(पिछले अंक से जारी...) दृश्य : बारह (अलीम चाय बना रहा है। नासिर और हमीद बैठे चाय पी रहे हैं।) हमीद : कल रात आपने जिन्नात वाला वाक्या...
दृश्य : बारह
(अलीम चाय बना रहा है। नासिर और हमीद बैठे चाय पी रहे हैं।)
हमीद : कल रात आपने जिन्नात वाला वाक्या अधूरा छोड़ दिया था... आज पूरा कर दीजिए।
नासिर : अरे भाई वो जिन्नात तो सिर्फ़ जिन्नात था... मैं तो ऐसे जिन्नत को जानता हूं जिसने जिन्नतों का नतिका बन्द कर रखा है।
अलीम : वो जिन्नात कौन है नासिर साहब।
नासिर : वो जिन्नात है इंसान-यानी आदमी- हम और आप।
(सब हंसते हैं। उसी वक़्त पहलवान, अनवार, सिराज और रज़ा आते हैं। पहलवान बहुत गुस्से में आता है।)
पहलवान : (गुस्से में अलीम से) देखा तुमने ये क्या हा रहा है... ख़ुदा की क़सम ख़ून खौल रहा है।
नासिर : क्या बात है पहलवान साहब बहुत गुस्से में नज़र आ रहे हैं।
पहलवान : नज़र नहीं आ रहा हूं, हूू गुस्से में...
नासिर : अमां तो सदरे पाकिस्तान को एक ख़त लिख मारिए।
पहलवान क्यों मज़ाक़ करते हैं नासिर साहब।
नासिर : मज़ाक़ कहां भाई... हम शायर तो जब बहुत गुस्से में आते हैं तो सदरे पाकिस्तान को ख़त लिख मारते हैं।
पहलवान : क़सम खुदा की ये तो अंधेर है।
नासिर : भाई हुआ क्या?
पहलवान : अरे जनाब आपने कल रात देखा होगा उस कम्बख़्त ने हवेली में चिरागा़ं किया था पूजा की, दीवाली मनाई।
नासिर : अच्छा.. अच्छा आप माई के बारे में कह रहे हैं?
पहलवान : आप उस हिन्दू काफ़िरा को माईर् कह रहे हैं।
नासिर : मैं तो उसे माई ही कहूंगा... बल्कि सब उसे माई कहते हैं। आप उसे जो जी चाहे कहिए।
(पहलवान खूंख़ार नज़रों से घूरता है।)
पहलवान : अलीम चाय पिला।
(अलीम चाय बनाने लगता है।)
पहलवान : (चमचों से) अब तो ख़ामोश नहीं बैठा जा सकता... मेरी समझ में नहीं आता सिकंदर मिर्ज़ा साहब ने उसे चिराग़ां करने की इजाज़त कैसे दी दी?
नासिर : इजाज़त, आप भी कैसी बातें कर रहे हैं पहलवान... माई हवेली उसी की है... उसने सिकंदर मिर्ज़ा को वहां रहने की इजाज़त दे रखी है।
पहलवान : उसका अब पाकिस्तान में कुछ नहीं है।
(चाय पीता है।)
मुझे तो हैरत होती है कि इतना ग़ैर-इस्लाम काम हुआ और लोगों के कान पर जूं तक नहीं रेंगी।
नासिर : भई आप माई के दीवाली मनाने को ग़ैर इस्लामी जो कह रहे हैं वो अपने हिसाब से कह रहे हैं। वो हिन्दू है उसे पूरा हक़ है अपने मज़हब पर चलने का।
पहलवान : आप जैसे सब हो जायें तो इस्लामी हुकूमत की ऐसी तैसी हो जाये... जनाब आज वो पूजा कर रही है कल मंदिर बनायेगी, परसों लोगों को हिन्दू मज़हब की तालीम देगी।
नासिर : तो?
पहलवान : मतलब कुछ हुआ ही नहीं।
नासिर : आपके कहने का मतलब है कि जैसे ही उसने हिन्दू मज़हब की तालीम देना शुरू की वैसे ही लोग पटापट हिन्दू होने लगेंगे... माफ़ कीजिएगा अगर ऐसा हो सकता है तो हो ही जाने दीजिए।
(सिकंदर मिर्ज़ा आते हुए नज़र आते हैं।)
अनवार : उस्ताद सिकंदर मिर्ज़ा आ रहे हैं।
(पहलवान उछलकर खड़ा हो जाता है और उसके साथी उसके पीछे आ जाते हैं। सिकंदर मिर्ज़ा पास आते हैं।)
पहलवान : आपकी हवेली में कल दीवाली मनाई गयी?
सिकंदर मिर्ज़ा : जी हां।
पहलवान : पूजा भी हुई।
सिकंदर मिर्ज़ा : जी हां- लेकिन बात क्या है।
पहलवान : ये सब इसी वजह से हुआ कि आपने उस काफ़िरा को पनाह दे रखी है।
सिकंदर मिर्ज़ा : जनाब ज़रा जब़ान संभल कर बातचीत कीजिए... एक तो मैं आपके किसी सवाल का जवाब देने के लिए पाबंद नहीं हूं दूसरे आपको मुझसे सवाल करने का हक़ क्या है।
पहलवान : आप गै़स इस्लामी काम कराते रहे हैं और हम बैठे देखते रहे, ये नहीं हो सकता।
बनवार बिल्कुल नहीं हो सकता।
पहलवान : और अब हम चुप भी नहीं रह सकते।
नासिर : ख़ैर, चुप तो आप कभी नहीं रहे।
(पहलवान उनकी तरफ़ गुस्से से देखता है। उसी वक़्त मौलाना आते दिखाई पड़ते हैं।
मौलाना को आता देखकर सब चुप हो जाते हैं। नासिर आगे बढ़कर कहते हैं।)
नासिर : सलाम अलैकुम मौलाना।
मौलाना : वालेकुमसलाम... कैसे हो नासिर मियां?
नासिर : दुआएं हैं हुज़ूर... बड़े अच्छे मौक़े से आप तशरीफ़ लाये। एक मसला ज़ेरे बहस है।
मौलाना : क्या मसला?
पहलवान : क्या मसला?
(पहलवान आगे बढ़ता है।)
पहलवान : सलाम अलैकुम मौलवी साहब।
मौलाना : वालेकुमस्सलाम।
पहलवान : सिकंदर मिर्ज़ा साहब के घर में कल पूरा हुई है। बुतपरस्ती हुई है... ये कुफ्ऱ नहीं तो क्या है।
मौलवी : (सिकंदर मिर्ज़ा से) बात क्या है मिर्ज़ा साहब?
पहलवान : अजी ये बतायेंगे... मैं बताता हूं।
मौलवी : भाई बात तो इनके घर की है न? ये नहीं बतायेंगे और आप बतायेंगे, ये कैसे हो सकता।
पहलवान : जवाब ये छुपायेंगे... ये पर्दा डालेंगे... और मैं हक़ीक़त को खोलकर सामने रख दूंगा।
सिकंदर मिर्ज़ा : ठीक है, आप हक़ीक़त बयान कीजिए... मैं चुप हूं।
पहलवान : हुज़ूर... इनके घर में बुतपरस्ती होती है, कल खुलेआम पूजा हुई है... वो सब किया गया, उसे क्या कहते हैं... हवन वगै़रह... और फिर चिराग़ां किया गया... क्योंकि कल दीवाली थी। और मिठाई बनाकर तक़सीम की गयी।
मौलाना : अब आपकी इजाज़त है मैं मिर्ज़ा साहब से भी पूछूं।
(पहलवान कुछ नहीं बोलता।)
मौलाना : मिर्ज़ा साहब क्या मामला है।
सिकंदर मिर्ज़ा : जनाब आपको मालूम ही है कि मेरी हवेली की ऊपरी मंज़िल में माई रहती है। माई उस शख़्स रतन लाल की मां है जिसकी हवेली थी। उसने मुझसे कहा कि मेरा त्यौहार आ रहा है मुझे मनाने की इजाज़त दे दो... भला मैं किसी को उसका त्यौहार मनाने से क्यों रोकने लगा... मैंने उससे कहा... ज़रूर मनाइए... उस बेचारी ने पूरा त्योहार मनाया... में क़िस्सा दरअसल वही है।
पहलवान : घंटियों की आवाज़ें मैंने अपने कानों से सुनी हैं...
मौलाना : ठहरो भाई... तो बात दरअसल ये है कि हिन्दू बुढ़िया ने इबादत की और...
पहलवान : इबादत? आप उकी पूजा और घंटियां वग़ैरा जानने को इबादत कह रहे हैं?
मौलाना : (हंसकर) तो उसके लिए कोई मुनासिब लफ़्ज़ आप ही बता दें।
पहलवान : पूजा।
मौलाना : जी हां, पूजा का मतलब ही इबादत है... तो उसने इबादत की।
(कुछ क्षण ख़ामोशी।)
मौलाना : तो क्या हुआ... सबको अपनी इबादत करने और अपने ख़ुदाओं को याद करने का हक़ है।
पहलवान : ये कैसे मौलाना साहब?
मौलाना : भई हदीस शरीफ़ है कि तुम दूसरों के खुदाओं को बुरा न कहो, ताकि वह तुम्हारे खुदा को बुरा न कहें, तुम दूसरों के मज़हब को बुरा न कहो, ताकि वह तुम्हारे मज़हब को बुरा न कहें।
(पहलवान का मुंह लटक जाता है। फिर अचानक उत्साह में आ जता है।)
पहलवान : फ़र्ज कीजिए कल बुढ़िया यहां मंदिर बना ले?
मौलाना : मंदिरों को बनने न देना... या मंदिरों को तोड़ना इस्लाम नहीं है बेटा।
पहलवान : (गुस्से में) अच्छा तो इस्लाम क्या है?
मौलाना : कभी इतमीनान से मेरे पास आओ तो मैं तुम्हें समझाऊं... पड़ोसी चाहे मुस्लिम हो, चाहे ग़ैर मुस्लिम, इस्लाम ने उसे इतने ज़्यादा हक़ दिए हैं कि तुम उनका तसव्वुर भी नहीं कर सकते।
सिकंदर मिर्ज़ा : हुजू़र वो हिन्दू औरत बेवा है।
मौलाना : बेवा का दर्जा तो हमारे मज़हब में बहुत बुलंद है... हदीस है कि बेवा और ग़रीब के लिए दौड़-धूप करने वाला दिन भर रोज़ा और रात भर नमाज़ पढ़ने वाले के बराबर है।
(पहलवान का मुंह भी लटक जाता है, लेकिन फि सिर उठाता है।)
पहलवान : बेवा चाहे हिंदू चाहे मुसलमान?
मौलाना : बेटा, इस्लाम ने बहुत सु हक़ ऐसे दिये हैं जो तमाम इंसानों के लिएहैं... उसमें मज़हब, रंग, नस्ल और ज़ात का कोई फ़र्क़ नहीं कियागया।
सिकंदर मिर्ज़ा : मौलाना वो ग़मज़दा, परेशान हाल है, हम सब की इस क़दर मदद करती है कि कहना मुहाल है।
मौलवी : बेटे, अल्लाह उस शख़्स से बहुत ख़ुश होता है जो किसी ग़मज़दा के काम आये या किसी मज़लूम की मदद करे।
(पहलवान गुस्से में मौलाना की तरफ़ देखता है मौलवी सिकन्दर मिर्ज़ा चले जाते हैं। पहलवान अपने गिरोह के साथ बैठा रहता है।)
पहलवान : देखा तूने अलीम मौलवी क्या-क्या कह गये। ऐसे दो-चार मौलवी और हो जायें तो इस्लाम की मिट जाये... अरे मैं तो इन्हें बचपन से जानता हूं। इनके अब्बा दूसरों की बकरियां चराया करते थे और ये मौलवी इसे तो लोगों ने चंदा करके पढ़वाया था...दो-दो दिन इनके घर चूल्हा नहीं जलता था... ला अच्छा चाय पिला...
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दृश्य : तेरह
(नासिर काज़मी सड़क के किनारे अकेले चले जा रहे हैं। पीछे से हिदायत आते हैं।)
हिदायत : अरे भाई नासिर साहब क़िबला... आदाब बला लाता हूं।
(नासिर मुड़ कर देखते हैं। रुक जाते हैं।)
हिदायत : (पास आकर) किधर जा रहे हैं जनाब... इस क़दर ख़्यालों में खोय हुए...
नासिर : कहीं नहीं जा रहा... मुलाक़ात कर रहा हूं।
हिदायत : यहां तो आपके अलावा कोई है नहीं, किससे मुलाक़ात कर रहे हैं।
नासिर : पत्तों से।
हिदायत : (हैरत से) पत्तों से।
नासिर : जी हां... पत्तों से मुलाक़ात करने आया हूं।
हिदायत : पत्तों से मुलाक़ात कैसे होती है नासिर साहब?
नासिर : ...आजकल पतझड़ है न... पेड़ों के पीले पत्तों को झड़ता देखता हूं तो उदास हो जाता हूं... उतनी और उस तरह की उदासी कभी नहीं तारी होती मुझपर। इसलिए पतझड़ में मैं पत्तों के ग़म में शामिल होने चला जाता हूं।
हिदायत : मुझे भी एक चीज़ की तलाश है... मैं जब से लाहौर आया हूं ढुढ रहा हूं आज तक नहीं मिली।
नासिर : क्या चीज़?
हिदायत : भई हमारी तरफ़ एक चिड़िया हुआ करती थी श्यामा चिड़िया... वो इधर दिखाई नहीं देती।
नासिर : शाम चिड़ी।
हिदायत : हां...हां।
नासिर : शाम चिड़ी मैं आपको दिखाऊंगा...मैंने उसे यहां तलाश किया है... उसकी तलाश मेरे लिए तरक़्क़ी पसंद अदब और इस्लामी अदब से बड़ा मसला था... जब मैं यहां शुरू-शुरू में आया तो उन सब चीज़ों की तलाश थी जिन्हें दिलो-जान से चाहता था... सरसों के खेतों से भी मुझे इश्क़ है... तो भाई मैंने लाहौर आते ही कई लोगों से पूछा था कि क्या सरसों यहां भी वैसी ही फूलती है जैसी हिन्दोस्तान में फूलती थी। मैंने ये भी पूछा था कि यहां सावन की झड़ी लगती है... बरसात के दिनों की शामें क्या मोर की झंकार से गूंजती हैं? बसंत में आसमान का रंग कैसा होता है?
हिदायत : भई तुम शायरों की बातें हम लोग क्या समझेंगे... हां सुनने में अच्छी बहुत लगती हैं।
नासिर : दरअसल एक-एक पत्ती मेरे लिए शहर है, फूल भी शहर है और सबसे बड़ा शहर है दिल। उसेस बड़ा कोई शहर क्या होगा... बाक़ी जो शहर हैं सब उसकी कलियां हैं।
हिदायत : मैं मानता हूं नासिर, शायर और दूसरे लोगों में बड़ा फ़र्क़ है...
नासिर : (बात काटकर) नहीं-नहीं ये बात नहीं है, हर जगह, ज़िंदगी के हर शोबे में शायर हैं... ये ज़रूरी नहीं कि वो शायरी कर रहे हों... वो तख़लीक़ी लोग हैं। छोटे-मोटे मज़दूर, दफ़्तरों के क्लर्क- अपने काम से काम रखने वाले ईमानदार लोग... ट्रेन के इंजन का ड्राइवर जो इतने हज़ार लोगों को लाहौर से करांची और करांची से लाहौर ले जाता है। मुझे ये आदमी बहुत पसंद है। और एक वो आदमी जो रेलवे के फाटक बंद करता है। आपको पता है अगर वो फाटक खोल दे, जब गाड़ी आ रही हो तो क्या क़यामत आये? बस शयर का भी यही काम है कि किस वक़्त फाटक बंद करना है, किस वक़्त खोलना है।
(हिदायत कुछ फ़ासले पर जाती रतन की मां को देखता है।)
हिदायत : अरे ये इस वक़्त यहां कैसे?
नासिर : ये तो माई हैं।
(दोनों माई के पास पहुंचते हैं।)
नासिर : नमस्ते माई... आप?
रतन की मां : जीदें रहो... जींदे रहो।
नासिर : खैयित माई? इस वक़्त ये सामान लिए आप कहां जा रही हैं।
रतन की मां : बेटा मैं दिल्ली जाणा चाहंदी हां।
नासिर : (उछल पड़ते हैं) नहीं माई, नहीं... ये कैसे हो सकता है... ये नामुमकिन है।
रतन की मां : बस बेआ बहुत रह लई लाहौरच... हुण लगदा है इत्थे दा दाणा पाणी नहीं राया।
हिदायत : लेकिन कयो माई?
नासिर : क्या कोई तकलीफ़ है।
रतन की मां : बेटा तकलीफ़ उसूं होंदी है जो तकलीफ़ नूं तकलीफ़ समझदा है... मन्नू कोई तकलीफ़ नहीं है।
नासिर : तब क्यों जाना चाहती हैं? आपको पूरा मोहल्ला माई कहता है, लोग आपके रास्ते में आंखें बिछाते हैं, हम सबको आप पर नाज़ है...
रतन की मां : अरे सब त्वाडे प्यार दा सदका है।
नासिर : तो हमारा प्यार छोड़ कर आप क्यों जाना चाहती हैं।
रतन की मां : बेटा, तुस्सी लोकां ने मन्नू वो प्यार और इज़्ज़त दिती है जो अपणे वी नहीं देंदे।
नासिर : माई जो जिसका अहेल होता है, वो उसे मिलता है, आपने हमें इतना दिया है मि हम बता ही नहीं सकते।
रतन की मां : प्यार ही मन्नू लाहौर छोड़ने ते मजबूर कर रया है।
हिदायत : बात है क्या माई।
रतन की मां : मेरा लाहौर च रहणा कुछ लोगां नूं पसंद नहीं है, मिर्ज़ा साहब नूं धमकियां दित्ती जा रही हैं न कि जो मन्नू अपणे घर तो कड्ड देण... राह जांदें उन्होंने फिकरे कसे जाते हन, उन्हां दी कुड़ी तन्नो और मंंडे जावेद दा लोग नाक च दम कित्त्ो होए ने... लेकिन मिर्ज़ा साहब किस वी सूरत च नई चाहदें कि मैं जांवा।
हिदायत : तब आप क्यों जाना चाहती हैं माई।
रतन की मां : मैं इत्थे रवांगी ते मिर्ज़ा साहब...
नासिर : माई मिर्ज़ा साहब का कोई बाल बांका नहीं कर सकता... हम सब उनके साथ हैं।
रतन की मां : बेटा, मन्नू त्वाडे सबते माण है, लेकिन त्वानूं किसी झमेले च फसांण तो अच्छा है कि मैं खुद ही चली जांवां... तुसी मेरे दिल्ली जाण दो... मेरे कोल रुपया पैसा है, ज़ेवर हैं, मैं उत्थे दो वक़्तदी रोटी खा लवंगी और नई रवांगी।
नासिर : (सख़्त लहजे में) ये हरग़िज़ नहीं हो सकता... ये नामुमकिन है... कभी बेटे भी अपनी मां को पड़ा रहने के लिए छोड़ते हैं?
रतन की मां : मेरा कहणा मन्नो बेटा, मैं त्वानूं दुआएं दवांगी।
नासिर : (दर्दनाक लहजे में) माई लाहौर छोड़कर मत जाओ... तुम्हें लाहौर कहीं और न मिलेगा... उसी तरह जैसे मुझे अम्बाला कहीं और नहीं मिला... हिदायत भाई को लखनऊ कहीं नहीं मिला... ज़िन्दों को मुर्दा न बनाओ...
(रतन की मां आंख से आंसू पोंछने लगती है।)
नासिर : तुम हमारी मां हो... हमसे जो कहोगी करेंगे... लेकिन ये मत कहो कि तुम हेारी मां नहीं रहना चाहतीं...
रतन की मां : फि मैं की करां, दस्स।
नासिर : तुम वापिस चलो, दो-चार बदमाश कुछ नहीं कर सकते।
रतन की मां : बेटा, मैं तां अपनी अंख्खी ओ सब देख्या है, उस वक्त वी सब यही कह दें सन कि दो चार बदमाश कुछ नहीं कर सकदे... ओ कहदें हन पूरे लाहौर च ममैं ही कल्ली हिंदू हां... मेरे हत्थों जाणतों ए शहर पाक हो जावेगा।
नासिर : तुम अगर यहां न रहीं तो हम सब नंगे हो जायेंगे माई... नंगा आदमी नंगा होता है, न हिंदू होता है और न मुसलमान...
(हिदायत माई का सूटकेस उठा लेते हैं और तीनों वापस लौटते हैं।)
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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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