दौर, जिसकी यह कहानी है, सुप्रीमकोर्ट की सरकार को डांट-फटकार का दौर है। नीरा राडिया के टेपों के सनसनीखेज खुलासों और विकीलीक्स के धमाकों का...
दौर, जिसकी यह कहानी है, सुप्रीमकोर्ट की सरकार को डांट-फटकार का दौर है। नीरा राडिया के टेपों के सनसनीखेज खुलासों और विकीलीक्स के धमाकों का दौर है। जनप्रतिनिधियों की सरेआम खरीद-फरोख्त और मठाधीशों के सुरा-सुंदरी खेल का दौर है। इस दौर में जो हो जाय, सो थोड़ा- 2 जी स्प्रेक्ट्रम से लेकर आदर्श सोसायटी घोटालों तक।...
ऐसा मजेदार दौर जिसमें हाथियों तक का कारोबार चल निकला है। सुंदरियां उनकी सूंड और पांवों से अपने नाजुक और कम नाजुक अंगों की मसाज कराने लगी हैं। तारिकाएं इतनी बोल्ड हो गई हैं कि अंतरंग शॉट्स मुकाबलों में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगी हैं। अपने हाई-हैडेड एटिट्यूड और मुंहफट होने के टैग की परवाह नहीं करतीं। इसी सुनहरे दौर में जब ‘जय हो, यह सदी भारत की है, विश्व में हम 121 करोड़ हो गए!' भरोसा इस सच्चाई में बदलता नजर आ रहा है कि- 21 वीं सदी हमारी होगी। दुनिया में आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहा हमारा देश, ज्ञान-विज्ञान-टेक्नोलॉजी में तो आगे है ही, अंतर्राष्ट्रीय खेलों में ही नहीं भ्रष्टाचार में भी शीर्ष पर चमक रहा है। तो यह विश्वविजय की दिशा में सबसे प्रभारी और प्रेरक कदम है।
बात इसी दौर की है, जब मध्यप्रदेश में टूरिस्ट बसों में स्लीपर कोचों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। प्रतिबंध लगा दिया गया है, मगर ट्रेवल एजेंसियां आरटीओ से सांठगांठ कर उन्हें सरेदस्त दौड़ा रही हैं।... मगर कहानी इससे तनिक पहले की है, जब यह प्रतिबंध लागू नहीं था। भवानी ट्रेवलिंग एजेंसी की टूरिस्ट बस क्रमांक एमपी-30 एमई 815 जो इंदौर से रात साढ़े आठ बजे जयपुर के लिए जा रही थी। उसमें सुमाली और परेश ने डबल स्लीपर लिया था। डबल स्लीपर ड्रायवर साइड अपर स्टोरी में होता है इन बसों में, नीचे चेयरकार सिस्टम। फिर गैलरी और तब कंडक्टर साइड में डबल स्टोरी सिंगल स्लीपर।
कहानी ड्रायवर साइड में अपर स्टोरी में बने एक डबल स्लीपर की है। यह डबल स्लीपर यानी दो सिंगल बेड एक साथ। यानी एक रूम। जैसे, एक जोड़े ने किसी लॉज में एक रूम ले लिया हो, रात भर के लिए।
बस, जिसे अपनी रफ्तार से रातभर दौड़ना था। कहीं-कहीं ढाबों पर चायपान के लिए रुकना भी था तो स्लीपरों से यात्रियों का निकलना, न निकलना उनकी मर्जियों पर था। कोई उन्हें सूचित करने या बुलाने वाला न था। कोई उनके स्लीपर के भीतर झांकने वाला न था। यानी कोई डिस्टर्ब करने वाला नहीं, यहां पूरी प्रायवेसी थी।
सुमाली और परेश पांच और छह नंबर के डबल स्लीपर में थे। जब से घुसे थे, बाहर निकले नहीं थे। इंदौर से चलकर फर्राटे भरती बस, ग्वालियर के बाद आगरा भी क्रास कर गई थी। एक कपल के बीच इतने सुरक्षित स्लीपर में क्या चल रहा होगा? क्या कर रहा होगा यह जोड़ा जो राकेश रोशन कृत काईट्स को देख चुका था। काईट्स, जिसमें हीरो की कमर पर हीरोइन उछल कर चढ़ जाती है। शॉट को पिता ने अपने पुत्र रितिक के लिए कितनी बार री-टेक कराया, इसका विवरण एक्सट्रा शॉट्स में मिल जाएगा। अंदाजा लगाइए कि सुमाली और परेश डबल स्लीपर में, इंदौर से जयपुर के बीच कौनसा शॉट दे रहे होंगे! तब तक पीछे की कहानी में उतरते है।...
सुमाली ने एमबीए किया है। और लॉन लेकर किया है। बीए/एमए को घर बिठाया जा सकता है। रिश्ता बैठ जाने पर डोली रवाना की जा सकती है उसकी। पर एमबीए को घर बिठा पाना, हिम्मत का काम नहीं। लड़की नौकरी नहीं करेगी तो लोन कैसे पटेगा? और समाज थूकेगा सो अलग कि- यही करना था तो एमबीए क्यों कराया? यों तो 20 लाख में भी इसके लिए लड़का नहीं मिलेगा! जॉब करने दीजिए, तभी राह बनेगी।...
सुमाली इकलौती जरूर है, पर पिता निठल्ले हैं, मां प्रायमरी टीचर। पुणे से एमबीए के बाद देवास में अंतर्राष्ट्रीय पहचान की दवा कंपनी रेनवैक्सी में र 5000 प्लस में नौकरी हासिल कर ली थी उसने।
देवास में मौसाजी रहते हैं उसके। हिंदी के रिटायर्ड प्रोफेसर। कलाकार कवि। कवि तीन तरह के होते हैं ना! दृष्टा, सृष्टा और कलाकार! कलाकार कवि, जो बाहर की दुनिया नहीं देखते। किताबें खंगाल कर ही उन्होंने चार काव्य, एक कथा, एक आलोचना और दो ग़ज़ल संग्रह तैयार कर लिए। गुरूर के इतनी धनी कि बेटा-बेटी, बीवी और रिश्तेदार तलक उनकी प्रताड़ना से नहीं बच सके...। समय के पंख लगाकर बेटा-बेटी तो उड़ गए, बीवी बंधन में बंधी घुटने को रह गई। सुमाली के आ जाने से जीवन में नवसंचार हो गया था। जैसे, कुछेक दिनों के लिए उनकी दुनिया बदल गई। लेकिन जल्द ही सेवानिवृत प्रोफेसर कवि को उनका यह सुख अखरने लगा। खीज उतारने बात-बेबात वे सुमाली को कसने लगेः
‘छृट्टी कितने बजे होती है?'
‘मीटिंग में क्या होता है?'
‘छह महीने में सैलरी कैसी बढ़ गई?'
‘आते ही पस्त पड़ जाती हो, वहां चहकती रहती होगी?'
‘बिना कहे कुछ करती क्यों नहीं?'
एक दिन तो हद हो गई, जब उन्होंने कहा कि- ‘विद्या ददाति विनयं, विनयाद याति पात्रताम्। पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मः तत् सुखम्।'
-अर्थात्! मुंहबाए रह गई वह। संस्कृत पल्ले न पड़ी। इंग्लिश मीडियम से थी। प्रोफेसर आंखों में आंखें डालकर ऐसे बोले, जैसे कोई विद्वान किसी मूर्ख पर झींकता हो, ‘ये हितोपदेश अब पुराना पड़ गया कि नहीं! इस उत्तर आधुनिक युग में उपलब्धियों का चक्र अब बदल गया कि नहीं! धन अब शरीर से प्राप्त होता है कि नहीं? शरीर के सारे अंग धनार्जन के श्रोत बन गए कि नहीं?... मोहम्मद रफी कौनसे पी-एच.डी. थे, बोलो? गले से कमाया कि नहीं?... जिसका जो अंग मेधावान है, उससे कमा रहा है कि नहीं? पंडित और वक्ता वाणी से, तो वकील-बिल्डर दिमाग से। मजदूर-सैनिक हाथ-पैरों से तो, नर्तकियां और सेक्स वर्कर दूसरे अंगों से।... ये अर्थयुग है, मैडम! हम सब समझते हैं...'
खिसिया कर वह मौसी के पास भाग खड़ी हुई। अपमान के कारण खाना नहीं खाया गया। उल्टी सांसें भरती रही। रात गए उन्होंने समझाई कि- उन्हें चढ़ गई होगी। सामान्यतः ऐसी बात तो नहीं करते।... निधि भी तो इसी घर में रही। बेटी-बहू वाले हैं। तुम भी बिटिया ही हो। कायदा जानते हैं। कवि हैं और बुद्धिमान भी।...' और उन्होंने हिकारत से कहा- पर औगुन बुरा शराब का... बकन दो। ऐसा बकते हैं तो अपने ऊपर पाप धरते हैं (मन में कहा- अपने मुंह में गू भरते हैं)। तुम ध्यान न दो।...'
मौसी के आगे के दांत निकल गए थे। फिर भी शोभा नहीं बिगड़ी थी। बुढ़ापे में वे और भी सुंदर और ममतामयी लगने लगी थीं। सुमाली अभी नवयुवती ही थी। 23-24 साल की। बूढ़ी मौसी की बात छोटी बच्ची की तरह मान गई। रोटी खा ली और मौसा के मन का मैल अपने मन से झटक कर पांव पसार कर सो गई। मगर दूसरे या तीसरे दिन दूधवाले की आवाज सुन हाथ में भगोनी लिए गेट की ओर लपकी तो गैलरी में हजामत का सामान पसारे मौसा जी के पानी के मग्गे को पांव से फुटबॉल की तरह उछाल बैठी।
एकदम आग-बगूले हो गए, वे तो।
अड़सठ ग्रीष्म, शरद झेल चुकी जर्जर काया आपे से बाहर! पांचफुटा बदन यकायक खड़ा हो बेतरह हफर-हफर कर उठा, ‘ऊंट-सा कद पा लिया तो, नीचे देखकर नहीं चलतींऽ! एमबीए को नीचे का संसार कीड़ा-मकोड़ा... दिखे तब न? मगर मैडम! कहे दे रहे हैं- किसी दिन औंधे मुंह गिरोगी, सो ये कपार फूट जाएगा।'
खैर। यह तो बड़ी चूक थी। मगर अब तो वे बात-बात पर बौखला जाते। सुबह से ही मूड खराब कर देते। फोन पर मां से कह देती वह, ‘हमसे अब सहन नहीं होता। एक टाइम खाते हैं, शाम की शाम। लंच टिफिन तो अॉफिस में ही आ जाता है।... एक कोने में सो लेते हैं। जो भी बनता हो इनका, डेढ़-दो हजार, पेईंग गेस्ट-सा, ले क्यों नहीं लेते? क्यों इतनी मालिकी झाड़ते रहते हैं हरदम! नाक में दम कर रखा है।... हम तो हॉस्टल में रह लेंगे, इंदौर में। अधिकारी लोग वहीं से अप-डाउन करते हैं। बस लगी है। एक कुलीग है, वो रूममेट बन जाएगी।'
मां पिता को समस्या बताती। और वे समझा देते- देखो, अब वहां से हटायेंगे तो रिश्तेदारी में दरार पड़ जाएगी। भाईसाब तो जनम के खिसके हुए हैं। बहू-बेटा-बेटी और भाभी जी तक को नहीं बख्शते। उनकी बातों पे क्या कान देना? सुमाली से कह दो, एक-दो साल काट लेने में ही अक्लमंदी है। कुंवारी नौकरपेशा लड़की पराये शहर में अकेली रहेगी तो चार अलबट्टे लगेंगे। अपने ही लोग उड़ाते फिरेंगे। जहां सुई न समाएगी, मूसल अड़ा देंगे।...'
यों बात आई-गई हो जाती।
इधर उनकी हरकतें बढ़ती जा रही थीं।... लाइट जाते ही, पंखा बंद कर देते। और भुनभुनाते, सो अलग कि- इन्वर्टर की बैटरी का तो मैडम को ख्याल ही नहीं।'
पानी पीने जाती तो परदे से झांकते कि- कहीं, प्यूरिट से तो नहीं निकाल रही! सख्त हिदायत थी, ‘स्टील टंकी से लिया करो। उसमें भी छान के भरा जाता है। या चलते नल से दो बोतलें भर के रख दिया करो फ्रिज में। प्यूरिट हमारे लिए छोड़ो ना। हम बीमार हैं। तुम्हारी आंत तो कच्चा-पक्का सब पचा जाती है, अभी।...'
-कपड़े बाथरूम में क्यों धोती हो?' वे आएदिन चढ़ लेते।
-हजार दफा कह दिया, आंगन की मोरी पे ले जाओऽ मैल और झाग से जाली रुक जाएगीऽ ...फिर ढूंढ़ते फिरो सफाई कर्मचारी को।'
कमाल है! वह माथा ठोक लेती। मन ही मन गुरगुराती, ‘इसीलिए भाभी चार-छह महीने में भी घंटे-दो घंटे के लिए ही आती हैं...और निधि दीदी तो देवास में रहते हुए भी सालों नहीं आतीं...'
पर उन्हें इसी में मजा था। जनम से एमोबिएसिस थी। पेट हमेशा दुखता रहता। दवाइयों के अलावा किसी ने दुर्गा शप्तशती का पाठ बता दिया था। सो, नहा-धोकर, पीली धोती पहन, दुर्गा के चित्र के आगे दीपक धर, 30 साल से नियमित कर रहे थे।... पर दारू एक दिन को भी नहीं छोड़ी। ज्यादा पाबंदी होती तो टॉयलेट में बैठकर गटक लेते।
हद थी! उसे घृणा हो गई थी। घिन लगती- वे ब्रह्ममुहूर्त से शुरू कर अभिजित तक 6-7 बार निबटने जाते। पांव धोए बगैर बिस्तर खूंदते। उनका घर! किचेन और पूजाघर में घुस आते। सोफे पर तलबे धर कर बैठ जाते। और असली हद तो तब हो जाती, जब वह रात को अपना पसंदीदा सीरियल देख रही होती, वे दबे पांव आकर रिमोट उठा लेते। अचानक चेनल बदल देते। बार-बार बदलते चले जाते। सुमाली कनखियों से देखती, उनकी कुनखुनी उंगलियों में फंसा नर्म चूजे-सा रिमोट और निश्वास छोड़ करवट बदल आंखें मूंद लेती।
उसके सोने का स्थान वही था। वे फेशन-शो तो कभी एचबीओ पर अटक जाते और मस्ती में वॉल्युम बढ़ा लेते।
सुमाली रात गए मां को फोन लगा के रुंआसी-सी बताती। वह समझाइश देकर बात सुबह तक के लिए टाल देती। फिर बात आई-गई हो जाती। घालमेल समझ में नहीं आ रहा था। कुछ न कुछ खुसुरपुसुर तो जरूर हो रही थी, पर तस्वीर साफ नजर नहीं आ रही थी। दिन पहाड़ से कट रहे थे। गर्मियों से बरसात और बरसात से फिर सर्दी आ गई थी। घर के आगे वाले गणेश मंदिर के उत्सव बीत गए थे, उसके बाद, शारदीय नवरात्र, दशहरा और दीवाली थी। सर्दियां जो कि यहां रहते दोबारा आई थीं, उनमें सैलरी पंद्रह हजार हो गई थी।... और ये वही दौर था, जिसमें प्रवचनकार गवैये और योगी जोकर हो गए थे! महीनों से चल रही खुसुरपुसुर का राज खुल रहा था। मौसाजी अपनी लफ्फाजी का इस्तेमाल कर किसी करोड़पति को फंसाने में कामयाब हो रहे थे। उन्हें फोन पर बकते उसने खुद सुना थाः
‘लारादत्ता देखी है...
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एक लफ्ज भी बेमानी पड़ जाए तो खल खिला देना साब! क्या कद है... मुझे तो गर्दन उठाकर बात करना पड़ती है। साथ चलता हूं तो लगता है, दरख्त के साथ चला जा रहा हूं।
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फिगर.... किसी ब्यूटीकॉन्ट्रेस्ट में बैठ जाती तो दूसरी ऐश होती, जनाब।
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जहीन है, हुजूर! पांच हजार प्लस पर आई थी, साल में तीन बार बढ़े। पंद्रह प्लस हो गई है...। हम तो प्रोफेसर थे, क्लास वन! साल में 500 रुपल्ली की वेतनवृद्धि लगती थी।
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सारे ग्रह शुभ हैं, महाराज। ललाट इतना ऊंचा कि आपके वारे-न्यारे हो जाएंगे।'
मम्मी-पापा सम्मोहित थे कि- र आठसौ करोड़ का बिजनेस है उसका। बिल्डर है और कारखानेदार भी। दो शादियां हैं, पर दोनों के लिए अलग-अलग जायदादें भी। जिस लड़के के लिए बात चल रही है, वो एक कंपनी में पार्टनर है, दूसरी का सीईओ। भोपाल-इंदौर में जो सोने भाव जमीन पड़ी है, उसका 1/8 बटनिया है, सो अलग।
‘हम नहीं करेंगे...' उसने साफ कह दिया।
‘क्यों?' उन्होंने प्रश्न का हंटर जड़ा।
‘हमें अपनी मम्मी का ख्याल रखना है। वे बीमार रहती हैं। और कौन है, जो देखभाल करेगा?'
‘शाबाश!' उन्होंने गोया मजाक उड़ाया, फिर उसे दबाया, बोलेः
‘एग्रीमेंट भरवा लोः- 1. मां का जीवन भर ख्याल रखेंगे 2. नौकरी नहीं छोड़ेंगे 3. एचआर कोर्स किया है, तुम्हारी कंपनी में एचआर मैनेजर बनेंगे...
और सुनो! चार प्लाट अपने नाम करा लेना और शादी की भी रजिस्ट्री कराना। बड़े लोगों का मामला है!' उन्होंने आंखें सिकोड़ीं।
मां, मौसी और पिता ने भी समझाई कि- बिरादरी भीतर करोड़पति मिल गया है, सिर मत उठाओ!
दिल पे एक बोझ-सा रख गया आकर। किस्सा सिरे से याद हो आया। पुणे में दो साल कब बीत गए, पता नहीं चला था। वह साथ ही एमबीए में दाखिल हुआ था। पहली बार दोनों कॉलेज में साक्षात्कार से पहले मिले थे। वह बहुत घबराया-सा लग रहा था। सुमाली ने ही बात के सिलसिले को आगे बढ़ाया था। बातों से पता चला कि वह भी कानपुर से ग्रेजुएशन करके आया है। तभी से अपनापन नजर आने लगा। परिणाम आने पर दोनों का चयन हुआ जान सुमाली खुशी से भर गई। उसका चेहरा पलाश के फूल-सा खिल गया। कुछ दिनों बाद क्लास भी शुरू हो गए। नये-नये दोस्त बन गए। समय पंख लगाकर उड़ने लगा। जब तक परेश से कुछ देर बातें न कर लेती, कुछ भी अच्छा नहीं लगता। क्लास के बाद दोपहर का नाश्ता और शाम की चाय साथ लेने के बाद वे दोनों अपने-अपने रूम में चले जाते। बिस्तर में घुसकर फिर मोबाइल पर बातें होने लगतीं। बातों-बातों में कई बार रात गुजर जाती। जिस दिन दोनों का बैलेंस चुक जाता, दिल उदासी से भर जाते। मिलने के समय तक कुछ भी अच्छा नहीं लगता।...
तब जाना किया प्यार हो गया है!
वैसे वह तो इतना चुप्पा और शर्मीला था कि शायद, ही कभी बोल पाता। ताज्जुब कि यह बात बोल गया! पर उसकी इसी जरूरी बात का सुमाली ने कोई उत्तर नहीं दिया। चेहरा गुड़हल का फूल जरूर हो गया उसका। जिसे वह समझा नहीं और डर गया कि अब शायद, आजीवन कोई बात न करे वह!
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वह तो पहले जैसी ही बनी रही। परेश के लिए यह आश्वस्ति की बात थी। सुमाली के मौन में वह स्वीकृति की धनक पा रहा था। आखिरी सेमेस्टर का एक्जाम देने के बाद वह घर जा रही थी। और वह इंस्टीट्यूट में ही रुक रहा था। क्योंकि उसकी बैक आ गई थी। वह चुपचाप उसकी बातें सुन रहा था। हालांकि वह उसकी तरफ देख नहीं रही थी, पर बातें उससे ही कर रही थी। पहली बार उसकी आंखें भरी-भरी सी थीं। शायद, यही सोचकर कि मैं तो कल सुबह चली जाऊंगी, अब वह अकेला कैसे रहेगा? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। रात देर तक नींद नहीं आई। सुबह ट्रेन थी। वह स्टेशन तक छोड़ने आया। उसकी सूरत और प्लेटफॉर्म धुंधला नहीं गया, तब तक लगातार देखती रही। फिर आंखों से धारे फूट चले। आखिर हफ्तों बाद फोन पर प्रस्ताव कुबूल कर लिया!
तब से रोज बात हो रही है। वह इतनी दूर जयपुर में लगा है तो क्या, लगता है, उससे करीब तो कुछ भी नहीं। जैसे, दिल के भीतर धड़क रहा है। हर सांस में समाया हुआ। एक बार तो मिलने के लिए देवास भी आ चुका है। उस दिन छुट्टी ले रखी थी सुमाली ने। मुलाकात माता की टेकरी पर हुई थी। वहीं का पता दिया था उसने परेश को।... गुलाबी सर्दियों के दिन। न धूप काटती, न छांव। टेकरी पर तो भीड़भाड़ भी नहीं थी उन दिनों। इक्का-दुक्का यात्री आ-जा रहे थे। दोनों इलाके के लिए ऐसे परिचित चेहरे भी न थे कि उंगली उठती। बातें और बातें। बातों से पेट ही नहीं भर रहा था। बैठे-बैठे दिन ढल गया। तब घूमने का इरादा बना। और परेश पहाड़ में उत्कीर्ण विशालकाय चामुण्डा को देखकर दंग रह गया। अर्ध चूड़ी के आकार की मूर्ति उसके सिर पर लटक रही थी- पंजे अधर में, भुजाएं दिशाओं में पसारे।... रोमांच से भरकर उसने बगल में खड़ी सुमाली को देखा। मन पगला उठा कि मुग्ध भैरव की तरह उसके युगल पदों में बैठ जाय। सुमाली ने आंखों की भाषा पढ़कर उसकी हथेली थाम ली। समय जैसे, थम गया। विराट में गोया, ढोल-मृदंग बज उठे। अब मुंह से कुछ बोलते नहीं बन रहा था। आत्मविस्मृत से दोनों मूर्ति को मुड़-मुड़ के देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। शाम घिर आई थी। नीचे सुंदर शहर जगमगा रहा था, ऊपर तारों भरा आसमान।...
बेशक, उस रात वह दस बजे के बाद घर पहुंची। पर एक अनोखी उपलब्धि से सराबोर। यह बात अलग कि मौसा जी ने बहुत गलीज और अश्लील अंदाज लगाया। यही कि वह अर्थोपार्जन में इस कदर लग गई है कि अपनी शुचिता को भी बिजनेस में झौंके दे रही हैः
‘सैलरी अब तो पच्चीस से ऊपर निकल जाएगी, तुम्हारी!?'
टॉयलेट में जाकर उसने सीट में थूक दिया- आदमी अपने अनुभव की रोशनी में देखता है! आपने जैसे, सेटिंग बिठाकर छोटे-मोटे पुरस्कार कबाड़े, थर्ड डिवीजन होकर भी क्लास वन बन बैठे, असरदार लोगों और प्रकाशकों से चेंट-चेंट कर जिस तरह किताबें छपवाईं; वैसे ही, उसी चश्मे से हमें देख रहे हैं!
करोड़ पति पार्टी से उसका रिश्ता बैठाने में भी कोई न कोई अवसर ताक रहे होंगे-वे!
मां को उसने उनकी कमीनगी और अपनी मजबूरी बताई। पर उसे भी जाने क्या स्वार्थ था, उस करोड़पति में! जो उसने परेश के साथ, बिरादरी बाहर के इस रिश्ते पर कतई नइंयां टेक दी। वह ब्लडप्रेशर और डाइबिटीज की मरीज। सुमाली जिद न कर सकी। रास्ता जैसे, आकाश से लेकर पाताल तक बंद हो गया! घबराकर उसने परेश को बता दिया। और उसने इंदौर आकर जयपुर के लिए स्लीपर कोच नंबर 815 में डबल स्लीपर ले लिया।... ठीक आठ बजे बमौरी अड्डे से वे दोनों उसमें चढ़ गए। और यह संयोग की बात थी कि जिस दम 28 साल का वनवास खत्म कर श्रीलंका को छह विकेट से हराकर हमने विश्वकप जीता। यानी आसमान पर लिख दिया भारत का नाम। देश आतिशवाजी के प्रायद्वीप में बदल गया। उसी दम यह हादसा हो गया। जब दोनों ने सल्फास खा लिया और सो गए। न ग्वालियर-आगरा में उठे, न बीच के किसी ढाबे पर। जयपुर में उस डबल स्लीपर से उनके शव जरूर निकाले गए! और तभी से प्रदेश में स्लीपर कोच प्रतिबंधित हो गए जो आरटीओ की आमदनी के मुस्तकिल श्रोत बन गए हैं।
000
20, ज्वालामाता गली, गढ़ैया, भिण्ड (मप्र)
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(चित्र - अमृतलाल वेगड़ का कोलाज)
पता नहीं आप असफल क्यों है.......
जवाब देंहटाएंएक सफल लेखनी को परनाम ........