटी-छोटी आँखें थीं। उसे लगा जैसे इन आँखों ने उसे एक पल में ही निगला, कुचला, पचाया और बाहर निकाल दिया।
“कर्नल आप जा सकते हैं।”
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दिसम्बर आ गया है यह कहने के लिए उन्हें खिड़की खोलने की आवश्यकता नहीं थी। जब टर्की के नाश्ते के लिए किचन में वे फल काट रहे थे तभी उनकी हड्डियों में इसका अहसास हो चुका था। फिर उन्होंने पेटियों (आँगन) का दरवाज़ा खोला तो यह अहसास निश्चय में बदल गया। आँगन सुंदर था, घास और छोटे पौधे धरती से एक इंच ऊपर शुद्ध हवा में उड़ रहे थे।
पत्नी नौ बजे तक बिस्तर पर ही पड़ी रही। जब वो किचन में पहुँची तब तक कर्नल ने घर की साफ़-सफ़ाई कर दी थी और टर्की को घेरे बच्चों के साथ गपिया रहा था। उसे स्टोव तक जाने के लिए चक्कर लगाना पड़ा।
“रास्ते से हटो” वे चिल्लाई थीं और उन्होंने घूरकर गुस्से से टर्की की ओर देखा था। “भगवान जाने मैं कब इस शैतान की औलाद पक्षी से मुक्ति पाऊँगी।”
कर्नल ने अपनी पत्नी के टर्की के प्रति मूड को भाँपा। टर्की से नाराज होने की बात भला क्या थी? वो टे्रनिंग के लिए तैयार था। उसकी गर्दन और पँखों से भरी गुलाबी जाँघें। उसकी आरी जैसे पैनी कलाई। पक्षी की देह दुबली-पतली एक असुरक्षित भाव से भरी थी।
“खिड़की से बाहर झाँको और टर्की को भूल जाओ” बच्चों के चले जाने के बाद कर्नल ने कहा। “ऐसी सुबहों से आदमी को लगता है जैसे उसकी फ़ोटो उतारी गई हो।”
उसने कहने पर खिड़की से बाहर झाँका लेकिन चेहरे पर भावनाओं के साथ कोई विश्वासघात नहीं किया। “मैं गुलाब लगाना चाहती हूँ।” स्टोव की ओर लौटते उन्होंने कहा। कर्नल ने आइने को दाढ़ी बनाने के लिए टाँगा।
“यदि तुम गुलाब लगाना चाहते हो तो बिल्कुल लगाओ” उन्होंने कहा।
साथ ही उन्होंने आइने के अनुसार अपने हाथ हिलाना शुरू कर दिया।
“लेकिन उन्हें सुअर खा जाते हैं” उसने शिकायती लहजे में कहा।
“ऐसा, तब तो यह बहुत ही अच्छा है” कर्नल ने कहा “गुलाब खाकर मोटे हुए सुअरों का गोश्त तो और बेहतर होगा।”
कर्नल ने आइने में पत्नी को कुछ-कुछ आड़े-तिरछे होकर देखा तो उन्होंने उसके चेहरे पर उसी भाव को जस का तस पाया। आग की रोशनी में उसका चेहरा स्टोव से बनी धातु जैसा ही दिख रहा था। बेख़याली में उनकी आँखें अपनी पत्नी के चेहरे पर टिकी रखीं और कर्नल अंदाज़ से शेविंग करते रहे जैसे वर्षों से करते आ रहे थे। उस लंबी ख़ामोशी में पत्नी मन में उधेड़-बुन करती रहीं।
“लेकिन मैं उन्हें लगाना नहीं चाहती” उसने कहा।
“अच्छा है” कर्नल ने कहा “तो उन्हें मत लगाओ।”
वह बेहतर महसूस कर रहा था। दिसंबर ने उसके पेट को ठीक कर दिया था। उस सुबह उसे नए जूते पहनने में बेहद परेशानी हुई और वो निराश हो गया। कई कोशिशों के बाद अहसास हो गया कि सारे प्रयास व्यर्थ हैं इसलिए उन्होंने पेटेंट चमड़े के जूते फिर से पहिन लिए। उनकी पत्नी ने इस परिवर्तन को नोट कर लिया।
“यदि तुम नए पहनोगे नहीं तो तुम उन्हें कभी सही नहीं कर पाओगे” उसने कहा।
“वे तो लंगड़ों के लिए बने है” कर्नल ने विरोध प्रकट किया। “उन्हें तो ऐसे जूते बेचना चाहिए जिन्हें एक माह तक पहले पहन लिया गया हो।”
आज शाम को चिट्ठी आ जायेगी इस उम्मीद को पाले वह सड़क पर आ गया। चूँकि अभी लान्चों के आने का समय नहीं हुआ था इसलिए वह साबास के ऑफ़िस में बैठ उसकी प्रतीक्षा करता रहा। लेकिन उन्होंने उसे बतलाया कि वो सोमवार से पहले नहीं आएगा। इस सूचना के बाद भी उन्होंने धीरज नहीं खोया। देर सबेर वह लौटेगा। उन्होंने अपने आप से कहा और बंदरगाह की ओर चल दिए। आसमान साफ़ था और मौसम खुशगवार।
“दिसंबर जैसा ही पूरा वर्ष होना चाहिए” उन्होंने मोसेज सीरियन की दुकान में बैठते फुसफुसाते हुए कहा “ऐसा महसूस होता है जैसे हम काँच के बने हों।”
मोसेज को इस विचार को भूली बिसरी अरबी में अनुवाद करने की कोशिश करनी पड़ी। वह एक सौम्य पूरबिया था जिसकी कान तक चमड़ी तनी हुई थी और उसके हाव-भाव पानी में डूबे हुए आदमी जैसे थे। उसे देखकर ऐसा लगता था जैसे उसे अभी-अभी डूबने से बचाया गया हो।
“किसी ज़माने में ऐसा ही था” उसने कुछ देर बाद कहा “यदि वो समय होता न तो मैं आठ सौ संतानवे वर्ष का होता और आप?”
“पचहत्तर”, कर्नल ने कहते हुए आँखों से पोस्टमास्टर का पीछा शुरू कर दिया। और तभी उन्होंने सर्कस को देखा। उन्होंने डाक बोट के छप्पर पर रंग-बिरंगा टेंट पहचान लिया। उसके साथ और भी रंगे हुए सामान थे। एक सेकेण्ड को नज़रों से पोस्टमास्टर ओझल हो गया क्योंकि वो दूसरी लान्चों में आए अलग-अलग जानवरों के पिंजरों को देखने लगा था। लेकिन वह उसे कहीं नहीं दिखा।
“अरे सर्कस है सर्कस”, उन्होंने कहा- “दस वर्षों में पहला सर्कस आया है।”
मोसेज ने उसके कहे को जाँचा और फिर अरबी-स्पेनिश खिचड़ी में अपनी पत्नी को समझाया। पत्नी ने स्टोर के पीछे से उत्तर दिया। उसने अपने आप से कुछ कहा और फिर अपनी परेशानी अनुवाद कर कर्नल को बतला दी।
“कर्नल, अपनी बिल्ली को छिपा लेना। बच्चे उसे चुराकर सर्कस वालों को बेच देंगे।”
कर्नल पोस्टमास्टर के पीछे जाने की तैयारी कर रहा था।
“यह जंगली जानवरों वाला सर्कस नहीं है” उन्होंने कहा।
“इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता” सीरियन ने उत्तर दिया, “तनी रस्सी पर चलने वाले बिल्लियाँ खाते हैं ताकि उनकी हड्डियाँ न टूटें।”
वह वाटर फ्रंट की स्टालों से होता प्लाजा तक पोस्टमास्टर के पीछे चलते गए। वहाँ पहुँच मुर्गेबाज़ी के शोर को सुन वे आश्चर्यचकित रह गए। राह चलते किसी ने उनके टर्की के बारे में कुछ कहा और तब जाकर उन्हें याद आया कि आज का दिन ही तो ट्रायल के लिए निश्चित किया गया है।
पोस्ट ऑफ़िस से आगे बढ़ वह शोर के गड्ढे में किसी तरह घुस गया। उसने अपने टर्की को बीच मैदान में अकेला असुरक्षित खड़ा देखा, उसके काँटे गंदे कपड़ों में लिपटे थे और उसके काँपते पैरों को देख लग रहा था कि वह डरा हुआ है। उसका विरोधी साँवला टर्की दुखी था।
कर्नल कुछ भी महसूस नहीं कर रहे थे। उसी प्रकार के हमले कई बार हुए। उत्साह से भरे शोर के बीच पंखों, पैरों और गर्दनों की टकराहट। बाउंड्री के पटियों से टकरा कर विरोधी मुर्गे ने हवा में एक चक्कर लगाया और फिर हमला किया। उनके टर्की ने हमला नहीं किया बदले में। उसने हर हमले का जवाब दिया और हर बार अपनी जगह पर वापिस आ गया। लेकिन अब टर्की के पैर काँप नहीं रहे थे।
हरनान बाउंड्री लाँघकर भीतर चला गया और उसे दोनों हाथों से उठाकर भीड़ को शान से दिखाया। ज़ोरदार तालियों, सीटियों और शोर ने उसका स्वागत किया। कर्नल का ध्यान लड़ाई की गंभीरता की तुलना में भीड़ के उत्साह की कमी पर गया। उन्हें वह सब दिखावटी लगा जान-बूझकर जिसमें दोनों मुर्गों ने सहयोग दिया था।
तिरस्कार भरी उत्तेजना से उन्होंने गोल घेरे को देखा। उत्साह से भरी भीड़ उस गड्ढे की ओर तेज़ी से बढ़ रही थी। कर्नल ने उत्साह से लाल लेकिन भयानक रूप से जीवित चेहरों को देखा। शहर में आये ये सभी नए लोग थे। पराजय का वह क्षण इन नये चेहरों की स्मृति से मिट चुका था। और तब उसने बाउंड्री कूदकर लाँघी और गड्ढे में मौजूद भीड़ को धकियाता सीधे हरनान की शांत आँखों के सामने खड़ा हो गया। दोनों बिना पलक झपके एक दूसरे को देखते रहे।
“गुड ऑफ्टर नून कर्नल!”
कर्नल ने टर्की उसके हाथ से छीनते हुए ‘गुड ऑफ्टर नून' फुसफुसाकर कहा। इसके बाद उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा क्योंकि ऊष्मा से भरी पक्षी के सीने की धक धक से उसे कँपकपी आने लगी थी और रोंगटे खड़े हो गए थे। उसे महसूस हुआ कि इतनी जीवित वस्तु आज तक उनके हाथ मेें कभी आयी ही नहीं थी।
“आप घर पर नहीं थे” हरनान ने घबराहट में कहा।
एक नए उत्साह ने उसे आगे कुछ भी कहने से रोक दिया। कर्नल को कुछ भय-सा लगा। एक बार फिर बिना किसी को देखे, शोर और तालियों की गड़गड़ाहट को अनुसना कर लोगों की भीड़ में से किसी तरह टर्की को हाथों में लिए वे सड़क पर आ गए।
पूरा शहर-गरीब लोगों की भीड़ - बाहर निकल उन्हें देखने लगी। बच्चों की भीड़ हल्ला करती उनके पीछे थी। एक विशालकाय नीग्रो टेबिल पर खड़ा हो गर्दन में साँप डाले प्लाज़ा के कोने में बिना लाइसेंस के दवाइयाँ बेच रहा था। हार्बर से लौटता एक झुंड उसकी बातों को सुन रहा था। लेकिन जब कर्नल टर्की को ले वहाँ से गुज़रे तो उन सभी का ध्यान उनकी ओर खिंच गया। घर का रास्ता इतना लंबा कभी नहीं था।
उन्हें कोई पछतावा न था। बहुत लंबे समय से शहर एक प्रकार की बेहोशी में रहा आया था। दस वर्षों के इतिहास के विध्वंस के बाद उस शाम को, बिना चिट्ठी के एक और शुक्रवार को, लोग जाग गए थे। कर्नल को एक दूसरे दौर की याद आई। अपने स्वयं को अपनी पत्नी और बच्चे के साथ छाते के नीचे खड़े एक तमाशे को देखते पाया, जो बारिश होने के बावजूद रुका नहीं था। उसे अपनी पार्टी के नेताओं की याद आई, जिन्हें संकोच के साथ तैयार किया गया था, वे उसके मकान के आँगन में संगीत की धुन पर नाच रहे थे। उन्होंने अपनी आँतों में ड्रमों की दर्द भरी आवाज़ों को फिर से जीवित होते देखा।
हार्बर के साथ चलती सड़क के साथ वे चलते गए और यहाँ भी उन्होंने शोर और उत्साह को वैसा ही पाया। बीते दिनों के चुनाव वाला दिन और इतवार की भीड़। वे सर्कस को उतरते देख रहे थे। एक टेन्ट के भीतर से एक औरत ने टर्की के बारे में कुछ कहा। घर की ओर वह अपने में डूब यहाँ वहाँ से आती आवाज़ों को सुनते, बढ़ते गए। जैसे पिट (गड्ढे) की प्रशंसा उनका पीछा अभी भी करती आ रही हो।
दरवाज़े पर पहुँच उन्होंने पीछे आते लड़कों से कहा, “चलो, सब अपने-अपने घर जाओ। जो भी भीतर आएगा उसकी पिटाई होगी।”
दरवाज़ा पीछे से बंद किया और सीधे किचन में पहुँच गए। उनकी पत्नी बेडरूम में एक-एक साँस के लिए लड़ती हुई बाहर निकल आई।
“वे उसे जबर्दस्ती उठाकर के ले गये” उसने रुंधे गले से सुबकते हुए कहा “मैंने उन लोगों से यहाँ तक कहा कि जब तक मैं जिंदा हूँ तब तक टर्की घर से बाहर नहीं जाएगा।” कर्नल ने इस बीच टर्की को स्टोव के पाँव से बाँध दिया था और पानी को बदल दिया था जबकि उनकी पत्नी की आवाज़ पीछा कर रही थी।
“उन्होंने इस पर कहा कि वे तो ले ही जाएँगें, भले ही हमारी लाशों पर से क्यों न ले जाना पड़े।” वे आगे कहे जा रही थीं, “वे कह रहे थे कि टर्की हमारा नहीं बल्कि पूरे शहर का है।”
जब उन्होंने टर्की का पूरा ताम-झाम जमा दिया, तब जाकर कर्नल ने अपनी पत्नी का तिरछा होता चेहरा देखा। उसे यह देख ताज्जुब हुआ कि पत्नी के चेहरे से उसमें न पश्चाताप ही जन्मा और न ही दया।
“उन्होंने बिल्कुल ठीक किया था”, उन्होंने शांति से कहा और फिर अपने जेबों में हाथ डाल एक अजीब-सी मिठास के साथ कहा-टर्की बिकाऊ नहीं है।
पत्नी उनके पीछे बेडरूम में चली आयी। उसे अनुभव हो रहा था जैसे वे पूर्णतः मानवीय हो गए हैं। लेकिन अस्पृश्य जैसे वे पति को उसे किसी सिनेमा के पर्दे पर देख रही हों। कर्नल ने अलमारी से नोटों का बंडल निकाला। उन्हें जेब में रखे नोटों में मिलाया, पूरे नोटों को गिना और फिर अलमारी में रख दिया।
“अपने दोस्त के उन्तीस पेसो वापिस करने हैं” उन्होंने कहा “बाकी की रकम पेंशन मिलने पर उसे मिलेंगे।”
“और यदि वह नहीं आई तो?” पत्नी ने पूछा।
“वो आएगी ही।”
“लेकिन मान लो वह नहीं आई तो?”
“ऐसी स्थिति में उसे पेसो नहीं मिलेंगे।”
उन्होंने पलंग के नीचे अपने नए जूतों को खोज निकाला। इसके बाद अलमारी से बॉक्स निकाला। जूते का तल्ला गंदे कपड़े से अच्छी तरह से पोंछा और उन्हें बॉक्स में रख दिया, ठीक वैसे ही जैसे उनकी पत्नी उनके लिए इतवार की रात को लाई थीं। पत्नी अपनी जगह से हिली तक नहीं।
“जूते वापिस जाएँगे” कर्नल ने कहा “इस तरह मेरे दोस्त को तेरह पेसो और मिलेंगे।”
“वे लोग इन्हें वापिस नहीं लेंगे?” उसने कहा।
“उन्हें वापिस लेना होगा” कर्नल ने उत्तर दिया। “मैंने केवल दो बार ही तो पहिने हैं।”
“टर्क यह सब नहीं समझते” पत्नी ने कहा।
“उन्हें समझना होगा।”
“और यदि नहीं समझे तो?”
“फिर क्या, वे नहीं समझेंगे और क्या?”
बिना भोजन किये वे सोने चले गये थे। कर्नल अपनी पत्नी के माला जप के समाप्त होने की राह देखता रहा, लैंप बुझाने के लिए। लेकिन उसे नींद नहीं आयी। उसने सिनेमा के प्रकार बतलाने वाली घंटियों को सुना और उसी के तुरंत बाद तीन घंटे बाद कर्फ्यू का हूटर। कँपकँपाती सर्दी की रात में वे अपनी पत्नी की पीड़ा भरी साँसों को सुनते रहे। कर्नल की आँखें खुली हुई थीं जब पत्नी ने शांत समझौते भरी आवाज़ में कहा- ‘तुम जग रहे हो न।'
“हाँ।”
“कर्नल समझदारी की बात सुनो” पत्नी ने कहा। “कल मेरे दोस्त साबास से बात कर लो।”
“वो सोमवार तक लौटने वाली नहीं है।”
“यह तो और भी अच्छा है” पत्नी ने कहा “इस प्रकार तुम्हें तीन दिन और मिल जायेंगे यह सोचने के लिए कि तुम उससे क्या और कैसे कहोगे।”
“इसमें सोचने को है क्या।”
अक्टूबर की चिपचिपी-सी हवा की जगह प्यारी-सी खुनक भरी सर्दी ने ले ली थी। दिसंबर के प्लोवर्स (एक विशेष पक्षी) के टाइम टेबिल पर गौर किया। रात के जब दो के घंटे बजे तब तक भी वे सोए नहीं थे। लेकिन वे यह भी जानते थे कि उनकी पत्नी अभी भी जाग रही हैं। हेमॉक में उन्होंने करवट लेने की कोशिश की।
“तुम्हें नींद नहीं आ रही है”, पत्नी ने कहा।
“नहीं।”
वे कुछ देर सोचती रहीं “हम सोने की हालत में हैं ही नहीं” पत्नी ने कहा “ज़रा सोचो तो एक साथ चार सौ पेसो होते कितने हैं?”
“अब, बस पेंशन आने में भी तो देर नहीं है।” कर्नल ने कहा।
“यह तो तुम पन्द्रह वर्षों से कह रहे हो।”
“इसलिए तो” कर्नल ने कहा “अब और देर नहीं होगी।”
वे कुछ देर खामोश रहे लेकिन जब वे बोले तो कर्नल को ऐसा लगा जैसे बीच में समय बीता ही नहीं हो।
“मुझे तो ऐसा ही लगता रहा है कि पेसो कभी आयेंगे ही नहीं।” पत्नी ने कहा।
“आएँगे, आएँगे ही।”
“और मान लो वे नहीं आए तो?”
उत्तर देने के लिए कर्नल के पास कोई आवाज़ नहीं थी। मुर्गे की पहली बाँग के साथ उन्हें कठोर यथार्थ का अहसास हुआ, लेकिन वे गहरी, सुरक्षित पश्चातापहीन नींद में चले गए। जब उनकी नींद खुली तब तक सूरज आकाश में ऊपर चढ़ गया था। उनकी पत्नी अभी भी सो रही थी। कर्नल ने सुबह दो घंटे लेट उठने के बाद एक के बाद एक घर के काम करने शुरू किये और अपनी पत्नी के उठने पर नाश्ता करने का इंतज़ार करने लगे।
जब वो उठीं तो उसने कोई बात नहीं की, बस गुड मार्निंग कहा और दोनों खामोशी से खाने लगे। कर्नल काली कॉफ़ी के घूँट ले रहे थे। साथ में था चीज़ और मीठा रोल। सुबह का पूरा समय उन्होंने टेलर की दुकान में बिताया। दोपहर एक बजे जब वे घर लौटे तो उन्होंने अपनी पत्नी को बेगोनिया पौधों के बीच कपड़ों को रफू करते और सिलाई करते देखा।
“लंच टाइम हो गया है” उन्होंने पत्नी से कहा।
“लंच तो है ही नहीं।”
यह सुन कर्नल ने कंधे उचकाए। उन्होंने आँगन की बाउंड्री के उन छेदों को बंद करना शुरू कर दिया जहाँ से बच्चे भीतर सरक कर आ जाते हैं। जब वे हाल में लौटे तो टेबिल पर लंच था।
लंच लेते कर्नल को अहसास हुआ कि पत्नी भीतर से उमड़ती रुलाई को रोकने की भरसक कोशिश कर रही है। इससे वे परेशान हो गए। वे अपनी पत्नी के स्वभाव से अच्छी तरह से परिचित हैं। स्वभाव से वो कठोर हैं और चालीस वर्षों से संघर्ष ने उसे और कठोर बना दिया है। बेटे की मृत्यु तक पर उन्होंने उसकी आँख में आँसू की एक बूँद तक नहीं देखी थी।
उन्होंने उसकी आँखों में नाराज़ी भरी नज़रें डाल दीं। पत्नी ने ओंठ काटा, अपनी गीली आँखें बाँह से पोंछी और धीरे-धीरे लंच खाने लगी।
“तुम्हारे अंदर ज़रा-सी भी सद्भावना नहीं है” पत्नी ने कहा।
कर्नल उत्तर में खामोश रहा।
“तुम अकडू, जिद्दी और भावनाहीन हो” उसने दोहराया। प्लेट पर काँटा-चाकू एक दूसरे पर रख दिया लेकिन तुरंत ही उन्हें आदत के अनुसार बदल दिया। “एक पूरी ज़िंदगी धूल फाँकी है इस सच का सामना करने के लिए कि अब मेरी औकात एक टर्की से तो कम ही है।”
“यह बात अलग है” कर्नल ने कहा।
“बात तो वही है” पत्नी ने उत्तर दिया। “तुम्हें अहसास होना चाहिए कि मैं मर रही हूँ, मेरी जैसी हालत है, वह बीमारी के कारण नहीं है, वह एक धीमी मौत है।”
कर्नल ने तब तक कुछ नहीं कहा, जब तक लंच पूरा नहीं हो गया।
“यदि डॉक्टर मुझे गांरटी दे कि टर्की को बेचने से तुम्हारा दमा ठीक हो जायेगा तो उसे बेचने में मैं एक मिनिट की भी देरी नहीं करूँगा।” उन्होंने कहा “लेकिन यदि ऐसा नहीं है, तब कतई नहीं बेचूँगा।”
उस शाम को वह टर्की को मुर्गेबाजों के मैदान में ले गया। जब लौटा तो उसकी पत्नी दमे के हमले की कगार पर थीं। वो हाल में टहल रही थीं। बाल पीठ पर बिखरे और दोनों हाथ फैलाए वो सीने से उठती सीटियों के बीच साँस लेने की कोशिश कर रही थीं। वो वहाँ शाम ढलने तक रुकी रहीं। फिर वो अपने पति से बिना एक शब्द कहे बिस्तर पर चली गईं।
कर्फ्यू के हूटर तक वे मन ही मन प्रार्थना बुदबुदाती रहीं। और जब कर्नल लैम्प बुझाने हेमॉक से उतरा तो उसने विरोध करते कहा, “मैं अंधेरे में मरना नहीं चाहती।”
कर्नल ने लैंप को वहीं पर जलता हुआ छोड़ दिया। वे बेहद थकान महसूस कर रहे थे। दिल ही दिल में वे चाह रहे थे कि वे सब कुछ भूल जायें और लगातार चालीस दिन तक सोते रहें और सीधे बीस जनवरी के शाम 3 बजे उठें, वह भी मुर्गेबाजी के मैदान में ठीक उस वक्त जब टर्की को लड़ने छोड़ना हो। लेकिन पत्नी की अनिद्रा उसे धमका रही थी।
“बस हमेशा की वही पुरान कहानी ही दोहराए जा रहे हो” एक पल बाद पत्नी ने कहा “हम भूखे रहते हैं ताकि दूसरे खा सकें। यही कहानी पिछले वर्षों से रोज़-रोज़ दोहराए चले जा रहे हैं।”
कर्नल खामोश रहे आए, जब तक उनकी पत्नी ने उनसे नहीं पूछा, क्या तुम जाग रहे हो। उन्होंने सहमति में उत्तर दिया। तब पत्नी ने बिना रुके स्पष्ट आवाज़ में कहा “इस टर्की से हमको छोड़कर कोई जीतेगा। हमारे पास तो एक सेन्ट भी नहीं है दाँव लगाने को।”
“टर्की का मालिक बीस परसेंट का अधिकारी होता है।”
“तुम तो उस समय भी अधिकारी थे, जब तुमने अपनी कमर चुनाव में तुड़वाई थी” पत्नी ने उत्तर दिया “गृहयुद्ध में अपना सिर कटाने को तैयार रहने के बदले पेंशन के भी अधिकारी हो। और अब सभी का भविष्य सुरक्षित है और तुम अकेले भूख से मर रहे हो।”
“मैं अकेला तो नहीं हूँ” कर्नल ने कहा।
कर्नल ने समझाने की कोशिश की तो नींद ने उसे बीच में रोक दिया। वे धीमे धीमे बोलती रहीं जब तक उसे अहसास नहीं हो गया कि उनका पति सो गया है। और तब मच्छरदानी उठाकर बाहर निकलीं और अंधेरे में टहलती रहीं। वो तब भी बोले चले जा रही थीं। कर्नल ने सुबह उसे पुकारा, तो वो भूत की तरह दरवाज़े पर आकर खड़ी हो गईं। उसके शरीर पर नीचे रखे धुँधले लैंप की रोशनी पड़ रही थी। मच्छरदानी के भीतर जाने के पहिले उसने लैंप बुझाया लेकिन वो अभी भी बोले जा रही थीं।
“हम लोग एक काम करने जा रहे हैं” कर्नल ने उसे टोका।
“हम केवल एक काम ही कर सकते हैं और वह है टर्की को बेचना” पत्नी ने उत्तर दिया।
“हम घड़ी भी तो बेच सकते हैं।”
“वे उसे खरीदेंगे ही नहीं।”
“कल मैं कोशिश करूँगा कि एलवारो मुझे चालीस पेसो दे दे।”
“वह तुम्हें नहीं देगा।”
“तब हम पिक्चर बेच देंगे।”
जब औरत ने दोबारा बोलना शुरू किया तब तक वे मच्छरदानी से फिर बाहर आ गई थीं। कर्नल को उसकी दवाओं से मिली-जुली साँसों की गंध आयी।
“वे उसे खरीदेंगे ही नहीं।”
“हम देखेंगे” कर्नल ने बिना आवाज़ में परिवर्तन किए हौले से कहा “अब प्लीज़ जाकर सो जाओ, यदि हम कल कुछ भी नहीं बेच सके, तब भी हम कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगे।”
कर्नल ने आँखें खुली रखने की पूरी कोशिश की लेकिन नींद ने उनकी नहीं चलने दी। वे समयहीन शून्य में गिर गए जहाँ उसकी पत्नी के शब्द दूसरे ही अर्थ में उपस्थित थे। लेकिन कुछ ही पलों बाद उन्हें कंधों से झकझोर दिया गया।
“मुझे उत्तर चाहिये।”
कर्नल की समझ में नही आया कि उसने यह शब्द नींद के पहले सुने थे या नींद के बाद। पौ फट रही थी। इतवार की हरियल स्पष्टता में खिड़की साफ़ दिख रही थी। लगा जैसे बुखार है, आँखें जल रही थीं और उन्हें स्पष्ट समझ के लिए सिर को बार-बार हिलाना पड़ा।
“हम करेंगे क्या, जब हम कुछ भी नहीं बेच पायेंगे” औरत ने दोहराया।
“तब तक बीस जनवरी आ चुकी होगी”, कर्नल ने पूरी तरह जागते हुए कहा, “वे उसी शाम बीस पेसो हमें दे देंगे।”
“यदि टर्की जीता तो” पत्नी ने कहा “लेकिन यदि वो हार गया तो, यह तुम्हारी अकल में क्यों नहीं आ रहा है कि टर्की हार भी तो सकता है।”
“लेकिन मान लो हार जाता है तब?”
“इस बारे में सोचने के लिए अभी भी हमारे पास चवालीस दिन हैं।” कर्नल ने कहा।
पत्नी का धीरज जवाब दे गया।
“अच्छा और इस बीच हम लोग खाएँगे क्या?” उसने पूछा और कर्नल की शर्ट का कॉलर ज़ोर से पकड़ लिया और ज़ोर से कर्नल को हिलाने लगी।
कर्नल को पचहत्तर वर्ष लगे थे- ज़िंदगी के लंबे पचहत्तर वर्ष एक-एक मिनिट कर इस क्षण तक पहुँचने में। शुद्ध, स्पष्ट और अपराजेय उसने अपने को इस क्षण महसूस किया जब उसने कहा-‘गू'।
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साभार -
रचना समय
गैब्रियल गर्सिया मार्केस
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संपादक
बृजनारायण शर्मा
अनिल जनविजय
विजय वाते
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अतिथि सम्पादक
हरि भटनागर
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आवरण ः
प्रस्तुति ः प्रीति भटनागर
एशियन कम्युनिटी आट्र्स एवं कथा
यू.के., लंदन के सहयोग से प्रकाशित
प्रकाशक ः
रचना समय
197ए सेक्टर-बी, सर्वधर्म कॉलोनी,
कोलार रोड, भोपाल-42
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