रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य - जेब रे जेब

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जेब का आविष्कार किसने किया, यह तो अपन को पता नहीं, लेकिन जिसने भी किया वह कोई बहुत ही कुशाग्रबुद्धि व्यक्ति रहा होगा। जरा सोचिए कि यदि आपके...

जेब का आविष्कार किसने किया, यह तो अपन को पता नहीं, लेकिन जिसने भी किया वह कोई बहुत ही कुशाग्रबुद्धि व्यक्ति रहा होगा। जरा सोचिए कि यदि आपके कपड़ों में जेब न हो तो आप कैसे मैनेज करेंगे? नकदी कहाँ रखेंगे? पेन कहाँ खोंसेंगे? और जरूरी कागजात जैसे पहचान-पत्र, रेल या बस का टिकट, ड्राइविंग लाइसेंस आदि कहाँ रखेंगे? इन सारे असबाब को रखने के लिए जेब तो चाहिए न।

जब से जेब वजूद में आई है, ज्यादातर उसका इस्तेमाल पैसे-धेले रखने के लिए ही होता है। कोई-कोई लोग रुपये-पैसे, कार्ड और प्रियजन की तस्वीरें आदि रखने के लिए बटुए यानी पर्स का भी इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उसे भी साथ लेकर चलना हो तो आखिरकार जेब ही काम आती है। जब से हमने होश संभाला है, पैंट-कमीज, कुर्ता-पाजामा सब कुछ जेबदार ही देखते आए हैं। एक प्रकार से जेब सिले हुए कपड़े का अनिवार्य हिस्सा हो गई है। यहाँ भी एक बात गौर करने की है। परंपरागत मर्दाना कपड़ों में तो जेब का होना जरूरी है, किन्तु महिलाओं के कपड़ों में (जहाँ तक इस विनम्र लेखक को मालूम है) ऐसा कोई इंतजाम नहीं होता, गोया महिलाओं को रुपये-धेले लेकर चलने का कोई अधिकार ही नहीं। इससे अपने समाज में महिलाओं की माली हैसियत का पता चलता है। इस लिहाज से जेब हमारे समाज में महिलाओं की आर्थिक स्थिति पर एक मौन टिप्पणी करती है। लेकिन महिलाएँ भी पीछे क्यों रहें? उन्होंने इसका तोड़ निकाल लिया है। ज्यादातर महिलाएँ अब एक थैली अपने साथ लिए चलती हैं, जिसमें वे न केवल पैसे, बल्कि अपने काम का सारा असबाब, मेक-अप सामग्री, आइना-कंघा- सब समेटे रहती हैं। पान-तंबाकू, सुपारी-इलायची खानेवालियाँ अपनी थैली में यह सब असबाब भी सहेजे रखती हैं। पुरुषों ने अपनी जरूरत की सब चीजें जैसे चूना-सुरती रखने की चुनौटी, बीड़ी, सिगरेट, माचिस, लाइटर, पेन आदि जेब के हवाले कर दी हैं। इधर हाल में एक नई वस्तु ईजाद हुई है जो जन्म से ही जेब की सहूलियत के अनुसार बनी है। उसका नाम है मोबाइल फोन। महिलाओं ने इसे भी अपने पर्स में डाल लिया है। जिन्होंने नहीं डाला है वे इसे हाथ में लिए डोलती हैं। कुछ महिलाएँ इसे लॉकेट की तरह गले में भी लटका लेती हैं। लगभग साठ-सत्तर वर्ष पूर्व कुछ लोग जेब में ही घड़ी भी रखा करते थे। इसीलिए घड़ियों का एक जेबी संस्करण भी बनता था, जिसे लोग जेबी घड़ी कहते थे। चूँकि राष्ट्र-पिता महात्मा गाँधी ने सिले हुए कपड़े पहनना छोड़ दिया था, इसलिए वे इस जेबी घड़ी को कमर में खोंसते थे। सच कहें तो गाँधीजी बड़े दूरंदेश थे। वे ऐसा कोई वस्त्र ही नहीं पहनते थे, जिसमें जेब हो। न रहेगी जेब, न रहेगा जेब भरने-भराने का झंझट। उनके जो वारिस लोग थे, वे शेरवानियाँ और कुर्ते-कोट आदि पहनते थे, जिनमें भारी-भारी जेबें थें।

जब समाज में पढ़ाई-लिखाई का प्रचलन बढ़ा, तो प्रकाशकों- मुद्रकों ने जेब को ध्यान में रखते हुए अपने हिसाब से एक नवोन्मेषी उपाय किया। उन्होंने अपनी पुस्तकें छोटे आकार में छापनी आरंभ कीं, ताकि लोग उन पुस्तकों को जेब में रखकर चल सकें। यात्रा करते हुए पढ़ सकें। कई प्रकाशकों ने तो बकायदा अपने नाम के साथ ही पॉकेट बुक्स नत्थी कर लिया। निश्चय ही उनकी छापी पुस्तकें सस्ती और हल्की होती हैं। कुछ तो अपनी सामग्री के स्तर पर भी बेहद हल्की होती हैं। दुख की बात है कि हल्की सामग्री वाली पुस्तकें ही बिकती हैं जबकि सत्साहित्य चाहे जितना सस्ता और सुवहनीय हो, उसके पाठक अब भी अपने समाज में बहुत कम हैं। हाँ, तरह-तरह के चालीसा जेब में लिए घूमने का रिवाज अपने धर्मांध समाज में खूब है।

जेब, खीसा, गिरह और पॉकेट सब एक ही शै के पर्याय हैं। लेकिन गिरह की अर्थ-व्याप्ति थोड़ी अधिक है। सच कहें तो गिरह बिना सिले कपड़ों में लगाई जानेवाली गाँठ को कहते हैं, जिसमें लोग पहले मुद्रा और कीमती वस्तुएं बाँध लिया करते थे। बुजुर्ग महिलाएं अपनी गिरह में घर के दरवाजों और आलमारियों की चाभियाँ बाँधे घूमती थीं। बड़े-बूढ़ों की सीख को भी लोग गिरह में बाँध लेने की सलाह देते थे। मिर्जा ग़ालिब तो राह चलते सूझ जानेवाले अशआर को भी गिरह में बाँधते जाते थे। ठिकाने पर पहुँचने पर एक-एक गिरह खोलते जाते और उसमें बंद शेर को कागज पर लिखते जाते। भीड़ भरी जगहों, यात्रा आदि के दौरान गिरह में बंधी कीमती वस्तु को चुराने वाला गिरहकट कहलाता था। धीरे-धीरे गिरह का जमाना चला गया। लोग कपड़े सिलवाकर पहनने लगे। इन कपड़ों में जेबें बनने लगीं। गिरहकटों ने भी अपना प्रौद्योगिकी उन्नयन कर लिया और जेब काटने तथा पॉकेट मारने के काम में महारत हासिल कर ली। किन्तु नाम उनका अब भी वही यानी गिरहकट चल रहा है।

गिरहकटों से अपने धन को बचाने के लिए बहुत से लोग ऐसी बनियान पहनते हैं, जिसमें जेब सिली होती है। पहले मारकीन या साधारण सूती कपड़े से दर्जी द्वारा सिली गई ऐसी बनियानें दुकानों और ठेलों आदि पर मिलती थीं। व्यवसायी लोगों में इनका खूब प्रचलन था, क्योंकि उनको हर समय रुपये-पैसे का लेन-देन करना होता था। आम आदमी को तो पैसा देखना ही मयस्सर नहीं था। अब होजरी की बनियानें बनानेवाली कुछ कंपनियाँ भी थैली लगी बनियानें निकालने लगी हैं।

अच्छी कंपनियों की सिली-सिलाई पैंटों में बेल्ट के नीचे एक चोर जेब सिली रहती है। कभी जब अपने पास रुपये होते हैं तो उन्हें रखने के लिए इसका इस्तेमाल हम भी कर लेते हैं। वैसे अपने पास कभी इतने रुपये रहे नहीं कि अच्छी कंपनी की पैंट पहन सकें और सस्ती पैंट बनानेवाली कंपनियाँ ये जेब बनाती ही नहीं। उन्हें मालूम है कि जिस मरदुए के पास एक ढंग की पैंट खरीदने के पैसे नहीं हैं, उसे चोर जेब से क्या लेना-देना!

थैली की बात आई तो हमें अपना बचपन याद आ गया। स्कूल के अहाते में शहतूत के ढेर सारे पेड़ थे। बाहर निकलें तो कुछ ही दूरी पर पुरानी पहाड़ियाँ थीं, जिनपर झरबेरी के झाड़ फैले थे। हम शहतूत और बेर तोड़-तोड़ कर अपनी जेब में भर लेते और खूब मजे ले-लेकर खाते। घर जाते-जाते कमीज का हुलिया बदल गया होता। जेब वाले हिस्से में तरह-तरह के धब्बेदार चित्र बन चुके होते थे। ऐसा नहीं कि जो बच्चे लाल-लाल शहतूत अपनी जेब में नहीं रखते थे, उनकी कमीजें बिलकुल बेदाग बची रहती थीं। उनकी जेब पर स्याही के धब्बे बने होते थे, सस्ते कलम और बॉल पेन की मेहरबानी से। हम जब उससे भी छोटे थे और गाँव में रहते थे, तब तो थैली और भी काम की चीज थी। जब हम भड़भूजे के पास दाना भुनाने गई नानी, आजी या माई के पास पहुँचते तो वे हमारी जेब में ही गरम-गरम लैया-चना भर देतीं। और हम फुदकते हुए आधा दाना गिराते, आधा चबाते हुए खेलने चल देते।

जब से सयाने हुए हैं और सरकारी महकमों से काम पड़ने लगा है, तब से जेब की एक और उपयोगिता हम पर उद्घाटित हो चली है। बिना जेब गरम किए सरकारी लोग कोई काम नहीं करते। नगर निगम में हाउस टैक्स भरना हो, पानी-सीवर का कर अदा करना हो या बिजली विभाग द्वारा जान बूझकर ऊट-पटांग बनाए गए बिल को सही करवाना हो, तो बाबू की जेब गरम कीजिए। थाने में रपट लिखानी हो तो दीवानजी की जेब गरम कीजिए। गैस का कनेक्शन लेना हो तो एजेंसी वाले की जेब गरम कीजिए। बच्चे का एड्मिशन कराना हो तो स्कूल-कॉलेज वालों की जेब गरम कीजिए। लोन लेना हो तो बैंक वालों की जेब गरमाइए। ऐक्सीडेंट में जान गँवा चुके स्वजन की पोस्टमार्टम रिपोर्ट लेनी हो या मुर्दा घऱ से शव निकलवाना हो, बिना खिलाए-पिलाए कुछ नहीं हो सकता। यहाँ तक कि मुर्दा फूँकने जाइए, तब भी महापात्र की जेब गरमाए बिना चिता नहीं जलनेवाली। बच्चा पैदा हो तो जन्म प्रमाणपत्र बनवाने और बाबा मर जाएँ तो उनका मृत्यु-प्रमाणपत्र बनवाने के लिए भी बाबू लोगों की जेब गरम किए बिना आपका निस्तार नहीं। सुना है कि देश का हर बड़ा-छोटा आदमी इस कला में पारंगत हो चला है। इस लिहाज से जेब बड़े काम की चीज है। अब हम सोचते हैं कि यदि जेब न होती तो हम क्या गरम करके अपना काम निकलवाते! जिस समाज में येन-केन प्रकारेण जेब भरना ही हर किसी को जेब देने लगा हो, उस समाज की बलिहारी है। जिनके पास कभी जेब रही ही नहीं, वे इस बात को नहीं समझ सकते। सच्चाई तो यही है कि जबसे जेब वजूद में आई है, ईमानदारी ने दम तोड़ दिया है। इसीलिए गाँधी बाबा के कपड़ों में जेब थी ही नहीं और उनके बाद वाले भाई लोगों के कपड़ों में है। जो भी माई का लाल इस ओर भाई लोगों का ध्यान दिलाता है, उसे जेल भेज दिया जाता है। चुनाव आपको करना है- जेब चाहिए या जेल!

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डॉ. आर.वी. सिंह

आर.वी.सिंह/R.V. Singh
उप महाप्रबन्धक (हिन्दी)/ Dy. G.M. (Hindi)
भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक/ Small Inds. Dev. Bank of India
प्रधान कार्यालय/Head Office
लखनऊ/Lucknow- 226 001

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रचनाकार: रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य - जेब रे जेब
रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य - जेब रे जेब
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