हिंदी गीत-नवगीत के सच्चे साधक श्री देवेन्द्र शर्मा ‘ इन्द्र ' से युवाकवि योगेन्द्र वर्मा ‘ व्योम ' की बातचीत साहित्य का सृजन...
हिंदी गीत-नवगीत के सच्चे साधक श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र' से युवाकवि योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम' की बातचीत
साहित्य का सृजन करना और साहित्य को जीना, दोनों अलग-अलग बातें हैं। साहित्य को जीकर रचने वाला ही सच्चा साहित्य-साधक कहलाता है। एक अप्रैल 1934 को नगला अकबरा, ज़िला आगरा में जन्मे हिंदी गीत-नवगीत सहित अनेक विधाओं में अपना महत्त्वपूर्ण और सशक्त सृजन करने वाले वरिष्ठ साहित्यकार श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र' जी के 13 नवगीत-संग्रह, चार दोहा-संग्रह, दो ग़ज़ल-संग्रह, दो खंड-काव्य एवं 17 संपादित समवेत संग्रहों समेत 50 कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। साथ ही अनेक पांडुलिपियाँ प्रकाशन-पथ पर हैं। इंद्र जी का खंडकाव्य ‘कालजयी' आगरा विश्वविद्यालय में बी.ए. पाठ्यक्रम में सम्मिलित है तथा इसके अतिरिक्त उनके अनेक गीत-नवगीत विभिन्न विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रमों में सम्मिलित हैं। उनकी रचनाधर्मिता पर अब तक सात शोधकार्य हो चुके हैं। हिंदी साहित्य के ऐसे अद्भुत और बहु-आयामी रचनाकार इंद्र जी से गीत-नवगीत सहित अनेक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक संदर्भों पर बातचीत की युवा कवि योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम' ने-
व्योम ः आपकी गीत-यात्रा कब और कैसे शुरू हुई? इस गीत यात्रा में आप किन गीतधर्मियों की रचनाधर्मिता से सर्वाधिक प्रभावित रहे?
दे.श. इंद्र ः जहाँ तक मुझे याद आता है मेरी मनोभूमि में गीत और कविता के प्रति आकर्षण और सम्मोहन तभी से अंकुरित होने लगे थे, जब मैं केवल दस-बारह वर्ष की आयु का था। उन दिनों हमारा देश राजनैतिक स्तर पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के निरंकुश शिकंजे में फँसा था। अतः एक ओर यदि महात्मा गाँधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता का अहिंसात्मक संग्राम लड़ा जा रहा था, तो दूसरी ओर युवजन हृदय सम्राट सुभाषचंद्र बोस के प्रभाव के चलते सशस्त्र क्रांति की लपटें भी उठ रही थीं। द्वितीय विश्वयुद्ध के चलते जीतते हुए अंग्रेजी राज के भी जर्मनी और जापान जैसे विपक्षियों ने छक्के छुड़ा रक्खे थे। ‘अंग्रेजों! भारत छोड़ो', ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद' और ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा' के नारों से हमारे राष्ट्र का आकाश गुंजायमान था। पढ़े-लिखे समाज में राष्ट्र-भावना की लहर भीतर-भीतर ही हिलोरें मार रही थी। उन दिनों समस्त हिंदीभाषी क्षेत्र में ‘भारत-भारती' का पाठ ‘श्रीमद्भगवद्गीता' की तरह किया जाता था। मेरे पिताजी आगरा में अध्यापक थे। अतः जब वे शनिवार की रात को गाँव आते तो अपने आसपास एकत्र हुए लोगों को शहर, देश और विदेश की घटनाओं से अखबार पढ़कर अवगत कराते। रविवार को लगभग दो-तीन घंटे का समय मुझे पढ़ाने में लगाते थे। पिछले सप्ताह का दिया हुआ काम देखते और हमारे परिवार के सेवाराम बाबा के द्वार पर सबको ‘भारत-भारती' सुनाते और उसका अर्थ समझाते थे। उन्हीं दिनों वे मेरे लिए ‘जयद्रथवध' की एक प्रति लाये थे। मेरे घर में तुलसीदास की अनेक कृतियों के अतिरिक्त वैद्यक, ज्योतिष, पौरोहित्य, नीतिशास्त्र आदि विषयों की सानुवाद संस्कृत-पुस्तकों का भी अच्छा खासा ज़खीरा था। मैं मनोयोगपूर्वक उनको उलटता-पुलटता रहता था और जो बात समझ में नहीं आती, उसे अपने पितामह से पूछ लिया करता था। गाँव में रहते ही मैंने पिताजी से उर्दू की लिपि का ज्ञान प्राप्त कर लिया था और ज़बर, ज़ेर, पेश, दो चश्मी हे, की मदद से ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, थ, ध्, फ और भ को उसकी रस्मुलखत में लिखना भी सीख लिया था। संस्कारतः मेरी रुचि जितनी कविता और साहित्य के प्रति उदग्र और सक्रिय थी, उतनी ही गणित की ओर से उदासीन। यों, चालीस तक पहाड़े और पौआ, अद्धा, पौन, सवैया, ड्योढ़ा और पोंचा तक के पहाड़े भी मुझे पिताजी ने उन दिनों रटा दिये थे। मैं पिता के अतिरिक्त भी उन्हें अपना ‘आदर्श चरितनायक' मानता था। उनकी हस्तलिपि बेहद खूबसूरत और साफ़-सुथरी तथा निर्दोष थी, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव मेरी लिखावट पर भी पड़ा था। आज भी याद है 2 अक्टूबर 1947 का दिन जब मैं आठवीं कक्षा का छात्रा था और मुझे हिंदी-उर्दू तथा अंग्रेजी की सुलेख प्रतियोगिता में 10 रुपये का उच्चतम पुरस्कार और ढेरों पुस्तकें प्रदान की गयी थीं। एक ‘डिक्शनरी' के साथ सन्1943 में पिताजी ने अपने ही स्कूल में तीसरी कक्षा के छात्रा के रूप में प्रवेश करा दिया था। कदाचित् आज आपको विश्वास न हो, तब तक तुलसी, रसखान और नरोत्तमदास के मुझे लगभग सौ-डेढ़ सौ कवित्त और सवैये और इतने ही संस्कृत के श्लोक कंठाग्र करा दिए थे। कवित्त और सवैयों की लय तो जैसे मेरे रक्त में बोलने लगी थी। तभी तो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के वध पर मैंने लगभग पचास-साठ छंद लिख डाले थे। आठवीं कक्षा में अंग्रेजी सिखाने के लिए पिताजी ने पड़ोस के एक वयोवृद्ध सज्जन श्री उमाशंकर कुलश्रेष्ठ को 10 रुपये माहवार पर मेरा ट्यूटर नियुक्त कर दिया था। वे स्वयं ब्रजभाषा के कवि थे, अतः मैंने उनसे छंदोज्ञान की विधिवत् दीक्षा ली थी।
पाँचवीं से लेकर आठवीं कक्षा तक मैं एक आर्यसमाजी स्कूल का छात्रा रहा, फिर नौवीं और दसवीं कक्षा मैंने आगरा के बैप्टिस्ट मिशन हाईस्कूल से उत्तीर्ण की। जिस वर्ष दसवीं का छात्रा था, मैं स्टूडेंट लाइब्रेरियन बना दिया गया। उस वर्ष हिंदी प्रभाग में जितनी पुस्तकें थीं, उनमें से 90 प्रतिशत कविता-संग्रहों, कहानी-संग्रहों, नाटकों और उपन्यासों को मैं दीमकों की तरह चाट चुका था। दूसरे छात्रों में पढ़ने-लिखने की रुचि भी न थी। हाईस्कूल की परीक्षा से पूर्व तीन महीने तक जो ‘प्राइवेट इंग्लिश ट्यूटर' मिले, वे भी संयोग से उस समय के श्रेष्ठ कवि, कथाकार और उपन्यास लेखक थे, जो उसी वर्ष झाँसी से एल.टी. करने के लिए आगरा आये हुए थे। उन्हीं की प्रेरणा से मेरा झुकाव खड़ी बोली में काव्य-रचना की ओर हुआ। ‘प्रसाद', ‘पंत', ‘निराला' और ‘महादेवी' की रचनाओं ने बेहद प्रभावित किया था। ‘बच्चन' जी की बोलचाल की भाषा और सपाट बयानी मुझे अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाई, यद्यपि तब तक मैं ‘मधुबाला', ‘मधुकलश', ‘निशा निमंत्रण', ‘एकांत संगीत', ‘आकुल अंतर' और ‘प्रणय पत्रिका' का भी आद्योपांत वाचन कर चुका था। छायावादी कवि मेरे तब आदर्श और श्रद्धाभाजन थे, तथापि नरेंद्र शर्मा, ‘अंचल' और हरिकृष्ण ‘प्रेमी' के गीतों के प्रति आत्मीयता भरा मैत्रीभाव रखता था। आगरा कालेज, आगरा में जुलाई सन्1950 में जब इंटरमीडिएट का छात्रा बनकर आया, तब आज के वरिष्ठ गीतकार श्री जयप्रकाश चतुर्वेदी मेरे सहपाठी बने और हम दोनों चोली-दामन की तरह ज़िंदगी भर के लिए एक हो गये। तभी सर्वश्री ‘कमलेश', राजेंद्र यादव ओर घनश्याम अस्थाना के साथ गहरा सामीप्य रहा। कालेज जीवन में मैंने संस्कृत और अंग्रेज़ी काव्य का विशद और गंभीर अध्ययन किया। पं. हरिशंकर शर्मा ‘कविरत्न', रांगेय राघव, डा. रामविलास शर्मा, महेंद्र जी (सं. साहित्य संदेश) और पं. हृषीकेश जी चतुर्वेदी जैसे साहित्य के उज्ज्वलतम नक्षत्रों की आलोक-छाया में रहकर मैंने अपने सर्जकीय व्यक्तित्व को बनाया-सँवारा था। अतः किसी एक व्यक्ति-विशेष का न होकर मैं अपने संपूर्ण तत्कालीन परिवेश का ऋणी हूँ। बड़े भाग्य से ही मिल पाता है हर उदीयमान प्रतिभा को ऐसा प्रभावशाली परिवेश। सन्1948-49 से प्रारंभ हुई मेरी वह गीतयात्रा आज तक अविराम गति से मुझमें स्पंदमान है।
व्योम ः ‘प्रत्येक नवगीत प्रथमतः गीत है, किंतु प्रत्येक गीत नवगीत नहीं होता' नवगीत के संदर्भ में आपका ब्रह्मवाक्य है, साथ ही ‘नवगीत दशक', ‘यात्रा में साथ-साथ', ‘शब्दपरी', ‘नवगीत और उसका युगबोध्', ‘धर पर हम' आदि अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें भी आईं, किंतु नवगीत का एक सर्व स्वीकार्य पारिभाषिक चित्र प्रस्तुत नहीं हो सका। आपको क्या लगता है?
दे.श. इंद्र ः ऊपर आपने जिसे मेरा ‘ब्रह्मवाक्य' माना है, पहले उसके विषय में कुछ निवेदन करना आवश्यक है। वस्तुतः उसमें गीत और नवगीत के मध्यवर्ती शैल्पिक और अंतर्वस्तुमूलक संबंधों की ओर संकेत किया गया है। ‘गीत' अपने आपमें एक दूरांतगामी, धारावाहिक अर्थ व्यंजना वाला शब्द है जो श्रीमद्भगवद्गीता, गीत गोविंदम्, भागवत, थेरी गाथा से लेकर, गाहा सतसई तक अविकल रूप से प्रवाहमान रहा है। वैदिक युग से तत्काल पर्यंत कालांतर में चंडीदास, सूर, विद्यापति, तुलसी एवं अष्टछाप के सूरे तक कवियों की रचना में सतत विकासोन्मुख रूपांतरण हुआ। खड़ी बोली में आते-आते उसे फारसी और उर्दू की ब”रों का सान्निध्य भी प्राप्त होने लगा। पंत जी के ‘पल्लव' और ‘निराला' जी के ‘परिमल' की भूमिकाएँ भी यहाँ द्रष्टव्य हैं, जिनसे ज्ञात होगा कि विविध प्रकार की लयात्मकता से किस प्रकार नये-नये छंद आविष्कृत हुए हैं। इसमें भी कोई दो मत नहीं हैं कि जहाँ छायावाद के कवियों का झुकाव बहुत कुछ स्वच्छंदतामूलक होते हुए भी मूलतः क्लासिकी था, वहीं उनके किंचित्पश्चाद्वर्ती बच्चन जी की कविता का झुकाव एकांततः रोमानी था जिसका मूलाधार था अंग्रेजी और उर्दू। यह मार्ग अधिक सुगम, सुकर और लोकप्रियतावादी था। अतः कवि-सम्मेलन और मंच के कवियों द्वारा सहज ही अनुकरणीय हुआ। यही कारण है कि ‘पल्लव', ‘गुंजन', ‘गीतिका' और ‘दीपशिखा' के गीत क्लासिकल हुए और ‘मधुशाला' तथा बच्चन जी के गीत रोमांटिक। अस्तु इस बच्चनीय परंपरा में जो गीत लिखे गये वे भी छंद की कसौटी पर ढीले और दोषपूर्ण नहीं थे, तथापि उन छांदसिक पद्धतियों के माध्यम से नई विषयवस्तु प्रस्तुत की जाती थी, वह नारी की देह के इर्द-गिर्द ही घूमने वाली थी। उसमें स्त्री के शारीरिक रूप के प्रति एक उद्दाम लिप्सा, भोगवादी रिरिसा, अतृप्ति, संयोग-वियोगमूलक भावोद्रिक्त हर्ष-विषाद की गलदश्रु प्रधरता रहती थी। नवगीत ने भी उन्हीं पूर्व स्वीकार्य लयों और छन्दों को अपनी भावाभिव्यक्ति का उपजीव्य बनाया था। अतः परम्परामुक्त गीत और नवगीत बाह्ययतः समरूप प्रतीत होते थे, तथापि विषयवस्तु की दृष्टि से दोनों में धरती-आकाश का अंतर था। हिंदी नवगीत के शीर्षपुरुष डा. शंभुनाथ सिंह के दो अति संदर्भित गीतों के हवाले से मैं अपनी बात को और स्पष्ट करना चाहूँगा। पहला गीत है- ‘समय की शिला पर मधुर चित्र कितने किसी ने बनाये, किसी ने मिटाये' जो एक श्रेष्ठ किंतु परंपरामुक्त गीत है, किंतु इसके विरुद्ध ‘पुरवैया धीरे बहो, मन का आकाश उड़ा जा रहा है' अपने समय का एक श्रेष्ठ नवगीत है। इस गीत की आत्मा भी यद्यपि श्रृंगाराश्रित है, तथापि इसके लोकलयाश्रित छंद, आंतरिक संगीत और बिंबधर्मिता ने इसे एक उम्दा नवगीत बना दिया है। गीतों की यह न्यूनाधिक द्वैधता सभी प्रारंभिक नवगीतकारों में रही है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। पुराने संस्कारों से मुक्ति और नवीन के वरण में कुछ समय तो लगता ही है। दशकों के परवर्ती गीतकार इस मशक्कत से वंचित रहे, क्योंकि उन्हें अपेक्षाकृत चलने के लिए एक बना-बनाया रास्ता मिला था। यह एक अलग बात है कि अधिकांश लोग आज भी पचास वर्ष पुरानी शैली में लिख रहे हैं और फिर भी चाहते यही हैं कि उन्हें नवगीतकार के रूप में स्वीकृति मिल जाय। आज तो अनेक संपादकों के अज्ञान के कारण भी ऐसी भ्रांति फैलायी जा रही है, जिसे देखकर ‘हँसा' या ‘रोया' ही जा सकता है।
यह सत्य है कि ‘दशकत्रयी', ‘अर्द्धशती' और ‘यात्रा में साथ-साथ' तथा अन्य बहुतेरे समवेत संग्रहों के प्रकाशन के बावजूद नवगीत की कोई सर्व लोकमान्य परिभाषा या पहचान नहीं बन पाई, यह स्वयं में नवगीत के पक्ष में ही जाता है न कि विरोध में। एक रचनाकार ही अपने जीवन में बार-बार नये-नये प्रयोग करता है और इन संग्रहों में तो अनेक रचनाकार थे, जिनकी अपनी-अपनी पृथक भावभूमि, संस्कार, शिक्षा-दीक्षा, परिवेश और शिल्पगत विशेषताएँ थीं और आज भी हैं। यदि सभी एक जैसे छंदों, बिंबों, प्रतीकों और विषयों का चयन करते तो गीतों में नव्यता और विशिष्टता कैसे आ पाती? कोई रचना अथवा गीत या नवगीत तभी ग्राह्य बन पाता है, जबकि उसमें भावाभिव्यक्ति की नवीनता और विशिष्टता हो। छोटे-बड़े, दुबले और स्थूलकाय सभी के पाँवों में एक ही नाप का जूता तो नहीं पहनाया जा सकता? काव्येतिहास के विविध युगों में भी कभी ऐसा नहीं हुआ, जब एकरूपता और एकरसता की ऐसी स्थिति आ जाती है तो उसकी प्रतिक्रिया और प्रत्याख्यान भी आवश्यक हो जाते हैं। विकास के ज्ञातव्य के लिए यह वैविध्य प्रयोजन ही है। ठेठ सड़क छाप मुहावरे में कहा जाए तो जो अंतर गध, खच्चर और घोड़े में होता है, वही एक साधारण गीत और विशिष्ट नवगीत में भी मिलता है। चीज़ों की पहचान बाह्य एतादृशता से कभी संभव नहीं होती। ईश्वर क्या है, इस प्रश्न को सहस्रों वर्ष पर्यंत इस ग्रंथी को नहीं समझाया जा सका और अंततः ऋषियों और मनीषियों को नेतिवाद की शरण में जाना पड़ा। ठीक इसी तरह नवगीत की अपरिभाषेयता में ही उसकी परिभाषा निहित है। यों सहजता और सरलता के लिए यह कहा जाए कि जहाँ छंद, लय, तान, शैली, शिल्प और अनुभूति तथा संवेदना की नव्यता हो, वहीं कहीं नवगीत की स्थिति संभाव्य है। गीत में निहित इस नव्यता को भेदकातिशयोक्ति अलंकार के प्रसिद्ध उदाहरण से स्पष्ट करूँ तो यही कहना चाहूँगा- ‘वह छवि तो औरै कछू, जिहि बस होत सुजान' इस ‘औरै कछू' को देखने और भाषित करने के लिए कुछ अंतर्दृष्टि विशेष का होना भी आवश्यक है।
व्योम ः गीत से नवगीत तक की यात्रा में हिंदी कविता ने कौन-कौन सी महत्त्वपूर्ण उपलब्ध्यिाँ हासिल की हैं?
दे.श. इंद्र ः यह प्रश्न अपने आपमें जितना सीध और सपाट प्रतीत होता है, उतना ही जटिल भी है। यदि आप छायावादेतर मंचीय कवियों के संग्रहों के गीतों और शंभुनाथ सिंह, ठाकुरप्रसाद सिंह तथा वीरेंद्र मिश्र के परवर्ती संग्रहों के क्रम में उमाकांत मालवीय, मेरे, माहेश्वर तिवारी, कुमार रवींद्र और योगेंद्रदत्त शर्मा के गीत-संग्रहों की रचनाओं को ही ग़ौर से देख और पढ-समझ सकें तो आप अपने प्रश्न का उत्तर खोज निकाल सकेंगे। इधर महेश ‘अनघ' और यश मालवीय के गीत-संग्रहों से भी आपको अपने प्रश्न के समाधान मिल सकते हैं।
व्योम ः आपने अपनी लंबी सृजन-यात्रा के दौरान गीत के अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। वर्तमान में भी गीत के अस्तित्व को नकारा जा रहा है, अनेक रूपों में भ्रामक दुष्प्रचार भी किया जा रहा है। इन परिस्थितियों में क्या आप मानते हैं कि गीत के विरुद्ध एक मोर्चा सुनियोजित रूप से लामबंद है? यदि हाँ तो उससे हिंदी साहित्य कितना और किस तरह से प्रभावित होगा।
दे.श. इंद्र ः हाँ, निश्चय ही मेरी गीत-सृजन की यात्रा बासठ-तिरसठ वर्ष पुरानी तो है ही और इस दीर्घ अवधि में मैंने बहुत उतार-चढ़ाव भी देखे और सुने हैं। एक कहावत है कि चोरों, उचक्कों और दुर्जनों में पारस्परिक मेलजोल और ‘अनहोली एलाइंस' तो बहुत जल्दी हो जाता है, परंतु एक विद्वान दूसरे से अवश्य ईर्ष्या, द्वेष और बैरभाव ग्रस्त होता है। बड़े से बड़े कवियों से लेकर सामान्य से सामान्य कवि भी इस प्रवृत्ति के शिकार रहे हैं। पहले तो मंगलाप्रसाद और देव पुरस्कार ही होते थे, फिर ज्ञानपीठ और सरस्वती पुरस्कार जैसे सैकड़ों पुरस्कार शुरू हुए। आज तो इनकी संख्या अनगिनत है। इन्हें पाने की दौड़ में लोग क्या-क्या हथकंडे नहीं अपनाते। कितना नीचे नहीं गिरते और कितने ग़लत समझौते नहीं अपनाते। मुझे प्रसन्नता और संतोष है कि मैंने यह रास्ता न चुनकर एकांत शब्द-साधना की। मैंने कभी मंचीय सौदे नहीं किए और न ही किसी दक्षिणपंथी अथवा वामपंथी या प्रगतिशील संघ की सदस्यता ग्रहण की। पिछली शताब्दी में आधुनिकता के चलते हर श्रेष्ठ और उदात्त को अस्वीकार और पदच्युत किया गया। पहले नीत्शे ने ईश्वर को मारा था, किंतु हुआ उसके विपरीत। ईश्वर आज भी जीवित है और नीत्शे महोदय नास्ति में विलीन हो गए। विश्व साहित्य पर दृष्टि डालें तो पहले कविता का जन्म हुआ, तत्पश्चात गद्य का। हमारे यहाँ भी ऐसा ही हुआ। आदिकाल भक्तिकाल और रीतिकाल तक कविता का बोलबाला रहा। विगत डेढ़-पौने दो सौ वर्ष ही गद्य के खाते में जाते हैं। अधिकतर कहानी, उपन्यास, नाटक और समीक्षाएँ लिखने वाले असफल कवि ही हैं। अतः उनकी हीनता-ग्रंथी का विस्फोट काव्य को गरियाने के रूप में ही हुआ। न किसी के कहने से कविता मरेगी, न गीत। आज भी गीतों और ग़ज़लोंं के संकलन पर्याप्त संख्या में छप रहे हैं, जिनमें स्तरीय संग्रह अपेक्षाकृत न्यून होते हैं और यह स्थिति अन्य विधाओं में भी द्रष्टव्य है। जहाँ तक विरोधियों की लामबंदी की बात है, वह तो स्पष्ट ही है। प्रचार-प्रसार और मीडिया में सर्वत्र ही गीत-विरोधी तत्वों का बोलबाला रहता है, जिसका खामियाज़ा तो गीत को उठाना ही पड़ता है। ‘करे कोई, भरे कोई' की लांछना का शिकार भी गीत को होना पड़ा है। कविसम्मेलनीय मंचों की अधोगति का दंड गंभीर और साहित्यिक गीत को भी सहना पड़ा है। सुना था कि तीन-चार वर्ष पूर्व किसी पत्रिका में परम पूज्य मंगलेश डबराल जी ने गीत के विरोध में कुछ कहा था, जिसका कई लोगों ने उन्हें करारा जवाब भी दिया था। यदि पंत जी के लोकायतन को विजयदेव नारायण शाही ने नहीं पढ़ा, तो इससे उनका क्या घट गया? कुछ दिनों पहले भी एक शीर्षस्थ आलोचक ने पंत जी की निंदा की थी, तो वह उन्हें भारी पड़ गई थी। यदि कोई शैलेष मटियानी को कथाकार न माने या उनके निधन पर दो शब्द भी न बोलना चाहे, तो शैलेष की इसमें कौन-सी क्षति हो गई? कुछ दिनों पूर्व ही एक स्वनामधन्य और प्रातः स्मरणीय अदबी हस्ती ने भविष्यवाणी की है कि साहित्य मर जाएगा, कविता मर जाएगी और न जाने क्या-क्या नहीं मर जाएगा ...। तो ऐसे ही अनर्गल भविष्यवाणियों की चिंता नहीं करनी चाहिए। लोग खबरों में बने रहने के लिए जाने क्या-क्या नहीं कह देते? इस बात का तो यह समय ही साक्षी है कि नई कविता के नाम पर जो सैकड़ों टन काग़ज़ काला किया गया, उसे दीमकों ने चाट लिया। कहने का तात्पर्य यही है कि यदि आपमें माद्दा है और आप अपनी धुन के पक्के हैं, तो चलते रहिए ...। यह यात्रा व्यर्थ नहीं जाएगी। यों इस दुनिया में सार्थक है ही क्या? नकार और स्वीकार का दौर हर युग में चलता रहा है।
व्योम ः वर्तमान में हिंदी की तथाकथित प्रमुख व बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं, यथा- नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य, वागर्थ, पाखी, वर्तमान साहित्य, इंद्रप्रस्थ भारती, विपाशा, तद्भव आदि में गीत विधा की रचनाओं को स्थान लगभग नहीं ही दिया जाता है। साथ ही हिंदी साहित्य के प्रमुख संस्थानों- भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, हिंदी अकादमी और अधिकतर राज्यों की साहित्य अकादमियों आदि में भी शीर्ष पदों पर गीत अथवा छांदस कविता के रचनाकार आज तक पदासीन नहीं हो सके। इस सबके पीछे आप किन कारणों को ज़िम्मेदार मानते हैं? क्या भविष्य में परिस्थितियों में परिवर्तन की आशा की जा सकती है?
दे.श. इंद्र ः आपने इस प्रश्न के साथ स्वयं ही उत्तर भी दे दिया है। सचमुच ही यह एक चिंताजनक स्थिति है। इस स्थिति से निजात पाना आसान भी नहीं है। अज्ञेय जी के द्वारा जो बीज कभी योजनापूर्वक बोये गये थे, उसकी फ़सल आज तक उग रही है। उससे मुक्त होने के लिए गीतधर्मी बिरादरी को भी कुछ वैसा ही संघर्ष और उद्यम करना पड़ेगा, जिसकी फ़िलहाल आशा नहीं की जा सकती। अगले दो दशकों में जब तक इन प्रतिष्ठानों में पदासीन विभूतियाँ अवकाश ग्रहण करेंगी, तब तक हिंदी के वरिष्ठ नवगीतकार भी शायद नहीं रह पाएँगे। आज तो स्वयं नवगीतकारों में मनोमालिन्य, मतांतर और आत्मसम्मोहन का भाव है, जिससे उनका एकजुट होना मुमकिन नहीं लगता। फिर भी किसी सुखद चमत्कार की आशा करने से तो आपको कोई वर्जित नहीं करता। ‘संघे शक्ति कलौ युगे' की नीति जगजीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त है, तो नवगीतकारों को एक शामियाने के तले बैठने से कौन रोक सकता है? अभी तो नवगीत को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में निर्धारित होने की ही प्रतीक्षा है। अतः उसे पाठ्य और अनुसंधेय बनाने की आवश्यकता है। फिर एक बात और, मीडिया के शीर्ष पदों पर आसीन होने के लिए आप भी उस लाइन में लग जाइए। यह तो सर्वविदित तथ्य है कि ज़माना अब प्रतिभा का न होकर जोड़-तोड़, अप्रोच और लेनदेन का हो गया है। साहित्य सर्जना करने वालों को अपनी उदरपूर्ति और पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन करने के लिए आजीविका पर भी आश्रित रहना पड़ता है। बड़ी पत्रा-पत्रिकाओं में चार-छः गीत छप जाएँ और उन पर थोड़ा पारिश्रमिक मिल भी जाए, तो उससे गुज़र-बसर नहीं हो सकती। सृजन-कर्म स्वयं में एक ‘वाकिंग स्टिक' है, बैसाखी नहीं। चलने के लिए मज़बूत पाँव और दृढ़ इच्छा शक्ति का होना भी बहुत ज़रूरी है।
व्योम ः आज इंटरनेट का युग है और इंटरनेट पर अनेक साहित्यिक पत्रिकाएँ- अनुभूति, कविताकोश, हिंदयुग्म, सृजनगाथा, काव्यालय, गीत-पहल आदि और अनेक ब्लाग्स- पूर्वाभास, छांदसिक अनुगायन, रचनाकार, काव्यांचल, आखर-कलश, नवगीत आदि काफी चर्चित हैं और गीत को लेकर अच्छा काम कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि भविष्य में साहित्य इंटरनेट पर ही जीवित रहेगा। साहित्यिक कृतियाँ छपी पुस्तकों के रूप में नहीं, ई-बुक के रूप में होंगी। आप इससे कितने सहमत या असहमत हैं और क्यों?
दे.श. इंद्र ः यह मेरी स्वीकारोक्ति है कि मैं इस क्षेत्र में नितांत शून्य और अनभिज्ञ हूँ। अपनी इस अनभिज्ञता के कारण मुझे क्षति भी उठानी पड़ रही है और मुझे यह भी विदित नहीं है कि जो इस क्षेत्र में दक्ष हैं, उन्हें क्या और कितना लाभ मिल रहा है? वैसे भी अब मैं मृत्यु के कगार तक आ पहुँचा हूँ। आगे क्या होगा, क्या नहीं होगा, यह चिंता करना उनके लिए प्रयोजनीय है, जिन्हें अभी लंबे समय तक जीना और सृजनरत रहना है। इस क्षेत्र में ‘इग्नोरेंस इज़ ब्लिस' ही मेरा आश्रय वाक्य है।
व्योम ः हिंदी साहित्य में कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में महिला रचनाकारों ने तो पर्याप्त संख्या में अपनी महत्त्वपूर्ण भागीदारी की, किंतु गीत-नवगीत के क्षेत्र में संख्या अत्यधिक कम रही और समीक्षा के क्षेत्र में तो स्थिति और भी निराशाजनक है। आपको क्या लगता है?
दे.श. इंद्र ः कहानी कहने की दिशा में तो सैकड़ों साल से दादियों और नानियों का ही एकछत्र अधिकार रहा है, पिता, दादा और नाना ने कभी कहानियाँ सुनाने के झंडे नहीं गाड़े। ये लोग तो उपदेश, आदेश अथवा संदेश देने के लिए ही विख्यात रहे हैं। आज की पढ़ी-लिखी महिलाएँ यदि कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में आगे हैं, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। नारियों ने लोकगीत के क्षेत्र में तो कीर्तिमान स्थापित किए, किंतु काव्य-सर्जना की ओर वे कम ही उन्मुख हुईं। भक्ति-युग में मीराबाई और छायावाद युग में महादेवी वर्मा जैसी महीयसी महिलाओं का आविर्भाव हुआ। यों आधुनिक युग में सुमित्र कुमारी सिन्हा, सुभद्रा कुमारी चौहान, विद्यावती कोकिल आदि ने भी सुंदर कविताएँ लिखीं। प्रगतिवादी युग में एक भी उल्लेखनीय कवयित्री नहीं हुई। प्रयोगवाद और नई कविता का उल्लेख यहाँ नितांत अप्रासंगिक ही होगा। जहाँ तक नवगीत काव्य का संबंध है, श्रीमती शैल रस्तोगी, श्रीमती शांति सुमन और अब डा. यशोधरा राठौर ने अच्छे नवगीत लिखे हैं। श्रीमती राजकुमारी रश्मि भी एक उम्दा नवगीतकार कही जा सकती हैं। मेरी इस दशा में यही राय है कि इन्हें तथाकथित जनवादी गीत से थोड़ी दूरी बनाकर रखनी चाहिए।
व्योम ः आजकल एक नया प्रयोग प्रचलन में है कि हिंदी के रचनाकार ग़ज़ल और उर्दू के रचनाकार गीत लिख रहे हैं। फलतः शिल्प दोष का खतरा दोनों ओर ही है। आपने भी विपुल मात्र में ग़ज़लें कही हैं, क्या आप मानते हैं कि इस तरह का प्रयोग दुधारी तलवार पर चलने जैसा है?
दे.श. इंद्र ः यह तो मुझे मालूम है कि अधिकतर गीतकार ग़ज़लें कह रहे हैं, किंतु मेरी जानकारी इस विषय में नगण्य ही है कि उर्दू के ग़ज़लगो हिंदी में गीत लिख रहे हैं। मोटे तौर पर हिंदी और उर्दू दोनों ज़ुबानों में कोई अधिक फ़र्क़ नहीं है, फिर भी यह तो एक ज्वलंत सत्य है कि हिंदी की प्रकृति संस्कृतोन्मुखी है और उर्दू की रगों में फारसी, ईरानी और अरबी ज़्ुबानों का रक्त बहता है। दोनों का छंदशास्त्र भी काफी हद तक जुदा और मुख़्तलिफ़ है। अतः बहुत सोच-समझकर ही दोनों नावों पर अपने दोनों पाँव अलग-अलग रखने चाहिए। हिंदी के गीतकारों ने जो हिंदी-ग़ज़ल का नारा दिया है, अभी वे क़ायदे से उसे बुलंद नहीं कर पा रहे हैं। यों तो ‘स्वर्ध्मे निध्नं श्रेयः' से बेहतर कोई रास्ता ही नहीं है, क्योंकि ‘परधर्मो भयावहः' ही उसकी दारुण परिणति होगी। ऐसी इबादत या मुहब्बत से भी कोई लाभ नहीं है कि ‘ना खुदा ही मिला ना विसाले-सनम' वाली स्थिति आ जाए। ताहम मेरा कहना है कि यदि आप एक से अधिक भाषाएँ लिख, बोल और समझ सकते हैं, तो उनमें अभिव्यक्ति भी कर सकते हैं। श्रीमती सरोजनी नायडू, हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, आर.के. नारायण, प्रेमचंद, उपेंद्रनाथ अश्क, अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री और नागार्जुन आदि बीसियों उदाहरण हैं उन रचनाकारों के जिन्होंने एकाधिक भाषाओं में लिखा है और खूब लिखा है। रही बात शिल्प दोष की सो यह दोष एक भाषा में लिखने वाले व्यक्ति में भी हो सकता है। आज जो लोग नवगीत लिख रहे हैं, उनमें से चालीस प्रतिशत के छंद सदोष होते हैं, क्योंकि हर छंद की एक लय भी होती है, जिस पर सभी की पकड़ एक जैसी और अधिकारपूर्ण नहीं हुआ करती। नंगे पाँव चलते समय एक धर की तलवार ही पाँव काटने के लिए काफी है, दुधारी तलवार तो और भी जानलेवा हो सकती है। अमीर खुसरो, रहीम और तुलसी बनने के लिए साधना तो करनी ही पड़ती है। बिना साधना किए हुए बहुत कुछ साध्ने वाले व्यक्ति के आगे तो खतरे ही खतरे हैं। जब कल का गीतकार आज नई कविता लिख सकता है (पंत, दिनकर, बच्चन, गिरिजाकुमार माथुर, सुमन, भवानीप्रसाद मिश्र और भारती की तरह) तो वह दोहा व ग़ज़ल कहने की मुमानियत की सज़ा क्यों झेले। हाँ, मैं इतना विनम्र निवेदन करूँगा कि यदि मुझे हज़ारों पृष्ठों का गद्य लेखन, इक्कीस हज़ार दोहे और लगभग एक हज़ार ग़ज़लें न कहनी पड़तीं, तो मैं नवगीत को कुछ और अवदान प्रस्तुत कर पाता। मैं आशा करता हूँ कि आगामी वर्ष के प्रारंभ में मैं अपने पाठकों की सेवा में अपना चौदहवाँ नवगीत-संग्रह भेंट कर सकूँ। अंत में कहना चाहूँगा कि आप चाहे जितनी भाषाओं और विधाओं में अपनी अभिव्यक्ति करें, किंतु पूरी तैयारी के साथ करें।
व्योम ः कविता आलोचना के संदर्भ में भी प्रायः नई कविता को ही प्राथमिकता दी गई और गीत-नवगीत को सुनियोजित ढंग से हाशिये पर ध्केल दिया गया। फलतः हिंदी कविता की प्रमुख विधा गीत के संदर्भ में आलोचना लगभग नहीं ही हुई। आपकी दृष्टि में गीत-नवगीत के लिए यह कितना उचित अथवा अनुचित रहा और क्यों?
दे.श. इंद्र ः देखिए, आपका प्रश्न बड़ा वाजिब है और मोटे तौर पर ऐसा लगता भी है कि गीत के प्रति आलोचकीय दृष्टि उपेक्षा और उदासीनता भरी रही है, किंतु मैं इससे पूर्णतः सहमत भी नहीं हूँ। दरअसल हिंदी साहित्य का इतिहास अब तक लगभग डेढ़ हज़ार वर्ष पुराना हो चुका है। आदिकाल से लेकर अब तक इसमें लगभग पाँच हज़ार कवि भी हो चुके होंगे। आधुनिक युग के संबंध में गद्य के आविर्भाव के साथ कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, जीवनी, आत्मकथा, ललित निबंध, गद्य काव्य और साक्षात्कार जैसी दर्जनों विधाओं ने न केवल जन्म लिया, अपितु थोड़े ही से समय में स्वयं को उत्कर्ष के उच्च शिखर तक ला पहुँचाया, तो आलोचक की उदार और निष्पक्ष दृष्टि उन सब पर ही यथावसर पड़ना लाज़िमी है। अंत में साहित्य पर भी आलोचक की दृष्टि पड़ती ही है। ऐसी स्थिति में नवगीत के हिस्से में कितनी मात्र में आलोचकीय दृष्टि पड़ सकेगी? फिर यह भी न भूलिये कि परिमाण की दृष्टि से आपके पास कितना है, जिसका मूल्यांकन आवश्यक अनुसंधान का विषय बन सकता है, जबकि आपकी विधा में कितने समर्थ रचनाकार हैं? यदि हमने लिखे तो केवल पचास गीत हैं और जिनका ले-देकर एक ही संकलन आ पाया है, तो हम पर पी-एच.डी. और डी.लिट्. तो क्या, एम.फिल भी नहीं की जा सकती। जिन्होंने साहित्य सर्जना में जितनी लंबी पारी खेली हो, उसके अनुरूप ही समीक्षक और अनुसंधता उन पर दृष्टिपात करता है। वास्तविकता तो यह है कि अब धीरे-धीरे महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के द्वार नवगीत के लिए भी उद्घाटित होने लगे हैं। अनेक नवगीतकारों पर एम.फिल और पी-एच.डी. स्तर का कार्य हुआ है और हो भी रहा है। पत्रा-पत्रिकाएँ भी नवगीत को छाप रही हैं। नवगीत और नवगीतकारों पर स्वतंत्र पुस्तकों और शोधग्रंथों का प्रकाशन भी होने लगा है। अतः कुल मिलाकर अब स्थिति वैसी नहीं है, जैसी दो दशक पूर्व थी। एक बात और, नवगीत अपने आप में जितना नया है, उतना पुराना भी तो है। आखिर लिखा तो उसे भी छंद में ही जाता है। शब्द-शक्ति (अमिधा, लक्षणा, व्यंजना) विशेषतः प्रतीक, अलंकार, लय, शैली आदि के काव्यशास्त्र से न तो आज के प्रोफेसर या समीक्षक ही सिर टकराना चाहते हैं और न ही उनके शोधार्थी शिष्यगण। इसलिए कहानी, उपन्यास, जीवनी, दलित-विमर्श, महिला-विमर्श अथवा समाजशास्त्रीय आदि विषय लेकर जैसे-तैसे दो-तीन वर्ष के भीतर पी-एच.डी. करके नौकरी पा जाते हैं। जिसे रसगुल्लों से भरा थाल मिल जाए, वह छुआरे चबाना क्यों पसंद करेगा? अब तो सबके लिए द्वार खुला हुआ है। यदि कोई समीक्षक आप पर नहीं लिखता, तो आप व्यक्तिगत रूप से अपने ऊपर चार सौ से लेकर सात सौ पृष्ठों का अभिनंदन-ग्रंथ निकलवा लीजिए। गाँठ से मुद्राएँ खर्च कीजिए, लोग आपको टैगोर, तुलसी और कालिदास से भी बड़ा और विश्वस्तर तक का कवि कह देंगे। अस्तु, चिंता न कीजिए, नवगीत का भविष्य उज्ज्वल और आश्वस्ति पूर्ण ही है, उसके वर्तमान की चिंता करना अधिक ज़रूरी है।
व्योम ः गीत-नवगीत के संदर्भ में नई पीढ़ी के रचनाकर्म की दशा और दिशा क्या है? नई पीढ़ी के ऐसे कौन-से रचनाकार हैं, जिनकी रचनाधर्मिता आपको प्रभावित करती है तथा नई पीढ़ी से आपकी अपेक्षाएँ क्या हैं?
दे.श. इंद्र ः यह सच है कि आदरणीय निराला जी के दिवंगत होने के पश्चात अब तक नवगीत में भी कई पीढ़ियों का आवागमन हो चुका है। साहित्य में पीढ़ियों को रचनाकार की आयु की अपेक्षा उसके सर्जनात्मक प्रदेय के हिसाब से मान्यता मिलनी चाहिए। उदाहरण के लिए अभी यश मालवीय आयु की दृष्टि से अपने पचासवें वर्ष के क़रीब हैं और वे महेश अनघ, विष्णु विराट, योगेंद्रदत्त शर्मा, ओमप्रकाश सिंह से आयु में तो कनिष्ठ हैं, किंतु अपनी रचनात्मक गुणवत्ता के आधर पर पचासों नवगीतकारों से वरिष्ठ हैं। ऐसी स्थिति में कौन बड़ा है और कौन छोटा? फिर भी मुझे यह कहते हुए थोड़ा खेद होता है कि परवर्ती नवगीतकार सीधे चोट करने की इच्छा के वशीभूत होकर अपनी अनेक शैल्पिक अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाता। जो बिंबात्मकता कभी नवगीत का कंठहार थी, उसे गले की फाँसी समझकर उतार दिया गया है। आज की व्यवस्था ने लोकजीवन और महानगरों की जीवनशैली के व्यवधान और अंतर को कम किया है। पारिवारिक विघटन नगरों की भाँति गाँवों में भी हो रहा है। महँगाई ने देहात और शहर दोनों को बुरी तरह से कुचल रखा है। हिंसा, असुरक्षा और अराजकता से सभी संग्रस्त हैं। क्या सुदूर छत्तीसगढ़ के आदिवासी और क्या मुंबई तथा दिल्ली जैसे बड़े शहरों में रहने वाला आम आदमी ...। ऐसी स्थिति में केवल लोक और अंचल तक स्वयं को परिसीमित कर लेना कहाँ तक मुनासिब होगा। ताज़गी और टटकेपन की मौलिकता के नाम पर आप अपने जनपदों की बोलियों के शब्दों की इतनी भरमार भी न करें कि हिंदी के एक छोर का पाठक दूसरे छोर के रचनाकार को समझने में क़वायद करने लगे। नया गीतकार छंद और लय को सि( करने की दिशा में कृत्कार्य क्यों नहीं होना चाहता? रही बात प्रभावित होने की, सो नये लोग ही प्रभावित होते हैं पुरानों को देखकर। पिता और दादा से पुत्र और पौत्र सीखते हैं, पुत्रों और पौत्रों की उपलब्धियों पर उनके पूर्व जन्माओं तथा हर्ष और परितोष ही होता है। वह हर्ष, वह परितोष आपके गीत सृजन को देखकर मुझे भी होता है। मेरी हार्दिक कामना है कि नवगीत के रथ को आप सब मिलकर और भी गति प्रदान करें। अच्छे गीत को लिखने के लिए यह भी बहुत ज़रूरी है कि आप स्वयं कितना अध्ययन करते हैं। कविसम्मेलनीय कवियों को तो गाने-बजाने से ही फुर्सत नहीं मिलती। उन्हें यह भी आशंका बनी रहती है कि कहीं दूसरों को पढ़कर उनकी मौलिकता (?) क्षत-विक्षत न हो जाए। जो लोग गीत-नवगीत पर समीक्षात्मक लेखनी उठाते हैं, वे भी यदि अपने छंद, लय संबंधी ज्ञान को थोड़ा सुधारें, तो नवगीत के मूल्यांकन के लिए हितावह होगा।
व्योम ः आपका बहुत-बहुत ध्न्यवाद।
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श्री देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र' का पता-
10/61, सेक्टर-3, राजेंद्रनगर, साहिबाबाद,
� साक्षात्कारकर्ता
योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम'
ग़ाज़ियाबाद-201005 (उ.प्र.) ए एल-49, सचिन स्वीट्स के पीछे
दीनदयालनगर-1, काँठ रोड,
मुरादाबाद-244001 (उ.प्र.)
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