पढ़ते-पढ़ते गीता के एक श्लोक ने मेरी नींद हराम कर दी थी- ‘य स्याहं अनुगृह्यामि हरिष्ये तद्धनं शनैः।' पुस्तक मैंने बंद कर के रख दी...
पढ़ते-पढ़ते गीता के एक श्लोक ने मेरी नींद हराम कर दी थी- ‘य स्याहं अनुगृह्यामि हरिष्ये तद्धनं शनैः।' पुस्तक मैंने बंद कर के रख दी और अपने गुरु को मोबाइल लगाया। जवाब मिलाः
‘‘अर्थ वही है, मास्टर! जो तुम समझ रहे हो...''
‘‘यानी जिस पर वह कृपा करेगा, धीरे-धीरे उसका धन हर लेगा...?''
‘‘अवश्य!''
‘‘धन के मानी, क्या; स्त्री-पुत्र, यश-कीर्ति इत्यादि भी...?''
‘‘इतना ही नहीं मास्टर, देह भी; वह भी तो धन ही है...''
‘‘फिर तो यह बहुत खराब कृपा है,'' मैं घबरा गया, ‘‘यह कृपा नहीं कोप है!''
वे चुप रह गये। कोई जवाब नहीं दिया। मैंने हैलो-हैलो किया तो धीरे से इतना ही कहा, ‘‘ईश्वर का नाम लेकर सो जाओ, मास्टर!''
नींद कहां थी?
आगे पढ़ने लगा। धीरे-धीरे समझ में आया कि- जब हर प्रकार का धन हर जाएगा, तभी तो मायाजाल से छुटकारा मिलेगा।... अपना जब कुछ नहीं बचेगा, अपना जब कोई नहीं दिखेगा, तभी तो उसकी ओर जा सकेगा जीव...।
तीन-चार दिन यों ही बीत गये। मन उखड़ा-उखड़ा सा था। शायद, पहले सब कुछ ठीक था, जब नास्तिक था। अपनी मेहनत, लगन, बुद्धि-बल पर बड़ा भरोसा था। अखण्ड आत्मविश्वास से लबरेज, जो चाहता कर लेता था। मगर जब से धर्म और गुरु की शरण में आया भीरु हो गया। पहले पुत्र और फिर नौकरी चली गई। यह कृपा थी कि कोप, पता नहीं चल रहा था।... बेचैनी के आलम में एक रात मैंने फिर मोबाइल लगा कर पूछा, ‘‘क्या इसीलिए, उसने मेरा पुत्र और आजीविका हर ली?''
लगा, वे कुछ अस्वस्थ थे। सांस को काबू में कर धीरे-धीरे बोले, ‘‘संसार केले का खंभा है, मास्टर! पत्ते छीलते जाओ... अंत में कोई आधार नहीं मिलेगा।''
फोन काट दिया।
दुबारा लगाया तो चेले ने अटेण्ड कर कहा, ‘‘महाराज जी की तबियत खराब है, मास्साब!''
‘‘क्या बीमारी है...?''
‘‘पता नहीं, नई है कि पुरानी उखड़ पड़ी है। सांस से बेहाल रहते हैं।''
‘‘वहां ठण्ड भी तो बहुत है। इस बार तो वैसे भी टेम्परेचर शून्य से नीचे चला गया... तिस पर तालाब के किनारे बगिया में कुटिया। तपा दिया करो जरा ढंग से।''
‘‘संन्यासी को अग्नि वर्जित है...'' उसने कहा और फोन काट दिया।
मुझे चिंता होने लगी। बाबा का सुदर्शन स्वरूप मेरी आंखों में छाकर रह गया। गजब के खूबसूरत हैं। दैहिक सौष्ठव से उम्र का पता नहीं चलता। भारती पंरपरा के संन्यासी होने से दाढ़ी-मूंछ और सिर के बाल सदैव घुटाकर रखते, सो काले-सफेद बालों के अनुपात का अनुमान नहीं लगता। गाल भरे हुए, ललाट पर कोई शिकन नहीं। न कानों की लोरियां हिलतीं, न आंखों के नीचे झांइयां। बांहें लंबी और सुडौल। त्वचा चिकनी चमकदार और गुलाबी आभा लिए हुए। अक्सर उघारे बदन रहते, सो चौड़ी छाती, पतला पेट और पतली कमर पर बंधा केसरिया पटका बड़ा आकर्षक लगता। अर्ध पद्मासन में विराजमान होते तो गुलाबी पंजे, अंगूठों के चमकीले नख और लाल तलबे मन को मोह लेते।
तीन-चार दिन बाद मैंने फिर फोन लगाया, पूछा, ‘‘तबियत कैसी है-अब?''
‘‘तबियत, क्या बताएं, ठीक ही है, मास्टर!''
‘‘आप आ जाते तो किसी अच्छे डॉक्टर को दिखला देते...''
‘‘कहां?''
‘‘यहां, ग्वालियर में।...''
‘‘हम तो तीन-चार दिनों से ग्वालियर में ही हैं।''
‘‘अरे! बताया नहीं... दिखलाया किसी को? कहां पर ठहरे हैं? मैं आ रहा हूं...''
‘‘आने को आ-जाओ, हम तो अब जा रहे हैं...'' कहकर पता बता दिया।
कितने निष्ठुर हैं, आप! मैं कटकर रह गया। मगर बाइक उठाकर तुरंत पहुंच गया। बाबा एक शिष्य के तलघर में तख्त पर लेटे थे। वे नजदीक ही कहीं स्टेशन मास्टर थे। उस वक्त ड्यूटी से नहीं लौटे थे। पर उनका परिवार बाबा की सेवा में तत्पर था। लड़कियां, लड़के, पत्नी। मैंने कदमों पे सिर झुकाया तो वे उठ कर बैठ गये। चेहरा मुरझाया हुआ था।
‘‘क्या हो गया है, आपको?'' मैंने दुखी स्वर में पूछा।
‘‘परमात्मा की कृपा है...'' उन्होंने मंद स्वर में कहा। फिर खंखार कर थूक घोंटा।
सामने सोफे पर गांव का ही एक लड़का बैठा था जो यहां वकालत करता है। मैं उसे इशारे से उठाकर बाहर ले गया। धीमे स्वर में पूछा, ‘‘कोई गंभीर बीमारी तो नहीं है, इन्हें?''
‘‘नहीं...''
‘‘जांच करा ली?''
‘‘डाइबिटीज है...''
‘‘और...?''
‘‘बीपी भी बढ़ा हुआ है...''
‘‘और...?''
‘‘सदी-जुखाम, बस!''
‘‘किसको दिखाया...?''
‘‘पुराने एमडी हैं, पहले जेएएच में थे, अब रिटायर्ड हैं, सहारा हॉस्पीटल के बगल में क्लीनिक है उनका।''
‘‘चलो।'' मैं उसे लेकर वापस तलघर में आ गया। बाबा को देख-देख कर मन बड़ा आहत हो रहा था। मैंने कहा, ‘‘आप तो जड़ी-बूटियां भी जानते हैं, इसमें करेले का जूस बड़ा फायदा करता है...''
उन्होंने फिर गला साफ किया, थूक घोंटा और बोले, ‘‘एक बीमारी हो तो साधन बने, मास्टर! ये करो तो वो बढ़ जाती है वो करो तो ये... हृदयरोग भी तो है।''
‘‘बापरे!'' मेरे मुंह से निकला, ‘‘कभी बताया भी नहीं...?''
‘‘क्या हो जाता बता के, संसार केले का खंभा है...'' कहते सांस बढ़ गई।
मैंने व्यथित हो अपना हृदय थाम लिया।
कार आने में देर हो रही थी, शायद! वकील को उन्होंने इशारा किया तो उसने फिर फोन लगाया, बताया, ‘‘पंद्रह-बीस मिनट और लगेंगे अभी।''
शाम घिर रही थी। सर्दी बढ़ रही थी। शनैः शनैः उनका श्वास भी तेज होता हुआ। मैंने अपनी धारणा के मुताबिक कहा, ‘‘सर्दी बहुत है, वहां! कुछ दिन यहीं क्यों नहीं रह जाते आप! मेरे घर। अच्छी धूप मिल जाती है, बरामदे में।...''
‘‘घरों में विधि बनती नहीं है, मास्टर!''
‘‘मगर सर्दी ने तो आपका दम फुला रखा है...'' मैंने अपनी पीड़ा का उलाहना दिया।
‘‘सर्दी कारण नहीं है, मास्टर!'' गोया, वे मेरी अक्ल पर या अपने मन की न समझा पाने को लेकर घिघियाते-पछताते से बोले।
फिर क्या वजह है, सिर झुकाकर मैं अपने मौन में सोच उठा। कोई साधना, कोई व्याधि! किसमें उलझे हैं, आप!' मैंने चेहरा उठाकर देखा।
वे मुझी को देख रहे थे। ऐसी आंखों से कि मैं डर गया। चेहरा झुका लिया। फिर थोड़ी देर बाद विषयांतर कर बोला, ‘‘कितने ताज्जुब की बात है कि संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अपने भाई से कहता हैः घन घमंड नभ गरजत घोरा, प्रिया हीन डरपत मन मोरा!'' कहकर मैंने नजरें उठाईं तो बाबा ने आंखें फेर लीं।
मैंने अपना माथा पीट लिया कि- मैंने बिना सोचे-समझे यह क्या कह दिया!
बाहर से लड़के ने आकर कहा, ‘‘कार आ गई।''
बाबा बोले, ‘‘हमारा झोला ले आओ।''
अंदर से कपड़े का झोला आ गया उनका। उसमें एक पजामी, एक सूती चादरा और एक तौलिया था। तीनों केसरिया रंग में रंगे हुए। बाबा ने पजामी निकाल कर पहनने के लिए तख्त के नीचे दोनों पांव लटका लिये। मैंने मदद करके पजामी उन्हें पहनवा दी। चादरा उन्होंने ओढ़ लिया तो तौलिया मैंने उनके कंधों पर डाल दिया।
श्वास अब अच्छी तरह खुल चुका था। आंखें निकली पड़ रही थीं। खड़े होते ही लड़खड़ा गये। तब मैं चेता और उन्हें सहारा दे कार तक ले चला। जीभ मानी नहीं, बोला, ‘‘कितना हृष्टपुष्ट था ये शरीर।...''
‘‘शरीर तो हम एक बार फिर वैसा ही कर लेंगे... 18-20 रोज से कुछ खाया नहीं है... एक महीने से सोए नहीं...''
‘‘अरे!'' आश्चर्य से मूर्खों की तरह मेरा मुंह खुला रह गया।
जो लोग लेने आये थे, वे भी शिष्यगण ही थे। कार के दरवाजे खोले खड़े थे।... उस रात वे उनके साथ चले गये। उनके साथ, मगर अपने आश्रम पर ही। ताल के किनारे बगिया स्थित कुटिया में। जिद की इंतहा थी यह। मुझे सोने से पहले तक बेचैनी बनी रही, फिर भूल गया। अगले दिन दोस्त की बेटी की शादी में गंजबासोदा जाना था। पंजाब मेल पकड़ कर मैं वहां चला गया। दूसरे दिन शाम को लौटा। थकान और जगार के कारण बिस्तर में घुसते ही सो गया। रात में साढ़े तीन बजे मोबाइल की घंटी बजी तो मैंने उसे नींद की बेहोशी में काट दिया। मगर घंटी थोड़ी देर बाद रिपीट हुई। आंखें खोलकर मैंने देखा तो बाबा का नाम ‘मन मोहन भारती' चमक रहा था। अंगूठे से बटन दबाकर, मोबाइल कान से लगाकर मैंने, ‘महाराज जी, प्रणाम... कहा'। जवाब में, ‘मास्साब, महाराज जी तो खतम हो गये...' कहकर कोई रो पड़ा।
‘‘कब?'' मैं एकदम घबरा गया।
‘‘तीन-सवा तीन बजे...''
‘‘एऽ अब मैं क्या करूं...'' मेरे सीने में तेज दर्द उठ खड़ा हुआ।...
फोन कट गया। कोई जवाब नहीं मिला।
पहली मुलाकात याद हो आई और तमाम बेतरतीब बातें...
-मास्टर, तुमने वो कौन सा वैज्ञानिक बताया था जिसने ईश्वर की जगह गुरुत्वाकर्षण को ब्रह्माण्ड का जनक ठहरा दिया है?
-स्टीफन हॉकिंग।
-तो सुनो, मास्टर! मैं ये दावे से कहता हूं कि परमात्मा है और...
-हां, महाराज जी... जी, महाराज जी, अवश्य है!' मैंने जैसे-तैसे फोन बंद कराया, रात का डेढ़ बज रहा था।
ऐसे ही एक बार और...
-मास्टर, कल आश्रम पे नईं आये तुम, गुरुपूनों थी!
-कल...' मैं रो पड़ा, ‘बेटा खतम हो गया, महाराज जी!'
-कैसे?
-एक्सीडेंट से...
-अरे, बुरा हुआ। ...पर तुम शोक नहीं करो। आप तो बुद्धिमान हैं। ना जाने वो कितनी बार आपका पिता बना होगा, कितनी बार पुत्र। संयोग-संस्कार होगा तो आगे भी मिलेगा। मृत्यु अंत नहीं है, मास्टर!
फिर मैंने नौकरी छोड़ दी और उन्हें बताया तो बोले...
-ठीक ही किया, अब रूखी-सूखी में गुजर कर ईश्वर का भजन करो। संसार में इस जीव को स्वप्न में भी विश्राम नहीं मिलता, मास्टर! कल्याण भजन के सिवा और किसी बात में है नहीं...।
कितनी मुश्किल से सबेरा हुआ, मैं बता नहीं सकता। बीच में उचटती-सी नींद भी आई तो स्वप्न में कुटिया पर जा पहुंचा। शोकाकुल लोगों की भीड़ लगी हुई थी। मैं जार-जार रो रहा था। तभी राख से बदन वाले बाबा आ गये। राख की आंखें, राख के नख, राख के दांत और राख के ही रोमों वाले! मैंने पूछा- आप तो मर गये थे, क्या फीनिक्स की तरह अपनी राख से उठ खड़े हुए हैं?
-हां! शरीर असमय चला गया। समय जब तक पूरा नहीं होगा, यहीं रहूंगा। तुम सबके भीतर। जब चाहोगे, महसूस कर लोगे। जब चाहोगे, पा लोगे।...
-अरे, आपने तो मौत को भी ठेंगा दिखा दिया... मैं बेकार रो रहा था!
-बेकार ही... बिल्कुल बेकार! मृत्यु किसी काल में दुख का हेतु ही नहीं! मृत्यु शरीर की होती है... जिसे विश्वास न हो, मरकर देख ले!
हिम्मत बांधकर मैं उठा। बाइक उठाई। पत्नी को लेकर कुटिया पर आ गया। ठंडी हवा से राह भर हम थर-थर कांपते रहे। सड़क से आश्रम के लिये साधन नहीं मिलता, इसलिये! नहीं तो जनवरी के पहले हप्ते की सुबह सचमुच भयानक होती है। मगर ऐसी ठंडी में भी आश्रम पर लोगों का तांता लगा हुआ था। गांव के लोग ही नहीं, बाहर के भी तमाम लोग अपनी बाइकों से आ चुके थे। बाहर एक कार भी खड़ी थी। पता चला- गुरुमाता, उनका पुत्र तथा पुत्रवधु भी आ चुके थे। बाबा का विमान बैंडबाजे के साथ गांव में दर्शनार्थ ले जाया गया था। बगिया में समाधि की तैयारी चल रही थी। शिव मंदिर के सामने ही कबरखुद्दू जो कि एक मुसलमान था, फांबड़े से गड्डा खोद रहा था। ताल के उस पार पूरब दिशा में नारंगी सूरज आसमान पर काफी ऊंचा चढ़ आया था। आज से पहले, प्राची में वह जब अपनी गुलाबी आभा में फूट रहा होता, बाबा इसी ठौर पर सूर्याभिमुख हो, नेत्र मूंद, हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते। बाल रवि की आभा से उनका उघारा बदन गुलाब-सा दमकता।...
भूमि पर कुछ औरते गुरुमाता और उनकी पुत्रवधु को घेरे बैठी थीं। सभी की आंखें आंसुओं से नम और चेहरे विषादयुक्त थे। बाबा का गृहस्थ जीवन अति अल्प था। मात्र चार वर्षीय। पुत्र को गर्भ में छोड़ आये थे। फिर कभी पलट कर नहीं देखा। संन्यास ले लिया तो ले लिया। माता, पिता, पत्नी और रिश्तेदार लेने भी आये, पर लौटे नहीं।
और अब चोला भी छोड़ गये।
देह पर मुग्ध हो, मैं कभी-कभार पूछ बैठता- शरीर से आपकी आयु का पता नहीं चलता... कितने के होंगे?
-अरे, मास्टर! तुम भी पत्रकारों जैसे सवाल करते हो। पता है, उनकी तनखा और साधु की जाति-आयु नहीं पूछी जाती।
-पर जाति तो आपकी खुल गई...
-खुल गई तो खुल गई, वे मौज में कहते- लगाओ अंदाज, कितने के होंगे हम!
-पता नहीं... पर ये तो है कि मैं आपसे पहले जाऊंगा।
-ये कोई नहीं कह सकता... वे पंजा हिलाकर दृढ़ता से कहते।
बैंड की ध्वनि करीब आ गई। मतलब, उनका विमान लौट आया था। देखने के लिये मैं उठकर बगिया के बाहर आ गया। गुरुपूर्णिमा पर जैसा उनका श्रृंगार कर, हार-फूल पहना तख्त पर बिठाया जाता, वैसा ही सजाकर ट्रेक्टर पर बिठाया गया था, उन्हें। मगर आज उनकी गर्दन पकड़े होने के बावजूद ढुलकी पड़ रही थी। ओठ पपड़ा गये थे। कंचों से चमकते रहने वाले गुलाबी नेत्र मुंदे हुए थे। जैसे, कहीं गहरा गोता लगा गए हों... ध्यान टूटने का नाम ही नहीं ले रहा था।
रात को एक बार फोन पर कहा था, उन्होंने, ‘‘मास्टर, हमारी गणना हो रही है...''
‘‘कैसे जाना महाराज?'' सुनकर मैं चक्कर में पड़ गया।
‘‘ऐसे कि- अब विघ्न पड़ रहे हैं।''
‘‘अरे!''
‘‘हां! विघ्न बढ़िया होते हैं। परमात्मा परीक्षा लेने लगे तो समझो गिनती में आ गये तुम।...''
‘‘हां, सो तो है।'' मैं लोहा मान गया।
ट्रेक्टर से जब उन्हें उतारा जा रहा था, बाहर से एक कार आकर रुकी। कार से दो-तीन पुरुष और एक वृद्धा उतरी, 80-90 बरस कीं। वे इतनी बेहाल हो रही थीं कि देखते नहीं बन रहा था। बाल बिखर गये थे। पल्लू गिर गया था। शायद, राह भर रोते रहने के कारण उनका गला रुंध गया था। बाबा के पास आकर उनके शव पर, अचेत हो वे गिर पड़ीं।
जानकार बताने लगे कि वे उनकी मां हैं।
बगिया में उनके शव के आते ही भूमि पर बैठी औरतें सिसक उठीं। पुत्रवधु की गोद में उसका दो-ढाई साल का बालक था, बाबा का नाती। उसे छोड़ सब की आंखें भीग रही थीं।
बाबा ने एक बार कहा था कि- मोह ही सारी विपत्तियों का मूल है। अज्ञान के कारण मनुष्य के हृदय में ही इसने अपना वास-स्थान बना लिया है।' वे ठीक कहते होंगे, मैंने उनके चोटी काट शिष्यों को निर्लिप्त भाव से उन्हें समाधि दिलाते देखा। पुत्र और परिजनों को यह हक नहीं था। वे साधु थे और साधु की भांति ही शिष्यों द्वारा उन्हें अभिषेक उपरांत जमींदोज किया जा रहा था, पुत्र द्वारा दाहकर्म नहीं।...
गुरुमाता यानी उनकी पत्नी से कहा गया कि आप अपना सुहाग उतार के उनके चरणों में रख दो। कदाचित बदहवास-सी वे उठीं। लुढ़कती-सी गड्डे में उतरीं। गोया, नीम बेहोशी में अपने सुहाग चिह्न उतारे। बेखुदी में उनके चरणों में रखे। और नींद में चलती-सी लौट आईं। आंखें पथराई हुई थीं। आंसू 32 साल पहले सूख गये थे।
मेरे पुत्र के देहांत पर बाबा ने कहा था कि- जीवात्मा अकेला ही आता-जाता है। रिष्ते-नाते यहीं जुड़ते हैं, यहीं धरे रह जाते हैं। ज्ञानी जन परिगमन का शोक नहीं करते।'
पर मैं, और समूची भीड़ देख रही थी कि एक औरत, अत्यंत करुण विलाप करती चली आ रही थी... उसके चीत्कार और रुदन से सब के दिल दहल रहे थे...। वह इसी गांव की औरत थी जो कल जेल में अपने बेटे से मिलने गई थी। पुलिस ने उसे एक झूठे कत्ल केस में फंसा कर उम्र कैद की सजा करा दी थी।
वह प्रोढ़ा बाबा के सहारे अपनी जिंदगी काट रही थी, दोनों वक्त उनके लिये खाने का टिफिन भेजकर।... यही उसकी दिनचर्या थी। यही घर-संसार। और एक आस भी कि उसकी इस सेवा से दयालु ईश्वर एक न एक दिन उसके बेटे की सजा माफ करा देगा।...
अनाथ की तरह रोती-रोती वह औरत, समाधि के लिए खुदे गड्डे से निकली मिट्टी के ढेर पर गिर कर अचेत हो गई।
दृश्य देखे नहीं जा रहे थे। वे न जाने कितनों की आस तोड़ गए थे, कितनों को अनाथ कर गए थे।... मैंने इशारे से पत्नी को बुलाया और बाइक उठा कर लौट आया।
शाम को उनके एक गृहस्थ शिष्य ने फोन किया कि- परसों बैठक में आ जाना, मास्साब! चबूतरा, मूर्ति, संत भण्डारे का कैसे-क्या होगा, इस पर चर्चा कर लेंगे।''
‘‘उस रात तुम्हीं उनके पास थे?'' मुझे भारी जिज्ञासा थी, मैंने पूछ लिया।
‘‘हां! शाम को महाराज जी ने फोन करके हमें ही बुला लिया था। कोई साधन नहीं मिला रात में... सड़क से आश्रम तक पैदल ही आये।''
‘‘रात ज्यादा हो गई थी?''
‘‘साढ़े नौ-पौने दस बज गये होंगे। मंदिर पे आरती तक नहीं हुई थी। सब उदास बैठे थे। हमने करवाई। फिर बाबा ने सबको विदा कर दिया...।
‘‘महाराज जी ने गुफा में प्राण त्यागे?''
‘‘नहीं, गुफा के अंदर तो वे दो-ढाई महीने से नहीं गये थे।... ऊपर ही। तख्त पर। हमसे कहते रहे, सबेरे तुम्हारे साथ चलेंगे। अच्छे डॉक्टर को दिखवा देना। इलाज लेना पड़ेगा-अब तो!''
‘‘फिर...?'' मेरी सांस अटक रही थी।
‘‘सांस धौंकनी की तरह चल रही थी। बैठे थे। पीठ में दर्द बता रहे थे। हम हाथ फेर रहे थे। अचानक रात तीन बजे के लगभग हमारी गोद में आ गये! अरे- महाराज जी, ये क्या कर रहे?!' हम आश्चर्य-चकित रह गये। तभी उनके दांतों की आवाज आई, एक हिचकी और प्राण निकल गए।''
फोन काट दिया मैंने। राम का भयभीत चेहरा आकार ले उठा, जो किष्किंधा पर बादलों की गर्जना सुन सहम गया था।
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20, ज्वालामाता गली, गढ़ैया, भिण्ड (मप्र)
email- a.asphal@gmail.com
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(चित्र - नीरज की कलाकृति)
ए असफल ......... श्याद ये लेखक का नाम है....
जवाब देंहटाएंपर मैं नहीं जानता...... आज पहली कहानी पढ़ी है... एक बार तो मूक कर दिया....
गुरु - इस जीवन में अनिवार्य है. या नहीं.
हृदय में कई उतार चढ़ाव को जन्म दे गयी ये कहानी.
रोचक कहानी!
जवाब देंहटाएंभाव विह्वल कर देने वाली..
जवाब देंहटाएंराजा, राणा, छत्रपति, हाथिन के असवार,
जवाब देंहटाएंमरना सबको एकदिन, अपनी अपनी बार,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
रोचक कहानी!
जवाब देंहटाएंलिकं हैhttp://sarapyar.blogspot.com/
अगर आपको love everbody का यह प्रयास पसंद आया हो, तो कृपया फॉलोअर बन कर हमारा उत्साह अवश्य बढ़ाएँ।
मुझे शायद ये पता नहीं है की आप किसी मिशन, संस्था या गुरु- शिष्य के रिश्ते से जुड़े हुए हैं , लेकिन जो कहानी है उस का मर्म बहुत ही विचलित करने वाला है / मेरे कहने का मतलब उतार चढाव से परिपूर्ण एक ह्रदय को झंकृत करने वाली कहानी
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