पिछली कड़ियाँ - एक , दो , तीन , चार , पांच , छः , सात , आठ , नौ , दस , ग्यारह आओ कहें...दिल की बात कैस जौनपुरी मुझे अफ़सोस है ...
पिछली कड़ियाँ - एक , दो , तीन, चार, पांच, छः , सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह
मुझे अफ़सोस है
जनाब शोएब साहब,
मुझे अफ़सोस है कि आपने अपनी जिद के आगे मेरे जज्बातों की कदर न की. आपके ऊसूल आप पर इस कदर हावी हैं कि आप किसी की भी बात नहीं सुनते. आप बड़े हैं, आपसे इतनी देर बहस करना मुझे भी अच्छा नहीं लगा. हमने साढ़े सात घण्टे बात की मगर नतीजा कुछ नहीं निकला. आप आपने उसूलों की दुहाई देते रहे. ऊसूल बनाना अच्छा है. इन्सान को आपने आप से तसल्ली रहती है लेकिन जनाब, ऐसे भी ऊसूल किस काम के जो किसी को अफ़सोस करने पर मजबूर कर दें...?
ठण्ड का मौसम था इसलिए मैंने सोचा, आपके लिए एक शॉल ले लेता हूँ. लेकिन आपने उसे कुबूल न किया. आपकी जिद कि आप किसी से कुछ नहीं लेते बड़ी अच्छी है. मगर कोई भी बात, कोई भी ऊसूल जिन्दगी के हर मौके पे काम नहीं आ सकते. और जहाँ तक मैं समझता हूँ जिन्दगी किसी जिद के सहारे नहीं जीयी जा सकती. और अगर ऐसा है तो वहाँ जिन्दगी नहीं हो सकती.
आप हमसे बड़े हैं. हम आपसे जिद नहीं कर सकते. लेकिन आप ये कैसे भूल जाते हैं कि हम आपसे छोटे हैं. हम आपके लिए कुछ कर तो सकते ही हैं ना...? पहली बार हमने आपके लिए कुछ करना चाहा था. हम तो बड़े खुश हुए थे कि आपने हमारी जिन्दगी में इतना अहम किरदार निभाया है. आज खुदा ने मुझे मौका दिया है तो हम भी आपने जज्बातों को एक शकल दे देते हैं. मगर आपने वो भी न करने दिया.
हम आपसे छोटे हैं. इसलिए आपसे ज्यादा बहस न कर सके. यही आप हमउम्र होते तो बात कुछ और ही होती. शायद आप इसे समझ सकें.
आप खुद को बहुत कम आँकते हैं. लेकिन आप दूसरों की नजर में क्या हैं इस बात का अन्दाज़ा आप नहीं लगा सकते हैं. भले ही आप बहुत बड़े हैं. मगर आपकी जिद है कि आपको जो लगता है उसे ही सही समझते हैं. अच्छी बात है लेकिन दूसरों के हाथ से मौका छीन कर फेंक देना कहाँ की अच्छाई है साहब...?
हम आपकी जिन्दगी पर किताब लिखने की ख्वाहिश रखते हैं. मगर आपने उसकी भी इजाजत नहीं दी. आपसे आपकी जिन्दगी के बारे में कुछ जानने की ख्वाहिश थी. वो ख्वाहिश भी ख्वाहिश ही रही. सब इसलिए है क्यूंकि आप जिद्दी हैं. किसी की नहीं सुनते हैं.
आपने शॉल कुबूल न की, न सही. लेकिन आप भी ये बात सुन लीजिए कि हम आपकी जिन्दगी पर किताब तो लिखके रहेंगे चाहे किताब एक ही पन्ने की क्यूँ न हो. जितना आपको जाना है, समझा है, उतना ही सही.
मुझे अफ़सोस इस बात का है कि मैं समझता हूँ कि मैं आपको जानता हूँ. जबकि हकीकत तो ये है कि मैं आपको जानता ही नहीं. आप थोड़े उसूलों वाले हैं, ये तो पता था. लेकिन आप इतने जिद्दी हैं ये नहीं पता था. और आपके बारे में कुछ भी जानने की कोशिश करो तो आप जवाब ऐसा देते हैं जैसे हम किसी तीसरे आदमी से आपके बारे में बात कर रहे हों. जैसे जब हमने पूछा कि “आपने शादी क्यूँ नहीं की...?” तो आपका जवाब था “रही होगी कोई बात...” हमने सोचा, शायद वो बात आपको तकलीफ देती है इसलिए ज्यादा जिद नहीं की. लेकिन मैं आपसे ये पूछता हूँ कि आपने किस हक से मेरी इंजीनियरिंग की फीस भरने का फैसला किया था...? मैंने तो नहीं कहा था आपसे...? मैंने तो बस आपको अपना इंजीनियरिंग का कॉल लेटर दिखाया भर ही था. मुझे तो उम्मीद भी नहीं थी कि आप मेरी जिन्दगी बनाने का फैसला सुनाने वाले हैं. ऐसा क्यूँ किया था आपने...? ऐसा क्या किया था मैंने...?
आज जब मैं थोड़ा सा आपके बारे में जानना चाहता हूँ. आपको कुछ देना चाहा तो मैं पराया हो गया. उन लोगों में शामिल हो गया जो आपके लिए बहुत कुछ करना चाहते थे मगर आपने कभी किसी से कुछ नहीं लिया. साहब...हम बाकी लोगों जैसे नहीं हैं. हम गरीब लोग हैं. ना हमारे आने पे कुछ होता है ना हमारे जाने पे कुछ बचता है. हम जिन्दगी में जो कर जाते हैं अपना बस वही रहता है. हमें तो जज्बातों में जीना आता है. यही एक जबान हमें समझ में आती है.
आपके पास बताने के लिए बहुत कुछ है. आपने सिर्फ खुद को रोक के रखा हुआ है कि किसी के आगे मुँह नहीं खोलेंगे. लेकिन जनाब इससे होगा क्या...? किसके लिए ये कुर्बानी दे रहे हैं आप...? दुनिया अपने बारे में हमेशा अच्छा बताना चाहती है. पहली बार कोई इन्सान मिला था मुझे जो खुद को इतना कम आँकता है. और आपको कह दूँ तो यही वजह है कि मैं आपकी जिन्दगी को किताब में लिखना चाहता हूँ. ताकि जब मैं उस किताब को देखूँ तो मुझे याद रहे कि इस महान शख्स ने मुझे यहाँ तक पहुँचाया है.
आपका एक जिद्दी शागिर्द
दिलशाद अहमद
आओ कहें...दिल की बात
कैस जौनपुरी
मुझे अफ़सोस है
जनाब शोएब साहब,
मुझे अफ़सोस है कि आपने अपनी जिद के आगे मेरे जज्बातों की कदर न की. आपके ऊसूल आप पर इस कदर हावी हैं कि आप किसी की भी बात नहीं सुनते. आप बड़े हैं, आपसे इतनी देर बहस करना मुझे भी अच्छा नहीं लगा. हमने साढ़े सात घण्टे बात की मगर नतीजा कुछ नहीं निकला. आप आपने उसूलों की दुहाई देते रहे. ऊसूल बनाना अच्छा है. इन्सान को आपने आप से तसल्ली रहती है लेकिन जनाब, ऐसे भी ऊसूल किस काम के जो किसी को अफ़सोस करने पर मजबूर कर दें...?
ठण्ड का मौसम था इसलिए मैंने सोचा, आपके लिए एक शॉल ले लेता हूँ. लेकिन आपने उसे कुबूल न किया. आपकी जिद कि आप किसी से कुछ नहीं लेते बड़ी अच्छी है. मगर कोई भी बात, कोई भी ऊसूल जिन्दगी के हर मौके पे काम नहीं आ सकते. और जहाँ तक मैं समझता हूँ जिन्दगी किसी जिद के सहारे नहीं जीयी जा सकती. और अगर ऐसा है तो वहाँ जिन्दगी नहीं हो सकती.
आप हमसे बड़े हैं. हम आपसे जिद नहीं कर सकते. लेकिन आप ये कैसे भूल जाते हैं कि हम आपसे छोटे हैं. हम आपके लिए कुछ कर तो सकते ही हैं ना...? पहली बार हमने आपके लिए कुछ करना चाहा था. हम तो बड़े खुश हुए थे कि आपने हमारी जिन्दगी में इतना अहम किरदार निभाया है. आज खुदा ने मुझे मौका दिया है तो हम भी आपने जज्बातों को एक शकल दे देते हैं. मगर आपने वो भी न करने दिया.
हम आपसे छोटे हैं. इसलिए आपसे ज्यादा बहस न कर सके. यही आप हमउम्र होते तो बात कुछ और ही होती. शायद आप इसे समझ सकें.
आप खुद को बहुत कम आँकते हैं. लेकिन आप दूसरों की नजर में क्या हैं इस बात का अन्दाज़ा आप नहीं लगा सकते हैं. भले ही आप बहुत बड़े हैं. मगर आपकी जिद है कि आपको जो लगता है उसे ही सही समझते हैं. अच्छी बात है लेकिन दूसरों के हाथ से मौका छीन कर फेंक देना कहाँ की अच्छाई है साहब...?
हम आपकी जिन्दगी पर किताब लिखने की ख्वाहिश रखते हैं. मगर आपने उसकी भी इजाजत नहीं दी. आपसे आपकी जिन्दगी के बारे में कुछ जानने की ख्वाहिश थी. वो ख्वाहिश भी ख्वाहिश ही रही. सब इसलिए है क्यूंकि आप जिद्दी हैं. किसी की नहीं सुनते हैं.
आपने शॉल कुबूल न की, न सही. लेकिन आप भी ये बात सुन लीजिए कि हम आपकी जिन्दगी पर किताब तो लिखके रहेंगे चाहे किताब एक ही पन्ने की क्यूँ न हो. जितना आपको जाना है, समझा है, उतना ही सही.
मुझे अफ़सोस इस बात का है कि मैं समझता हूँ कि मैं आपको जानता हूँ. जबकि हकीकत तो ये है कि मैं आपको जानता ही नहीं. आप थोड़े उसूलों वाले हैं, ये तो पता था. लेकिन आप इतने जिद्दी हैं ये नहीं पता था. और आपके बारे में कुछ भी जानने की कोशिश करो तो आप जवाब ऐसा देते हैं जैसे हम किसी तीसरे आदमी से आपके बारे में बात कर रहे हों. जैसे जब हमने पूछा कि “आपने शादी क्यूँ नहीं की...?” तो आपका जवाब था “रही होगी कोई बात...” हमने सोचा, शायद वो बात आपको तकलीफ देती है इसलिए ज्यादा जिद नहीं की. लेकिन मैं आपसे ये पूछता हूँ कि आपने किस हक से मेरी इंजीनियरिंग की फीस भरने का फैसला किया था...? मैंने तो नहीं कहा था आपसे...? मैंने तो बस आपको अपना इंजीनियरिंग का कॉल लेटर दिखाया भर ही था. मुझे तो उम्मीद भी नहीं थी कि आप मेरी जिन्दगी बनाने का फैसला सुनाने वाले हैं. ऐसा क्यूँ किया था आपने...? ऐसा क्या किया था मैंने...?
आज जब मैं थोड़ा सा आपके बारे में जानना चाहता हूँ. आपको कुछ देना चाहा तो मैं पराया हो गया. उन लोगों में शामिल हो गया जो आपके लिए बहुत कुछ करना चाहते थे मगर आपने कभी किसी से कुछ नहीं लिया. साहब...हम बाकी लोगों जैसे नहीं हैं. हम गरीब लोग हैं. ना हमारे आने पे कुछ होता है ना हमारे जाने पे कुछ बचता है. हम जिन्दगी में जो कर जाते हैं अपना बस वही रहता है. हमें तो जज्बातों में जीना आता है. यही एक जबान हमें समझ में आती है.
आपके पास बताने के लिए बहुत कुछ है. आपने सिर्फ खुद को रोक के रखा हुआ है कि किसी के आगे मुँह नहीं खोलेंगे. लेकिन जनाब इससे होगा क्या...? किसके लिए ये कुर्बानी दे रहे हैं आप...? दुनिया अपने बारे में हमेशा अच्छा बताना चाहती है. पहली बार कोई इन्सान मिला था मुझे जो खुद को इतना कम आँकता है. और आपको कह दूँ तो यही वजह है कि मैं आपकी जिन्दगी को किताब में लिखना चाहता हूँ. ताकि जब मैं उस किताब को देखूँ तो मुझे याद रहे कि इस महान शख्स ने मुझे यहाँ तक पहुँचाया है.
आपका एक जिद्दी शागिर्द
दिलशाद अहमद
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