(पिछले अंक से जारी...) दृश्य : चौदह (रतन की मां बैठी है। उसके पास वह बक्सा रखा है। जो पिछले सीन में लेकर वह नासिर के घर गयी थी। सामने...
दृश्य : चौदह
(रतन की मां बैठी है। उसके पास वह बक्सा रखा है। जो पिछले सीन में लेकर वह नासिर के घर गयी थी। सामने हमीदा बेगम, तन्नो और जावेद बैठे हैं। मिर्ज़ा साहब कुछ फ़ासले पर बैठे हुक्का पी रहे हैं।)
हमीदा बेगम : हरगिज़ नहीं, हरगिज़ नहीं, हरगिज़ नहीं... माई ये ख़्याल आपके दिमाग़ में आया कैसे?
तन्नो : क्या हम लोगों से कोई ग़लती हो गयी माई।
रतन की मां : बेटी तू वी कमाल कर दी है, अपणे बच्चयां तो वी भला कोई गलती होंदी है... मैं तेरी दादी हां अगर तेरे कोलों कोई गलती होंदी तो मैं तन्नो डांट दी... दो-चार चपेड़ा मार सकदी सी। मन्नू कोण रोक सकदा सी।
सिकंदर मिर्ज़ा : बेशक ये आपकी पोती है आपका इस पर पूरा हक़ है।
हमीदा बेगम : फिर आप क्यों ज़िद कर रही हैं हिंदुस्तान की?
रतन की मां : बेटी देख, मन्नू सब पता है... एक गल ज़रूर है कि तुस्सी लोकां ने मन्नू कुज नई दसया, बल्कि मेरे तों छिपाया है, लेकिन ए हक़ीक़त है कि कुछ लोक मेरी वजहों तुस्सी सारेयां नूं परेशान कर रहे हन।
हावेद : नहीं माई नहीं, हमें कौन परेशान करेगा?
रतन की मां : देखे बेटा, अपणी दादी नाल झूठ न बोल... मैं दिन भर मोहल्ले च घूमदी रहदी हां... मन्नू सब पता है। उन्नां लेकों ने तन्नू चा दे ढाबे ते धमकी नहीं सी दित्ती... दस?
जावेद : अरे माई वैसी धमकियां तो जाने कितने देते रहते हैं।
रतन की मां : बेटे मेरी वजह नाल तुस्सी लोकां नूं कुछ हो गया तां मैं तां फिर किधरी दी नां रई... ऐही वजह है कि मैं जाणा चाहदी हां।
सिकंदर मिर्ज़ा : माई जब हमारा कोई ठिकाना नहीं था, जब हम परेशानी और तकलीफ़ में थे, जब हम ये जानते थे कि लाहौर किस चिड़िया का नाम है तब आपने हमें बच्चों की तरह रखा, हम पर हर तरह का एहसान किया और आज जब हम इस शहर में जम चुके हैं तो क्या हम उन एहसानों को भूल जाएं?
रतन की मां : बेटे तू ठीक कहदा है, लेकिन मेरा वी ते कोई फ़र्ज़ है।
सिकंदर मिर्ज़ा : आपका फ़र्ज़ है कि आप अपने बेटे, बहू, पोते, पोती के साथ रहें...बस।
रतन की मां : देख बेटा मैंनू की फ़र्क पैदा है? साठ तों ऊपर दी हो हां... आज मेरी तां कल मरी...इत्थे लाहौर च मरी या दिल्ली च मयं... मन्नू हुण मरना ही मरना है।
तन्नो : माई पहले तो आप ये मरने-वरने की बातें न करें... मरें आपके दुश्मन।
(तन्नो माई के गले में बाहें डाल देती है। माई उसे प्यार करती है।)
सिकंदर मिर्ज़ा : माई आपको हमसे आज एक वायदा करना पड़ेगा... बड़ा पक्का वायदा... (जावेद से) जावेद बेटे पहले तो बक्सा ऊपर ले जाओ और माई के कमरे में रख आओ।
जावेद : जी अब्बा।
(जावेद बक्सा लेकर चला जाता है।)
सिकंदर मिर्ज़ा : वायदा ये कि आप हम लोगों को छोड़कर कहीं नहीं जाएंगी।
(रतन की मां चुप हो जाती है और सिर झुका लेती है।)
हमीदा बेगम : बिल्कुल आप कहीं नहीं जायेंगी।
(जावेद लौटकर आता है और बैठ जाता है।)
तन्नो : दादी बोलो न.. क्यों हम लोगों को सता रही हो? कह दो कि नहीं जाओगी।
(रतन की मां चुप रहती है।
जावेद उठकर माई के पास आता है। माई के दोनों कंधे पकड़ता है। झुककर उसकी आंखों में देखता है और बहुत फ़र्मली कहता है)
जावेद : दादी, तुम्हें मेरी क़सम है, अगर तुम कहीं गयीं।
(रतन की मां फूट-फूट कर रोने लगती है और रोते-राते कहती है)
रतन की मां : मैं किधरी नहीं जावांगी... किधरे नहीं... त्वाडे लोकां चों ही उट्ठांगी तां सिधे रब के कौल जावांगी, बस...
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दुश्य : पवन्द्रह
(आधी रात बीत चुकी है। अलीम के होटल में सन्नाटा है। वह एक बेंच पर पड़ा सो रहा है। नासिर और हमीद आते हैं)
नासिर : (हमीद से) लगता है ये तो सो गया... (ज़ोर से) अली... अरे भई सो गए क्या?
अलीम : अभी-अभी आंख लगी थी कि... नासिर साहब... आइए...
नासिर : सो जाओ... लेकिन यार चाय पीनी थी..
हमीद : भट्टी तो सुलग रही है।
नासिर : तो ठीक है यार तुम सो, हम लोग बचाय बना लेंगे। क्यों हमीद।
हमीद : नासिर साहब बढ़िया चाय पिलाऊंगा।
नासिर : अमां अलीम एक कम तुम भी पी लेना।
अलीम : नींद उड़ जाएगी नासिर साहब।
नासिर : अमां नींद भी कोई परी है जो उड़ जाएगी... चाय पीकर सो जाना... और जा सोने का मूड न बने तो हमारे साथ चलना... लाहौर से मुलाक़ात तो रात में ही होती है।
हमीद : (हमीद पानी भट्टी पर रखता है) कड़क चाय पियेंगे नासिर साहब।
नासिर : भई हम तो कड़क के ही क़ायल हैं- कड़क चाय, चाय, कड़क आदमी, कड़क रात, कड़क शायरी...
(नासिर बेंच पर बैठ जाते हैं। हमीद चाय बनाने लगता है। अलीम भी उठकर बैठ जाता है।)
हमीद : कोई कड़क शेर सुनाइए।
नासिर : सुनो।
ग़म जिसकी मज़दूरी हो।
हमीद : (दोहराता हूं) गम़ जिसकी मज़दूरी हो।
नासिर : जल्द गिरेगी वो दीवार।
हमीद : वाह नासिर साहब वाह।
(अलीम दोनों के सामने चाय रखता है और खुद भी चाय लेकर बैठ जाता है।)
अलीम : नासिर साहब, पहलवान आपको बहुत पूछता रहता है, मिला?
नासिर : जिनमें बूए वफ़ा नहीं नासिर
ऐसे लोगों से हम नहीं मिलते।
हमीद : वाह साहब वाह... जिनमें बूए वफ़ा नहीं नासिर।
नासिर : ऐसे लोगें से हम नहीं मिलते।
हमीद : आजकल लिख रहे हैं नासिर साहब।
नासिर : भाई लिखने के लिए ही तो हम ज़िन्दा हैं, वरना मौत क्या बुरी है?
(जावेद की घबराई हुई आवाज़ आती है। वह चीख़ता हुआ दाख़िल होता है)
जावेद : अलीम मियां... अलीम मियां...
(जावेद परेशान लग रहा है। उसे देखकर तीनों खड़े हो जाते हैं)
नासिर : क्या हुआ जावदे?
जावेद : माई का इंतिक़ाल हो गया।
नासिर : अरे, कैसे... कब?
जावेद : शाम को सीने में दर्द बता रही थीं...मैं डॉ0 फ़ारूक़ को लेके आया था, उन्होंने इंजेक्शन और दवाएं दीं... अचानक कभी दर्द बहुत बढ़ गया और...
नासिर : हमीद मियां ज़रा हिदायत साहब को ख़बर कर आओ... और करीम मियां से भी कह देना... जावेद तुम किधर जा रहे हो।
जावेद : मैं तो अलीम को जगाने आया था... अब्बा की तो अजीब कैफ़ियत है...
अलीम : मरहूमा का यहां कोई रिश्तेदार भी तो नहीं है।
नासिर : अरे भाई हम सब उनके कौन हैं? रिश्तेदार ही हैं। अलीम तुम कब्बन साहब और तक़ी मियां को बुला लाओ...
(अलीम जाता है। उसी वक़्त हिदायत साहब, करीम मियां औरह मीद आते हैं।)
हिदायत : वतन में कैसी बेवतनी की मौत है।
नासिर : हिदायत साहब हम सब उनके हैं... सब हो जाएगा।
करीम : भाई लेकिन करोगे क्या।
नासिर : क्या मतलब।
करीम : भाई रामू का बाग़ जो शहर का पुराना शमशान था, वो अब रहा नहीं, वहां मकानात बन गए हैं।
हिदायत : ये तो बड़ी मुश्किल हो गयी।
(अलीम,कब्बन और तक़ी आते हैं।)
करीम : और शहर में कोई दूसरा हिंदू भी नहीं है जो कोई रास्ता बताता।
हिदायत : अरे साहब हम लोगों को कुछ मालूम भी तो नहीं कि हिन्दुओं में क्या होता है।
(सिकंदर मिर्ज़ा आते हैं। उनका चेहरा लाल है और बहुत ग़मज़दा लग रहे हैं।)
करीम : भई असली मुश्कल तो शमशान की है। जब शमशान ही नहीं तो आख़िरी रस्म कैसे अदा होगी।
कब्बन : हां तो बड़ी मुश्किल है।
तक़ी : मिर्ज़ा साहब आप कुछ तजवीज़ कीजिए।
सिकंदर मिर्ज़ा : मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है... जो आप लोगों काी राय हो वही किया जाए।
हिदायत : भाई हम तो यही कर सकते हैं बड़ी इज़्ज़त और बड़े एहतेराम के साथ मरहूमा को दफ़ कर दें... इससे ज़्यादा न हम कुछ कर सकते हैं और न हमारे इिख़्तयार में है।
नासिर : लेकिन माई हिन्दू थीं और उनको...
हिदायत : नासिर भाई हम सब जानते हैं वो हिन्दू थीं लेकिन करें क्या? जब शमशान ही नहीं है तो क्या किया जा सकता है? आप ही बताइए?
(नासिर चुप हो जाते हैं।)
तक़ी : हिदायत साहब की राय मुनासिब है, मेरा भी यही ख़्याल है कि मोहतरमा की लाश को इज़्ज़त-ओ- ऐहतेराम के साथ दफ़न किया जाए... इनके वारिसान का तो पता है नहीं... वरना उनको बुलवाया जाता या राय ली जाती।
सिकंदर मिर्ज़ा : जो आप लोग ठीक समझें।
कब्बन : अलीम मियां अप मस्जिद चले जाइए और खटोला लेते आइए... जावेद मियां तुम कफ़न के लिए ग्यारह गज़ सफ़ेद कपड़ा ले आओ... हाजी साहब की दुकान बंद हो तो पीछे गली में घर है, वो अंदर से ही कपड़ा निकाल देंगे।
(अलीम और जावेद चले जाते हैं।)
तक़ी : बड़ी ख़ूबियों की मालिक थीं मरहूमा... मेरे बच्चे को जब चेचक निकली थी तो रात-रात भी उसके सिरहाने बैठी रहा करती थीं।
हिदायत : अरे भाई उनके जैसा मददगार और ख़िदमती मैंने तो आज तक देखा नहीं... ऐसी नेकदिल औरत- कमाल है साहब।
कब्बन : जब से उनके मरने की ख़बर मेरी बीबी ने सुनी है रोये जा रही है- अब कुछ तो ऐसी उनसियत होगी ही।
नासिर : ज़िंदगी जिनके तसव्वुर से जिला पाती थी।
हाय क्या लोग थेजो दाए अजल में आए।
(अलीम आकर कहता है।)
अलीम : मौलवी साहब यहीं आ रहे हैं।
(पहलवान, अनवर और सिराज के साथ आकर भीड़ में खड़ा हो जाता है।)
कब्बन : क्या कह रहे थे मौलवी साहब।
अलीम : कह रहे थे, अभी कुछ मत करना मैं ख़ुद आता हूं।
तक़ी : मरहूमा का एक-एक लम्हा दूसरों के लिए ही होता था... कभी अपने लिए कुछ न मांगा...
पहलवान : अजी उन्हें क्या ज़रूरत थी किससे कुछ मागंने की... बड़ी दौलत थी उनके पास।
(सब पहलवान को घूरकर देखते हैं। कोई कुछ जवाब नहीं देता, उसी वक़्त मौलवी साहब आते हैं। जो लोग बैठे हैं वो खड़े हो जाते हैं।)
मौलाना : सलामुअलैकु।
सब : वालेकुमस्सलाम।
मौलाना : रतन की वालेदा का इंतिक़ाल हो गया है।
बहदायत : जी हां।
मौलाना : आप लोगों ने क्या तय किया है?
हिदायत : हुज़ूर पुराना शमशान रामू का बाग़ तो रहा नहीं, और हम लोगों को हिन्दुओं का तरीक़ा मालूम नहीं, शहर में कोई दूसरा हिन्दू नहीं है जो उससे कुछ पूछा जा सकता... अब ऐसी हालत में हमें वही मुनासिब लगा कि मरहूमा को बड़ी इज़्ज़त और ऐतेराम के साथ सुपुर्दे ख़ाक कर दिया जाये।
मौलाना : क्या मरने से पहले मरहूमा मुसलमान हो गयी थी।
सिकंदर मिर्ज़ा : जी नहीं।
मौलाना : तब आप उनको दफ़न कैसे कर सकते हैं।
पहलवान : (गु़स्से में) तो और क्या करेंगे।
मौलाना : ये मैं आप लोगों से पूछ रहा हूं।
सिकंदर मिर्ज़ा : जनाब हमारी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा।
मौलाना : देखिए वो नेक औरत मर चुकी है। मरते वक़्त वो हिन्दू थी। उसके आख़िरी रसूम उसी तरह होने चाहिए।
पहलवान : (चिढ़कर) वाह ये अच्छी तालीम दे रहे हैं आप।
मौलाना : (उसे जवाब नहीं देते) देखिए वो मर चुकी है। उसकी मय्यत के साथ आप लोग जो सुलूक चाहें कर सकते हैं... उसे चाहे दफ़ना दीजिए चाहे टुकड़े-टुकड़े कर डालिए, चाहे गर्क़ आबे कर दीजिए... इसका अब उस पर कोई असर नहीं पड़ेगा... उसके ईमान पर कोई आंच नहीं आएगी... लेकिन आप उसके साथ क्या कर सकते हैं, इससे आपके ईमान पर ज़रूर आंच आ सकती है।
(सब चुप हो जाते हैं।)
मुर्दा वो चाहे किसी भी मज़हब का हो, उसका एहतेराम फ़र्ज़ है... और हम जब किसी की एहतेराम करते हैं तो उसके यक़ीन और उसके मज़हब का ठेस तो नहीं पहुंचाते?
नासिर : आप बजा फ़रमा रहे हैं मौलाना।
पहलवान : इस्लाम यही कहता है? इस्लाम की यही तालीम है कि एक हिंदू बुढ़िया के पीछे हम सब राम राम सत करें?
मौलाना : बेटे इस्लाम ख़ुदग़र्ज़ी नहीं सिखाता। इस्लाम दूसरे के मज़हब और जज़्बात का एहतेराम करना सिखाता है- अगर तुम सच्चे मुसलमान हो तो ये करके दिखाओ? कुफ़्फ़ार और मुशरिकों के साथ मोहायदा पूरा करना परहेज़गारी की शान है...
पहलवान : (गुस्से में) ये ग़लत बात है, कुफ्ऱ है।
मौलाना : बेटा गुस्सा और अक़्ल कभी एक साथ नहीं होते। (कुछ ठहरकर) तुममें से कितने लोग हैं जो ये ह सकें कि रतन की मां तुम्हारे काम नहीं आई? कि तुम पर उसके एहसानात नहीं हैं? कि तुम लोगों की ख़िदमत नहीं की।
(कोई कुछ नहीं बोलता।)
मौलाना : आज वो औरत मर चुकी है जिसके तुम सब पर एहसानात हैं, तुम सबको उसने अपना बच्चा समझा था, आज जब कि वो मौत के आग़ोश में सोच चुकी है, तुम उसे अपनी मां मानने से इनकार कर दोगे... और अगर वो तुम्हारी मां है तो उसका जो मज़हब था उसका ऐहतेराम करना तुम्हारा फ़र्ज़ है।
सिकंदर मिर्ज़ा : आप बजा फ़रमाते हैं मौलाना... हमें मरहूमा के मज़हबी उसूलों के मुताबिक़ ही उनका कफ़न दफ़न करना चाहिए।
कुछ और लोग : हां, यही मुनासिब है।
मौलाना : फ़ज्र की नमाज़ का वक़्त हो रहा है। मैं मस्जिद जा रहा हूं। आप लोग भी नमाज़ अदा करें। नमाज़ के मैं मिर्ज़ा साहब के मकान पर जाऊंगा।
(मौलाना चले जाते हैं। बाक़ी लोग भी धीरे-धीरे चले जाते हैं। पहलवान और उसके साथी रह जाते हैं। सब के जाने के बाद पहलवान अचानक अलीम की तरफ़ झपटता है और उसका गरीबान पकड़ लेता है।)
पहलवान : अलीम मैं ये नहीं होने दूंगा... हरगिज़ नहीं होने दूंगा... चाहे मुझे... चाहे मुझे...
अलीम : अरे पहलवान मेरा गला तो छोड़ो... मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है।
(पहलवान गला छोड़ देता है।)
पहलवान : (ग़ुस्से में अपने साथियों से) चलो।
(वे तीनों निकल जाते हैं।)
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