" अब बदल ही दीजिये विरोध प्रदर्शन के यह तरीके" अक्सर देखा जाता है कि किसी संगठन, समुदाय या राजनैतिक दल की मांग पूरी न होन...
"अब बदल ही दीजिये विरोध प्रदर्शन के यह तरीके"
अक्सर देखा जाता है कि किसी संगठन, समुदाय या राजनैतिक दल की मांग पूरी न होने पर या किसी बात के विरोध में वह चक्काजाम करते हैं, रेले रोकते हैं या कभी कभी बड़े स्तर पर प्रदेश बंद या भारत बंद जैसी खबरें भी पढने को मिल जाती हैं. इस तरह के प्रदर्शनों में यह तो ज़रूरी नहीं कि उनकी मांग पूरी ही हो, लेकिन इससे जनसाधारण को काफी दिक्क़तों का सामन करना पड़ जाता है जिसके लिए जनसाधारण जिम्मेदार भी नहीं होता है. इस तरह के प्रदर्शनों में विरोध कम और आम लोगों की परेशानी ज़्यादा नज़र आती है.
अभी कुछ समय पहले ही दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब समेत समूचे उत्तर भारत में चक्काजाम किया गया. हालांकि यह जाम कुछ ही घंटो के लिए ही था, फिर भी कई बड़े नुकसान कर गया जिनकी भरपाई नहीं की जा सकती. कोई ठीक वक्त पर अस्पताल नहीं पहुँच पाया तो कोई इम्तिहान नहीं दे पाया.
यह कोई पहली घटना नहीं थी बल्कि इससे पहले भी ऐसा हो चुका है. डेरा सच्चा सौदा और सिखों के आपसी मतभेद में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला. किसी समुदाय ने मुंबई में ट्रेनें बाधित कर दीं तो किसी ने पंजाब में. नतीजा आम लोगों की परेशानी.
कभी रेलों के पहिए अमृतसर में थमे तो कभी जयपुर में. गुर्जर समुदाय द्वारा किया गया आन्दोलन भी एक बड़ी मिसाल है इस तरह के प्रदर्शनों की. हालांकि उनका यह प्रदर्शन सरकार के खिलाफ था लेकिन परेशानी का सामना आम लोगों को भी करना पड़ा. कुछ ट्रेनों को रद्द करना पड़ा तो को कुछ का रास्ता बदलना पड़ा. कुछ ट्रेन जिनमे शीघ्र नष्ट हो जाने वाल सामान भरा था स्टेशनों पर ही रोकनी पड़ीं.
बंद के आवाहन को भी बिल्कुल बंद कर देना चाहिए. इसमे भी जन साधारण की परेशानी के भाव नज़र आते हैं. खुली आंखों वालों को दूसरों की परेशानियाँ साफ़ नज़र आती हैं. 'बंद' घोषित कराने वाले आँखें बंद करके बंद कराने पर उतारू हो जाते हैं.
इस तरह के प्रदर्शनों का उद्देश्य जनता का ध्यान अपनी तरफ़ खींचना तो होना चाहिए. लेकिन उसे आहत करना या नुकसान पहुँचाना नहीं. हड़ताल, रेलें रोकना, चक्काजाम या आन्दोलन इन छोटे छोटे शब्दों के गर्भ में कितना भयंकर तूफ़ान छिपा है, इसका अंदाजा लगा पाना नामुमकिन है. ना जाने कितनी आँखें अपनों का रास्ता देखते देखते पथरा जाती हैं, ना जाने कितनी जुबानें अपनों के लिए दुआ मांगते मांगते थक जाती हैं. इन घटनाओं को एक ही शब्द के अन्दर समेट जा सकता है, वह है 'क़यामत'
मेरे कहने यह मतलब कतई भी नहीं है कि मैं प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हूँ या इस तरह के प्रदर्शनों को ग़लत मानता हूँ. बल्कि इसके उलट हम सब तो भारतवासी हैं और भारतीय संविधान में हर किसी को अपनी बात कहने कि स्वतंत्रता दी गई है. इसलिए अपनी बात को कहना या किसी बात के विरोध में प्रदर्शन करना ग़लत नहीं है बल्कि मेरा मानना है कि प्रदर्शनों में आम लोगों का भी ध्यान रखा जाए और या फिर इस तरह के प्रदर्शनों को बदल देना चाहिए जिसमे जान ओ माल का नुकसान होता हो क्योंकि अगर कोई पब्लिक प्रापर्टी को भी नुकसान पहुंचता है तो वह एक तरीके से अपने आप को भी नुकसान पहुंचता है क्योंकि पब्लिक प्रापर्टी भी आम लोगों के टैक्स से ही बनती है. और दूसरी बात बड़े स्तर पर जो कुछ होता है उसका असर छोटे स्तर पर भी पड़ता है. जैसे "लगे रहो मुन्नाभाई" फ़िल्म से पहले गांधीगिरी को कोई जनता भी नहीं था और इस फ़िल्म के बाद छोटे छोटे प्रदर्शनों में भी इसे देखा गया. ठीक इसी तरह बड़े दलों कि तर्ज़ पर छोटे संगठन या समुदाय भी इस तरह की घटनाओं को अंजाम देकर प्रशासन और जनता की परेशानी को बढ़ा देते हैं. कभी बेरोजगार युवक इस तरह के प्रदर्शन करते हैं तो कभी ऑटो रिक्शाचालक.
आज के दौर में हमारे विरोध प्रदर्शन के यह तरीके बहुत पुराने हो चुके हैं. प्रदर्शन करने में प्रदर्शनकारियों को भी काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ जाता है. कभी कभी तो अपनी जान भी गंवानी पड़ती है. आज जब हमारे पास इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और ग्लोबलाइजेशन है तो इसका उपयोग भी किया जाना चाहिए या कुछ और अहिंसात्मक तरीके हो सकते हैं विरोध प्रदर्शन के.
जैसे अमेरिका में एक शराबी ड्राइवर द्वारा एक औरत के बच्चे की मौत हो गई. इस बात पर वो बहुत आक्रोशित हुई लेकिन उसने किसी भी राजनैतिक दल, संगठन या किसी समुदाय के साथ मिलकर कोई भी इस तरह की गतिविधि नहीं की. बल्कि उसने मैड (MADD--"Mothers against Drunk Driving") नाम का एक नया संगठन बनाया. उसने समाज में कतई भी ऐसी बातें बर्दाश्त न करने का फ़ैसला लिया और सारे अमेरिका में शराब पीकर ड्राइविंग करने वालों के खिलाफ लोगों को एकजुट किया. आज वो महिला लाखों सदस्यों के साथ एक बड़ी ताक़त बन चुकी है. वो न सिर्फ़ सामाजिक तौर पर बदलाव लाने में सफल हुई बल्कि कानूनी बदलाव लाने में भी सफल हुई. (यह उदाहरण शिव खेडा की पुस्तक "जीत आपकी" से अवतरित है.)
कुछ इसी तरह का उदाहरण जापान में जूता की फैक्ट्री में काम करने वालों मजदूरों का है. जब उन्हें बोनस नहीं दिया गया तो उन्होंने विरोध प्रदर्शन का अनोखा तरीका खोज निकाला. उन्होंने दो पैरों का जूता बनाने की जगह सिर्फ़ एक ही पैर का जूता बनाना शुरू कर दिया और आखिर में फैक्ट्री संचालकों को उनकी मांग पूरी करनी पड़ी. (एक अन्य समाचार पत्र में छपी एक ख़बर)
इस तरह के प्रदर्शनों को रोकने और उनकी जल्द से जल्द समाप्ति के लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए. सिर्फ़ चटपटी खबरें छापने , सुनाने, दिखाने से बेहतर होगा कि मीडिया भी अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी को निभाए. ठीक उसी तरह जब किरण बेदी ने दुनिया सबसे बड़ी जेलों मे से एक तिहाड़ जेल का कायाकल्प किया था तो मीडिया ने अपनी भूमिका निभाई थी.. किरण बेदी के अनुसार "अख़बार वालों की कलम एक बहुत बड़े समाज को ऐसे संस्थान से जोड़ रही थी, जिसकी समाज में अभिन्न भूमिका थी. यह जुडाव बहुआयामी था. सूचना, सहभागिता और प्रेरणा प्रदान करने में प्रेस कि अहम् भूमिका थी. समस्याओं को सुखियों में लाकर परिवर्तनकारी सोच पैदा करने में सहायक था." (किरण बेदी की पुस्तक "ये सम्भव है" से अवतरित.)
अपनी बात को दूरों तक पहुँचने का एक तरीका इन्फोर्मेशन टेक्नोलॉजी (सूचना प्रौद्दौगिकी) भी है. आईटी के द्वारा अपनी बात को दूसरों तक कैसे पहुंचाते हैं इसकी एक मिसाल है लन्दन में रहने वाली सोफी फोक्स्ले. जब डॉक्टर ने उसे बताया कि उसे कैंसर है तो उसकी ज़िन्दगी रुक सी गई. चेकअप और दवाओं से वो तंग आ गई. तब उसने अपनी ज़िन्दगी में रंग भरने का फ़ैसला किया और दूसरे लोगो को भी इससे रूबरू कराया. उसने ब्लॉग पर डेली डायरी लिखना शुरू किया. पहले उसके दोस्त जुड़े फिर रिश्तेदार और अब साडी दुनिया में कोई भी उसकी डायरी पढ़ा सकता है www.codebrush.com/sophie पर. (दैनिक समाचार पत्र "अमर उजाला" में छपी एक ख़बर)
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शामिख फ़राज़
कॉस्मिक डिजीटल
कमल्ले चौराहा,
पीलीभीत-२६२००१
उत्तर प्रदेश
भारत
बहुत सही कहा आपने..........अब ये घिसे पिटे तरीके किसी काम के नही हैं..और इन तरीको से आम नागरिक को जायदा नुक्सान होता है.........
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