(विष्णु प्रभाकर – चित्र- साभार, जोश 18) ''मैं साहित्यकार को तीसरी आंख मानता हूं''-विष्णु प्रभाकर यशवन्त कोठा...
(विष्णु प्रभाकर – चित्र- साभार, जोश 18)
''मैं साहित्यकार को तीसरी आंख मानता हूं''-विष्णु प्रभाकर
यशवन्त कोठारी
विष्णु प्रभाकर हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार हैं। पिछले पचास वर्षों से निरन्तर साहित्य साधना करते हुए उन्होंने चालीस से भी अधिक पुस्तकें लिखी है। साहित्य में वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। नाटक, एकांकी, कहानी, उपन्यास जीवनी आदि कई विधाओं में उन्होंने समान अधिकार से लेखनी चलाई है। ‘आवारा मसीहा' तो उनकी श्रेष्ठ कृति के रूप में समादृत्त हुई ही है साथ ही उनके अनेक नाटक और एकांकी भी आकाशवाणी और रंगमंच पर काफी लोकप्रिय हुए हैं।
21जून 1912 में जन्में, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी और गांधी-वादी लेखकों में प्रमुख श्रीप्रभाकर इन दिनों दिल्ली में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार सहित कई अन्य पुरस्कार मिल चुके हैं। प्रस्तुत है उनसे हुए साक्षात्कार के अंश-
आपकी पीढ़ी के साहित्यिक दृष्टिकोण और युवा पीढ़ी के साहित्यक दृष्टिकोण में आप क्या अन्तर महसूस करते है ?
अन्तर बहुत स्पष्ट है। मेरी पीढ़ी के साहित्यकारों ने सुधार आन्दोलन,राष्ट्रीय आंदोलन को देखा, भोगा और महसूस किया। मैं स्वयं कभी आर्य समाजी था, राष्ट्रीय आंदोलन में पुलिस की कृपा भी मुझ पर हुई, बड़े भाई जेल में रहे। इन बातों का प्रभाव मेरे सृजन पर पड़ा। हमारे सामने आदर्ष, त्याग और बलिदान जैसे मूल्य थे, लेकिन आजादी के बाद स्थिति तेजी से बदली। हमारे नेताओं ने आजादी का सुख भोगना षुरू कर दिया। उन्होंने सत्ता का एक प्रकार से दुरुपयोग किया इस कारण नैतिक मूल्यों में तेजी से गिरावट आई और इससे नई पीढ़ी का बुरी तरह से मोह भंग हुआ। आदर्शों, त्याग और बलिदान जैसे मूल्यों के आगे प्रश्न चिन्ह लग गये।
इस बदलाव के कारण साहित्य में भी बदलाव आये। लेकिन उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं। अन्ततः हम कहां पहुंचते है यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। पीढ़ियों का अन्तर तो वैसे भी सभी जगह रहता है। हम आगे ही बढ़ते है पीछे नहीं लौटते।
साहित्य में जो निराशाजनक स्थिति चल रही है, उस पर आप क्या सोचते हैं ?
जैसा कि मैंने कहा मूल्यों में लगातार हृास के कारण यह निराशाजनक स्थिति आई है। नये मूल्य बने नहीं है और न कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व ही ऐसा है जो पहल कर सकें। पूरे विश्व में ऐसी स्थिति है मूल्यों का संकट, नेता का संकट सर्वत्र है और इसी संकट के कारण स्थिति निराशाजनक बनी है। प्रेमचन्द ने कहा है 'अपनी लड़ाई स्वयं लड़ों, और यही हम सभी को करना चाहिये। लेकिन इसका अर्थ यह हरगिज नहीं है कि व्यक्ति अपने में सिमट जाये व्यक्ति कभी अपनी निजता में धन्य नहीं होता, परिवेष से जुड़कर सार्थक होता है; हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति के प्रति उत्तरदायी होता है।
आप आकाशवाणी से लम्बे समय तक जुड़े रहे हैं। वहां के गैर साहित्यिक वातावरण पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है ?
भाई यह तो सरकारी मीडिया है। ये ऐसे ही चलते हैं जैसे सरकार चाहती है। जब मैं नाटक विभाग का निदेशक था तो एक बार आदेश आया कि 75 प्रतिशत श्रोता सामाजिक कामेड़ी, 10 प्रतिशत श्रोता सामाजिक ड्रामा व 1 प्रतिशत श्रोता टे्रेजेडी सुनना पसन्द करते हैं। ऐसी स्थिति में मैंने कहा तब मेरी क्या आवश्यकता है। ये काम तो कोई क्लर्क भी कर सकता है। राजनीतिज्ञों का दबाव भी कम नहीं रहता है। इस प्रकार साहित्य नहीं, राजनीति वहां प्रमुख है। इसलिये मैं त्याग पत्र देकर बाहर आ गया था।
सृजन का वातावरण भी वहां सम्भव नहीं है। स्थिति अब और भी अधिक खराब है। आजादी के शुरू के वर्षों में हम एक ‘मिशनरी स्पिरिट' से काम करते थे। लेखकों, कलाकारों को पूरा सम्मान मिलता था। उन्हें पूर्ण रूप से उभरने का मौका मिलता था, लेकिन यह भावना समाप्त हो चुकी है। आकाशवाणी ब्यूरोक्रेसी के चंगुल में फंस गयी। स्थिति यह है कि कभी-कभी शेड्यूल में नाम भी सिफ़ारिशों पर तय किये जाते हैं। राजनीति तो है ही लेकिन स्वयं साहित्यिक भी कम जिम्मेदार नहीं है। जनसंख्या उनकी भी बढ़ रही है और फिर वही होता है जो होना चाहिए। ब्यूरोक्रेसी को और अवसर मिलता है और इसी कारण कार्यक्रमों का स्तर हल्का होता रहता है। अभिव्यक्ति पर कैसा भी बन्धन हो, स्तर तो गिरता ही है।
‘‘क्या केवल लेखन के बल पर जीवन-यापन किया जा सकता है ?''
आज की स्थिति में ऐसा सम्भव नहीं है। पढ़े-लिखे लोग कितने है और जो हैं उनमें पढ़ने की आदत कितनों में हैं ? हिंदी भाषी लोग सबसे कम पढ़ते हैं। पुस्तकों का मूल्य अनिवार्य कारणों से बढ़ रहा है। तब कौन खरीदेगा पुस्तकें और पत्रिकाएं। ऐसी स्थिति में लेखक को समझौते करने के तैयार रहना चाहिए। उसे अनुवाद, पत्रकारिता या टी.वी. या रेडियो पर निर्भर रहना पड़ेगा और वहां समझौता अवश्यम्भावी है। मेरी चालीस पुस्तकें प्रकाशित है, लेकिन मासिक आमदनी आज भी कम ही है।
‘आवारा मसीहा' हिन्दी की एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इसकी रचना में जैसा कि आपने इसकी भूमिका में संकेत भी दिया है कि काफी कठिनाइयां आयीं। क्या इनके अलावा कुछ और भी कठिनाइयां रहीं ?
हां बहुत लोगों ने मुझे मूर्ख तक कहा। शुरू-शुरू मे बंगालियों ने भी शंका के दृष्टिकोण से देखा। एक सज्जन ने कहा-‘‘व्हाई एन आउटसाइडर शुड वर्क सो हार्ड ऑन ए बंगाली ?'' कठिनाई स्वयं शरत बाबू को लेकर भी हुई। उनका चरित्र ही ऐसा था न जानें कितने अपवादों, लांछनों से वे घिरे रहे। अपने बारे में स्वयं अपवाद फैला देते थे। बड़ा जटिल चरित्र था उनका। इस जटिलता को सुलझाते, सुलझाते इतने वर्ष बीत गये।
‘‘विभिन्न कहानी आन्दोलनों पर आप क्या कहना चाहेंगे ?''
आंदोलन प्रायः आइडेन्टिटी की तलाश हेतु किये जाते है। पहले हमें लम्बे समय तक साहित्य में कोई चुनौती देने वाला नहीं था, अब लेखक बढ़ गये हैं। इसलिए भीड़ में अपनी अलग पहचान बनाने हेतु आंदोलन चलाये जाते हैं। मूल्यों में जो परिवर्तन आते हैं वे भी नये आंदोलनों को जन्म देते हैं।
आम आदमी का आज बहुत राग है लेकिन मैं समझता हूं आम आदमी स्वयं जब तक अपनी कहानी नहीं लिखता तब तक नकली आम आदमी ही साहित्य में प्रतिष्ठित होता रहेगा। बिरला साहित्यकार ही अपने को उस वर्ग से जोड़ सकता है।
शरत जी के अलावा आप किन-किन से प्रभावित हैं ?
बड़ा कठिन है ठीक-ठीक उत्तर देना। बंकिम, रविन्द्र और शरत बाबू, प्रेमचन्द और टाल्सटॉय सभी से मैं प्रभावित हूं, लेकिन शरत बाबू से सर्वाधिक प्रभावित हूं, क्योंकि उनकी जीवन की संवेदना मेरे जीवन के बहुत पास रही है। मेरा प्रारम्भिक जीवन काफी करुण रहा है, लेकिन इस सबके बावजूद मनुष्य को उसकी समग्रता में देखा जाना चाहिए। समग्र दृष्टि से देखने पर मुझे शरत बहुत आकर्षित करते हैं। भले ही इसे आप मेरी दुर्बलता समझें। समझा भी गया है।
देश की वर्तमान परिस्थितियों में साहित्यकार का दायित्व ?
राष्ट्र उनकी और दिशा निर्देश हेतु देख रहा है, लेकिन साहित्यकार असफल हो रहा हैं। मैं साहित्यकार को तीसरी आंख मानता हूं। व्यवस्था को ठीक ढंग से चलने को बाध्य करने का दायित्व साहित्यकार पर है। उसे इस बहुत बड़े दायित्व का भार वहन करना चाहिए। वह यह काम सीधे आक्रमण करके नहीं करता बल्कि अपने पाठकों को सही स्थिति से परिचित कराता है। ऐसे कराता है कि उसकी संवेदना जाग उठती है।
आप नया क्या लिख रहे हैं ?
एक उपन्यास ‘कोई तो' अभी आया है। एक पौराणिक नाटक ‘‘सत्ता के आर पार'' व एक मनौवैज्ञानिक नाटक ‘‘अब और नहीं'' प्रकाशनाधीन है।
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यशवन्त कोठारी 86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर-302002 फोनः-2670596
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विष्णु प्रभाकर जी का साक्षात्कार अंतर्जाल पर देख कर प्रसन्नता बढ गयी। गंभीर साहित्य के लिये महत्वपूर्ण माध्यम बनता जा रहा है अंतर्जाल और इसमें यह भी जोडना चाहूंगा कि रवि रतलामी जी का इस यज्ञ को महति योगदान है। मैं निजी तौर पर और साहित्य शिल्पी परिवार की ओर से भी इस साक्षात्कार के लिये धन्यवाद कहना चाहता हूँ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा साक्षात्कार है।
बहुत उम्दा बातचीत. बधाई.
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना है!
जवाब देंहटाएंन केवल सामयिक और उपयोगी अपितु कलम से जुडने के प्रयास कर रहे मुझ जैसे मुमुक्षुओं के लिए तो यह साक्षात्कार किसी जीवन सूत्र से कम नहीं है। इस साक्षात्कार में आदरणीय विष्णुजी का यह कथन 'व्यक्ति कभी अपनी निजता में धन्य नहीं होता, परिवेश से जुड़कर सार्थक होता है; हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति के प्रति उत्तरदायी होता है।' न केवल मार्गदर्शक अपितु 'नीति निर्देशक सूत्र' ही है।
जवाब देंहटाएंविष्णुजी का यह साक्षात्कार पढकर आज की सुबह 'सारस्वत' हो गई।
आपको और कोठारीजी को अन्तर्मन से धन्यवाद।