गोकरण को भारतीय समाज में तीर्थ का दर्जा देने वाले भारतीयों को जब 21वीं सदी में गाय की महत्वता की याद में ग्राम गो-यात्रा निकालने की अनूठी ...
गोकरण को भारतीय समाज में तीर्थ का दर्जा देने वाले भारतीयों को जब 21वीं सदी में गाय की महत्वता की याद में ग्राम गो-यात्रा निकालने की अनूठी पहल की गयी तब हमें याद आते है 20वीं सदी में गो-साहित्य के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगा देने वाले ऋषि तुल्य साहित्यकार पं0 गंगा प्रसाद अग्निहोत्री की जिन्होंने वर्तमान ही नहीं भविष्य की चिन्ता करते हुये महान ग्रंथों की रचना की । कृषि-गोसंवर्धन को लेकर हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि करने वाले पण्डित गंगाप्रसाद अग्निहोत्री का जन्म श्रावण कृष्ण सप्तमी विक्रम सम्वत् 1927 (ंसन् 1870 ई0) को नागपुर के नयापुरा नामक मुहल्ले में हुआ था।
पं0 अग्निहोत्री के पिता पण्डित लक्ष्मणप्रसाद अग्निहोत्री उत्तरप्रदेश में रायबरेली जनपद के चव्हत्तर ग्राम से व्यापार के सिलसिले में नागपुर आकर बस गये थे।
पण्डित गंगाप्रसाद को अपने पॉच भाइयों तथा तीन बहिनों का बोझ सम्हालने के कारण मैट्रिक की शिक्षा बीच में छोड़कर नौकरी करनी पड़ी। सुप्रसिद्ध पिंगलशास्त्री जगन्नाथप्रसाद भानु के सहयोग से वर्धा में नकल-नवीसी की पहली नौकरी मिलने के साथ उनका सानिध्य प्रतिभा के विकास में बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ। भानुजी अपने छन्द-प्रभाकर नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की तैयारी कर रहे थे, इस ग्रन्थ के प्रणयन में अपना सहयोगी के रूप में रखा। छन्द-प्रभाकर के मुद्रण प्रकाशन का कार्य भी अग्निहोत्री की देख-रेख में काशी के भारतजीवन यन्त्रालय में हुआ। काशी के प्रवासकाल में श्री रामकृष्ण वर्मा, बाबू कार्तिकप्रसाद खत्री और बाबू श्यामसुन्दरदास के परामर्शानुसार मराठी के विख्यात निबन्धकर पण्डित विष्णुशास्त्री चिपलूणकर कृत निबन्धमाला का अनुवाद हिन्दी में निबन्धमालादर्श नाम से सन् 1894 में प्रस्तुत किया। गम्भीर निबन्धों की रचना की दिशा में हिन्दी साहित्य मेें यह पहला प्रयत्न था।
अग्निहोत्रीजी ने भी नकल नवीसी से नौकरी आरम्भ की और आगे वे रेवेन्यू इन्स्पेक्टर, सैटलमेण्ट सुपरिण्टेण्डेण्ड, नायब तहसीलदार आदि पदों पर उत्तरोत्तर शासकीय सेवा कार्य करते हुए छत्तीसगढ़ में कोरिया रियासत के दीवान बने तथा सन् 1910 में स्थानान्तरित होकर जबलपुर आ गये। यहॉ तहसीलदार के रूप में सेवा कार्य करते हुए सन! 1918-20 में पाटन तहसीलान्तर्गत देवी सुरैया स्टेट का प्रबन्ध मैनेजर कोर्ट आफ वाड्र्स के रूप में आपने कार्य भार सॅभाला। शासकीय सेवाओं से अवकाश मिलते ही आपकी सेवाएॅ रायबहादुर सेठ बंशीलाल अबीरचन्द ने सागर जिले में अपनी स्टेट टड़ाकेसली टप्पे के प्रबन्धार्थ प्राप्त की। इस सभा के उद्देश्य किसानों की समस्याओं और कृषि उपज बढ़ाने के उपायों पर विचार था। सागर गोवध-निवारक सभा की स्थापना हुई। गो संबर्धन के प्रति तत्कालीन भारतीय समाज को जार्गत करने के लिये गो साहित्य और कृषि साहित्य का वैज्ञानिक ढंग से लेखन करने के अतुलनीय कार्य में लग गये। आपकी लिखी पुस्तकों में किसानों की कामधेनु, किसानों के बालकों की शिक्षा, भारत की नागरिक जनता और गोपालन, भारत की किसानी की उपज एवं उसकी कमी, आपकी अॉखें कब खुलेंगी, सटीक सप्तश्लोकी गीता, संसार-सुख साधन आदि लघु-पुस्तिकाओं के अतिरिक्त लगभग पॉच सौ से अधिक लेख-निबंध-टिप्पणियों की रचना की। गंगाप्रसाद धुन के पक्के और मिशनरी जीवट के व्यक्ति थे। जीवन के उत्तरार्ध में जब वे गो- के साहित्य की रचना और प्रचार-कार्य में संलग्न थे तब पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों से रचनाओं का अनुरोध किये जाने पर एक छपा-छपाया कार्ड वे उत्तर में भेज देते थे- यहॉ पर कृषि-गोपालन पर ही साहित्य लिखा जाता है। मृत्यु के बाद हेतु उन्होंने यही इच्छा व्यक्त की कि गो-परिपालन सम्बन्धी उनकी पुस्तिकाओें की दस हजार प्रतियॉ निज व्यय से छपवाकर बिना मूल्य किसानों और ग्रामीणों में वितरित करा दी जाये। पं0 गंगाप्रसाद स्वाध्याय के लिए कृषि गोपालन सम्बन्धी पत्र-पत्रिकाएं एवं पुस्तकें विदेशों से मॅगाकर पढ़ते थे, समकालीन लेखकों, विद्वानों, सार्वजनिक नेताओं, जिनमें गांधीजी, राजेन्द्र बाबू और जमनालाल बजाज जैसे लोक-प्रसिद्ध व्यक्तियों तथा देश के विभिन्न भागों के नरेशों-श्रीमन्तों से भी उनका पत्र-व्यवहार गो साहित्य के विकास को लेकर चलता रहता था।
अग्निहोत्री उदारवादी दृष्टिकोण अपनाकर चलनेवाले विचारक थे। गो-पालन के प्रश्न पर उनका दृष्टिकोण धार्मिक भीरू नहीं था। वे इस विषय को विशुद्ध आर्थिक और व्यावहारिक स्तर पर स्वीकार्य मानते थे। केवल धार्मिक भावना के वशीभूत होकर गोवध-बन्दी के प्रश्न को उठाना उनकी दृष्टि में कारगर हल नहीं था। उन्होंने कहा भी था- गो-भक्तों की अन्धी गोभक्ति के कारण ही भारत में गोवध बढ़ता जाता है। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा भारत में गोवध की मात्रा को बढ़ती हुई देखकर यहॉ के गोभक्तों के गोरक्षक सभाएं पिंजरापोल खोलकर गोवध बन्द करने का यत्न किया है। उससे ताड़ भर ऊॅची गोवध की मात्रा में तिलभर रूकावट अवश्य हुई है, पर भारत का हित करने के लिए यह पर्याप्त नहीं है। इस कम रूकावट का कारण यह है कि आज तक गोवध बन्द करने के लिए जितने उद्योग और प्रयत्न किय गये हैं वे सब धर्ममूलक थे और है। संसार में धर्म को प्रेमभाव के साथ माननेवालों की संख्या बहुत कम रहती है। धर्म को धक्के लगाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवालों की ही संख्या अधिक रहती है। पर्याप्त गोरक्षा वही है जिससे भारत में दुधारू गौओं की संख्या करोड़ों के रूप में बढ़ाई जावे। अतः स्पष्ट है कि समस्या के प्रति उनकी पहल रचनात्मक ही थी, मात्र निषेधात्मक नहीं।
यद्यपि उनके समूचे गो-साहित्य का बहुलांष प्रचार-भावना से युक्त तथापि उनकी मूल भावना यही है कि देशवासी गोसेवा के आर्थिक पक्ष के ग्रहण कर अपने हित-साधन की दिशा में, स्वालम्बन की दिशा में, आगे बड़े। ग्रामों के क्रमशः विनष्टीकरण की जो प्रक्रिया आज तेजी से, चल रही है, उसकी भविष्यवाणी उन्होंने आज से साठ-सत्तर वर्ष पूर्व ही कर दी थी। इसलिए वे सदैव गोवंश के नस्ल-सुधार और ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था के सन्तुलन को बनाए रखने के पक्षधर रहे।
गंगा प्रसाद अग्निहोत्रीजी द्वारा रचित गोपरिपालन-सम्बन्धी साहित्य शहरों-गॉवों के अर्धशिक्षित-अशिक्षित जनसामान्य तक उनकी बात पहुंच सके, इसका ध्यान रखते हुए अत्यन्त सरल और बोधगम्य पद्धति में लिखा। उनकी अनेक कृतियॉ इतनी प्रचारित और प्रशंसित हुई कि हिन्दी से मराठी और गुजराती में भी अनूदित हुई। सन् 1931 में बम्बई की सुप्रसिद्ध संस्था गोरक्षा मण्डल द्वारा उन्हें उत्कृष्ट गोसाहित्य-सृजन के निमित्त रजत पदक प्रदान कर पुरस्कृत किया गया।
10 नवम्बर 1931 ई0 को इस दुनिया से प्रस्थान करने वाले महान गो-भक्त गंगाप्रसाद अग्निहोत्री द्वारा भारत की ऋषि परम्परा के बल पर देश को उन्नति के मार्ग पर ले जाने के साथ-साथ प्रकृति से तारतम्य बनाने का जो अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया गया आज दुनिया की सबसे बड़ी समस्या ग्लोबल वार्मिंग यानि धरती के सामान्य तापक्रम में वृद्धि को रोकने में सबसे अधिक सहायक है। जब दुनिया दिसम्बर 2009 में धरती को बचाने के लिये 192 देशों के 20 हजार प्रतिनिधियों के साथ कोपेनहेगन सम्मेलन में शिरकत करने वाले है तब उन्हें गाय की महिमा और इसके माध्यम से प्रकृति के संतुलन पर योगदान को एक बार फिर समझने के लिये बाध्य होना पड़ेगा।
-सुरेन्द्र अग्निहोत्री
राजसदन 120/132 बेलदारी लेन, लालबाग, लखनऊ
नोटः- आलेख लेखन में सहयोग-पं0 गंगाप्रसाद रचनावली- से लिया गया है।
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