आलेख युवा कथाकारों की कहानियों का पोस्टमार्टम अरविन्द कुमार एक साल से विभिन्न हिंदी पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों को पढ़ा। वरिष्ठ कथाक...
आलेख
युवा कथाकारों की कहानियों का पोस्टमार्टम
अरविन्द कुमार
एक साल से विभिन्न हिंदी पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों को पढ़ा। वरिष्ठ कथाकारों, आलोचकों के साक्षात्कार, उन पर उनकी ‘आलोचना दृष्टि' का भी सूक्ष्मता से अध्ययन किया। युवा कथाकारों की ‘कथादृष्टि' पर कई ‘आरोप' लगाए जा रहे हैं। पहला आरोप यही लगाया जाता है उनके पास कोई ‘कथादृष्टि' ही नहीं है।' दूसरा यह है कि वे ‘कथा' के स्थान पर ‘शिल्प' को अधिक महत्त्व दे रहे हैं। तब तो ‘कथा' गौण हो जाती है ‘शिल्प' उसका स्थान ले लगा और आगे यह भी कहा जा रहा कि उनका ‘विजन' कैसा है ? या जो कहानी लिखी जाए उसमें ‘सामाजिक सापेक्षता' है कि नहीं है अर्थात् कथाकार किस प्रकार के ‘समाज का निर्माण' करना चाहता है ? वह परंपराओं को मानना चाहता है कि नहीं और तो और यह भी आरोप लगाया जा रहा है कि युवा कथाकार ‘क्लासिकल लिटरेचर' या ‘पुराने कथाकारों को नहीं पढ़ना चाहते हैं। उपर्युक्त तमाम आरोप पर ‘बयान' बाजी करने के बजाय मैं यह उपयुक्त समझूंगा कि ‘युवा रचनाशीलता' या युवा कथाकारों की कहानियों का ‘पोस्टमार्टम' किया जाए। सही क्या है ? गलत क्या है ? इस पर आलोचक के स्थान पर ‘पाठक' निर्णय करें। आलोचक का कार्य तो ‘रचना' या ‘कहानी' का ‘तटस्थ होकर आलोचना' करना है।
इधर जिन कथाकारों ने ‘सृजन' की ‘नई भावभूमि' को जन्म दिया है वे कथाकार हैं- ‘राजू शर्मा', ‘अभिज्ञात', गौरव सोलंकी, ‘सोनाली सिंह', ‘विभाशु दिव्याल', ‘राकेश कुमार सिंह', ‘पंकज मित्र', ‘सत्यम श्रीवास्तव', वंदनाराग', ‘मनीषा कुल श्रेष्ठ' ‘सीमा शफ़क', ‘एस आर0 हारनोट', ‘रूपनारायण सोनकर', ‘हरिओम', ‘मो0 आरिफ', ‘स्नोवावानोंर्', ‘महुआ माझी', ‘राजेद्र राव', ‘संतोष गौतम', ‘प्रत्यक्षा', ‘मधुकाकरिया', ‘रंजना जायसवाल', ‘राजेश मलिक', ‘दयाहीत', सुशांत सुप्रिय', अशोक गुप्ता', ‘परितोष चक्रवर्ती', ‘लोकबाबू', ‘परदेशीराम वर्मा', ‘सुभाष शर्मा', ‘कविता', ‘अरूण कुमार सिंह', ‘रामचंद्र', ‘दिलीप कुमार', ‘डॉ0 दीर्ध नारायण', श्याम कुमार पोकरा, ‘गीत चतुर्वेदी', शशांक, ‘रामकुमार तिवारी', ‘गिरिराज किराडू' इत्यादि। इनके समदर्शी वरिष्ठ कथाकारों ने भी अपनी ‘सृजन' को ‘नये आलोक' में देखने का प्रयास किया है वे हैं-‘उदय प्रकाश', ‘रमणिका गुप्ता', ‘अरूण कुमार असफल', ‘मुर्सफआलम जौकी', ‘असगर, वजाहत', ‘जया जादवानी', ‘सुभाषचंद्र कुशवह' इत्यादि।
इन कथाकारों ने ‘विस्तृत कलक' पर ‘डेड' पड़ी मानसिकताओं में थोड़ा ‘परिवर्तन' कर दिया है। यह ‘परिवर्तन' किसी ‘परंपरा' को समूल नष्ट नहीं करना चाहता, अपितु उसी परंपरा में कुछ ‘नया जोड़ना' चाहता है। ‘संस्कृति' को ‘अपसंस्कृति' में नहीं बदलना चाहते, वरन् कुंद संस्कृति, ‘कुंद मानसिकताओं' ‘नया बीज रोपड़ करना' अपना कर्त्तव्य समझते हैं। किसी ‘विचारधारा या आइडियोलाजी' को किसी पर ‘जबरदस्ती थोपना' नहीं चाहते। वे कुछ बेहतर करना चाहते हैं और स्वयं आगे की ओर बढ़ना चाहते हैं। वे आगे बढ़ने की तीव्र ललक लिए हुए हैं। उनकी उर्वर कल्पना शक्ति के विषय में यह कहा जा सकता है कि ‘‘कल्पना, स्वप्नों तथा आदशोंर् का महत्त्व भी यथार्थ से संबंध रहने में ही है। कल्पना कवि की शक्ति तभी बन सकती है जब उसकी जडे़ यथार्थ में हो अन्यथा वह रंग-विरंगे, परन्तु जलहीन बादलों की तरह हवा में उड़ती रहती है और मानव-जीवन के संबन्ध स्थापित नहीं कर पाती है प्रभावहीन हो जाती है। यथार्थ दृष्टि के संदर्भ में ‘विजन' (Vision) का अर्थ भावी जीवन के किसी कल्पना लोक से न होकर इस वास्तविकता से है, जो भले ही आज का सत्य न हो, कल का सत्य अवश्य है, जिसे इतिहास तथा यथार्थ की गतिशील भूमिका समर्थन प्राप्त है।''[i] ये कथाकार मात्र कल्पना में तीर नहीं छोड़ रहे हैं वे ‘सत्य' को जीते हुए अनुभव को परिपक्व करते हुए ‘बदबदाते यथार्थ' में ‘गहरी डुबकी' लगाकर निकाल लाने की कोशिश कर रहे हैं। ये कथाकार ‘बनावटी यूरोपिया' को नहीं प्रस्तुत कर रहे हैं तब उनके लेखन के विषय में यह कहा जा सकता है, ‘वस्तुतः सामाजिक जीवन का यथार्थ कच्चे माल की भॉँति है। लोगों की दृष्टि उसके पूरे सैलाब को समेट नहीं पाती किन्तु साहित्यकार की पैनी दृष्टि चारों ओर के यथार्थ को समेटती हुई बने बनाए माल की भॉँति गहरी, सम्वेदनाओं से युक्त करके अत्य व्यवस्थित रूप में किसी कृति में प्रस्तुत करती है। इसलिए कलाकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह ईमानदारी से सामाजिक जीवन को परखे और अपनी कृति सजीव रूप में प्रस्तुत करें।,[ii] आज का युवा कथाकार ‘सब कुछ' समेट लेना चाहता है वह कुछ भी ‘शेष' नहीं छोड़ना चाहता। सामाजिकता के ‘कुरूप यथार्थ' को वह अपनी ‘नंगी आंखों से ओझल नहीं होने देना चाहता। फिर तो आरोप ही निराधार साबित हो जाते हैं। संजीव लिखते हैं, ‘‘हमारे पास प्रेम से लेकर सेक्स और समलैंगिकता तक की कहानियाँ हैं, युवा से लेकर प्रौढ़ सभी की करपोरेट जगत की कहानियाँ हैं, (राकेश बिहारी, कैलाशचन्द्र, विभारानी आदि की) महानगरीय समस्याओं और चरित्रों पर कहानियाँ हैं, नारी विमर्श, दलित विमर्श हैं, एन0 आर0 आई हैं, कॉल सेंटर से की कहानियां हैं, आतंकवाद पर कहानियां हैं, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक भ्रष्टाचार तक के एक्सपोजर लिटरेचर हैं किंचित आदि इसी और दलित लेखन के क्षितिज भी कुछ और खुलने लगे हैं लेकिन गाँव, किसान, कृषक मजदूर, खेती, बेरोजगारी और ‘सेज' तथा ‘बूट' से उत्पन्न विस्थापन और किसानों की आत्मकथाएं नहीं हैं, शोषण के बदलते आयाम नहीं हैं।''[iii]
मैं यहां पर स्पष्ट करना चाहूँगा कि युवा कथाकारों का इतना अभी ‘मोहभंग' नहीं हुआ है कि वे संवेदना शून्य हो जाये पर एक बात तय है कि वे गाँव को अपनी आंखों से देखना चाह रहे। इसी आलेख में यह स्पष्ट हो जायेगा। प्रियम अंकित ने युवा सृजन (कथा साहित्य ः नए समय की आहट) के संदर्भ में लिखा है, ‘‘समकालीन कथा परिदृश्य में युवा पीढ़ी के सार्थक हस्तक्षेप ने आलोचानात्मक तर्कबुद्धि के परंपरागत शिष्टाचार को ध्वस्त कर दिया है। आज युवा लेखन आलोचना के समक्ष यह चुनौती पेश कर रहा है कि वह पुरातनपंथ और निहायत अकादमिक किस्म की शास्त्रीयता का परित्याग कर नए मानदण्डों और नए प्रतिमानों की खोज में प्रवृत्त हो। जटिल से जटिलतर बनते यथार्थ ने हमारी संवेदना में जैसा उलझाव पैदा किया है, वह अपनी अभिव्यक्ति के लिए साहस और प्रयोगधर्मिता की दरकार रखता है। इसीलिए आज कहानी अपने स्थापत्य को नए सिरे से गढ़ने के लिए कृत संकल्प है।''[iv] युवा रचनाकार ‘परंपरागत शिष्टाचार' को तोड़ता नहीं है वह उनमें परिवर्तन या पुर्नपरिवर्तन की माँग करता है। वह पुराने मानदण्डों से सीखता है तभी वह ‘नए मानदण्डों' को अपने प्रयोगों के आधार पर बनाना चाहता है वह कुछ ‘नया' चाहता है, इससे डरने की आवश्यकता नहीं। रूसी उपन्यासकार ईवान तुर्गनेव ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘पिता और पुत्र' (फादर एण्ड सन्स) में पुत्र अपने पिता से कहता है, ‘मैं अब बड़ा हो गया हूँ। आपको मुझे अब समझना चाहिए।'' कहने का अर्थ है ‘सार्थक संवाद' सार्थक बहस से आगे के भविष्य की ‘बातचीत' की जा सकती है दोनों को (वरिष्ठ व युवा) दोनों के लेखन को समझना होगा। जब युवाओं का ‘नया अनुभव' है तब यह आवश्यक हो जाता है कि उनका लेखन भी परंपरा से हटकर होगा। यही कारण रहा कि डॉ0 राम विलास शर्मा ने ‘प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं' और ‘परंपरा का मूल्यांकन' की बात को पुरजो से उठाई। ‘आलोचना कर्म' में नई आलोचना' का जन्म दिया, जिसे मार्क्सवादी आलोचना' कहा गया। वहां भी विवाद की स्थितियों ने ‘जन्म लिया' मुझे लगता है जिसको जितना विवादस्पद बना दो वह उतना ही ‘पापुलर' हो जाता है या यूँ कहा जा सकता है कि स्थापित हो जाता है।
अतः यह आवश्यक हो गया है कि आज की कहानी को समझने के लिए युग की परिकल्पना समझनी होगी।
कुछ प्रसिद्ध कहानियों का पोस्टमार्टम
समय और सभ्यता और इतिहास की परिधि को अपने आगोश में समेटे हुए हैं। इन चुन्निदा कहानियों में समय की परिधि ‘उत्तर' अस्मितावादी विमर्शों की समस्त श्रृंखलाएं आपको स्पष्ट रूप से परिलक्षित होगी। ये प्रमुख कहानियां हैं- बाकी इतिहास (राजेंद्र राव) ‘नंदीग्राम के चूहे' (मधु कांकरिया), नाटे कद का आदमी (संतोष गौतम) कागज का जहाज, चोर सिपाही (मो0 आरिफ), सपने कभी मरते नहीं, जंगल जमींन और तारे (महुआ माझी), वारदों, हमन हैं इश्क मस्ताना, लो आ गई मैं तुम्हारे पास (स्नोवा बानोंर्), हाँ मैं अपराधी हूँ कामरेड, (रंजना जायसवाल) ‘जो सदियों से चुप है (जया जादबानी), शारूख शारूख ! कैसे हो शारूख' (प्रत्यक्षा), ‘पेड़ लगाकर फल खाने का वक्त नहीं (सुभाष चंद्र कुशवाहा), लल्लू लाल को रूपैया (विभांशु दिव्याल), कामरेड और चूहे (अभिज्ञात), चीखे (एस0 आर0 हरनोट), अमरीकी चूहे, गिद्धों का प्रीत भोज (प्रदीप पंत), एम0 एल0 सी0 (उर्मिला शिरीष), ये धुआँ धुआँ, अंधेरा, रास्ता किधर है, (हरिओम) ‘कहानीकार' (राजूर्श्मा), मठाधीश (उदय प्रकाश), ब्लू फिल्म (गौरव सोलंकी), कंडम (अरूण कुमार असफल), पुरूष-विमर्श (कुसुमभट्ट), मर्डर ऑफ मार्क्स (गिरिराज किराडू), बल्ली धुआँ (मेराज अहमद), विलौती बाबू की उधार फिकिर, एक चुप्पे की चुपकथा (पंकज मित्र), धर्मातरण (सत्यम श्रीवासतव), ख्यालनामा (बंदनाराग), केयर ऑफ स्वातघाटी (मनीषा कुलश्रेष्ठ) सूकर मछव (अरूण कुमार सिंह), बयार (रामचंद्र), बैक पेपर बाउंसर (संजय कुंदन), वो आखिरी बार सैन फ्रांसिस्को में देखी गई थी (सोहन शर्मा) इन्हीं कहानियों से निकल रहा है ‘कच्चा पक्का' अनुभव जो ‘वैश्वीकृत होती ‘संस्कृति' के लिए आवश्यक है।
इतिहास की पुनर्व्याख्या करते हुए ‘शरद सिंह' ने अपनी कहानी ‘हुस्न बानू का आठवाँ सवाल' में ‘स्त्री' को पुनर्परिभाषित करती है। यह कहानी फारसी में ‘हातिमताई' नामक से प्रसिद्ध है जो लोक प्रचलित ‘लोककथा' है। जिसका पुनर्लेखन शरदसिंह ने किया है। जिसमें ‘स्त्री के दृष्टि कोण' से पुनः देखने की कोशिश की गयी है। ‘स्त्री विमर्श' के मुद्दे को उठाया गया, जिसमें पुरूषों का परंपरा से चले आ रहे ‘वर्चस्व' का खण्डन करना है। कई सवाल वह आम पाठकों के समक्ष रखती है ‘‘इससे क्या अंतर पड़ता है कि वह फारस की है या भारत की, चीन की है या योरोप की, सचमुच इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है, मुख्य बात यह है कि वह स्त्री है। ‘किस्सा-ए-हातिमताई' में हुस्नबाबू का एक स्त्री होना पर्याप्त है। बस्स ! देश, काल अथवा समाज कोई भी हो सकता था। समूची दुनिया की स्त्रियाँ लगभग एक- सी त्रासदी सहती हैं- पुरूषों द्वारा अपने से दोयम समझे जाने का।''[v] यह अतीत और वर्तमान की व्याख्या ‘मुनीरसामी' और ‘हुस्नबानू' के माध्यम द्वारा की गई है। ‘स्त्री' की परिधि को सीमित न करके वृहद कर दिया है। तब यह कहानी ‘रेडिकल' हो जाती है, और सबाल्टर्न स्टोरी- कहा जा सकता है। गिरिराज किराडू की कहानी ‘मर्डर ऑफ मार्क्स' कला के अंत की ओर ले जाती ह। साहित्य-कलाकारों के सूचनाओं प्रेमचंद और मुक्तिबोध' की प्रगतिशीलता को रेखांकित करते हुए रघुवीर सहाय की राजनीतिक चेतना की ओर ध्यान ले जाती है। कहानी परंपरागत लेखन का विरोध करते हुए साहित्य में मार्क्सवादी विचार धारा का मूल्यांकन करती है। कथाकार धीरज बेजामिन को एक ‘उदास कलाकार' (पेंटिग्स बनाने वाले के) के रूप में प्रस्तुत करता है। ‘उदास' माना जा सकता है क्योंकि धीरज बेंजामिन समाज की उन गहराइओं में जाना चाहता है और अपनी ‘पेंटिंग्स' में नग्न यथार्थ, लाना चाहता है जिसे सुन्दर किसी मायने में नहीं कहा जा सकता है धीरज बेंजामिन के लिए ‘असुन्दर' ही ‘उदासी' है जो अपनी तूलिका से निकालकर लाना चाहता है। ‘‘मैं इन्फेस करता हूँ कि मुझे मॉडर्न आर्ट कभी समझ में नहीं आई। मैं उसे सिर्फ थियरी में, कला-इतिहास की माँग कर पढ़ी गई किताबों के जरिये जानता।''[vi]
साहित्य कला का उत्कर्ष राजू शर्मा की लम्बी कहानी ‘कहानीकार (तद्भव, जन0 2009) मैं देखा जा सकता है। कथाकार ने बुर्जुआ लेखन को स्पष्ट करता है। यह प्रेम की मनोविश्लेषणात्मक महाकथात्मक गाथा है, जो प्रेम के ‘आवसेशन डिसार्डर' को प्रकट करता है और एक फैंटेसी की तरह कथानक ‘ब्यूटी' से जीता है। प्रेमी के मानस पटल पर अपनी प्रेयसी के लिए जितनी परिकल्पनाएं होती हैं, इस कहानी का कथानायक उन अवस्थाओं से गुजरता जाता है प्रेम के सारे नियमों कानूनों और बंधनों को तोड़ना चाहता है जिसे एक साधारण प्रेमी तोड़ना चाहता है कहानी फ्लैश शैली में घटित होती दिखाई गई है। यही इस कथा की आधार शिला भी। वह प्रेम के साहित्योतिहास दर्शन से हिंदी एवं अंग्रेजी के समस्त कथाओं का अध्ययन करता है। ‘प्रेम' नामक तत्त्व को जानना चाहता है। किन्तु वह इसमें असफल सा हो जाता है।
‘‘इन हफ्तों में मैंने कई एक महान प्रेम कहानियां पढ़ी, उनका चिंतन किया और उनसे सीखा कि इश्क के सरोवर के उत्तेजक तजुर्बे में विडम्बनाओं को कैसे पहचानते हैं और उनका रस लेते हैं। जैसे इस नतीजे पर पहुंचा कि और प्रणय गीत की अलौकि आभा को कायम रखने के लिए जरूरी था कि अपना मलिन, उनीदा रूटीन एक आत्मग्रस्त कठोरता से जारी रखूँ। यह पृष्ठभूमि कि सब कुछ पूर्ववत् है एक उजले रोमांस की शुद्धता बरकरार रखने के लिए जरूरी था। यह समीकरण अनेक सामान्य और सही उक्तियों के अनुकूल था जैसेः एक प्रतिशत अंतप्रेरणा के पीछे निन्यानबे प्रतिशत पसीने की चट्टान होती है; महान नेतृत्व असंख्य चेहराविहीन जनमानस के हाथों पर ऊँचाई पाता है वगैरह।''[vii] एक बार फिर प्रेम के पाठ को पुनपीठ द्वाराे परिभाषित करते हैं, ‘‘शायद इस सबमें एक पाठ है, सीख है, एेसा होता है जब तुम कला को जिंदगी के ऊपर आंकते हो। जिंदगी कला को जन्म देती है, कला जीवन का सृजन नहीं करती...................।''[viii] यहां कहानीकार ‘प्रेम' को कला से विलग मानता रहा है और यह सिद्ध करना चाहता है प्रेम कला नहीं है। प्रेम शाश्वत और चिरंतन है जिसका स्वरूप तो बदल सकता है पर ‘प्रेम' नहीं बदल सकता।
वैश्विक होती दुनिया ने समाज की संरचना को बदलने में अहम भूमिका निभायी है रफी जी का गाया हुआ एक मशहूर गीत लाइन है- ‘इस रंग बदलती दुनिया में इंसान की नियत ठीक नहीं।' जब ‘नियत' का दुश्चक्र चल रहा है तो ‘लव केमेस्ट्री' बदलेगी ही। जो प्रांजल प्रेम पहले था वह आज नहीं रहा, वह कच्चे धागे में बंधा रहने वाला भी नहीं रहा।, वह इसको तोड़ कर दूर निकल गया, फिर भी हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिकाओं ने अपने अपने स्तर पर ‘प्रेम कथाओं', को स्थान दिया ही है। इधर हिंदी साहित्य जगत की मशहूर पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय' ने प्रेम महाविशषांक की कड़ी में पाँच अंक निकाले। पहला प्रेम विशेषांक क्लासिकल कथाकारों की अमर कहानियां हैं। जिनमें उसने कहा था। (चंद्रधर वर्मा मुलेरी), आकाशदीप (जयशंकर प्रसाद), तीसरी कसम इत्यादि। प्रेम महाविशेषांक-3 युवा कथा की कहानियों पर आधारित है जिनमें है पापू कांट लव-सा..........(पंकज मित्र), लव यू हमेशा (अनुज), चन्द्रबिन्दु बच्चों का खेल (महुआ माझी), सुधा कहाँ है ? गौरव सोलंकी इत्यादि। उत्तर आधुनिक जगत की कहानियों में युवाओं में प्रेम का जो स्वरूप आया है वह अकादमिक जगत का है युवाओं का प्रथम प्रेम सबसे पहले महसूस कालेज या विश्वविद्यालय (अकादमिक संस्थाओं से) में होता है। अनुज की कहानी ‘लव यू हमेशा' अकादमिक जगत में होने अंतर्द्धन्द का खुला चित्रण करती है। सोनल और तिमिर का ‘प्लेटोनिक लव' नहीं ‘रीयल लव' है, ‘‘हाँ मिलते हैं। चल फिर, लव यू है.................। लव यू है............।''[ix] इसी तरह की कहानियों में है गौरव सोलंकी ‘सुधा कहा है ?' राजीव कुमार ‘तेजाब' नहीं इतिहास को स्रोत मानकर प्रेम का ‘नया रूप' चित्रित किया है महुआ माझी की कहानी चंद्रबिन्दु में, प्रेम को अनावृत्त करने के बजाय आवृत्त किया है। अनुकृति पुनः अपने न्यूडमॉडल्स के स्थान पर ‘स्त्री रूप' में आ जाती है, यही इस कहानी की सफलता है।
इधर प्रेम के युवापक्ष को चित्रित करने में युवा कथाकार लेखिका स्नोवा बानों की ‘वारदों' लो फिर मैं लौट आई' नये सम्बन्धों का रेखांकन किया गया है। सुधीश पचौरी ने लिखा है, ‘‘माध्यमों ने यथार्थ के साथ हमारे संबन्ध को बदल दिया है। हम सीधे ऐंदि्रक बोध से पुष्ट यथार्थ को ग्रहण नहीं करते, तनिक उसके माध्यमीकृत (दृश्य अथवा श्रव्य अथव पाठ्य) रूप को ग्रहण करते हैं। तकनीक ने सूचना का अतिबोध बढ़ा दिया है, हम स्थानीय हो उठे हैं या भूमण्डलीय ‘एक दूसरी प्रकृति' (संस्कृति) पहली प्रकृति को ढके जा रही है। हमारी भाषा बदल रही है। हमारे प्रतीक बदल रहे हैं। हमारे ढंग बदल रहे हैं।''[x] युवा कथाकारों को प्रेम की भाषा एवं मानकीकरण बदल गये हैं।
‘राजनीतिक ध्रुवीयकरण ने सामाजिक संरचना को बदल ही डाला है। राजनीति के विषय में एक कहावत कही जाती है कि ‘राजनीति में जो कहा जाता है वह किया नहीं जाता है।' राज्य की अवधारणा के विषय में प्लेटो का विचार है कि ‘राज्य का जो स्वरूप होना चाहिए वह ‘आदर्शवादी' होना चाहिए।' राजनीति के बदलते तेवर ने ‘आम जनता' को हिलाकर रख दिया है जिसका महत्त्वपूर्ण कारण ‘अवसरवादी राजनीति होना है। ‘सत्ता' प्राप्त करने के होड़ में अवसरवादी नेता' किसी भी हद तक गुजर सकते हैं। सलिल सुधाकर ने अपनी कहानी ‘बिरादर' में जातिगत समीकरण' का स्पष्ट उल्लेखकर राजनीति में एक बार फिर ‘जातिगत गोट' बिठाने में ‘राम लगन बाबू' की चतुर राजनीतिक की खिलाड़ी के रूप में सामने आये हैं।‘ सर्वजन समाज' की राजनीति करने का आह््वान करते हैं। भारतीय राजनीति में ‘आरक्षण' को फिर से तूल दे दिया गया। ‘आरक्षण' न होकर इसे एक ‘हथियार' के रूप में प्रयोग किया गया है जो भारत की राजनीति का ‘तीखा' और ‘कड़ुवा' सच है जिससे जाति व्यवस्था मजबूत होती दिखाई देती है, ‘रामलगन बाबू ने समझा कि वातावरण में उलझन व्याप्त रही है, तो उन्होंने सस्पेंस खोलने की जल्दबाजी दिखाई, ‘‘इसीलिए आप लोगों अर्थात् अपने लोगों की अपेक्षाओं और उम्मींदों को पूरा करने के लिए और सर्वजन का समाज बनाने के लिए हमने अब अगड़ों अर्थात् कथित ऊँची जातियों को भी साथ-साथ लेकर चलने का फैसला किया है। आज इस मंच से मैं घोषणा करता हूँ कि हमारी पार्टी अब सवणोंर् के अरकछन के लिए भी संघर्ष करेगी और सत्ता में आने पर इसके लिए कानून भी बनायेगी।''[xi]
‘अस्मितावादी साहित्य' की बढ़ती मांग ने साहित्य की ‘चूले' हिला हिलाकर रख दी हैं अरविन्द अडिगा का उपन्यास ‘दि ह्वाइट टाइगर' में हांशिये पर पड़े पश्चिम बंगाल की राजधानी में ‘कोलकाता के रिक्शा चालकों की दयनीय दशा को ‘जीते-जागते यथार्थ रूप में उद्घाटित किया है। ‘बिजुअल मीडिया' ने हमारे समाज पर सीधा अटैक किया है जिसका प्रभाव हमारी जनरेशन पर पड़ रहा है आगे और भी पड़ता रहेगा। यांत्रिक होती दुनिया, बढ़ती ‘सूचना प्रौद्योगिकी' ने तेजी से हमारे ‘रिश्तों' में बदलाव लायी है। ओमा शर्मा की कहानी ‘ग्लोबलाइजेशन' सुभाष शर्मा की ‘बर्बादी काम' संजय कुंदन की ‘बाउंसर'। ‘बाउंसर' का गोपी अथक प्रयास के बावजूद भी मशीन जैसा महज आक्रामक शरीर बनकर नहीं रह पाता, जो उसके कार्य की पहली बुनियाद है। उसे परिवार, प्यार और अपनापन चाहिए। संजय कुंदन ने अपनी कहानी में एक कला बिकसित कर एक ‘अद्भुत' चरित्र गोपी का निर्माण किया है। महामंदी की वापसी ने गोपी सिंहानिया के लिए बाउंसर का कार्य करते हुए भी अपने को निष्कृष्ट नहीं बना पाता, और न अपने सम्बन्धों में दरार उत्पन्न कर पाता है। घर में बने शकरपारे की तरफ उसका मन दौड़ जाता है। उसके सामने सबकुछ व्यर्थ लगता है उसे अपनी ‘देशी संस्कृति' ही अच्छी लगती है ‘फास्ट फूड संस्कृति' नहीं। गोपी में जीवन जीने की अदम्य लालसा है, इसलिए वह अपनी तरह के स्वयं के संसार में जीना चाहता है।
भारत की ‘अर्थनीति' ने ‘आम जनमानस' की कमर लचका दी है जिस पर ‘अर्थशास्त्रियों' का यह ‘तुर्रा' है कि हम अर्थनीति' के ग्लोबल बादशाह बन रहे हैं। अर्थ शास्त्रियों ने आँकड़ों पर आँकड़े पर प्रस्तुत कर यह सिद्ध भी कर दिया है कि हम कितने भी ‘नालायक हो हमारी ‘अर्थनीति' ‘सबके लिए' सुखदायी है यानी कि अमीर-गरीब या धनी-निर्धन होने के लिए। उनकी कृषि नीति लम्बे चौड़े व्याख्यान दिये जाते हैं हाँ कृषि को वैज्ञानिक विधि से खेती करने पर उत्पादन क्षमता का तो विकास हुआ नहीं पर खेती पर लागत दूना हो गयी है। जिसका मुख्य कारण रहा है कृषि रसायनों, उर्वरकों, डीजल इत्यादि पर मूल्यवृद्धि। दूसरी तरफ नहरों में समय पर पानी नहीं छोड़ा जाता है जिससे पैदावार, व उत्पादन क्षमता में कम आती है। पंकज मित्र की कहानी ‘बिलौती महतो की उधार फिकिर', ‘शाहूकार' बनते बैंकों की कथा है। जहाँ सब कुछ ‘हाइब्रिड' हो गया है। किसानों को मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा ‘खाद-बीज' ऊँचे मूल्य में बेचना, अधिक पैदावार का प्रलोभन देना है। यह प्रलोभन किसानों को ऋणग्रस्तता की ओर ले जाता है, जिससे उनकी ‘नयी पीढ़ी' भी ‘ऋण' अदायगी में अपना जीवन समाप्त कर दें। विलौती महतो को केन्द्र में रखकर ‘पंकज मित्र' ने मात्र बिहार के किसानों की ‘दीन-हीन' स्थिति का जिक्र नहीं है अपितु किसानों पर बढ़ता ‘प्रकोप' है जिससे किसान को असामान्य बनाने या किसान को मृत्यु की ओर ले जाने की ओर प्रवृत्त करता है। ‘‘फिकिर तो थी ही। फसल का यही हाल रहा तो क्या हाल होगा। उधार लेना पड़ जाएगा क्या ? पानी वाला का पैसा तो बैंक में बचे रूपया से चुका देंगे लेकिन उतने पैसा से साल भी खेंपेंगे कैसे। हदरू कब तक देगा आखिर।''[xii] उसे अपनी नहीं अपने परिवार के भविष्य की चिंता सता रही है।
‘ग्लोबल ‘होता' ‘मनुष्य' आन्तरिक पीड़ा के अवसाद से ग्रसित हो जाता है उसकी सम्वेदनाएं क्षीण होना आरम्भ हो जाती हैं वह ‘सत्यम ब्रूरता' से असत्यम् ब्रूयात की ओर अग्रसर होने लगता है, अपने को वह ‘टाप क्लास' का हीरो समझने लगता है और उसके आगे अन्य सारे चीजे ‘फ्लाप' हो जाती है। खुद को ‘उपभोक्ता' समझने लगता है यहीं पर ‘मनुष्य का अंत' हो जाता है अर्थात् उसका मनुष्यत्व समाप्त हो गया। सुभाषा शर्मा ने उपभोक्तावाद के दो रूप माने हैं पहला, हम मनुष्य नहीं रह गये हैं बल्कि ‘विभाजित व्यक्तित्व', और ‘देह-विमर्श के रूप में।''[xiii] गाँवों को संवेदनाओं का गढ़ माना जाता है पर आज परिस्थितियां बदल गयी हैं वो सारे ‘कुरूप चेहरे' गाँव की भोली भाली जनता को ‘डसने' लगे हैं। इसीलिए शायद अशोक मिश्र ने अपनी कलम से ‘गाँव की मौत' का उद्घोष कर दिया। यह उद्घोष उनका जायज है। गाँव के युवा जो पढ़ लिखकर सर्विस पा जाते हैं तो वे गाँव की तरफ मुड़कर नहीं देखते हैं उसे दूर से ही नमस्कार करना प्रारम्भ कर देते हैं। रतन का गाँव अब वह गाँव नहीं रहा, जहाँ आपसी भाईचारा, प्रेम व्यवहार, सौहाद्र, मानवीय पीड़ा, सबके दुख-सुख में सामिल होना, ये जैसे ‘भूत' की तरह गायब हो गये। गाँव की चौपाल जहाँ न्याय होता था सब समाप्त हो गया। रतन अपने गाँव ‘बाबा' की मौत खबर पाकर जा रहा है। उसके गाँव का अन्त उसे बार-बार झकझोर रहा है। वह स्मृतियों में ‘गोता' लगाता रहता वर्तमान गाँव के हालात से तुलना करता चलता है। ‘‘उसने एक बात गाँव की नई पीढ़ी के संबन्ध में काफी गहरे अहसास के साथ नोट की कि वे एक तीसरी दुनियां के व्यक्ति हैं। ज्यादातर युवक किसी से नमस्कार तक नहीं करते और मान-सम्मान व बड़े-छोटे का लिहाज तो क्या। गाँव वाले हर कष्ट को एक होकर मिल-जुल कर बाँट लेते थे। शहर में पढ़ी लिखी, पीढ़ी उस सभ्य संस्कृति से कोसों दूर है। गाँव का जीवन स्तर ऊँचा उठाने के लिए सरकार ने जो भी आभास किया उससे अधिकारियों-दलालों का भला हुआ और उसका विकृत रूप सामने आया है।''[xiv]
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‘‘उसके गाँव का दर्द यही है कि शहर की भौतिकवादी संस्कृति ने गाँव का धर्म बिगाड़ दिया है। गाँव की शक्ल थके हारे बूढ़े जैसे हो गई है जो हर रोज क्षण-क्षण मर रहा है। फिलहाल रतन के गाँव के गाँव का दर्द यही है।''[xv]
कारण यह है कि गाँव, कंकरीट में तब्दील हो रहे हैं यह सुखद भविष्य है उन्हें भी एक पक्की छत की आवश्यकता है नैतिक मूल्य धराशायी हो गये हैं यह दुखद पक्ष है। ‘विकास' की तीव्रगति में भाग लेना चाहता था। विकास की अंधी चकाचौंध ने मानव की गरिमा का महिमा मंडन किया है। ‘एक चुटकी' (डॉ0 दीर्घ नारायाण) भारतीय ‘पंचायती राज ‘व्यवस्था की कलाई खोलती है। बिहार' (सम्पूर्ण भारत) के गाँवों की उस स्थिति का चित्रांकन करती हैं जहाँ ‘पंचायती राज' व्यवस्था पूरा पैसा (रूपया) व्यूरोंक्रेट्स, और पंचायत का मुखिया मिल बाँटकर हजम कर जाते हैं। मुखिया अपनी स्थिति तो सुधार लेता है किन्तु गाँव की समस्याएं जस की तस बनी रहती हैं, उन्हीं समस्याओं को केन्द्र में रखकर फिर चुनाव लड़ा जाता है। गुंजी और दीनानाथ उसी संस्कृति में रम गए।
‘‘मोटर साइकिल में बैठते ही िसर ऊपर आसमान की ओर उठाए, लाख-लाख शुक्रिया' बुदबुदाते हुए वह पंचायत भवन की ओर रूख किया है। स्पष्टतः कुलानंन्द ने पंचायत राज देवी को नई शैली में ‘सस्ते' ने वशीभूत कर लिया है, वैसे पंचायती-राज के लगभग सभी देवता और कई देवियों को पंचायती राज-व्यवस्था के ‘कुलानंदों' ने पहले से ही अपने मन्दिर में स्थापित कर रखा है, विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट और रंग-विरंगा ‘प्रसाद' देकर मोटा चढ़ावा के साथ। यह बात दीगर है कि कुछ पंचायतें में ‘सबल' दीनानाथ ने पंचायत सचिवों को ‘बेचारा कुलानंन्द बनाकर पाल रखा है, कलम की स्याही की भाँति इस्तेमाल करते हुए।''[xvi] वही हाल है तुम भी खाओ मुझे भी खाने दो।
बर्बर होते समाज ने कुछ ऐसे शरारती तत्त्व पैदा कर दिये हैं जिनका मुख्य मकसद समाज में अशांति का वातावरण उत्पन्न करना होता है। धार्मिक कठमुल्लापन, धार्मिक संकीर्णता, कट्टरता समाज के लिए हितकारी नहीं होती है। यही कारण रहा है कि जब-जब धार्मिक उन्माद की स्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं। तब-तब राजनीतिक अस्थिरता सामाजिक अस्थिरता अवश्य बड़ी है। हिंदी कथा लेखकों ने अपने ढंग से उसे चित्रित कर सामाजिक सौहाद्र को बनाये रखने की अपील की है। युवा कथाकारों की इधर कई साम्प्रदायिकता कहानियाँ आई हैं। सुशांत सुप्रिम ‘कबीरदास', विजय शर्मा, ‘आतंक' आदि। ‘कबीरदास' अब तक लिखी गयीं साम्प्रदायिक कहानियों पर भारी पड़ती हैं यह साम्प्रदायिकता का ‘पोस्ट मार्टम' करती हैं। जिसमें हिन्दू-मुसलमान दोनों ही ‘लावारिस' लाश को देखने के लिए आते हैं, किन्तु वह लाश न हिन्दू की होती है न मुसलमान की। उस लाश पर दोनों समुदाय के लोगों ने अपनी-अपनी दलीली पेश की। तभी वहां पर उपस्थिति ‘कबीरदास' को किसी शरारती तत्त्व ने गोली मार दी स्थिति बेकाबू हो गयी-
‘‘अचानक ‘धांय' की आवाज के साथ कहीं से गोली चली। पता नहीं, गोली इधर वालों ने चलाई या उधर वालों ने। पर दूसरे ही पल कबीरदास उस सिरकटी लाश के पास जमीन पर पड़ा, तड़पता नजर आया। लगा जैसे भयंकर आंधी-तूफान में किसी छायादार पेड़ पर बिजली गिर गई हो। देखते ही देखते दोनों ओर की भीड़ में मौजूद दरिंदों के हाथों में बम, देशी कट्टे और तलवारें निकल आई। ‘जय श्री राम' और ‘अल्लाह-ओ-अकबर' के नारों के बीच दंगे-फसाद शुरू हो गए। चारों ओर चीख-पुकार मच गई। जमीन पर लाशों के ढेर लगने लगे।''[xvii] शासन और प्रशासन दोनों मौन थे इसी तरह स्वयं प्रकाश की ‘पार्टिशन' कहानी की रचना करते हैं कबीरदास के विषय में लोग इतना बताते हैं कि वह भाषण देता रहता था-
‘‘भाइयों, हवा किस धर्म की होती है ? धूप का संप्रदाय क्या है ? नदी के पानी की क्या नस्ल है ? आकाश की जात क्या है ? परिदें किस कौम के हैं ? बादलों का मुल्क क्या है ? इंद्रधनुष की बिरादरी तो बताओ, लोगों। सूरज, चांद और सितारों का मजहब क्या है ?''[xviii]
हिन्दी साहित्य में ‘अस्मिता-विमर्श' को लेकर ‘दहशतगर्दी-सी' सी व्याप्त हो गयी। कवि, लेखक, आलोचक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, दर्शनशास्त्री, मनोविश्लेषक इत्यादि नित नये तरीकों से इसकी ‘छान-बीन' कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है कोई तेज बवंडर आ जायेगा जिसमें सब ध्वस्त हो जायेगा, शेष कुछ नहीं रहेगा। दलित-स्त्री लेखन न हो गया मानो कोई ‘कोबरा' आ गया है जो डस लेगा हैरानी किस बात की ‘अभिव्यक्ति' तो है अभिव्यक्त होने दो कुछ ‘नया' निकल कर आयेगा। दलित लेखन, स्त्री-लेखन की होड़ में हर कोई सामिल होना चाहता, किन्तु ‘जेंडर' बदलकर। ये ‘डर' कब समाप्त होगा। ‘पापुलर' भी होना चाहते हें और डर भी रहे हैं यह खटकता है। उत्तर आधुनिकता ने जो घोषणा कर रखी है कि ‘साहित्य मर' चुका है तो मैं कहना चाहता हूँ दलित-साहित्य स्त्री साहित्य पर जो आज गरमा -गर्म बहसें, सेमिनार, डिबेटस आयोजित किये जा रहे हैं यह उनकी भागीदारी को सुनिश्चित करता है। समय के साथ बदलाव की मांग है हम आपको बदलना होगा।
दलित कथाकार ने ‘दलित जीवन' की उस त्रासदी का चित्रण कर रहे है जो अब तक हाशिये पर पढ़ा था। इधर ‘ताजा तरीन' कथाकारों में अजय नावरिया, सूरज पाल चौहान, दलपत चौहान, रत्नकुमार सांभरिया, अरूण कुमार सिंह, रूपनारायण सोनकर, कर्मशील भारती, सुशील कुमार इत्यादि। सूरजपाल चौहान की ‘दो चित्र' दलपत चौहान की ‘नया ब्राह्मण' अपने स्तर की नई कथा परिकल्पना है जो अब तक छूटी हुई थी। अरूण कुमार सिंह ने ‘सूकर मछव' में संजीवना को ‘दलित पुरोहित' बनाने का प्रयास किया है और सफल भी है, लेकिन दलित चेतना से संजीवना का मोहभंग हो गया है और वह बन गया ‘दलित-पुरोहित-ब्राह्मण' उस पर सामाजिक जातिदंश हावी है। ‘दलित राजनीति' के क्षेत्र में संजीवना को ऊपर उठते दिखाया गया है।
‘‘नौकरी की उमर जाने पर भी संजीवना दिन भर कुछ न कुछ पढ़ता लिखता रहता। वह आते - जाते जिसे भी पकड़ लेता उससे घण्टों ज्ञान बघारता। दलित चेतना की आवश्यकता, दलित के उत्थान के लिए जरूरी बातें, सरकार की छद्म दलित नीतियों, वोट की राजनीति और दलित वोट बैंक, गाँधी द्वारा चलाये गये हरिजन आन्दोलन की सच्चाइयों, राजनीति पार्टियों का दलित प्रेम बाबा साहब अम्बेडकर के क्रिया-कलापों, उनके विचार दर्शन और जीवन के बारे में जब वह बोलने लगता तो देखते ही घण्टों निकल जाते। संजीवना अक्सर चाय की दुकान पर किसी न किसी से बहस लड़ाता बतियाता मिल जाता। वह अक्सर बौद्धिक जमाने के लिए रटे-रटाये जुमने बोलता-राजनीति दुष्टों की अंतिम शरण स्थल है' फिर उसमें संसोधन करते हुए बोलता- ‘मैं इस विद्धान की बात से पूर्णता सहमत नहीं हूँ।' धीरे-धीरे इलाके के लोग उसे बुद्धिजीवी के रूप में देखने लगे। अब वह जनवादी गतिविधियों में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने लगा। सामाजिक परिवर्तन की बड़ी-बड़ी बाते करते उसे अक्सर छोटी-मोटी सभाओं में देखा जाता। स्थानीय निकाय के चुनाव में वह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने लगा। उसके चलते दलितों का वोट बैंक बन चुका था। दलितों का ध्रुवीकरण होता जा रहा था। दलितों की राजनीतिक शक्ति भी बढ़ती जा रही थी।''[xix] रामचंद्र की ‘बयार' जाति को तोड़ती है जो ‘अन्तर्जातीय विवाह' को ‘प्रकट दर्शन' के रूप में व्याख्यायित करती है।
स्त्री लेखिकाओं ने ‘नारी मन' के उस चित्र को उबार की कोशिश की है जो पुरूष लेखक अब तक नहीं कर पाये। इधर कुछ नई कथा संरचना का जन्म हुआ है। कुसुम भट्ट की कहानी ‘पुरूष-विमर्श' रंजना जायसवाल की ‘हाँ, मैं अपराधी हूँ कामरेड।', जया जादवानी की ‘जो ‘सदियों से चुप हैं', सीमा शफ़क की ‘हम बेकैद मन बेकैद', वदनाराग की ‘ख्यालनामा' इत्यादि। ये लेखिकाएं परंपरा से चले आ रहे उस लेखन का विरोध कर रही सहधर्मिणी जहां स्त्री को ‘मात्र भोग विलास' की समझा जाता रहा है वह पुरूष वर्चस्व को तोड़ना चाहती है। ‘एस्थेटिक' की बंधी-बधाई' कड़ियों को तोड़ती हुई दिखती हैं। यह ‘एस्थेटिक' ही उन्हें बार-बार उनके दिमांग को ‘क्लिक' करता है। वह ‘घर' और ‘बाहर' अर्थात् वे ‘कदम ताल' मिलाकर चलना चाहती है। किसी भी क्षेत्र में। कुसुम भट्ट ने ‘पुरूष-विमर्श' में पुरूषिया डाह को अभिव्यक्त किया है। पुरूष के नैतिक पतन पर सीधा-सा आक्षेप करती है। नारायण तिवारी सच्चचरित्र है। नीलम दुबे व अन्य लोग ‘नारायण तिवारी' को सच्चचरित्र होने का सर्टीफिकेट देते हैं और अपने ही आफिस में चपरासी ‘बंडू' के कहने पर सभी लोग उसे ‘दुश्चरित्र' साबित करते हें। दूसरी तरफ यह कहानी ‘देह विमर्श' और पारिवारिक मूल्यों का विघटन दिखाती हैं और ईश्वर के अस्तित्व को नकारती है।
‘‘इतनी छोटी-सी बात के लिए उसे कष्ट देना उचित होगा............? उन्होंने खुद से कहा और चलते......................मंदिर की चौखट पर पाया खुद को............मूर्तियों को निहारने लगे नारायण.....................पुजारी ने शंख बजाया तो उन्हें बोध हुआ खालिस पत्थरों की मूर्ति................।''[xx] छूसरी तरफ सेक्स की भूख को प्रथम प्राथमिकता देती है।
हिन्दी सिनेमा पर फोकस करती अशोक गुप्ता की ‘कोई तो सुनेगा' फैशन टैक्नोलाजी पर या विज्ञापन माडलिंग की दुनिया का पाठ करती सोहन शर्मा की ‘वो आखिरी बार सैन फ्रांसिस्को में देखी गयी थी', विस्थापन जमीन के मुद्दों पर मधुकांकरिया की ‘नंदीग्राम के चूहे' अभिज्ञात की ‘कामरेड और चूहे' गौरव सोलंकी की ‘ब्लू फिल्म' साइबर क्राइम की अंधड़ प्रेम कथा है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि युवा कथाकार उन समस्त बिन्दुओं पर फोकस कर रहे हैं जो ‘क्लासिकल कथाकारों की दृष्टि से दूर रहा। उन पर न ‘बाजार' हावी है न ‘बाजारीकरण' की प्रविधि। वे ‘इतिहास' और ‘सभ्यता' को पुनर्परिभाषित कर रहे हैं। नयी सांस्कृतिक अवधारणा को स्थापित कर ‘विश्व' को ‘स्थानीय' बना देना चाहते हैं जहां समानता की अवधारणा कायम की जा सके। तभी तो उनकी सृजनात्मक, कहानियों में परंपरा, रूढ़ियाँ, रीति-रिवाज, जड़ता, विखण्डन, धर्म, संस्कृति, राजनीति, विचारधारा, मानव-मूल्य, नैतिकता, श्लील-अश्लील, सेक्स, यांत्रिकता, प्रोद्यौगिकी, सूचनाक्रांति, साइबर क्राइम, कार्पोरेट कल्चर, कार्पोरेट सोसाइटी, उपभोक्तावादी संस्कृति, माल संस्कृति, फैशन टेक्नालाजी, विज्ञापन की दुनिया, लिव-इन-रिलेशनशिप, समलैंगिक चित्रण, सेक्स का उन्मुक्त चित्रण, देह की संस्कृति, बाजारवाद, मीडिया-विमर्श, प्रेम का बदलता स्वरूप मास कल्चर, मास लिटरेचर, नक्सलवाद, आतंकवाद, साम्प्रादायिकता, वैयक्तिक पीड़ा, पानी की समस्या, किसान, आदिवासी विस्थापन की समस्या, प्रवासी-अप्रवासी बदलने की क्रियाएं, सम्वेदनाओं का होता क्षरण, बढ़ती महंगाई, नवसाम्राज्यवाद, नव उपनिवेशवाद इत्यादि मूलभूत समस्याओं पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। जीवन के विविध पक्षों को लेकर वह आगे की ओर बढ़ रहे हैं एक नये विकल्प के साथ।
संदर्भ -
[i] समीक्ष के नये प्रतिमान ः डॉ0 रघुवीर सिंह, पृ0 20 (तक्षशिला प्रकाशन, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली प्रथम सं0 1977)
[ii] वही, पृ0 20-21
[iii] हंस, जनवरी 2010, पृ0 96 (संजीव ः हिंदी कहानी आज के सरोकार और भविष्यकी चिंता)
[iv] समयान्तर, फरवरी 2009, पृ0 32 (प्रियम अंकित ः नए समय की आहट)
[v] हंस, अक्टूबर 2009, पृ0 14
[vi] बया, दिसम्बर 2008 - मई 2009, पृ0 82
[vii] तद्भव, जनवरी 2009, पृ0 242
[viii] वही, पृ0 272
[ix] नया ज्ञानोदय, सितम्बर 2009, पृ0 33
[x] उत्तर आधुनिकता ः कुछ विचार, सं0 देवशंकर नवीन, सुशान्त कुमार मिश्र, पृ0 18
[xi] हंस, फरवरी 2009, पृ0 20
[xii] प्रगतिशील उद्भव, अक्टूबर-दिसम्बर 2009, पृ0 48
[xiii] नया ज्ञानोदय, जनवरी 2009, पृ0 60 (सुभाष शर्मा ः उपभोक्तावाद की त्रासदी)
[xiv] लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2009, पृ0 92
[xv] वही, पृ0 93
[xvi] वाक्, अंक-6, जून-अक्टूबर 2009, पृ0 156-157
[xvii] वही, पृ0 145
[xviii] वही, पृ0 146
[xix] पक्षधर, अंक-8, पृ0 118
[xx] हंस, नवम्बर 2009, पृ0 64
संपर्क
असिस्टेण्ट प्रोफेसर हिंदी विभाग कौषल्या भारत सिंह ‘गाँधी' राजकीय महिला महाविद्यालय, ढिंढुई पट्टी प्रतापगढ़
ई-मेल - drdivyanshu.kumar6@gmail.com
बहुते सुंदर पोस्टमार्टम किये हैं अरविन्द जी हार्दिक बधाई |
जवाब देंहटाएंशुक्रिया कि मेरी कहानी का भी जिक्र आया है।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया । आपने मेरी कहानी कबीरदास का विशेष उल्लेख किया तथा कहानी से पंक्तियाँ भी उद्धृत कीं । आभारी हूँ ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अरविंद जी । आपने मेरी कहानी " कबीरदास " का उल्लेख किया तथा कहानी से पंक्तियाँ भी उद्धृत कीं । आभारी हूँ ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया । आपने मेरी कहानी कबीरदास का विशेष उल्लेख किया तथा कहानी से पंक्तियाँ भी उद्धृत कीं । आभारी हूँ ।
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