उमेश गुप्ता का व्यंग्य : अफसर के रिटायरमेंट का दर्द

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अफसर के रिटायरमेंट के जैसा दूसरा दर्द दुनिया में कोई नहीं है। इस दर्द की तुलना उस मंत्री के गम से भी नहीं कर सकते हैं जो सत्‍ता में होते ...

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अफसर के रिटायरमेंट के जैसा दूसरा दर्द दुनिया में कोई नहीं है। इस दर्द की तुलना उस मंत्री के गम से भी नहीं कर सकते हैं जो सत्‍ता में होते हुए, सब सरकारी साजो-सामान के बावजूद भी चुनाव हार जाता है और ‘घर का न घाट का‘ की कहावत को चरितार्थ करता है। अगर इस दर्द का स्‍वाद लेना है तो किसी रिटायर्ड अफसर से उसका नाम पूछिये। वह सेवानिवृत्‍त अधिकारी बतायेगा और इस सेवानिवृत्त शब्‍द के साथ इतना दर्द उलट देगा कि आप इसके रिटायरमेंट के दुख से अवश्‍य परिचित हो जायेंगे।

रिटायरमेंट के नाम से ही अफसरों को बेहोशी आने लगती है। उनके सुकोमल पांवों में, जिन्‍होंने कभी धरती माता के कदम न चूमे हों, और सारी नौकरी जीप में बैठे-बैठे गुजार दी हो, कपकंपी छूट जाती है। सारी जिन्‍दगी वातानुकूल कमरे में गुजारने के बाद बाहर की भीषण गर्मी, कठोर ठंड , तेज बरसात की कल्‍पना करते ही उनके सुकोमल शरीर में सिरहन दौड़ जाती है। चपरासी द्वारा घर का काम करना, राशन लाना, मिट्‌टी के तेल की लाइन में लगना, गैस लाना, बिजली, पानी, टेलीफोन के बिल जमा करना, मेमसाहब के कपड़े व बर्तन साफ करना, बाबा को स्‍कूल छोड़ना , घर लाना आदि दुर्गम कार्यो के करने के दुःस्‍वप्‍न के नाम से भी नींद खराब हो जाती है।

रिटायरमेंट के बाद रुआब कम हो जाता है, मिलने वाले नमस्‍ते की संख्‍या कम हो जाती है। पहले जहां हाथ नमस्‍ते करने के कारण थक जाते थे, अब वही हाथ अपनी पुरानी आदतानुसार कदम-कदम पर नमस्‍ते न करने के कारण थक जाते हैं। मार्केट वैल्‍यू घटकर दस प्रतिशत रह जाती है। अगर अफसर समाजवादी, शिष्‍टाचारी, जमाने के साथ चलने वाला रहा है, तो समझ लो उसकी रिटायरमेंट के बाद बिलकुल भी पूछ नहीं होने वाली है। ऐसे अफसरों को रिटायरमेंट के बाद वे लोग ही सबसे ज्‍यादा दुख पहुंचाते हैं जो कभी उनके सामने जी हुजूरी करके अपना काम निकलवाते थे। वे लोग ही उसे सरे आम ‘बहुत बड़ा घूसखोर‘ का सर्टिफिकेट देने से नहीं चूकते हैं, भले ही वह असर स्‍विस बैंक धारियों की तरह बहुत बड़ा न हो, लेकिन फिर भी उसे बढ़ाचढ़ाकर बताना ये लोग अपना परम धर्म समझते हैं। उनकी महिमा में ये लोग एक से बढ़कर एक श्‍लोक मंडित करते हैं। ये लोग कहते हैं कि ‘बहुत अड़ियल साहब है, बिना लिये दिये कलम ही नहीं उठाता था, पहले पैसे की बात करता था, बाद में काम करता था।‘ अगर वह रिटायरमेंट के बाद आराम करता है तो लोग कहेंगे कि खूब कमाया है, अब बुढ़ापे में ऐश नहीं करेगा, तो क्‍या करेगा। अगर वह प्रतिभा का सदुपयोग करके कुछ काम करेगा, तो लोग कहेंगे कि ‘नौकरी में तो खूब कमाया, क्‍या उससे भी पेट नहीं भरा, अब क्‍या ताजमहल बनाने का विचार है, जो आराम के समय काम कर रहा है।‘ इस प्रकार के तीखे , जहरीले व्‍यंग्‍य बाणों से कदम-कदम पर रिटायरमेंट के बाद भेदा जाता है।

रिटायरमेंट के बाद एक से बढ़कर एक गिरगिटान की तरह रंग बदलते लोगों का सामना करना पड़ता है । रिटायरमेंट के पहले ऐंठू गैस वाला, अकड़ू राशन वाला, घर सामान भिजवा दिया करता था। धोबी बिना चाय पिलाये जाने नहीं देता था। दर्जी ठंडा -गरम पूछे बिना आने नहीं देता था। नाऊ भरी दुकान साहब के नाम से छोड़कर घर चला आता था। सब रिटायरमेंट के बाद अपना-अपना असली रूप दिखाने लग जाते हैं। अफसरी की बची-खुची सारी हवा तो उस समय निकल जाती है, जब सामने से मुंह दबाता आता पुराना चपरासी नमस्‍ते करना तो दूर एक नजर देखना भी गंवारा नहीं समझता है और पीछे से आने वाले चपरासी से कहता है ‘जरा संभल कर जाना, पुराने साहब आ रहे हैं, सठिया गये हैं, कहीं कोई काम वगैरह न बता दें‘ इस प्रकार अधीनस्‍थ कर्मचारी तो उन्‍हें पहचानने से इन्‍कार कर देते हैं। साथ ही साथ उनकी जगह आया नया अफसर भी उन्‍हें कुछ नहीं समझता हैं वह उनके साथ वैसे ही रूखा-सूखा व्‍यवहार करता है, जैसा पहले कभी वे आम जनता से किया करते थे। उन्‍हें भी उस आफिस में काम करवाने में उतनी ही दिक्‍कत का सामना करना पड़ता है, जितना पहले कभी उनके जमाने में दूसरों को करना पड़ता था।

रिटायरमेंट के बाद समाज में पूछ तो कम हो ही जाती है साथ ही घर पर बेशुमार निमंत्रण कार्ड, आमंत्रण पत्र , डायरियां , कलेंडर भी आना बंद हो जाते है। डिनर और पार्टियां सपनों की बात हो जाती है। घर पर काम करवाने वालों का मेला लगना बंद हो जाता है। रोज-रोज बनने वाले नये-नये रिश्‍तेदारों का मिलना भी बंद हो जाता है। पहले जरा सा काम निकलवाने सात पीढ़ियों की रिश्‍तेदारी निकल जाना आम बात थी। अब साहबी जाने के बाद जब सगे संबंधी ही आंखें फेर लेते हैं, तब इन झूठे काम निकलवाऊ रिश्‍तेदारों की बात करना बेकार हैं।

रिटायरमेंट के बाद जब-तब घन जैसे आघात वृद्ध काया पर पड़ते रहते हैं। आमदनी कम, पेंशन से जब घर का गुजारा चलाना पड़ता है तब मेज के नीचे से आने वाले ‘पुत्रम पुष्‍पम‘ की याद आती है। तब समझ में आता है कि ऊपरी कमाई से कितने आराम से घर चल जाता था, गेंहूं, दाल, चावल के दामों का तो कुछ पता ही नहीं चलता था, पानी बिजली, फोन के बिल तो ऐसे ही जमा हो जाया करते थे। रिटायरमेंट के बाद ही सही तरीके से महंगाई की आग और ‘सरकारी टैक्‍सों के कोहरे‘ का पता चलता है। घर जो सरकारी साजो-सामान, रंग-रोगन, चपरासी , जीप से मोहल्‍ले के सौरमंडल में उपग्रहों के बीच ‘ग्रह‘नजर आता था। रिटायरमेंट के बाद उसका प्रकाश भी धुंधला जाता है। दो-चार दीवाली से साफ -सफाई न होने के कारण अलग से सेवानिवृत्‍त मालिक की तस्‍वीर पेश करता है। रिटायरमेंट के बाद के हादसों के झेलने के बाद सारी अफसरी गुल हो जाती है। उसके बाद हाथ में छड़ी लेकर सुबह मार्निंग वाक करने के सिवाय कुछ करने का मन नहीं रह जाता है। पुराने किस्‍से कारनामे सब भूल जाते हैं, सिर्फ भर्ती कैसे हुए, रिटायर कब हो गये ही याद रहता है। इस बीच उन्‍होंने कितने कमजोरों को दबाया, लाचारों को परेशान किया, मजदूरों को लूटा, गरीबों को सताया , गुनहगारों को आश्रय दिया, बेगुनाहों को सजा दी, चोरों को छोड़ा, साहूकारों की चौकसी की, ताकतवरों का साथ दिया, ईमानदारों को परेशान किया , बेईमानों को आशीर्वाद दिया, भ्रष्‍टाचार को पनाह दी, भाई-भतीजावाद को बढावा दिया, लालफीताशाही को संरक्षण दिया, चमचागिरी को फलने-फूलने दिया, अधीनस्‍थ को गुलाम समझा, चपरासी को पैरों की जूती, बाबू को कोल्‍हू का बैल, ड्राइवर को घर का नौकर समझा, अफसरशाही की अमर बेल कायम की आदि कुछ भी बिलकुल याद नहीं रहता है। वे याद करते हुए पश्‍चाताप करना भी चाहते है, तब भी उन्‍हें कुछ याद नहीं आता है, क्‍योंकि रिटायरमेंट के बाद उसका प्रायश्‍चित नहीं हो सकता है।

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रचनाकार: उमेश गुप्ता का व्यंग्य : अफसर के रिटायरमेंट का दर्द
उमेश गुप्ता का व्यंग्य : अफसर के रिटायरमेंट का दर्द
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रचनाकार
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