[मध्य युग ने मोक्ष का अतिक्रमण कर, भक्ति की स्थापना की। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल का विवेचन करते समय विद्वानों ने निर्गुण ...
[मध्य युग ने मोक्ष का अतिक्रमण कर, भक्ति की स्थापना की। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल का विवेचन करते समय विद्वानों ने निर्गुण भक्ति एवं सगुण भक्ति में भेद किया है तथा संतों एवं सूफियों के काव्य की परम्परा को निर्गुण भक्ति के अन्तर्गत रखा है। सभी संतों ने अपने काव्य में निर्गुण एवं निराकार उपास्य के प्रति अपना भक्ति-भाव अभिव्यंजित किया है। जब हम संतों के निर्गुण-भक्ति काव्य पर विचार करते हैं तो हमारी अध्ययन-सीमा के अन्तर्गत (1) नामदेव (2) कबीर (3) रैदास (4) नानक (5) जसनाथ (6) धर्मदास (7) सिंगा जी (8) दादू दयाल (9) सुन्दरदास (11 )षाह ष्बुल्ला (12) गुलाल साहब (13) पलटू साहब (14) मलूकदास (15) बाबा लाल(16) प्राणनाथ (17) जगजीवन साहब (18) धरनीदास (19) दरिया साहब (20) शिवनारायण (21) किनाराम (22) चरणदास (23) तुलसी साहब आदि संतों के द्वारा रचित साहित्य आता है। जब हम इन संतों के काव्य के सैद्धान्तिक पक्षों पर विचार करते हैं तो पंथों के रूप में (1) कबीर पंथ (2) नानक पंथ (3) दादू पंथ (4) बाबरी पंथ (5) मलूक पंथ (6) धरतीश्वरी पंथ (7) प्रणामी पंथ (8) सतनामी पंथ (9) शिवनारायणी पंथ (10) साहिब पंथ आदि आते हैं। इन पंथों में सैद्धान्तिक मत-वैभिन्नय भी मिलता है। प्रत्येक रचनाकार के साहित्य की अपनी विशिष्ट छटा भी दृष्टिगत होती है। सम्प्रति, इनके सामान्य पक्ष के कुछ बिन्दुओं पर विचार करना ही अभीष्ट है।]
भक्ति या उपासना के लिए गुणों की सत्ता आवश्यक है। ब्रह्म के सगुण स्वरूप को आधार बनाकर तो भक्ति / उपासना की जा सकती है किन्तु जो निर्गुण एवं निराकार है उसकी भक्ति किस प्रकार सम्भव है ? निर्गुण के गुणों का आख्यान किस प्रकार किया जा सकता है ? गुणातीत में गुणों का प्रवाह किस प्रकार माना जा सकता है ? जो निरालम्ब है, उसको आलम्बन किस प्रकार बनाया जा सकता है। जो अरूप है, उसके रूप की कल्पना किस प्रकार सम्भव है। जो रागातीत है, उसके प्रति रागों का अर्पण किस प्रकार किया जा सकता है ? रूपातीत से मिलने की उत्कंठा का क्या औचित्य हो सकता है। जो नाम से भी अतीत है, उसके नाम का जप किस प्रकार किया जा सकता है।
शास्त्रीय दृष्टि से उपर्युक्त सभी प्रश्न ‘निर्गुण-भक्ति‘ के स्वरूप को ताल ठोंककर ‘चेलैन्ज‘ देते हुए प्रतीत होते हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि संतों तथा सूफियों की ‘‘भक्ति‘‘ की विशिष्ट पद्धति तथा विशिष्ट दृष्टि का वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन होना चाहिए; पूर्वाग्रहरहित एवं पक्षपातहीन मनःस्थिति में इसकी व्याख्या होनी चाहिए। इस सम्बन्ध में कुछ विचार सूत्र तत्सम्बन्धित क्षेत्र के अध्येताओं एवं अनुसंधित्सुओं के लिए प्रस्तुत हैः
(1) कबीर आदि संतों की दार्शनिक विवेचना करते समय आचार्य रामचन्द्र शुल्क ने यह मान्यता स्थापित की है कि उन्होंने निराकार ईश्वर के लिए भारतीय वेदान्त का पल्ला पकड़ा है।
इस सम्बन्ध में जब हम शांकर अद्वैतवाद एवं संतों की निर्गुण भक्ति के तुलनात्मक पक्षों पर विचार करते हैं तो उपर्युक्त मान्यता की सीमायें स्पष्ट हो जाती हैं ः
(क) शांकर अद्वैतवाद में भक्ति को साधन के रूप में स्वीकार किया गया है, किन्तु उसे साध्य नही माना गया है। संतों ने (सूफियों ने भी) भक्ति को साध्य माना है।
(ख) शांकर अद्वैतवाद में मुक्ति के प्रत्यक्ष साधन के रूप में ‘ज्ञान' को ग्रहण किया गया है। वहाँ मुक्ति के लिए भक्ति का ग्रहण अपरिहार्य नहीं है। वहाँ भक्ति के महत्व की सीमा प्रतिपादित है। वहाँ भक्ति का महत्व केवल इस दृष्टि से है कि वह अन्तःकरण के मालिन्य का प्रक्षालन करने में समर्थ सिद्ध होती है। भक्ति आत्म-साक्षात्कार नहीं करा सकती, वह केवल आत्म साक्षात्कार के लिए उचित भूमिका का निर्माण कर सकती है। संतों ने अपना चरम लक्ष्य आत्म साक्षात्कार या भगवद्-दर्शन माना है तथा भक्ति के ग्रहण को अपरिहार्य रूप में स्वीकार किया है क्योंकि संतों की दृष्टि में भक्ति ही आत्म-साक्षात्कार या भगवद्दर्शन कराती है। इसका कारण है कि संतों की दृष्टि में भक्ति केवल अन्तःकरण के मालिन्य का प्रक्षालन करने वाली ‘वृत्ति' न होकर ‘आत्म शक्ति' ही है। संतों ने भक्ति को ‘अन्तःकरण की वृत्ति' न मानकर ‘आत्म शक्ति' के रूप में स्वीकार किया है।
(ग) शांकर अद्वैतवाद में अद्वैत-ज्ञान की उपलब्धि के अनन्तर ‘भक्ति' की सत्ता अनावश्यक ही नहीं अपितु असम्भव है। संतों में अद्वैतज्ञान के बाद भी ‘ज्ञानोत्तरा भक्ति' की स्थिति है। इसका कारण यह है कि भक्ति काल के साहित्य की रस-साधना में जो भक्ति है वह तत्वतः आत्मस्वरूपा शक्ति ही है। इस प्रकार भक्ति की उपासना वास्तव में आत्मस्वरूपा शक्ति की ही उपासना है। कबीर इसी कारण प्रतिपादित करते हैं कि ‘ समझि बिचारि जीव जब देखा, यह संसार सुपन करि लेखा/ भई बुधि कछु गयाँन निहारा, आप आपहि किया बिचारा'। सगुण भक्ति वेद, शास्त्र और पुराणों की सम्मति और समर्थन के बिना एक कदम आगे नहीं बढ़ती, किन्तु कबीर ने जीवन की साधना के बल पर जाना था कि ‘ मानस' यदि विकारों से मुक्त होकर ‘निर्मल' हो जाता है तो उसमें ‘अलख निरंजन' का प्रतिबिंब अनायास प्रतिफलित हो जाता है। ‘ प्यंजर प्रेम प्रकासिया, अन्तरि भया उजास'।
(2) संत अपने निराकार ईश्वर की भक्ति करते हैं। इस सम्बन्ध में विचार करते समय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की स्थापना है कि वे ऐसा इस कारण कर पाते हैं क्योंकि उन्होंने प्रेम तत्व सूफियों से ग्रहण कर लिया है, उनका प्रेम तत्व सूफियों का है। डा0 रामकुमार वर्मा कबीर के सन्दर्भ में विचार करते हुए संत-मत को हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्तों एवं मुसलमानी धर्म के मूल सिद्धान्तों से बना हुआ मानते हैं। ‘‘कबीर ने हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्तों को मुसलमानी धर्म के मूल सिद्धान्तों से मिलाकर एक नूतन पंथ का श्रीगणेश किया। इस तरह दोनों धर्मों के मूल से एक नवीन पंथ का प्रचार हुआ जो संतमत के नाम से पुकारा गया।''
संतों पर सूफियों का प्रभाव पड़ा है- इस बात को तो हम नहीं नकारते मगर उस प्रभाव के स्वरूप एवं सीमा-रेखा को अवश्य स्पष्ट करना चाहते हैं। यह बात अब स्पष्ट हो चुकी है कि स्वयं सूफी-साधना को केवल मुसलमानी धर्म के मूल सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखना संगत नहीं है। सूफी-मत के उपास्य को मुसलमानी धर्म या इस्लाम धर्म के एकेश्वरवाद के रूप में पहचानने का मतलब दोनों के अन्तर के प्रति अपनी अनभिज्ञता प्रकट करना ही होगा। वे परमात्मा को एकेश्वर रूप में नहीं, अपितु अद्वैत रूप में मानते हैं।
सूफी-मत का जो प्रभाव संत-साहित्य पर पड़ा है, उसकी स्पष्ट दिशायें निम्न हैं ः-
(1) मादन भाव (2) विरह की तड़पन (3) ब्रह्म के प्रति प्रगाढ़ अनुराग
इसी के साथ-साथ हम यह भी जोर देकर कहना चाहते हैं कि स्वयं सूफी मत में जिस उपास्य का स्वरूप चित्रांकित है, परम साक्षात्कार के भाव-केन्द्र का जो चिन्मय रूप है, गुरु का जो महत्व प्रतिपादित है तथा साधना-पक्ष में योग-पद्धति की जो विशिष्टता मान्य है वे भारतीय धर्म-साधना से प्रभावित हैं। सूफियों की साधना में नाम-जप तथा कुण्डलिनि-योग इत्यादि के तत्व स्पष्ट रूप में भारतीय तंत्रों के उपदान हैं।
संतों का प्रेम-तत्व ‘उधारी' का नहीं है। वस्तुतः इस प्रकार की भ्रान्त मान्यता का कारण हमारी समझ में यह आता है कि कुछ विद्वानों ने संतों को मूलतः ज्ञानाश्रयी मान लिया है, समाज-सुधारक मान लिया है। इस दृष्टि-दोष के कारण ही उन्हें संतों के काव्य का अपना मौलिक-अंश ज्ञान-मार्गी साधना के तत्व तथा समाज सुधारक के नैतिक उपदेश ही लगते हैं। इस दुराग्रह के कारण उन्हें निर्गुण पंथ के संतों में किसी दार्शनिक व्यवस्था दिखाने का प्रयत्न करना व्यर्थ प्रतीत होता है। इस संदर्भ में हम यह कहना चाहते हैं कि संतों को डा0 पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल की भांति द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि रूपों में वर्गीकृत करने का प्रयास भले ही संगत न हो मगर उनकी अपनी दार्शनिक व्यवस्था के वैशिष्ट्य को समझने का प्रयास होना चाहिये। इस दार्शनिक व्यवस्था में जो प्रेम तत्व है वह उधारी का नहीं है। संतों को न तो विशुद्ध ज्ञान-मार्गी माना जा सकता है और न ही विशुद्ध समाज-सुधारक। कबीर ज्ञान का सहारा मन को निर्मल बनाने के लिए लेते हैं। ज्ञान की आंधी भक्तिरूपी वर्षा के आने के लिए भूमिका मात्र है। ‘ आंधी पीछे जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भीना'। सभी संतों ने प्रेम पर बहुत अधिक जोर दिया है। भक्तिकाल के साहित्य की रस साधना में जो भक्ति है वह तत्वतः आत्मस्वरूपा शक्ति ही है। सभी संतों का लक्ष्य भाव से प्रेम की ओर अग्रसर होना है। प्रेम का आविर्भाव होने पर ‘भाव' शांत हो जाता है। भक्त महाप्रेम में अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। हम यह कहने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहे हैं कि सूफियों ने भी भाव के केन्द्र को भौतिक न मानकर चिन्मय रूप में स्वीकार किया है तथा कृष्ण भक्तों की भाव साधना में भी भाव ही ‘महाभाव' में रूपान्तरित हो जाता है। कृष्ण भक्त कवियों के काव्य में भी राधा-भाव आत्म-शक्ति के अतिरिक्त अन्य नहीं है।
(3) संतों की दार्शनिक व्यवस्था को वैष्णव मतवाद तथा उनकी भक्ति पद्धति को वैष्णव भक्ति आन्दोलन की पृष्ठभूमि तक सीमित रखकर व्याख्यायित करना भी संगत नहीं है। उनमें जो अहिंसावाद एवं प्रपत्तिवाद है उनको भी केवल प्राचीन वैष्णव भक्ति मार्ग का अनुसरण नहीं माना जा सकता। संतों की भक्ति एवं वैष्णव भक्ति समरूप नहीं हंै । उनमें कुछ मूलभूत अन्तर हैं:
(क) संतों ने उपास्य के स्वरूप को स्वीकार नहीं किया है। उनकी साधना ‘रूप की साधना' नहीं है। उनकी साधना ‘नाम' की साधना है। उन्होंने उपास्य के नाम का जप किया है। वैष्णवों ने नाम रूप दोनों को अंगीकार किया है। संतों का ‘अनाहत नाद' तत्वतः भगवत् नाम ही है। संत ‘नाम' के ही रंग में रंगकर तद्रूप हो जाता है। भीतर अव्यक्त व्यक्त हो जाता है। ‘प्रेम ध्यान की तारी' लग जाती है। ‘सहजावस्था' की प्राप्ति हो जाती है।
(ख) वैष्णव योग को भक्ति का प्रतिपक्षी मानते हैं। अधिकांश वैष्णवों ने योग एवं ज्ञान का मजाक उड़ाया है। संतों की भक्ति का साधना-पक्ष मूलतः योग पर आधारित है। सहज यानी और नाथ-पंथियों की योगमूलक साधना परम्परा से काटकर संतों की साधना परम्परा पर विचार नहीं किया जा सकता।
(ग) संतों एवं वैष्णवों की सामाजिक चेतना का अन्तराल बहुत स्पष्ट एवं महत्वपूर्ण है। वैष्णव जाति, वर्ण एवं वर्णांश्रम की पारम्परिक प्रथा में विश्वास रखते हैं। संत इस प्रथा के विरोधी हैं। वे जन्मना विभाजन को नहीं मानते, कर्मों के अनुसार मनुष्य की कोटि के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं।
(घ) वैष्णवों की भक्ति शास्त्रीय है। संत शास्त्रीय ज्ञान को त्याज्य मानते हैं तथा सत्संग, प्रेम एवं विवेक का महत्व निरूपित करते हैं। संत साधना की आंतरिकता में आस्था रखते हैं तथा बाह्याचारों का प्रतिषेध करते हैं।
तत्वतः सभी संतों के विचारों में अनेक दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ है। संतों की दार्शनिक दृष्टि को किसी सीमा रेखा में बांधना युक्तियुक्त नहीं है। उनकी विशिष्ट दार्शनिक-व्यवस्था व्यापक पृष्ठभूमि पर आधारित है। इसको हृदयंगम न कर सकने के कारण उनमें परस्पर विरुद्ध एवं विपरीत दार्शनिक तत्वों के होने का आभास होता है। उनकी ‘भावभूमि' में भेद, अभेद, भेदाभेद तीनों विद्यमान हैं। भूमध्य से नीचे आज्ञाचक्र से मूलाधार चक्र तक की भेद-भूमि है, सत्य लोक से भूमध्यम के ऊपर तक महामाया के स्तर पर भेदाभेद भूमि है किन्तु इनके परे अनामी, अलख, अगम लोक की अभेद भूमि है। उनकी दृष्टि की व्यापकता को न पहचान पाने के कारण उनके काव्य में कुछ विद्वानों को भले ही अस्पष्ट, क्रमरहित एवं असम्बद्ध दार्शनिक विचारोें की प्रतीति होती हो मगर हमारी धारणा है कि इनमें दार्शनिक विचारों की एकरूपता, दार्शनिक-व्यवस्था की संगति, दार्शनिक-स्थापनाओं की विलक्षणता है जो इनकी अत्यंत व्यापक, मानवीय, उदार उवं उदात्त चेतना तथा प्रगतिशील दृष्टि का प्रतिफलन है और यदि कोई इसको शास्त्र की पृष्ठभूमि में ही समझने का अभ्यासी हो तो उसके लिए मैं यह कहना चाहूंगा कि इनके दार्शनिक सिद्धान्तों एवं भक्ति-प्रवाह को आगमिक-परम्परा के आलोक में ज्यादा अच्छी तरह समझा जा सकता है । सर्वब्रह्मवाद, निस्पंद एवं निष्क्रिय परम शिव की पंचकृत्यकारिता, सर्वचिन्मयवाद, सामरस्यवाद, शक्तिवाद, शक्तिपातवाद, पिण्डब्रह्माण्डेक्यवाद, नाद-बिन्दुवाद, अधिकारवाद, लीलावाद, रसवाद तथा काश्मीरी शैवागम एवं शास्त्र दर्शन में मान्य ज्ञान-भक्ति-योग समन्वयवाद एवं ज्ञानोत्तरा भक्ति आदि की पृष्ठभूमि में हम संतों के निर्गुण भक्ति-साहित्य के निम्न बिन्दुओं की व्याख्या करने में समर्थ सिद्ध हो सकते हैं ः
(अ) भक्तिमार्ग के आलम्बन सगुण ब्रह्म के स्थान पर ज्ञानमार्ग के आलम्बन निर्गुण ब्रह्म के प्रति प्रेम।
(आ) निर्गुण ब्रह्म में गुणों का आरोपण।
(इ) मुक्ति की अद्वैत दशा में भी द्वंद्वात्मक भक्ति की कल्पना।
(ई) निष्क्रिय, निस्पंद एवं निर्गुण ब्रह्म में क्रियाशीलता तथा गुणवत्ता की विद्यमानता।
(उ) जीवात्मा को अंश मानकर भी उसको ब्रह्म घोषित करने की प्रवृत्ति । आत्मा एवं परमात्मा की अभेदता।
(ऊ) जगत को मिथ्या मानकर भी उसे लीलामय की रसमयी लीला मानने की दृष्टि।
(ए) मिथ्यात्ववाद में विश्वास करते हुए भी आनन्दवाद एवं सर्वचिन्मयवाद में आस्था।
(ऐ) जगन्मिथ्यात्व का प्रतिपादन करके भी उसके सत्यत्व की पुष्टि।
(ओ) योग एवं भक्ति में समन्वय।
(औ) ज्ञान, भक्ति एवं योग तीनों की स्वीकृति।
अंत में इस लेख का समापन इन श्ाब्दों के साथ करना चाहूँगा कि समस्त प्राणियों के प्रति प्रेम भाव, मैत्री भाव तथा समभाव होना ही संतों की साधना का मार्ग है।
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प्रोफेसर महावीर सरन जैन
(सेवानिवृत्त्ा निदेशक,केन्द्रीय हिन्दी संस्थान)
123, हरिएन्क्लेव, बुलन्दशहर-203001
(05732-233089)
यह तो अपने आप में एक ज्ञानयुग प्रभात है रतलामी साहब। बहुत आभार आपका इस पोस्ट के लिए।
जवाब देंहटाएंहिन्दी साहित्य की संबृद्ध परम्पराओं के बारे में एक बहुत ही ज्ञानप्रद लेख।
जवाब देंहटाएंमैना: भोजपुरी साहित्य क उड़ान