मुक्त होती औरत प्रमोद भार्गव प्रकाशक प्रकाशन संस्थान 4268. अंसारी रोड, दरियागंज नयी दिल्ली-110002 मूल्य : 250.00 रुपये प्रथम स...
मुक्त होती औरत
प्रमोद भार्गव
प्रकाशक
प्रकाशन संस्थान
4268. अंसारी रोड, दरियागंज
नयी दिल्ली-110002
मूल्य : 250.00 रुपये
प्रथम संस्करण ः सन् 2011
ISBN NO. 978-81-7714-291-4
आवरण ः जगमोहन सिंह रावत
शब्द-संयोजन ः कम्प्यूटेक सिस्टम, दिल्ली-110032
मुद्रक ः बी. के. ऑफसेट, दिल्ली-110032
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जीवनसंगिनी...
आभा भार्गव को
जिसकी आभा से
मेरी चमक प्रदीप्त है...!
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प्रमोद भार्गव
जन्म15 अगस्त, 1956, ग्राम अटलपुर, जिला-शिवपुरी (म.प्र.)
शिक्षा - स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य)
रुचियाँ - लेखन, पत्रकारिता, पर्यटन, पर्यावरण, वन्य जीवन तथा इतिहास एवं पुरातत्त्वीय विषयों के अध्ययन में विशेष रुचि।
प्रकाशन प्यास भर पानी (उपन्यास), पहचाने हुए अजनबी, शपथ-पत्र एवं लौटते हुए (कहानी संग्रह), शहीद बालक (बाल उपन्यास); अनेक लेख एवं कहानियाँ प्रकाशित।
सम्मान 1. म.प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा वर्ष 2008 का बाल साहित्य के क्षेत्र में चन्द्रप्रकाश जायसवाल सम्मान; 2. ग्वालियर साहित्य अकादमी द्वारा साहित्य एवं पत्रकारिता के लिए डॉ. धर्मवीर भारती सम्मान; 3. भवभूति शोध संस्थान डबरा (ग्वालियर) द्वारा ‘भवभूति अलंकरण'; 4. म.प्र. स्वतन्त्रता सेनानी उत्तराधिकारी संगठन भोपाल द्वारा ‘सेवा सिन्धु सम्मान'; 5. म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इकाई कोलारस (शिवपुरी) साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में दीर्घकालिक सेवाओं के लिए सम्मानित।
अनुभवजन सत्ता की शुरुआत से 2003 तक शिवपुरी जिला संवाददाता। नयी दुनिया ग्वालियर में 1 वर्ष ब्यूरो प्रमुख शिवपुरी। उत्तर साक्षरता अभियान में दो वर्ष निदेशक के पद पर।
सम्प्रति - जिला संवाददाता आज तक (टी.वी. समाचार चैनल) सम्पादक - शब्दिता संवाद सेवा, शिवपुरी।
पता शब्दार्थ, 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (मप्र)
दूरभाष 07492-232007, 233882, 9425488224
ई-सम्पर्क : pramod.bhargava15@gmail.com
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अनुक्रम
मुक्त होती औरत
पिता का मरना
दहशत
सती का ‘सत'
इन्तजार करती माँ
नकटू
गंगा बटाईदार
कहानी विधायक विद्याधर शर्मा की
किरायेदारिन
मुखबिर
भूतड़ी अमावस्या
शंका
छल
जूली
परखनली का आदमी
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कहानी
मुक्त होती औरत
यह जो आप पढ़ रहे हैं, दरअसल यह कहानी का अंश नहीं है। बतौर पृष्ठभूमि कहानी का सार भी नहीं है। यह केवल उस वातावरण का उद्घाटन मात्र है, जो इस कहानी के पात्रों की मानसिकता को प्रभावित करता है और उसी अनुरूप पात्रों के चरित्र ढलकर घटनाओं, प्रतिघटनाओं को अंजाम देते हैं। इसलिए पात्रों को प्रभावित करनेवाले इस परिवेश को निहारना भी जरूरी है। यह वह समय है, जब 21वीं सदी के पहले दशक में भारतीय जनमानस हर स्तर पर विचित्र विषमता, धार्मिक पाखण्ड और अशिक्षा व अज्ञान के समय में भी प्रचलित नहीं रहे अन्धविश्वासों के कठिन दौर से गुजर रहा है। हर तरह के समाचार माध्यमों का आशातीत विस्तार तो हुआ है, लेकिन ग्राफ में रेटिंग अव्वल बनाए रखने के लिए जो मीडियाकार ‘मनोहर कहानियाँ', ‘सत्यकथा' और ‘सरिता' जैसी पत्रिकाओं की चर्चा अनायास भी आ जाने पर मुँह बिदका लिया करते थे, वही मीडियाकार वारदात, जुर्म, खौफ, क्राइम, रोजनामचा, सनसनी,एफआईआर, एसीपी अर्जुन, नक्षत्र, काल, कपाल और महाकाल जैसे कार्यक्रमों की पूरी शिद्दत से इस मानसिकता के साथ पटकथाएँ लिखने में लगे हैं कि नाग-नागिन, भूत-प्रेत, तन्त्र-मन्त्र और तमाम-तमाम ऐन्द्रिक आडम्बर जैसे सफल जीवन के अलौकिक द्वार खोल देनेवाली कुंजी हैं। एक तरफ उच्च शिक्षा प्राप्त समाज में जबरदस्त लिंगानुपात गड़बड़ा रहा है, वहीं दूसरी तरफ सृजन के आश्चर्य से जुड़ी स्त्री के उत्तरदायित्व से छुट्टी पा लेने के बहाने मोक्ष का मार्ग दिखाते हुए किशोर व नादान उम्र में ही दीक्षा दिलाकर अभिभावक गौरवान्वित हो रहे हैं।
यह वही वक्त है जब जूली जैसी होनहार शिष्याएँ मटुकनाथ जैसे प्राध्यापकों के यौनिक जाल के फेर में बे-मेल सम्बन्धों की गाँठ से बँधे आधे-अधूरे दाम्पत्य का वरण कर आधुनिकता का दम्भ भरते हुए बेतुकी रासलीला रच रहे हैं।
विज्ञान और टेक्नोलॉजी के नाम हो जानेवाली 21वीं सदी का यह ऐसा ही कालांश है कि जब मुम्बई की एक अस्पताल के सफाईकर्मी को दो करोड़ का जैकपॉट खुलता है तो खबरों की हेडलाइन बनती है, ‘और भगवान ने दिया छप्पर फाड़कर...' ‘किस्मत के पिटारे ने खजाना उगला...' इक्कीसवीं सदी के पहले दशक का यह वही कालखण्ड है जब चातुर्मास के लिए निकली एक साध्वी प्रेम के फेर में भस्मीभूत हो जाने का नाटक रच प्रेमी के साथ लापता होती है और समाचार का शीर्षक होता है, अचानक प्रगट हुए अलौकिक प्रकाश में साध्वी भस्म...‘तप के साक्षात् चमत्कार से साध्वी को मानव जीवन से मिला मोक्ष...।'
यह कहानी कुछ ऐसी ही विसंगतियों की तथाकथित सभ्य व शिक्षित, आत्मकेन्द्रित व महत्त्वाकांक्षी समाज में हो रही विद्रूप परिणतियों की गुंजलक में जकड़ी हमारी नायिका कुमारी मुक्ता, साध्वी मुक्ताश्री...और श्रीमती मुक्ता सोनी बन जाने की एक घटना प्रधान जटिल कथा है...।
अहिंसा का सिद्धान्त और पुत्र मोह
साध्वी मुक्तिश्री...नहीं...नहीं सिर्फ मुक्ता। क्योंकि मुक्ता की जो उम्र है, उसमें स्वभावगत जो चंचलता है...उसके परिजनों का उसके लिए जो सम्बोधन है और तात्कालिक कालखण्ड का जो परिवेश है उस दौरान में इस कथा की नायिका मुक्ता थी, लाड़वश मुक्ती थी और पाठशाला में थी कु. मुक्ता श्रीमाली! अपने नाम के ही अनुरूप निश्चल, निर्मल और उन्मुक्त। उसकी प्रकृति प्रदत्त चरित्रजन्य चंचलता उसे कभी-कभी उद्दण्डता व उच्छृंखलता के दायरे में भी ला खड़ा कर देती, पर वह मुखर वाक्चातुर्य से ऐसा परिवेश रचती कि सब हैरान रह जाते और उसका पक्ष सहज ही प्रबल हो जाता।
मुक्ता के पिता जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली नगर के एक साधारण कारोबारी होने के साथ धर्म में गहरी आस्था रखनेवाले व्यक्ति हैं। धार्मिक होने के कारण समाज में उनका अतिरिक्त मान-सम्मान है। सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर रुचि लेना उनका स्वभाव है। वे भगवान महावीर के उस सिद्धान्त के अनुयायी हैं, जिसे भगवान महावीर ढाई हजार साल पहले आर्थिक विषमता दूर करने के लिए चलन में लाए थे। वे मानते थे इसके पूर्व आर्थिक विषमता दूर करने का कोई सामाजिक चिन्तन अथवा सिद्धान्त विकसित ही नहीं हुआ था। जनता समृद्धि और दरिद्रता का कारक पूर्व जन्म के प्रतिफल को ही मानती चली आ रही थी। गीता का उपदेश असरकारी था। इसी विषमता को सामाजिक समता की कसौटी पर लाने के लिए भगवान महावीर ने अपरिग्रह का सिद्धान्त दिया। जिसमें अर्थ स्रोत के साधनों की पवित्रता, धन संग्रह (परिग्रह)की सीमा और उपभोग के प्रति संयम बरतने का प्रबल आग्रह था। आर्थिक समानता का सूत्र उनके व्यवहार में भी हमेशा प्रभावशील रहा। पच्चीस-छब्बीस साल पहले पिता के सोने-चाँदी व गिलट के आभूषणों का जो कारोबार उन्हें विरासत में मिला था, आज भी वही उनके जीविकोपार्जन का प्रमुख साध्य था और वे कमोबेश सन्तुष्ट भी थे।
पैंतालीस-छियालीस साल के धर्मपरायण जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली की चालीस-इकतालीससाला धमर्पत्नी श्रीमती कर्णप्रिया श्रीमाली एक अनिंद्य सुन्दरी हैं। तीन पुत्रियों और एक पुत्र की माता होने के बावजूद उनकी गठीली देहयष्टि को प्रौढ़ता शिथिल नहीं कर पाई है। घर से मन्दिर आते-जाते आज भी उनकी देह पर युवा, अधेड़ और उम्रदराजों की दृष्टि ठहर जाया करती है। कभी-कभी तो कर्णप्रिया यह अनुभव करके आश्चर्यचकित रह जाती है कि मुनिश्रियों के त्रिकाल भेदी चक्षु भी जैसे उसके अंगों की नाप-जोखने लग गए हैं। वह सँभलने का उपक्रम करती हुई सामने बैठे को यह अहसास कराती कि उसने दृष्टिदोष भाँप लिया है और उसके अन्तर्मन में कोई खोट अथवा परपुरुष की चाहत भी नहीं है। तब कहीं चेहरे पर झेंप के साथ त्रिकालभेदी चक्षु झपककर विराम पाते।
कर्णप्रिया के दैहिक सौन्दर्य की यह स्थिरता तब भी बरकरार थी जबकि वह तीन पुत्रियों के जन्मने के बाद पुत्रमोह से वशीभूत तीन स्त्री-भ्रूणों का गर्भ जल परीक्षण (अल्ट्रासाउण्ड) उपरान्त बाला-बाला सफाई भी करा चुकी हैं। दरअसल तब इस नगर में गर्भजल परीक्षण की सुविधा नहीं थी और बेचारी दो या तीन बालिकाओं की माँ बन चुकी माताओं को गर्भजल परीक्षण के लिए इन्दौर अथवा दिल्ली भागना पड़ता था। ऐसी परिस्थिति में पति जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली भू्रण सफाई को जीवहत्या मानते हुए और भगवान महावीर के अहिंसा सिद्धान्त की उपदेशात्मक दुहाई भी देते। पर कर्णप्रिया के चरित्र पर समाज में व्याप्त धारणाएँ व्यावहारिक परिणतियों के रूप में असरकारी थीं इसलिए कर्णप्रिया पर इस सन्दर्भ में पति के धार्मिक उपदेश बेअसर ही रहते और अन्ततः पुत्रप्राप्ति के संकल्प की इच्छापूर्ति के बाद ही वे गर्भ-निरोधक धारण के लिए स्थायी तौर से बाध्य हुईं।
नाबालिग उम्र, उन्मुक्त दुराचरण और उदारीकृत बाजारवाद
सुमधुर गृहस्थ और दाम्पत्य सुख भोगते हुए श्रीमाली दम्पति ने बड़ी बेटी प्रेमलता की शादी गुना जिले के कुम्भराज निवासी धनिया व्यापारी से सामूहिक विवाह सम्मेलन में कर दी थी। सम्मेलन में विवाह करने के बावजूद उन्हें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष चार लाख जमा-पूँजी बेटी के विवाह पर खर्चनी पड़ी थी। लेकिन श्रीमाली दम्पति प्रसन्न थे क्योंकि धनिया की महक ने बेटी की ससुराल में लकदक समृद्धि ला दी थी। इस सुख, समृद्धि और लायक दामाद को वे ईश्वर सेवा का ही प्रतिफल मानते थे और अब उनकी आस्था में और प्रगाढ़ता आ गई थी।
पर गृहस्थ जीवन और भरे-पूरे परिवार में चिन्ताओं का सिलसिला खत्म होने का नाम ही कहाँ लेता है। अपनी सम्पूर्ण अल्हड़ता और कैशौर्यजन्य हरकतों के साथ मुक्ता सयानी हो रही है। हालाँकि अभी उसकी उम्र परिणय-बन्धन में बाँध देने की कतई नहीं है और न ही श्रीमाली दम्पति मुक्ता का ब्याह इस कथित रूप से अवैधानिक जताई जानेवाली नाबालिग उम्र में कर देने के इच्छुक हैं। पर पिछले दिनों मुक्ता के उन्मुक्त दुराचरण की जो घटना सामने आई उसने श्रीमाली दम्पति का रक्तचाप बढ़ा दिया है और दुश्चिन्ताएँ बेतरह मन-मस्तिष्क को घेरे रखने लग गई हैं। वह तो भला हो साली सर्वमित्रा का जो उसने बात अपने तक ही सीमित रखी, नहीं तो सयानी बहन-बेटी के मामले में बात का बतंगड़ बनने में समय ही कितना लगता है? अलबत्ता बेटी ने तो मुँह पर कालिख पोत देने में कोई कसर ही नहीं छोड़ी थी।
तो तथाकथित वैधानिक स्तर पर बालिग के दायरे में नहीं आनेवाली बेलौस, बिन्दास पन्द्रह-सोलह साल की मुक्ता की निगाहें नये-नये काम पर आए रमन सोनी पर टिक गई थीं। उसकी ही उम्र जितना रमन मुक्ता के लिए गबरू छोरा था। जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली ने उसे पुराने गहने उजारने के लिए एक माह पहले ही काम पर रखा था। गम्भीर स्वभाव का रमन अव्वल तो अपने काम से ही काम रखता। दुकान पर आते ही उजारने के लिए गहने उठाता और आँगन के एक कोने में बनी मोरी के सामने बैठकर विभिन्न रसायनों से गहनों को चमकाने की प्रक्रिया में जुट जाता। वक्त और दुर्भाग्य की बचपन से ही मार झेल रहा रमन रन्नौद का रहने वाला था। दो साल पहले जब उसके माता-पिता दीवाली की दोज का बुआ से टीका लगवाकर मैक्सी कैब कमाण्डर जीप से लौट रहे थे, तब पैंतालीस सवारियों से लदी-फँदी, जीप-चालक का स्टेयरिंग से सन्तुलन उठ गया और जीप गुलटइयाँ-पलटइयाँ खाती हुई करीब बीस फीट गहरी खाई में जा गिरी। एक साथ उन्नीस लोग मारे गए। जिनमें अभागे रमन के माता-पिता भी थे। तभी से रमन की बड़ी-बड़ी पानीदार आँखों में मायूसी ने जैसे स्थायी ठौर बना लिया है।
रमन के सिर से जब माता-पिता का साया उठा था तब वह आठवीं कक्षा में पढ़ता था। दयालु मामा बहन के इकलौते पुत्र को अपना दायित्व समझते हुए घर ले आए थे। अब उसके लालन-पालन से लेकर पढ़ाई-लिखाई की जवाबदारी उन्हीं के सिर-माथे थी। लेकिन मामा की भी माली हालत कोई बहुत अच्छी नहीं थी। इतना जरूर था, सोने-चाँदी का कारोबार करनेवाले व्यापारियों के बीच उनकी ईमानदारी की साख विश्वसनीय थी, इसलिए व्यापारी उन्हें घर पर काम करने के लिए सोना-चाँदी दे दिया करते थे। नये-नये डिजाइनों के गहने गढ़ने की दस्तकारी में माहिर मामा का कारोबार भी इधर रेडीमेड और आर्टिफिशियल ज्वैलरी का चलन बढ़ जाने के कारण ठण्डा पड़ने लगा है। तनिष्क और जेपी ज्वैलर्स के शो-रूम जब से नगर में खुले हैं तब से तो जैसे इस महँगाई के जमाने में गुजारा करना ही मुश्किल हो गया है। इसके बावजूद मामा ने अपने बाल-बच्चों का पेट काटकर रमन को घर पर रखकर ही पढ़ाया। गरीबी में आटा गीला मुहावरे को ताने के रूप में इस्तेमाल कर मामी कभी-कभी पति और भान्जे पर खीझती भी, पर पति की लम्बी चुप्पी और रमन द्वारा कड़वी बात को भी अनसुनी कर देने के आचरण से मामी को उसके दुर्भाग्य पर तरस आ जाता और वे नरम पड़ रमन पर लाड़ जताते हुए अपने ही मुँहफट और कर्कश व्यवहार को कोसने लग जातीं।
रमन पढ़ने में अव्वल था। दसवीं की बोर्ड परीक्षा उसने अभावों और मामी के तानों के बावजूद प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर ली है। जिले में उसका तीसरा स्थान है। टॉपटेन सूची में होने के कारण उसे स्कॉलरशिप भी मिलने लग गई है। लेकिन इधर कृत्रिम गहनों का चलन बढ़ जाने और विविधतापूर्ण तैयार गहनों के शो-रूम खुल जाने से सोने-चाँदी के दस्तकारों के तो जैसे बुरे ही दिन आ गए। कई दस्तकारियों की तो भटि्ठयाँ तक सुलगना बन्द हो गईं और कइयों को रोटियों तक के लाले पड़ गए। कई सुनार तो गहने गढ़ने के परम्परागत काम को छोड़कर हजार-दो हजार प्रतिमाह का काम तलाशने में जुट गए और कइयों ने पापी पेट जो करा दे, सो कम है की तर्ज पर सुनार गली के मुहानों पर खड़े रहकर सट्टे की पर्चियाँ काटकर ओपन टू क्लोज के आपराधिक कृत्य का काला धन्धा ही शुरू कर दिया। बाजार के बदलते तेवर का असर मामा के कारोबार पर भी पड़ा था, पर बाजार में भरोसे की छवि होने के कारण अपेक्षाकृत अन्य दस्तकारियों के उन्हें काम मिल जाया करता है और जैसे-तैसे वे अपने इसी परम्परागत पेशे से गुजर-बसर करने में लगे हैं। इधर भान्जे रमन को भी खस्ता माली हालत के चलते उन्होंने जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली की दुकान पर पुराने गहने उजारने के लिए पाँच सौ रुपये प्रतिमाह से काम पर लगा दिया है।
...तो जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली की दुकान पर नये-नये काम पर आए गबरू छोरे रमन सोनी पर उन्मुक्त और बेफिक्र किशोरी मुक्ता की निगाहें टिक गई थीं और गबरू छोरे के सौम्य, सौन्दर्य की मायूसी किसी उन्मादी घोल की तरह मुक्ता की बड़ी-बड़ी चमकीली आँखों से सद्यः यौवन ग्रहण कर रहे शरीर में पौष्टिक आहार की तरह उतरता चला गया था। मुक्ता को वह बेहद भोला और प्यारा लगता। उसका मन होता कि वह उसे देखती ही रहे। पर रमन था कि अपने काम में किसी साधक की तरह जुटा रहता। बमुश्किल ही वह नजर उठाकर मुक्ता को देखता। वह भी निर्लिप्त और निरापद भाव से। उसकी दृष्टि में मालिक और नौकर का सहज बोध भाव होता।
जब दोपहर के भोजन के लिए पिता माँ के पास ऊपर चले जाते तो मुक्ता को दुकान की निगरानी के लिए नीचे आना पड़ता। पर मुक्ता अब दुकान पर निगरानी का खयाल कम और हमदर्दी का कोई न कोई बहाना जताते हुए रमन से संवाद-कायमी की कोशिश ज्यादा करती। मुक्ता ने रमन द्वारा हाल में उजारकर रखा चाँदी का कड़ा उठाया। कड़े की ताजा-ताजा उजास की चमक ने मुक्ता की आँखें चौंधिया दीं और चेहरे पर चमकीली मुस्कान अनायास ही जगमगा गई। वह बोली, ‘‘इतने अच्छे से गहने उजारना तूने कहाँ से सीखा?''
रमन इसी जोड़े के दूसरे कड़े पर तेजाब, गन्धक और रीठा से बने मसाले का ब्रश रगड़े जा रहा था। सिर झुकाए हुए ही बोला, ‘‘घर में पिता जब गहनों को डिजाइन में ढालते रहते थे तब माँ मुझे अपने साथ बिठाकर उजारने का काम सिखाया करती थी।''
‘‘कितने दिनों में सीख लिया था तूने यह काम?''
‘‘घर में काम करते हुए दीदी...दिनों का कुछ पता थोड़े ही चलता है।''
मुक्ता ने कृत्रिम आक्रोश जताया, ‘‘तुझसे कितनी बार कहा रमन, मुझे दीदी मत पुकारा कर, मैं क्या तेरी कोई माँजायी बहन हूँ? ‘‘इतना कहते-कहते मुक्ता को शरारत सूझ आई उसने पूरी निर्भीकता से रमन के गाल की चिकोटी काट ली, ‘‘समझा!'' रमन ने अचकचाकर पहली बार मुक्ता की आँखों के पार झाँका। उन आँखों की पुतलियों में खुला आमन्त्रण हिलोर रहा था। रमन बुरी तरह सहम व शरमा गया और उसके होठों पर एक दयनीय मुस्कान तैर गई। अनाथ के दुर्भाग्य से अभिशापित लाचार किशोर की अभिव्यक्ति दयनीय मुस्कान से इतर और हो भी क्या सकती है।
रंगीन मिजाज मुक्ता हरकत भरी कोई और ठिठोली कर पाती कि इतने में ही पिता के खँखारते हुए सीढ़ियाँ उतरने की आहट मिल गई। तत्क्षण मुक्ता सँभली और चेहरे पर उभरी लालिमा युक्त उन्मादी को संयमित करने की चेष्टा करती हुई दबे कदमों से काउण्टर के बगल से बिछी गद्दी पर जा बैठी।
दैहिक शुचिता और विचित्र आहार
चतुर्मास के दौरान मुक्ता कभी-कभी माता-पिता के पर्याप्त दबाव के चलते मुनियों के प्रवचन सुनने के लिए मन्दिर चली जाया करती है। कोई-कोई प्रवचन उसे सार्थक और यथार्थ भी लगता। एक बार मुनिश्री ने आहार के सिलसिले में बोलते हुए कहा था,‘‘सन्तुलित दिनचर्या, नियमित व्यायाम और संयमित शाकाहार व्यक्ति को ग्रहण करना चाहिए। आहार केवल भोजन से ही ग्रहण नहीं किया जाता। हम आँखों से, स्पर्श से और श्रवण से भी आहार ग्रहण करते हैं। आप चलते-चलते कोई प्रिय वस्तु अथवा घटना देख लें तो वह अन्दर प्रवेश कर जाती है, बस यह आहार हो गया।''
मुक्ता का माथा ठनका। मुनिश्री कितना सटीक प्रबोधन दे रहे हैं। रमन को उसने अपने शरीर में आँखों और स्पर्श से ही तो अब तक प्रवेश कराया है। यदि मुनिश्री के प्रबोधन का सार मानें तो यह भी एक प्रकार का आहार ही तो हुआ। ऐसे में दैहिक शुचिता के सवाल क्या बेमानी नहीं हो जाते? और टीवी स्क्रीन पर रीमिक्स गानों के दृश्य..., जिनमें भरपूर उत्तेजक अन्दाज में पुरुष को अपनी देह में समा जाने का स्वच्छन्द आमन्त्रण देती स्त्री के कितने-कितने दृश्यों को आहार के रूप में ग्रहण कर चुकी है वह? जिनकी स्मृति मात्र बदन में एकाएक रोमांच भर देती है।
और मुक्ता उस दृश्य को तो आज तक नहीं भूल पाई है, जिसके साक्षात्कार से उसने अजनबी अहसास तो किया था, लेकिन शायद बाल उम्र के चलते तब धमनियों में अनायास रक्त प्रवाह बढ़कर आज की तरह अनुभूतियों में सनसनाती बेचैनी की हद तक उग्रता नहीं समाई थी।
मुक्ता तब आठ-नौ साल की कन्या थी। तब मिन्नतें करके अड़ोसी-पड़ोसी और रिश्तेदार नवरात्रियों में दुर्गाष्टमी के दिन उसे भोजन के लिए ले जाया करते थे। भरपूर भोजन और दक्षिणा अलग से। तब मुक्ता छोटी होने के साथ आज की तुलना में ज्यादा चंचला थी। घर और अड़ोसी-पड़ोसी के घरों में गुड़िया-सी फुदकती रहती। तब मुक्ता के लिए कितना सहज था फुदकते-फुदकते किसी भी दरवाजे में बेधड़क, बेरोक-टोक घुस जाना। ऐसे ही एक दिन,भरी दोपहरी में वह मौसी सर्वमित्रा के घर दनदनाती चली गई। मौसी के बेडरूम के किवाड़ों को धकियाते हुए भीतर पहुँची तो सामने मौसी और मौसाजी को चित्र-विचित्र स्थिति में देखकर एकाएक ठिठक गई। मौसाजी नंगी देह को चादर में ढंकते हुए पलंग के एक सिरे पर स्थिर होने लग गए और मौसी अपने आँचल को ब्लाउज में समेटती उठ खड़ी हुईं।
आपत्तिजनक स्थिति को अनदेखी, अनसमझे भाव लिये मुक्ता वापसी के लिए पलटी। चोरी पकड़ी तो गई, पर सार्वजनिक होकर उपहास में तब्दील न हो इस आशंका के चलते सर्वमित्रा ने मुक्ता को रोका। मुक्ता के समक्ष याचना के लिहाज से सर्वमित्रा ने उसके बालों को सहलाया और याचना की, ‘‘मम्मी को कुछ बताना नहीं मुक्ता...!'' और सर्वमित्रा ने मुक्ता को पोट लेने की गरज से उसकी मुट्ठी में दस का नोट दबा दिया। मुक्ता फुदकती हुई चल निकली। पर मौसी-मौसा के स्वाभाविक प्रेमालाप के वे दृश्य आहार की तरह शरीर में जो उतरे तो आज भी जस के तस बरकरार थे। और अब पन्द्रह-सोलह साल की आधदित किशोरवय में उन दृश्यों की दस्तक उसे रमन की ओर खींचकर दैहिक मर्यादा के उल्लंघन के लिए बाध्य करती रहती है।
यौन शिक्षा और मुफ्त गर्भनिरोधक
इण्टर की छात्रा मुक्ता स्कूल से लौटी तो नसों में उबलते रक्त के आवेग से उसकी मनोदशा विचलित थी। कमोबेश ऐसी मनःस्थिति अकेली उसकी नहीं थी, उसके साथ सहशिक्षा ले रहे अन्य सहपाठियों की भी थी। ‘एड्स से बचाव और यौन शिक्षा के औचित्य' विषय पर यूनिसेफ द्वारा स्कूल में आयोजित कार्यशाला के समापन के बाद जब वह फीमेल यूरिनल में दाखिल हुई तो हैरान थी। कार्यशाला में उद्बोधनों के दौरान एड्स जैसी महामारी से बचाव के लिए सुरक्षित यौन सम्बन्धों हेतु गर्भनिरोधक मुफ्त में बाँटे गए थे, हाल ही में इस्तेमाल किए गए वे गर्भनिरोधक मूत्रालय में पड़े थे। उसे शौचालय के फाटक की दरारों से उफनती साँसों का अहसास हुआ। वह दरवाजे की ओर बढ़ी, तभी चटकनी सरकी। फाटक खुला। बेशरमी से लजाता एक युगल बाहर निकला। वे मोनिका क्षत्रिय और सौरभ सूर्यवंशी थे। वे दोनों इण्टर के ही विद्यार्थी होने के साथ मुक्ता के ही सेक्शन ए में सहपाठी थे। सौरभ तो निकल गया लेकिन मोनिका रुक गई। बोली, ‘‘अकेली क्यों है, कोई बॉयफ्रेण्ड खींच लाती। ये गर्भनिरोधक सुरक्षित यौन आनन्द लूटने के लिए ही तो मुफ्त में बाँटे गए हैं। मल्टी नेशनल कम्पनियाँ बेवकूफ थोड़े ही हैं पहले उत्पाद अपनाने की आदत डालती हैं और फिर वे हमारी जरूरत बन जाती हैं।'' कामसुख और तृप्ति की निर्लज्ज स्मीति मोनिका की प्रफुल्लित आँखों में स्पष्ट थी।
साठ साल की उम्र में चल रहे उत्कृष्ट विद्यालय के प्राचार्य डॉ. भगवान स्वरूप चैतन्य आज की कार्यशाला से बुरी तरह स्तब्ध व उत्पीड़ित थे। जब उन्हें सफाईकर्मी बाबूलाल कोड़े ने महिला शौचालयों से समेटकर टोकरी में भरे उपयोग में लाए गए गर्भनिरोधक दिखाए तो घृणा और लाचार बेचैनी के आवेश से सिर पकड़े रह गए। भौतिकी से विश्वविद्यालय प्रावीण्य रहे डॉ. चैतन्य ने हिन्दी साहित्य से भी एम.ए. किया था। यही नहीं, उन्होंने आज से तीस साल पहले परमाणु विद्युत और सौर ऊर्जा जैसे कठिन विषय पर तमाम चुनौतियाँ स्वीकारते हुए हिन्दी माध्यम से पी-एचडी की थी। निराला और धूमिल उनके प्रिय कवि थे। इन्हीं कवियों की प्रेरणा से उन्होंने भी कई व्यवस्थाजन्य विसंगतियों पर चोट करनेवाली कविताएँ लिखी थीं। साहित्य के क्षेत्र में स्थापित डॉ. चैतन्य को कई पुरस्कारों से भी नवाजा जा चुका था। इस तरह के गैर सांस्कृतिक आयोजन के वे आरम्भ से ही विरोधी थे। लेकिन कलेक्टर और अन्य विभागीय अधिकारियों के जबरदस्त दबाव के चलते उक्त कार्यशाला को अपने विद्यालय में आयोजित करने की अनुमति उन्हें निराश मन से देनी पड़ी थी।
उद्विग्न डॉ. चैतन्य अपने निरन्तर अध्ययन के आधार पर जानते थे कि पाठशालाओं में हल्लाबोल स्तर पर एड्स के बहाने यौन शिक्षा देने के परिणाम यही निकलेंगे। सहशिक्षा वाले विद्यालयों में जब किशोरों को जननांगों के स्वरूप व क्रियाओं के बारे में ब्लैक बोर्ड पर सचित्र बताया व समझाया जाएगा तो किशोर मनों में काम भावनाओं की कामजनित जुगुप्सा ही जाग्रत होगी? और जब उन्हें यौनजनित बीमारियों से बचाव के बहाने मुफ्त में गर्भनिरोधक देंगे, तो बतौर प्रयोग किशोर शारीरिक सम्पर्क के लिए ही तो उत्कट होंगे? इसे वे बाल व अपरिपक्व मनों की सहज जिज्ञासा मानते थे।
उनके अन्तर्मन में एक सवाल रह-रहकर उठता कि बौद्धिक कहे जानेवाले ऊपर बैठे शिक्षा संचालकों ने क्या पाठशालाओं को व्यभिचार के अड्डे मान लिया है, जो सुरक्षित यौनाचार के लिए मुफ्त गर्भनिरोधक बाँटे जा रहे हैं? क्या वाकई पाठशालाएँ रेड लाइट एरिया में तब्दील हो रही हैं? या सरकार का उदारवादी रवैया बाजारवाद को बढ़ावा देने का जरिया बना हुआ है? वरना एड्स के बहाने
सुरक्षित यौन सम्पर्क के लिए शालाओं में गर्भनिरोधक बाँटने की क्या तुक है? पाठशालाओं में क्या विद्यार्थी अनैतिक यौनाचार के लिए आते हैं?
परिवार और पाठशाला ही संस्कार की आधारशिला हैं का सांस्कृतिक चिन्तन देनेवाले देश की पाठशालाओं में उन्मुक्त यौनाचार की यह शुरुआत युवाओं को क्या बलात्कार और अविवाहित मातृत्व की ओर नहीं धकेलेगी? ऐसे अनियोजित अवैज्ञानिक और अदूरदर्शी नजरिए का अपने ही विद्यालय में कुरूप परिणति में तब्दील होते देख डॉ. चैतन्य भीतर तक दहल गए। उन्हें लगा नैतिकता के सन्दर्भ में चिन्तन की परवाह बेईमानी के अलावा कुछ नहीं रह गई है। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में क्षुब्ध डॉ. चैतन्य की अँगुलियाँ क्रियाशील हुईं और उन्होंने कम्प्यूटर स्क्रीन पर चार लाइन का इस्तीफा लिख सक्षम अधिकारियों को मेल कर दिया। वर्तमान परिवेश में तालमेल बिठा पाने में असफल रहने का मुहावरा बन चुके डॉ. भगवान स्वरूप चैतन्य का सात संस्थाओं में दिया गया यह सातवाँ इस्तीफा था।
तीन बाई छह की भुखारी और शर्मनाक करतूत
इधर हमारी नायिका मुक्ता भी आज की कार्यशाला के वृत्तान्त और उसके परिणाम स्वरूप उपजे हालातों से विचलित है। उसके लालिमायुक्त ताम्बई गालों पर लालिमा कुछ ज्यादा ही निखर आई है। पसीने की बूँदें ओस-सी झिलमिला रही हैं। मुफ्त में बाँटे गए गर्भनिरोधक का पैकेट शमीज के नीचे दबा है। दोपहर डेढ़ बजे के करीब जब मुक्ता को आँगन पार करते हुए जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली ने देखा तो पूछ ही बैठे, ‘‘आज इतनी देर कहाँ लगा दी मुक्ती?''
‘‘आज स्कूल में कार्यशाला थी पापा...।''
‘‘कार्यशाला...किस विषय पर?'' गद्दी से उठते हुए सहज जिज्ञासावश पूछ बैठे।
मुक्ता घबराई। कैसे बताए पापा को कि एड्स और यौन रोग विषयक कार्यशाला थी। और उसमें रोगों से बचाव के लिए मुफ्त गर्भनिरोधक भी बाँटे गए हैं। ये स्कूल वाले भी क्या ऊटपटाँग विषय चुनते हैं जिसकी चर्चा भी माता-पिता से न की जा सके? बहरहाल मुक्ता ने प्रतिउत्पन्नमति से विषय बदलते हुए कहा, ‘‘योग शिक्षा और स्वास्थ्य लाभ।''
‘‘अच्छा विषय था। भला करें भगवान बाबा रामदेव का जिन्होंने स्वास्थ्य के लिए लाभकारी योग रहस्य की गाँठें खोलकर सावर्जनिक कर दीं। वरना पण्डे-पाखण्डियों ने तो इन शास्त्रों को केवल पूजा की वस्तु ही बनाकर रख दिया था।'' और पिता जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली भोजन के लिए सीढ़ियाँ चढ़ गए।
घर में नीचे एकान्त और मोरी पर तेजाब, गन्धक व रीठा के मसाले से पुराने गहनों पर ब्रश रगड़-रगड़कर चमका रहा गबरू छोरे उर्फ रमन सोनी की निकटता पाकर मुक्ता की विकलता और बढ़ गई। स्कूल में एड्स से बचाव और यौन शिक्षा के औचित्य विषय पर आयोजित कार्यशाला में श्याम-पट्ट पर जननांगों के आकार व क्रियाओं से सम्बन्धित जो चित्र उकेरे गए थे, आहारस्वरूप ग्रहण किए वे चित्र मुक्ता के स्मृति-पटल पर हू-ब-हू रेखांकित थे। चित्रों के मन-मस्तिष्क पर उपस्थिति के आवेग से मुक्ता कामासक्त है। और अब उसके स्मृति पटल पर इन चित्रों का रेखांकन मौसाजी की नंगी देह और मौसी द्वारा आँचल को ब्लाउज में समेट लेने के जीवन्त स्वरूप में तब्दील हो रहे हैं। उद्दाम आवेग के वशीभूत मुक्ता रमन के निकट है। उसने बाजू पकड़कर रमन को उठाया और ऊपर जानेवाली सीढ़ियों के नीचे बनी तीन बाई छह की भुखारी में खींच लिया। न-नुकुर करता रमन बेहाल था। पकड़े जाने पर वह नौकरी छिन जाने और पीटे जाने के भय से भी आतंकित था। भुखारी की मद्धिम रोशनी में मुक्ता की बड़ी-बड़ी आँखें चमकीं। हौले से उसने रमन का कान खींचा। और डपट भरे लहजे में एक चपत लगा दी। फिर मुक्ता ने शमीज के नीचे दबा गर्भनिरोधक निकाला और बेशर्म अन्दाज में रमन की अँगुलियों में थमा दिया। मुक्ता के प्रबल आग्रह के समक्ष रमन को आतंकित बनाए रखने वाला भय छीजता चला गया।
पर यह मुक्ता और रमन के लिए दुर्भाग्य का ही क्षण था कि न जाने बेवक्त किस काम से मौसी सर्वमित्रा का अनायास आगमन हो गया। आँगन के पार दुकान सूनी थी और मोरी से रमन नदारद। सन्नाटे को चीरती भुखारी से आ रही आवाजों से सर्वमित्रा आशंकित हुई और भुखारी के द्वार पर लगा टीन का पल्लड़ एक झटके में खोल दिया। भुखारी का हैरतअंगेज दृश्य देख सर्वमित्रा चौंककर चीख पड़ी, ‘‘जीजी...जीजाजी...।''
जीजी, जीजाजी क्या करते, बेहया बेटी की शर्मनाक करतूत से जमीन में गड़ते चले गए। सर्वमित्रा ने तीन फीट चौड़ी और छह फीट लम्बी भुखारी का मौका-मुआयना कर जब तत्काल उपयोग में लाए गए लिजलिजे निरोध का प्रगटीकरण किया तो जीजी, जीजाजी और सर्वमित्रा को अविवाहित मातृत्व के लक्षणों को ग्रहण कर लेने की तात्कालिक आशंकाओं से जैसे मुक्ति मिली और मुक्ता की समझदारी पर तात्कालिक सन्तोष भी पाया।
बदनुमा धब्बे और उपलब्धियों की परत
बेटी की करतूत से विचलित जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली कई दिन स्थिर चित्त से व्यवसाय नहीं कर पाए। यही मनोदशा कर्णप्रिया की थी। पड़ोसिनें मन्दिर नहीं आने का कारण पूछतीं तो वह बीपी हाई अथवा लो हो जाने का बहाना गढ़ देती। हालाँकि उड़ती-उड़ती खबर मोहल्ले की गलियों में फैल गई थी कि रमन के साथ मुक्ता आपत्तिजनक अवस्था में पकड़ी गई और इसी कारण रमन को संयुक्त रूप से मामा-मामी की लात-घूँसों की पिटाई भी झेलनी पड़ी। और फिर एकाएक रमन नगर से गायब होकर, आपत्तिजनक अवस्था में पकड़े जाने की अफवाह की पुष्टि कर देने के सूत्र भी छोड़ गया।
इधर हमारी नायिका मुक्ता की बेहाली बढ़ गई है। उसकी उन्मुक्त चहक, चहलपहल फुर्र हो गई हैं। माँ की कर्कश डाँट, खीझ और क्रूरतापूर्ण झिड़कियाँ जैसे मुक्ता के प्रति उनकी दिनचर्या ही बन गई हैं। निर्लज्ज मुक्ता माँ के तानों से पीड़ित अथवा उद्विग्न नहीं होती, बल्कि पीड़ित व उद्विग्न वह इसलिए रहती कि उसकी हरकत के उजागर हो जाने से माता-पिता का चैन छिन गया है। दूसरी तरफ उसे भोले-भाले रमन की बेबसी और बेचारगी पर तरस आता कि वह न जाने आर्थिक तंगी झेलते हुए कहाँ-कहाँ ठोकरें खाता फिरता होगा? रमन की याद उसकी उनींदी अथवा झपकीभरी आँखों में अटी रहती। रह-रहकर रमन की स्मृति एक दुश्चिन्ता की तरह उसकी छाती में धुकधुकी की तरह अनवरत रहती। और मुक्ता के अन्तर्मन में कहीं गहरी अनुभूति हो रही थी कि वह उसे वास्तव में कहीं चाहने तो नहीं लगी? बावजूद इसके यह मुक्ता के जीने की उत्कट चाहत और प्रबल इच्छाशक्ति ही थी कि इस अपमानजनक दौर में भी उसे कभी निराशा और कुण्ठाओं ने घेरकर आत्मघाती सोच के दायरे में ला खड़ाकर उसकी बुद्धि कुन्द नहीं होने दी। इन सब परवाहों से उबरने के लिए मुक्ता ने अपने पाठ्यक्रम की पढ़ाई पर मनीषा केन्द्रित कर दी। समय के प्रवाह ने घटनाओं को विराम देना शुरू कर दिया था।
समय अँगड़ाई लेकर जैसे मुक्ता के अनुकूल हो रहा था।
इण्टर का परीक्षा परिणाम आया तो मुक्ता और उसके अभिभावकों की खुशी का कोई ठिकाना ही न रहा। इण्टरनेट पर माध्यमिक शिक्षा मण्डल मध्यप्रदेश भोपाल के वेब ठिकाने पर अनुक्रमांक के अंक दर्ज कर माउस क्लिक की तो जो तस्वीर अवतरित हुई वह हैरानी में डालने वाली थी। मुक्ता टॉप टेन सूची में दूसरे नम्बर पर थी। अपनी छोटी बहन अलका के साथ जैन कम्प्यूटर सेन्टर पर परीक्षा परिणाम देखने आई मुक्ता और अलका को विश्वास ही नहीं हुआ कि ऐसा अयाचित, अचम्भित करनेवाला परिणाम मुक्ता के पक्ष में आ सकता है।
दोनों बहिनें दौड़ती-हाँफती पसीने से तरबतर घर में दाखिल हुईं। अलका गली से ही सब्र का बाँध तोड़ती चिल्लाई, ‘‘मम्मी..., मुक्ता प्रदेश की टॉप टेन लिस्ट में सेकेण्ड पोजीशन पर है।'' माँ धड़धड़ाती सीढ़ियाँ उतरीं...और पिता गद्दी छोड़ आँगन में आए। कर्णप्रिया ने बेटी को बाँहों में भर छाती से चिपटा लिया और यह कहते हुए, ‘‘मैं ही न जाने क्या-क्या जले-कटे तानों से होनहार बेटी को कोसती रहती थी'' और रो पड़ीं।
और फिर प्रदेश स्तरीय टीवी समाचार चैनल और सभी अखबारों में दम्भ से दमकती मुक्ता थी।
बमुश्किल मिले एकान्तिक क्षणों में प्रगल्भ मुक्ता ने अनुभव किया, उपलब्धियाँ कैसे बदनुमा धब्बों पर होनहारी की परत चढ़ा देती हैं। रमन के साथ तीन बाई छह वर्ग फीट की भुखारी में आपत्तिजनक अवस्था में पकड़े जाने के बाद मुक्ता की जो चहक चहलपहल फुर्र...र्र...हो गई थी, उसकी वापसी का सिलसिला जैसे फिर शुरू होने को हुआ।
धर्म के लिए समर्पण, दीक्षा और प्रकृतिजन्य अवधारणाएँ
चौमासा शुरू होने के साथ ही मुनि संघ के एक दल ने चातुर्मास का समय इस नगर में गुजारने के लिए मन्दिर में डेरा डाला। इस दल में प्रमुख आर्यिका (साध्वी)मुक्ता की पैंतीस वर्षीया मौसी नन्दिता श्री थीं। इक्कीस साल पहले जब वे मुक्ता की उम्र जितनी थीं, तब उन्होंने आर्थिक रूप से कमजोर माता-पिता की इच्छा पूरी करने के लिए दीक्षा लेकर साध्वी जीवन अंगीकार किया था। समाज में उनका सादा और संयमित जीवन एक उदाहरण था। वे पढ़ी-लिखी तो कम थीं लेकिन वेदान्त, हिन्दू, बौद्ध और जैन दर्शन का उन्होंने विस्तृत व आलोचनात्मक अध्ययन खूब किया था। अपने प्रवचनों में वे कभी-कभार धर्म के पाखण्ड और धार्मिक आडम्बरों पर भी कुठाराघात करती थीं। इसलिए उन्हें प्रखर प्रवक्ता माना जाता था। प्रबोधनों के समय उनके चेहरे पर तेज झलकता और वाणी से ओज इसलिए उन्हें तेजस्विनी अथवा ओजस्विनी की भी संज्ञा दी जाती। आम श्रोता अथवा जिज्ञासु जब कोई प्रश्न करते तब उनके मुख पर एक विशिष्ट दिव्यता अवलोकित होती जैसे ऊर्जा का कोई स्रोत झर रहा हो और चक्षुओं में होता एक अद्वितीय सम्मोहन जो जिज्ञासु की वैचारिक व्यापकता का सहज ही हरण कर लेता और फिर लाचारी को प्राप्त जिज्ञासु उनकी शरणागत होता।
कर्णप्रिया मुक्ता के साथ अपनी बहन से मिलने दोपहर के एकान्त में मन्दिर पहुँची। आर्यिका नंदिताश्री आहार ग्रहण के बाद आराम के लिए चटाई पर लेटी ही थीं, लेकिन बहन के आगमन की आहट पाते ही तत्परता से उठ खड़ी हुईं। रक्त सम्बन्धी से मिलन की उतावली छटपटाहट ने जैसे तत्काल तो दिव्यज्ञान और संसार के निस्सार होने के मूल तत्त्व को सांसारिकता के चलते परे कर दिया हो। दोनों बहनें गले मिलीं तो जैसे मूर्खतावश कर्णप्रिया पूछ बैठी, ‘‘तू सुखी तो है नन्दिता...?''
‘‘सुख और दुख तो सांसारिक और गृहस्थों के लिए हैं। साधु-साध्वियों के लिए क्या सुख..., क्या दुख...।'' और जैसे छोटी बहन नन्दिता नहीं सुप्रसिद्ध साध्वी नंदिताश्री की चेतना सायास लौट रही हो। मुख पर दिव्यता छाने लगी हो और चक्षुओं से सम्मोहन शक्ति झरने लग गई हो। नन्दिताश्री दूरी बनाते हुए चटाई पर बैठ गईं और कर्णप्रिया व मुक्ता को भी बैठने का आग्रह किया।
‘‘सुफल जीवन का कोई उचित मार्ग इसे (मुक्ता को) भी दिखाओ बहिन?''
‘‘हाँ, कुछ समय पहले यह भटक गई थी...। वह तो तुम्हारे और जीजाजी के अच्छे कर्मों का ही प्रतिफल था कि इसकी सुमति लौट आई...।''
उन क्षणों का अनायास ही प्रसंग छिड़ने पर मुक्ता सकुचाई। उसकी दृष्टि जमीन में गड़ गई। मुक्ता को आश्चर्य हो रहा था कि मौसी ने क्या उस लौकिक घटना को पारलौकिक अनुभूति से जाना?
‘‘इसको लेकर मैं चिन्तित हूँ। कोई उपाय सुझाओ?''
‘‘इसे धर्म के लिए समर्पित कर दो...। दीक्षा दिला दो...। इससे तुम्हारा भी कल्याण होगा और समाज का भी...। मैं इसके प्रज्ञा और ज्ञान को परिमार्जित कर इसे तत्त्वज्ञानी आर्यिका बना दूँगी...। दिव्य ज्ञानों से परिपूर्ण श्रेष्ठ साध्वी।''
‘‘क्या यह सम्भव है?''
‘‘क्यों नहीं धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए युवा ऊर्जा की जरूरत हमेशा बनी रहती है। धैर्य से विचार कर एवं जीजाजी से विमर्श कर उत्तर देना...।''
मुक्ता के लिए साध्वी बन जाने का प्रस्ताव एक घटना ही थी। तीन बाई छह की भुखारी में रमन सोनी के साथ आपत्तिजनक अवस्था में पकड़े जाने की घटना की तरह और बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में प्रदेश की प्रावीण्य सूची में दूसरा
स्थान प्राप्त कर लेने की घटना की तरह। कैसे उसके इस किशोर जीवन में घटनाएँ आश्चर्यजनक ढंग से सिलसिला बनती जा रही हैं।
उत्साहित कर्णप्रिया ने नंदिताश्री के प्रस्ताव का प्रगटीकरण पति जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली पर किया। बहन सर्वमित्रा और उसके पति को भी बताया। सब सहमत थे। जैसे, कोई सुनहरा अवसर घर बैठे मिल गया हो।
और फिर धूमधाम से आयोजित एक धार्मिक समारोह में मुक्ता धर्म को समर्पित कर दी गई। उसका नया नामकरण हुआ मुक्तीश्री...। यह अलंकरण आर्यिका नंदिताश्री ने ही किया।
पैंतालीस-छियालीस साल के जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली और चालीस-इकतालीस साल की श्रीमती कर्णप्रिया श्रीमाली आज बेहद प्रफुल्ल थे। सयानी हो रही पन्द्रह-सोलह साल की बेटी को धर्म के लिए समर्पित कर जैसे उन्होंने एक अनिवार्य कर्तव्य से इतिश्री पा ली हो। वह भी बिना कोई मुट्ठी ढीली किए। श्रीमाली दम्पति को साधु समाज, जाति-बिरादरी, नाते-रिश्तेदार, शुभचिन्तकों और मित्रों से जो सम्मान, जो प्रशंसा मिली उससे वे गद्गद थे।
रात के करीब बारह बज रहे थे। जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली अपने शयनकक्ष में पलंग पर कच्छा-बनियान पहने लेटे छत की ओर ताकते सम्पन्न हो चुके शुभ कार्य के लिए ईश्वर को धन्यवाद दे रहे थे और श्रीमती कर्णप्रिया श्रीमाली ड्रेसिंग टेबल में लगे आदमकद शीशे के समक्ष खड़ी हो एक-एक कर अंगों से सोने के गहने उतार कर बड़े इत्मीनान से डिब्बों में रख रही थीं। कल ही वे इन गहनों को बैंक लॉकर से निकालकर लाई थीं और कल रख भी आएँगी।
अनायास ही जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली की पलकें झुकीं तो सामने लगे दर्पण पर जा टिकीं। जिसमें एक-एक कर सम्पूर्ण बेफिक्री से गहने उतार रही पत्नी कर्णप्रिया की दर्पछवि दमक रही थी। उन्होंने गहने उतारने में असुविधा न हो इसलिए साड़ी का पल्लू नीचे गिरा दिया था। जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली को लगा जैसे कर्णप्रिया की त्वचा अन्तर्ज्योति से झिलमिला रही हो। बिना किसी प्रसाधन तकनीक के बावजूद इस उम्र में भी कैसे सँवरी हुई है कर्णप्रिया की देह। और फिर वे खुद को रोक नहीं पाए। विपरीत देह के आकर्षण से उनकी रक्त धमनियों में जैविक संरचना ने एकाएक क्रियाशील होकर यौनिक रोमांटिकता प्रवाहित कर दी और जैसे उनके शरीर पर चढ़ी आध्यात्मिकता की कृत्रिम केंचुल स्वयमेव उतरने लगी हो। और फिर कर्णप्रिया की सुगठित देह उनकी बाँहों में थी। उन्हें लगा एक दायित्व-बोझ से हाल ही में मुक्त हुई कर्णप्रिया की जैविक संरचना भी जैसे पहले से ही रोमांटिक मनःस्थिति में थी। देहों का महारसायन जब चरमसुख की अनुभूति से द्रवित हुआ, बाँहों की गर्मी पिघली तो अनायास ही कर्णप्रिया ने सवाल उछाला, ‘‘जवान बेटी को खेलने-खाने की उम्र में बलात् साध्वी बनाकर क्या हमने उचित किया? क्या यह प्राकृतिक संरचनाओं, प्राकृतिक इच्छाओं के विरुद्ध नहीं? जब हम इतनी उम्र में, इतनी जवाबदारियों से बँधे होने के बावजूद संयम नहीं बरतते, सेक्स के लिए लालायित व बेचैन रहते हैं। ऐसे में क्या बेटी को धर्म, स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग पर डालकर हमने उचित किया? वे रास्ते कहाँ जाते हैं, आज तक किसी को नहीं पता? सिर्फ अटकलें हैं?'' निढाल निरुत्तर जिनेन्द्र कुमार श्रीमाली पत्नी कर्णप्रिया श्रीमाली की प्रश्नवाचक आँखों को ताकते रह गए। सामाजिक और धार्मिक मान-मर्यादाओं के समक्ष जैसे प्रकृतिजन्य अवधारणाएँ अथवा माँगें गौण बनकर रह गई हों।
भस्मीभूत हुई साध्वी की घटना का समाचार
और फिर पाँच साल का लम्बा समय गुजर गया। इस नगर में सब कुछ सहज ढर्रे पर था। कु. मुक्ता श्रीमाली मौसी नंदिताश्री की प्रेरणा और मुनि शिरोमणि श्रीश्री 108 श्रीवृंद से दीक्षा लेकर साध्वी के सात्विक स्वरूप से महिमामण्डित हो साध्वी मुक्तीश्री के रूप में आई घटनाएँ विराम पा चुकी थीं। रमन तो जैसे नगर के लिए अस्तित्वहीन ही था। इतना लम्बा समय बीत गया, कोई चिट्ठी-पत्री नहीं। लेकिन इतनी सरलता से पीछा छूटता ही कहाँ है...। गोल धरती पर गोल-गोल घूमते लोग परस्पर टकरा ही जाते हैं और तब पता चलता है कि कोई भी पुराना सम्पर्क..., संस्कार एकाएक टूट नहीं जाता..., कोई अन्तर्सूत्र होते हैं, जो अनजाने में भी बाँधे रखते हैं। इस नगर के लोगों ने एकाएक आज तक, एनडीटीवी, स्टार न्यूज, इण्डिया टीवी, ईटीवी और सहारा समय पर ब्रेकिंग न्यूज देखी, बीस-इक्कीस साल की साध्वी मुक्तीश्री चमत्कारिक ढंग से भस्म...मन्दिर पर उमड़े दर्शनार्थी और फिर अगले दिन के अखबारों नयी दुनिया, दैनिक भास्कर, लोकमत समाचार, चौथा संसार, जनसत्ता, दैनिक जागरण में पढ़ा, अचानक प्रगट हुए अलौकिक प्रकाश में साध्वी मुक्तीश्री भस्म..., तप के साक्षात् चमत्कार से साध्वी को मानव जीवन से मिला मोक्ष...अपने कल्याण के लिए साध्वी की भस्म को माथे पर लगाने का ताँता लगा...साध्वी मुक्तीश्री की समाधि स्थल पर श्रद्धालु उमड़े, भीड़ पर काबू पाने में प्रशासन लाचार...। जब इस घटना को दैवीय चमत्कार मानने से इनकार करते हुए अन्धश्रद्धा निर्मूलन समिति के कार्यकर्ताओं ने घटना की गम्भीरता से जाँच कराए जाने की माँग जिला प्रशासन से की तो अन्ध-भक्तों ने समिति के कार्यकर्ताओं के साथ अभद्रता तो बरती ही, उनके कपडे़ भी फाड़ दिए और उनके साथ हाथापाई करने पर भी उतर आए। पुलिस ने उन्हें संरक्षण में लेकर बमुश्किल संवेदनशील स्थल के दायरे से बाहर किया। अब टीवी चैनलों पर प्रमुख समाचार की बजाय कार्यकर्ताओं के साथ जूझ रहे श्रद्धालुओं और लाचार पुलिस के दृश्यों को लेकर ब्रेकिंग न्यूज थी।
खैर, घटनाओं से जुड़ी रहने वाली हमारी नायिका कु. मुक्ता श्रीमाली, लाड़ली मुक्ति और साध्वी मुक्तीश्री एक बार फिर विचित्र और दिव्य घटना से जुड़कर समूचे राष्ट्र में चर्चा में आ गई। मुक्तीश्री इस अतीन्द्रिय शक्ति से कैसे चमत्कारिक ढंग से भस्मीभूत हुई, इसकी तहकीकात के लिए पीछे लौटते हैं...
मुक्ता और रमन का पुनर्मिलन
बरसात का मौसम! चातुर्मास का समय। वर्षा ऋतु के संसर्ग और शीतल वायु के स्पर्श से निखर आई हरियाली की आत्ममुग्ध छटा। चौमासा में एक जगह पड़ाव डालने हेतु एक मुख्य नगर के लिए मुख्य मार्ग पर साधु संघ गतिशील। इसी संघ में शामिल है कभी उन्मुक्त रही, खण्ड-खण्ड मुक्ता...। एक वस्त्रधारी साध्वी मुक्तीश्री...। धर्म की वल्गाओं से नियन्त्रित रहने के कारण संयमित आहार से शारीरिक रुग्णता और दुर्बलता का मौन दंश झेल रही मुक्तीश्री मोक्ष के तथाकथित मार्ग पर गतिमान मुक्तीश्रीका मन अब बदलते मौसम में प्रमुदित होकर मोर पंखों की तरह इन्द्रधनुषी आकार नहीं लेता। लेकिन यह क्या...धवल एक वस्त्रधारी मुक्तीश्री चौंकी...। चाल धीमी हुई और आँखें एक चेहरे की छवि को पहचानने के लिए केन्द्रित...। रमन की कद-काठी का सुदर्शन युवक। चेहरे पर काली-घनी दाढ़ी। कन्धे पर झूल रहा थैला। युवक की भी विचित्र मनःस्थिति। धूल जमी आकृतियों को पहचानने की मनःस्थितियों से उनके कदम थम से गए। वे किनारे हुए। और संघ में चल रहे सबसे पिछले दल से एक निश्चित दूरी बनाए रखते हुए चल दिए...।
घटना, प्रति-घटना से आशंकित मुक्तीश्री अपने कक्ष में निद्रा में डूब जाने का उपक्रम करती हुई करवटें बदल रही है। घनी-काली दाढ़ीवाला वह युवक रमन ही था। वही रमन जिसके साथ उसने तीन बाई छह की भुखारी में रासलीला रची थी। और इस लीला के रचने से पहले उसके स्मृति पटल पर मौसाजी की नंगी देह और मौसी द्वारा आँचल को ब्लाउज में समेट लेने के दृश्य और उस दिन स्कूल में एड्स से बचाव और यौन शिक्षा के औचित्य विषय पर आयोजित कार्यशाला के दौरान श्यामपट्ट पर चित्रित जननांगों के स्वरूप व क्रियाएँ जीवन्त हो उठीं। लेकिन धर्म में देह की पवित्रता को प्रधानता देनेवाले शास्त्रज्ञ, त्रिकालदर्शी उसकी दैहिक अपवित्रता की पड़ताल कहाँ कर पाए? तभी तो वह आज साध्वी-ब्रह्मचारिणी जैसी मनुष्य द्वारा गढ़े अलंकरणों से विभूषित हो, इतना सम्मान पा रही है। वास्तव में वह खुद को और समाज को छल रही है। सच्चाई के धरातल पर तो संन्यास एक छल, मुक्ति एक भ्रम और मोक्ष एक पाखण्ड ही है। सुख के पर्याय होने के बावजूद शरीर को इन शब्दों से कहीं सुखानुभूति नहीं मिलती,यह उसके लिए अब भोगी हुई सच्चाई है? इस यथार्थ को झुठलाया नहीं जा सकता?
पिछले पाँच साल से लापता रमन को एकाएक सामने पाकर मुक्ता हैरत में थी। वह इसे संयोग माने या भाग्य की विडम्बना, साध्वी होने के बावजूद किसी निर्णायक स्थिति पर पहुँच नहीं पा रही थी। रमन ‘विश्व के प्रमुख दर्शन और ईश्वर की अवधारणा' विषय पर पी-एचडी के लिए शोध कर रहा था। इस कार्य के लिए उसने मन्दिर में ही डेरा डाला हुआ था। मुनियों से वह मुख्य और उसके उप विषयों पर लम्बी बातचीत कर नोट्स तैयार करता तो कभी टेप में बातचीत दर्ज करता। भवन के किसी भी कक्ष में बिना बाधा के उसे आवागमन की छूट थी। मुक्तीश्री को खुटका था...कि देर रात रमन उसके कक्ष में आ सकता है। लेकिन यह खुटका ही था अथवा प्रतीक्षा...? शायद इसीलिए उसने किवाड़ भी लटकाकर रखे थे। लेकिन रमन आया नहीं।
अगले दिन जब मुक्तीश्री दैनन्दिन चर्याओं से निवृत्त हो ध्यानस्थ होने के उपक्रम में थी तो एकाएक रमन कक्ष में दाखिल हुआ। प्रस्तर शिला-सी मुक्तीश्री के चेहरे पर नियन्त्रित प्रगल्भता अनायास ही छा गई। उसने रमन को आसन पर आसीन होने का इशारा किया। रमन ने बैठने के साथ ही कागज, कलम और टेपरिकॉर्डर निकाल लिये।
‘‘मुझसे भी धर्म और दर्शन से सम्बन्धित प्रश्न पूछोगे?''
‘‘क्यों नहीं? आप एक साध्वी हैं। धर्म, दर्शन, ज्ञान और ईश्वर के वास्तविक स्वरूप की सरल व्याख्या साधु समाज ही कर सकता है। क्योंकि वह ज्ञान की इस खोज के मार्ग पर आरूढ़ है।''
‘‘लेकिन तुम तो मेरी हकीकत जानते हो?''
‘‘वह किशोरवय की नादानी अथवा अज्ञानता थी। यहाँ उसकी चर्चा का कोई मोल नहीं?''
‘‘मुझे तो यह अनुभव हो रहा है कि तत्त्वज्ञान के मार्ग पर मैं हूँ लेकिन तत्त्वज्ञानी तुम हो। मुझे तुमसे सीख लेनी चाहिए?''
‘‘मैं एक भटका हुआ, अभिशापित अनाथ हूँ। मैं किसी को क्या सीख दे सकता हूँ?''
और साध्वी मुक्तीश्री ने अनुभव किया जैसे रमन के चेहरे पर दारुण दुख की पीड़ा उभर आई हो। रमन को सन्ताप पहुँचाने की दृष्टि से वह बोली, ‘‘पूछो, क्या पूछना चाहते हो?''
‘‘साध्वी के बन्धन में कैसी अनुभूति है?''
‘‘जहाँ बन्धन है, मर्यादाएँ हैं, वहीं आशंकाएँ हैं, बन्धन के ढीले पड़ जाने की...अथवा टूट जाने की...। जहाँ मर्यादाएँ हैं वहाँ भय है, उनके उल्लंघन का।''
‘‘साधु जीवन में भी ऐसा सम्भव है?''
‘‘क्यों नहीं...। साधु अथवा साध्वी भी आखिरकार हैं तो स्त्री-पुरुष ही? साधु तो शरीर की नैसर्गिक क्रियाओं पर अतिक्रमण भर है। ईश्वर अथवा प्रकृति ने धर्म नहीं शरीर दिया है और शरीर में अदम्य इच्छाएँ पनपने की अनन्त सम्भावनाएँ हमेशा ही बनी रहती हैं। धर्म और सामाजिक मर्यादाएँ तो आकांक्षाओं पर बलात् नियन्त्रण के कारक भर रहे हैं, जिससे सभ्य जताई जानेवाली सामाजिक संरचना का ताना-बाना बना रहे।''
साध्वी के द्विअर्थी उत्तरों से रमन विचलित होने लगा था। इन उत्तरों में उसे स्कूली मुक्ता की उन्मुक्त व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की झलक और सामाजिक संस्कारों के द्वन्द्व में प्रखर वैयक्तिक उपस्थिति का दर्प दृष्टिगोचर होने लगा था। उसने धवल एक वस्त्रधारी मुक्तीश्री को गौर से परखा...। मुक्ता की कमनीय देहयष्टि के कोणों में जैसे अतृप्त उपभोग की अनन्त आकांक्षाएँ अँगड़ाई ले रही हैं। उसकी दृष्टि जब ठिठकी रही तो रमन की मंशा को ताड़ती मुक्तीश्री ही बोली, ‘‘अब जाओ रमन, मेरे आहार ग्रहण करने का समय हो रहा है। तुम्हें तो कहीं भी आवागमन में बाधा है नहीं। फिर आना...।''
रमन के कक्ष से गमन के बाद मुक्तीश्री विचित्र मनःस्थिति में थी। साध्वी जीवन में प्रवेश के संकल्प से काया में जो निर्वात था उसमें जैसे इच्छाओं के सतरंगी इन्द्रधनुष उभरने लगे। शुष्क शरीर में इन्द्रियों की जो संवेदना सुप्तावस्था में थी वह जैसे रमन के सम्पर्क की संजीवनी-गन्ध पाकर संवेदित हो उठी हो। वाकई शरीर में जीवित मूल्यों का अहसास विपरीत लिंगी की निकटता से ही होता है।
और फिर रमन एवं मुक्तीश्री की मुलाकातों, परिचर्चाओं का अनवरत सिलसिला ही शुरू हो गया...
रमन का नानकचन्द से सम्पर्क और रोजगार का सिलसिला
रमन अब पहले जैसा अन्तर्मुखी नहीं था। भूख और लाचारी ने उसके स्वाभाविक संकोच को वाक्पटुता में तब्दील कर दिया था। एक नयी घटना की तरह रमन से हुए पुनः साक्षात्कार के तत्क्षण से ही मुक्तीश्री को उसके अतीत और वर्तमान जानने की दिलचस्पी बढ़ती चली गई थी...। रमन ने ही बताया था कि तीन बाई छह की भुखारी में किए उस धत्कर्म की परिणति झेलने के बाद अपनों के ही अपमान के दंश से आहत वह इण्टरसिटी ट्रेन में बे-टिकट सवार हो चुपचाप निकल आया था। डिब्बे के दुर्गन्धयुक्त शौचालयों के बीच की जगह पर कभी बैठे तो कभी खड़े बार-बार लतियाने-धकियाने का अनुभव करता हुआ वह इस शहर के भीड़ से खचाखच भरे प्लेटफार्म पर उतरा...। सम्पत्ति के नाम पर उसकी जेब में थे सहेजकर रखे कुछेक सौ रुपये, योग्यता को प्रमाणित करने हेतु हाई स्कूल की अंक सूची और अपनी दक्षता को सिद्ध करने की अन्तर्मन में हाड़तोड़ मेहनत करने की अदम्य जीवटता। धीरे-धीरे भीड़ की छँटती एकान्तिकता में ठेले पर पूड़ी-सब्जी बेचने वाले से जब उसने अनाथपने की मार्मिकता के साथ कोई रोजगार देने अथवा दिलाने की विनम्र पुकार की तो उसे आश्चर्य हुआ, ठेलेवाले के हृदय में जैसे उसे उपकृत करने की भावना पूर्व से ही हिलोर रही हो। एकाएक ही कड़ाही में पूड़ी तलते हुए उसने जूठे दोनों से भरे टीन के कनस्तर की ओर इशारा कर कहा, ‘‘जा इन दोनों को प्लेटफार्म के सिरे से पटरी पारकर फेंक आ।'' कनस्तर को उठाते हुए रमन ने उत्साह के जिस संचार का अनुभव किया, उससे उसकी पूरी रात लतियाये जाने से उपजा हीनता बोध और अनजान शहर में पैर जमाने के संकट का भय अनायास ही तिरोहित हो गया। रमन को आश्रय देने वाला था नानकचन्द पूड़ीवाला।
पटरी पर गति पकड़ती रेलों की तरह उसके जीवन में भी गतिशीलता आती गई। कुछ दिनों में उसने प्लेटफार्म पर ही ठेलेवाले बन्धु नानकचन्द पूड़ीवाले के सान्निध्य में फेरी लगाकर सुबह और शाम के अखबार बेचने का काम भी शुरू कर दिया। फिर क्या था फक्कड़ और बेफिक्री के बीच जीवन कुछ बेहतर पा लेने की तमन्ना के साथ गर्दिशी की परवाह किए बिना आगे बढ़कर ढर्रे पर आता चला गया। रमन ने इण्टर, बीए और फिर दर्शनशास्त्र से एमए प्रथम श्रेणियों में उत्तीर्ण किए। और अब वह ‘विश्व के प्रमुख दर्शन और ईश्वर की अवधारणा' विषय पर पी-एचडी की उपाधि हेतु प्रयत्नशील है।
प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष का द्वन्द्व
एकान्त क्षणों में रमन से निरन्तर मुलाकातों का दौर मुक्तीश्री की आध्यात्मिक चेतना को मानवीय ऊहापोह के द्वन्द्व से प्रभावित करने लगा। दूसरों के लिए सौभाग्यशाली लगने एवं प्रेरित-उत्प्रेरित करनेवाली आध्यात्मिक उपलब्धियों को धारण करने के बावजूद वह नहीं समझ पा रही थी कि प्रारब्ध और आचरण परस्पर समन्वय से निर्मित होते हैं अथवा आकस्मिक घटनाओं से उत्सर्जित? रमन की निकटता में जिस ताप की अनुभूति उसे होती वह आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति को मद्धिम कर जाती। तब जो अप्रत्यक्ष है, काल्पनिक है उस पर प्रत्यक्ष और वास्तविक भारी पड़ने लगते। उसे वीतराग के विज्ञान की वह अवधारणा भी झूठी लगने लगती कि चिन्तन और मनन से व्यक्ति की आन्तरिक अखण्डता मजबूत होती है और जितनी आन्तरिक अखण्डता मजबूत होगी, उतना ही बाहरी सौन्दर्य विकसित होगा। बाहरी सौन्दर्य के लिए भीतरी सौन्दर्य को विकसित करना जरूरी है। लेकिन उस रात रमन के साथ जब उसने वह नहीं जानती कि वह वासना थी या प्रबल प्रेम का आन्तरिक उद्रेक, देह के बन्धन को शिथिल कर दिया तो परस्पर ऊर्जाओं का जो आदान-प्रदान हुआ वह स्त्री-पुरुष के मिलन का एक अद्भुत, अलौकिक मंगल उत्सव था और उसकी चरम परिणति के बाद मुक्तीश्री ने जिस पूर्णत्व की प्राप्ति की उसकी अनायास अभिव्यक्ति यह थी, ‘‘साध्वी के इस बन्धन से मैं मुक्ति चाहती हूँ रमन...। ईश्वर और मोक्ष की खोज में इस उम्र में मैं और भटकना नहीं चाहती। प्रकृति ने हमारे ही अन्तर में आनन्द और सुख की अनुभूतियों के जो अजस्र स्रोत दिए हैं, मैं उनमें तुम्हारे संग डूबना-उतराना चाहती हूँ रमन।''
समय बीतता रहा। इस बीच आवरण और आचरण से साध्वी बनी रहने के आडम्बर से संचालित मुक्तीश्री उन ऋषि-मुनियों से घण्टों परिचर्चा कर आई जो त्रिकाल द्रष्टा और भूत, वर्तमान व भविष्य के वेत्ता थे। वह चाहती थी कि कोई अन्तर्दृष्टि उसके द्वारा किए धत्कर्म के भेद के रहस्य को उजागर करे? मौसी नंदिताश्री भी कुछ नहीं जान पाईं। जबकि वे इतने निकट थीं और वे उसके उस भेद को भी जान गई थीं जिसे उसने रमन के साथ तीन बाई छह की भुखारी में अंजाम दिया था। लेकिन मुक्तीश्री अब आश्वस्त हो गई थी कि भूत, वर्तमान और भविष्य के गर्भ में क्या है यह कोई नहीं जान सकता? मौसी नंदिताश्री के समक्ष जरूर उस भेद का खुलासा मौसी सर्वमित्रा ने किया होगा? अन्ततः मुक्तीश्री की प्रकृति से परे अज्ञात दिव्यलोक की अवधारणा और साधना से अतीन्द्रिय शक्तियों पर सिद्धि प्राप्त की मान्यता दरकने लगी। उसने तय किया खण्ड-खण्ड मुक्ता अब साध्वी के इस आवरण से भी मुक्त होगी। एक उन्मुक्त मुक्ता...। उसने निश्चय किया कि साध्वी मुक्तीश्री से मुक्ति का मार्ग वह मौसी नंदिताश्रीसे ही सुझाएगी।
और फिर एक दिन मौसी नंदिताश्री ने ही उसे टोका, ‘‘मुक्ती आजकल तुम्हारी निकटता रमन से बहुत बढ़ती जा रही है। एकान्त में वह घण्टों तुम्हारे कक्ष में रहता है?''
‘‘हाँ, मौसी...।''
‘‘युवा साध्वियों के लिए पुरुषों से एकान्त में ज्यादा मिलना उचित नहीं? तुम्हें पता नहीं दीवारों में भी सूराख होते हैं और उनसे छनकर अफवाहें बाहर निकलने लगती हैं जो एक साध्वी के चरित्र को कलंकित कर सकती हैं?''
मौसी की चरित्रजन्य चेतावनी भरी उलाहना मुक्तीश्री पर बेअसर रही। उलटे उसके होठों और आँखों में एक रहस्यमयी निर्लिप्त मुस्कान छा गई। नंदिताश्री चौंकी, ‘‘तुम हँस क्यों रही हो मुक्ती? क्या तुम्हें कालान्तर में चरित्र पर लगाए जानेवाले लांछनों की कोई शंका-कुशंका नहीं?''
‘‘कोई शंका-आशंका की उम्मीद तो हो मौसी...? सब पर विराम लग चुका है।''
‘‘तुम्हारा क्या आशय है मुक्ती। मैं कुछ समझी नहीं...?''
‘‘मौसी..., यह वही रमन है, जिसके साथ मैं पकड़ी गई थी...।''
‘‘...'' नंदिताश्री चौंककर मुक्ती को ताकती रह गई।
‘‘और अब मैं इस साध्वी जीवन से छुटकारा पाकर रमन के साथ ही जीवन भर रहना चाहती हूँ...।''
‘‘यह कैसे सम्भव है मुक्ती...?'' अवाक्-सी रह गईं नंदिताश्री।
‘‘अब हालातों को सम्भव ही बनाना होगा...क्योंकि मैं मातृत्व ग्रहण करने जा रही हूँ...और अब मुझे पत्नी और माँ के दायित्व भार के निर्वहन में ही कर्तव्यबोध नजर आ रहा है।''
साध्वी नंदिताश्री की दैविक भव्यता लोप होने लगी। साध्वी जीवन ग्रहण करने के बाद उन्होंने पहली बार इतनी प्रगाढ़ लाचारी का अनुभव किया। एकाएक उन्हें मुक्तीश्री की सद्गति का कोई मार्ग नहीं सूझा।
मोक्ष का षड्यन्त्र और सच्चाई का प्रगटीकरण
आखिरकार मार्ग तो सूझता ही है...
और फिर नंदिताश्री ने मुक्तीश्री को मुक्ती का जो मार्ग सुझाया उससे मुक्ता
सहमत तो नहीं थी लेकिन मौसी के हठ और विनम्र आग्रह के चलते मानने के लिए बाध्यकारी जरूर हो गई थी। मौसी का सुझाया मार्ग एक धार्मिक षड्यन्त्र से होकर गुजरता था। परन्तु मौसी को इसी षड्यन्त्र में ही बनावटी सुख व भ्रामक आध्यात्मिक शान्ति परिलक्षित हो रही थी। मौसी ने धर्म और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए आखिर स्वीकारा भी, ‘‘बेटी किसी भी युग और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कभी भी ज्ञान का प्रकाश अन्धविश्वास के अँधेरों को पूरी तरह समाप्त नहीं कर पाया है...और न कर पाएगा...।'' मुक्ता विवश हो गई।
और फिर एक दिन समाचार चैनलों पर लोगों ने जो लाइव ब्रेकिंग न्यूज देखी उसमें साध्वी मुक्तीश्री को भस्मीभूत दिखाया गया। जहाँ साध्वी सोई हुई थीं वहाँ राख और कुछ अस्थियों का ढेर था। जिस चटाई पर साध्वी सोई थीं उस चटाई का उतना ही हिस्सा जला था, जितना साध्वी के शरीर का आकार था। इस पूरी घटना को एक चमत्कार होने का विश्वास जता रही थीं साध्वी नंदिताश्री, ‘‘मैंने कक्ष की छत से प्रकाश का एक धधकता गोला साध्वी मुक्तीश्री के शरीर पर गिरते देखा। उस गोले ने क्षण मात्र में साध्वी के शरीर को भस्मीभूत कर दिया और साध्वी का जीवन धन्य होकर मोक्ष को प्राप्त हुआ...।''
रमन नंदिताश्री के पास ही खड़ा नजर आ रहा था।
लेकिन एक दिन बाद एक नयी ब्रेकिंग न्यूज थी, साध्वी मुक्तीश्री रेलवे स्टेशन पर पूड़ी बेचने वाले नानकचन्द के घर से बरामद। साध्वी ने पुलिस संरक्षण में मंजूर किया कि ‘‘रमन से प्रेम प्रसंग के चलते साध्वी नंदिताश्री जो उसकी मौसी भी हैं, ने प्रेम-प्रसंग पर पर्दा डालने के नजरिए से यह सब प्रपंच रचा।'' मुक्तीश्री से मुक्त हुई मुक्ता ने बेखौफ यह भी स्वीकारा, ‘‘मैं विश्व के प्रमुख दर्शन और ईश्वर की अवधारणा विषय पर पी-एचडी कर रहे रमन के बच्चे की माँ भी बनने वाली हूँ और मेरी कोख में दो माह का गर्भ है।''
उधर जब मुक्ता के माता-पिता की टीवी समाचार के लिए बाइट ली गई तो उनका साफ कहना था, ‘‘धार्मिक आचरण के विरुद्ध जानेवाली मुक्ता से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है वह उनके लिए मर चुकी है।''
सच..., साध्वी मुक्तीश्री की मौत की बेबाक घोषणा के बाद ही मुक्ता ने सही मायनों में पाया कि साध्वी के बन्धन से मुक्त होती जिन्दगी में ही वह एक मुक्त होती औरत को पा रही है। एक ऐसी औरत जो देह और मन के स्तर पर आनन्द के अनुभव में सराबोर है।
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(क्रमशः अगली कहानी - पिता का मरना )
भार्गव जी !इस कहानी में आपने एक ज्वलंत प्रश्न को उठाकर जैसे मेरे मुंह की बात छीन ली. कम उम्र में वैराग्य लेने का सदा विरोधी रहा हूँ मैं भी. मैनें भी कई जैन साध्वियों को देखा है ...पहले उनके प्रति बड़ी श्रद्धा होती थी. अब मन में तिरस्कार के भाव आते हैं. मुझे वहां एक गहरी साजिश और पाखण्ड ही नज़र आया. वहां वैराग्य नहीं बल्कि पूज्य होने की सांसारिक महत्वाकांक्षा है. और है थोथा ..अर्थहीन ज्ञान. मुझे लगता है कम उम्र का वैराग्य समाज को विकृत ही करेगा. धनलिप्सा में लगे जैन समाज की आवश्यकता है साधु-साध्वियों का संसर्ग ......मोक्ष के लिए नहीं ........पापों पर पर्दा डालने के लिए.
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