कहानी नाम में क्या रखा है हरि भटनागर घर के बड़े हॉल में हम लोग इकट्ठा हो गए थे और खिड़कियों की संधों से हालात का जायज़ा ले रहे थे। व...
कहानी
घर के बड़े हॉल में हम लोग इकट्ठा हो गए थे और खिड़कियों की संधों से हालात का जायज़ा ले रहे थे।
वे बहुत बुरे दिन थे। मंदिर-मस्जिद झगड़े को लेकर दंगे की ख़बरें थीं। दूसरे शहरों में मार-काट-आगजनी की ख़बरें इक्का-दुक्का, किसी तरह आए अख़बारों से मिल जातीं। इससे इतनी दहशत न होती जितनी रह-रह के शहर में हो रहे हल्लों-धुओं और पटाखों की तरह चलती गोलियों की आवाज़ों से होती। हम लोग सहम जाते, चेहरों का रंग सफ़ेद काग़ज़-सा हो जाता।
पहले दिन जब पता चला कि बाबरी मसजिद ढहा दी गई, उस दिन हमारे शहर में अमन-चैन था। किसी तरह की न फुसफुस थी और न कोई वारदात। सब पुराने ढर्रे पर चल रहा था। सारे घपले दूसरे दिन शुरू हुए जब घरों में अखबार डाले गये। मैं तड़के दूध लेकर आया और जैसे ही अख़बार खोला और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकला, हवा में फ़क़र् नज़र आ रहा था। एक आदमी जो शायद कुंजड़ा था, बोरे को काँख में दबाए, ढीले पंचे को संभालता बदहवास-सा गली से गुज़रा। मैंने देखा, उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। डर से उसके होंठ सूखे-पपड़ाए थे। आँखें फटी-फटी थीं। आगे बढ़कर मैंने उससे पूछा-क्यों मियां, क्या हुआ? वह हैरान हो उठा। तनिक ठिठका और अस्फुट-सा बुदबुदाता भाग खड़ा हुआ जिसका यही मतलब था कि शहर में ख़ूनी वारदात शुरू हो गई है। मुझे काटो तो खून नहीं। बेजान-सा घर में दाखि़ल हुआ। पत्नी ने मुझे देखा और हैरान-परेशान हो उठी। उसने बच्ची को खिलाना छोड़ दिया और सामने आ खड़ी हुई। वह कुछ पूछती कि बाहर तीन-चार लोग पैदल और स्कूटरों पर चीखते-चिल्लाते गुज़रे। आसपास के घरों के दरवाज़े खुले और ज़ोरों से बंद हुए-पत्नी को कुछ बताना नहीं पड़ा। वह सकते में आ गई।
फिर थोड़ी देर बाद तो चारों तरफ़ धुएँ के पहाड़ ही पहाड़ दिख रहे थे। शोर उठ रहा था। गोलियाँ चल रही थीं।
घर का दरवाज़ा अच्छी तरह लगाकर मैं ऊपर छत पर आ गया। आस-पास के घरों के लोग खिड़कियों से झाँक रहे थे, कुछ छतों पर थे। सभी खौफ़ज़दा थे। अकेला और असुरक्षित महसूस कर रहे थे।
सवेरा, दोपहर और शाम के एक-एक पल बहुत ही मुश्किल से बीते। लोग दिख रहे थे, शायद इसीलिए दहशत उतनी न थी जितनी अँधेरा घिरते हुई। घर घर की तरह नहीं लग रहे थे। उनमें जैसे कोई रहता ही न हो। बच्चों का शोर तक घुट गया था। मैंने पत्नी पर निगाह डाली। हमेशा सजी-सँवरी और मुस्कुराने वाली पत्नी इस वक़्त बर्फ़ की तरह ठण्डी और धूसर लग रही थी। उसके बदन और सजीली बोलती आँखों की चमक गायब हो गई थी। इसकी छाया बच्ची पर भी थी। वह गुमसुम थी। पत्नी ने काँपते हुए मेरा हाथ पकड़ा-यहाँ से निकल चलिए, मुझे तो डर लग रहा है!
- कहाँ चलूँ? - उसकी आँखों में काँपते भय को देखते हुए मैंने कहा-अब तो निकलने का कोई रास्ता भी नज़र नहीं आ रहा है!
पत्नी क्षणभर को चुप रही, फ़र्श को निहारती रही, फिर बोली-गौरी बाबू के यहाँ चलते हैं; यहाँ अकेले तो मेरे प्राण निकल जाएँगे।
- गौरी बाबू! गौरी बाबू के यहाँ!!
गौरी बाबू ऐसे व्यक्ति थे जिनसे मेरी पटती नहीं थी। वे ऐसे विचारों के थे जो यह मानते थे कि हिन्दुस्तान में हिन्दू के अलावा किसी दूसरी क़ौम को रहने का हक़ नहीं। इस बात को अंजाम देने के लिए वे कुछ भी करने को उत्साहित दिखते। उन्हीं के विचारों से जुड़े व्यक्ति ही ज़्यादातर उनसे मिलते-जुलते और देर रात तक उनके यहाँ डटे रहते।
गौरी बाबू एक छोटा-मोटा अखबार निकालते थे जिसमें एक-आध ख़बर के अलावा विज्ञापन ही विज्ञापन छपते थे। वे अधेड़ उमर थे। दाँत उनके तम्बाकू या किसी रोग से घिस गए थे और काले-पीले टुकड़ों की तरह आड़े-तिरछे फँसे थे। लोग उन्हें भैया जी कहते थे और घुटने छूते थे। जब वे बोलते तो उनके मुँह से झागदार लुआब निकलता जो सामनेवाले के मुँह पर गिरता या उन्हीं के होंठों के कोरों पर जमता जाता।
गौरी बाबू के विचारों से मैंने हमेशा असहमति जताई। इसीलिए अंदर ही अंदर वे न मुझे प्यार करते और न मैं उन्हें। लेकिन ज़ाहिरा तौर पर एक दूसरे का आदर करते थे और ओट होते ही थुड़ी बोलते थे।
गौरी बाबू के नाम पर मैंने मुँह बिचकाया।
पत्नी ने कहा-ऐसे मौक़े पर अब मुँह मत बनाओ। जान प्यारी है कि नहीं!
- तो क्या उनके यहाँ जाने से बच जाएगी।
- बच तो नहीं जाएगी मगर अकेले से तो दुकेले भले कि नहीं!
पत्नी की बात पर मैंने सिर हिलाया। ‘कुछ करते हैं'-कहता मैं कमरे में चक्कर लगाने लगा। यकायक छोटे-छोटे डग रखता दालान में पहुँचा और आँगन पार करता हुआ सीढि़याँ चढ़ने लगा। कुछ ही क्षण में मैं छत पर था। पूरा मुहल्ला अंधेरे में डूबा था। सड़क की लाइट तक नहीं जल रही थी। जैसे लाइन काट दी गई हो। दूर कहीं पर कुत्ते रो रहे थे। जहाँ तक निगाह जाती पेड़ों की छायाओं का गाढ़ा अंधेरा फैला था जबकि आसमान में हल्के उजाले के बीच तारे काँप-से रहे थे मानो चारों तरफ़ चलती गोलियाँ, आगजनी और खून-ख़राबे से भयाक्रांत हों। पास ही कहीं चमगादड़ चिचिया रहे थे।
लोगों के खाँसने और बीड़ी-सिगरेट की चिनगियों से लगा कि लोग अपनी-अपनी छतों पर हैं और हालात का जायज़ा ले रहे हैं।
यकायक कोई, दूर की छत से, दहाड़ा। उसका दहाड़ना था कि आस-पास की छतों से लोग दहाड़ उठे। मेरा भी मन हुआ कि दहाडूँ लेकिन ज़बान तालू से चिपटी थी। पुराने शहर की तरह इस मुहल्ले के मकान एक-दूसरे से सटे हुए नहीं थे। आठ-दस मकान ही ऐसे होंगे। बाक़ी सभी फ़ासले पर थे। बीच में चारदीवारी और पेड़-पौधे। गौरी बाबू को मैंने बेमन से आवाज़ दी। गौरी बाबू जैसे मेरी आवाज़ का इंतज़ार कर रहे थे। उन्होंने झट से खिड़की खोली और मुझे पुकारा। यकायक जैसे उन्होंने मुझे छत पर देख लिया हो, खिड़की बंद की और थोड़ी देर में वे अपनी छत पर थे।
हम गौरी बाबू के यहाँ नहीं गए बल्कि गौरी बाबू अपनी बूढ़ी माँ के साथ हमारे घर आ गए। थोड़ी देर बाद तो गौरी बाबू के आने की भनक लगते ही पड़ोस के आठ दस परिवार-आदमी, औरतें, जवान लड़कियों-लड़कों और बच्चों का अच्छा खासा झुण्ड हमारे घर में था। पत्नी और मेरे चेहरे पर भय की वह काली छाया अब पहले जैसे नहीं रही थी। सुरक्षा के ढेर सारे सामान-पत्थर, चैले और लोगों की फड़कती भुजाओं ने हमारे डर को कम तो कर दिया था लेकिन किसी भी हादसे की आशंका से हम अपने को बचा नहीं पा रहे थे। कहीं से शोर उठता, बाग़ीचे में अमरूद गिरता या कोई पक्षी फड़फड़ा उठता या कुत्ता भौंक उठता तो हमारे प्राण नहों में समा जाते।
हॉल में जीरो वॉट का नीला बल्ब जल रहा था जिसमें सब लोग चाँदनी रात में डूबे-से लग रहे थे। किसी महिला की नाक की कील या चूड़ी या अंगूठी रह-रहकर चमकती कि लगता जुगनू हो। फ़र्श पर एक तरफ़ जवान लड़कियाँ-महिलाएँ और बच्चे थे और दूसरी तरफ़ मर्द। बीच की जगह ख़ाली थी जहाँ चप्पलों का ढेर था। मैं खिड़की के पास कुर्सी डाले बैठा था। दूसरी खिड़की पर गौरी बाबू थे जिनके गिर्द आठ-दस नवयुवक थे जो चौकन्ने थे और किसी भी आफ़त से टकराने के लिए तैयार।
गौरी बाबू ग़ुस्से में दिख रहे थे। उनका चेहरा सख़्त था और माथा सिकुड़ा हुआ। वे इस बात से नाराज़ थे कि हिन्दू का भविष्य अंधकार में है और उसकी वजह सिर्फ़ उसमें एका का न होना है। वे हथेली पर मुक्का पटकते कह रहे थे कि हज़ारों साल से हिन्दू दबता आ रहा है, तभी वह गुलाम बना हुआ है। कभी किसी का; कभी किसी का। सभी ने उस पर शासन किया। उसके तो ख़ून में ग़ुलामी रच-बस गई है। यकायक उन्होंने मुटि्ठयाँ भींचीं और कहा- अब उसे चेत जाना चाहिए और अब भी नहीं चेता तो उसका अस्तित्व खत्म हो जाएगा
मैंने ग़ौर किया, नवयुवकों पर गौरी बाबू के कहने का असर हुआ। नवयुवकों की मुटि्ठयाँ भिंच रही थीं। चेहरे की मांसपेशियों में तनाव आ रहा था, तभी एक नवयुवक ने जिसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी और बाल बेतरतीब थे, कहा - ऐसा नहीं है बाबू जी! हिन्दू अब चेत गया है।
गौरी बाबू भड़के - अरे भाई, आपके लिए देश के टुकड़े स्वीकार किये कि चलो अब तो चैन से रहने दो, लेकिन नहीं
मैं चुप था। ऐसे मौके पर बोलना निरर्थक था क्योंकि लोग जड़ता और जुनून पर उतर आए थे।
सहसा एक नवयुवक संध से झाँकते-झाँकते बदहवास-सा ज़ोरों से चीख पड़ा - कोई है बुरके में! इधर ही आ रहा है, वो देखो
सब दहल गए और सावधान हो गए। जवान लड़कियों और महिलाओं में आतंक कुछ ज़्यादा ही तारी था।
मैं संध से जा लगा। इस बीच कुछ नवयुवक दरवाज़े पर जा खड़े हुए और कुछ दबे पाँव छत पर निकल गए।
अचानक कुत्तों का भौंकना शुरू हुआ तो तेज़ से तेज़तर होता गया। ऐसा लगता था कि कोई है जो कुत्तों को ईंट-पत्थर दिखाकर बार-बार डरा रहा है। मगर कुत्ते हैं कि डरते नहीं। वे और भी ज़ोरों से भौंकने लगते हैं। भौंकने की यह आवाज़ दरवाज़े पर आती लगी फिर दूर, काफ़ी दूर होती गई।
घण्टे भर बाद नवयुवक छत से उतर आए।
कौवे बोले। लगा सवेरा हो गया। पर्दा हटाया तो शीशे पर मटमैला उजाला चिपका था। खिड़की खोली तो सड़क पर दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आया। दूर, पेड़ों की चोटियों के पीछे, धुआँ ही धुआँ उठ रहा था। गोलियों और दूर से चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं। आज की हालत कल से ज़्यादा बिगड़ी लग रही थी।
मैं बाहर निकला। नुक्कड़ के जोशी साहब दिखे। वे अकेले थे। पीछे, किसी के यहाँ उन्होंने रात में शरण ली थी। मुझे देखते ही पास आए, फुसफुसाए- सिटी की हालत बहुत ख़राब है। भयंकर मार-काट मची है। कोई किसी को बचाने वाला नहीं है। पुलिस दिखती नहीं। बलबाइयों का हौसला इतना बुलंद है कि मत पूछिए। घर-घर आग लगा रहे हैं और लूट मचाए हैं। लड़कियों-औरतों की आबरू लूट रहे हैं। लोग मंदिर और मसजिदों की ओर भाग रहे हैं। लेकिन वहाँ भी खतरा कम नहीं। हे भगवान! उन्होंने गहरी साँस भरी और रुआँसे हो आए। उनका इकलौटा बेटा परसों रात में सिटी गया था फिर लौटा नहीं।
मैंने सांत्वना के लहजे में कहा कि उसे कुछ नहीं होगा। आप निश्चिंत रहें, वह आ जाएगा। किसी दोस्त के यहाँ रुक गया होगा।
उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और ज़ोरों से रो पड़े। यकायक उन्होंने आँसू पोंछे और लड़खड़ाते हुए चलते बने।
मैं घर में दाखिल हुआ। लोग अपने-अपने घर जाने के लिए बिस्तर समेट रहे थे। एक-दो घण्टे बाद जब मैं छत पर था, गौरी बाबू चौराहे पर नीम के पेड़ के नीचे थे। उनके पास ही वे नवयुवक थे जिन्होंने कल रात मेरे घर में शरण ली थी। गौरी बाबू कल की तरह गु़स्से में दिख रहे थे और हथेली पर मुक्के मारते जा रहे थे। वे काफ़ी देर तक इसी मुद्रा में रहे कि एक नवयुवक ज़ोरों से चीख़ा जैसे कह रहा हो कि बहुत जुल्म हो गया, अब बरदाश्त नहीं करेंगे। उसने हवा में मुटि्ठयाँ लहराईं और ज़मीन पर, ज़ोरों से पैर पटके। उसका ऐसा करना था कि सारे नवयुवकों ने उसका अनुसरण किया।
यकायक गौरी बाबू धोती का लांग छोड़कर ज़ोरों से चीख़े कि सारे नवयुवक हाथ लहराकर चीख पड़े।
सहसा नवयुवकों का यह दल चीखता-आवाज़ बुलंद करता एक दिशा में दौड़ा। गौरी बाबू उनके आगे-आगे धोती, का लांग पकड़े दौड़ते जा रहे थे। उनका नेतृत्व-सा करते। मैं डरा, ये लोग कुछ अनर्थ करेंगे। भय से काँपता हुआ मैं नीचे उतरा। थोड़ी देर बाद, पता लगा, गौरी बाबू ने मुहल्ले के तकरीबन सौ-डेढ़ सौ नवयुवकों की फौज़ इकट्ठा कर ली। नवयुवकों के हाथों में घातक हथियार थे जिन्हें मज़बूती से पकड़े वे गौरी बाबू के सामने सिपाहियों की मुद्रा में अटेंशन खड़े थे।
गौरी बाबू गंभीर मुद्रा में थे जैसे कोई योजना बना रहे हों। यकायक वे मुस्कराए जैसे योजना को दिमाग़ में बना लिया हो। फिर तेज़ी से नवयुवकों को अपने पीछे आने का इशारा किया और आगे बढ़े।
नवयुवक उनके पीछे फुर्ती से बढ़े।
मुझे यक़ीन हो गया कि गड़बड़ होने में देर नहीं। साँस रोके मैं ख़तरे का इंतज़ार करने लगा।
लेकिन ख़तरा दूर-दूर तक नहीं दिख रहा था। इसके उलट गौरी बाबू ने मुहल्ले में नई व्यवस्था अंजाम दे दी थी। उन्होंने बहुत ही सूझ से मुहल्ले की मज़बूत घेराबंदी कर दी और जगह-जगह मुस्तैद नवयुवकों को तैनात कर दिया था। काँधे पर बंदूक, बल्लम, फरसा रखे नवयुवक सिपाहियों की तरह चौकस थे। गौरी बाबू सेनापति की तरह अपने सिपाहियों पर निगाह रखे मुहल्ले की जनता को निशख़ातिर करते घूम रहे थे।
मैं आश्चर्यचकित था।
मेरे आश्चर्य का ठिकाना तब और न रहा जब तकरीबन पूरा शहर ख़ून-ख़राबे और आगजनी से तबाह था, हमारे मुहल्ले में ऐसा कुछ न था!
- यह गौरी बाबू का कमाल है, नहीं, पूरा मुहल्ला गर्क़ हो जाता-मुहल्ले के सभी लोगों की जुबान पर यह जुमला था। लेकिन गौरी थे कि इसके प्रतिवाद में कहते-मेरा तो यह फ़र्ज था जो मैंने पूरा किया और किए आ रहा हूँ। पूरा मुहल्ला और उसके रहवासी परिवार की तरह हैं, उनकी सुरक्षा-व्यवस्था, उनकी अपनी सुरक्षा-व्यवस्था है।
हाथ में गुप्ती लिए और गले में सीटी लटकाए, गौरी बाबू जगह-जगह लोगों से कहते-अव्वल तो मुहल्ले में परिंदा पर नहीं मार सकता। मान लो, भगवान न करे कुछ हुआ तो सबसे पहले मेरी जान जाएगी। इसीलिए ख़तरे को सपना मानों और खर्राटे लो।
चार दिन गुज़र गए जब किसी तरह का ख़तरा नहीं दिखा तो लोग सचमुच खर्राटे लेने लगे। मैं भी खर्राटे लेने लगा हालांकि आशंका से कइयों बार नींद टूटती।
उस रात जब हॉल में सब सो रहे थे, गौरी बाबू संध के पास बैठे काफ़ी बेचैन नज़र आ रहे थे। कई दिनों के बाद आज रात में वे यहाँ थे। अस्फुट-सा बुदबुदाते वे हॉल में चक्कर-सा लगा रहे थे। यह बेचैनी कुछ ऐसी थी जैसे कि किसी काम के होने का वे बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हों और काम हो न रहा हो।
आँख बंद किए मैं लेटा था और बीच-बीच में उन्हें देख लेता था। वे बेचैन क्यों थे? यह बात समझ में नहीं आ रही थी।
इसका राज़ तब खुला जब आधी रात को पीछे, चौराहे की तरफ़, रोज़गार दफ़्तर के पास, ज़ोरों का हल्ला मचा।
मैं ऊपर छत की ओर भागा। चौराहे पर एक मकान में भीषण आग लगी थी और चीत्कार-सा मचा था। आग और चीत्कार इतने भयंकर थे कि मैं काँप गया।
यकायक लगा कि पीछे की गली से दो-चार लोग दबी-घुटी आवाज़ में रोते-सिसकते, दौड़ते हुए निकले। मैंने झाँककर देखा, काली छायाओं के सिवा कुछ नहीं दिखा।
पलभर के बाद ही सैकड़ों लोग हाथों में जलती मशाल पकड़े तलवार, फरसे लहराते ‘पकड़ो, भागने न पाए' का शोर बुलंद करते पास की सड़क से तेज़ी से गुज़रे।
मैंने ग़ौर किया-ये वही अपने मुहल्ले के नवयुवक थे। बात की तह में जाता कि नवयुवकों का यह जत्था तेज़ी से लौटा किसी को खोजता हुआ-सा, फिर जलते मकान की ओर शोर करता लपका।
माजरा समझ में आया। मुस्लिम परिवारों को ये लोग चुन-चुनकर ख़त्म करना चाहते हैं। मन हुआ कि गौरी बाबू को फाड़ कर रख दूँ कि यह जत्था तेज़ी से फिर लौटा। और चौराहे पर आकर खड़ा हो गया। इनमें से कुछ नवयुवक ज़ोर-ज़ोर से बोल रहे थे। इनकी बातों से ऐसा लग रहा था जैसे एक-दूसरे पर बिगड़ रहे हों। किसी बात के लिए एक-दूसरे को दोषी ठहरा रहे हों।
यकायक इनमें से एक नवयुवक जिसे मैंने पहली बार देखा था जिसके सिर के बाल और दाढ़ी मूँछ बेतरतीबी से बढ़े हुए थे, ज़ोरों से चीख़ा। सबको चुप करने के लिए उसने ऐसा किया। उसकी आँखें, चेहरा और माथे पर लगा बड़ा-सा तिलक मशाल की रोशनी में चमक रहे थे। उनसे गु़स्से में सिर झटका और तलवार लहराकर सबके सामने तनकर खड़ा हो गया। बोला-तुम लोगों की चूतियापंती से वह कटा और वह चू भागी
सारे युवक शांत खड़े थे और वह नवयुवक ज़ोरों से चीखे़ जा रहा था।
यकायक उसने सबको जलती आँखों से देखा और दाँत पीसते, ज़ोरों से दहाड़ते हुए, हाथ लहराकर सबको अपने पीछे आने को कहा, जैसे उसका कहा न करने पर वह सबको जिबह कर देगा।
वह कैसी भूखे शेर की तरह आगे बढ़ा और सारे नवयुवक उसके पीछे ऐसे चले जैसे कोई शिकार हाथ से छूट गया हो और अब उसकी सज़ा उन्हें मिलने वाली हो। अचानक गुस्सैल नवयुवक ने आगे बढ़कर मेरे दरवाज़े को तलवार से खटखटाया। हलक में कलेजा लिए मैं नीचे उतरा और दरवाज़ा खोला।
नवयुवक जल्लाद की तरह मेरे सामने झूम-सा रहा था जैसे नशे में हो। मुझे ज़ोरों से धकियाते हुए वह तेज़ी से घर में घुसा और जलती आँखों से घूरता हुआ-सा मानों किसी को खोज रहा हो, बिजली की गति से घर का कोना-कोना झाँक आया। आखि़र में वह उस हॉल की ओर बढ़ा जहाँ गौरी बाबू और महिलाएँ-लड़कियाँ और बच्चे थे। मैंने सोचा था कि गौरी बाबू को देखकर वह झिझकेगा और तुरंत घुटने छूकर लौट जायेगा। लेकिन वह तो जैसे गौरी बाबू को पहचानता ही न था। उसने गौरी बाबू को ऐसे धकेल कर अलग कर दिया जैसे कोई कुत्ता हों। यही नहीं, वह सबके साथ ऐसा ही सलूक कर रहा था। जब उसे इच्छित नहीं मिला, तो वह भड़क-सा उठा और मेरे सामने तनकर खड़ा हो गया। मेरे मुँह पर थूक-पान का फुहारा-सा छोड़ता, वह जलती आँखों बोला-किसी को छिपाया हो, बता दे, नहीं तो अंजाम बुरा होगा।
मैंने गौरी बाबू की ओर देखा तो उसने एक करारा थप्पड़ मेरे मुँह पर दे मारा-उस बहन के लं की तरफ क्या देख रहा है, इधर देख और जवाब दे, नहीं
उसने दूसरा उल्टा हाथ बढ़ाया दाँत पीसकर कि मैंने हाथ जोड़कर किसी को छिपाने से पूरे खुलूस से इनकार किया। इस पर वह झल्ला गया। छत की ओर मुँह करके उसने उभरी नसोंवाले गले से, पता नहीं किसे बहन की गाली दी। अपनी बाल भरी खुली छाती पर कई मुक्के बरसाए और अचानक शांत खड़े होकर नवयुवकों को जो उसके इर्द-गिर्द थे, कहीं और चलने का हुक्म दिया।
नवयुवकों के साथ जैसे ही वह बाहर निकलने को हुआ इस बीच एक घटना घट गई। मेरी एक साल की बच्ची को जो शायद मुझे थप्पड़ मारे जाने की वजह से ज़ोरों से रोने लगी थी और चुप कराने के बाद चुप नहीं हो रही थी, पड़ोस की एक महिला ने फुसफुसाकर “सोफि़या चुप हो जा” कहकर अपनी गोद में लिया कि जल्लाद नवयुवक के कान खड़े हुए और वह मुस्तैदी से पलटा। उसे कुछ समझ में आया। भद्दी गालियां देते हुए उसने सिर झटका और उझककर मेरे सिर के बाल मुटि्ठयों में भरे और चीख़ा-कहते हो, कोई नहीं है! ये सोफि़या कौन है? तेरी चू ?
अपने को असहाय पाकर मैंने गौरी बाबू की ओर देखा, इस आशा से कि शायद वे हस्तक्षेप करें और जल्लाद मुझे बख्श दे।
मेरे साथ होने वाले बदसलूक की वजह से गौरी बाबू का चेहरा यकायक तमतमा उठा और मुटि्ठयाँ भिंच गईं गोया वे उस जल्लाद से भिड़नेवाले हों।
लेकिन मेरा दुर्भाग्य गौरी बाबू यकायक शांत पड़ गए। और पता नहीं क्या सोचकर सिर हिलाते हुए पीछे हट गये। जैसे कह रहे हों कि तुम्हें तुम्हारी सज़ा मिलनी ही चाहिए! और मुसलमानों का पक्ष लो!!
इसके बाद भी मैं निराश न था। मैंने हकलाते हुए नवयुवक से कहा-ये ये मे मेरी बेटी है! मेरी! मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू! मैंने किसी को नहीं छिपाया इसका नाम ही बस उसने जवाब में उचककर एक खड़ी लात मेरे सीने में दे मारी और सरपट हॉल की ओर बढ़ा।
चारों तरफ़ खूनी नज़र डालते, दाँत पीसते हुए नवयुवक ने कहा-सोफि़या मेरे पास आए और उसकी माँ भी।
सब पर मौत का साया डोल रहा था। जब कोई नहीं बोला तो होंठ काटता वह आगे बढ़ा। उसने मेरी पत्नी की-जो अचानक चीख़ पड़ी थी और आँसुओं की धार ठोड़ी से टपटपा रही थी, कलाई पकड़ी और उसे अपनी तरफ़ खींचा। मज़बूत पकड़ की वजह से कलाई की कुछ चूडि़याँ टूटकर फ़र्श पर फैल गईं, कुछ पत्नी की कलाई में चुभ गईं जिनसे लहू की धार बह निकली।
अचानक ही उसने पत्नी के सीने की ओर हाथ लहराया और इस क़दर ब्लाउज़ पकड़कर खींचा कि ब्लाउज नुचकर उसके हाथ में आ गया। पत्नी चीखती कि उस नवयुवक ने सोफि़या को किसी चील की तरह झपटकर उसके हाथ से छीना।
पत्नी बेहोश होकर गिर पड़ी।
मैं चीख़ता-चिल्लाता दौड़ा और बेटी को अपने दायरे में छिपाने लगा। यह सोचकर कि वार जो भी पड़े, मुझ पर पड़े।
लेकिन इसके पहले ही मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया।
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नाम में क्या रखा है
हरि भटनागर
घर के बड़े हॉल में हम लोग इकट्ठा हो गए थे और खिड़कियों की संधों से हालात का जायज़ा ले रहे थे।
वे बहुत बुरे दिन थे। मंदिर-मस्जिद झगड़े को लेकर दंगे की ख़बरें थीं। दूसरे शहरों में मार-काट-आगजनी की ख़बरें इक्का-दुक्का, किसी तरह आए अख़बारों से मिल जातीं। इससे इतनी दहशत न होती जितनी रह-रह के शहर में हो रहे हल्लों-धुओं और पटाखों की तरह चलती गोलियों की आवाज़ों से होती। हम लोग सहम जाते, चेहरों का रंग सफ़ेद काग़ज़-सा हो जाता।
पहले दिन जब पता चला कि बाबरी मसजिद ढहा दी गई, उस दिन हमारे शहर में अमन-चैन था। किसी तरह की न फुसफुस थी और न कोई वारदात। सब पुराने ढर्रे पर चल रहा था। सारे घपले दूसरे दिन शुरू हुए जब घरों में अखबार डाले गये। मैं तड़के दूध लेकर आया और जैसे ही अख़बार खोला और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकला, हवा में फ़क़र् नज़र आ रहा था। एक आदमी जो शायद कुंजड़ा था, बोरे को काँख में दबाए, ढीले पंचे को संभालता बदहवास-सा गली से गुज़रा। मैंने देखा, उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। डर से उसके होंठ सूखे-पपड़ाए थे। आँखें फटी-फटी थीं। आगे बढ़कर मैंने उससे पूछा-क्यों मियां, क्या हुआ? वह हैरान हो उठा। तनिक ठिठका और अस्फुट-सा बुदबुदाता भाग खड़ा हुआ जिसका यही मतलब था कि शहर में ख़ूनी वारदात शुरू हो गई है। मुझे काटो तो खून नहीं। बेजान-सा घर में दाखि़ल हुआ। पत्नी ने मुझे देखा और हैरान-परेशान हो उठी। उसने बच्ची को खिलाना छोड़ दिया और सामने आ खड़ी हुई। वह कुछ पूछती कि बाहर तीन-चार लोग पैदल और स्कूटरों पर चीखते-चिल्लाते गुज़रे। आसपास के घरों के दरवाज़े खुले और ज़ोरों से बंद हुए-पत्नी को कुछ बताना नहीं पड़ा। वह सकते में आ गई।
फिर थोड़ी देर बाद तो चारों तरफ़ धुएँ के पहाड़ ही पहाड़ दिख रहे थे। शोर उठ रहा था। गोलियाँ चल रही थीं।
घर का दरवाज़ा अच्छी तरह लगाकर मैं ऊपर छत पर आ गया। आस-पास के घरों के लोग खिड़कियों से झाँक रहे थे, कुछ छतों पर थे। सभी खौफ़ज़दा थे। अकेला और असुरक्षित महसूस कर रहे थे।
सवेरा, दोपहर और शाम के एक-एक पल बहुत ही मुश्किल से बीते। लोग दिख रहे थे, शायद इसीलिए दहशत उतनी न थी जितनी अँधेरा घिरते हुई। घर घर की तरह नहीं लग रहे थे। उनमें जैसे कोई रहता ही न हो। बच्चों का शोर तक घुट गया था। मैंने पत्नी पर निगाह डाली। हमेशा सजी-सँवरी और मुस्कुराने वाली पत्नी इस वक़्त बर्फ़ की तरह ठण्डी और धूसर लग रही थी। उसके बदन और सजीली बोलती आँखों की चमक गायब हो गई थी। इसकी छाया बच्ची पर भी थी। वह गुमसुम थी। पत्नी ने काँपते हुए मेरा हाथ पकड़ा-यहाँ से निकल चलिए, मुझे तो डर लग रहा है!
- कहाँ चलूँ? - उसकी आँखों में काँपते भय को देखते हुए मैंने कहा-अब तो निकलने का कोई रास्ता भी नज़र नहीं आ रहा है!
पत्नी क्षणभर को चुप रही, फ़र्श को निहारती रही, फिर बोली-गौरी बाबू के यहाँ चलते हैं; यहाँ अकेले तो मेरे प्राण निकल जाएँगे।
- गौरी बाबू! गौरी बाबू के यहाँ!!
गौरी बाबू ऐसे व्यक्ति थे जिनसे मेरी पटती नहीं थी। वे ऐसे विचारों के थे जो यह मानते थे कि हिन्दुस्तान में हिन्दू के अलावा किसी दूसरी क़ौम को रहने का हक़ नहीं। इस बात को अंजाम देने के लिए वे कुछ भी करने को उत्साहित दिखते। उन्हीं के विचारों से जुड़े व्यक्ति ही ज़्यादातर उनसे मिलते-जुलते और देर रात तक उनके यहाँ डटे रहते।
गौरी बाबू एक छोटा-मोटा अखबार निकालते थे जिसमें एक-आध ख़बर के अलावा विज्ञापन ही विज्ञापन छपते थे। वे अधेड़ उमर थे। दाँत उनके तम्बाकू या किसी रोग से घिस गए थे और काले-पीले टुकड़ों की तरह आड़े-तिरछे फँसे थे। लोग उन्हें भैया जी कहते थे और घुटने छूते थे। जब वे बोलते तो उनके मुँह से झागदार लुआब निकलता जो सामनेवाले के मुँह पर गिरता या उन्हीं के होंठों के कोरों पर जमता जाता।
गौरी बाबू के विचारों से मैंने हमेशा असहमति जताई। इसीलिए अंदर ही अंदर वे न मुझे प्यार करते और न मैं उन्हें। लेकिन ज़ाहिरा तौर पर एक दूसरे का आदर करते थे और ओट होते ही थुड़ी बोलते थे।
गौरी बाबू के नाम पर मैंने मुँह बिचकाया।
पत्नी ने कहा-ऐसे मौक़े पर अब मुँह मत बनाओ। जान प्यारी है कि नहीं!
- तो क्या उनके यहाँ जाने से बच जाएगी।
- बच तो नहीं जाएगी मगर अकेले से तो दुकेले भले कि नहीं!
पत्नी की बात पर मैंने सिर हिलाया। ‘कुछ करते हैं'-कहता मैं कमरे में चक्कर लगाने लगा। यकायक छोटे-छोटे डग रखता दालान में पहुँचा और आँगन पार करता हुआ सीढि़याँ चढ़ने लगा। कुछ ही क्षण में मैं छत पर था। पूरा मुहल्ला अंधेरे में डूबा था। सड़क की लाइट तक नहीं जल रही थी। जैसे लाइन काट दी गई हो। दूर कहीं पर कुत्ते रो रहे थे। जहाँ तक निगाह जाती पेड़ों की छायाओं का गाढ़ा अंधेरा फैला था जबकि आसमान में हल्के उजाले के बीच तारे काँप-से रहे थे मानो चारों तरफ़ चलती गोलियाँ, आगजनी और खून-ख़राबे से भयाक्रांत हों। पास ही कहीं चमगादड़ चिचिया रहे थे।
लोगों के खाँसने और बीड़ी-सिगरेट की चिनगियों से लगा कि लोग अपनी-अपनी छतों पर हैं और हालात का जायज़ा ले रहे हैं।
यकायक कोई, दूर की छत से, दहाड़ा। उसका दहाड़ना था कि आस-पास की छतों से लोग दहाड़ उठे। मेरा भी मन हुआ कि दहाडूँ लेकिन ज़बान तालू से चिपटी थी। पुराने शहर की तरह इस मुहल्ले के मकान एक-दूसरे से सटे हुए नहीं थे। आठ-दस मकान ही ऐसे होंगे। बाक़ी सभी फ़ासले पर थे। बीच में चारदीवारी और पेड़-पौधे। गौरी बाबू को मैंने बेमन से आवाज़ दी। गौरी बाबू जैसे मेरी आवाज़ का इंतज़ार कर रहे थे। उन्होंने झट से खिड़की खोली और मुझे पुकारा। यकायक जैसे उन्होंने मुझे छत पर देख लिया हो, खिड़की बंद की और थोड़ी देर में वे अपनी छत पर थे।
हम गौरी बाबू के यहाँ नहीं गए बल्कि गौरी बाबू अपनी बूढ़ी माँ के साथ हमारे घर आ गए। थोड़ी देर बाद तो गौरी बाबू के आने की भनक लगते ही पड़ोस के आठ दस परिवार-आदमी, औरतें, जवान लड़कियों-लड़कों और बच्चों का अच्छा खासा झुण्ड हमारे घर में था। पत्नी और मेरे चेहरे पर भय की वह काली छाया अब पहले जैसे नहीं रही थी। सुरक्षा के ढेर सारे सामान-पत्थर, चैले और लोगों की फड़कती भुजाओं ने हमारे डर को कम तो कर दिया था लेकिन किसी भी हादसे की आशंका से हम अपने को बचा नहीं पा रहे थे। कहीं से शोर उठता, बाग़ीचे में अमरूद गिरता या कोई पक्षी फड़फड़ा उठता या कुत्ता भौंक उठता तो हमारे प्राण नहों में समा जाते।
हॉल में जीरो वॉट का नीला बल्ब जल रहा था जिसमें सब लोग चाँदनी रात में डूबे-से लग रहे थे। किसी महिला की नाक की कील या चूड़ी या अंगूठी रह-रहकर चमकती कि लगता जुगनू हो। फ़र्श पर एक तरफ़ जवान लड़कियाँ-महिलाएँ और बच्चे थे और दूसरी तरफ़ मर्द। बीच की जगह ख़ाली थी जहाँ चप्पलों का ढेर था। मैं खिड़की के पास कुर्सी डाले बैठा था। दूसरी खिड़की पर गौरी बाबू थे जिनके गिर्द आठ-दस नवयुवक थे जो चौकन्ने थे और किसी भी आफ़त से टकराने के लिए तैयार।
गौरी बाबू ग़ुस्से में दिख रहे थे। उनका चेहरा सख़्त था और माथा सिकुड़ा हुआ। वे इस बात से नाराज़ थे कि हिन्दू का भविष्य अंधकार में है और उसकी वजह सिर्फ़ उसमें एका का न होना है। वे हथेली पर मुक्का पटकते कह रहे थे कि हज़ारों साल से हिन्दू दबता आ रहा है, तभी वह गुलाम बना हुआ है। कभी किसी का; कभी किसी का। सभी ने उस पर शासन किया। उसके तो ख़ून में ग़ुलामी रच-बस गई है। यकायक उन्होंने मुटि्ठयाँ भींचीं और कहा- अब उसे चेत जाना चाहिए और अब भी नहीं चेता तो उसका अस्तित्व खत्म हो जाएगा
मैंने ग़ौर किया, नवयुवकों पर गौरी बाबू के कहने का असर हुआ। नवयुवकों की मुटि्ठयाँ भिंच रही थीं। चेहरे की मांसपेशियों में तनाव आ रहा था, तभी एक नवयुवक ने जिसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी और बाल बेतरतीब थे, कहा - ऐसा नहीं है बाबू जी! हिन्दू अब चेत गया है।
गौरी बाबू भड़के - अरे भाई, आपके लिए देश के टुकड़े स्वीकार किये कि चलो अब तो चैन से रहने दो, लेकिन नहीं
मैं चुप था। ऐसे मौके पर बोलना निरर्थक था क्योंकि लोग जड़ता और जुनून पर उतर आए थे।
सहसा एक नवयुवक संध से झाँकते-झाँकते बदहवास-सा ज़ोरों से चीख पड़ा - कोई है बुरके में! इधर ही आ रहा है, वो देखो
सब दहल गए और सावधान हो गए। जवान लड़कियों और महिलाओं में आतंक कुछ ज़्यादा ही तारी था।
मैं संध से जा लगा। इस बीच कुछ नवयुवक दरवाज़े पर जा खड़े हुए और कुछ दबे पाँव छत पर निकल गए।
अचानक कुत्तों का भौंकना शुरू हुआ तो तेज़ से तेज़तर होता गया। ऐसा लगता था कि कोई है जो कुत्तों को ईंट-पत्थर दिखाकर बार-बार डरा रहा है। मगर कुत्ते हैं कि डरते नहीं। वे और भी ज़ोरों से भौंकने लगते हैं। भौंकने की यह आवाज़ दरवाज़े पर आती लगी फिर दूर, काफ़ी दूर होती गई।
घण्टे भर बाद नवयुवक छत से उतर आए।
कौवे बोले। लगा सवेरा हो गया। पर्दा हटाया तो शीशे पर मटमैला उजाला चिपका था। खिड़की खोली तो सड़क पर दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आया। दूर, पेड़ों की चोटियों के पीछे, धुआँ ही धुआँ उठ रहा था। गोलियों और दूर से चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं। आज की हालत कल से ज़्यादा बिगड़ी लग रही थी।
मैं बाहर निकला। नुक्कड़ के जोशी साहब दिखे। वे अकेले थे। पीछे, किसी के यहाँ उन्होंने रात में शरण ली थी। मुझे देखते ही पास आए, फुसफुसाए- सिटी की हालत बहुत ख़राब है। भयंकर मार-काट मची है। कोई किसी को बचाने वाला नहीं है। पुलिस दिखती नहीं। बलबाइयों का हौसला इतना बुलंद है कि मत पूछिए। घर-घर आग लगा रहे हैं और लूट मचाए हैं। लड़कियों-औरतों की आबरू लूट रहे हैं। लोग मंदिर और मसजिदों की ओर भाग रहे हैं। लेकिन वहाँ भी खतरा कम नहीं। हे भगवान! उन्होंने गहरी साँस भरी और रुआँसे हो आए। उनका इकलौटा बेटा परसों रात में सिटी गया था फिर लौटा नहीं।
मैंने सांत्वना के लहजे में कहा कि उसे कुछ नहीं होगा। आप निश्चिंत रहें, वह आ जाएगा। किसी दोस्त के यहाँ रुक गया होगा।
उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया और ज़ोरों से रो पड़े। यकायक उन्होंने आँसू पोंछे और लड़खड़ाते हुए चलते बने।
मैं घर में दाखिल हुआ। लोग अपने-अपने घर जाने के लिए बिस्तर समेट रहे थे। एक-दो घण्टे बाद जब मैं छत पर था, गौरी बाबू चौराहे पर नीम के पेड़ के नीचे थे। उनके पास ही वे नवयुवक थे जिन्होंने कल रात मेरे घर में शरण ली थी। गौरी बाबू कल की तरह गु़स्से में दिख रहे थे और हथेली पर मुक्के मारते जा रहे थे। वे काफ़ी देर तक इसी मुद्रा में रहे कि एक नवयुवक ज़ोरों से चीख़ा जैसे कह रहा हो कि बहुत जुल्म हो गया, अब बरदाश्त नहीं करेंगे। उसने हवा में मुटि्ठयाँ लहराईं और ज़मीन पर, ज़ोरों से पैर पटके। उसका ऐसा करना था कि सारे नवयुवकों ने उसका अनुसरण किया।
यकायक गौरी बाबू धोती का लांग छोड़कर ज़ोरों से चीख़े कि सारे नवयुवक हाथ लहराकर चीख पड़े।
सहसा नवयुवकों का यह दल चीखता-आवाज़ बुलंद करता एक दिशा में दौड़ा। गौरी बाबू उनके आगे-आगे धोती, का लांग पकड़े दौड़ते जा रहे थे। उनका नेतृत्व-सा करते। मैं डरा, ये लोग कुछ अनर्थ करेंगे। भय से काँपता हुआ मैं नीचे उतरा। थोड़ी देर बाद, पता लगा, गौरी बाबू ने मुहल्ले के तकरीबन सौ-डेढ़ सौ नवयुवकों की फौज़ इकट्ठा कर ली। नवयुवकों के हाथों में घातक हथियार थे जिन्हें मज़बूती से पकड़े वे गौरी बाबू के सामने सिपाहियों की मुद्रा में अटेंशन खड़े थे।
गौरी बाबू गंभीर मुद्रा में थे जैसे कोई योजना बना रहे हों। यकायक वे मुस्कराए जैसे योजना को दिमाग़ में बना लिया हो। फिर तेज़ी से नवयुवकों को अपने पीछे आने का इशारा किया और आगे बढ़े।
नवयुवक उनके पीछे फुर्ती से बढ़े।
मुझे यक़ीन हो गया कि गड़बड़ होने में देर नहीं। साँस रोके मैं ख़तरे का इंतज़ार करने लगा।
लेकिन ख़तरा दूर-दूर तक नहीं दिख रहा था। इसके उलट गौरी बाबू ने मुहल्ले में नई व्यवस्था अंजाम दे दी थी। उन्होंने बहुत ही सूझ से मुहल्ले की मज़बूत घेराबंदी कर दी और जगह-जगह मुस्तैद नवयुवकों को तैनात कर दिया था। काँधे पर बंदूक, बल्लम, फरसा रखे नवयुवक सिपाहियों की तरह चौकस थे। गौरी बाबू सेनापति की तरह अपने सिपाहियों पर निगाह रखे मुहल्ले की जनता को निशख़ातिर करते घूम रहे थे।
मैं आश्चर्यचकित था।
मेरे आश्चर्य का ठिकाना तब और न रहा जब तकरीबन पूरा शहर ख़ून-ख़राबे और आगजनी से तबाह था, हमारे मुहल्ले में ऐसा कुछ न था!
- यह गौरी बाबू का कमाल है, नहीं, पूरा मुहल्ला गर्क़ हो जाता-मुहल्ले के सभी लोगों की जुबान पर यह जुमला था। लेकिन गौरी थे कि इसके प्रतिवाद में कहते-मेरा तो यह फ़र्ज था जो मैंने पूरा किया और किए आ रहा हूँ। पूरा मुहल्ला और उसके रहवासी परिवार की तरह हैं, उनकी सुरक्षा-व्यवस्था, उनकी अपनी सुरक्षा-व्यवस्था है।
हाथ में गुप्ती लिए और गले में सीटी लटकाए, गौरी बाबू जगह-जगह लोगों से कहते-अव्वल तो मुहल्ले में परिंदा पर नहीं मार सकता। मान लो, भगवान न करे कुछ हुआ तो सबसे पहले मेरी जान जाएगी। इसीलिए ख़तरे को सपना मानों और खर्राटे लो।
चार दिन गुज़र गए जब किसी तरह का ख़तरा नहीं दिखा तो लोग सचमुच खर्राटे लेने लगे। मैं भी खर्राटे लेने लगा हालांकि आशंका से कइयों बार नींद टूटती।
उस रात जब हॉल में सब सो रहे थे, गौरी बाबू संध के पास बैठे काफ़ी बेचैन नज़र आ रहे थे। कई दिनों के बाद आज रात में वे यहाँ थे। अस्फुट-सा बुदबुदाते वे हॉल में चक्कर-सा लगा रहे थे। यह बेचैनी कुछ ऐसी थी जैसे कि किसी काम के होने का वे बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हों और काम हो न रहा हो।
आँख बंद किए मैं लेटा था और बीच-बीच में उन्हें देख लेता था। वे बेचैन क्यों थे? यह बात समझ में नहीं आ रही थी।
इसका राज़ तब खुला जब आधी रात को पीछे, चौराहे की तरफ़, रोज़गार दफ़्तर के पास, ज़ोरों का हल्ला मचा।
मैं ऊपर छत की ओर भागा। चौराहे पर एक मकान में भीषण आग लगी थी और चीत्कार-सा मचा था। आग और चीत्कार इतने भयंकर थे कि मैं काँप गया।
यकायक लगा कि पीछे की गली से दो-चार लोग दबी-घुटी आवाज़ में रोते-सिसकते, दौड़ते हुए निकले। मैंने झाँककर देखा, काली छायाओं के सिवा कुछ नहीं दिखा।
पलभर के बाद ही सैकड़ों लोग हाथों में जलती मशाल पकड़े तलवार, फरसे लहराते ‘पकड़ो, भागने न पाए' का शोर बुलंद करते पास की सड़क से तेज़ी से गुज़रे।
मैंने ग़ौर किया-ये वही अपने मुहल्ले के नवयुवक थे। बात की तह में जाता कि नवयुवकों का यह जत्था तेज़ी से लौटा किसी को खोजता हुआ-सा, फिर जलते मकान की ओर शोर करता लपका।
माजरा समझ में आया। मुस्लिम परिवारों को ये लोग चुन-चुनकर ख़त्म करना चाहते हैं। मन हुआ कि गौरी बाबू को फाड़ कर रख दूँ कि यह जत्था तेज़ी से फिर लौटा। और चौराहे पर आकर खड़ा हो गया। इनमें से कुछ नवयुवक ज़ोर-ज़ोर से बोल रहे थे। इनकी बातों से ऐसा लग रहा था जैसे एक-दूसरे पर बिगड़ रहे हों। किसी बात के लिए एक-दूसरे को दोषी ठहरा रहे हों।
यकायक इनमें से एक नवयुवक जिसे मैंने पहली बार देखा था जिसके सिर के बाल और दाढ़ी मूँछ बेतरतीबी से बढ़े हुए थे, ज़ोरों से चीख़ा। सबको चुप करने के लिए उसने ऐसा किया। उसकी आँखें, चेहरा और माथे पर लगा बड़ा-सा तिलक मशाल की रोशनी में चमक रहे थे। उनसे गु़स्से में सिर झटका और तलवार लहराकर सबके सामने तनकर खड़ा हो गया। बोला-तुम लोगों की चूतियापंती से वह कटा और वह चू भागी
सारे युवक शांत खड़े थे और वह नवयुवक ज़ोरों से चीखे़ जा रहा था।
यकायक उसने सबको जलती आँखों से देखा और दाँत पीसते, ज़ोरों से दहाड़ते हुए, हाथ लहराकर सबको अपने पीछे आने को कहा, जैसे उसका कहा न करने पर वह सबको जिबह कर देगा।
वह कैसी भूखे शेर की तरह आगे बढ़ा और सारे नवयुवक उसके पीछे ऐसे चले जैसे कोई शिकार हाथ से छूट गया हो और अब उसकी सज़ा उन्हें मिलने वाली हो। अचानक गुस्सैल नवयुवक ने आगे बढ़कर मेरे दरवाज़े को तलवार से खटखटाया। हलक में कलेजा लिए मैं नीचे उतरा और दरवाज़ा खोला।
नवयुवक जल्लाद की तरह मेरे सामने झूम-सा रहा था जैसे नशे में हो। मुझे ज़ोरों से धकियाते हुए वह तेज़ी से घर में घुसा और जलती आँखों से घूरता हुआ-सा मानों किसी को खोज रहा हो, बिजली की गति से घर का कोना-कोना झाँक आया। आखि़र में वह उस हॉल की ओर बढ़ा जहाँ गौरी बाबू और महिलाएँ-लड़कियाँ और बच्चे थे। मैंने सोचा था कि गौरी बाबू को देखकर वह झिझकेगा और तुरंत घुटने छूकर लौट जायेगा। लेकिन वह तो जैसे गौरी बाबू को पहचानता ही न था। उसने गौरी बाबू को ऐसे धकेल कर अलग कर दिया जैसे कोई कुत्ता हों। यही नहीं, वह सबके साथ ऐसा ही सलूक कर रहा था। जब उसे इच्छित नहीं मिला, तो वह भड़क-सा उठा और मेरे सामने तनकर खड़ा हो गया। मेरे मुँह पर थूक-पान का फुहारा-सा छोड़ता, वह जलती आँखों बोला-किसी को छिपाया हो, बता दे, नहीं तो अंजाम बुरा होगा।
मैंने गौरी बाबू की ओर देखा तो उसने एक करारा थप्पड़ मेरे मुँह पर दे मारा-उस बहन के लं की तरफ क्या देख रहा है, इधर देख और जवाब दे, नहीं
उसने दूसरा उल्टा हाथ बढ़ाया दाँत पीसकर कि मैंने हाथ जोड़कर किसी को छिपाने से पूरे खुलूस से इनकार किया। इस पर वह झल्ला गया। छत की ओर मुँह करके उसने उभरी नसोंवाले गले से, पता नहीं किसे बहन की गाली दी। अपनी बाल भरी खुली छाती पर कई मुक्के बरसाए और अचानक शांत खड़े होकर नवयुवकों को जो उसके इर्द-गिर्द थे, कहीं और चलने का हुक्म दिया।
नवयुवकों के साथ जैसे ही वह बाहर निकलने को हुआ इस बीच एक घटना घट गई। मेरी एक साल की बच्ची को जो शायद मुझे थप्पड़ मारे जाने की वजह से ज़ोरों से रोने लगी थी और चुप कराने के बाद चुप नहीं हो रही थी, पड़ोस की एक महिला ने फुसफुसाकर “सोफि़या चुप हो जा” कहकर अपनी गोद में लिया कि जल्लाद नवयुवक के कान खड़े हुए और वह मुस्तैदी से पलटा। उसे कुछ समझ में आया। भद्दी गालियां देते हुए उसने सिर झटका और उझककर मेरे सिर के बाल मुटि्ठयों में भरे और चीख़ा-कहते हो, कोई नहीं है! ये सोफि़या कौन है? तेरी चू ?
अपने को असहाय पाकर मैंने गौरी बाबू की ओर देखा, इस आशा से कि शायद वे हस्तक्षेप करें और जल्लाद मुझे बख्श दे।
मेरे साथ होने वाले बदसलूक की वजह से गौरी बाबू का चेहरा यकायक तमतमा उठा और मुटि्ठयाँ भिंच गईं गोया वे उस जल्लाद से भिड़नेवाले हों।
लेकिन मेरा दुर्भाग्य गौरी बाबू यकायक शांत पड़ गए। और पता नहीं क्या सोचकर सिर हिलाते हुए पीछे हट गये। जैसे कह रहे हों कि तुम्हें तुम्हारी सज़ा मिलनी ही चाहिए! और मुसलमानों का पक्ष लो!!
इसके बाद भी मैं निराश न था। मैंने हकलाते हुए नवयुवक से कहा-ये ये मे मेरी बेटी है! मेरी! मैं हिन्दू हूँ, हिन्दू! मैंने किसी को नहीं छिपाया इसका नाम ही बस उसने जवाब में उचककर एक खड़ी लात मेरे सीने में दे मारी और सरपट हॉल की ओर बढ़ा।
चारों तरफ़ खूनी नज़र डालते, दाँत पीसते हुए नवयुवक ने कहा-सोफि़या मेरे पास आए और उसकी माँ भी।
सब पर मौत का साया डोल रहा था। जब कोई नहीं बोला तो होंठ काटता वह आगे बढ़ा। उसने मेरी पत्नी की-जो अचानक चीख़ पड़ी थी और आँसुओं की धार ठोड़ी से टपटपा रही थी, कलाई पकड़ी और उसे अपनी तरफ़ खींचा। मज़बूत पकड़ की वजह से कलाई की कुछ चूडि़याँ टूटकर फ़र्श पर फैल गईं, कुछ पत्नी की कलाई में चुभ गईं जिनसे लहू की धार बह निकली।
अचानक ही उसने पत्नी के सीने की ओर हाथ लहराया और इस क़दर ब्लाउज़ पकड़कर खींचा कि ब्लाउज नुचकर उसके हाथ में आ गया। पत्नी चीखती कि उस नवयुवक ने सोफि़या को किसी चील की तरह झपटकर उसके हाथ से छीना।
पत्नी बेहोश होकर गिर पड़ी।
मैं चीख़ता-चिल्लाता दौड़ा और बेटी को अपने दायरे में छिपाने लगा। यह सोचकर कि वार जो भी पड़े, मुझ पर पड़े।
लेकिन इसके पहले ही मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया।
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