हरी भटनागर की कहानी : दूसरा

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कहानी   दूसरा   हरी भटनागर खण्‍डेलवाल ने दरवाज़ा खोला तो सामने दीना जमादार था। देखते ही वह समझ गया कि फिर कुछ गड़बड़ है, तभी आया...

कहानी

 

दूसरा

 

हरी भटनागर

खण्‍डेलवाल ने दरवाज़ा खोला तो सामने दीना जमादार था। देखते ही वह समझ गया कि फिर कुछ गड़बड़ है, तभी आया है ।

अभी तीन दिन पहले दीना आया था, तब खण्‍डेलवाल किसी से फ़ोन पर बात करने में व्‍यस्‍त था। बाहर अशोक के पेड़ की छाँह में एक अद्धे पर बैठा दीना उसके बाहर निकलने के इंतज़ार में कसमसा रहा था। वह दुबला पतला हड़ीला था। चेहरा काला था, चुचका हुआ लेकिन आँखें चमकदार और बाहर को निकली पड़ती लगती थीं। वह दरवाज़े की तरफ़ रह-रह देखता और बुदबुदाता जाता । मालक कुछ रहम हो जाए, बच्‍चे की जान का मामला है ।

जब खण्‍डेलवाल बाहर निकला, अद्धा छोड़ता वह उसकी ओर सपाटे से लपका और रोते हुए उसने उसके पाँव पकड़ लिए। उसने कहा कि उसका बारह साल का बेटा, मुकेश, बीमार है, दिक में है, मलेरिया हो गया है। डॉक्‍टर ने पर्ची लिखी है। अगर वह ज़रा भी लापरवाह होगा, बच्‍चा हाथ से जा सकता है।

दीना खण्‍डेलवाल का पाँव पकड़े था और सिसकते हुए यह सब बके जा रहा था। खण्‍डेलवाल उसे अपने से दूर करना चाह रहा था, लेकिन ऐसा कर नहीं पा रहा था क्‍योंकि ऐसा करने पर दीना को उसे छूना पड़ेगा और वह उसे छूना नहीं चाह रहा था। दरअसल दीना काफ़ी गंदा था। कई दिनों की खिचड़ी दाढ़ी थी जो उसके काले झुर्रीदार चेहरे पर फैली हुई थी। मूँछें औसत से ज्‍़यादा बेतरतीब बढ़ी हुई थीं। सिर के बाल उलझे, अस्‍त-व्‍यस्‍त थे जो लटिया गए थे। एक गंदी-सी बिना बटन की ढीली-ढाली कमीज़ पहने था जिसकी जेब में गंदा हो चला काग़ज़ ठुँसा था। शायद यह डॉक्‍टर का पर्चा था। नीचे पायजामा था जिस पर पान और तेल के धब्‍बे थे। पैरों में प्‍लास्‍टिक के काले जूते थे जो एडि़यों पर दुचे हुए थे। कुल मिलाकर वह एक गंदे कुत्ते की तरह लग रहा था जो दूर से बू छोड़ रहा था।

यकायक दीना गर्दन झुकाकर खड़ा हो गया। खण्‍डेलवाल ने चैन की साँस ली और दीना को देखने लगा जो छाती पर दोनों हाथ बाँधे था। चेहरे पर रिरियाहट थी जो मदद की गुहार - सी लगा रही थी।

खण्‍डेलवाल ने पलटकर पत्‍नी की तरफ़ देखा जो खिड़की से चेहरा टिकाए खड़ी थी। पत्‍नी का चेहरा एकदम सूखा और चुचका हुआ था। आँखें अंदर को धँसीं। वह बहुत ही गुस्‍सैल औरत थी। बेवजह किसी से उलझ पड़ने में उसे महारत थी। दीना को देखते ही वह समझ गई थी कि यह दुष्‍ट पैसे के लिए ही आया है। आँखें तरेरती जिसका मतलब था, मत दो कुछ हरामखोर को! झूठे बहाने कर रहा है हरामी! यकायक वह सुअरिया की तरह चीख के बोली - पैसे के लिए झूठ क्‍यों बोलता है रे! वह भी बच्‍चे के लिए!!!

दीना आसमान की तरफ़ हाथ उठाता, जोड़ता हुआ बोला - झूठ नहीं बोल रहा हूँ दीदी! बच्‍चा दिक में है, कई दिनों से पानी तक नहीं पिया, विश्‍वास न हो तो चल के देख लें ।

- कौन जाएगा तेरे घर - वह दीवार पर ज़ोरों से थूकते हुए हिकारत से बोली - भगवान न करे, कभी ऐसा दिन आए कि तेरे घर जाना पड़े!!!

खण्‍डेलवाल मोटे-मोटे होंठों में बुदबुदा रहा था कि क्‍या करे, पैसे दे या नहीं? दे भी तो कितने? क्‍योंकि इस पाजी से वापस मिलने की उम्‍मीद नहीं। फिर हो सकता है झूठ बोल कर पैसा ऐंठना चाहता हो, ताड़ी पिए और बच्‍चे की दवा न लाए। खण्‍डेलवाल ने सोचा - भाड़ में जाए, जो भी करे पैसे का, अभी तो पिण्‍ड छुड़ाना ही है किसी तरह, नहीं साला घण्‍टों रे - रे करेगा। यह सोचते हुए उसने पत्‍नी की टोह ली कि वह देख तो नहीं रही है, जब वह नहीं दिखी तो पीठ करके पहले उसने सौ का नोट निकला, फिर सोचा कि नहीं, पचास देना चाहिए, सो पचास का नोट निकाला लेकिन तत्‍काल दिमाग़ में आया कि मरने दो साले को, सौ दे दो, पचास देना ठीक नहीं होगा।

खण्‍डेलवाल ने पत्‍नी से बचाकर चुपचाप दीना की तरफ़ नोट बढ़ाया तो उसने चील - सा झपट्‌टा मारा और नोट को माथे पर लगाते हुए कृतज्ञता ज्ञापित करता पलभर खड़ा रहा हाथ जोड़े फिर तेज़ी से चलता गली में खो गया था।

इस वक्‍़त दीना को देखते ही खण्‍डेलवाल यकायक ग़ुस्‍से में आ गया। लेकिन जब दीना उसके पैरों पर लोट गया और ज़ोरों से रो पड़ा तो उसका ग़ुस्‍सा काफ़ूर था।

दीना कह रहा था कि बेटे की हालत बहुत ख्‍़ाराब है, गिरह में एक पैसा नहीं, आप के सिवा किसका पाँव पकडूँ, दवा न मिलने पर बेटे की जान जा सकती है।

यकायक उसकी पत्‍नी पास आ खड़ी हुई जो तीखी आवाज़ में बोले जा रही थी कि इसे अब एक धेला न देना, हो गई, दानगीरी! ये भिखमंगा तो रोज़ सिर पर चढ़ा रहेगा। खण्‍डेलवाल ने पहले पत्‍नी को प्‍यार से समझाया कि देख ऐसा न बोल, जब वह नहीं मानी तो उसने पत्‍नी को बुरी तरह झिड़क दिया जिससे वह नाराज़ होकर अंदर चली गई।

खण्‍डेलवाल की आँखें यकायक दीना से टकराईं जो रिरियाहट में खड़ा था। उसे गुस्‍सा आया, मन ही मन गंदी गाली देते हुए उसने पूछा - तू इत्तेे घरों में काम करता है, मैं ही अकेला हूँ जो मेरे दरवज्‍जे आया! औरों से भी तो माँग!

चेहरे पर दीनता प्रकट करता दीना बोला - हुजूर, आपमें और दूसरों में फरक है!

- क्‍या फरक है - मैं तिड़का।

वह बोला - हुज़ूर, जिस कुएं में पानी होगा, आदमी वहीं जाएगा, सूखे में कोई भला क्‍यों जाने चला।

- कैसे मान लिया कि दूसरे कुएं सूखे हैं।

बहुत ही सरलता से वह बोला - हुजूर, यह भी कोई बताने की बात है, सब घरों से 20 रुपये महीना बंधा है, लेकिन हुजूर, किसी घर से कभी 20 नहीं मिले, कभी दस, कभी पन्‍द्रह, वह भी रो-झींख कर, कभी किसी ने एक कौर न दिया ऊपर से - ऐसे में हुजूर, क्‍या उम्‍मीद करें कि लोग मदद को खड़े होंगे।

- अच्‍छा सच - सच बतलाना - खण्‍डेलवाल ने पूछा - तेरा बेटा बीमार है? कहीं ऐसा तो नहीं तू मुझे झूठै गच्‍चा दे रहा हो।

दीना ज़मीन छूता बोला - हुजूर, धरती मैया की कसम खाता हूँ जो तनक भी झूठ बोलूँ, बेटा बीमार है। डॉगदर कहता है, मलेरिया लीवर में चला गया है, दवा न ली तो दिमाग में चला जाएगा फिर किसी कीमत में जान बचने वाली नहीं ।

गुस्‍से के बावजूद खण्‍डेलवाल ने पत्‍नी की आहट लेकर चुप्‍पे से पचास का नोट निकाला और उसकी ओर फेंककर मुँह फेर लिया।

लेकिन दीना था कि हाथ जोड़ता, सिर नवाता खण्‍डेलवाल की सलामती की दुआ भगवान से मांग रहा था।

तीन-चार दिन ही बीते होंगे, एक दिन सुबह-सुबह दीना फिर खण्‍डेलवाल के दरवाजे़ पर खड़ा दिखा। इस बार उसके पीछे उसकी घरवाली थी जो पेट से थी।

दिन चढ़े होने की वजह से वह ठीक से चल भी नहीं पा रही थी। डुगरती चली आ रही थी। लगता है, इस बार दीना उसे साथ इसलिए लाया ताकि खण्‍डेलवाल पैसे देने से इनकार न कर सके।

दीना की घरवाली दीना के पीछे आ खड़ी हुई। वह नीचे ज़मीन की तरफ़ देख रही थी जिससे लगता था, कुछ बोलना चाहती हो लेकिन कहने से हिचक रही हो। दीना आँखें तरेर रहा था जैसे कह रहा हो - तुझे हँकाकर इसलिए लाया कि तू साहब के पैरों पर गिरे और पैसे माँगे लेकिन तू है कुत्ती मुझे उल्‍टे फँसा रही है। पैरों पर गिर नहीं, बो लात मारूँगा, झुग्‍गी में गिरेगी सीधे।

खण्‍डेलवाल की पत्‍नी यकायक झाडू पर कूड़ा रखे निकली। अंदर से ही उसने मामला ताड़ लिया था और दाँत पीस रही थी, इसीलिए कूड़ा फेंकने का नाटक किया। सामने दोनों को देखा तो आग हो गई। जानती थी घरवाला उसकी सुनने वाला नहीं इसलिए तमकती हुई गली में कूड़ा फेंककर ज़ोर से दरवाज़ा ठेलती अंदर चली गई बड़बड़ाती हुई - लुटा दे घर मुझे क्‍या? तू जान और तेरा काम!

खण्‍डेलवाल को पत्‍नी का यह रवैया ख्‍़ाराब लगा। गहरी साँस छोड़कर उसने बात को टालते हुए दीना से सहजता से पूछा - कैसी तबियत है बेटे की?

दीना की आँखों में आँसू तैरते दिखे। रोने-रोने को हो आया। बोल नहीं फूटे। हाथ छाती पर जुड़े हुए थे।

यकायक गीली आवाज़ में उसकी घरवाली बोली - हुजूर, तबियत तो फिसलती दीखती है। जित्ते पैसे आपसे मिले उत्ते की दवा दे दी, अब दो दिन से दवा नहीं दी है, पैसे ही नहीं हैं! डागदर ने बोला था दवा में चूक न करना। हुजूर, बताओ क्‍या करें? - वह रोने लगी।

खण्‍डेलवाल ने चौखट पर बैठते हुए पूछा - डॉक्‍टर के पास कब गई थी?

- मालिक, डागदर तो सीधे मूँ बात नहीं कर रहा है - उसने डॉक्‍टर को गन्‍दी सी गाली दी - भाडू को पहले पैसे चहिए कफ़न के, फिर बात करेगा।

खण्‍डेलवाल बुरी तरह सिर खुजलाता जैसे किसी तरह उनसे बचना चाह रहा हो, बोला - भई, तुम्‍हें कित्ती बार पैसे दे चुके, अब मेरा पिण्‍ड छोड़ो, मेरे पास गिनी बोटियां, नपा शोरबा है, इत्ता थोड़े हैं कि खैरात बांटते फिरें!!!

- मालक, इस बार दे दें आगे से मूँ नहीं दिखाएंगे - दीना उसके पांव पर सिर टिकाता बोला।

खण्‍डेलवाल को रहम आ गया, उसने जेब में हाथ डाला कि पत्‍नी चीखी - मैं कहती हूँ पैसे न दे, मुझसे छिपाकर तुम पहले दे चुके हो। तुम मानते क्‍यों नहीं, ये हरामखोर, नीच लोग हैं, रोज ऐसे आ खड़े होंगे।

खण्‍डेलवाल ने माथा सिकोड़ा - ये रांड़ तो और बम्‍बू किये है - ज़ोरों से तिड़क कर बोला - तुझसे कौन पूछता है, तू चुप रह, नहीं लातें लगाऊँगा।

- लगा लात, देखूं तो तेरी लात! - औरत चीखी।

खण्‍डेलवाल की आँखों में आग थी - तू चुप क्‍यों नहीं लगाती, काहे बीच में झूमती है कमीन!

- बीच में क्‍यों न झूमूं, घर - गृहस्‍थी तो हमें झीख - झीख के चलानी पड़ती है!

- तू ऐसे नहीं मानेगी - खण्‍डेलवाल गुस्‍से में उठ खड़ा हुआ तो औरत रसोईघर में घुस गई यह कहते - सही बात कहो तो मारने की धमकी देता है, नीच, कमीन, मुँहजला, हरामी ।

खण्‍डेलवाल भी गालियाँ देने लगा औरत को। इसी रौ में उसने जेब में हाथ डाला, दस-बीस के जितने भी नोट हाथ लगे दीना की तरफ़ ज़मीन पर फेंकता बोला - मुझे जो करना है करूँगा, तू बकबका रांड़ कहीं की। सहसा वह दीना से फाड़खाऊ अंदाज में ज़ोरों से चीखकर बोला - ले भाग, आगे से दिखा तो ख़ैर नहीं।

ज़मीन पर नोट हवा के बहाव से उड़ने को हुए कि दीना की घरवाली ने किसी तरह झुककर कांखते हुए नोट उठाए और खण्‍डेलवाल की तरफ़ कृतज्ञता से हाथ जोड़े।

पत्‍नी की बात से आहत दोनों हाथों से सिर थामे खण्‍डेलवाल आँखें मूंदे था, थोड़ी देर बाद जब उसने खोलीं, दोनों कूड़े का बदबूदार ढेर पार करते पहाडि़या पर चढ़ रहे थे जहाँ उनका झोपड़ा था।

तीन-चार दिन ही गुज़रे होंगे, खण्‍डेलवाल रात को खाना खाकर बाहर टहल रहा था, उसकी घरवाली ड्‌योढ़ी पर बैठी पंखा झल रही थी और गरमी को बेतरह कोस रही थी कि पहाडि़या की तरफ़ ज़ोरों का शोर उठा जैसे कोई हादसा हो गया हो। ज़ोर - ज़ोर से रोने की आवाज़ें आ रही थीं।

खण्‍डेलवाल के प्राण नहों में समा गए। जिस बात का भय था, वह अनहोनी हो गई लगती थी। थोड़ी देर तक वह सूने रास्‍ते को देखता खड़ा रहा। दीना और उसकी घरवाली के लाचार चेहरे उसकी आँखों के आगे तैर गए।

विलाप का स्‍वर जब और तेज़ हो गया, तो खण्‍डेलवाल पत्‍नी के लाख विरोध के बाद भी अपने को रोक नहीं पाया। सूने अँधेरे रास्‍ते पर विलाप की आवाज़ को पकड़ता वह पहाडि़या की ओर बढ़ा।

पहाडि़या पर बीसेक झुग्‍गियाँ थीं जो एक - दूसरे के कंधों से कसी अर्धवृत्ताकार रूप में खड़ी थीं। जैसी जर्जर हालत झुग्‍गियों की थी, वैसी उनके रहवासियों की भी थी। सभी के तन पर फटे चीथड़े थे। झुग्‍गियों की तकरीबन ऐसी ही हालत थी। काली - नीली पन्‍नियाँ किसी तरह झुग्‍गियों को धूप-बारिश से बचाए हुए थीं।

झुग्‍गियों में ज्‍़यादातर जमादार, राजगीर, मज़दूर, रिक्‍शेवान, भटसुअर चलाने वाले ड्राइवर और क्‍लीनर रहते थे।

इस वक्‍़त झुग्‍गियों में अंधेरा था। बिजली गोल थी। कुछ ही पलों में खण्‍डेलवाल उस झुग्‍गी के पास किसी तरह संभलता आ खड़ा हुआ जहाँ पिट्‌टस पड़ी थी। यह दीना था जो ज़ोर-ज़ोर से छाती पीटता हुआ रो रहा था। अँधेरे के बावजूद खण्‍डेलवाल दीना की आवाज़ पहचान रहा था। यह दीना की घरवाली थी जो पछाड़े खा रही थी। पड़ोस के लोग उन्‍हें सँभालने में लगे थे।

ज़ाहिर था दीना का बेटा गुज़र गया था।

चारों तरफ़ घना अँधेरा फैला था। हाथ को हाथ न सूझता था जो रोने-पीटने की आवाज़ को और भी घना कर रहा था। आसमान में डुप-डुप तारे थे जो मृत्‍यु को अपनी उजास से दीप्‍त कर रहे थे। लगता था, वे अकेले मृत्‍यु के साक्षी और सौंदर्यपारखी हैं।

जब एक कुत्ता खण्‍डेलवाल के बग़ल में ज़ोरों से रोया, उसी वक्‍़त बेतरह रोता हुआ दीना खण्‍डेलवाल के पास आया। घने अँधेरे में भी उसने खण्‍डेलवाल को चीन्‍ह लिया था। रोते हुए वह खण्‍डेलवाल से बोला - मालक, बेटा चला गया! - टीसते दर्द को यकायक छाती में घोंटता हुआ-सा वह पलभर को चुप हो गया। नीचे देखने लगा और कलक में गर्दन हिलाता रहा। रह-रह यह सोचते कि भगवान ने उसके साथ कैसी बेइन्‍साफी की है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता!!! यकायक उसे लगा कि खण्‍डेलवाल सिसक रहा है और उसके दुःख में ग़मगीन है। कैसा भला आदमी है, सचमुच देवता, नहीं आज कोई किसी को पहचानता नहीं! यह बेचारा दुःख पड़ते ही अँधेरे में भी उस तक चला आया।

खण्‍डेलवाल को वह सांत्‍वना देने के अंदाज़ में बोला - आप दुखी न हों सरकार! कत्तई दुखी न हों मालक! हमारी कि़स्‍मत ही ख़राब है! - दीना खण्‍डेलवाल की छाती पर हाथ फेरने लगा - जैसे यह दुख सचमुच उसका अपना नहीं, खण्‍डेलवाल का हो - वह आगे बोलता गया - आप मत रो मालक, मत रो! भगवान्‌ को बेटे का जीना मंजूर न था, इसलिए छीना। लेकिन मालक, भगवान ने एक छीना तो दूसरा कोख में दे दिया! सहसा वह ज़ोरों से हँसा - भगवान की लीला कित्ती अपरंपार है! कोख का बच्‍चा आजकल में जन जाएगा हुजूर, और हमारा दिल कहता है भगवान यह बच्‍चा अब हमसे कभी नहीं छीनेगा!!! कब्‍भी नहीं छीनेगा!!!

दीना के इस कथन पर एक क्षण को विलाप थम-सा गया।

खण्‍डेलवाल चकित हो उसे देख रहा था।

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COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बहुत अच्छा लगा पढ़ कर...अपने आप में ये बहुत कुछ कहता है...

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: हरी भटनागर की कहानी : दूसरा
हरी भटनागर की कहानी : दूसरा
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