एनसीइइारटी की पाठ्यपुस्तकों में छपे कार्टूनों को लेकर संसद में एक बार विवाद फिर गहरा गया है। जबकि डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर से जुड़े विवाद...
एनसीइइारटी की पाठ्यपुस्तकों में छपे कार्टूनों को लेकर संसद में एक बार विवाद फिर गहरा गया है। जबकि डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर से जुड़े विवाद की आग अभी ठण्डी भी नहीं पड़ी है। दरअसल कक्षा नौ, दस और ग्यारहवीं में पढ़ाई जाने वाली डेमोक्रेटिक, पॉलिटिक्स नामक पुस्तक में देश के राजनीतिकों को आपत्तिजनक ढंग से पेश करने वाले कार्टूनों और उन पर छात्रों से निबंध लिखाने की शिक्षा पद्धति पर सांसदों ने सख्त ऐतराज जताया है। इसे न केवल राजनीतिज्ञों का अपमान माना बल्कि संसदीय लोकतंत्र के प्रति निराशावाद फैलाकर देश को अराजकता और तानाशाही की ओर धकेलने की साजिश बताया। यहां गौरतलब यह है कि जब पाठ्यक्रमों पर निर्धारण जाने माने शिक्षाविद् और नौकरशाह करते है तब उन्होंने यह गलती कैसे होने दी कि किताबों से संस्कार और सामाजिक सरोकार ग्रहण कर रहें विद्यार्थीयों को राजनीतिज्ञों का मजाक बनाए जाने वाले कार्टून पढ़ने को दिये जाएं। जबकि इन राजनीतिज्ञों में वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शामिल हैं जिन्होंने जान हथेली पर रखकर देश को फिरंगी हुकूमत से आजाद कराया।
ममता बनर्जी और डॉ आम्बेकर से जुड़े कार्टूनों पर हुए विवाद के सामने आने पर तो यह लग रहा था कि इन कार्टूनों को लेकर जो हल्ला बोला जा रहा है वह अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता पर हमला है। लेकिन राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद् की पुस्तकों में सिलेसिले वार कार्टूनों में जिस तरह से राजनीतिज्ञों का मखौल उड़ाया गया है वह नौकरशाही की सीधी राजनीतिकों के खिलाफ साजिश है। ऐसा करना इसलिए भी आसान हो जाता है क्योंकि हमारे नेता नीतिगत फेसलों के अलावा बाल-मनोविज्ञान एवं सरोकारों से जुड़े मसलों पर ध्यान ही नहीं देते। लिहाजा आसानी से पाठ्यपुस्तकों में वे पाठ शामिल कर दिए जाते है जो सभी राजनीतिकों की छवि को भ्रामक करने का काम करते है। स्वस्थ राजनीतिक लोकतंत्र के लिए यह स्थिति वाकई आपत्तिजनक है। इसलिए यदि सांसद यह कह रहे हैं कि ये कार्टून राजनेताओं के प्रति छात्रों का दिमाग बदलने की साजिश है तो इसमें आंशिक सच्चाई तो जरुर है।
मुख्य रुप् से कार्टून का चित्र एक ऐसा व्यंग्य और कटाक्ष होता है जो देखने व पढ़ने पर तो चेहरे पर मुस्कान लाता है लेकिन उसमें लक्षित वका्रेक्ति संदर्भ से जुड़ी विसंगति का यथार्थ सामने ले आती है। लिहाजा यदि डॉ आम्बेडकर से जुड़े कार्टून के मजमून को समझें तो इस कार्टून में प्रतीकस्वरूप जिस चाबुक को कार्टूनिस्ट केशव शकंर पिल्लै धेंधे पर चला रहे हैं, उसमें कार्टूनिस्ट का मंतव्य संविधान निर्माण को गति देना है। जबकि दुर्भाग्य से सतही सोच रखने वाले नेताओं ने इस कार्टून को आम्बेडकर का अपमान माना। और उन्होंने असली चाबुक एनसीआरटी के पूर्व सलाहकार सुहास पलशीकर की पीठ पर चलाकर संविधान की मूल भावना को आहत और अपमानित कर दिया। लिहाजा यह मार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उस अधिकार पर पड़ी, जिसे संविधान में खुद बाबा साहब आंबेडकर ने अभिव्यक्ति के किसी भी माध्यम से प्रगट करने की छुट दी हुई है। लेकिन जातिवादी सोच, विभाजनकारी मानसिकता और रूढि़वादी विचार ने संविधान निर्माता की उस उदारता को ठेस पहुंचाई है, जिसके मूल भाव में समता और सहिष्णुता का दर्शन प्रवाहित व अंतर्निहित है। यह कार्टून उस समय अभिव्यक्ति का हिस्सा बना था, जब संविधान का निर्माण धीमी गति से चल रहा था और लोकतंत्र नए संविधान की संहिताओं के मुताबिक गतिशील होने को आकुल-व्याकुल था। किसी भी प्रभावशील काटूर्न के पात्र और संवाद अंगड़ाई ले रही समसामयिक धटना की वर्तमान स्थितियों से उत्सर्जित होते हैं। लिहाजा जिस कार्टून को लेकर आफत का आलम रचा गया, उसका मकसद महज इतना था कि संविधान जितनी जल्दी संभव हो सके पूरा हो। उसका उद्देश्य डॉ आंबेडकर को अपमानित करना अथवा उनका उपहास करना कतई नहीं था।
यहां यह भी विचार करने की जरूरत है कि संविधान निर्माण यथाशीध्र पूरा हो इसकी जबाबदेही अकेले आंबेडकर पर नहीं थी, बल्कि पूरी संविधान समिति की थी, इसलिए कार्टून में चाबुक से जो फटकार लगाई जा रही है, वह प्रतीकात्मक रूप से पूरी समिति को ही लगाई जा रही है। क्योंकि यह कतई जरूरी नहीं कि संहिताएं और उनके अनुषांगिक अनुच्छेद रचे जाते वक्त समिति के सभी सदस्य एकमत से सहमत हो जाते हों ? असहमतियों का प्रगटीकरण स्वाभाविक रूप से हुआ होगा। इन असहमतियों को एकरूप में पिरोने में समय लगना भी स्वाभाविक है। क्योंकि देश आजादी के पूर्व अनेक जनपदों में बंटा होने के साथ सामंतों की एकतंत्रीय हुकूमत के मातहत था। यह अलग बात है कि इन राजतंत्रों पर कुटिल चतुराई तथा बांटो और राज करो के सूत्र वाक्य के आधार पर फिंरगियों ने अपना वर्चस्व कायम कर लिया था। अलबत्ता देश के शासन प्रशासन को एक संवैधानिक प्रजातंत्रीय शासन प्रणाली के अंतर्गत लाना कोई आसान काम नहीं था। यह एक बड़ा चुनौती का काम था, जिसके दायित्व का निर्वहन बाबा साहव के बौद्धिक कौशल से ही संभव था।
दरअसल संविधान निर्माण में हो रही देरी और जनता की बढ़ रही बेसब्री की पड़ताल एवं उसे अभिव्यक्ति करने की बेचैनी एक समकालीन कार्टूनिस्ट के जेहन में उतरना और फिर आकार लेना भी एक नैसर्गिक धटना है। इसे प्रतिगमी प्रतिक्रियावादी धटना या विचार के क्रम में देखना काटूर्न के साथ अन्याय है। शंकर निखालिस यथार्थ के चितेरे कार्टूनिस्ट थे। वर्तमान राजनीतिज्ञों की कार्यशैंलियों, विरोधाभासों और विंडबनाओं पर कूची चलाना उनकी रचना प्रक्रिया का सहज हिस्सा थी, न कि खिल्ली उड़ाना ? हमारे देश में जैसे जैसे शिक्षा, चेतना और अधिकारों में बढ़ोत्तरी हो रही है, वैसे वैसे हम संकीर्ण क्ठमुल्लापन और असहिष्णुता के भी शिकार होते जा रहे हैं। इस तरह के हालातों को हवा देने का काम कुछ तो हम खुद को चर्चा में बनाये रखने और कुछ कमजोर व दलित वर्ग का हितैषी साबित करने की दृष्टि से जान - बुझकर करते हैं। इसलिए संसदों में कुछ सांसदों ने तो इस कार्टून सृजन प्रक्रिया के वर्तमान कालखण्ड और तात्कालीन परिस्थितियों को नकारते हुए कुछ इस तरह से संसद में चर्चा की जैसे यह काटूर्न ताजा हो और आजकल के ही किसी अखबार में छपा हो। यह प्रवृत्ति अराजनता को हवा देने की नकारात्मक अभिव्यक्ति है। मुददा बनाकर सवाल खड़े करने वाले सासंदो को ऐसी दूषित और पूर्वग्रही प्रवृत्ति से बचने की जरूरत है। क्योंकि सांसदो का काम वाकई यदि संविधान की मूल भावना से अभिप्रेरित है तो उन्हें यह भी अनुभव करने की जरूरत है कि आपत्ति के दायरे में लाए गए कार्टून का मूल भाव - लक्ष्य क्या है ? अभिव्यक्ति के माघ्यमों में छिपे इस प्रच्छन्न संदेश को समझाना होगा, वह भी उसे रचे गए कालक्रम में। डाँ आंबेडकर ने इसके मूलभाव को सहजता से समझ लिया था। इसीलिए उन्होंने कार्टूनिस्ट के प्रति कोई नाराजगी जताने की बजाए प्रशंसा की थी।
लेकिन पाठ्यपुस्तकों में जिस तरह से थोक में राजनीतिज्ञों के अपमान से जुड़े आपत्तिजनक कार्टून सामने आए है यह लज्जा जनक स्थिति होने के साथ संसदीय लोकतंत्र का भी अपमान है। लेकिन यहां विचारणीय है कि प्रत्येक विभाग की संसदीय समिति होती है, तय है मानव संसाधन विकास मंत्रालय की समिति भी अस्तित्व में होगी। उसने कार्टूनों की इस निराशाजनक श्रृंखला को कैसे राजनीति शास्त्र के पाठ में शामिल होन दिया। तय है हमारे ज्यादातर सांसद अपने ज्ञान, विवेक और व्यक्तित्व का इस्तेमाल ही नही करते। वे केवल कुर्सी और वैभव का ख्याल रखते है। यही कारण है कि नौकरशाही न केवल मनमानी करने को स्वतंत्र होती है बल्कि नेताओं के प्रति अपनी कुंठा निकालने के अवसर भी पाठ पुस्तकों में दे दती है। लिहाजा यहां जरुरत सांसद और मंत्रियों को खुद का आत्मावलोकन करने की भी है। जिससे भविष्य में बालकों के अपरिपक्व मानसिक धरातल पर कोई नौकरशाह राजनीतिकों के खिलाफ घृणा, ईर्ष्या और विद्वेष के बीजों का बीजारोपण न कर पाएं।
प्रमोद भार्गव
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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है ।
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - बामुलिहाज़ा होशियार …101 …अप शताब्दी बुलेट एक्सप्रेस पधार रही है
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