"सी ताजी की वंश परम्परा और मातृभाषा के प्रश्न को हल करने के बाद अब अंग्रेजी को हनुमानजी की मूल मातृभाषा सिद्ध करना ही हमारा एकमात्र परम...
"सीताजी की वंश परम्परा और मातृभाषा के प्रश्न को हल करने के बाद अब अंग्रेजी को हनुमानजी की मूल मातृभाषा सिद्ध करना ही हमारा एकमात्र परम पावन कर्त्तव्य शेष रह जाता है। " ... इसी व्यंग्य से.
माननीय श्री प्रकाशजी की स्थापना - आदिकवि महर्षि वाल्मीकि के अनुसार अशोक वाटिका में हनुमानजी ने भगवती सीता के पहली बार दर्शन करते समय उनसे देव भाषा संस्कृत के बजाय मनुष्यों की भाषा में बातें की थी। रामायण लिखे जाने के बाद से अब तक पण्डितगण बराबर इस विषय पर बहस करते रहे हैं कि आखिर वह कौन सी लोकभाषा थी जिसमें सीताजी ने हनुमानजी से बातें की थी। इस विषय पर प्रकाश डालते हुए माननीय श्रीप्रकाशजी ने कहा था कि हनुमान जी ने सीताजी से तमिल भाषा में बातें की थीं।
माननीय श्रीप्रकाश ने यद्यपि अपने तर्क की व्याख्या नहीं की फिर भी हमारे सुनिश्चित अनुमान से उनके तर्क का आधार निम्नलिखित बातें हो सकती हैं - (1) हनुमानजी उत्तर भारत की भाषाएं नहीं जानते थे (2) अशोक वाटिका में सीताजी की परिचर्या करने वाली दासियां चूकि तमिलभाषी थीं इसलिए सीताजी को तमिल भाषा बोलने समझने का अभ्यास हो गया था। (3) दक्षिण भारतीय होने के कारण हनुमानजी तमिल अवश्य ही जानते होंगे। इसलिए दोनों की बातचीत तमिल भाषा ही में हुई थी।
हमारी शंका ( 1) दक्षिण भारत में इतना हिन्दी प्रचार कार्य होते हुए भी हनुमानजी ने हिन्दी क्यों नहीं पढ़ी ? क्या हनुमानजी का द्रविड मुन्नेत्र कड़गम से कोई सम्बन्ध था (2) इस बात का क्या प्रमाण है कि अशोक वाटिका में सीताजी की परिचर्या करने वाली स्त्रियां तमिलभाषी ही थीं? और यदि यह मान भी लिया जाए कि त्रिजटा आदि तमिलभाषिणी थीं तो भी एरिस्टोक्रेट राजपुत्री राजवधू सीता अपने लिए ‘सीता अंबा’ के बजाय ‘चीता अम्मा’ सुनकर अपनी आपात्कालीन उदार नीति के बावजूद उसे कदापि सहन न कर पातो होंगी। किसी बात के ऊपर यदि एरिस्टोक्रेट की नाक पर बारीक सिकुड़नें और त्यौरियों में बल पड़ जाते है तो कालान्तर में वे मुख पर से भले ही मिट जाए पर मन से नहीं मिटते।
जानकीजी के तमिल भाषा सीखने में यह मनोवैज्ञानिक बाधा अपने आप में एक गम्भीर विचारणीय विषय है। ( 3) हनुमानजी जिस क्षेत्र के राज कर्मचारी थे वह कन्नड़ भाषा भाषी था। पंडासर आदि आज तक उसी भाषा क्षेत्र में माने जाते हैँ। यह भी एक उजागर बात है कि महान और सनातन संस्कृति के धनी होते हुए भी तमिलभाषियों ने कर्नाटक संगीत को अपने यहां प्रतिष्ठा दे रक्खी है। हनुमानजी संगीत विद्या के माने हुए आचार्य हैं : आचार्यों की यह मानी जानी आदत होती है कि श्रद्धालु चेलों के सामने उनकी भाषा न बोलकर अपनी भाषा को प्रतिष्ठा देते हैं। यदि ऐसा नहीं करते तो अंग्रेजी में बोलते हैं, पुराने जमाने में संस्कृत बोला करते थे। हर हालत में संगीताचार्य हनुमन्तजी का तमिल भाषा ज्ञान इतना नहीं हो सकता कि वे सीताजी से तमिल में कूटनीतिक बातें करते।
हमारी नवीन स्थापना - उपरोक्त कारणों से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हँ कि अशोक वाटिका में सीता हनुमान संवाद भले ही मानवीय भाषा में हुआ हो पर तमिल या किसी अन्य भारतीय भाषा में नहीं हुआ था। तब प्रश्न उठता है कि वह दूसरी मानवीय भाषा कौन-सी रही होगी ? हमारा विनम्र मत यह है कि हनुमानजी ने सीताजी से अंग्रेजी में बातें की थीं और यह भी कि दोनो को। मूल मातृभाषा अंग्रेजी ही थी। अपने इस मत की पुष्टि के लिए हम कुछ ऐतिहासिक तथ्य यहां प्रस्तुत करते हैं।
विदेशी नामों के गलत उच्चारण करना या उन्हें अपने ढंग से ढाल लेन मनुष्य की पुरानी आदत है। भारतीय लेखकों ने यूनानी अलेक्जेण्डर को ‘अल क्षेन्द्र’ और ‘अलिक सुन्दर’ नामों से पुकारा और ‘मिनाण्डर’ को ‘मिलिन्द’ बना दिया। इसी तरह यूनानी इतिहासकारों ने ‘पुरु’ को ‘पोरस’, ‘श्रीकृष्ण’ को ‘हिराक्लीज’ और ‘चन्द्रगुप्त’ को ‘सैण्ड्रोकोटस’ बना दिया। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम सीताजी के पिता और पितामह के नामों पर तनिक विचार करें। उनके पिता का नाम जनक है और दादा का मिथि। मिथि से तुरन्त अग्रेजी शब्द myth का ध्यान हो आता है। ऐसा लगता है कि इंग्लैड निवासी कोई मिथ किसी प्रकार घूमते भटकते बिहार प्रदेश के विदेह क्षेत्र में पहुँच गये। तकदीर और तदबीर
की कृपा से मिथ साहब वहां के राजा हो गये। गंवार प्रजा के उच्चारण दोष के कारण ही मिथ शब्द ‘मिथि’ हो गया। राज्य स्थापित हो जाने पर मिथ साहब ने इग्लैण्ड से अपने बाल बच्चों को भी यहीं बुला लिया। मि0 मिथ के ज्येष्ठ पुत्र का नाम मि0 जान के था। मि0 जान के अपने साथ अपनी पोष्यपुत्री मिस जान के को भी मिथिला ले आये। यही मिस जान के हमारे इतिहास में जानकीजी के नाम से विख्यात होकर मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र की अर्धांगिनी हुई।
मिस जान के का पूरा नाम क्या है - मिस जान के का भारतीय नाम सीता है। इस नाम की वास्तविकता पर विचार करने से पहले यह जान लेना आवश्यक है कि उनका विलायती नाम क्या था। चूकि सीताजी हमारे भगवान् की पत्नी हुईं उन्हें जगदंबा का पद मिला। इसलिए भारतीय पुराणकारों ने उनका असली नाम गायब कर देने का षडयन्त्र रचा जिससे कि उन्हें कोई विलायती न समझ सके। लेकिन ‘सत्यमेव जयते’। आखिर हमें पता लग ही गया। ‘सीता’ शब्द से दो बातें सिद्ध होती है एक तो यह कि वो मि0 जान के को हल चलाते समय मिली थी और दूसरी यह कि वो पश्चिम से आई थी।
वाल्मीकि रामायण में लिखा है कि राजा भगीरथ की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने गंगा को जब अपनी जटा से बिन्दु सरोवर में छोड़ा तो उसकी सात धाराएं बहीं। तीन धाराएं पूरब में गयी तीन पाश्चिम में और सातवीं को भागीरथ ले भागे। पश्चिम में जाने वाली गंगा की तीन धाराओं में से एक का नाम सीता है। इससे यह सिद्ध होता है कि पश्चिम से आने के कारण ही राजपुत्री मिस जान के को भी सीता कहकर पुकारा गया। साथ ही इससे यह भी सिद्ध होता है कि मि0 जान के ने राजा जनक बनने से पहले इग्लैण्ड में हल चलाते समय ही सीता को पाया था। अब प्रश्न यह आता है कि इग्लैण्ड में उन्हें कहां पाया गया ?
मिस कैम्ब्रिजा जान के - सीताजी लक्ष्मीजी की अवतार हैं। लक्ष्मीजी के नामों की फेहरिस्त में एक नाम कम्बुजा भी है जो अलक्षेन्द्र और सेण्ड्रोकोटस के समान ही बिगडा हुआ लगता है। वास्तविकता यह मालूम होती है कि जब मि0 जान के सपरिवार_ मिथिला पहुंचे तो एक नई लड़की को देखकर राजा मिथि ने पूछा कि यह कौन है। जानके बोले यह धरती की बेटी है मैंने इसे हल चलाते समय पाया था। मिथ साहब बड़े प्रसन्न हुए कहा : ओ तब तो ये हमारी कैम्ब्रिज की धरती की बेटी है। इसका नाम कैम्ब्रिजा रखता हूं। इस कैमिजा शब्द की बनावट ही यह सिद्ध करती है कि तब तक मिथ साहब पर भारतीय संस्कृति साहित्य और व्याकरण का पूरा प्रभाव पड़ चुका था।
सीताजी की वंश परम्परा और मातृभाषा के प्रश्न को हल करने के बाद अब अंग्रेजी को हनुमानजी की मूल मातृभाषा सिद्ध करना ही हमारा एकमात्र परम पावन कर्त्तव्य शेष रह जाता है। इस सम्बन्ध में पहली बात तो यह है कि 1947 से पहले तक हमारे देशवासी इंग्लैण्ड वालों को लाल मुंह का बन्दर कहा करते थे। इससे यह सिद्ध होता र्ह कि पहले इंगलैण्ड में भी वानर राज्य ही था और इसीलिए डार्विन अपने पुरखों को शीघ्र पहचान सका था। किष्किन्धा में भी वानर राज्य था पर ये वानर काले मुंह के थे। इन किष्किन्धावासी वानरों से भेद करने के लिए ही इग्लैण्ड निवासी मि0 र्हेनमैन हमारे देश में आज तक सिन्दूर में रंगे जाते हैं। महावीर मि0 हैनमैन ने लंका विजय के बाद भगवान् श्रीराम से बड़ा इनाम इकराम पाने पर अपने देश में लंका क्षारक नाम का एक नगर बसाया था जो अब अंग्रेजी उच्चारण की विवशता के कारण लंकाशायर कहलाता है।
इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि भारत में हनुमान के नाम से प्रसिद्ध लंका क्षारक कपीश्वर मि0 र्हेनमैन की मातृभाषा भी वास्तव में अंग्रेजी ही थी।
सीताजी दुमविहीन क्यों? - कहा जाता है कि लंका विजय के उपरान्त सीताजी जब राम के कैम्प में आई तो किष्किन्धा की वानरियों ने उनके दर्शनों की लालसा प्रकट की थी। उन्होंने सुन रक्खा था कि सीताजी अनुपम सुन्दरी हैं पर जब उन्होंने उन्हें देखा तो बहुत निराश हुईं। वानरियों की दृष्टि में बेदुम की वानरी भला सुन्दरी कैसे मानी जा सकती थी? तब मि. हेनमैन अर्थात् हमारे हनुमानजी ने वानरों को बतलाया कि कैम्ब्रिज में लोगों की प्राकृतिक दुम नहीं होती। वहां यूनिवर्सिटी ही लोगों को डिग्रियों के पूंछ-पुछल्ले खोंसा करती है। इस प्रकार सीता ओर हनुमान दोनों ही अंग्रेजी भाषी थे। एकदेशीय होने के कारण ही सीताजी ने हनुमानजी को बड़ी बड़ी शक्तियां प्रदान कर रक्खी थी – “जानकी ध्यान मात्रेण लंघिता सप्त सागराः।“ कैम्ब्रिजा जान के ने अपने पति को विलायती ब्यूरोक्रेसी का भी भक्त बना दिया था। श्रीराम स्तोत्र में भगवान को “जानकी विरहाक्रोशी श्रीरामः” कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि “जान के ब्यूरोक्रेसी” के कारण ही रामराज में अंग्रेजी और लाल फीताशाही को मान्यता मिली है।
हिन्दी वालोँ का धोबीपाट और हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य - आधुनिक हिन्दी साम्राज्यवादी जनों के काले कारनामों को सतर्कतापूर्वक ध्यान में रखते हुए दृढ़ विश्वास के साथ हम कह सकते हैं कि हिन्दी-वादी धोबियों के उत्पात के कारण ही भगवान रामचन्द्रजी को जगज्जननी सीता महारानी को देश निकाला देना पड़ा। लक्ष्मण भी अंग्रेजी भक्त हो गए थे स्वयं हनुमानजी उन्हें पढ़ाते थे। श्री भगवती चरण वर्मा के रिसर्च के अनुसार सीताजी को वाल्मीकि आश्रम भें छोड़ आने के बाद लक्ष्मणजी अपने बड़े भाई से विद्रोह करके लखनऊ चले आए। मि0 हैनमैन ने भी श्रीराम की नौकरी छोड़ दी और लक्ष्मण के साथ ही साथ लखनऊ आ गए। भगवती बाबू के कथनानुसार लखनऊ के लक्ष्मण टोले पर बैठकर दोनों ने आपस में बड़ी कहा सुनी की। हनुमान जी बोले : “राम कायर है, हिन्दी वालों से डर कर उन्होंने सीता मां को निकाला है” लक्ष्मण बोले - मेरे भाई को कायर मत कहो। इस पर दोनो में लड़ाई हुई। लक्ष्मणजी ने कहा कि मेरे टीले को छोड़कर चले जाओ। हनुमानजी क्रोध में छलांग मारकर गोमती नदी के उस पार चले गए और अलीगंज में अपना मन्दिर बनवाकर रहने लगे। भगवान राम ने यह सुना तो घाघरा नदी में डूबने चले। तब हिन्दी वालों ने प्रार्थना की भगवान मत डूबिए। भगवान ने तड़पकर अंग्रेजी में कहा – “सर, यू हिन्दी वालाज हव ड्राउण्ड मी।“ इस वाक्य के प्रथम शब्दों के कारण ही धाघरा नदी अयोध्या में सरयू कहलाती है।
इन सब बातों का विचार करके हम इसी निश्चय पर पहुंचे हैं कि हिन्दी का मुंह काला करके हमे अब अंग्रेजी ही को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करना चाहिए। सुनार की सौ के मुकाबले में लोहार का एक ही धनचोट बहुत काफी होती है। राष्ट्रभाषा के रूप में जब अकेली अंग्रेजी ही समर्थ है तब चौदह राष्ट्रभाषाएं देश पर लादना बडी भारी मूर्खता है। साथ ही साथ घोर अन्याय और घोर नास्तिकता भी। हमें चाहिए कि श्रीराम जानकी हनुमान आदि अवतारी पुरुषों के द्वारा सेवित अंग्रेजी भाषा को ही धर्मभाव से शीघ्रातिशीघ्र अपना लें। सीता माता की भाषा ही हमारी असली भातृभाषा हो सकती है। जय अंग्रेजी। जय भारत दैट इज इंडिया।
अच्छा बुद्धि-विलास |
जवाब देंहटाएंलगे रहो भाई ||
यही कहानी स्वतंत्र भारत की लिखिए और बताइये की
वो भाषा इटैलियन थी या अंग्रेजी
क्वात्रोची ने किस भाषा का प्रयोग किया था |
ब्रज, कश्मीरी या पर्शियन ||
bahut badeya
जवाब देंहटाएंसरक-सरक के निसरती, निसर निसोत निवात |
जवाब देंहटाएंचर्चा-मंच पे आ जमी, पिछली बीती रात ||
http://charchamanch.blogspot.com/
दद्दा रे, बात कहाँ से कहाँ तक पहुँच गयी।
जवाब देंहटाएंभाई रविकर की टीप से परभावित हूँ....... यही मेरी मानी जाए.
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