कहानी पोटली राकेश कुमार पाण्डेय क्रिसमस की छुट्टियां करीब थीं, ऑफिस में कंप्यूटर के सामने स्क्रीन पर बैठी मैं अपने बचे हुये पेण्डिंग का...
कहानी
पोटली
राकेश कुमार पाण्डेय
क्रिसमस की छुट्टियां करीब थीं, ऑफिस में कंप्यूटर के सामने स्क्रीन पर बैठी मैं अपने बचे हुये पेण्डिंग काम निपटा रही थी, हर वर्ष की भांति इस बार की छुट्टियों में भी मैंने अपने मायके जाने का प्लान किया हुआ था। महानगरों की साल भर की आपाधापी और भागमभाग की दिनचर्या से मुक्ति पाने का जब कभी मुझे अवसर मिलता, मै सदैव अपनी मां के घर में ही सुकुन तलाशने का प्रयास करती। वैसे तो मां शब्द ही सुकुन के पर्याय के रूप में पर्याप्त है इसे किसी व्याख्या अथवा विशेषणों की आवश्यकता नहीं होती। एक औरत के लिये मायके का सुख और साथ में मां का सान्निध्य जितना सुख और सुकुन दे पाता है, वह साल भर की जन्नतनुमा जिन्दगी में शायद कहीं भी नसीब नहीं होती। मां के ममता भरे आंचल से लिपटे हुये चेहरे के धुंधली तस्वीरों में छिपी मुस्कुराहट में वह चमक होती है जो साजन की बांहों में आलिंगनबद्ध गोरी के तेज में कहीं से भी शायद ही नजर नहीं आती हो ।वास्तव में साजन का प्यार जहां कर्तव्यों और अधिकारों के दोपाये पर टिकी होती है वहीं मां का प्यार निश्छल निःस्वार्थ और किसी भी प्रतिदान की कल्पना से परे होता है । मां के प्यार में जहां गंगा सी निर्मलता होती है वहीं सागर सी पूर्णता भी। मुझे भी वह खुशनसीबी बस जल्दी ही नसीब होने वाली थी, बल्कि मेरे लिये तो इसलिए भी यह सौभाग्य का अवसर हुआ करता क्योंकि इससे मुझे मां के स्नेह रूपी इस अद्भुत सौंदर्य युक्त पुष्प के साथ ही गांवनुमा एक छोटे से नगर के जीवन की सहजता भी दोहरे उपहार के रूप में हर साल मिला करती ।
मेरा मायका भी पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव में है जिसने अपनी फैलती हुई आबादी के साथ यद्यपि आज छोटे से नगर का रूप ले लिया है, लेकिन लोगों की सहज जीवनशैली, सरल दिनचर्या एवं गली मुहल्लों के बीच के मुहबोले रिश्तों की मिठास में वही आत्मीयता आज भी देखने को मिलती है। महानगरों की कृत्रिम जीवनशैली से दूर वहां लोगों के बीच का अपनापन तेजी से परिवर्तित होती सामाजिक संरंचना से किंचित मात्र भी आज भी प्रभावित नहीं हुआ है। गांव की उन हसीन वादियों में मेरी इठलाती और इतराती जवानी बचपन बनकर जब कभी घूमते अथवा खेलते हुये थक जाती है तो आज भी मुझे कभी किसी परिचय की आवश्यकता नहीं होती, जो मिला जिनसे और जो कुछ भी मिला उनसे लेने में न कोई संकोच और न ही झिझक । सभी अपने ही होते हैं, कोई काका तो कोई दादा तो कोई बुआ और मामा। न कहीं आने जाने का रोकटोक न किसी का भय अथवा डर। अन्जाने भी राह चलते अगर मिल जाये तो अपने बातों की शुरूवात ही बोन (बहनजी) से करते हैं, इस शब्द में महानगरों की भांति कोई कृत्रिमता अथवा बनावटीपन नहीं होता। आज जिस तरह महानगरों की परिवर्तित होती जीवनशैली के बीच तमाम रिश्ते नाते सिर्फ औपचारिकता बनकर रह गये हैं और कहीं कहीं तो रिश्ते नातों की आड़ में ही औरतों के शोषण की कहानी अखबारों के पन्नों को रंगकर लोगों का चंद पलों के लिये मनोरंजन करती हों वहीं गांवों की सहज और निश्छल जीवनशैली मुझे अनायास ही अपनी ओर आकर्षित करती है।
इस बार की छुटिटयों में लंबे अवकाश पर जाने की तैयारी में मैं अपना काम जल्दी जल्दी समेट रही थी, प्रोजेक्ट पर मेरा काम अभी भी अधूरा था, वहीं अपने सहकर्मी साथी को जहां एक ओर काम हेण्ड ओवर करने थे तो दूसरी ओर बचे हुये काम को निपटाने की जल्दी भी थी, इसी बीच मुझे एक मेल प्राप्त हुआ। वैसे तो वह मेल करने वाला मेरे लिये अब भी अजनबी ही था, अजनबी इस लिहाज से कि मैने उसे कभी देखा नहीं था और न ही मै कभी उससे मिल पायी थी फिर भी उसे पिछले छः महीनों से उसके शब्दों के द्वारा उसे बेहतर तरीके से जानने लगी थी। हम किसी व्यक्ति से मिलकर भी उतना नहीं जान पाते जितना उसके विचारों के माध्यम से उसे बड़े सहज तरीके से जान लेते हैं। उसे पत्रों के द्वारा मै जितना जान पायी थी वह यही था कि वह एक छोटे से राज्य के छोटे से शहर का रहने वाला निहायत ही सभ्य इंसान था। अब उसका मेल मेरे लिये कोई नया नहीं था वह तो मुझे रोज मिला करता, उसके हर मेल में एक अजीब सा अपनापन, गहरी निकटता और कुछ ना कुछ नया जरूर होता। उसे मुझे मेल करने की आदत सी हो गयी थी, जब कभी वह मुझे किन्ही कारणों से मेल न कर पाता तो उसकी लंबी चैड़ी व्यथाओं से दूसरे दिन का मेल भरा पड़ा होता। मै भी पहले तो इस तरह के मेल को सामान्य तौर पर लेती पर अब मुझे प्रतिदिन उसका मेल पाने की आदत सी हो गयी थी । अब तो जब कभी उसका मेल मुझे न मिल पाता तो एक अजीब सा अधूरापन महसूस होता। अपने लिखे हुये चंद खूबसूरत शब्दों के द्वारा उस अजनबी ने भी मेरे हदय की गहराईयों में थोडी सी जगह बना ली थी।
मैंने उसे पिछले मेल में यह बताया था कि हम अब 15 दिनों तक कोई पत्राचार नहीं कर पायेंगे क्योंकि मेरे मायके में नेटवर्क कनेक्टिविटी की समस्या बनी रहती है और फिर मैं अपने लेपटॉप घर पर ही छोड़कर जा रही हूं । उसे 15 दिनों का पत्रों का वियोग बिल्कुल भी मंजूर नहीं था सो आज वह मुझसे जी भरकर बात करना चाहता था, पर मेरे साथ विवशता यह थी कि आज काम कुछ ज्यादा ही थे । लेकिन मैं उसके दीवानेपन को अपने काम के बोझ तले आज दबाना भी नहीं चाहती थी, वैसे तो स्वभाव से ही संकोची होने के कारण वह हर पत्र में मुझसे लिखा करता कि मै आपको डिस्टर्ब तो नहीं कर रहा, अत्यधिक मेल लिखने अथवा थोड़ी सी भी मेरी नाराजगी महसूस करते ही उसका पूरा पत्र क्षमा याचनाओं से भरा होता, सो मैं आज उसे किसी भी हाल में टोकना भी नहीं चाहती थी । उसकी इस सरलता और सहजता ने ही तो मुझे इस कदर प्रभावित कर दिया था कि धीरे-धीरे मैं उसके नजदीक आ गयी थी और उस अजनबी की दोस्ती को हौले हौले मै स्वीकार भी करने लगी थी वरना जिंदगी के हर एक पड़ाव में बहुतों से लगातार मिलने पर भी हम उतने प्रभावित नहीं हो पाते कि किसी को भी बड़ी सहजता से दोस्त के रूप में स्वीकार कर लें ।
उसने ई-मेल के द्वारा भेजे अपने पत्र में लिखा - आप मां के पास जा रही हैं, कहिये मेरे लिये क्या लायेंगी ?
मैं उसका मेल पाकर थोड़ी देर के लिये संकोच में पड़ गयी कि पता नहीं ये क्या लाने को कह बैठेगा? वैसे मैं जानती थी कि या तो वह मां के हाथ की बनी लड्डू खाना चाहेगा या फिर ऐसा ही कुछ छोटा मोटा उपहार। क्योंकि वह तो एक सरल इंसान था, उसकी आवश्यकताएं जहां सीमित थी वहीं उसके निश्छल और सरल स्वभाव से मै वाकिफ हो चुकी थी। फिर भी था तो वह अब भी मेरे लिये अजनबी ही, इसीलिए मै उससे धनिष्ठ पत्र मित्र होने के बाद भी वास्तव में दूरियों को कुछ हद तक बनाये रखना चाहती थी ।
मैने उन्हे तुरंत लिखा -आप जो कहिये लेते आउंगी, पर शर्त यह है कि उसे लेने के लिये आपको देहली आना पड़ेगा। मै इस शर्त के द्वारा उसे एक दायरे में बांधना चाहती थी, क्योंकि मैं जानती थी कि वह छोटे मोटे उपहार के लिये इतने रूपये खर्च कर दिल्ली तो आयेगा नहीं और यदि आने का भी ठान ले तो फिर देखा जायेगा।
मैं उसके मेल का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रही थी, मन में यह जानने की उत्सुकता थी कि आखिर वह मां से क्या लेना चाहता है ? पलों और लम्हों की लंबी प्रतीक्षा के बाद उसका मेल मुझे मिला, उस मेल को पढ़कर मैं गदगद हो गयी, उसके शब्द वैसे तो मेरी अपेक्षा के अनुरूप ही थे, लेकिन फिर भी हर मेल में मेरा वह आराधक मेरी नजरों में थोड़ा उपर उठ जाता। उन्होने अपने मेल में लिखा - आप लौटते हुये मां से मेरे लिये ढेर सारा आशीर्वाद लाईयेगा और मां को मेरी ओर से सादर चरण स्पर्श करियेगा । मैने तुरंत जवाब में लिखा और कहा -ओ.के.
मै उसके विचारों को पत्रों में पढ़कर प्रायः यह सोंचा करती कि कैसे होंगे उसके माता-पिता, जिसने ऐसे बेटे को जन्म दिया है, चाहे जो भी हो मुझे ऐसे दोस्त मिलने पर आखिर गर्व तो था।
मैं अपना काम अब जल्दी-जल्दी निपटाने लगी, अपने प्राजेक्ट पूरा करने की दिशा में बस थोड़ा ही बढ़ पायी थी कि इसी बीच उसका एक दूसरा लंबा चैड़ा ई मेल मुझे मिला । वैसे तो वह पत्र लंबी चैड़ी हिदायतों से भरा हुआ था परंतु इसमें कुछेक निवेदन भी थे, निवेदन के नाम पर बस केवल यही था कि नये साल पर उसने मुझसे शुभकामनाएं प्राप्त करने की इच्छा जाहिर की थी, इसके अलावा बाकी सब कुछ हिदायतें ही थी। उसकी इन लंबी चैड़ी गुजारिशों और हिदायतों को पढ़कर एक ओर जहां मैं काफी अचरज महसूस कर रही थी वहीं क्षण भर के लिये गुस्सा भी आ रहा था। मै वास्तव में यह नहीं समझ पा रही थी कि यह सब लिखकर उसने मुझसे बहुत करीब होने का परिचय दिया है या फिर मेरी काबिलियत का उसे तनिक भी अंदाजा ही नहीं ।
वैसे तो मेरे द्वारा भेजे गये कई पत्रों एवं जालघरों में प्रकाशित मेरे लंबे चैड़े प्रोफाईल के द्वारा वह जान ही चुका था कि मैं एक जानी मानी अंतर्राट्रीय कंपनी में साफटवेयर इंजीनियर के पद पर कार्यरत् हूं । यहां मेरा एक स्वतंत्र अस्तित्व है जहां विभिन्न जिम्मेदारियों को निभाते हुये मेरी प्रबंध क्षमता पर मेरे सीनियर्स को भी तनिक भी कभी संदेह नहीं हुआ, फिर ट्रेन में बरती जाने वाली तमाम तरह की हिदायतों जिसमें यात्रा के दौरान ठण्ड से बचने, सेहत का ख्याल रखने एवं रास्ते की अनावश्यक चीजें खरीद कर ना खाने की बात कहकर आखिर वह क्या साबित करना चाहता है, मै उसी उधेड़बुन में पड़ी हुई थी । मैं आज से 16 साल पहले अपना गांव छोड़कर दिल्ली पढ़ने आयी थी तब से लेकर आज तक हमेशा अकेले ही सफर करती रही परंतु आज तक किसी ने इस अजनबी की भांति रोका और टोका नहीं, मैं उसके इस पत्र को लेकर इसलिये भी क्षण भर को आहत हुई थी कि वह मुझे अथवा मेरे व्यक्तित्व को कहीं अण्डर इस्टीमेट तो नहीं कर रहा, पर मन में ख्याल आया कि जिसने मुझे ही एक आदर्श व्यक्तित्व का संपूर्ण रूप मान लिया हो उसके मन में भला ऐसे विचार कैसे आ सकते हैं? यह सब तो वास्तव में उसके प्यार, अपनापन और उसके निश्छल व्यक्तित्व की पहचान थी और फिर मैं उसे उसी रूप में लेकर मंद मंद मुस्कुरा रही थी। मैं खयालों में डूबी हुई सोच रही थी कि यह अजनबी जिससे न मेरा कोई वास्ता है न दूर दूर तक कोई रिश्ते और नाते फिर भी मेरे जरा सी दर्द पर उसका उफ, मुझे मेरा ही खयाल रखने को जैसे मजबूर सा कर देती थी । उसे तनिक भी गंवारा नहीं था कि कभी भी मुझे क्षणमात्र को कोई भी कष्ट हो ।
मैने उसके पत्र के जवाब में लिखा- आप चिंता ना करें मैं आपकी सभी हिदायतों का पूरा ध्यान रखूंगी और आखिर में व्यंग्यात्मक लहजे में यह भी लिखना ना भूली कि - आपका पत्र पढ़कर आज ऐसा लगा जैसे मैं ट्रेन में पहली बार यात्रा कर रही हूं।
अगली सुबह भोर में मेरी ट्रेन थी, ट्रेन में बैठते हुये मैं उसे याद कर रही थी, उसकी हिदायतों के अनुरूप मैने घर से ही अपने और बेटे के लिये पूड़ी-सब्जी और गाजर का हलवा बनाकर रख ली थी ताकि रास्ते में कोई खाने का सामान खरीदना ना पड़े । सुबह- सुबह जब कभी रास्ते में कान खुल जाती मैं जल्दी से गर्म कपड़े से अपने और बेटे का कान ढकती और वह अजनबी मुझे अनायास ही याद हो आता।
ट्रेन धीरे धीरे आगे बढ़ने लगी और मैं अपने मायके की उन हसीन वादियों और गलियों में खो गयी जहां मेरा बचपन बीता था और जहां की मिट्टी की सौंधी खुश्बू ने मेरे अंदर दूसरों को भी महकाने की काबिलियत पैदा की थी। बारिश के दिनों में कागज की कश्ती बना गलियों में तैराने का वह बालहठ, संगी साथियों की ठिठोलियां और स्कूल के टीचरजी की वह डांट रह-रहकर याद आ रही थी । हम स्कूल के जमाने में खूब मस्ती किया करते, कभी-कभी तो टीचरजी की डांट के डर से ही हम एकाध पीरियड मिस भी कर दिया करते, खासकर गणित का पीरियड तो ऐसा होता जहां हमारा धैर्य टीचरजी की डांट के आगे जवाब दे जाता। बस मन उन्ही विचारों में खोया हुआ था और कब मेरा वह गांव नजदीक आ गया मुझे पता ही न चला। मैंने अपने बेटे को नींद से जगाया और अपना सामान समेटने लगी ।
प्लेटफार्म पर इंतजार में खड़ी हुई मेरी मां मुझे दूर से दिखायी दे रही थी, मैं प्लेटफार्म से उतर ही रही थी कि मेरी मां दौड़ती हुई मेरे पास आयी और मेरे कुछ सामान को हाथों में लेते हुये कहा-ला बेटा, मुझे दे, थक गयी होगी ।
मैने मां के चरण स्पर्श करते हुये कहा - थकी तो जरूर हूं मां, पर इतना भी नहीं कि ये सामान ना उठा सकूं, और फिर घर जाकर खूब आराम करूंगी ना आप क्यों चिंता करती हो?
पर मां भला कहां मानने वाली थी, उन्होने मेरे एक बेग को हाथों से उठाते हुये रिक्शे वाले को बुलाया और हम रिक्शे में बैठकर घर की ओर जाने लगे । रास्ते में मिलने वाले सभी पहचान के होते, कोई हाथ हिलाकर अभिवादन करता तो कोई जोर से चिल्लाते हुये कहती - अरे बड़ी दिनों बाद आयी रे अज्जू ! कैसी है ? तेरी नौकरी कैसी चल रही है ? मैं भी खुशी से इठलाते हुये कहती, बढ़िया हूं, मौसी देखो ना कितनी मोटी हो गयी हूं ।
हां- हां, खूब कमाओं बेटी जुग जुग जियो ।
किसी का आशीर्वाद, किसी की शुभकामनाएं, किसी की नसीहतें यह सब हदय से और वह भी मुफ्त में केवल गांवों में ही मिलता है और वह सब बटोरती हुई मैं घर को जा रही थी।
घर जाकर मां के हाथों की बनी हुई गरम-गरम पकौड़े खायी, जिसकी मुझे बरसों से प्रतीक्षा थी और फिर अपने 27 घण्टे की लंबी थकान मिटाने पैर फैलाकर सो गयी । अभी नींद पड़ने को ही थे कि मुझे वह अजनबी फिर से याद आ गया, और मैं नींद से अचानक जाग उठी। मैने मां के पैर को दोबारा स्पर्श करते हुये उन्हे प्रणाम किया ।
मां मेरी इस हरकत को दखकर अजरज से कह उठी- क्या हुआ तूने तो प्लेटफार्म पर ही ...
मैने कहा - हां मां, यह प्रणाम मेरी ओर से नहीं, एक अजनबी दोस्त की तरफ से था, जिसने आपको प्रणाम करने को कहा था और आपसे अपने लिये ढेर सारा आशीर्वाद मांगा है, प्लीज, उसे आशीर्वाद दीजीयेगा मां ।
मां ने कहा - कौन दोस्त है ?
अरे मां, उसकी कहानी सुनोगे तो आपको भी बड़ा मजा आयेगा, है एक पागल है, पिछले पांच महीनों से मुझे लगातार मेरे मेल आई. डी. पर रोज पत्र लिखता है, अब उससे दोस्ती हो गयी है। पहले तो मैं भी उससे अजनबी समझकर डरती थी पर अब उसके घर के सभी लोग मुझे जानते हैं और मैं भी उसे अब जानने लगी हूं। जब मैने बताया कि मैं अपने मायके जा रही हूं तो उसने आपसे आशीर्वाद लाने को कहा है ।
ठीक है बेटा, पर अजनबी लोगों से ज्यादा घनिष्ठता अच्छी नहीं, वैसे तो तू समझदार है।
अरे मां चिंता मत करो, वह बहुत अच्छा लड़का है, वह भी उसी कंपनी में काम करता है जहां से आप रिटायर हुई हैं ।वह एक निहायत ही सभ्य इंसान है, उसे मैं अब अच्छे से जान गयी हूं। उस पर मुझे भरोसा है, वह संस्कारित परिवार का एक संस्कारवान लड़का है। उसके हर शब्दों में गजब की शालीनता होती हैं मां, आप भी जब उसके पत्रों को पढ़ेगी तो कह उठेंगी - वाह क्या बात है ?
मां आपको एक मजेदार बात पता, कि जब कभी वह इस तरह का खत लिखता है तो मुझे गुस्सा भी आता है पर क्षण भर में जब वह खुद को मेरे भक्त और आराधक के रूप में रखकर मेरी पूजा करने लगता है तो मैं अपना सारा गुस्सा भूल जाती हूं और बच्चे की तरह उसे माफ कर देती हूं। मां सच कहूं तो मुझे उसके और किसी बच्चे के स्वभाव की सहजता में कुछ ज्यादा अंतर दिखायी नहीं देता । उसके खत के कई प्रसंग बड़े प्रेरणादायी होते हैं मां, अभी पिछले दिनों उन्होने श्रीमद्भगवतगीता का एक प्रसंग सुनाया था, बड़ा रूचिकर था। द्वापर युग में यदुवंशियों के पतन से जुड़ी उस कथा को वर्तमान प्रसंग से जोड़ने की उसकी कल्पना से मैं बहुत प्रभावित हुई थी, कभी उसकी कहानी आपको भी सुनाउंगी, मां ।
अच्छा मां, बहुत दिन हुये अपने पुराने दोस्तों से नहीं मिल पायी हूं, लगता है सालों हो गये कुछ से तो मिले हुये, आप कह रही थी आशा आयी हुई है, सुना है बंगलौर में टीचर हो गयी है आजकल । मां आप बेटे को थोड़ा देख लें तो मैं उससे मिल आउं, बड़ी इच्छा है।
15 दिनों की लंबी छुट्टियां कब गुजर गयी, पता ही न लगा, इस बार की छुट्टियों में मेरी प्रायः उन सभी से मुलाकात हो गयी थी, जिनसे अपेक्षाएं लेकर मैं आयी थी। मां की ममता, पड़ोसियों का स्नेह और गांव के बड़े बुजुर्गो के आशीर्वाद से मन तृप्त हो चुका था । अगली सुबह मेरी दिल्ली वापसी का रिजर्वेशन था। मैंने अपना सारा सामान पेक कर लिया था। मां ने पूछा - बेटा कल तुम जा रहे हो, क्या- क्या ले जाना चाहोगे? तुम्हारे लिये मैने अपने हाथों से पापड़ बनाये हैं, कुछ बड़ियां है, दूध और दही तो मैं डिब्बे में ही रख दे रही हूं । लेकिन देखना, कहीं खराब ना हो ।
अरे नहीं मां ! मुझे कुछ नहीं चाहिये, सब कुछ तो आजकल बाजारों में मिल जाता है आप बेकार परेशान न हों ।
अरे बेटा - घर और बाहर की चीजों में थोड़ा अंतर तो होता है ना !
ठीक है मां फिर भी !
अचानक मुझे वह अजनबी दोस्त फिर से याद हो आया । मैने मां से कहा- अरे मां उस अजनबी दोस्त के लिये तो कुछ रख दो, वह मेरे जाते ही मुझसे पूछेगा कि मैं मां के पास से उसके लिये क्या लायी, तो क्या जवाब दूंगी ?
तो तू ही बता उसके लिये क्या बनाउं बेटा, सब तो खराब हो जायेगा, फिर उसके पास कैसे भिजवायेगी आखिर तू ?
मां अरे वो आधा पागल है, चला आयेगा, मकर संक्राति का पर्व नजदीक है उसके लिये अपने हाथों से तिल के लड्डू बना दो ना, उसे मैं पार्सल से भेज दूंगी, पर्व के आस पास उसे मिल भी जायेगा।
ठीक है, मैं रात को बना कर रख दूंगी ।
मां ने रात को दो तिल के बड़-बड़े लड्डू बनाये और उसे एक पोटली नुमा थैली में भरते हुये कहा - ये रख अपने दोस्त को उसे दे देना,इस थैली में लड्डू के साथ मेरा आशीर्वाद भी है ।
बड़ी सुबह मेरी ट्रेन थी, मैने सारे सामान सेमेटे और घर को अलविदा कहा । अब फिर से साल भर के लिये आना नहीं होगा, यह मैं जानती थी, मैने अश्रुपूर्ण नेत्रों से मां से विदाई ली। मां का वियोग बड़ा कष्ट देता है, यही एक ऐसा नाता होता है जो तमाम रिश्तों और नातों की अपवित्रता एवं स्वार्थ के बीच भी अपने त्याग और समर्पण के लिये किसी भी इंसान को सहर्ष शीष झुकाने मजबूर कर देता है । इसकी ममता में वो गजब की ताकत होती है जो जीवन के कठिन संघर्षों में ढाल बनकर खड़ी हो जाती है । मां की बचपन में सिखायी गयी उन नसीहतों के जरिये ही तो भारतीय स्त्री आज भी अपने अनचाहे पारंपरिक रिश्ते नातों को तमाम मतभेदों के बाद भी बड़ी संजीदगी से बखूबी निभाती है और ढेरों कष्टों के बीच भी कभी उफ नहीं करती।
इसे मां का वह अपूर्व स्नेह त्याग और संस्कारों की चरम परिणति का ही एक रूप कहें कि जब कोई स्त्री बहू बनकर किसी पुरूष के चैखट पर कदम रखती है तो वह अपने पति के सारे संस्कारों को बिना किसी हिचक अथवा विरोध के अंगीकार कर लेती है, परंतु पुरूष का दंभ उसकी उन अच्छाईयों को भी अपनाने से सौ बार हिचकती है जो वह अपने घर से सुसंस्कारों के रूप में सहेज कर लाती है।
ट्ेन छूटने लगी, मां के हिलते हुये विदाई के हाथों को मैं दूर तक देखते हुये श्रद्धा से नमन करती रही, मेरा बेटा भी इस बार नानी के प्यार को पाकर बेहद खुश था, वह भी हाथ हिला-हिलाकर दूर तक अपने नन्हे-नन्हे हाथों से मां का अभिवादन करता रहा ।
मैं सुबह की ठण्डी-ठण्डी हवा से बचने के लिये अपने बेटे के साथ कश्मीरी शाल में अपना चांद सा चेहरा छिपा ओढ़कर दुबक गयी। इस बीच मुझे गहरी नींद भी आ गयी, नींद से जागी तो अचानक उस दोस्त के लिये मां के हाथों रखी पोटली की याद आयी । मैने उस पोटली को बड़ी हिफाजत से रखा था, सो फिर से उसके बारे में आश्वस्त हो जाना चाहती थी। मैंने एक बार फिर से अपना पर्स टटोली, बेग में ढूढ़ा, इधर-उधर कहीं नहीं मिला । अब तो मैं व्यथित होकर उस पोटली के बारे में याद करने लगी कि आखिर कहां रखा होगा मैने उस पोटली को, क्योंकि घर से तो मै उसे लेकर चली थी, अचानक याद आया कि कि ट्रेन की प्रतीक्षा में सीट पर बैठे हुये वाटर बाटल निकालते समय वह पोटली निकालकर रखी थी फिर उसे अंदर डालना भूल गयी ।
मैने आनन फानन में मां को फोन किया और कहा - मां मुझे लगता है कि मैं वह पोटली प्लेटफार्म में उसी सीट पर ही भूल गयी हूं जहां बैठे हुये हम ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे ।
मां उस अजनबी से मेरे गहरे लगाव और आत्मीयता को भलीभांति जान चुकी थी, अतः क्षण भर भी देर किये बिना वह स्टेशन के लिये निकल पड़ी और उन्होने घर से निकलते हुये मुझे फोन पर कहा कि यदि वह पोटली मुझे मिल जाती है तो मैं स्टेशन से ही पार्सल कर दूंगी ।
लेकिन दुर्भाग्य से वह पोटली मां को न मिल सकी, वह अपने स्थान से गायब थी। मां ने इधर उधर बहुत ढूढ़ा पर अंततः थक हारकर मुझे उन्होने फोन किया - बेटा शायद कोई उसे उठाकर ले गया।
मां की बातों को सुनकर जैसे मेरी नींद ही गायब हो गयी, मुझे बड़ा दुख हो रहा था, मन इस बात से व्यथित था कि आखिर मैं उस अजनबी दोस्त को क्या जवाब दूंगी? यदि उस पोटली के बदले मेरा कोई सामान गुम हो जाता तो शायद मुझे उतना दुख नहीं होता, लेकिन आखिर कुछ किया भी तो नहीं जा सकता था। मन में कई तरह के विचार आ रहे थे, वह मेरे आफिस ज्वाइन करते ही पूछेगा कि मेरे लिये क्या लाये तो मेरा उत्तर क्या होगा? मैने उस पोटली में तिल के लड्डू के साथ अपना एक नया विजिटिंग कार्ड भी डाला था जिसमें नये ऑफिस के पते के साथ मेरे पर्सनल फोन नं. का भी उल्लेख था और इस तरह उस पोटली के खो जाने से मेरे विजिटिंग कार्ड के अनावश्यक लोगों के हाथों पहुच जाने का एक अन्जाना सा भय भी सता रहा था ।
दुखी मन से मै दिल्ली के प्लेटफार्म पर उतरी और घर के लिये प्रस्थान कर गयी। दोपहर मुझे ऑफिस ज्वाइन करनी थी, मै जैसे ही ऑफिस पहुंची, सबसे पहले अपना मेल अकाउंट चेक किया तो जैसा कि मुझे अंदेशा था मेरे स्वागत में उसके मेल मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे ।उसने अपने ई-मेल में मेरे स्वागत के साथ वही सवाल किये थे जिसकी आशंका से मैं परेशान हुये जा रही थी ।
मैं सवालों के जवाब तो पहले ही तैयार कर चुकी थी, न चाहते हुये भी उसके नाजुक से दिल को टूटने से बचाने के लिये झूठ का सहारा मुझे आखिर लेना ही था, इसके अलावा मैं सारे विकल्पों को दूर-दूर तक पहले ही तलाश कर चुकी थी ।
मैं बचपन से किसी सिद्धांतों में बंधने की बजाय व्यवहारिक विकल्पों को ज्यादा तरजीह देती रही हूं । मैं सदा से उस सच से परहेज करती रही, जो अनावश्यक किसी की सहज जीवनचर्या में बाधक बन जाये या किसी का बेवजह हदय तोड़ दे। मैं तो उस झूठ को भी सच का ही एक रूप मानती रही हूं जो किसी के पथ की दिशा कुमार्ग से सुमार्ग की ओर बदल दे या फिर किसी को पतित अथवा दिग्भ्रमित होने से बचा ले ।
मैं उसे किसी भी कीमत पर तोड़ना नहीं चाहती थी, मैं जानती थी कि वह मुझे बहुत प्यार करता है, शायद दीवानगी की हद तक, सम्मान भी इस कदर करता है मानो निश्छल भक्ति का एक जीता जागता स्वरूप हो । मेरे वास्तविक स्थिति से अवगत कराने पर भी शायद उसे यकीन नहीं होता अतः मैने उसे लिखा - मां ने तुम्हारे लिये आशीर्वाद स्वरूप तिल के लड्डू भेजी हैं, अब तुम बताओ कि क्या उसे लेने दिल्ली आओगे या फिर पार्सल कर दूं, पर पार्सल तुम तक पहुंचने में कितने दिन लगेंगे, कहना मुश्किल है, हो सकता है तुम तक पहुचते हुये यह खराब भी हो जाये और जहां तक रही बात आशीर्वाद की, तो वह तो मां ने कहा ही हैं कि उनका आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है ।
ऐसा लिखकर मैंने सारे विकल्पों का हल, एक साथ उसे सुझाने का प्रयास किया था और साथ ही संकेतों में यह कहने का भी प्रयास की थी कि जिस चीज की वास्तव में उसे अभिलाषा थी, वह तो उसे मिल ही गया और बाकी सब के लिये अनावश्यक परेशान होने की उसे आवश्यकता ही नहीं है। मुझे यकीन था कि बात उसके समझ में आयेगी भी। उसने प्रत्युत्तर में लिखा - शुक्रिया ।
दूसरे दिन मैं देर से ऑफिस पहुंची थी, शाम के 5 बज रहे थे कि अचानक उसका फोन आया, उसने जल्दबाजी में कहा - मैं वह मां के हाथों का बना तिल के लड्डू लेने दिल्ली आया हुआ हूं, बताईये मुझे कहां उतरना होगा ।
क्षण भर को तो उसके इन अजीबगरीब हरकतों को देखकर मैं आश्चर्य में पड़ गयी, सोचने लगी कि आखिर यह उसकी कैसी दीवानगी है ? क्या सचमुच यह पागल है अथवा जुनुन का पक्का? क्या इसकी नजर में भावनाओं की इतनी कीमत है जो मां के इस तिल के लड्डू को लेने हजारों रूपये खर्च कर दिल्ली चला आया, क्या मेरे साथ ही मां की भी वह इतनी ही कद्र करता है, मेरी मां का आशीर्वाद जिसकी नजरों में अनमोल हो उसे देखने की उत्कंठा मुझे भी होने लगी थी।
मैने उन्हे अपने ऑफिस का लोकेशन बताते हुये कहा - तुम स्टेशन से टेक्सी पकड़कर 2 किमी दूर इंदिरा गांधी नगर चले आओ और वहां शास्त्री बिल्डिंग में सातवें माले पर मेरा ऑफिस है, मेरी कंपनी का नाम किसी से भी पूछ लेना, वहां गार्ड तुम्हे मुझ तक ले आयेगा ।
मैने उसके आने के पहले ही बाजार से दो तिल के लड्डू मंगवाये और उसे लिफाफे में पेक कर दिया, उसे मैं किसी कीमत पर तोड़ना नहीं चाहती थी, अब तो झूठ ही एक मात्र सहारा बचा था और झूठ को सच का रूप देना सचमुच बहुत कठिन होता है पर कहते हैं कि विवशता जो न कराये वो शायद कम है। उस लिफाफे को अपने डेस्क पर रख, पूरी तरह आश्वस्त हो मैं उसकी प्रतीक्षा करने लगी। दो घण्टे बीत गये उसका कुछ अता-पता नहीं था जबकि जिस स्थान से उसने मुझे फोन किया था, वह मात्र आधे घण्टे का ही रास्ता था, मैने उसके सेलफोन पर फोन करना चाहा लेकिन वह ऑफ बताने लगा । मैं तो उसकी राह देखते उससे मिलने की उत्सुकता में पलों को गिन रही थी । तभी अचानक मुझे एक फोन आया - हैलो आप मिसेज अंजू सिंह बोल रही हैं ?
जी हां - मैने कहा ।
उन्होने अपना परिचय देते हुये कहा - मैं अंजूमन हॉस्प्टिल से डॉ. मेहता बोल रहा हूं, क्या आप मि. रवि शर्मा को जानते हैं, उनका एक्सीडेंट हो गया है, उनकी हालत ठीक नहीं है, उन्होने अर्द्धचेतन अवस्था में आपका फोन नं. दिया है, ऐसा कहते हुये उन्होने अपना फोन काट दिया।
इतना सुनना था कि मेरे पैरो तले मानों जमीन खिसक गयी, मैंने अपनी गाड़ी पकड़ी और भागती हुई हॉस्पिटल की ओर पहुंची । हॉस्पिटल में उसकी हालत चिंताजनक थी। इस शहर में मेरे अलावा उसका कोई था भी नहीं, मैने डॉक्टर से उसका पूरा हालचाल जानना चाहा और उन्हे आश्वस्त कर दी कि जो भी जरूरी जांच हों वे सब किये जायें। मेरे आंसू आंखों से छलक रहे थे, मेरे चारो ओर अंधेरा था। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मैं उसके लिये क्या करूं? उसके घर फोन कर उनके घर वालों को कैसे बताउं? मुझे मालूम था कि वह अपने घर का इकलौता चिराग है, अपने मां बाप की आंखों का तारा है, उसके बारे में ऐसा सुनते हुये उसकी पत्नी और उसके मां- बाप मर जायेेगे । मै क्या जवाब दूंगी उन्हे ? मेरा कहीं कोई दोष न होते हुये भी व्यथित थी। भगवान से बस उसके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना कर रही थी ।
मुझे फफक कर रोता देख पास खड़े एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा - मेडम, क्या यह आपका रिश्तेदार है ?
मैने कुछ बोलने की बजाय बस रोते हुये स्वीकारोक्ति में सिर हिला दी।
उसने अपराध बोध से ग्रसित मेरे पास खड़ा हो घटना का विवरण बताते हुये कहने लगा - मेडम, यकीन मानिये मेरी इसमें कोई गलती नहीं है, मैं तो बाईक से घीमी रफतार में जा रहा था कि ये आदमी मुझसे हल्का सा धक्का खा गया और बगल से गुजरती ब्लू लाईन बस से टकरा गया । मेडम... मैं इसके इलाज का खर्च उठाने को भी तैयार हूं, पर बेवजह थाने का चक्कर... । मेडम मैं गाजियाबाद की एक कंपनी में काम करता हूं, मैं तो बस इस सामान को पहुंचाने इंदिरा नगर जा रहा था वहां एक मेडम का सामान पश्चिम बंगाल में मेरे घर के नजदीक बाराकर स्टेशन पर छूटा हुआ मुझे मिला गया मैने सोचा कि मैं दिल्ली तो जा ही रहा हूं, पहुचा दूंगा ।
मैं अब तक किसी अन्जाने भय से आशंकित खामोश सी खड़ी थी, लेकिन जैसे ही उसने बाराकर स्टेशन का नाम लिया, मैं कौतुहल से उसकी ओर देखने लगी और फिर अचानक मेरी नजर उसके हाथ पर रखे उस पोटली की ओर पड़ गयी। मैने उसके हाथों से उस पोटली को छीनते हुये कहा - यह तो मेरी पोटली है, कहां मिली यह आपको ।
मेडम क्या यह आपकी पोटली है?
हां हां... यह मेरी ही है, मैं इसे स्टेशन पर भूल आयी थी, भाई साहब आपका लाख-लाख शुक्रिया ! यह बहुत कीमती पोटली है, जिसे पाने के लिये ही यह आदमी जान की बाजी लगाकर यहां तक आया है ।मैने पोटली को खोलकर देखा तो उसमें मेरा वह खत उन लड्डुओं के बीच ज्यों का त्यों पड़ा हुआ था और मेरे विजिटिंग कार्ड उस युवक के हाथों में थे । मैं उस पोटली को फिर से पाकर बेहद खुश थी, और इस बात पर संतोष व्यक्त कर रही थी कि मुझे उस पोटली के लिये अब झूठ नहीं बोलना पड़ेगा ।
मैं, देर रात तक उसके बिस्तर के पास बैठी उसका हाल चाल लेते उसके सिर को सहला रही थी । उसके सिर में गंभीर चोंट आयी थी, काफी खून बाहर रिस चुका था, सो अभी भी बेहोशी से वह उबर नहीं पाया था। मैं उसके होश में आने की प्रतीक्षा कर रही थी । रात्रि के 12 बजे उसने अपनी आंखें खोली, वह अपने पास बैठे हुये देख मुझे पहचान गया और पागलों की भांति अपनी खुशी का इजहार करने लगा, यद्यपि वह स्वयं को असक्त महसूस कर रहा था, फिर भी अपनी आंखों और होंठों की मुस्कुराहट से जितना अपनी खुशी का बयां कर सकता था, सब कुछ वह कर रहा था । उसके चेहरे के भावों में वही दीवानगी थी जो मुझे उसके हरेक पत्रों में दिखायी दिया करती।
उसने दर्द के बीच कराहते हुये कहा - मां ने क्या भेजा मेरे लिये, मां का वह ...
मैने बहते हुये अश्रुधारा के बीच उस पोटली की ओर इशारा करते हुये कहा - ये रखी है मैने, मां ने तुम्हारे लिये तिल के लड्डू भेजे हैं, तुम ठीक हो जाओ, फिर हम साथ बैठकर खायेंगे ।
उसने इशारे से उस पोटली को मांगा और मैने बड़ी सहजता से उसे दे भी दिया, उस पोटली को सीने से लगाते हुये इशारे में मुझसे कहने लगा-एक लड्डू खा लूं ।
मैने स्नेह भरी डांट से उसके गालों में हल्की चपत लगाते हुये कहा - नहीं, बिल्कुल नहीं, डॉक्टर साब डाटेंगे, तुम ठीक हो जाओ, फिर हम ढेर सारे लड्डू खायेंगे । मैं तुम्हे खुद मां के पास ले चलूंगी, बस ।
वह मुस्कुराकर मेरी ओर निहारने लगा । अब वह कभी पलकों को बंद करता तो कभी मुझे जी भरकर निहारता। मैं भी उसे अपलक देख रही थी, आज उसकी दीवानगी को सामने बैठ मैं भी अंतर्मन की गहराईयों तक महसूस करना चाह रही थी।
रात्रि के 2 बज रहे थे, अचानक उसकी हालत बिगड़ने लगी, मै डॉक्टर को आवाज देने के लिये जैसे ही लपकी, उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहने लगा - अंजू जी मुझे लगता है, मैं शायद नहीं बच पाउंगा । आप मेरे मम्मी पापा और पत्नी से कहियेगा कि वे चिंता न करें, मेरी आयु भगवान ने शायद इतने ही दिनों तक की लिखी थी । अंजू जी, एक बार घर जाकर मेरी मां को देख लीजियेगा वो मेरे बिना नहीं रह सकती, उनसे कहियेगा वे अफसोस ना करें, मै अगला जन्म लेकर उन्ही के घर आउंगा। वह मेरे दोनो हाथ बड़े जोर से पकड़ा हुआ था और एक सांस में बोले जा रहा था, कहने लगा- अंजू जी आप अगले जन्म में फिर से मुझे मिलेंगी ना।
मेरे आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे, मैने रोते हुये उससे कहा - नहीं रवि प्लीज ऐसा मत कहो, आपको कुछ नहीं होगा । आप ही कहा करते थे ना, कि आपने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, इसलिए आपका कभी बुरा नहीं होगा, फिर ऐसी बातें क्यों कर रहे हो ?
हां, लेकिन बुरा कहां? मेरी मौत भी तो आपके ... उसे बोलने में कठिनाई हो रही थी, फिर भी वह बोलता रहा । मुझे शायद ऐसी ही मौत का इंतजार था, एक बार घर के सभी लोगों को देखने की इच्छा जरूर थी, पर लगता है... अंजू जी आप मुझे फिर से मिलेंगी ना, ऐसा कहते हुये उसे एक लंबी हिचकी आयी और उसका अभी बोलता, मुस्कुराता चेहरा निष्प्राण हो गया। मैं अवाक् हो अश्रु के सागर में डूबी फफकती हुई उसे अपलक निहारती रही, और इसी बीच वे तिल के लड्डू मेरे कदमों में गिरकर बिखर गये ।
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राकेश कुमार पाण्डेय
हिर्री डोलोमाईट माइंस
भिलाई इस्पात संयंत्र
फोन - 097704-07139
पोटली
राकेश कुमार पाण्डेय
क्रिसमस की छुट्टियां करीब थीं, ऑफिस में कंप्यूटर के सामने स्क्रीन पर बैठी मैं अपने बचे हुये पेण्डिंग काम निपटा रही थी, हर वर्ष की भांति इस बार की छुट्टियों में भी मैंने अपने मायके जाने का प्लान किया हुआ था। महानगरों की साल भर की आपाधापी और भागमभाग की दिनचर्या से मुक्ति पाने का जब कभी मुझे अवसर मिलता, मै सदैव अपनी मां के घर में ही सुकुन तलाशने का प्रयास करती। वैसे तो मां शब्द ही सुकुन के पर्याय के रूप में पर्याप्त है इसे किसी व्याख्या अथवा विशेषणों की आवश्यकता नहीं होती। एक औरत के लिये मायके का सुख और साथ में मां का सान्निध्य जितना सुख और सुकुन दे पाता है, वह साल भर की जन्नतनुमा जिन्दगी में शायद कहीं भी नसीब नहीं होती। मां के ममता भरे आंचल से लिपटे हुये चेहरे के धुंधली तस्वीरों में छिपी मुस्कुराहट में वह चमक होती है जो साजन की बांहों में आलिंगनबद्ध गोरी के तेज में कहीं से भी शायद ही नजर नहीं आती हो ।वास्तव में साजन का प्यार जहां कर्तव्यों और अधिकारों के दोपाये पर टिकी होती है वहीं मां का प्यार निश्छल निःस्वार्थ और किसी भी प्रतिदान की कल्पना से परे होता है । मां के प्यार में जहां गंगा सी निर्मलता होती है वहीं सागर सी पूर्णता भी। मुझे भी वह खुशनसीबी बस जल्दी ही नसीब होने वाली थी, बल्कि मेरे लिये तो इसलिए भी यह सौभाग्य का अवसर हुआ करता क्योंकि इससे मुझे मां के स्नेह रूपी इस अद्भुत सौंदर्य युक्त पुष्प के साथ ही गांवनुमा एक छोटे से नगर के जीवन की सहजता भी दोहरे उपहार के रूप में हर साल मिला करती ।
मेरा मायका भी पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव में है जिसने अपनी फैलती हुई आबादी के साथ यद्यपि आज छोटे से नगर का रूप ले लिया है, लेकिन लोगों की सहज जीवनशैली, सरल दिनचर्या एवं गली मुहल्लों के बीच के मुहबोले रिश्तों की मिठास में वही आत्मीयता आज भी देखने को मिलती है। महानगरों की कृत्रिम जीवनशैली से दूर वहां लोगों के बीच का अपनापन तेजी से परिवर्तित होती सामाजिक संरंचना से किंचित मात्र भी आज भी प्रभावित नहीं हुआ है। गांव की उन हसीन वादियों में मेरी इठलाती और इतराती जवानी बचपन बनकर जब कभी घूमते अथवा खेलते हुये थक जाती है तो आज भी मुझे कभी किसी परिचय की आवश्यकता नहीं होती, जो मिला जिनसे और जो कुछ भी मिला उनसे लेने में न कोई संकोच और न ही झिझक । सभी अपने ही होते हैं, कोई काका तो कोई दादा तो कोई बुआ और मामा। न कहीं आने जाने का रोकटोक न किसी का भय अथवा डर। अन्जाने भी राह चलते अगर मिल जाये तो अपने बातों की शुरूवात ही बोन (बहनजी) से करते हैं, इस शब्द में महानगरों की भांति कोई कृत्रिमता अथवा बनावटीपन नहीं होता। आज जिस तरह महानगरों की परिवर्तित होती जीवनशैली के बीच तमाम रिश्ते नाते सिर्फ औपचारिकता बनकर रह गये हैं और कहीं कहीं तो रिश्ते नातों की आड़ में ही औरतों के शोषण की कहानी अखबारों के पन्नों को रंगकर लोगों का चंद पलों के लिये मनोरंजन करती हों वहीं गांवों की सहज और निश्छल जीवनशैली मुझे अनायास ही अपनी ओर आकर्षित करती है।
इस बार की छुटिटयों में लंबे अवकाश पर जाने की तैयारी में मैं अपना काम जल्दी जल्दी समेट रही थी, प्रोजेक्ट पर मेरा काम अभी भी अधूरा था, वहीं अपने सहकर्मी साथी को जहां एक ओर काम हेण्ड ओवर करने थे तो दूसरी ओर बचे हुये काम को निपटाने की जल्दी भी थी, इसी बीच मुझे एक मेल प्राप्त हुआ। वैसे तो वह मेल करने वाला मेरे लिये अब भी अजनबी ही था, अजनबी इस लिहाज से कि मैने उसे कभी देखा नहीं था और न ही मै कभी उससे मिल पायी थी फिर भी उसे पिछले छः महीनों से उसके शब्दों के द्वारा उसे बेहतर तरीके से जानने लगी थी। हम किसी व्यक्ति से मिलकर भी उतना नहीं जान पाते जितना उसके विचारों के माध्यम से उसे बड़े सहज तरीके से जान लेते हैं। उसे पत्रों के द्वारा मै जितना जान पायी थी वह यही था कि वह एक छोटे से राज्य के छोटे से शहर का रहने वाला निहायत ही सभ्य इंसान था। अब उसका मेल मेरे लिये कोई नया नहीं था वह तो मुझे रोज मिला करता, उसके हर मेल में एक अजीब सा अपनापन, गहरी निकटता और कुछ ना कुछ नया जरूर होता। उसे मुझे मेल करने की आदत सी हो गयी थी, जब कभी वह मुझे किन्ही कारणों से मेल न कर पाता तो उसकी लंबी चैड़ी व्यथाओं से दूसरे दिन का मेल भरा पड़ा होता। मै भी पहले तो इस तरह के मेल को सामान्य तौर पर लेती पर अब मुझे प्रतिदिन उसका मेल पाने की आदत सी हो गयी थी । अब तो जब कभी उसका मेल मुझे न मिल पाता तो एक अजीब सा अधूरापन महसूस होता। अपने लिखे हुये चंद खूबसूरत शब्दों के द्वारा उस अजनबी ने भी मेरे हदय की गहराईयों में थोडी सी जगह बना ली थी।
मैंने उसे पिछले मेल में यह बताया था कि हम अब 15 दिनों तक कोई पत्राचार नहीं कर पायेंगे क्योंकि मेरे मायके में नेटवर्क कनेक्टिविटी की समस्या बनी रहती है और फिर मैं अपने लेपटॉप घर पर ही छोड़कर जा रही हूं । उसे 15 दिनों का पत्रों का वियोग बिल्कुल भी मंजूर नहीं था सो आज वह मुझसे जी भरकर बात करना चाहता था, पर मेरे साथ विवशता यह थी कि आज काम कुछ ज्यादा ही थे । लेकिन मैं उसके दीवानेपन को अपने काम के बोझ तले आज दबाना भी नहीं चाहती थी, वैसे तो स्वभाव से ही संकोची होने के कारण वह हर पत्र में मुझसे लिखा करता कि मै आपको डिस्टर्ब तो नहीं कर रहा, अत्यधिक मेल लिखने अथवा थोड़ी सी भी मेरी नाराजगी महसूस करते ही उसका पूरा पत्र क्षमा याचनाओं से भरा होता, सो मैं आज उसे किसी भी हाल में टोकना भी नहीं चाहती थी । उसकी इस सरलता और सहजता ने ही तो मुझे इस कदर प्रभावित कर दिया था कि धीरे-धीरे मैं उसके नजदीक आ गयी थी और उस अजनबी की दोस्ती को हौले हौले मै स्वीकार भी करने लगी थी वरना जिंदगी के हर एक पड़ाव में बहुतों से लगातार मिलने पर भी हम उतने प्रभावित नहीं हो पाते कि किसी को भी बड़ी सहजता से दोस्त के रूप में स्वीकार कर लें ।
उसने ई-मेल के द्वारा भेजे अपने पत्र में लिखा - आप मां के पास जा रही हैं, कहिये मेरे लिये क्या लायेंगी ?
मैं उसका मेल पाकर थोड़ी देर के लिये संकोच में पड़ गयी कि पता नहीं ये क्या लाने को कह बैठेगा? वैसे मैं जानती थी कि या तो वह मां के हाथ की बनी लड्डू खाना चाहेगा या फिर ऐसा ही कुछ छोटा मोटा उपहार। क्योंकि वह तो एक सरल इंसान था, उसकी आवश्यकताएं जहां सीमित थी वहीं उसके निश्छल और सरल स्वभाव से मै वाकिफ हो चुकी थी। फिर भी था तो वह अब भी मेरे लिये अजनबी ही, इसीलिए मै उससे धनिष्ठ पत्र मित्र होने के बाद भी वास्तव में दूरियों को कुछ हद तक बनाये रखना चाहती थी ।
मैने उन्हे तुरंत लिखा -आप जो कहिये लेते आउंगी, पर शर्त यह है कि उसे लेने के लिये आपको देहली आना पड़ेगा। मै इस शर्त के द्वारा उसे एक दायरे में बांधना चाहती थी, क्योंकि मैं जानती थी कि वह छोटे मोटे उपहार के लिये इतने रूपये खर्च कर दिल्ली तो आयेगा नहीं और यदि आने का भी ठान ले तो फिर देखा जायेगा।
मैं उसके मेल का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रही थी, मन में यह जानने की उत्सुकता थी कि आखिर वह मां से क्या लेना चाहता है ? पलों और लम्हों की लंबी प्रतीक्षा के बाद उसका मेल मुझे मिला, उस मेल को पढ़कर मैं गदगद हो गयी, उसके शब्द वैसे तो मेरी अपेक्षा के अनुरूप ही थे, लेकिन फिर भी हर मेल में मेरा वह आराधक मेरी नजरों में थोड़ा उपर उठ जाता। उन्होने अपने मेल में लिखा - आप लौटते हुये मां से मेरे लिये ढेर सारा आशीर्वाद लाईयेगा और मां को मेरी ओर से सादर चरण स्पर्श करियेगा । मैने तुरंत जवाब में लिखा और कहा -ओ.के.
मै उसके विचारों को पत्रों में पढ़कर प्रायः यह सोंचा करती कि कैसे होंगे उसके माता-पिता, जिसने ऐसे बेटे को जन्म दिया है, चाहे जो भी हो मुझे ऐसे दोस्त मिलने पर आखिर गर्व तो था।
मैं अपना काम अब जल्दी-जल्दी निपटाने लगी, अपने प्राजेक्ट पूरा करने की दिशा में बस थोड़ा ही बढ़ पायी थी कि इसी बीच उसका एक दूसरा लंबा चैड़ा ई मेल मुझे मिला । वैसे तो वह पत्र लंबी चैड़ी हिदायतों से भरा हुआ था परंतु इसमें कुछेक निवेदन भी थे, निवेदन के नाम पर बस केवल यही था कि नये साल पर उसने मुझसे शुभकामनाएं प्राप्त करने की इच्छा जाहिर की थी, इसके अलावा बाकी सब कुछ हिदायतें ही थी। उसकी इन लंबी चैड़ी गुजारिशों और हिदायतों को पढ़कर एक ओर जहां मैं काफी अचरज महसूस कर रही थी वहीं क्षण भर के लिये गुस्सा भी आ रहा था। मै वास्तव में यह नहीं समझ पा रही थी कि यह सब लिखकर उसने मुझसे बहुत करीब होने का परिचय दिया है या फिर मेरी काबिलियत का उसे तनिक भी अंदाजा ही नहीं ।
वैसे तो मेरे द्वारा भेजे गये कई पत्रों एवं जालघरों में प्रकाशित मेरे लंबे चैड़े प्रोफाईल के द्वारा वह जान ही चुका था कि मैं एक जानी मानी अंतर्राट्रीय कंपनी में साफटवेयर इंजीनियर के पद पर कार्यरत् हूं । यहां मेरा एक स्वतंत्र अस्तित्व है जहां विभिन्न जिम्मेदारियों को निभाते हुये मेरी प्रबंध क्षमता पर मेरे सीनियर्स को भी तनिक भी कभी संदेह नहीं हुआ, फिर ट्रेन में बरती जाने वाली तमाम तरह की हिदायतों जिसमें यात्रा के दौरान ठण्ड से बचने, सेहत का ख्याल रखने एवं रास्ते की अनावश्यक चीजें खरीद कर ना खाने की बात कहकर आखिर वह क्या साबित करना चाहता है, मै उसी उधेड़बुन में पड़ी हुई थी । मैं आज से 16 साल पहले अपना गांव छोड़कर दिल्ली पढ़ने आयी थी तब से लेकर आज तक हमेशा अकेले ही सफर करती रही परंतु आज तक किसी ने इस अजनबी की भांति रोका और टोका नहीं, मैं उसके इस पत्र को लेकर इसलिये भी क्षण भर को आहत हुई थी कि वह मुझे अथवा मेरे व्यक्तित्व को कहीं अण्डर इस्टीमेट तो नहीं कर रहा, पर मन में ख्याल आया कि जिसने मुझे ही एक आदर्श व्यक्तित्व का संपूर्ण रूप मान लिया हो उसके मन में भला ऐसे विचार कैसे आ सकते हैं? यह सब तो वास्तव में उसके प्यार, अपनापन और उसके निश्छल व्यक्तित्व की पहचान थी और फिर मैं उसे उसी रूप में लेकर मंद मंद मुस्कुरा रही थी। मैं खयालों में डूबी हुई सोच रही थी कि यह अजनबी जिससे न मेरा कोई वास्ता है न दूर दूर तक कोई रिश्ते और नाते फिर भी मेरे जरा सी दर्द पर उसका उफ, मुझे मेरा ही खयाल रखने को जैसे मजबूर सा कर देती थी । उसे तनिक भी गंवारा नहीं था कि कभी भी मुझे क्षणमात्र को कोई भी कष्ट हो ।
मैने उसके पत्र के जवाब में लिखा- आप चिंता ना करें मैं आपकी सभी हिदायतों का पूरा ध्यान रखूंगी और आखिर में व्यंग्यात्मक लहजे में यह भी लिखना ना भूली कि - आपका पत्र पढ़कर आज ऐसा लगा जैसे मैं ट्रेन में पहली बार यात्रा कर रही हूं।
अगली सुबह भोर में मेरी ट्रेन थी, ट्रेन में बैठते हुये मैं उसे याद कर रही थी, उसकी हिदायतों के अनुरूप मैने घर से ही अपने और बेटे के लिये पूड़ी-सब्जी और गाजर का हलवा बनाकर रख ली थी ताकि रास्ते में कोई खाने का सामान खरीदना ना पड़े । सुबह- सुबह जब कभी रास्ते में कान खुल जाती मैं जल्दी से गर्म कपड़े से अपने और बेटे का कान ढकती और वह अजनबी मुझे अनायास ही याद हो आता।
ट्रेन धीरे धीरे आगे बढ़ने लगी और मैं अपने मायके की उन हसीन वादियों और गलियों में खो गयी जहां मेरा बचपन बीता था और जहां की मिट्टी की सौंधी खुश्बू ने मेरे अंदर दूसरों को भी महकाने की काबिलियत पैदा की थी। बारिश के दिनों में कागज की कश्ती बना गलियों में तैराने का वह बालहठ, संगी साथियों की ठिठोलियां और स्कूल के टीचरजी की वह डांट रह-रहकर याद आ रही थी । हम स्कूल के जमाने में खूब मस्ती किया करते, कभी-कभी तो टीचरजी की डांट के डर से ही हम एकाध पीरियड मिस भी कर दिया करते, खासकर गणित का पीरियड तो ऐसा होता जहां हमारा धैर्य टीचरजी की डांट के आगे जवाब दे जाता। बस मन उन्ही विचारों में खोया हुआ था और कब मेरा वह गांव नजदीक आ गया मुझे पता ही न चला। मैंने अपने बेटे को नींद से जगाया और अपना सामान समेटने लगी ।
प्लेटफार्म पर इंतजार में खड़ी हुई मेरी मां मुझे दूर से दिखायी दे रही थी, मैं प्लेटफार्म से उतर ही रही थी कि मेरी मां दौड़ती हुई मेरे पास आयी और मेरे कुछ सामान को हाथों में लेते हुये कहा-ला बेटा, मुझे दे, थक गयी होगी ।
मैने मां के चरण स्पर्श करते हुये कहा - थकी तो जरूर हूं मां, पर इतना भी नहीं कि ये सामान ना उठा सकूं, और फिर घर जाकर खूब आराम करूंगी ना आप क्यों चिंता करती हो?
पर मां भला कहां मानने वाली थी, उन्होने मेरे एक बेग को हाथों से उठाते हुये रिक्शे वाले को बुलाया और हम रिक्शे में बैठकर घर की ओर जाने लगे । रास्ते में मिलने वाले सभी पहचान के होते, कोई हाथ हिलाकर अभिवादन करता तो कोई जोर से चिल्लाते हुये कहती - अरे बड़ी दिनों बाद आयी रे अज्जू ! कैसी है ? तेरी नौकरी कैसी चल रही है ? मैं भी खुशी से इठलाते हुये कहती, बढ़िया हूं, मौसी देखो ना कितनी मोटी हो गयी हूं ।
हां- हां, खूब कमाओं बेटी जुग जुग जियो ।
किसी का आशीर्वाद, किसी की शुभकामनाएं, किसी की नसीहतें यह सब हदय से और वह भी मुफ्त में केवल गांवों में ही मिलता है और वह सब बटोरती हुई मैं घर को जा रही थी।
घर जाकर मां के हाथों की बनी हुई गरम-गरम पकौड़े खायी, जिसकी मुझे बरसों से प्रतीक्षा थी और फिर अपने 27 घण्टे की लंबी थकान मिटाने पैर फैलाकर सो गयी । अभी नींद पड़ने को ही थे कि मुझे वह अजनबी फिर से याद आ गया, और मैं नींद से अचानक जाग उठी। मैने मां के पैर को दोबारा स्पर्श करते हुये उन्हे प्रणाम किया ।
मां मेरी इस हरकत को दखकर अजरज से कह उठी- क्या हुआ तूने तो प्लेटफार्म पर ही ...
मैने कहा - हां मां, यह प्रणाम मेरी ओर से नहीं, एक अजनबी दोस्त की तरफ से था, जिसने आपको प्रणाम करने को कहा था और आपसे अपने लिये ढेर सारा आशीर्वाद मांगा है, प्लीज, उसे आशीर्वाद दीजीयेगा मां ।
मां ने कहा - कौन दोस्त है ?
अरे मां, उसकी कहानी सुनोगे तो आपको भी बड़ा मजा आयेगा, है एक पागल है, पिछले पांच महीनों से मुझे लगातार मेरे मेल आई. डी. पर रोज पत्र लिखता है, अब उससे दोस्ती हो गयी है। पहले तो मैं भी उससे अजनबी समझकर डरती थी पर अब उसके घर के सभी लोग मुझे जानते हैं और मैं भी उसे अब जानने लगी हूं। जब मैने बताया कि मैं अपने मायके जा रही हूं तो उसने आपसे आशीर्वाद लाने को कहा है ।
ठीक है बेटा, पर अजनबी लोगों से ज्यादा घनिष्ठता अच्छी नहीं, वैसे तो तू समझदार है।
अरे मां चिंता मत करो, वह बहुत अच्छा लड़का है, वह भी उसी कंपनी में काम करता है जहां से आप रिटायर हुई हैं ।वह एक निहायत ही सभ्य इंसान है, उसे मैं अब अच्छे से जान गयी हूं। उस पर मुझे भरोसा है, वह संस्कारित परिवार का एक संस्कारवान लड़का है। उसके हर शब्दों में गजब की शालीनता होती हैं मां, आप भी जब उसके पत्रों को पढ़ेगी तो कह उठेंगी - वाह क्या बात है ?
मां आपको एक मजेदार बात पता, कि जब कभी वह इस तरह का खत लिखता है तो मुझे गुस्सा भी आता है पर क्षण भर में जब वह खुद को मेरे भक्त और आराधक के रूप में रखकर मेरी पूजा करने लगता है तो मैं अपना सारा गुस्सा भूल जाती हूं और बच्चे की तरह उसे माफ कर देती हूं। मां सच कहूं तो मुझे उसके और किसी बच्चे के स्वभाव की सहजता में कुछ ज्यादा अंतर दिखायी नहीं देता । उसके खत के कई प्रसंग बड़े प्रेरणादायी होते हैं मां, अभी पिछले दिनों उन्होने श्रीमद्भगवतगीता का एक प्रसंग सुनाया था, बड़ा रूचिकर था। द्वापर युग में यदुवंशियों के पतन से जुड़ी उस कथा को वर्तमान प्रसंग से जोड़ने की उसकी कल्पना से मैं बहुत प्रभावित हुई थी, कभी उसकी कहानी आपको भी सुनाउंगी, मां ।
अच्छा मां, बहुत दिन हुये अपने पुराने दोस्तों से नहीं मिल पायी हूं, लगता है सालों हो गये कुछ से तो मिले हुये, आप कह रही थी आशा आयी हुई है, सुना है बंगलौर में टीचर हो गयी है आजकल । मां आप बेटे को थोड़ा देख लें तो मैं उससे मिल आउं, बड़ी इच्छा है।
15 दिनों की लंबी छुट्टियां कब गुजर गयी, पता ही न लगा, इस बार की छुट्टियों में मेरी प्रायः उन सभी से मुलाकात हो गयी थी, जिनसे अपेक्षाएं लेकर मैं आयी थी। मां की ममता, पड़ोसियों का स्नेह और गांव के बड़े बुजुर्गो के आशीर्वाद से मन तृप्त हो चुका था । अगली सुबह मेरी दिल्ली वापसी का रिजर्वेशन था। मैंने अपना सारा सामान पेक कर लिया था। मां ने पूछा - बेटा कल तुम जा रहे हो, क्या- क्या ले जाना चाहोगे? तुम्हारे लिये मैने अपने हाथों से पापड़ बनाये हैं, कुछ बड़ियां है, दूध और दही तो मैं डिब्बे में ही रख दे रही हूं । लेकिन देखना, कहीं खराब ना हो ।
अरे नहीं मां ! मुझे कुछ नहीं चाहिये, सब कुछ तो आजकल बाजारों में मिल जाता है आप बेकार परेशान न हों ।
अरे बेटा - घर और बाहर की चीजों में थोड़ा अंतर तो होता है ना !
ठीक है मां फिर भी !
अचानक मुझे वह अजनबी दोस्त फिर से याद हो आया । मैने मां से कहा- अरे मां उस अजनबी दोस्त के लिये तो कुछ रख दो, वह मेरे जाते ही मुझसे पूछेगा कि मैं मां के पास से उसके लिये क्या लायी, तो क्या जवाब दूंगी ?
तो तू ही बता उसके लिये क्या बनाउं बेटा, सब तो खराब हो जायेगा, फिर उसके पास कैसे भिजवायेगी आखिर तू ?
मां अरे वो आधा पागल है, चला आयेगा, मकर संक्राति का पर्व नजदीक है उसके लिये अपने हाथों से तिल के लड्डू बना दो ना, उसे मैं पार्सल से भेज दूंगी, पर्व के आस पास उसे मिल भी जायेगा।
ठीक है, मैं रात को बना कर रख दूंगी ।
मां ने रात को दो तिल के बड़-बड़े लड्डू बनाये और उसे एक पोटली नुमा थैली में भरते हुये कहा - ये रख अपने दोस्त को उसे दे देना,इस थैली में लड्डू के साथ मेरा आशीर्वाद भी है ।
बड़ी सुबह मेरी ट्रेन थी, मैने सारे सामान सेमेटे और घर को अलविदा कहा । अब फिर से साल भर के लिये आना नहीं होगा, यह मैं जानती थी, मैने अश्रुपूर्ण नेत्रों से मां से विदाई ली। मां का वियोग बड़ा कष्ट देता है, यही एक ऐसा नाता होता है जो तमाम रिश्तों और नातों की अपवित्रता एवं स्वार्थ के बीच भी अपने त्याग और समर्पण के लिये किसी भी इंसान को सहर्ष शीष झुकाने मजबूर कर देता है । इसकी ममता में वो गजब की ताकत होती है जो जीवन के कठिन संघर्षों में ढाल बनकर खड़ी हो जाती है । मां की बचपन में सिखायी गयी उन नसीहतों के जरिये ही तो भारतीय स्त्री आज भी अपने अनचाहे पारंपरिक रिश्ते नातों को तमाम मतभेदों के बाद भी बड़ी संजीदगी से बखूबी निभाती है और ढेरों कष्टों के बीच भी कभी उफ नहीं करती।
इसे मां का वह अपूर्व स्नेह त्याग और संस्कारों की चरम परिणति का ही एक रूप कहें कि जब कोई स्त्री बहू बनकर किसी पुरूष के चैखट पर कदम रखती है तो वह अपने पति के सारे संस्कारों को बिना किसी हिचक अथवा विरोध के अंगीकार कर लेती है, परंतु पुरूष का दंभ उसकी उन अच्छाईयों को भी अपनाने से सौ बार हिचकती है जो वह अपने घर से सुसंस्कारों के रूप में सहेज कर लाती है।
ट्ेन छूटने लगी, मां के हिलते हुये विदाई के हाथों को मैं दूर तक देखते हुये श्रद्धा से नमन करती रही, मेरा बेटा भी इस बार नानी के प्यार को पाकर बेहद खुश था, वह भी हाथ हिला-हिलाकर दूर तक अपने नन्हे-नन्हे हाथों से मां का अभिवादन करता रहा ।
मैं सुबह की ठण्डी-ठण्डी हवा से बचने के लिये अपने बेटे के साथ कश्मीरी शाल में अपना चांद सा चेहरा छिपा ओढ़कर दुबक गयी। इस बीच मुझे गहरी नींद भी आ गयी, नींद से जागी तो अचानक उस दोस्त के लिये मां के हाथों रखी पोटली की याद आयी । मैने उस पोटली को बड़ी हिफाजत से रखा था, सो फिर से उसके बारे में आश्वस्त हो जाना चाहती थी। मैंने एक बार फिर से अपना पर्स टटोली, बेग में ढूढ़ा, इधर-उधर कहीं नहीं मिला । अब तो मैं व्यथित होकर उस पोटली के बारे में याद करने लगी कि आखिर कहां रखा होगा मैने उस पोटली को, क्योंकि घर से तो मै उसे लेकर चली थी, अचानक याद आया कि कि ट्रेन की प्रतीक्षा में सीट पर बैठे हुये वाटर बाटल निकालते समय वह पोटली निकालकर रखी थी फिर उसे अंदर डालना भूल गयी ।
मैने आनन फानन में मां को फोन किया और कहा - मां मुझे लगता है कि मैं वह पोटली प्लेटफार्म में उसी सीट पर ही भूल गयी हूं जहां बैठे हुये हम ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे ।
मां उस अजनबी से मेरे गहरे लगाव और आत्मीयता को भलीभांति जान चुकी थी, अतः क्षण भर भी देर किये बिना वह स्टेशन के लिये निकल पड़ी और उन्होने घर से निकलते हुये मुझे फोन पर कहा कि यदि वह पोटली मुझे मिल जाती है तो मैं स्टेशन से ही पार्सल कर दूंगी ।
लेकिन दुर्भाग्य से वह पोटली मां को न मिल सकी, वह अपने स्थान से गायब थी। मां ने इधर उधर बहुत ढूढ़ा पर अंततः थक हारकर मुझे उन्होने फोन किया - बेटा शायद कोई उसे उठाकर ले गया।
मां की बातों को सुनकर जैसे मेरी नींद ही गायब हो गयी, मुझे बड़ा दुख हो रहा था, मन इस बात से व्यथित था कि आखिर मैं उस अजनबी दोस्त को क्या जवाब दूंगी? यदि उस पोटली के बदले मेरा कोई सामान गुम हो जाता तो शायद मुझे उतना दुख नहीं होता, लेकिन आखिर कुछ किया भी तो नहीं जा सकता था। मन में कई तरह के विचार आ रहे थे, वह मेरे आफिस ज्वाइन करते ही पूछेगा कि मेरे लिये क्या लाये तो मेरा उत्तर क्या होगा? मैने उस पोटली में तिल के लड्डू के साथ अपना एक नया विजिटिंग कार्ड भी डाला था जिसमें नये ऑफिस के पते के साथ मेरे पर्सनल फोन नं. का भी उल्लेख था और इस तरह उस पोटली के खो जाने से मेरे विजिटिंग कार्ड के अनावश्यक लोगों के हाथों पहुच जाने का एक अन्जाना सा भय भी सता रहा था ।
दुखी मन से मै दिल्ली के प्लेटफार्म पर उतरी और घर के लिये प्रस्थान कर गयी। दोपहर मुझे ऑफिस ज्वाइन करनी थी, मै जैसे ही ऑफिस पहुंची, सबसे पहले अपना मेल अकाउंट चेक किया तो जैसा कि मुझे अंदेशा था मेरे स्वागत में उसके मेल मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे ।उसने अपने ई-मेल में मेरे स्वागत के साथ वही सवाल किये थे जिसकी आशंका से मैं परेशान हुये जा रही थी ।
मैं सवालों के जवाब तो पहले ही तैयार कर चुकी थी, न चाहते हुये भी उसके नाजुक से दिल को टूटने से बचाने के लिये झूठ का सहारा मुझे आखिर लेना ही था, इसके अलावा मैं सारे विकल्पों को दूर-दूर तक पहले ही तलाश कर चुकी थी ।
मैं बचपन से किसी सिद्धांतों में बंधने की बजाय व्यवहारिक विकल्पों को ज्यादा तरजीह देती रही हूं । मैं सदा से उस सच से परहेज करती रही, जो अनावश्यक किसी की सहज जीवनचर्या में बाधक बन जाये या किसी का बेवजह हदय तोड़ दे। मैं तो उस झूठ को भी सच का ही एक रूप मानती रही हूं जो किसी के पथ की दिशा कुमार्ग से सुमार्ग की ओर बदल दे या फिर किसी को पतित अथवा दिग्भ्रमित होने से बचा ले ।
मैं उसे किसी भी कीमत पर तोड़ना नहीं चाहती थी, मैं जानती थी कि वह मुझे बहुत प्यार करता है, शायद दीवानगी की हद तक, सम्मान भी इस कदर करता है मानो निश्छल भक्ति का एक जीता जागता स्वरूप हो । मेरे वास्तविक स्थिति से अवगत कराने पर भी शायद उसे यकीन नहीं होता अतः मैने उसे लिखा - मां ने तुम्हारे लिये आशीर्वाद स्वरूप तिल के लड्डू भेजी हैं, अब तुम बताओ कि क्या उसे लेने दिल्ली आओगे या फिर पार्सल कर दूं, पर पार्सल तुम तक पहुंचने में कितने दिन लगेंगे, कहना मुश्किल है, हो सकता है तुम तक पहुचते हुये यह खराब भी हो जाये और जहां तक रही बात आशीर्वाद की, तो वह तो मां ने कहा ही हैं कि उनका आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है ।
ऐसा लिखकर मैंने सारे विकल्पों का हल, एक साथ उसे सुझाने का प्रयास किया था और साथ ही संकेतों में यह कहने का भी प्रयास की थी कि जिस चीज की वास्तव में उसे अभिलाषा थी, वह तो उसे मिल ही गया और बाकी सब के लिये अनावश्यक परेशान होने की उसे आवश्यकता ही नहीं है। मुझे यकीन था कि बात उसके समझ में आयेगी भी। उसने प्रत्युत्तर में लिखा - शुक्रिया ।
दूसरे दिन मैं देर से ऑफिस पहुंची थी, शाम के 5 बज रहे थे कि अचानक उसका फोन आया, उसने जल्दबाजी में कहा - मैं वह मां के हाथों का बना तिल के लड्डू लेने दिल्ली आया हुआ हूं, बताईये मुझे कहां उतरना होगा ।
क्षण भर को तो उसके इन अजीबगरीब हरकतों को देखकर मैं आश्चर्य में पड़ गयी, सोचने लगी कि आखिर यह उसकी कैसी दीवानगी है ? क्या सचमुच यह पागल है अथवा जुनुन का पक्का? क्या इसकी नजर में भावनाओं की इतनी कीमत है जो मां के इस तिल के लड्डू को लेने हजारों रूपये खर्च कर दिल्ली चला आया, क्या मेरे साथ ही मां की भी वह इतनी ही कद्र करता है, मेरी मां का आशीर्वाद जिसकी नजरों में अनमोल हो उसे देखने की उत्कंठा मुझे भी होने लगी थी।
मैने उन्हे अपने ऑफिस का लोकेशन बताते हुये कहा - तुम स्टेशन से टेक्सी पकड़कर 2 किमी दूर इंदिरा गांधी नगर चले आओ और वहां शास्त्री बिल्डिंग में सातवें माले पर मेरा ऑफिस है, मेरी कंपनी का नाम किसी से भी पूछ लेना, वहां गार्ड तुम्हे मुझ तक ले आयेगा ।
मैने उसके आने के पहले ही बाजार से दो तिल के लड्डू मंगवाये और उसे लिफाफे में पेक कर दिया, उसे मैं किसी कीमत पर तोड़ना नहीं चाहती थी, अब तो झूठ ही एक मात्र सहारा बचा था और झूठ को सच का रूप देना सचमुच बहुत कठिन होता है पर कहते हैं कि विवशता जो न कराये वो शायद कम है। उस लिफाफे को अपने डेस्क पर रख, पूरी तरह आश्वस्त हो मैं उसकी प्रतीक्षा करने लगी। दो घण्टे बीत गये उसका कुछ अता-पता नहीं था जबकि जिस स्थान से उसने मुझे फोन किया था, वह मात्र आधे घण्टे का ही रास्ता था, मैने उसके सेलफोन पर फोन करना चाहा लेकिन वह ऑफ बताने लगा । मैं तो उसकी राह देखते उससे मिलने की उत्सुकता में पलों को गिन रही थी । तभी अचानक मुझे एक फोन आया - हैलो आप मिसेज अंजू सिंह बोल रही हैं ?
जी हां - मैने कहा ।
उन्होने अपना परिचय देते हुये कहा - मैं अंजूमन हॉस्प्टिल से डॉ. मेहता बोल रहा हूं, क्या आप मि. रवि शर्मा को जानते हैं, उनका एक्सीडेंट हो गया है, उनकी हालत ठीक नहीं है, उन्होने अर्द्धचेतन अवस्था में आपका फोन नं. दिया है, ऐसा कहते हुये उन्होने अपना फोन काट दिया।
इतना सुनना था कि मेरे पैरो तले मानों जमीन खिसक गयी, मैंने अपनी गाड़ी पकड़ी और भागती हुई हॉस्पिटल की ओर पहुंची । हॉस्पिटल में उसकी हालत चिंताजनक थी। इस शहर में मेरे अलावा उसका कोई था भी नहीं, मैने डॉक्टर से उसका पूरा हालचाल जानना चाहा और उन्हे आश्वस्त कर दी कि जो भी जरूरी जांच हों वे सब किये जायें। मेरे आंसू आंखों से छलक रहे थे, मेरे चारो ओर अंधेरा था। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर मैं उसके लिये क्या करूं? उसके घर फोन कर उनके घर वालों को कैसे बताउं? मुझे मालूम था कि वह अपने घर का इकलौता चिराग है, अपने मां बाप की आंखों का तारा है, उसके बारे में ऐसा सुनते हुये उसकी पत्नी और उसके मां- बाप मर जायेेगे । मै क्या जवाब दूंगी उन्हे ? मेरा कहीं कोई दोष न होते हुये भी व्यथित थी। भगवान से बस उसके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना कर रही थी ।
मुझे फफक कर रोता देख पास खड़े एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा - मेडम, क्या यह आपका रिश्तेदार है ?
मैने कुछ बोलने की बजाय बस रोते हुये स्वीकारोक्ति में सिर हिला दी।
उसने अपराध बोध से ग्रसित मेरे पास खड़ा हो घटना का विवरण बताते हुये कहने लगा - मेडम, यकीन मानिये मेरी इसमें कोई गलती नहीं है, मैं तो बाईक से घीमी रफतार में जा रहा था कि ये आदमी मुझसे हल्का सा धक्का खा गया और बगल से गुजरती ब्लू लाईन बस से टकरा गया । मेडम... मैं इसके इलाज का खर्च उठाने को भी तैयार हूं, पर बेवजह थाने का चक्कर... । मेडम मैं गाजियाबाद की एक कंपनी में काम करता हूं, मैं तो बस इस सामान को पहुंचाने इंदिरा नगर जा रहा था वहां एक मेडम का सामान पश्चिम बंगाल में मेरे घर के नजदीक बाराकर स्टेशन पर छूटा हुआ मुझे मिला गया मैने सोचा कि मैं दिल्ली तो जा ही रहा हूं, पहुचा दूंगा ।
मैं अब तक किसी अन्जाने भय से आशंकित खामोश सी खड़ी थी, लेकिन जैसे ही उसने बाराकर स्टेशन का नाम लिया, मैं कौतुहल से उसकी ओर देखने लगी और फिर अचानक मेरी नजर उसके हाथ पर रखे उस पोटली की ओर पड़ गयी। मैने उसके हाथों से उस पोटली को छीनते हुये कहा - यह तो मेरी पोटली है, कहां मिली यह आपको ।
मेडम क्या यह आपकी पोटली है?
हां हां... यह मेरी ही है, मैं इसे स्टेशन पर भूल आयी थी, भाई साहब आपका लाख-लाख शुक्रिया ! यह बहुत कीमती पोटली है, जिसे पाने के लिये ही यह आदमी जान की बाजी लगाकर यहां तक आया है ।मैने पोटली को खोलकर देखा तो उसमें मेरा वह खत उन लड्डुओं के बीच ज्यों का त्यों पड़ा हुआ था और मेरे विजिटिंग कार्ड उस युवक के हाथों में थे । मैं उस पोटली को फिर से पाकर बेहद खुश थी, और इस बात पर संतोष व्यक्त कर रही थी कि मुझे उस पोटली के लिये अब झूठ नहीं बोलना पड़ेगा ।
मैं, देर रात तक उसके बिस्तर के पास बैठी उसका हाल चाल लेते उसके सिर को सहला रही थी । उसके सिर में गंभीर चोंट आयी थी, काफी खून बाहर रिस चुका था, सो अभी भी बेहोशी से वह उबर नहीं पाया था। मैं उसके होश में आने की प्रतीक्षा कर रही थी । रात्रि के 12 बजे उसने अपनी आंखें खोली, वह अपने पास बैठे हुये देख मुझे पहचान गया और पागलों की भांति अपनी खुशी का इजहार करने लगा, यद्यपि वह स्वयं को असक्त महसूस कर रहा था, फिर भी अपनी आंखों और होंठों की मुस्कुराहट से जितना अपनी खुशी का बयां कर सकता था, सब कुछ वह कर रहा था । उसके चेहरे के भावों में वही दीवानगी थी जो मुझे उसके हरेक पत्रों में दिखायी दिया करती।
उसने दर्द के बीच कराहते हुये कहा - मां ने क्या भेजा मेरे लिये, मां का वह ...
मैने बहते हुये अश्रुधारा के बीच उस पोटली की ओर इशारा करते हुये कहा - ये रखी है मैने, मां ने तुम्हारे लिये तिल के लड्डू भेजे हैं, तुम ठीक हो जाओ, फिर हम साथ बैठकर खायेंगे ।
उसने इशारे से उस पोटली को मांगा और मैने बड़ी सहजता से उसे दे भी दिया, उस पोटली को सीने से लगाते हुये इशारे में मुझसे कहने लगा-एक लड्डू खा लूं ।
मैने स्नेह भरी डांट से उसके गालों में हल्की चपत लगाते हुये कहा - नहीं, बिल्कुल नहीं, डॉक्टर साब डाटेंगे, तुम ठीक हो जाओ, फिर हम ढेर सारे लड्डू खायेंगे । मैं तुम्हे खुद मां के पास ले चलूंगी, बस ।
वह मुस्कुराकर मेरी ओर निहारने लगा । अब वह कभी पलकों को बंद करता तो कभी मुझे जी भरकर निहारता। मैं भी उसे अपलक देख रही थी, आज उसकी दीवानगी को सामने बैठ मैं भी अंतर्मन की गहराईयों तक महसूस करना चाह रही थी।
रात्रि के 2 बज रहे थे, अचानक उसकी हालत बिगड़ने लगी, मै डॉक्टर को आवाज देने के लिये जैसे ही लपकी, उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहने लगा - अंजू जी मुझे लगता है, मैं शायद नहीं बच पाउंगा । आप मेरे मम्मी पापा और पत्नी से कहियेगा कि वे चिंता न करें, मेरी आयु भगवान ने शायद इतने ही दिनों तक की लिखी थी । अंजू जी, एक बार घर जाकर मेरी मां को देख लीजियेगा वो मेरे बिना नहीं रह सकती, उनसे कहियेगा वे अफसोस ना करें, मै अगला जन्म लेकर उन्ही के घर आउंगा। वह मेरे दोनो हाथ बड़े जोर से पकड़ा हुआ था और एक सांस में बोले जा रहा था, कहने लगा- अंजू जी आप अगले जन्म में फिर से मुझे मिलेंगी ना।
मेरे आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे, मैने रोते हुये उससे कहा - नहीं रवि प्लीज ऐसा मत कहो, आपको कुछ नहीं होगा । आप ही कहा करते थे ना, कि आपने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, इसलिए आपका कभी बुरा नहीं होगा, फिर ऐसी बातें क्यों कर रहे हो ?
हां, लेकिन बुरा कहां? मेरी मौत भी तो आपके ... उसे बोलने में कठिनाई हो रही थी, फिर भी वह बोलता रहा । मुझे शायद ऐसी ही मौत का इंतजार था, एक बार घर के सभी लोगों को देखने की इच्छा जरूर थी, पर लगता है... अंजू जी आप मुझे फिर से मिलेंगी ना, ऐसा कहते हुये उसे एक लंबी हिचकी आयी और उसका अभी बोलता, मुस्कुराता चेहरा निष्प्राण हो गया। मैं अवाक् हो अश्रु के सागर में डूबी फफकती हुई उसे अपलक निहारती रही, और इसी बीच वे तिल के लड्डू मेरे कदमों में गिरकर बिखर गये ।
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राकेश कुमार पाण्डेय
हिर्री डोलोमाईट माइंस
भिलाई इस्पात संयंत्र
फोन - 097704-07139
बहुत ही भावुक कहानी थी....एक ही साँस में पुरा पढ़ गया ......
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कहानी, बधाई राकेश जी को और साथ ही रवि रत्लामी जी को इतनी सुन्दर कहानी छापने के लिये,राकेश जी ने कहानी का अन्त बहुत भाऊक कर दिया है, पढते हुये अन्त मे आन्खे भर आयी.राकेश जी की कल्प्ना बहुत अच्छी है, बहुत कोमल, पर ऐसे दोस्त मिला नही करते, यदि यह सच्ची घटना होती तो मै जरूर कहती कि काश मेरा भी दोस्त ऐसा ही होता.
जवाब देंहटाएंप्रिया जैन , इन्दौर
kahani achhee hai par nayk ko marana nahee cahhiye tha.
जवाब देंहटाएंrakesh ji,
जवाब देंहटाएंdard ke sagar mein dubo diya aapne..........ek saans mein padhte padhte ant tak aate aate aankhein nam ho gayi........itna dardnak ant kyun?